श्रद्धांजलि

श्रद्धांजलि – नेल्सन मण्डेला

नेल्सन मण्डेला

  • आनन्‍द सिंह

गुजरे 5 दिसम्बर को नेल्सन मण्डेला की मृत्यु के बाद पूँजीवादी और साम्राज्यवादी मीडिया में उनके जीवन और योगदान का एकतरफा ब्योरा देकर गौरवगान तो हो ही रहा था, लेकिन इसके साथ ही साथ विभिन्न किस्म के वामपन्‍थी भी मुख्यधारा की मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक उनका अनालोचनात्मक महिमामण्डन करने में लगे हुए थे। निश्चित रूप से नेल्सन मण्डेला का जीवन (विशेष रूप से जेल से रिहाई से पहले तक) रंगभेद के खिलाफ अश्वेतों के संघर्ष का प्रतीक बन गया था। परन्‍तु यदि उनके जीवन के दूसरे पहलू यानी जेल से बाहर निकलने के बाद अश्वेतों की मुक्ति के स्वप्न के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात को नहीं उजागर किया जाता है, तो यह इतिहास के साथ अन्याय होगा। 27 वर्षों तक रंगभेदी हुकूमत की कैद में रहने के बाद एक समझौते के तहत रिहा होने के बाद नेल्सन मण्डेला ने जिस कदर साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके, उससे वह तीसरी दुनिया के देशों के राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नायकों के खण्डित गौरव की त्रासदी का भी प्रतीक बन गये। मण्डेला ने अश्वेतों की मुक्ति के जिस स्वप्न के लिए संघर्ष किया, वक्त आने पर उसी से उन्होंने आश्चर्यजनक तरीके से मुँह मोड़ लिया। यदि मण्डेला अपनी जिन्‍दगी के एक दौर में अफ्रीका ही नहीं बल्कि एशिया और लातिन अमेरिका के तमाम देशों की उत्पीड़ित जनता के लिए उम्मीद की किरण बनकर उभरे तो अपनी जिन्‍दगी के आखिरी दो दशकों में जनता की निराशा और हताशा का कारण भी बने। इसलिए जरूरत इस बात की है कि नेल्सन मण्डेला के समूचे राजनीतिक जीवन को एकतरफा नजरिये से देखने की बजाय उसका सांगोपांग विश्लेषण किया जाये।

nelson-mandelaनेल्सन मण्डेला का जन्म 18 जुलाई 1918 को एक कबीलाई शासक परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1940 के दशक में मध्यवर्गीय अश्वेतों के चन्‍द अधिकारों की माँग उठाने वाली सुधारवादी राजनीति से की। परन्‍तु इन सुधारवादी माँगों के प्रति रंगभेदी सरकार के ठण्डे रवैये के चलते मण्डेला रैडिकल राजनीति की ओर आकर्षित होते चले गये। गौरतलब है कि यह वही दौर था जब चीनी क्रान्ति के बाद एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका तीसरी दुनिया के तमाम देशों में क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी थी। कोरिया, वियतनाम, अल्जीरिया सहित तमाम देशों में साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष अपने उफान पर था। हालाँकि मण्डेला इस दौर में ‘रैडिकलाइज’ तो हुए परन्‍तु सैद्धान्तिक समझ और सशस्त्र संघर्ष के प्रति प्रतिबद्धता के मामले में वे क्वामे एन्क्रूमा, पैट्रिस लुमुंबा, अमिल्कर कबराल, जूलियस न्येरेरे, लियोपोल्ड सेंघोर, ऑगस्तिनो नेतो, बेन बेला, हबीब बुर्गीबा जैसे तीसरी दुनिया के नेताओं जितने रैडिकल नहीं थे। 1960 के कुख्यात शार्पविले नरसंहार के बाद मण्डेला ने दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी (एसएसीपी) के सहयोग से 1961 में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की सशस्त्र विंग ‘उमखोंतो वी सिजवे’ (‘राष्ट्र का भाला’) भी बनायी। यहाँ तक कि उन्होंने मोरक्को और इथियोपिया में सैन्य परीक्षण भी प्राप्त किया। परन्‍तु सैन्य परीक्षण के बाद दक्षिण अफ्रीका लौटते ही 5 अगस्त 1962 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। तब से लेकर फरवरी 1990 तक वे रंगभेदी हुकूमत की कैद में ही रहे। इस प्रकार मण्डेला एक छोटे अन्‍तराल के दौरान ही सशस्त्र संघर्ष की राह पर चल पाये।

फरवरी 1990 में जब मण्डेला कैद से रिहा हुए तब तक समूचा दिक्काल परिप्रेक्ष्य ही बदल चुका था और एक बिल्कुल नयी दुनिया सामने थी। तीसरी दुनिया के रैडिकल बुर्जुआ वर्ग की ऊर्जस्विता और आवेग का क्षरण और विघटन हो चुका था और वह पतित होकर विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में अपने आपको व्यवस्थित कर रहा था। चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्‍थापना हुए एक दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका था, सोवियत संघ में नकली समाजवाद भी ढहने की कगार पर था। इस प्रकार अमेरिका के एकछत्र साम्राज्यवादी वर्चस्व वाली एक नयी दुनिया का पदार्पण हो रहा था। यह भूमण्डलीकरण का नवउदारवादी युग था। हालाँकि रिहा होने के तुरन्‍त बाद मण्डेला ने एएनसी के 1955 के प्रसिद्ध फ्रीडम चार्टर को लागू करने की बात कही थी जिसमें खदानों और उद्योग-धन्धों के आंशिक राष्ट्रीकरण की बात कही गयी थी। परन्‍तु जल्द ही मण्डेला अपने ही वायदे से मुकर गये और नवउदारीकरण को गले लगा लिया। प्रसिद्ध पत्रकार जॉन पिल्जर द्वारा इस बाबत सवाल पूछे जाने पर मण्डेला का जवाब था, ‘‘हमारे इस देश में निजीकरण एक बुनियादी नीति है’’। इस जवाब से मण्डेला की पूँजी के प्रति पक्षधरता साफ उजागर होती है और इसलिए यह कतई आश्चर्य की बात नहीं कि उनकी मृत्यु के बाद दुनिया भर के पूँजीवादी हुक्मरान उनकी शान में कसीदे गढ़ रहे हैं।

मण्डेला की रिहाई के कई साल पहले से ही दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी हुक्मरान समझौता-वार्ता कर रहे थे। 1970 के दशक में दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों का विद्रोह उग्र रूप धारण करने लगा था। छात्र, युवा, मजदूर, किसान, खनिक सभी बर्बर पुलिसिया दमन के बावजूद राजनीतिक हड़तालों में शामिल हो रहे थे। राष्ट्रपति बोथा ने स्थिति को काबू में लाने के लिए बर्बर दमन के साथ ही साथ कुछ सामाजिक कल्याण की नीतियाँ भी लागू करने की कोशिश की। इसके अलावा उसने रंगभेद विरोधी गुटों में फूट डालने की तमाम साजिशें भी रचीं, परन्‍तु उसकी रणनीति कारगर होती नहीं दिखायी दे रही थी। स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि रंगभेदी सरकार ने 1986 में आपातकाल की घोषणा कर विद्रोह के केन्‍द्रों में कर्फ्यू लगाने का आदेश दे दिया। सुरक्षा बलों ने हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया। 1988 में 31 अश्वेत राजनीतिक संगठनों पर पाबन्‍दी लगा दी गयी। परन्‍तु इसके बावजूद अश्वेतों का संघर्ष रुकने की बजाय बढ़ता ही गया। यह वह परिदृश्य था जिसमें दक्षिण अफ्रीका के रंगभेदी शासकों ने पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों की सलाह पर नेल्सन मण्डेला से समझौते की रणनीति अपनानी पड़ी। 1982 में ही मण्डेला को रॉबेन टापू के जेल से हटाकर पोल्समूर जेल में स्थानान्‍तरित कर दिया गया जहाँ पर वह अतिथियों से मिल सकते थे। जहाँ एक ओर रंगभेदी शासन के उच्च अधिकारी मण्डेला से समझौता वार्ताएँ कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर दक्षिण अफ्रीका के अरबपति उद्योगपति और खान मालिक यूरोपीय देशों में निर्वासन पर रह रहे एएनसी के अन्य नेताओं जैसे थाबो एमबेकी (जो मण्डेला के बाद दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति भी बने) से पश्चिम की शह पर वार्ताएँ कर रहे थे और उन्हें भाँति-भाँति के प्रलोभन दे रहे थे।

समझौता वार्ताओं के परिणामस्वरूप फरवरी 1990 में नेल्सन मण्डेला जेल से रिहा हुए। इस प्रकार आधिकारिक तौर पर रंगभेदी शासन के युग की समाप्ति हुई और एक बुर्जुआ जनवादी गणतांत्रिक ढाँचे का निर्माण हुआ। पहली बार अश्वेतों को वोट का अधिकार प्राप्त हुआ। 1994 में सम्पन्न हुए चुनावों के बाद नेल्सन मण्डेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने। इस समझौते के तहत मण्डेला ने शुरुआत में श्वेतों की पार्टी नेशनल पार्टी के साथ संयुक्त सरकार भी बनायी। 1993 में उन्हें नेशनल पार्टी के नेता और रंगभेदी शासन के अन्तिम राष्ट्रपति एफ डी क्लर्क के साथ संयुक्त रूप से नोबल शान्ति पुरस्कार से भी नवाजा गया। इस समझौते का दूसरा पहलू यह था सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों में कोई बदलाव नहीं किये गये। श्वेतों की सम्पत्ति को छेड़ा नहीं गया। श्वेत बुर्जुआ वर्ग ने समझौते से पहले ही योजनाबद्ध तरीके से अश्वेतों में एक छोटा से तबका पूँजीपति वर्ग और निम्न पूँजीपति वर्ग के रूप में विकसित किया जिनके हित श्वेतों के हित से मेल खाते थे। राष्ट्रपति बनने के तुरन्‍त बाद मानो मण्डेला ने श्वेत और अश्वेत बुर्जुआ वर्ग के हितों के मद्देनजर अश्वेतों की मुक्ति के स्वप्न का परित्याग कर दिया और नवउदारवादी पूँजीवाद को सरेआम गले लगा लिया। भूमि सुधार न के बराबर हुआ। 1994 के बाद से अब तक सिर्फ 3 फीसदी जमीन का हस्तान्‍तरण अश्वेतों को किया गया। कृषि योग्य भूमि का लगभग पूरे हिस्से का स्वामित्व 60,000 श्वेतों के पास है।

मण्डेला के इस ऐतिहासिक विश्वासघात का नतीजा यह हुआ कि औपचारिक रूप से रंगभेद की समाप्ति के दो दशकों के बाद भी दक्षिण अफ्रीका में वर्गभेद पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। बस अन्‍तर यह आया है कि धनिक शासक वर्ग में श्वेतों के अतिरिक्त अश्वेतों की एक बारीक परत भी जुड़ गयी है। आज दक्षिण अफ्रीका दुनिया के सबसे असमान देशों में से एक है (लेसोथो के बाद दूसरे स्थान पर)। सरकारी आँकड़ों के अनुसार वहाँ की लगभग आधी आबादी गरीबी रेखा से नीचे रहती है। अश्वेतों की आबादी कुल आबादी का 80 फीसदी होने के बावजूद दक्षिण अफ्रीका की कुल सम्पदा के मात्र 5 फीसदी पर उनका नियन्‍त्रण है। जहाँ श्वेत यूरोपीय नगरों जैसे आलीशान वातावरण में रहते हैं वहीं अधिकांश अश्वेत झुग्गियों की नारकीय परिस्थिति में गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार दक्षिण अफ्रीका में लगभग 25 फीसदी लोग बेरोजगार हैं। अश्वेतों में यह आँकड़ा 50 फीसदी है। नवउदारवादी नीतियों की वजह से श्रम का अनौपचारिकीकरण भी बड़े पैमाने पर हुआ है। खनिक और श्रमिक अमानवीय परिस्थितियों में खटने को मजबूर हैं और आवाज उठाने पर उनका बर्बर तरीके से दमन किया जाता है। इसकी एक मिसाल अगस्त 2012 में मरिकाना की प्लैटिनम खदान में देखने को मिली जब संघर्षरत खनिकों पर राज्य की पुलिस ने अन्धाधुन्ध फायरिंग की जिसमें 34 खनिक मौत के घाट उतार दिये गये। गौरतलब है कि जो ब्रिटिश कम्पनी इस खदान की मालिक है उसके बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में पूर्व यूनियन नेता और एएनसी का उपाध्यक्ष सिरिल रामफोसा भी है जो अरबपति है। रामफोसा जैसे तमाम अरबपति भ्रष्ट नेता नेल्सन मण्डेला के करीबी समझे जाते थे। मौजूदा परिस्थिति यह है कि एएनसी (अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस), एसएसीपी (दक्षिण अफ्रीका की कम्युनिस्ट पार्टी) और कोसाटू (ट्रेड यूनियन फेडरेशन) का गन्‍दा त्रिगुटा मिलकर जनता को लूट-खसोट रहा है। एक ओर इनके नेता भ्रष्टाचार, विलासिता और व्यभिचार के सारे कीर्तिमान धवस्त कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आम जनता के जीवन के हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। यही वे हालात हैं जिनके बीच नेल्सन मण्डेला का देहावसान हुआ। हालात को इस मुकाम तक पहुँचाने में नेल्सन मण्डेला की भूमिका की अनदेखी करना इतिहास के साथ नाइंसाफी होगी।

 

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित