आज के समय में कम्युनिस्ट घोषणापत्र: आज भी सही, आज भी खतरनाक, आज भी नाउम्मीदों की उम्मीद

आज के समय में कम्युनिस्ट घोषणापत्र: आज भी सही, आज भी खतरनाक, आज भी नाउम्मीदों की उम्मीद

  • रेमण्ड लोट्टा
रेमण्ड लोट्टा

रेमण्ड लोट्टा

कम्युनिस्ट घोषणापत्र से मेरा प्रथम परिचय 1960 के दशक के अन्तिम वर्षों में हुआ था। उस समय मैं उग्रपरिवर्तनवादी (रैडिकल) विचारों का छात्र था और मेरी पीढ़ी मार्क्स और मार्क्सवाद की खोज कर रही थी। मैं यह स्वीकार करूंगा कि उस समय मैं इसे पूरी तरह समझ नहीं पाया था। लेकिन, मुझे इतना जरूर याद है कि मैं दो चीजों से बेहद प्रभावित हुआ था – कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने इतिहास का एक विराट दृश्यपटल मेरे सामने उपस्थित किया और इसमें न केवल अतीत का विश्लेषण था वरन् यह उस भविष्य के बारे में भी बात करता था, समाज जिस दिशा में अग्रसर है। घोषणापत्र का यह दो टूक नजरिया बेहद प्रभावशाली था। यह वाक्यांश मेरी स्मृतियों में बैठा हुआ है – ‘‘परिवार और शिक्षा के बारे में बुर्जुआ वर्ग का गला फाड़कर चिल्लाना।’’ मैं उस समय 19 वर्ष का था और मुझे यह बहुत भाया। और मार्क्स उस समय सिर्फ 29 वर्ष के थे, जब उन्होंने इसे लिखा।

एक दस्तावेज जिसने इतिहास को बदल डाला

यह मध्य-फरवरी 1848 की बात है, जब इस युवा क्रान्तिकारी आन्दोलनकर्ता, कार्ल मार्क्स ने एक महत्वपूर्ण पुस्तिका का अन्तिम प्रारूप तैयार किया। एक छोटे से क्रान्तिकारी समूह द्वारा उन्हें और उनके सहकर्मी फ्रेडरिक एंगेल्स को एक राजनीतिक दस्तावेज तैयार करने का जिम्मा सौंपा गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि विभिन्न देशों के क्रान्तिकारियों का एकीकरण और मार्गदर्शन हो सके और जनसमुदाय को एकजुट किया जा सके।

आप जानते हैं कि 1830 और 1840 के दशक यूरोप में उथल-पुथल के वर्ष थे। इस महाद्वीप के पुराने साम्राज्य और निरंकुश राज्य अपना अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रहे थे। असन्तोष और विरोध बढ़ता जा रहा था। उसी दौर में, शोषण के कारखानों और औद्योगिक मलिन बस्तियों के साथ पूंजीवाद का नया कारखाना तंत्र भी फैलता जा रहा था। इंग्लैण्ड में यह अपनी जकड़ मजबूत बना चुका था और फ्रांस एवं जर्मनी में इसकी शुरुआत हो गयी थी। किसान जगह-जमीन से उजड़ते जा रहे थे। श्रमजीवियों का एक नया वर्ग, सर्वहारा वर्ग विकसित हो रहा था… और साथ ही उसकी बगावती चेतना भी विकसित हो रही थी।

इन परिस्थितियों में इस दस्तावेज को छपवाना अत्यावश्यक हो गया था। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स ने पहले प्रारूप पर, जो धर्मोपदेशों की भांति प्रश्नोत्तरी के रूप में लिखा गया था, स्वीकृति की मुहर लगाने से इन्कार कर दिया था। ऐसे में, एंगेल्स ने स्वयं और मार्क्स को इसका पुनर्लेखन करने के लिए प्रस्तुत किया। उन्होंने मार्क्स को लिखा कि ‘‘मेरे ख्याल से सर्वोत्तम बात यह होगी कि इसके प्रश्नोत्तरी रूप से पिण्ड छुड़ा लिया जाये और इसका शीर्षक दिया जाये-कम्युनिस्ट घोषणापत्र।’’

और इस तरह मार्क्स ने सर्वकालिक महत्व के घोषणापत्र की रचना की। यह अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का एक स्वप्नदर्शी आधारभूत दस्तावेज था। यह इस चीज का एक संक्षिप्त निरूपण है कि इतिहास का निर्माण वास्तव में किस प्रकार हुआ है – यह कि इतिहास महान व्यक्तियों के कारनामों, या ईश्वर की इच्छा या महज दुर्घटनाओं की एक श्रृंखला का परिणाम नहीं है। नहीं, इतिहास विभिन्न सामाजिक समूहों या वर्गों के संघर्षों से बनता है और इस वर्गसंघर्ष की जड़ें समाज की आर्थिक बुनियाद में निहित हैं। कम्युनिस्ट घोषणापत्र सर्वहारा क्रान्ति के उद्देश्यों और लक्ष्यों का सर्वप्रथम और संक्षिप्ततम सूत्रीकरण भी है। और इस सैद्धान्तिक कृति में कविता और भावावेगों की अनुगूंजे भी सुनायी देती हैं।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र ने इतिहास के मार्ग को बदल दिया है। सम्भवतः यह अब तक लिखा गया सर्वाधिक प्रभावकारी राजनीतिक दस्तावेज है, जिसे दुनिया भर में करोड़ों-करोड़ लोग पढ़ते हैं। यह आज भी एक गैरकानूनी पुस्तक मानी जाती है। तीन साल पहले जब मैं फिलिप्पीन्स में था, दो किसान क्रान्तिकारियों ने मुझे बताया कि वे किस तरह बच-बचाकर मार्क्स की किताबें ले आते थे और उन्हें खेतों में छुपा देते थे।

कम्युनिस्ट घोषणापत्र के साथ हमेशा कुछ खतरनाक चीजें जुड़ी हुई हैं। पुस्तक की शुरुआत इन प्रसिद्ध पंक्तियों से होती है – ‘‘समूचे यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है – कम्युनिज्म का भूत।’’ उसमें शासक वर्गों को लक्षित व्यंग्य बाण और कटारें हैं। ‘‘निजी स्वामित्व का अन्त कर देने के हमारे इरादे से आपके रोंगटे खड़े हो जाते हैं। लेकिन आपके मौजूदा समाज में दस में से नौ आदमियों के लिए निजी सम्पत्ति का पहले ही खात्मा हो चुका है; चन्द लोगों के पास अगर निजी सम्पत्ति है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि दस में से उन नौ लोगों के पास वह नहीं है।… आपका आरोप यह है कि हम आपके स्वामित्व का अन्त कर देना चाहते हैं। बिल्कुल यही बात है; हम ठीक यही करने की मंशा रखते हैं।’’ और यह अपने इस प्रसिद्ध आह्वान के साथ समाप्त होता है – ‘‘सर्वहारा के पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं है। उसके पास जीतने के लिए समूचा विश्व है।’’

हम आज बीसवीं सदी के अन्त पर खड़े हैं। इस बीतती सदी में उत्पीड़ित जन महान संघर्षों में उठ खड़े हुए हैं। हमने बोल्शेविक और चीनी क्रान्तियों को सत्तासीन होते और नये समाज की रचना करते देखा है। लेकिन ये दोनों क्रान्तियां नयी पूंजीवादी ताकतों द्वारा धूल में मिला दी गयीं। निश्चित रूप से विश्व पूंजीवाद की उम्र मार्क्स के अनुमान से कहीं ज्यादा निकली। हम लगातार जारी बुर्जुआ वर्ग की इस वैचारिक गोलाबारी से घिरे हुए हैं कि कम्युनिज्म असफल है, एक अव्यावहारिक यूटोपिया है जो दुःस्वप्न में बदल गया है। वे हमें इस बात पर विश्वास दिलाना चाहते हैं किकृपूंजीवाद ही वह सर्वोत्तम चीज है जिसे हासिल किया जा सकता है। ‘‘लालच और असमानता जिन्दाबाद।’’

तो क्या कम्युनिस्ट घोषणापत्र हमारे लिए आज भी प्रासंगिक है? हां, यह है। यह पूंजीवादी समाज के अपने विश्लेषण के द्वारा आज भी प्रासंगिक है। वर्गों से रहित विश्व के स्वप्न के द्वारा यह आज भी प्रासंगिक है। इस सदी में सर्वहारा क्रान्ति के वास्तविक अनुभव के जरिए यह आज भी प्रासंगिक है – इस रूप में कि क्या पूरा किया जा चुका है और इस रूप में कि इस व्यवस्था का नाश करने के लिए इन अनुभवों से सीखते हुए क्या किया जाना बाकी है। हमारे लिए यह आज भी प्रासंगिक है क्योंकि अगली सहस्राब्दी की दहलीज पर मानव समाज क्रान्ति से कम किसी चीज द्वारा आगे नहीं बढ़ सकता।

बुर्जुआ वर्ग के उद्भव और उसके मिशन के बारे में मार्क्स के विचार

जैसा कि मैं इंगित कर चुका हूं कि कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मुख्यतः दो बातें हैं। विशेष रूप से, यह वर्ग समाज और वर्ग संघर्ष का और पूंजीवादी समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण है और साथ ही यह स्वप्न है कि कौन सी चीज इसका स्थान लेगी। मैं घोषणापत्र में मौजूद पूंजीवादी समाज के विश्लेषण से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं। मार्क्स पूंजीवाद की छानबीन ऐतिहासिक भौतिकवादी परिप्रेक्ष्य में करते हैं। और इसके अनेक अर्थ हैं।

सर्वप्रथम, इसका अर्थ यह है कि पूंजीवाद शाश्वत नहीं है। पूंजीवाद सामाजिक उत्पादन का एक ऐतिहासिक रूप है। इसके उद्भव का एक इतिहास रहा है। सोलहवीं सदी में, पूंजीवाद के भावी विकास की परिस्थितियां अस्तित्व में आ रही थीं। और पूंजीवाद का अन्त भी सुनिश्चित है। पूंजीवाद मानव समाज के विकास की एक निश्चित मंजिल में उभरकर सामने आया है। सामन्ती समाज में उत्पादक शक्तियां विकसित हो रही थीं और इसके साथ ही बुर्जुआ वर्ग के रूप में एक नया वर्ग भी विकसित हो रहा था। उत्पादक शक्तियों से मेरा तात्पर्य औजारों, उपकरणों, कच्चे मालों और स्वयं जनता से है। अब बुर्जुआ वर्ग इन उत्पादक शक्तियों के उपयोग और उत्पादन के संगठन के नये तरीकों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। लेकिन उत्पादन के ये नये सम्बन्ध उत्पादन के पुराने सामन्ती सम्बन्धों से घिरे हुए थे।

उत्पादन के सम्बन्धों से मेरा तात्पर्य उत्पादन के साधनों के साथ समाज के विभिन्न समूहों के सम्बन्धों से है – कौन उनका स्वामी है और नियंत्रित करता है; उत्पादन की प्रक्रिया के दौरान लोगों द्वारा निभायी जाने वाली विभिन्न भूमिकाएं; और समाज के इन विभिन्न समूहों द्वारा उत्पादित सम्पदा का किस अनुपात में वितरण होता है। वर्ग समाज में ये विभिन्न सामाजिक समूह और सम्बन्ध वर्ग और वर्गसम्बन्ध होते हैं।

कृषि की सामन्ती जागीरदारी और हस्तशिल्प उत्पादन की गिल्ड व्यवस्था इस बुर्जुआ वर्ग को बाजारों का विकास करने और उत्पादन के नये उपकरणों और नयी विधियों का उपयोग करने में बाधक थी। इसलिए बुर्जुआ वर्ग के लिए सामन्ती शासन को उखाड़ फेंकना और अपनी राज्यसत्ता एवं सामाजिक व्यवस्था को कायम करना लाजिमी था।

कार्ल मार्क्स पूंजीवाद से घृणा करते थे। उन्होंने लिखा कि ‘‘दुनिया में पूंजी नस-नस से खून चूसकर आती है।’’ लेकिन ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचाया कि बुर्जुआ वर्ग को एक वस्तुगत ऐतिहासिक मिशन को पूरा करना है। वह मिशन है – उत्पादक शक्तियों को गुणात्मक रूप से नये तरीके से विकसित करना।

बुर्जुआ वर्ग ने उत्पादन के निजी साधनों को-जैसे छोटे दस्तकारों के औजारों को उत्पादन के सामाजिक साधनों में – जैसे मशीन औजार, असेम्बली लाइन और इसी प्रकार अन्य साधनों में – बदल डाला, जो लोगों की बड़ी संख्या द्वारा ही उपयोग में लाये जा सकते हैं। यह सामाजिक उत्पादन की व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें उत्पाद किसी एक या थोड़े-से लोगों के प्रयासों का फल नहीं होते बल्कि बहुत-से लोगों के व्यापक और अन्तर-निर्भर गतिविधियों के परिणाम होते हैं। एक कार और इसके उत्पादन में लगी सभी चीजों के बारे में सोचिए। किसी दस्तकार या किसान की भांति कोई स्कूटर या कार बनाने वाला मजदूर यह नहीं कहेगा कि ‘‘इसे मैंने बनाया’’-यह तो हजारों लोगों का सामूहिक उत्पाद है।

लेकिन पूंजीवाद के अन्तर्गत उत्पादन किसलिए होता है और किसके लिए होता है? यह मुनाफे और मुनाफा बढ़ाते ही जाने के लिए होता है। यह उत्पादन बुर्जुआ वर्ग के वर्गहितों की सेवा के लिए होता है – उनके लिए जो उत्पादन के साधनों के मालिक होते हैं। और यह मुनाफा आता कहां से है? यह सर्वहारा वर्ग के शोषण से आता है, सर्वहाराओं का वह वर्ग जिसके पास अपनी श्रमशक्ति बेचने के सिवा कुछ नहीं होता।

पूंजीवाद गतिशील है। यह कम्युनिस्ट घोषणापत्र की प्रमुख विषयवस्तु है। पूंजीवाद अपने विस्तार और नयी-नयी चीजें पैदा करने के लिए प्रतियोगिता की शक्ति से चालित होता है। बुर्जुआ वर्ग के बारे में घोषणापत्र यह बात कहता है – ‘‘अपने मुश्किल से सौ साल के शासनकाल में बुर्जुआ वर्ग ने उससे अधिक शक्तिशाली और प्रचण्ड उत्पादक शक्तियां उत्पन्न कर दी हैं कि जितनी पिछली तमाम पीढ़ियों ने मिलकर नहीं की थीं।’’ मार्क्स यहां इस्पात मिलों, बिजली, वाष्पचालित जहाजरानी और रेलवे की चर्चा कर रहे हैं।

पूंजीवाद अनवरत गतिमान और रूपान्तरणशील होता है। मार्क्स कहते हैं – ‘‘उत्पादन का निरन्तर क्रान्तिकारीकरण, सभी सामाजिक अवस्थाओं में लगातार उथल-पुथल, चिरन्तन अनिश्चितता और हलचल-ये चीजें बुर्जुआ वर्ग को सभी पूर्ववर्ती युगों से अलग करती हैं।’’ लोग एक साथ कारखानों और शहरों में फेंक दिये जाते हैं। और पूंजीवाद मानवीय सम्बन्धों को नग्न स्वार्थों और आना-पाई के हिसाब-किताब में तार-तार कर देता है – मैं किस चीज का मालिक हूं, मेरा मोल क्या है, तुम्हारा मोल क्या है?

पूंजीवाद राष्ट्रों की सीमाओं को तोड़ देता है और उसके रास्ते में अड़ंगा डालने वाली हर चीज को चकनाचूर कर देता है। मार्क्स ने यह बात इस ढंग से कही है – ‘‘अपने उत्पादों के लिए निरन्तर विस्तारमान बाजार की जरूरत बुर्जुआओं का दुनिया भर में पीछा करती है।’’ जब मार्क्स यह लिख रहे थे तो इंग्लैण्ड भारत को बर्बरतापूर्वक लूट रहा था और उसे अपना उपनिवेश बना रहा था और चीन को बन्दूक की नोंक पर जबरिया अपने व्यापारिक-तंत्र के अधीन ला रहा था। माल उत्पादन जिसमें व्यवहारतः हर उत्पादन विनिमय के लिए होता है, समूचे विश्व में फैल रहा था। और ऐसा करते हुए पूंजीवाद समूची आबादी को अपनी चपेट में ले रहा था और नये सर्वहाराओं को पैदा कर रहा था और उनका शोषण कर रहा था।

मार्क्स विश्लेषित करते हैं कि पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया किस प्रकार उत्पादन के साधनों को कुछ थोड़े से लोगों के हाथों में संकेन्द्रित करती जाती है। यह ऐसी प्रक्रिया है जिसके तहत समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता जाता है – एक तरफ समृद्धि तो दूसरी तरफ हाड़तोड़ मेहनत, गरीबी और बर्बादी। इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रान्ति कारखानों के भीतर भीषण जकड़बन्दी, चौदह घण्टे कार्य दिवस और बाल श्रम पर आश्रित थी और इसने शहरी झुग्गी-झोपड़ियों को बीमारी और कुपोषण के जबड़े में जकड़ लिया था। पूंजीवाद के अन्तर्गत मजदूर मशीन का विस्तार बन गये और उन्हें तभी तक काम मिलता था जबतक वे पूंजी के विस्तार में मदद करते थे।

1825 में, पूंजीवादी विश्व पहले बड़े आर्थिक संकट से डांवाडोल हो उठा। पहली बार, करोड़ों लोग इसलिए नहीं भूख की चपेट में आ गये कि उन्होंने कम उत्पादन किया था बल्कि इसलिए कि उन्होंने ज्यादा उत्पादन कर दिया था – इतना अधिक उत्पादन कि उसे बेचा नहीं जा सकता था, उत्पादन के इतने अधिक साधन हो गये कि उन्हें मुनाफा कमाने के उपयोग में नहीं लाया जा सकता था। पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के साथ-इन उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व के खिलाफ नयी और विशाल उत्पादक शक्तियों की यह पहली बगावत थी।

पूंजीवाद उत्पादन का एक अराजक तंत्र है। समाज के पैमाने पर उत्पादन का कोई सचेतन तालमेल नहीं होता। स्टील का उत्पादन कितना हुआ, कितनी बिल्डिंगे खड़ी हुईं-यह सब किसी युक्तिसंगत योजना के तहत निश्चित नहीं किया जाता। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में इस अविश्वसनीय-सी लगने वाली चीज की छवि उतारी गयी है। मार्क्स कहते हैं: ‘‘वह समाज जिसने तिलिस्म जैसे ऐसे विराट उत्पादन तथा विनिमय साधनों का सृजन किया है, ऐसे जादूगर की तरह है, जिसने अपने जादू से पाताल लोक की शक्तियों को बुला तो लिया है, पर अब उन्हें वश में रखने में असमर्थ है।’’ और घोषणापत्र में मार्क्स एक अन्य ऐतिहासिक भौतिकवादी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। पूंजीवाद अपनी उपयोगिता पूरी कर चुका है। बुर्जुआ वर्ग शासन करने में अक्षम हो गया है।

आज का पूंजीवाद

आज हम यहां 1998 में खड़े हैं। क्या यह विश्लेषण आज की दुनिया के लिए अर्थवान है?

इन 150 वर्षों में पूंजीवाद विस्तारित होता गया है और अधिकाधिक संकेन्द्रित होता गया है। नयी-नयी तकनीकों और उद्योगों द्वारा, जिन्होंने पूरी दुनिया को अपने आगोश में ले लिया है, इसने अपना प्रभाव-विस्तार किया है। पूंजी संचय ने मानव इतिहास में मानव श्रम की उत्पादकता में तीव्रतम विकास किया है। उत्पादक तकनीकें भाप संचालित यांत्रिक करघों से आगे बढ़कर औद्योगिक रोबोटों तक जा पहुंची हैं। मानवता को पाल जहाज का आविष्कार करने में एक लाख वर्ष लगे; वाष्प चालित पोत का आविष्कार करने में महज पांच हजार वर्ष लगे लेकिन अन्तरिक्ष यान का आविष्कार करने में महज 100 वर्ष लगे। पूंजीवाद आज विशाल पैमाने पर भूमण्डलीकृत हो चुका है। इसने श्रम का नया भूमण्डलीय विभाजन पैदा किया है। एक जोड़ी नाइक कम्पनी के जूते का उदाहरण लीजिएः इसका बाहरी चमड़ा ब्राजील और आस्टेªलिया में उत्पादित होता है, रबर के तल्ले थाईलैण्ड में बनते हैं और इनको मिलाकर जूतों की सिलाई चीन में होती है।

लेकिन इस सबके पीछे की गतिकी और सामाजिक यथार्थ क्या है? इसका उत्तर है: विश्व मानवता का तीव्रतर शोषण, इस ग्रह की और अधिक बर्बर लूट। पिछली डेढ़ शताब्दी अतुलनीय विकास के साथ ही अतुलनीय विनाश और मुसीबतों की शताब्दी रही है। एक ऐसी शताब्दी जिसमें एक महामन्दी आयी, दो विश्वयुद्ध हुए और तीसरी दुनिया को भयानक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा है।

यह लेनिन थे, जिन्होंने यह विश्लेषित किया कि पूंजीवाद उच्चतर अवस्था की ओर, जिसे साम्राज्यवाद कहा जाता है, दरअसल किस प्रकार विकसित हुआ। दरअसल, यह पूंजी के संगठन और संरचना में परिवर्तन के कारण, विशेषकर इजारेदारी और वित्तीय पूंजी के विकास के कारण घटित हुआ। और इसने विश्व को गुणात्मक रूप से ज्यादा मजबूती के साथ समेकित कर दिया। लेकिन, लेनिन ने यह भी उद्घाटित किया कि एक ऐसी दुनिया में जिसमें एक तरफ मुट्ठी भर नियंत्रणकारी, उत्पीड़क साम्राज्यवादी देश हैं और दूसरी तरफ तीसरी दुनिया के उत्पीड़क राष्ट्र हैं, पूंजी का भूमण्डलीकरण असमान ढंग से होता है। इसके साथ ही उन्होंने यह रेखांकित किया कि सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में, जिसके साथ परिवर्तन की चेतना से लैस और जमीन की चाहत रखने वाला किसान समुदाय भी खड़ा होगा, इन उत्पीड़ित राष्ट्रों का मुक्तिसंघर्ष विश्व सर्वहारा क्रान्ति की चालक शक्ति होगा।

लेकिन साम्राज्यवाद पूंजीवाद की बुनियाद पर खड़ा होता है और इसके गति के नियम वही होते हैं, जैसा मार्क्स ने विश्लेषित किया था।

आइये, आज की दुनिया की कुछ विशेषताओं पर सरसरी नजर डालें।

पहला उदाहरण: 300 राष्ट्रपारीय निगम विश्व की एक चौथाई उत्पादक परिसम्पत्तियों के मालिक हैं। दुनिया की सबसे धनी बीस प्रतिशत आबादी का दुनिया की आय के 85 प्रतिशत पर नियंत्रण है। अमेरिका के 200 सबसे बड़े विनिर्माण निगम विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) क्षमता के 60 प्रतिशत के स्वामी हैं।

दूसरा उदाहरण: घोषणापत्र के बाद के समय में विश्व में सर्वहारा आबादी में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई है। तीसरी दुनिया में दसियों लाख किसान हर वर्ष कुचले और जगह-जमीन से उखाड़े जा रहे हैं। बीस साल पहले बांग्लादेश में कोई कपड़ा उद्योग नहीं था। आज वहां दस लाख मजदूर कपड़ा उद्योगों में काम करते हैं, जिसमें से ज्यादातर राजधानी ढाका में रहने वाली औरतें हैं। भूमण्डलीय पैमाने पर सस्ते श्रम पर आधारित विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) अर्थव्यवस्था विश्व पूंजीवाद की कार्यप्रणाली का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसके नये सर्वहारा सुरक्षा गार्डों की चौकसी में औद्योगिक बैरकों में और रक्त-मज्जा निचोड़ लेने वाली कार्यशालाओं में पाये जाते हैं, जहां जानलेवा दुर्घटनाओं और यौन-उत्पीड़न की आशंकाएं हर पल मौजूद रहती हैं। ये आसपास की उन श्रमिक-बस्तियों में पाये जाते हैं जहां पीने के लिए जहर जैसा पानी मिलता है और इन बस्तियों से लगभग दो करोड़ बालश्रमिकों के श्रम को निचोड़ा जाता है। वास्तविक सर्वहाराओं की आबादी तो अमेरिका में है – वस्त्र बनाने वाली कार्यशालाओं में, मुर्गी पालन उद्योगों में, खेतिहर मजदूर, अस्पतालों के कर्मचारी और भारी तादाद में वे किशोर जो दक्षिण ब्रांक्स और दक्षिण-मध्य लास एंजेल्स के नुक्कड़ों पर मारे-मारे फिरते हैं।

तीसरा उदाहरण: इस धरती के आधे से अधिक लोग 100 रुपये प्रतिदिन की आय से कम पर गुजारा करते हैं। अगले चौबीस घण्टे में तीसरी दुनिया के देशों में चालीस हजार बच्चे उन रोगों और कुपोषण से काल-कवलित हो जायेंगे, जिनसे बचा जा सकता है। विश्व की लगभग तीस प्रतिशत श्रमशक्ति या तो पूर्ण बेरोजगार है या अर्द्धबेरोजगार है। यूरोप में नौ में से एक मजदूर काम से निकाल दिया गया है। हर साल साढ़े सात करोड़ आप्रवासी मजदूर काम की तलाश में अपना मुल्क छोड़कर दूसरे मुल्कों में चले जाते हैं।

चौथा उदाहरण: दुनिया के सबसे धनी देश, अमेरिका में 40 प्रतिशत काले और लैटिनो मूल के बच्चे गरीबी में रहते हैं; सत्तर लाख लोग बेघर हैं; 3 करोड़ तीस लाख लोग स्वास्थ्य बीमा की सुविधाओं से वंचित हैं और तीन में से एक काला नौजवान या तो जेल में है या आपराधिक न्याय-तंत्र की गिरफ्त में है। अमेरिका में एक तिहाई श्रम शक्ति बेहद कम तनख्वाह वाली नौकरियां करती हैं। 1992 से 1995 के बीच दस साल या उससे अधिक समय तक नौकरियां करने वाले 15 प्रतिशत लोगों को इन नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है और वे औसतन 14 प्रतिशत कम वेतन पर नया काम कर रहे हैं।

पांचवां उदाहरण: एशिया में आर्थिक ध्वंस। याद कीजिए कि मार्क्स ने उस जादूगर की चर्चा किस तरह की थी जो उन शक्तियों को नियंत्रित नहीं कर पाता जिन्हें उसने स्वयं बनाया होता है? एशिया का वित्तीय संकट इसका एक सटीक उदाहरण है। 1990 के दशक में, भारी परिमाण में वैश्विक वित्तीय पूंजी, जो नयी इलेक्ट्रानिकी और सूचना तकनोलाजी द्वारा उपलब्ध करायी गयी थी, एशियाई सट्टा एवं मुद्रा बाजार में उड़ेल दी गयी। भारी परिमाण में विनिर्माण पूंजी का कारों से लेकर कम्प्यूटर चिप्स तक हरेक चीज के उत्पादन में निवेश किया गया। मलेशिया में दुनिया की दो सबसे ऊंची इमारतें उठ खड़ी हुईं। और देखते ही देखते सब कुछ भरभरा पड़ा। ये अर्थव्यवस्थाएं रीढ़विहीन थीं। कारखाने बन्द हो गये, और भारी तादाद में लोगों की बचतें और आय छू-मन्तर हो गयी।

और अन्त में: हमारी पृथ्वी अभूतपूर्व अनुपात में पर्यावरण के संकट की शिकार है। विश्व का आधे से अधिक उष्ण कटिबन्धीय वनाच्छादन समाप्त हो चुका है। प्रतिदिन, 74 वन्य जीव-जन्तुओं की प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। ओजोन परत का विनाश, वैश्विक ऊष्मीभवन (ग्लोबल वार्मिंग), समुद्री संसाधनों का विनाश और तीसरी दुनिया को जहरीले कचरे का कूड़ाघर बना देना-ये सभी पूंजीवाद के इस तर्क के दुष्परिणाम हैं कि सबकुछ मुनाफे के लिए है।

पूंजीपति मुक्त बाजार को विश्व की आशा के रूप में प्रशंसा करते नहीं अघाते। लेकिन उनकी व्यवस्था पूर्ण विनाश की ओर ले जाने वाली व्यवस्था है। यह बर्बर है, यह पुरानी पड़ चुकी है और अब इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए, अब इससे गुणात्मक रूप से भिन्न किसी चीज की आवश्यकता है और यह सम्भव है।

एक बिल्कुल अलग दुनिया सम्भव है

सच्चाई यह है कि विश्व की उत्पादक शक्तियां विश्व के हरेक व्यक्ति के लिए पर्याप्त खाद्यसामग्री, वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य बुनियादी सुविधाओं का पर्याप्त उत्पादन करने में सक्षम है और साथ ही व्यापक परिमाण में इतना अतिरिक्त उत्पादन फिर भी बचा रहेगा कि मानव समाज और इसे बनाने वाले लोगों के सर्वांगीण विकास के लिए उपयोग में लाया जा सकते।

लेकिन, स्पष्ट है कि आज जो हो रहा है वह सब इसके उल्टा है। रास्ते में कौन सा अवरोध खड़ा है? पूंजीवाद के सम्पत्ति सम्बन्ध और पूंजी का वर्गीय राजनीतिक शासन!

जो कुछ मैं यहां बयान कर रहा हूं, वह बुर्जुआ वर्ग के बुनियादी अन्तरविरोधों की अभिव्यक्ति है। यह समाजीकृत उत्पादन और निजी विनियोग (अर्थात स्वामित्व) के बीच का अन्तरविरोध है। सर्वहारा वर्ग वह वर्ग है जो समग्रतः उस सामूहिक श्रम और सामूहिक प्रयासों का प्रतिनिधित्व करता है जो उत्पादक शक्तियों की अत्यधिक समाजीकृत प्रकृति से जुड़ा हुआ है। यह उत्पादक शक्तियों के विकास की सम्भावनाओं पर पड़ी बेड़ियों को तोड़ सकता है।

कम्युनिस्ट घोषणापत्र में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण वाक्यांश है। बुर्जुआ वर्ग द्वारा उद्योगों के विकास की चर्चा करते हुए मार्क्स कहते हैं ‘‘बुर्जुआ वर्ग जो भी उत्पादित करता है उसमें, सर्वोपरि तौर पर, वह अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा करता है।’’ वह सर्वहारा वर्ग के बारे में यह बात कह रहे होते हैं। याद कीजिए मैंने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग ने एक वस्तुगत मिशन पूरा किया है। ठीक इसी प्रकार, सर्वहारा वर्ग का भी एक वस्तुगत मिशन है – वह है एक क्रान्ति सम्पन्न करना, जिसका लक्ष्य है उत्पादन के साधनों का समाजीकृत, साझा स्वामित्व और श्रम करने के लिए लोगों को सहकारिता के आधार पर संगठित करना और लोगों की आवश्यकता के अनुसार उत्पादों का वितरण करना।

सर्वहारा वर्ग एक अद्वितीय क्रान्ति का नेतृत्व करता है। पहली बार एक ऐसी क्रान्ति सम्पन्न करना सम्भव हुआ है जो बहुसंख्यक मानवता के हित में है – शोषण और उत्पीड़न के एक रूप के स्थान पर दूसरा रूप कायम करना नहीं बल्कि शोषण और उत्पीड़न के सभी रूपों का खात्मा करना। जैसाकि पहले मैं इस बात पर जोर देकर कह रहा था कि आज की उत्पादक शक्तियां अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर एक दूसरे से अत्यधिक अन्तर्सम्बन्धित हो चुकी हैं और दरअसल उनका अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ही सर्वाधिक युक्तिसंगत ढंग से उपयोग किया जा सकता है। इसलिए, अन्तिम विश्लेषण में सर्वहारा क्रान्ति एक अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति है। इस क्रान्ति का लक्ष्य वर्गों का उन्मूलन और विश्व स्तर पर एक नये समाज का निर्माण करना है। यही वह स्वप्नदर्शिता है, वह मिशन है जिसका कम्युनिस्ट घोषणापत्र में वर्णन किया गया है। और, यही वह चीज है जिसकी चर्चा मैं ज्यादा गहराई से करना चाहता हूं।

कम्युनिस्ट स्वप्नदर्शिता

कम्युनिस्ट घोषणापत्र एक नये समाज और एक नये विश्व की गौरवपूर्ण स्वप्न प्रस्तुत करता है। मार्क्स ने इसे कई स्थानों पर वर्णित किया है: ‘‘एक ऐसे संघ की स्थापना होगी जिसमें व्यष्टि का स्वतंत्र विकास समष्टि के स्वतंत्र विकास की शर्त होगा।’’ एक अन्य स्थान पर मार्क्स कहते हैं: ‘‘कम्युनिस्ट क्रान्ति पारम्परिक सम्पत्ति सम्बन्धों से आमूलतम विच्छेद है; फिर इसमें आश्चर्य क्या कि इस क्रान्ति के विकास का अर्थ है पारम्परिक विचारों से आमूलतम सम्बन्धविच्छेद?’’

दो ‘‘आमूलतम विच्छेदों’’ की यह धारणा सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी मिशन के बारे में हमें बहुत कुछ बताती है। मैं स्पष्ट कर चुका हूं कि सम्पत्ति सम्बन्धों का तात्पर्य यह है कि उत्पादन के साधनों का मालिक कौन है, सामाजिक उत्पादन में लोगों के विभिन्न समूहों की भूमिका क्या है और उत्पादित सम्पत्ति का समाज में किस प्रकार वितरण होता है। जैसा कि मैंने पहले इंगित किया था, कि कम्युनिस्ट क्रान्ति का लक्ष्य उत्पादन के साधनों का समाजीकरण करना और उन्हें निरन्तर विकसित करते जाना है – और यह सिर्फ विभिन्न मंजिलों से गुजरकर ही घटित हो सकता है जब वे समाज की साझा सम्पत्ति बन जायेंगे।

कम्युनिस्ट क्रान्ति मुनाफे के लिए उत्पादन का खात्मा कर देती है ओर आम भौतिक वस्तुओं के प्रचुर सृजन का लक्ष्य निर्धारित करती है और माल उत्पादन एवं मुद्रा के जरिए विनिमय को समाप्त कर देती है। इसका लक्ष्य काम करने की समूची संरचना और लोगों के बीच के सम्बन्धों का रूपान्तरण करना है जिससे हर व्यक्ति समवेत रूप से समाज को अपना सर्वाधिक योगदान दे सके और बदले में समाज से अपनी जरूरतें पूरी कर सके। व्यष्टि अब अपनी ओजस्वी जीवन शक्ति को उस परायी शक्ति को नहीं सौंपेगा; व्यष्टि अब दासतापूर्ण श्रम विभाजन के अधीन नहीं होगा, जिसमें कुछ लोग नियंत्रित करते हैं, कुछ लोग योजनाएं बनाते हैं, कुछ लोग सृजित करते हैं और कुछ लोग खटते हैं।

यह क्रान्ति मानसिक और शारीरिक श्रम के अन्तर को समाप्त कर देगी। लोग उत्पादक भी होंगे और सर्जक भी। समाज का कोई भी पहलू कुछ लोगों के लिए संरक्षित नहीं होगा, हर व्यक्ति समाज को संचालित करने के काम में लगेगा। इस क्रान्ति का लक्ष्य सभी वर्ग विभेदों एवं वर्ग शत्रुओं का उन्मूलन और लोगों के एक समूह द्वारा समाज पर प्रभुत्व कायम करने के आधारों का उन्मूलन है। संक्षेप में, यह राज्य के ही उन्मूलन को अपना लक्ष्य निर्धारित करता है।

ये सभी रूपान्तरण उस दूसरे ‘‘आमूलगामी विच्छेद’’ से जुड़े हुए हैं, जिसका सूत्रीकरण मार्क्स ने किया है – परम्परागत विचारों के साथ विच्छेद। इसका तात्पर्य सोचने के तरीकों, प्रेरणाओं और नैतिकता के रूपान्तरण से है। इसका तात्पर्य है अतीत के मृत हाथों, पिछड़े विश्वासों, मूल्यों और अन्धविश्वासों से विच्छेद करना। इसका तात्पर्य है कि कम्युनिस्ट क्रान्ति पूंजीवाद को पराजित नहीं कर सकती यदि वह ‘‘पहले मैं’’ वाली बुर्जुआ विचारधारा के विरुद्ध संघर्ष नहीं करती।

स्वतंत्रता के बारे में कम्युनिज्म की अपनी अलग अवधारणा है। स्वतंत्रता के बारे में बुर्जुआ विचार, जिसके बारे में घोषणापत्र में मार्क्स ने चर्चा की है, मूलतः खरीदने और बेचने की स्वतंत्रता से बंधा हुआ है, जिसका अर्थ है प्रभुत्व जगाने और शोषण की स्वतंत्रता। स्वतंत्रता के बारे में बुर्जुआ विचार की धुरी व्यष्टि है – स्वार्थों के पीछे व्यक्ति की अन्धी दौड़, दूसरों की कीमत पर समृद्धि और सत्ता के लिए व्यक्तिपरक अधिकार, दूसरों को नियंत्रित करने लेकिन दूसरों द्वारा नियंत्रित न होने का अधिकार।

स्वतंत्रता का कम्युनिस्ट नजरिया इससे भिन्न है। अलग-अलग व्यक्ति शोषण-उत्पीड़न से मुक्त हो जायेंगे और उनका सर्वांगीण विकास होगा। लेकिन यह लोगों के सम्पूर्णतः नये ढंग से सम्बन्ध कायम करने के सन्दर्भ में होगा। जैसा कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी, अमेरिका के अध्यक्ष बॉब अवैकियन ने कहा है: ‘‘लोग यह आत्मसात करेंगे कि सबका हित समाज के रूपान्तरण, सबके लिए स्वतंत्रता की परिधि के विस्तार के द्वारा होगा’’

कम्युनिस्ट क्रान्ति एक अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति है जिसका उद्देश्य विश्व स्तर पर वर्गों का उन्मूलन है। इसका लक्ष्य लोगों और राष्ट्रों के बीच हर प्रकार के असमान और उत्पीड़नकारी सम्बन्धों और पृथक-पृथक राष्ट्रों में विश्व के विभाजन के खात्मे पर आधारित, एकता और विविधता दोनों से युक्त सच्चे विश्व समुदाय की रचना करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति मानवता को पृथ्वी एवं इसके संसाधनों का सच्चा रखवाला बना देगा जिसके सरोकार के दायरे में केवल वर्तमान नहीं बल्कि भविष्य और साथ ही भावी पीढ़ियां भी होंगी। कम्युनिज्म मानव जनों के स्वतंत्र सहमेल एवं सहकार से युक्त विश्व समुदाय को जन्म देगा। माओ त्से-तुङ ने इसे सुन्दर ढंग से कहा है: ‘‘कम्युनिज्म का युग तब आयेगा जब मानवजाति स्वेच्छा से एवं सचेत ढंग से स्वयं एवं विश्व को बदलेगी।’’

घोषणापत्र को लिखने के पीछे मार्क्स का एक बुनियादी उद्देश्य यह स्पष्ट करना था कि कम्युनिज्म की स्वप्नदर्शिता क्या है और इसके उद्देश्यों को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है। घोषणापत्र को पढ़ते समय आप देखेंगे कि उसके अन्त में एक हिस्सा है, जिसमें मार्क्स ने समाजवाद और कम्युनिज्म के अन्य विचारों की आलोचना की है। उस हिस्से में और अन्य स्थानों पर अपने लेखन में मार्क्स ने बुनियादी तौर पर यह स्पष्ट किया है कि अन्याय को समाप्त करने के विभिन्न अन्य रास्ते-चाहे यह अपेक्षाकृत ‘‘प्रबुद्ध’’ शासकों के साथ तालमेल बनाने का रास्ता हो, या समझदार लोगों द्वारा राज्य को अपने हाथों में लेकर उसकी नीतियों को सुधार करने का मार्ग हो या समाज से बाहर जाकर काल्पनिक कम्युनिस्ट समुदायों का निर्माण करने का मार्ग हो-ये सभी रास्ते कारगर नहीं होंगे और इनसे काम नहीं चलने वाला। इसलिए, क्योंकि ये सभी पूंजीवादी आर्थिक सम्बन्धों और पूंजीवादी राजनीतिक शासन को जस-का-तस छोड़ देते हैं।

सर्वहारा वर्ग की मुक्ति केवल सर्वहारा द्वारा स्वयं हासिल की जा सकती है। जैसाकि प्रसिद्ध कम्युनिस्ट गान ‘इण्टरनेशनल’ का सन्देश है: ‘‘हमें नहीं चाहिए कृपालु मुक्तिदाता… हम मजदूर, निश्चित करेंगे स्वयं अपना कर्तव्य, हम निश्चित करेंगे स्वयं और निभायेंगे उसे बखूबी।’’ घोषणापत्र में और अन्य उत्तरवर्ती राजनीतिक लेखन में मार्क्स ने जिस बात पर जोर दिया है कि वह यह है कि सर्वहारा को अनिवार्य रूप से एक वर्ग के रूप में स्वयं को संगठित करना चाहिए और अनिवार्य रूप से सम्पूर्ण मानवता की मुक्ति के अपने मिशन के प्रति सचेत होना चाहिए। उसे अनिवार्य रूप से बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंकना चाहिए और उसके राज्य के उपकरण को नष्ट कर देना चाहिए। साथ ही, उसे अनिवार्य रूप से स्वयं को शासक वर्ग का स्थान ले लेना चाहिए एवं बुर्जुआ वर्ग के ऊपर अपना अधिनायकत्व कायम करना चाहिए।

सर्वहारा वर्ग का यह अधिनायकत्व वर्ग विहीन समाज तक पहुंचने का साधन है। यह सर्वहारा द्वारा समाज पर शासन और उसका रूपान्तरण है। यह समाजवाद है: पूंजीवाद और कम्युनिज्म के बीच का संक्रमणकालीन समाज।

हमारे उद्देश्य के मार्ग में तीन मील के पत्थर:

लेकिन बुर्जुआ वर्ग कहता है कि जहां भी और जब भी कम्युनिज्म लाने की कोशिशें हुईं, परिणाम विनाशकारी रहे हैं। वे हमसे कहते हैं कि पिछले 150 वर्षों का यही सबक है। लेकिन मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी इसके विपरीत निष्कर्ष निकालते हैं। जहां और जब भी यह क्रान्ति सम्पन्न हुई है, इसके परिणाम गम्भीर और मुक्तिदायी रहे हैं। इसके साथ ही, इस क्रान्ति को सम्पन्न करने के ऐतिहासिक अनुभव, इसकी जीतें और इसकी हारें, मानवता की मुक्ति के रास्ते के बारे में बेशकीमती सबक मुहैया कराते हैं। अब मैं इस चीज के बारे में चर्चा करूंगा।

सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास में तीन महान मील के पत्थर रहे हैं – इसमें से हरेक जनता के शौर्य और पहलकदमी से हासिल एक मुकाम है और हरेक मुकाम अगले के लिए एक प्रस्थान-बिन्दु है।

पहला फ्रांस में गाड़ा गया-1871 के पेरिस कम्यून द्वारा। यह पहला अवसर था जब मजदूर वर्ग ने सत्ता पर कब्जा किया। बुर्जुआ वर्ग पेरिस छोड़कर भाग खड़ा हुआ। 70 गौरवशाली दिनों के लिए बिलकुल नयी और पहले कभी न देखी गयी चीजें अस्तित्व में आयीं। मजदूर वर्ग की एक सरकार अस्तित्व में आयी। जनता के हित में सुधारों के नये कानून बनाये गये। मजदूरों ने नगर का प्रशासन सीधे अपने हाथ में ले लिया। स्त्रियां इस युद्ध और प्रयोग की अग्रिम कतारों में थीं। लेकिन यह अल्पजीवी ही रहा। बुर्जुआ वर्ग फिर से संगठित होने में सफल हो गया और कम्यून को खून की नदियों में डुबो दिया गया।

इससे एक महत्वपूर्ण सबक हासिल हुआ। जैसाकि मार्क्स ने स्वयं इसका समाहार किया था और घोषणापत्र के बाद के संस्करणों की भूमिकाओं में इसे शामिल किया गया था, ‘‘सर्वहारा वर्ग केवल राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर कब्जा करके ही इसे अपने उद्देश्यों की पूर्ति में नहीं लगा सकता।’’ पेरिस के सर्वहारा वर्ग आगे बढ़ने और शत्रु को कुचलने के महत्व को नहीं देख सका था।

अगली महान छलांग 1917 में रूस में लगायी गयी। यहां लेनिन और बोल्शेविकों ने पेरिस कम्यून के सबकों को गांठ बांधा। लेनिन ने सर्वहारा वर्ग को क्रान्तिकारी चेतना से लैस करने और क्रान्तिकारी संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता को भी दिखाया।

बोल्शेविक क्रान्ति ने जनता के शासन के नये राजनीतिक और सामाजिक अंगों को स्थापित किया। इसने पुराने रूसी साम्राज्य के उत्पीड़ित राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता प्रदान की और राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं एवं भाषायी समानता पर आधारित एक बहुराष्ट्रीय राज्य का निर्माण किया। स्त्रियों को तलाक का अधिकार मिला तथा पारिवारिक सम्बन्धों में अन्य परिवर्तन हुए और उन्होंने अभूतपूर्व ढंग से उत्पादन और राजनीति दोनों क्षेत्रों में प्रवेश किया। सोवियत संघ ने दुनिया भर में क्रान्तिकारी आन्दोलनों को प्रेरणा दी और अन्तरराष्ट्रीय समर्थन किया। इस क्रान्ति ने मानवजाति के इतिहास में पहली नियोजित समाजवादी अर्थव्यवस्था का सृजन किया। इसने पहले के शासक वर्गों की सम्पत्ति का अधिग्रहण कर लिया और सार्वजनिक-राज्य स्वामित्व की व्यवस्था कायम की। उत्पादन को समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने की सचेतन योजना के तहत आगे बढ़ाया गया।

लेकिन आरम्भ से ही क्रान्ति को अविराम एवं अविश्वसनीय रूप से कठिन स्थितियों का सामना करना पड़ा। मजदूरों के राज्य की स्थापना होते ही उसे साम्राज्यवादी आक्रमण का सामना करना पड़ा। उसे भीषण साम्राज्यवादी घेरेबन्दी का शिकार होना पड़ा। इसके साथ ही, अन्ततः मजदूरों के इस तरुण राज्य को नाजी युद्ध मशीन के मुख्य प्रहार को झेलना पड़ा। चालीस वर्षों तक, समाजवाद की हिफाजत की जाती रही। लेकिन इसके बाद सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय हो गयी जो जबर्दस्त बाहरी दबावों और उत्तरोत्तर आन्तरिक क्षरण का परिणाम था। 1950 के दशक के आरम्भिक वर्षों में स्तालिन की मृत्यु के बाद एक नया पूंजीपति वर्ग सत्ता में आ गया।

सर्वहारा क्रान्ति के ध्येय के मार्ग में अगली महान प्रगति 1949 में चीन में हुई। मजदूर वर्ग और माओ त्से-तुङ के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एक लम्बे क्रान्तिकारी युद्ध की जीत हुई। चीनी क्रान्ति ने मानवता के एक चौथाई हिस्से को शोषण से मुक्त कर दिया। जरा इस चीज के बारे में सोचिए-चीन में हुए भूमि सुधारों ने मानव इतिहास में धनी से गरीब के बीच में विशालतम सम्पत्ति हस्तान्तरण को अंजाम दिया।

माओ त्से-तुङ ने सोवियत संघ में समाजवाद के अनुभव और पूंजीवादी पुनर्स्थापना का समाहार किया। लेकिन विराट उपलब्धियों के बावजूद, सोवियत क्रान्तिकारियों से कुछ गलतियां भी हुईं और समाजवादी समाज की प्रकृति के बारे में कुछ चीजों को ठीक ढंग से समझा नहीं जा सका।

माओ ने समाजवादी समाज के अन्दर पूंजीवादी समाज के अवशेषों की मौजूदगी का विश्लेषण किया। ये अवशेष इस तथ्य के रूप में प्रकट होते थे-कुछ लोग मुख्यतः मानसिक श्रम में लगे हुए थे और अन्य लोग मुख्यतः शारीरिक श्रम में और प्रशासनिक एवं नेतृत्व की जिम्मेदारियों का अभी भी समान बंटवारा नहीं हुआ था। देहात और शहर के बीच, विभिन्न क्षेत्रों के बीच और स्त्री-पुरुष के बीच असमानता अब भी मौजूद थी। साथ ही, वेतन में भी अन्तर था और समाजवाद के भीतर मुद्रा एवं माल-उत्पादन की महत्वपूर्ण भूमिका अभी भी बनी हुई थी।

इन चीजों को रातोंरात नहीं खत्म किया जा सकता। लेकिन, उन पर अनिवार्य रूप से लगाम लगायी जानी चाहिए एवं उनका रूपान्तरण किया जाना चाहिए और उनके साथ-साथ चलने वाली विचारधारा से अनिवार्य रूप से संघर्ष किया जाना चाहिए। लेकिन जब तक ये चीजें रहेंगी, वे बुर्जुआ वर्ग शक्तियों को जन्म देती रहेंगी जो अपने वर्ग-स्वार्थों के अनुसार समाज को ढालने की कोशिश करती रहेंगी। माओ ने कहा था कि समाजवाद पूंजीवादी मार्ग और समाजवादी मार्ग के बीच, शत्रुतापूर्ण वर्गों के बीच लम्बे संघर्ष का काल है और किसी विशेष समय में कौन जीतेगा, यह सवाल अभी हल नहीं हुआ है।

माओ ने समाजवाद के निर्माण में सोवियत पहुंच की कमजोरियों का भी विश्लेषण किया। बड़े उद्योगों के निर्माण पर वहां अत्यधिक जोर था। चीजों को संगठित करने के पूंजीवादी तरीकों की बहुत अधिक स्वीकार्यता थी और लोगों के आपसी सम्बन्धों में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ था। उदाहरण के लिए, सोवियत संघ में कारखानों के अन्दर एक व्यक्ति द्वारा प्रबन्धन की प्रणाली अभी भी लागू थी। समस्याओं को हल करने में विशेषज्ञों पर बहुत अधिक निर्भरता थी और जनता पर निर्भरता पर्याप्त नहीं थी। माओ ने इस चीज का इस ढंग से समाहार किया है कि उस दूसरे ‘‘आमूलगामी विच्छेद’’-लोगों की विश्व दृष्टि को बदलने और विचारधारा के मुद्दों पर संघर्ष करने पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया था।’’

यह एक गम्भीर ऐतिहासिक महत्व की बात है कि सोवियत क्रान्तिकारी नयी बुर्जुआ शक्तियों द्वारा पूंजीवादी पुनर्स्थापना की कोशिशों, विशेष रूप से कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर से होने वाली कोशिशों के खिलाफ संघर्ष का रास्ता नहीं ढूंढ सके। लेकिन, माओ ने जनता के साथ मिलकर इसके साधनों और तौर-तरीकों को ढूंढ़ निकाला। और यह था – महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति।

सांस्कृतिक क्रान्ति 1966 में शुरू हुई और 1976 में समाप्त हो गयी। यह विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास का तीसरा महान मील का पत्थर है। यह अब तक सर्वहारा वर्ग द्वारा हासिल उपलब्धियों का शिखर है। लोग पूछते हैं कि ‘‘क्या इस चीज के बारे में ठोस और सार्थक ढंग से बताया जा सकता है कि सर्वहारा वर्ग द्वारा समाज कैसे चलाया जायेगा?’’ हां, बताया जा सकता है।

सांस्कृतिक क्रान्ति ने नई राह निकाली

सांस्कृतिक क्रान्ति, क्रान्ति के अन्तर्गत होने वाली क्रान्ति थी-समाजवाद के अन्तर्गत क्रान्ति के साथ विश्वासघात करने वालों के विरुद्ध और पूंजीवाद की पुनर्स्थापना रोकने के लिए लड़ा गया एक खुल्लम-खुल्ला वर्गसंघर्ष। माओ त्से-तुङ और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर के उनके अनुयाइयों के नेतृत्व में नयी पूंजीवादी शक्तियों को उखाड़ फेंकने के लिए, जो समाजवादी समाज की संरचना और उसकी संस्थाओं के भीतर से ही उभरे थे और जिनकी सत्ता का केन्द्र स्वयं कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर ही था, जनता उठ खड़ी हुई थी।

विश्व इतिहास की यह सर्वाधिक गहनतम और सर्वाधिक सम्पूर्ण क्रान्ति थी। इसने इस चीज की जीवन्त अभिव्यकि्त प्रदान की कि क्रान्ति का तात्पर्य क्या है और जनता के लिए मार्क्स के एक वाक्यांश का प्रयोग करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि समाज ‘‘एक झटके से जाग उठा था।’’

सांस्कृतिक क्रान्ति ने, समाज में घट रही घटनाओं पर क्रान्तिकारी युवाओं को गर्मागर्म बहसों में शामिल होते देखा। इसने बड़े शहरों में घेरा डालते हुए अभिजातों से सत्ता वापस लेने के लिए मजदूरों को बहादुराना ढंग से गोलबन्द होते और सर्वहारा शासन के नये, अधिक आमूलगामी और विस्तृत रूपों को कायम करने की जटिल प्रक्रिया से गुजरते देखा।

सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान, दैनिक जीवन की दिनचर्या खुल्लमखुल्ला सड़कों पर आ गयी और जीवन के हर क्षेत्रों के लोग आर्थिक नीति के बारे में, शिक्षा व्यवस्था के बारे में और कम्युनिस्ट पार्टी एवं जनता के बीच के सम्बन्धों के बारे में व्यापक बहसों में मशगूल हो गये। कोई भी सरकारी अधिकारी आलोचना से बरी नहीं रहा। साधारण लोग वैज्ञानिकों और प्रशासकों से उनकी अहम्मन्यता और वर्गीय पूर्वाग्रह के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे।

सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान, मार्क्सवाद की कुछ विशेष अवधारणाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए अभियान चलाये गये। इनमें से एक अवधारणा जिसका व्यापक अध्ययन किया गया, मार्क्स की एक रचना से ली गयी थी। इसके अनुसार ‘‘कम्युनिज्म क्रान्ति के स्थायित्व की घोषणा है और सर्वहारा का वर्गीय अधिनायकत्व सामान्यतया सभी वर्गविभेदों के उन्मूलन, उन उत्पादन सम्बन्धों के उन्मूलन जिस पर वे टिके हुए हैं, उन सामाजिक सम्बन्धों के उन्मूलन जिसे ये उत्पादन सम्बन्ध व्यक्त करते हैं और इन सामाजिक सम्बन्धों से निकलने वाले सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण का एक आवश्यक संक्रमण-बिन्दु है।’’

माओवादी इसे ‘‘समस्त चार’’ (‘‘the 4 alls’’) कहते हैं। इसका अर्थ है कि क्रान्ति आधे रास्ते में नहीं रुकेगी। सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में सभी प्रणालियों, सभी सम्बन्धों, सभी संस्थाओं और वर्ग विभाजन को मजबूत बनाने और उसे मूर्त रूप देने वाले सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण के लिए क्रान्ति का जारी रहना।

ठोस ढंग से इसका क्या अर्थ निकलता है? उत्पादन के सम्बन्धों के सवाल को लें। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान औद्योगिक एवं कारखाना प्रबन्धन का क्रान्तिकारीकरण किया गया। उत्पादकता एवं अनुशासन के नाम पर मजदूरों की पहलकदमी को सीमित करने वाले उत्पीड़नकारी श्रम कानूनों की आलोचना की गयी और उनका खात्मा कर दिया गया। एक व्यक्ति द्वारा प्रबन्धन का स्थान सामूहिक प्रबन्धन ने ले लिया। मजदूर प्रबन्धन के कामों में हिस्सा लेते थे और प्रबन्धक भी कार्यशालाओं में काम करते थे। तकनीकीकर्मी मजदूरों के साथ मिलकर समस्याओं का विश्लेषण करते थे और मजदूरों के बीच से तकनीकी टीम भी विकसित की गयी। एक ही रूटीन को भंग करने और अत्यधिक विशिष्टीकरण को खत्म करने के लिए मजदूरों के कामों की अदला-बदली भी होती रहती थी। सबसे अधिक तनख्वाह पाने वाले प्रबन्धकों की आय अकुशल मजदूरों से सिर्फ पांच गुना अधिक थी। इसकी तुलना अमेरिका के उन बड़े अधिकारियों से कीजिए जो आम मजदूरों से 150 गुना अधिक वेतन पाते हैं।

कारखाने पड़ोस के समुदायों से सहकार चलाते थे और अपने प्रतिनिधि देहातों में भेजते थे। शहर और देहात के बीच विभेद को पाटने का यह ठोस तरीका था। इसके साथ ही, कार्यस्थलों पर सिर्फ उत्पादन करने के अलावा जीवन के और भी रंग थे। आपको बतायें कि माओ के अनुयाइयों ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान यह नारा दिया था – ‘‘कारखाने सिर्फ उत्पादों का उत्पादन ही नहीं करते बल्कि वे मनुष्यों का उत्पादन भी करते हैं।’’ और कारखानों में राजनीतिक बहस-मुबाहसे, सांस्कृतिक और शैक्षिक गतिविधियां कामों का अंग बन गयी थीं।

सामाजिक सम्बन्ध एवं संस्थाएं ‘‘समस्त चार’’ के अन्य महत्वपूर्ण अंग थे। आइये शिक्षा व्यवस्था में हुई क्रान्ति पर विचार करते हैं। विश्वविद्यालयों में मजदूरों और किसानों को बड़ी तादाद में प्रवेश दिया गया। पुराने पाठ्यक्रम में परिवर्तन किया गया और एक समतामूलक समाज बनाने की आवश्यकताओं के अनुरूप इसे ढाला गया। परम्परागत प्रतियोगिता परीक्षाएं और ग्रेड प्रणाली का खात्मा कर दिया गया; पढ़ाने की निरंकुश प्रणालियों की आलोचना की गयी; प्रोफेसरों से यह अपेक्षा की गयी कि वे छात्रों से सीखें; और मजदूरों एवं किसानों को कक्षाओं में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। नयी शिक्षा व्यवस्था में अध्ययन को शारीरिक काम से जोड़ा गया। उच्च स्तरीय विद्यालयों में प्रवेश लेने से पूर्व छात्रों को एक या दो वर्ष किसानों और मजदूरों के बीच व्यतीत करना पड़ता था और वे प्रवेश के लिए इस आधार पर जनता द्वारा नामित किये जाते थे कि जनता की सेवा करने की उनके अन्दर कितनी तत्परता है।

ये गम्भीर परिवर्तन थे। किन्तु वे आसानी से नहीं हुए। और उन्हें हमलों का शिकार होना पड़ा। इसका मुकाबला चीनी समाज में वर्ग संघर्ष के एक अंग के रूप में किया गया और इसे आगे बढ़ाया गया। यह संघर्ष इस बात के लिए था कि समाज की दिशा कौन निर्धारित करेगा और अन्ततोगत्वा, इस बात के लिए कि समाज पर शासन कौन करेगा-सर्वहारा वर्ग या नया बुर्जुआ वर्ग। 1970 के दशक में यह संघर्ष तीव्र हो उठा और चीन में वर्ग संघर्ष के बिखर जाने में अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों ने जबर्दस्त प्रभाव डाला। क्रान्तिकारी शक्तियों ने सर्वहारा शासन की हिफाजत के लिए प्रचण्ड एवं बहादुराना संघर्ष किया। लेकिन देङ सियाओ पिङ के नेतृत्व में पूंजीवादी पथगामी शक्ति बटोरने और सैनिक तख्तापलट करने में सफल हो गये। 1976 में उन्होंने मजदूर वर्ग की सत्ता को उखाड़ फेंका।

चीजों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए

सर्वहारा वर्ग ने तीन बार-पहली बार पेरिस में, दूसरी बार सोवियत संघ में और उसके बाद चीन में – ‘‘स्वर्ग में हलचल’’ मचा दी थी। इस शताब्दी में दो बार अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा ने वास्तव में लम्बे डग भरे और समाज पर शासन करने और एक नयी दुनिया बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत की-30 वर्षों से अधिक समय तक सोवियत संघ में और 25 वर्षों तक चीन में। परन्तु दोनों बार क्रान्ति पराजित हो गयी। वे ‘‘असफल’’ नहीं हुईं, पराजित हो गयीं। सर्वहारा वर्ग को यह पराजयें एक प्रतिद्वंद्वी वर्ग और प्रतिद्वंद्वी विश्व व्यवस्था द्वारा मिलीं।

दोनों बार एक नये किस्म का समाज बनाने के प्रयास उस देश में हुए जो विरोधी शक्तियों से घिरे हुए और उनके दबावों में थे। और केवल यही नहीं, ये प्रयास एक ऐसी दुनिया में हुए जिसमें पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली और इसके विचार एवं इसी विश्वदृष्टि का वर्चस्व कायम था। इससे महत्वपूर्ण सबक हासिल होते हैं। किसी अकेली क्रान्ति की नियति अन्ततोगत्वा इस बात से जुड़ी हुई है कि विश्व क्रान्ति आगे बढ़ रही है या नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी जगह यदि जनता सत्ता पर कब्जा करने और समाजवाद का निर्माण करने के लिए आगे डग भरती है, तो नये समाज को सर्वप्रथम और सबसे आगे विश्व क्रान्ति को आगे बढ़ाने के लिए एक आधार क्षेत्र के रूप में होना चाहिए।

सर्वहारा वर्ग तीन चक्रों में सत्ता में रहा है। लेकिन, जहां से इसने शुरुआत की है, वहीं यह वापस नहीं लौटा है। क्योंकि सर्वहारा वर्ग ने इन अनुभवों से सीखा है। इसने सीख लिया है कि शासन करने का अर्थ क्या होता है और समाज को नये सिरे से बनाने का क्या अर्थ होता है। इसने क्रान्तिकारी प्रक्रिया की अपनी समझदारी गहरी बनायी है और मार्क्सवाद-लेनिनवाद- माओवाद ने इसे संश्लेषित किया है। ऐसे लोग भी हैं जो यह कहते हैं कि पूंजीवाद का विश्लेषण करते समय तो मार्क्स सही हैं लेकिन सर्वहारा वर्ग द्वारा मुक्तिदायी क्रान्ति का नेतृत्व करने के सवाल पर वह गलत हैं। लेकिन सर्वहारा वर्ग ने इन 150 वर्षों में यह दिखा दिया है कि वही एकमात्र वर्ग है जो समाज का क्रान्तिकारीकरण कर सकता है।

यह महत्वपूर्ण है कि चीजों के बारे में एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य अपनाया जाये। यहां, गौरतलब बात दरअसल यह है – एक नयी एवं उदीयमान व्यवस्था और पुरानी एवं पराभव की ओर अग्रसर पूंजीवाद-साम्राज्यवाद की व्यवस्था अर्थात अन्तिम और सामाजिक शत्रुता पर आधारित सामाजिक उत्पादन के सर्वाधिक सुसंगत रूप-के बीच विश्व-ऐतिहासिक संघर्ष। सही है कि पुरानी व्यवस्था मार्क्स के अनुमानों से ज्यादा समय तक टिकी हुई है। लेकिन ऐसा नहीं है कि यह अधिकाधिक लोकहितकारी होती गयी है। यह ऐसी दुनिया है जिसमें समृद्ध और वंचितों के बीच इतना अधिक ध्रुवीकरण पहले कभी नहीं था, एक ऐसी दुनिया जिसमें लोग एक दूसरे से और अपनी सर्जनात्मकता से दूर होते जा रहे हैं। यह ऐसी दुनिया है, जिसमें तकनोलाजी गुलाम बनाती है, मुक्त नहीं करती। यह व्यवस्था सचमुच पुरानी पड़ गयी है। इसकी दशाएं और मुसीबतें जनता को संघर्षों के लिए उठ खड़े होने के लिये बाध्य कर रही हैं। और केवल सर्वहारा क्रान्ति इस व्यवस्था के अन्तरविरोधों को हल कर सकती है और मानवता को इतिहास की इस बर्बर मंजिल से आगे जाने की इजाजत दे सकती है।

लेकिन हमने जो सीखा है, वह यह कि इसके लिए एक दीर्घकालिक और जटिल संघर्ष की, एक समूचे युग की, दरकार होगी जब इसका खात्मा कर दिया जायेगा। हमने यह सीखा है कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति का मार्ग मार्क्स के आकलनों से कहीं ज्यादा लम्बा और टेढ़ा-मेढ़ा होगा। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि इतालवी नगर राज्यों से आरम्भ करके अपना शासन अन्तिम रूप से सुदृढ़ बनाने में बुर्जुआ वर्ग को चार शताब्दियां लग गयीं। दरअसल, वे शोषण की एक नयी व्यवस्था के लिए संघर्ष कर रहे थे।

सर्वहारा क्रान्ति पूर्व के सभी मानवीय उद्यमों से भिन्न है। इसलिए, यदि हमारी क्रान्ति को कठिनाइयों और पराजयों का सामना करना पड़ रहा है तो हमें दिल छोटा नहीं करना चाहिए।

हम यहां अगली सहस्राब्दी के उदय की पूर्ववेला में खड़े हैं। बुर्जुआ वर्ग हमारी दृष्टि को संकुचित करने की कोशिश कर रहा है। वे हमें यह विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि पूंजीवाद का कोई विकल्प नहीं है, पूंजीवाद से आगे कोई भविष्य नहीं है। लेकिन, हमारे पास एक भिन्न दुनिया का सृजन करने का ऐतिहासिक अनुभव मौजूद है। और आज की दुनिया में कम्युनिज्म जीवित और भला-चंगा है।

भाइयो और बहनो! कम्युनिस्ट घोषणापत्र आज भी सही है, आज भी खतरनाक है और आज भी नाउम्मीदों की उम्मीद है।

(माओवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री रेमण्ड लोट्टा द्वारा कम्युनिस्ट घोषणापत्र के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ के अवसर पर न्यूयार्क सिटी में आयोजित समारोह में 1 मई 1998 को दिया गया भाषण।)

(‘रिवोल्यूशनरी वर्कर’ से साभार)

अनुवाद: अरविन्द सिंह

दायित्वबोध, जनवरी-मार्च 2000

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