Monthly Archives: February 2018

उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’ : उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

उत्तर-मार्क्सवाद के अलग-अलग ‘शेड्स’ के ‘सिद्धान्तकारों’ की भाँति-भाँति की सैद्धान्तिकियों का मक़सद मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु पर हमला करना है। सही मायनों में कहें, तो उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रत्यक्ष हमलों के चुक जाने के बाद उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करने की नौटंकी करते हुए, इन तमाम सट्टेबाज़ उत्तर-मार्क्सवादी दार्शनिकों के धुरी-विहीन चिन्तन और दार्शनिक ख़ानाबदोशी का वास्तविक निशाना एक बार फिर मार्क्सवाद ही है। इनके शब्द अलग हैं; उत्तर-आधुनिकतावाद जिस बेशर्मी के साथ पूँजीवाद की अन्तिम विजय, कोई विकल्प न होने, पहचान की राजनीति के समर्थन, आदि की बात करता था, अब वैसा करना असम्भव है और किसी के लिए ऐसा करना अपना मज़ाक उड़वाने जैसा होगा। इसलिए इन नये दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष तौर पर पूँजीवाद-विरोध की भाव-भंगिमा अपनायी है और पूँजीवाद की ये लोग एक ”नये क़ि‍स्म की आलोचना” करते हैं। आज के ज़माने में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ आम जनता सड़कों पर उतर रही है। यह 1990 का दौर नहीं है जब दुनिया भर में पस्ती और निराशा छायी हुई थी। उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद नंगे तौर पर ‘अन्त’ की घोषणाएँ कर सकता था। अब कोई भी विचारधारा जो ऐसा प्रयास करेगी, उसके हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए पूँजीवादी बौद्धिक तन्त्र ने अपनी सहज गति से नये क़ि‍स्म के ”दार्शनिकों” को पैदा किया है जिसमें से किसी को ‘मोस्ट एण्टरटेनिंग थिंकर’, ‘ग्रेटेस्ट लिविंग थिंकर’ आदि कहा जा रहा है तो किसी को ‘मोस्ट इनोवेटिव थिंकर ऑफ़ जेनरेशन’ और पता नहीं क्या-क्या कहा जा रहा है। read more

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पाँचवीं किस्त)

बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवादी प्रयोगों के बारे में इतिहास-लेखन को कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। एक श्रेणी सोवियत समाजवादी प्रयोगों के जारी रहने के दौरान लिखे गये बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के तत्कालीन विवरणों की है, जिसमें स्तुलोव जैसे इतिहासकारों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन से लेकर बोल्शेविक क्रान्ति के साक्षी या उसमें हिस्सेदारी करने वाले बोल्शेविकों द्वारा लिखे गये इतिहास व संस्मरण आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी उन तत्कालीन ग़ैर-बोल्शेविक प्रेक्षकों के इतिहास-लेखन, रिपोर्ताज व संस्मरणों की है, जिनमें मेंशेविकों से लेकर समाजवादी-क्रान्तिकारियों और अराजकतावादियों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन व संस्मरणों को शामिल किया जा सकता है, जैसे कि सुखानोव, मिल्युकोव आदि द्वारा लिखित विवरण। तीसरी श्रेणी तमाम ऐसे मार्क्सवादी अध्येताओं की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और जो वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के पहले और बाद के दौर के साक्षी रहे, जिनमें मॉरिस डॉब, चार्ल्स बेतेलहाइम, पॉल स्वीज़ी आदि को शामिल किया जा सकता है। और चौथी श्रेणी उन इतिहासकारों की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और ग़ैर-मार्क्सवादी थे, जिसमें कि चैम्बरलेन, ई.एच. कार, इज़ाक डॉइशर, मार्क फेरो व अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच जैसे अध्येताओं को शामिल किया जा सकता है।

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फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

भारतीय फ़ासीवाद का मौजूदा अस्तित्व रूप यानी मोदी लहर, गिरावट के प्रथम लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। लोग नाराज़ हैं, असन्तुष्ट हैं और क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के लिए तैयार हैं। साथ ही, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों में भी रणकौशलात्मक भागीदारी करनी चाहिए और सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि समूची फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को चुनावी रणनीति पर अपचयित नहीं कर दिया जाना चाहिए। यह न सिर्फ़ नुक़सानदेह होगा, बल्कि आत्मघाती होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा स्थापित करना और जनसमुदायों के बीच मज़बूत सामाजिक आधार का निर्माण आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष दो महत्वपूर्ण और तात्कालिक कार्यभार हैं। आगे हम किस हद तक सफल होंगे, यह इस बात पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों कार्यभारों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं। read more