कहां गईं स्त्रियां? – खट रही हैं भूमण्डलीय असेम्बली लाइन पर

कहां गईं स्त्रियां? – खट रही हैं भूमण्डलीय असेम्बली लाइन पर

  • कात्‍यायनी

‘‘कहां गई हैं लड़कियां?  क्या बताऊं भाई?

भाप मशीन चलाकर कर रही बुनाई

देखना हो उनको अगर

अलस्सुबह उठना होगा

पौ फटते ही फैक्टरी तक

पैदल चलना होगा।’’

ब्रिटेन में प्रचलित उन्नीसवीं सदी के प्रारम्भिक दौर का यह लोकगीत उन स्त्रियों की त्रासदी बयान करता है जो पूंजीवाद के प्रारंभिक दौर में कपड़ा मिलों में पन्द्रह-पन्द्रह घण्टे काम करती थीं। उन्नीसवीं सदी में औद्योगिक क्रांति के आगमन के बाद इंगलैण्ड और पूर्वोत्तर अमेरिका में खेतों में काम करने वाली मजदूर औरतें बडे़ पैमाने पर सूती कपड़ा मिलों में भरती हुई थीं। गरीबों की दुनिया से-रोजमर्रे के स्वाभाविक जीवन से स्त्रियां जैसे अदृश्य हो गई थीं और उन गरीब औरतों की दुनिया से स्वाभाविक जिन्दगी की गंध और छवि अदृश्य हो गई थी।

आज यही परिघटना बड़े पैमाने पर तीसरी दुनिया के देशों में कुछ नये रूपों में दिखाई दे रही है। पूंजीवाद के स्वतंत्र प्रतियोगिता के दौर में श्रम-विभाजन के क्लासिकी पूंजीवादी रूप ने सस्ते श्रम के भण्डार के रूप में स्त्रियों और बच्चों को देखा। अब साम्राज्यवाद के युग के आर्थिक नवउपनिवेशवाद या बाजार-उपनिवेशवाद के दौर में, भूमण्डलीकरण के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय श्रम-विभाजन का जो परिदृश्य उभरा है उसने एक कारखाने की चारदीवारी के भीतर कैद ‘फैक्टरी असेम्बली लाइन’ को एक दूसरे से जुड़ी अलग-अलग इकाइयों में विभक्त करके पूरी दुनिया में फैला दिया है और गरीब देशों की स्त्रियों की भारी आबादी को इससे जोड़कर पूंजी की निकृष्टतम कोटि की उजरती गुलाम बना दिया है। आज तीसरी दुनिया की युवतियां एशिया से लेकर लातिन अमेरिका तक, दुनिया भर में अपना कब्जा जमाने के लिए निकल पड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए सस्ते श्रम का विपुल भण्डार बनती जा रही हैं।

औद्योगिक क्रान्ति से लेकर आज तक श्रम-विभाजन का अन्तरराष्ट्रीयकरण वस्तुतः कई मंजिलों से होकर गुजरा है। उन्नीसवीं सदी के अन्त और इस सदी की शुरुआत में एकाधिकारी पूंजी के विश्वव्यापी प्रभुत्व, वित्तीय पूंजी के आयात-निर्यात और वर्चस्व तथा विश्व-बाजार पर अधिकार के लिए उत्कट साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का युग प्रारम्भ होने के साथ ही पश्चिम के दैत्याकार निगमों द्वारा उपनिवेशों की जनता के श्रम की लूट का नया दौर शुरू हुआ। यूरोप-अमेरिका के मज़दूरों ने गत सदी के उत्तरार्द्ध में लगातार संघर्ष करके बहुतेरी रियायतें और सुविधायें हासिल की थीं। साथ ही, उपनिवेशों से अर्जित अतिलाभ (Super Profit) के कारण उनके एक बड़े हिस्से को बेहतर वेतन और सुविधाएं दे पाना भी संभव हो गया था। लेकिन फिर भी वहां स्त्रियों, बच्चों, अश्वेतों और आप्रवासी मजदूरों का अतिशोषण (Super Exploitation) जारी रहा और आज भी जारी है। फर्क यह है कि तीसरी दुनिया के श्रमिकों से फिर भी उनकी जीवन-स्थिति कुछ बेहतर है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद भी तीसरी दुनिया के नवउपनिवेशों और सीमित राजनीतिक-आर्थिक आजादी वाले नवस्वाधीन देशों में कुल मिलाकर, भूमण्डलीय पूंजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के ‘‘गहराते जाने’’ की प्रक्रिया जारी रही और संचित अतिलाभ साम्राज्यवादियों को पुनर्निवेश के लिए तथा श्रम की भूमण्डलीय लूट की नई-नई तिकड़में भिड़ाने के लिए बाध्य करता रहा।

1971 के एक सर्वेक्षण के अनुसार बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों में कारखाने लगाने का मुख्य कारण था-यहां का कम वेतन। साठ के दशक में यह प्रवृत्ति तेज गति से आगे बढ़ी। दूसरे देशों में अपना उद्योग फैलाने वाली ऐसी पहली कम्पनियों में से एक थी-फेयरचाइल्ड कैमरा एण्ड इंस्ट्रमेण्ट कारपोरेशन जिसने 1961 में हांगकांग में निर्यात का सामान बनाने वाला एक कारखाना लगाया ताकि बढ़ती अन्तरराष्ट्रीय होड़ में टिके रहने के लिए वह बेहद कम मजदूरी देकर माल उत्पादन कर सके। साठ के दशक में बेसबॉल, वाशिंग मशीन, सिले वस्त्र, इलेक्ट्रानिक सामान, कार, जूते आदि बनाने वाली कम्पनियां पुर्जें जोड़-जोड़कर या उत्पादन-प्रक्रिया को कई हिस्सों में बांटकर सस्ते से सस्ते दामों पर उत्पादन कराने के नये-नये ठिकाने ढूंढ़ती हुई पूरी दुनिया में फैल गईं। पहले हांगकांग और ताइवान, फिर दक्षिण कोरिया और मेक्सिको और फिर सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैण्ड, फिलीपींस आदि उनके अड्डे बने। यूं तो इन देशों में श्रम आम तौर पर सस्ता था, पर स्त्रियों का श्रम और अधिक सस्ता था इसलिए इन कम्पनियों ने बड़े पैमाने पर बहुत कम वेतन या दिहाड़ी पर या शिकमी ठेके पर स्त्रियों से काम कराना शुरू कर दिया। साठ के दशक के अन्त तक निर्यातोन्मुख उत्पादन ही विकास की सबसे प्रचलित रणनीति बन चुकी थी और विश्वबैंक, आई.एम.एफ., यूनिडो, एड आदि अन्तरराष्ट्रीय एजेन्सियां इसके पैरोकार की भूमिका निभाने लगी थीं। इस तरह असेम्बली लाइन (जिस पर पुर्जे जोड़कर माल तैयार किया जाता है) पूरे भूमण्डल पर विस्तारित होने लगी थी। एक अन्तरराष्ट्रीय निवेश कम्पनी के वरिष्ठ प्रबन्ध निदेशक तथा अमेरिकी सरकार के भूतपूर्व अवर सचिव जॉर्ज बॉल ने 1967 में ही वित्तीय पूंजी की इस आम रुझान और प्रवाह की दिशा पर टिप्पणी करते हुए कहा था, ‘‘आज ऐसी कम्पनियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है जो एक देश-समूह से कच्चा माल लेकर दूसरे देश-समूह के श्रम तथा कारखानों से लाभ उठाते हुए, विनिर्मित माल तैयार करके किसी तीसरे देश-समूह को बेचने में लगी हुई हैं। त्वरित संचार साधनों, तेल परिवहन सेवाओं, कम्प्यूटर और आधुनिक प्रबन्धकीय तकनीक से लैस होकर श्रम व कच्चे माल की उप्लब्धता तथा कीमतों के उतार-चढ़ाव के अनुसार, हर महीने उत्पादन तथा वितरण के तरीकों में फेरबदल करते हुए वे अपने संसाधनों को नित नये तरीके से संयोजित करते रहते हैं।’’

1970 के दशक में नया अन्तरराष्ट्रीय श्रम विभाजन कमोबेश स्थापित हो चुका था। तीसरी दुनिया के देश अब केवल प्राथमिक माल का उत्पादन और निर्यात तथा विकसित देशों से विनिर्मित माल का आयात करने, की मंजिल से आगे बढ़ चुके थे। यही नहीं, ऊपर उद्धृत जार्ज बॉल के प्रेक्षण से भी आगे अब स्थिति यह हो चुकी थी कि सिर्फ श्रम-प्रधान उत्पादनों के बजाय अब मेक्सिको और ऐसे ही कुछ अन्य देश ऐसे उत्पादन में भी लग चुके थे जिनकी तकनोलॉजी और कुशलता अमेरिका और यूरोप जैसी ही उन्नत थी। फर्क सिर्फ यह था कि ऐसे उत्पादों की लागत इन देशों में अपेक्षतया काफी कम होती थी। प्रौद्योगिक प्रगति ने पूंजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया की भूमण्डलीय पहुंच को व्यापक बना दिया। सस्ते, सुगमतर और तीव्रतर संचार-यातायात और नयी तकनोलॉजी ने उत्पादन प्रक्रिया को टुकडे़-टुकड़े में बांटकर पूरी पृथ्वी पर पार्सल कर देना सम्भव बना दिया। 1970 के दशक में दीर्घकालिक मंदी के नये चक्र की जो शुरुआत हुई उसने पश्चिमी चौधरियों को मजबूर किया कि वे आर्थिक विकास के नवीकरण और आर्थिक ठहराव की हद तक आगे बढ़ चुकी प्रतियोगिता का मुकाबला करने की तरकीबें ईजाद करें। इन्हीं कोशिशों-तरकीबों के पैकेज को आज ‘‘पुनर्गठन’’ (Restructuring) ढांचागत समायोजन और बाजार-निर्देशित नुस्खों की संज्ञा दी जा रही है जो भूमण्डलीकरण के इस नये दौर के चालू मुहावरे बने हुए हैं। ‘कारपोरेट रीस्ट्रक्चरिंग’ वास्तव में लागत में कटौती और श्रम पर पुनर्नियंत्रण का ही दूसरा नाम है जिसे श्रम बाजार में ‘‘लचीलेपन’’ की वापसी की संज्ञा भी दी जा रही है, मुक्त बाजार का रामधुन जपने वाले अर्थशास्त्री और राजनीतिक चिन्तक आज विश्व बाजार की बढ़ती प्रतियोगिता की स्थिति को स्वीकारने की सलाह देते नहीं थक रहे हैं, पर वे यह नहीं बताते कि भूमण्डलीय प्रतियोगिता का जो अर्थ गरीब देशों के (और धनी देशों के भी) स्त्री-पुरुष मजदूरों के लिए है, वही अर्थ फोर्ड, टोयोटा, जनरल मोटर्स, मर्सिंडीज बेंज आदि के लिए (या टाटा-बिड़ला-अम्बानी के लिए) नहीं है। श्रम और पूंजी के परस्पर विरोधी हित आज काफी साफ हैं और वास्तव में, वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय श्रम-विभाजन इसी अन्तरविरोध का एक नतीजा है।

इस सच्चाई से एकदम परे हटकर पश्चिमी थिंकटैंक और उनके पिछलग्गू देसी कलमनवीस हमें यह बताने की कोशिश करते हैं कि भूमण्डलीकरण बाजार-प्रतियोगिता और नई तकनोलॉजिकल प्रगतियों के संयोजन का परिणाम है, पर प्रतियोगिता या तकनोलॉजी में कुछ भी तटस्थ नहीं होता। पूँजीवादी बाजार अर्थ-व्यवस्था में माल एवं सेवाओं के ज्यादा से ज्यादा सस्ते और ज्यादा से ज्यादा तेज उत्पादन के द्वारा ज्यादा से ज्यादा लाभ-संचय के लिए बाजार की तलाश की मुहिम ही प्रतियोगिता को जन्म देती रही है और औद्योगिक क्रांति से लेकर आज तक के समय में, उत्पादन के लिए नई-नई तकनोलॉजी का इस्तेमाल मुनाफे के इसी उद्देश्य से होता रहा है। श्रम के लिए इसका एकमात्र मतलब ‘‘उत्पादन के एक उपादान’’ के रूप में इस्तेमाल होना है जिसकी भूमिका कुशलता और लागत से मापी जाती है। प्रारम्भिक औद्योगिक क्रान्ति में इसी के चलते स्त्रियों के अतिशोषण की शुरुआत हुई और आज भी तीसरी दुनिया की स्त्रियों का अत्यन्त सस्ता श्रम इसी कारण से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा खरीदा जा रहा है।

भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ का रामनामी दुपट्टा फेंककर पूंजीवाद अपने सम्पूर्ण समग्र रूप में सामने है। ‘‘पुनर्गठन’’ का एकमात्र अर्थ यही है। निजीकरण और ‘डीरेग्युलेशन’ और ढांचागत समायोजन का एकमात्र उद्देश्य पूंजीवाद को उसके क्लासिकी रूप में एक बार फिर बहाल करना है, जिसमें पूंजीवाद की जो बुनियादी प्रवृत्तियां शुरू से उसके भीतर मौजूद रही हैं वे एकदम सतह पर उभर आईं  हैं। ये प्रवृत्तियां हैंकृहर चीज को माल में तब्दील कर देना और अतिलाभ अर्जित करने और उग्र होती जा रही बाजार की प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए पूंजीपतियों के द्वारा सस्ते से सस्ते श्रम के स्रोतों की तलाश। और आज दुनिया में सबसे सस्ता श्रम है तीसरी दुनिया  के देशों की निम्न मध्यवर्गीय और मेहनतकश स्त्रियों का, जिस पर तमाम राष्ट्रपारीय निगम गिद्धों की तरह टूट पड़े हैं।

एनेट क्यूण्टेस और बारबरा एहरेनराइश के शब्दों में, ‘‘अस्सी के दशक में ‘मेड इन ताइवान’ और ‘हाइती में उत्पादित’ जैसे चिप्पियों के पीछे महिला श्रम-शक्ति का विराट पुंज छिपा हुआ था। पिछले लगभग पन्द्रह सालों से श्रम को सस्ते से सस्ता और मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बनाने के लिए सियर्स रोबक् तथा जनरल इलेक्ट्रिक जैसे बहुराष्ट्रीय निगमों की महिला श्रमिकों पर निर्भरता बढ़ती गई है। पुर्जे जोड़कर बनाये जाने वाले खिलौने, जींस पैण्ट, माइक्रोप्रोसेसर हार्डवेयर जैसे उपभोक्ता सामानों की अदृश्य उत्पादक औरतें ही रही हैं।

‘‘इन कम्पनियों के तीसरी दुनिया की ओर कूच करने का मुख्य कारण है, यहां का कम वेतन। अमेरिका में उत्पादन श्रृंखलाओं में खड़ी होकर पुर्जे जोड़ने वाली मजदूर औरत औसतन 3-10 डालर से लेकर 5 डालर प्रति घंटा तक कमा लेती हैं। तीसरी दुनिया में वही काम करने वाली औरत मजदूर पूरे दिन की हाड़तोड़ मेहनत के बाद 3 से 5 डालर कमा पाती है। ऐसे में अधिक से अधिक निचोड़ने की ख्वाहिश रखने वाले निगमों के प्रबन्धक आखिर मेसाच्यूसेट्स में किसी को एक घण्टे के काम के लिए भला उतना पैसा क्यों देंगे, जो फिलीपींस के लोग पूरे दिन की मेहनत के बाद कमाते हैं? यही नहीं, जब औरतों की दरें पुरुषों से 40-60 प्रतिशत कम हों तो वे पुरुष मजदूर क्यों रखना चाहेंगें? अमेरिकी निगम अपनी इस अन्तरराष्ट्रीय उत्पादन सुविधा को ‘‘समुद्रपारीय स्रोतीकरणय् (Off-shore Sorcing) का नाम देते हैं। अमेरिकी मजदूरों का रोजगार छीनने वाली इन कम्पनियों को वहां की ट्रेड यूनियनों से ‘भगोड़ी कार्यशालाओं’ (Run-away Shops) का नाम दिया है।’’ (विमेन इन द ग्लोबल फैक्टरी_ अमेरिका, 1983)

एनेट और बारबरा ने अपनी पुस्तक में मलेशिया, थाइलैण्ड, ताइवान से लेकर मैक्सिको, ब्राजील, डॅामिनिकन रिपब्लिक, हाइती, ग्वाटेमाला, प्यूएर्तोरिको आदि देशों की स्त्री कामगारों के कठिन श्रम और नारकीय जीवन का जो खाका खींचा है वह लोमहर्षक है। इसे पढ़कर ही जाना जा सकता है। भूमण्डलीकरण के दौर में स्त्रियां किस तरह ‘‘बीसवीं सदी के निकृष्टतम गुलामों’’ की कोटि में खड़ी कर दी गई हैं। और अब, नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद भारत भी स्पष्टतः इन्हीं देशों की कतार में शामिल हो गया है।

बीसवीं सदी के अन्त में, भारत जैसे गरीब देशों की मेहनतकश स्त्रियां रोजमर्रें के आम जीवन से अनुपस्थित होती जा रही हैं। उन्हें देखना हो तो वहां चलना होगा जहां वे छोटे-छोटे कमरों में माइक्रोस्कोप पर  निगाहें गड़ाये सोने के सूक्ष्म तारों को सिलिकॉन चिप्स से जोड़ रही हैं, निर्यात के लिए सिले-सिलाए वस्त्र तैयार करने वाली फैक्टरियों में कटाई-सिलाई कर रही हैं, खिलौने तैयार कर रही हैं या फूड प्रोसेसिंग के काम में लगी हुई हैं। इसके अलावा वे बहुत कम पैसे पर स्कूलों में पढ़ा रही हैं, टाइपिंग कर रही हैं, करघे पर काम कर रही हैं, सूत कात रही हैं और पहले की तरह बदस्तूर खेतों में भी खट रही हैं। महानगरों में वे दाई-नौकरानी का भी काम कर रही हैं और ‘बार मेड’ का भी।

अनुपस्थित और मौन होकर भी वे हमारे आसपास ही हैं। भूमण्डलीकरण की संजीवनी पी रहे वृद्ध पूंजीवाद के लिए शव-परिधान बुन रही हों शायद! क्या पता!

दायित्वबोध, वर्ष 3, अंक 6, सितम्बर-अक्टूबर 1996

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