सम्पादकीय

फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

भारतीय फ़ासीवाद का मौजूदा अस्तित्व रूप यानी मोदी लहर, गिरावट के प्रथम लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। लोग नाराज़ हैं, असन्तुष्ट हैं और क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के लिए तैयार हैं। साथ ही, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों में भी रणकौशलात्मक भागीदारी करनी चाहिए और सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि समूची फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को चुनावी रणनीति पर अपचयित नहीं कर दिया जाना चाहिए। यह न सिर्फ़ नुक़सानदेह होगा, बल्कि आत्मघाती होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा स्थापित करना और जनसमुदायों के बीच मज़बूत सामाजिक आधार का निर्माण आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष दो महत्वपूर्ण और तात्कालिक कार्यभार हैं। आगे हम किस हद तक सफल होंगे, यह इस बात पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों कार्यभारों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं। read more

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव - लेख श्रृंखला

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पाँचवीं किस्त)

बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवादी प्रयोगों के बारे में इतिहास-लेखन को कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। एक श्रेणी सोवियत समाजवादी प्रयोगों के जारी रहने के दौरान लिखे गये बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के तत्कालीन विवरणों की है, जिसमें स्तुलोव जैसे इतिहासकारों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन से लेकर बोल्शेविक क्रान्ति के साक्षी या उसमें हिस्सेदारी करने वाले बोल्शेविकों द्वारा लिखे गये इतिहास व संस्मरण आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी उन तत्कालीन ग़ैर-बोल्शेविक प्रेक्षकों के इतिहास-लेखन, रिपोर्ताज व संस्मरणों की है, जिनमें मेंशेविकों से लेकर समाजवादी-क्रान्तिकारियों और अराजकतावादियों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन व संस्मरणों को शामिल किया जा सकता है, जैसे कि सुखानोव, मिल्युकोव आदि द्वारा लिखित विवरण। तीसरी श्रेणी तमाम ऐसे मार्क्सवादी अध्येताओं की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और जो वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के पहले और बाद के दौर के साक्षी रहे, जिनमें मॉरिस डॉब, चार्ल्स बेतेलहाइम, पॉल स्वीज़ी आदि को शामिल किया जा सकता है। और चौथी श्रेणी उन इतिहासकारों की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और ग़ैर-मार्क्सवादी थे, जिसमें कि चैम्बरलेन, ई.एच. कार, इज़ाक डॉइशर, मार्क फेरो व अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच जैसे अध्येताओं को शामिल किया जा सकता है।

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नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक - लेख श्रृंखला

नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (चौथी किस्त)

चारु एक निश्चित सीमा तक जनता की लामबन्दी के बाद छापामार युद्ध की शुरुआत की जगह छापामार युद्ध को ही जनता को लामबन्द करने का एकमात्र रास्ता मानते थे और छापामार युद्ध का उनके लिए मतलब था, गुप्त दस्तों द्वारा वर्ग शत्रुओं का सफ़ाया। माओ ने दीर्घकालिक लोकयुद्ध के बारे में लिखते हुए यह स्पष्ट बताया था कि बुर्जुआ वर्ग के सफ़ाये (एनिहिलेशन) का मतलब यह नहीं है कि उसका शारीरिक तौर पर सफ़ाया कर दिया जायेेगा, बल्कि इसका मतलब यह है कि एक वर्ग के रूप में उसका सफ़ाया कर दिया जायेेगा। उन्होंने यह भी कहा था कि शत्रु को तबाह कर देने का मतलब है उसे निश्शस्त्र कर देना और प्रतिरोध करने की ताक़त से वंचित कर देना (सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड पाँच, पृ. 504, और सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड दो, पृ. 156)। माओ ने यह ज़रूर कहा था कि हर काउण्टी में किसानों और ग़रीबों पर बर्बर ज़ुल्म ढाने वाले कुछ भूस्वामी और प्रतिक्रियावादी होते हैं। शत्रुओं को दबाने के लिए इनमें से सर्वाधिक ज़ालिम कुछ लोगों को मृत्युदण्ड दिया जा सकता है, लेकिन अन्धाधुन्ध हत्या सख़्ती से वर्जित है, हत्याएँ जितनी कम हों उतना बेहतर read more

फासीवाद

राजसमन्द हत्याकाण्ड और भारतीय फ़ासीवाद का चरित्र

राजसमन्द हत्याकाण्ड फ़ासीवाद द्वारा समाज के पोर-पोर में घिनौने तरीक़ों से फैलाये जा रहे ज़हर की बस एक और ताक़ीद है। खुलेआम हिंसा और आतंक का इस्तेमाल फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा हर तरह के प्रतिरोध को शांत कराने और आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के लिए किया जाता है। फ़ासीवाद सत्ता में हो या सत्ता से बाहर हो, हर-हमेशा ही यह बड़ी पूँजी के लिए ‘अनौपचारिक राज्य-सत्ता’ के तौर पर काम करता रहा है। जो उदारवादी-शान्तिवादी तर्क, संवैधानिक तन्त्र और जनवाद (असल में बुर्जुआ जनवाद) की विफलता पर विधवा-विलाप कर रहा है, और जो मौज़ूदा राजनीतिक-वैचारिक व्यवस्था की बर्बरता से सदमे में है, वह अपने आँसुओं की धारा में इस बर्बरता, यानी कि फ़ासीवाद, के उदय के पीछे के कारणों और सम्बन्धों को देख पाने में असमर्थ है। read more

साम्राज्यवाद

आज के साम्राज्यवाद पर लखनऊ में आयोजित छठी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

आज साम्राज्यवाद के शोषण से एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों की जनता तबाह है और कर्ज़ों के बोझ से दबी हुई है। एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देश राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हैं, परन्तु इन देशों का बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवाद के ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका अदा करता है और इन देशों के मेहनतकश वर्ग को लूटता है। ख़ासकर मध्य-पूर्व का क्षेत्र अमेरिका की साम्राज्यवादी आक्रामकता का केन्द्र और विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों की होड़ का अखाड़ा बना हुआ है। इन देशों की जनता पिछले कई दशकों से युद्ध की विभीषिका झेल रही है। दुनिया के कई अन्य देशों में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और दबाव ने वहाँ की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है। लगातार जारी वैश्विक आर्थिक संकट ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। साम्राज्यवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने तथा इसके प्रतिरोध की रणनीतियों पर आज दुनिया भर में विचार-मन्थन जारी है। read more

जाति-प्रश्न

मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन

नीचे के तीन वर्गों का गुस्सा ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता के ख़ि‍लाफ़ लम्बे समय से संचित हो रहा है। इस गुस्से का निशाना मराठा जातियों की नुमाइन्दगी करने वाली प्रमुख पार्टियाँ बन सकती हैं, जो कि वास्तव में मराठों के बीच मौजूद अतिधनाढ्य वर्गों की नुमाइन्दगी करता है। यह वर्ग अन्तरविरोध अपने आपको इस रूप में अभिव्यक्त करने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता है। लेकिन यह सम्भावना-सम्पन्नता स्वत: एक यथार्थ में तब्दील हो, इसकी गुंजाइश कम है। ग़रीब मेहनतकश मराठा आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद की सोच उनमें भी अलग-अलग मात्रा में मौजूद है। ऐसे में, मराठों के बीच मौजूद जो शासक वर्ग है और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली मराठा पहचान की राजनीति करने वाली बुर्जुआ पार्टियाँ मराठा जातियों के व्यापक मेहनतकश वर्ग के वर्गीय गुस्से को एक जातिगत स्वरूप दे सकती हैं और देती रही हैं। read more