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सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण / लेनिन

सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण

  • वी.आई. लेनिन

जो लोग केवल वर्ग संघर्ष को मानते हैं, वे अभी मार्क्सवादी नहीं है, वे सम्भवत: अभी बुर्जुआ चिन्तन और बुर्जुआ राजनीतिक के दायरे में ही चक्कर काट रहे हैं। मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त तक ही सीमित करने के मानी हैं मार्क्सवाद की काट–छाँट करना, उसको तोड़ना–मरोड़ना, उसे एक ऐसी चीज़ बना देना, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य हो। मार्क्सवादी केवल वही है, जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की मान्यता तक ले जाता है। मार्क्सवादी और एक साधारण छोटे (और बड़े) बुर्जुआ के बीच सबसे गम्भीर अन्तर यही है। यही वह कसौटी है जिस पर मार्क्सवाद की वास्तविक समझ और मान्यता की परीक्षा की जानी चाहिए।

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व एक अत्यन्त नि:स्वार्थ और निर्मम युद्ध है, जो एक नया वर्ग अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु, बुर्जुआ वर्ग के खिलाफ चलाता है, जिसकी पराजय से (भले ही वह केवल एक देश में पराजित हुआ हो) उसका प्रतिरोध दस गुना बढ़ जाता है और जिसकी शक्ति न केवल अनतरराष्ट्रीय पूँजी की शक्ति में, बुर्जुआ वर्ग के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की ताकत और मजबूती में, बल्कि आदत की ताकत में, छोटे पैमाने के उत्पादन की शक्ति में भी निहित है। कारण कि दुर्भाग्य से, छोटे पैमाने का उत्पादन अब भी दुनिया में बहुत, बहुत बचा हुआ है और यह छोटे पैमाने का उत्पादन लगातार हर दिन, हर घण्टे, अपनेआप और बड़े पैमाने पर पूँजीवाद और बुर्जुआ वर्ग को पैदा करता रहता है। इन सभी कारणों से, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व अत्यन्त आवश्यक है, और एक लम्बा, कठोर, और निर्मम युद्ध चलाये बिना जीवन और मरण की लड़ाई लड़े बिना, एक ऐसी लड़ाई लड़े बिना, जिसमें धैर्य, अनुशासन, अदम्य साहस और इच्छा की एकता की आवश्यकता होती है, बुर्जुआ वर्ग पर विजय पाना असम्भव है।

– “वामपन्थी” कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़,

(अप्रैल–मई, 1920)

…पूँजीवाद से समाजवाद में हर संक्रमण के दौरान दो मुख्य कारणों से, या दो मुख्य रास्तों से अधिनायकत्व जरूरी होता है। पहला, पूँजीवाद को तब तक हटाया और मिटाया नहीं जा सकता जब तक उन शोषकों के प्रतिरोध का निर्ममतापूर्वक दमन न किया जाये, जिन्हें एकाएक उनकी सम्पत्ति से, संगठन और ज्ञान के उनके लाभों से वंचित नहीं किया जा सकता, और फलत: जो काफी लम्बे समय तक अपरिहार्यत: गरीबों के घृणित राज को उखाड़ फेंकने की कोशिश करते रहेंगे। दूसरे, यदि बाह्य युद्ध न भी तो भी, किसी भी महान क्रान्ति, खासकर समाजवादी क्रान्ति की कल्पना आन्तरिक युद्ध, यानी गृहयुद्ध के बिना नहीं की जा सकती, जो बाह्य युद्ध से भी ज़्यादा विनाशकारी होता है, और जिसमें ढुलमुलपन और एक पक्ष को छोड़कर दूसरे पक्ष में चले जाने के दसियों लाख मामले होते हैं, तथा अत्यधिक अनिश्चितता, सन्तुलन का अभाव और अराजकता अन्तर्निहित होते हैं। और बेशक, पुराने समाज के विघटन से निकले सभी तत्व, जो अपरिहार्यत: असंख्य होते हैं और मुख्यत: निम्न–बुर्जुआ से जुड़े होते हैं (क्योंकि हर युद्ध और हर संकट सबसे पहले निम्न बुर्जुआ को तबाह–बर्बाद करता है) ऐसी किसी व्यापक क्रान्ति के दौरान “मजे लूटे” बिना नहीं रह सके। और विघटन के ये तत्व अपराध, गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी और हर किस्म की बदमाशियों के बना “मज़ा” नहीं “लूट” सकते। और उन्हें दबाने में समय लगता है और इसके लिए लोहे के हाथों की जरूरत होती है।

दुनिया में एक भी ऐसी महान क्रान्ति नहीं हुई है जिसमें लोगों ने सहज प्रेरणा से इस बात को जान न लिया हो, और चोरों को फौरन गोली से उड़ाकर शानदार दृढ़ता का परिचय न दिया हो। पिछली क्रान्तियों का यह दुर्भाग्य था कि जनसाधारण का क्रान्तिकारी उत्साह, जो उन्हें तनाव की स्थिति में बनाये रखता था और उन्हें विघटन के तत्वों का निर्ममतापूर्वक दमन करने की शक्ति प्रदान करता था, ज्यादा दिनों तक टिका नहीं रहता था। जनसाधारण के क्रान्तिकारी उत्साह की इस अस्थिरता का सामाजिक, यानी वर्गीय कारण था सर्वहारा वर्ग की कमजोरी, क्योंकि केवल वही (यदि वह पर्याप्त संख्या में, वर्ग सचेत और अनुशासित हो) मेहनतकश तथा शोषित जनता की बहुसंख्या को (और सीधे–सरल तथा लोकप्रिय ढंग से कहें, तो गरीबों की बहुसंख्या को) अपनी ओर खींच सकता है तथा सत्ता को इतने समय तक कायम रख सकता है जो सभी शोषकों तथा विघटन के सभी तत्वों को पूरी तरह दबाने के लिए पर्याप्त हो।

सभी क्रान्तियों के इसी ऐतिहासिक अनुभव, इसी विश्व–ऐतिहासिक–आर्थिक एवं राजनीतिक सबक का समाहार करते हुए मार्क्स ने अपना संक्षिप्त, तीक्ष्ण, और अभिव्यंजनापूर्ण सूत्र दिया : सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व।

– सोवियत सरकार के तात्कालिक कार्यभार (मार्च–अप्रैल 1918)

शोषकों, जमींदारों और पूंजीपतियों का वर्ग सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत न तो लुप्त हुआ है और न तत्काल लुप्त हो सकता है। शोषकों को चकनाचूर तो कर दिया गया है, परन्तु उनका उन्मूलन नहीं हुआ है। उनके पास अन्तर्राष्ट्रीय आधार बचा हुआ है, यह है अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी, जिसकी वे एक शाखा हैं। उनके पास उत्पादन के कुछ साधनों का एक भाग बचा हुआ है, उनके पास धन बचा हुआ है, उनके पास विशाल मात्रा में सामाजिक संबंध हैं। ठीक उनकी पराजय के कारण उनके प्रतिरोध की स्फूर्ति सौगुनी, हजार गुनी बढ़ी है। राजकीय, सैनिक, आर्थिक प्रशासन की ‘‘कला’’ उनका पलड़ा बहुत ज्यादा भारी बनाती है, जिसकी वजह से उनका महत्व आबादी की आम संख्या में उनके हिस्से से अतुलनीय रूप से अधिक है। शोषितों के विजयी हरावल के विरुद्ध, याने सर्वहारा वर्ग के विरुद्ध शोषकों का, जिनका तख्ता उलटा जा चुका है, वर्ग संघर्ष अपरिमित रूप से अधिक कटु बन गया है। अन्यथा हो भी नहीं सकता, बशर्ते क्रांति की अवधारणा के स्थान पर (जैसा कि दूसरे इंटरनेशनल के सारे सूरमा करते हैं) सुधारवादी भ्रम न रख दिये जायें।

– सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति और राजनीति, (अक्टूबर, 1919)

…सत्ता पर सर्वहारा का अधिकार होने के बाद भी वर्ग अभी बाक़ी हैं और बरसों सर्वत्र बाक़ी रहेंगे। हो सकता है कि इंगलैण्ड में, जहाँ किसान नहीं है (लेकिन फिर भी छोटी मिल्की तो हैं ही!), यह अवधि न्यूनतर हो। वर्गों का उन्मूलन करने का मतलब सिर्फ भूस्वामियों और पूँजीपतियों को निकालना ही नहीं है, – यह तो हमने अपेक्षाकृत आसानी से कर लिया है, -इसका मतलब लघु पण्य–उत्पादकों का उन्मूलन भी है और उन्हें निकाल बाहर नहीं किया जा सकता, उन्हें कुचला नहीं जा सकता, उनके साथ मिल–जुलकर रहना होगा, उन्हें सिर्फ़ बहुत दीर्घकालिक, बहुत मंथर और बहुत सावधानीपूर्ण संगठनात्मक कार्य द्वारा ही फिर से ढाला और पुन:शिक्षित किया जा सकता है (और यिका जाना चाहिये)। वे सर्वहारा को सभी ओर से निम्नबुर्जुआ परिवेश में घेरे हैं, उसे उससे सराबोर करते हैं, उसे भ्रष्ट करते हैं, सर्वहारा में निरंतर निम्नबुर्जुआ ढुलमुलयक़ीनी, फूट, व्यक्तिवादिता, बारी–बारी से हर्षोतिरेक से घोर निराशा के दौरों का आवर्तन लाते हैं। इसके लिए सर्वहारा की राजनीतिक पार्टी के भीतर कठोरतम केन्द्रीयता और अनुशासन की आवश्यकता है कि इसका मुक़ाबला किया जा सके, कि सर्वहारा की संगठनात्मक भूमिका (और यही उसकी मुख्य भूमिका है) को सही तरीके से, सफलतापूर्वक और विजय के साथ निबाहा जा सके। सर्वहारा अधिनायकत्व पुराने समाज की शक्तियों और परम्पराओं के विरुद्ध अनवरत – रक्तमय और रक्तहीन, हिंसापूर्ण और शांतिमय, सैनिक और आर्थिक, शैक्षिक और प्रशासनिक-संघर्ष है। लाखों और करोड़ों इन्सानों की आदत एक दुर्दम्य शक्ति है। संघर्ष में तपी एक फौलादी पार्टी के बग़ैर, ऐसी पार्टी के बग़ैर कि जिसे उस वर्ग के सभी ईमानदार लोगों का विश्वास प्राप्त हो, ऐसी पार्टी के बग़ैर कि जिसमें जनसाधारण की भावनाओं को समझने और उन पर प्रभाव डालने की क्षमता हो, इस संघर्ष को सफलतापूर्वक चलाना सम्भव नहीं है। करोड़ों छोटे मिल्कियों को “हराने” की बनिस्पत केंद्रीकृत बड़े बुर्जुआज़ी को हराना हज़ार गुना आसान है, लेकिन ये छोटे मिल्की अपने रोज़मर्रा के साधारण, अदृश्य, अननुभूत, हतोत्साहकारी कार्यकलाप से वे ही परिणाम पैदा करते हैं, जिनकी बुर्जुआज़ी को आवश्यकता है, जो बुर्जुआज़ी की पुन:स्थापना करते हैं। जो कोई भी सर्वहारा पार्टी के लौह अनुशासन को ज़रा भी कमज़ोर करता है (ख़ासकर उसके अधिनायकत्व के समय), वह वास्तव में सर्वहारा के विरुद्ध बुर्जुआज़ी की सहायता करता है।…

– “वामपन्थी” कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़, (अप्रैल–मई, 1920)

हाँ, मज़दूर वर्ग को पुराने पूँजीवादी समाज से अलग करने वाली कोई चीन की दीवार नहीं है। और जब कोई क्रान्ति होती है, तो वह इस तरह नहीं होती जैसे कोई व्यक्ति मर जाता है, जब मृत व्यक्ति को सीधे उठा ले जाया जाता है। जब पुराना समाज मरता है, तो आप उसके मृत शरीर को ताबूत में बन्द करके कब्र में दफ्न नहीं कर सकते। वह हमारे बीच ही विघटित होता है मृत शरीर सड़ता है और हमारे बीच ज़हर फैलता है।

– अकाल का मुकाबला करने पर रिपोर्ट मज़दूरों, किसानों और लाल सेना के प्रतिनिधियों तथा ट्रेड यूनियनों की मास्कों सोवियत की अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी के संयुक्त अधिवेशन में प्रस्तुत (4 जून, 1918)

इस प्रकार कम्युनिस्ट समाज की प्रथम अवस्था में (जिसे आम तौर से समाजवाद कहा जाता है) पूर्ण “बुर्जुआ अधिकार” का नहीं, बल्कि उसके केवल एक भाग का, तब तक हो चुकनेवाली आर्थिक क्रान्ति के अनुपात में ही, अर्थात उत्पादन के साधनों के सम्बन्ध में ही, उन्मूलन होता है। “बुर्जुआ अधिकार” उन्हें अलग–अलग व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति मानता है। समाजवाद उन्हें सब की सम्पत्ति बना देता है। उस हद तक-और केवल उसी हर तक-“बुर्जुआ अधिकार” लुप्त होता है।

लेकिन जहाँ तक उसके दूसरे भाग का सम्बन्ध है, वह अब भी मौजूद रहता है, वह समाज के समदस्यों के बीच उत्पादित चीज़ों के वितरण और श्रम के विनियोजन में एक नियामक (निर्धारक शक्ति) की हैसियत में मौजूद रहता है। यह समाजवादी उसूल कि “जो काम नहीं करता, वह खायेगा भी नहीं” अमल में आ चुका है; दूसरा समाजवादी उसूल भी कि “श्रम की बराबर मात्रा के लिए उत्पादित चीजों की बराबर मात्रा”, अमल में आ चुका है। लेकिन अभी यह कम्युनिज़्म नहीं होता और यह उस “बुर्जुआ अधिकार” का, जो असमान व्यक्तियों को मेहनत की असमान (वास्तव में असमान) मात्रा के बदले में उत्पादित चीज़ों की समान मात्रा देता है, अभी ख़ात्मा नहीं करता।

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

मार्क्स न केवल मनुष्यों की अनिवार्य असमानता का ही अधिकतम अचूक ध्‍यान रखते हैं, बल्कि वह इस बात का भी ध्‍यान रखते हैं कि केवल उत्पादन के साधनों को सम्पूर्ण समाज की सम्पत्ति बना देने से ही (जिसे आम तौर से “समाजवाद” कहा जाता है) बँटवारे की बुराइयाँ और “बुर्जुआ अधिकार” की असमानता दूर नहीं हो जातीं, जो उस हद तक निरन्तर हावी रहता है, जिस हद तक उपजों का बँटवारा मेहनत की मात्रा के अनुसार” होता रहता है।

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

…निस्संदेह उपभोग की चीज़ों के वितरण के सम्बन्ध में बुर्जुआ अधिकार की पूर्वकल्पना अनिवार्य रूप से इस बात में निहित है कि बुर्जुआ राज्य अब भी मौजूद है, क्योंकि अधिकार के मानकों को मनवाने के उपकरण के बिना अधिकार कोई माने नहीं रखता।

इसलिए कम्युनिज़्म के अन्तर्गत न केवल बुर्जुआ अधिकार, बल्कि बुर्जुआ राज्य भी – बुर्जुआ वर्ग के बिना – कुछ समय तक बना रहता है!

– राज्य और क्रान्ति, (अगस्त–सितम्बर, 1917)

कारोबार (टर्नओवर) की स्वतंत्रता का मतलब है व्यापार की स्वतंत्रता को मतलब है पूँजीवाद में वापसी। कारोबार की स्वतंत्रता और व्यापार की स्वतंत्रता का मतलब है व्यक्तियों यानी छोटे मालिकों के बीच माल विनिमय। हम सब जिन्होंने मार्क्सवाद का क ख ग भी सीखा है, यह जानते हैं कि यह कारोबार और व्यापार की स्वतंत्र अपरिहार्यत: माल उत्पादकों के पूँजी के मालिकों और उजरती मजदूरों के बीच विभाजन तक ले जाते हैं यानी पूँजीवादी उजरती गुलामी की बदहाली की ओर ले जाते हैं, जो आसमान से नहीं टपक पड़ती है, बल्कि पूरी दुनिया में माल–उत्पादन करने वाली कृषि से ही पैदा होती है। हम इस बात को अच्छी तरह जानते हैं, सिद्धान्त रूप में, और रूस में जिसने भी छोटे किसान के जीवन और आर्थिक दशाओं को देखा है वह इस पर ध्‍यान दिये बिना नहीं रह सकता।

– वी.आई.लेनिन, रिपोर्ट ऑन दि सबस्टीट्यूशन ऑफ ए. टैक्स इन काइण्ड फॉर दि सरप्लस ग्रेन एप्रोप्रिएशन सिस्टम, रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की दसवीं कांग्रेस में प्रस्तुत (15 मार्च, 1925)

…बुर्जुआ वर्ग माल उत्पादन से पैदा होता है और माल उत्पादन की इन दशाओं में जिस किसान के पास सैकड़ों पूड अनाज है जिसकी उसे अपने परिवार को खिलाने के लिए जरूरत नहीं है और वह उसे भूखे मजदूरों की मदद के लिए मजदूरों के राज को उधार नहीं होता वह क्या है? क्या वह एक बुर्जुआ नहीं है? क्या बुर्जुआ इसी ढंग से नहीं पैदा होता है?

– वी.आई.लेनिन, अखिल रूसी केन्द्रीय समिति और जन कमिसार परिषद की रिपोर्ट पर समापन भाषण, सोवियत की सातवीं अखिल रूसी कांग्रेस में प्रस्तुत (दिसम्बर, 1919)

हाँ, भूस्वामियों और पूँजीपतियों को उखाड़ फेंककर हमने रास्ता साफ कर लिया लेकिन हमने समाजवाद के ढाँचे निर्माण नहीं किया। एक बुर्जुआ पीढ़ी से साफ की गयी ज़मीन पर अपरिहार्यत: नयी पीढ़ियाँ इतिहास में हमेशा पैदा होती रही हैं, जब तक कि उन्हें पैदा करने वाली जमीन रहेगी, और यह जमीन वास्तव में अनगिनत संख्याओं में बुर्जुआओं को पैदा करती है। जहाँ तक उन लोगों का सवाल है जो पूँजीपतियों पर जीत को छोटे मालिकों की नजर से देखते हैं – “वे लूटते थे, अब हमें मौका, मिलना चाहिए” बिलाशक, उनमें से हरेक बुर्जुआओं की एक नयी पीढ़ी का स्रोत है।

– सोवियत सरकार के तात्कालिक कर्मभारों पर रिपोर्ट, अखिल रूसी के कार्यकारणी की बैठक वे प्रस्तुत (29 अप्रैल, 1918)

…कामरेड राइकोव, जो आर्थिक दायरे के तथ्यों को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, ने हमारे देश में मौजूद नये बुर्जुआ के बारे में हमें बताया। यह सच है। यह सिर्फ हमारी सोवियत सरकार के कर्मचारियों के बीच से ही नहीं पैदा हो रहा है – बहुत कम महत्वपूर्ण स्तर तक यह उनके बीच से भी पैदा हो सकता है – यह किसानों और दस्तकारों के बीच से पैदा हो रहा है जो पूँजीवादी बैंकों के जुवे से मुक्त हो गये है और जो अब रेल परिवहन से कट गये है। यह एक तथ्य है। आप इस तथ्य की अनदेखी कैसे कर सकते हैं। आप महज अपने भ्रमों की पुष्टि कर रहे हैं, या खराब ढंग से रचाये–पचाये गये किताबी ज्ञान को यथार्थ में घुसाने की कोशिश कर रहे हैं जो कि कहीं अधिक जटिल है। यह दिखाता है कि हर पूँजीवादी समाज की तरह, रूस में भी पूँजीवादी माल उत्पादन जीवित है, सक्रिय है, विकसित हो रहा है और एक नये बुर्जुआ को पैदा कर रहा है।

– पार्टी कार्यक्रम पर रिपोर्ट पर समाम्पन भाषण। रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की सातवीं कांग्रेस में प्रस्तुत

(19 मार्च 1919)

सोवियत इंजीनियरों में, सोवियत अध्‍यापकों में और सोवियत कारख़ानों में विशेष सुविधाएँ प्राप्त, यानी सबसे अधिक कार्य–निपुण और सबसे अच्छी स्थिति में बैठे मजदूरों में हम बिल्कुल उन सभी अवगुणों को लगातार पैदा होते देखते हैं, जो बुर्जुआ संसदवाद की विशेषता हैं, और इस बुराई पर हम केवल सर्वहारा संगठन तथा अनुशासन के अथक, अनवरत, दृढ़ और दीर्घ संघर्ष के जरिए -धीमी गति से- क़ाबू पा रहे हैं।

– “वामपन्थी” कम्युनिज्म, एक बचकाना मर्ज़,

(अप्रैल–मई, 1920)

पूँजीवाद और मज़दूरों का प्रवास

जब मज़दूर आन्दोलन कमज़ोर होता है तो शासक वर्ग मज़दूरों को भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर बाँटने में कामयाब रहते हैं, जैसा कि आज के समय में हो रहा है। मगर पूँजीवाद अपने ही तर्क से अपनी ही जरूरतों से दुनिया भर के मज़दूरों को एकजुट भी कर रहा है। यह अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा कर रहा है और उन्हें भाषा, नस्ल, राष्ट्रीयता के किसी भेद के बगैर एक ही जैसी जीवन परिस्थितियों में धकेलता है। विश्व पूँजीवाद के केन्द्रों पर इकट्ठा हो रहे ये आधुनिक समय के उजरती गुलाम एक दिन अपनी एकता का वास्तविक आधार पहचानेंगे, और पूँजीवाद को उसकी कब्र में पहुँचा देंगे। आज खुद पूँजीवाद ने ही इसकी पहले किसी भी समय से अधिक पुख्ता ज़मीन तैयार कर दी है।

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