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पूँजीवाद और मज़दूरों का प्रवास

पूँजीवाद और मज़दूरों का प्रवास

  • सुखविन्दर

रोज़ी–रोटी तथा बेहतर जीवन के लिये इंसानों के एक जगह से दूसरी जगह प्रवास की परिघटना युगों पुरानी है। जब मानव समाज अभी वर्गों में विकसित नहीं हुआ था, उस समय भी इंसानी आबादी मैदानी इलाकों, उपजाऊ ज़मीनों, चरागाह तथा बेहतर सहनीय मौसम वाले इलाकों की तलाश में जहाँ–तहाँ अपने ठिकाने बदलते रहती थी। लेकिन जब समाज वर्गों में विभाजित हो गया तो वर्गीय शोषण–उत्पीड़न लोगों के प्रवास का मुख्य कारण बन गया। दास समाज में बड़े पैमाने पर गुलामों का व्यापार होता था, इन गुलामों की अपनी कोई धरती, अपना कोई देश नहीं होता था। बस जहाँ उनके खरीदार ले जाते थे वही उनका अपना देश हो जाता था। मानव इतिहास के इस काल दौर में गुलामों का व्यापार इंसानों के प्रवास की मुख्य वजह बना, गुलाम मालिकों द्वारा गुलामों पर यह ज़ोर–जबरदस्ती से थोपा गया प्रवास था। गुलाम मालिकों का शोषण–उत्पीड़न भी गुलामों को एक से दूसरी जगह भागने को मजबूर कर देता था।

सामन्तवादी दौर में अकाल प्रवास की मुख्य वजह बने। भुखमरी से बचने के लिये लोग दूसरी जगहों पर रोजी–रोटी की तलाश में निकल पड़ते थे। पूँजीवाद में पूँजी की वजह से लोग प्रवास करते हैं, यानी वे विकसित पूँजीवादी देशों की तरफ, जहाँ कि रोजगार के अधिक अवसर होते हैं, चल पड़ते हैं। वर्ग विभाजित समाज में हज़ारों साल पहले जो प्रवास की बुनियादी वजह थी, उत्पादक शक्तियों के तमाम विकास के बावजूद आज भी प्रवास की बुनियादी वजह वही है-यानी रोज़ी–रोज़गार की तलाश।

पूँजीवाद में प्रवास

आज हम इंसानी आबादी के बड़े पैमाने पर प्रवास के साक्षी बन रहे हैं। यह प्रवास एक ही देश के भीतर, एक इलाके से दूसरे इलाकों में तथा एक देश से दूसरे देश या एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप की तरफ हो रहा है। आज लगभग 20 करोड़ लोग जो कि विश्व की आबादी का 3 प्रतिशत बनते है अपने देश के बाहर काम कर रहे हैं। यह संख्या 25 साल पहले के प्रवासियों की संख्या से दोगुनी है।

असमान आर्थिक विकास पूँजीवाद की अन्तर्निहित विशिष्टता है। यह एक देश के भीतर भी होता है तथा विश्व स्तर पर भी। जहाँ पर पूँजी निवेश के लिये बेहतर हालात, यानी कच्चे माल की आपूर्ति, तैयार माल के लिए बाजार आदि होते हैं पूँजीपति उन्हीं जगहों पर पूँजी लगाना अधिक पसन्द करते हैं। इसके कारण देश के भीतर पूँजी का कुछेक औद्योगिक नगरों के इर्द–गिर्द सघन संकेन्द्रण होता है तो देश के बाकी इलाकों को सस्ती श्रम शक्ति के आपूर्ति केन्द्रों में बदल दिया जाता है। भारत में यही प्रक्रिया हम आज अपनी आँखों के सामने देख सकते हैं, जहाँ पर पिछड़ी कृषि के इलाकों जैसे पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, झारखण्ड, मध्यप्रदेश आदि राज्यों से बड़े पैमाने पर आबादी औद्योगिक नगरों तथा विकसित कृषि वाले इलाकों की तरफ़ प्रवास कर रही है। यह प्रक्रिया दुनिया के हर पूँजीवादी देश में चली है या विकासमान पूँजीवादी देशों में चल रही है।

विश्व स्तर पर देखें तो भी पूँजीवाद का असमान विकास दिखाई देता है। एक ओर विकसित पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देश हैं, जहाँ पूँजी का अत्यधिक संकेन्द्रण है, तो दूसरी तरफ तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देश हैं, जो कि कभी साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेश, अर्द्ध–उपनिवेश या नव–उपनिवेश रहे हैं। औपनिवेशिक गुलामी ने इन देशों के विकास को तोडा़–मरोड़ा, औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त होने के बाद भी यह देश साम्राज्यवादी शोषण उत्पीड़न के शिकार रहे हैं, जिसके चलते जहाँ पूँजीवाद का स्वस्थ विकास न हो सका, बल्कि एक रुग्ण– विकलांग पूँजीवाद पनपा। औपनिवेशिक गुलामी के गर्भ से पैदा हुआ यह 20वीं सदी के उत्तरार्ध का ऐसा पूँजीवाद था जिसे जवानी में ही बुढ़ापे के रोग लगे थे। नतीजतन उत्पादक शक्तियों के विकास के लिहाज़ से ये देश आज भी साम्राज्यवादी–विकसित पूँजीवादी देशों से दशकों पीछे हैं। उत्पादक शक्तियों के इसी पिछड़ेपन के चलते आज अफ्रीका, एशिया तथा लातिनी अमेरिका के ये देश साम्राज्यवादी देशों के लिये सस्ते कच्चे माल तथा सस्ती श्रम शक्ति के मुख्य स्रोत हैं।

आज की दुनिया में जो अन्तर्देशीय तथा अन्तर्महाद्वीपीय प्रवास हो रहा है, वह मुख्य तौर पर तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों से विकसित पूँजीवादी– साम्राज्यवादी देशों की तरफ़ हो रहा है। हालाँकि पिछड़े पूँजीवादी देशों तथा विकसित पूँजीवादी देशों में भी एक से दूसरे देश में बड़े पैमाने पर प्रवास जारी है। जैसे कि भारत में ही देखें जहाँ नेपाल, बंगलादेश तथा श्रीलंका से लाखों लाख प्रवासी भारत के श्रम बाजार में बिकने के लिये आ बसे हैं। उधर विकसित पूँजीवादी देशों में भी एक से दूसरे देश में आबादी का प्रवास देखा जा सकता है। यूरोपीय यूनियन के विस्तार (पूर्वी यूरोप के 10 देशों को शामिल करने) के बाद पूर्वी यूरोप से पश्चिमी यूरोप में बड़े पैमाने पर आबादी का प्रवास नज़र आता है। मई 2004 में जबसे पूर्वी यूरोप के देश ‘यूरोपीय यूनियन’ में शामिल हुए, इन देशों के 2,90,000 नागरिकों ने ब्रिटेन में नौकरी के लिये आवेदन किया है।

उत्पादक शक्तियों के विकास के लिहाज़ से, विश्व सकल घरेलू उत्पाद में अपने हिस्से के लिहाज़ से, प्रति व्यक्ति आमदनी के लिहाज़ से विकसित पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देश बाकी दुनिया से बहुत आगे हैं। इन देशों में श्रमिकों का जीवनस्तर भी बाकी दुनिया के श्रमिकों के जीवन स्तर से कहीं बेहतर है। इन देशों में श्रम शक्ति की कीमत काफ़ी ‘ऊँची’ है। साम्राज्यवादी देशों में किसी कम्पनी की 70 प्रतिशत लागत श्रम शक्ति से आती है तथा 30 प्रतिशत पूँजी से। चीन तथा भारत जैसे देशों में स्थिति इसके ठीक विपरीत है।

इन देशों में जीवन की मुकाबलतन बेहतर परिस्थितियों के चलते, एशिया, अफ्रीका, लातिनी अमेरिका के पिछड़े पूँजीवादी देशों से लाखों–लाख श्रमिक क़ानूनी–गैर क़ानूनी तरीके से इन देशों में घूसने की कोशिश करते हैं। इन देशों तक गैर क़ानूनी तरीकों से पहुँचने की कोशिश में अनेकों लोग अपनी जान तक जोखिम में डालते हैं, अनेकों जानें जाती हैं। गैर क़ानूनी तरीके से अमीर मुल्कों में पहुँचने की कोशिश करने वालों को जो–जो मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं, उनकी दिल दहला देने वाली रिपोर्टें अक्सर अखबारों में पढ़ने को मिल जाती हैं।

तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों से विकसित पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देशों की तरफ़ आबादी का यह प्रवास इन देशों के पूँजीपतियों के लिए सस्ते श्रम का बड़ा जरिया है।

यूरोप को आज आप्रवासियों का महाद्वीप कहा जाता है। भले ही परम्परागत तौर पर यूरोप को प्रवासन का महाद्वीप माना जाता रहा है, मगर यह भी एक निर्विवाद तथ्य है कि आप्रवास भी यूरोप की धरती का अटूट अंग रहा है। प्रवास की पिछली पाँच शताब्दियों के चलते, यूरोपीय अब मिले–जुले लोग हैं। आज फ़्रांसीसी आबादी की एक चौथाई आबादी के माता–पिता या उनके माता–पिता विदेशी मूल के थे। वियना के लिए यह आँकड़ा 40 प्रतिशत है।

यूरोप प्रवास की की इतालवी शताब्दी (1876–1976) का मुख्य गन्तव्य रहा है। लगभग 12 करोड़ 60 लाख इटलीवासी अन्य यूरोपीय देशों को गये-ग़ैर यूरोपीय देशों में जाने वालों से दस लाख अधिक। सबसे अधिक इतालवी प्रवासियों का लक्ष्य अमेरिका (57 लाख) था। फ़्रांस में 41 लाख इतालवी प्रवासी बसे, छोटे से स्विट्जरलैण्ड में 40 लाख, जर्मनी में 24 लाख तथा आस्ट्रेलिया में 12 लाख। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप दो करोड़ प्रवासियों का घर बना।

पूँजीवाद ने जब साम्राज्यवाद की मंजिल में प्रवेश किया तो साम्राज्यवादी देशों में आप्रवास में कमी आई जबकि इन देशों में पिछड़े देशों से प्रवास बढ़ा। 19वीं शताब्दी के अन्त तथा 20वीं शताब्दी की शुरुआत में साम्राज्यवादी देशों से बाहर की ओर तथा अन्य पिछड़े गरीब देशों से साम्राज्यवादी देशों में प्रवास के पलायन से इस बात की पुष्टि होती है। अपनी सुप्रसिद्ध कृति ‘साम्राज्यवाद, पूँजीवाद की चरम अवस्था’ में लेनिन इस प्रक्रिया से सम्बन्धित आँकड़े देते हैं, “1884 से इंग्लैण्ड से प्रवास कम हो रहा है। उस साल प्रवासियों की संख्या 2,42,000 थी जबकि 1900 में यह संख्या 1,69,000 थी। जर्मनी से प्रवास 1881 तथा 1890 के दरमियान अपने चरम पर था जब प्रवासियों की संख्या 14,53,000 थी। बाद के दो दशकों में यह घटकर 5,44,000 तथा फिर 3,41,000 रह गई। दूसरी ओर, आस्ट्रेलिया, इटली तथा रूस से जर्मनी में दाखिल होने वाले मज़दूरों की संख्या में इजाफा हुआ। 1907 की जनगणना के मुताबिक जर्मनी में 13,42,294 विदेशी थे, जिनमें से 4,40,800 औद्योगिक मज़दूर थे तथा 2,57,329 कृषि मज़दूर थे। फ़्रांस में खनन उद्योग में करने वाले मज़दूरों का ‘बड़ा हिस्सा’ विदेशियों पोल, इतालवी तथा स्पेनियों का है।”

साम्राज्यवादी देशों की ओर प्रवास का यह रुझान बाद में भी जारी रहा। जिनेवा आधारित संगठन ‘इण्टरनेशनल आर्गनाइजेशन फॉर माइग्रेशन’ ने अपनी रिपोर्ट ‘वर्ल्ड माइग्रेशन रिपोर्ट 2003, मैनेजिंग माइग्रेशन’ में कहा है, “1990 के दशक में यूरोप आप्रवास का महाद्वीप बन गया।” इसी रिपोर्ट के मुताबिक दूसरे विश्व युद्ध के बाद से पश्चिमी यूरोप में प्रवासियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। 1950 में पश्चिमी यूरोप में 38 लाख विदेशी नागरिक थे, 2003 में इनकी संख्या बढ़कर 2 करोड़ 5 लाख हो गई। इसमें अतिरिक्त 1 करोड़ की संख्या उन प्रवासियों की थी जो अब विदेशी नागरिक नहीं रह गये थे।

2000 तक अमेरिका में कुल साढ़े तीन करोड़, जर्मनी में 3 लाख, फ़्रांस में 63 लाख, कनेडा में 58 लाख, आस्टेलिया में 47 लाख तथा इंग्लैण्ड में 45 लाख प्रवासी थे। 1980 से 2003 के दरमियान सिर्फ़ 5 सालों में स्पेन में प्रवासियों की संख्या 4 गुना बढ़कर 30 लाख हो गई जोकि स्पेन की 4 करोड़ 20 लाख आबादी का 7 प्रतिशत थे।

2001 की जनगणना के मुताबिक इंग्लैण्ड की आबादी का 7.53 प्रतिशत आप्रवासी थे (इसमें उत्तरी आयरलैण्ड के आप्रवासियों की संख्या शामिल नहीं है।)

1980 में इंग्लैण्ड में सालाना प्रवास की संख्या 40,000 थी। 1994–97 के दौरान यह बढ़कर 60,000 सालाना हो गई। 1998 में और अधिक बढ़कर यह 1,33,500 हो गई। इंग्लैण्ड में आने वाले आप्रवासियों में सबसे अधिक संख्या अमेरिकियों की थी, उसके बाद पूर्वी यूरोप और फिर भारतीय उपमहाद्वीप से आने वाले आप्रवासियों की। पूँजीवादी दौर में, पूँजीवाद का असमान विकास पिछड़े इलाकों तथा देशों से, विकसित इलाकों तथा देशों की तरफ़ आबादी के प्रवास की मुख्य वजह है। भुखमरी तथा गरीबी से बचने के लिये लोग, विकसित पूँजीवादी इलाकों तथा देशों की तरफ़ चल देते हैं।

साम्राज्यवादियों द्वारा दूसरे मुल्कों पर थोपे जाने वाले युद्ध तथा दूसरे मुल्कों द्वारा भड़काये जाने वाले गृहयुद्ध भी लोगों को अपना देश छोड़ने के लिये मजबूर करते हैं। इससे दूसरे देशों में शरण लेने वालों की संख्या में भावी इजाफा हुआ है। संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी एवं मानवाधिकार आयोग के मुताबिक 1990 के दशक में 60 लाख से भी अधिक लोगों ने विकसित देशों में शरण लेने के लिए आवेदन किया था, यह संख्या 1980 (22 लाख) में शरण के लिये आवेदन करने वालों से लगभग तीन गुना ज़्यादा थी।

भूतपूर्व पूर्वी ब्लाक के गिरने, यूगोस्लाविया के टूटने, जिसमें यूरोपीय तथा अमेरिकी साम्राज्यवादियों का बड़ा हाथ था, इसके नतीजे के तौर पर छिड़ी बाल्कन जंगों, और खाड़ी जंग ने शरणार्थियों की संख्या को तेज़ी से बढ़ाया है। 1988 में यूरोपीय यूनियन के 15 सदस्य देशों में प्रवास के लिए 2 लाख आवेदन आये थे जोकि 1992 में बोस्निया की जंग के दौरान बढ़कर 6,76,000 हो गये। 1999 में कोसोवो जंग के दौरान 3,66,000 लोगों ने दूसरे देशों में शरण के लिय आवेदन किये। 2001 में जिन देशों ने सर्वाधिक शरणार्थियों को पैदा किया वे इस प्रकार हैं : सबसे अधिक शरणार्थी अफगानिस्तान से पैदा हुए, फिर इराक, सूडान, अंगोला, बोस्निया की बारी आती है। ये सभी देश साम्राज्यवादियों द्वारा थोपे युद्धों, नस्ली जनसंहार तथा साम्राज्यवादियों द्वारा भड़काये गये गृहयुद्धों के शिकार रहे हैं।

लगभग सभी विकसित पूँजीवादी– साम्राज्यवादी देशों में इस समय जनसंख्या की वृद्धि दर कम हो रही है, इस घट रही आबादी की वजह से इन देशों को श्रम शक्ति की आपूर्ति अन्य देशों से करनी पड़ती है। विकसित पूँजीवादी देशों की तरफ अन्य देशों से आबादी के प्रवास की यह भी एक महत्वपूर्ण वजह है। पूँजीवाद में नस्ली उत्पीड़न भी आबादी के प्रवाह की एक महत्वपूर्ण वजह रहा है। 20वीं सदी की शुरुआत में बड़े पैमाने पर जारशाही रूस से यहूदियों ने उत्पीड़न से बचने के लिये अपना देश छोड़ा। इसी तरह से 1930 के दशक में जर्मनी में फासीवादी आतंक से बचने के लिये बड़े पैमाने पर यहूदियों को अपना देश छोड़ना पड़ा था। फिलिस्तीन में भी यही हुआ जहाँ पर इस्रायली जियनवादियों के हाथों हत्याओं और उत्पीड़न से बचने के लिये लाखों फिलिस्तिनियों ने अपना देश छोड़ा है।

प्रवास के प्रति शासक वर्गों का रवैया

शासक वर्गों के लिये प्रवासी मज़दूर सस्ती श्रम शक्ति का बड़ा स्रोत है। इस सस्ती श्रम शक्ति के शोषण से शासक वर्ग अपार मुनाफ़े कमाते हैं। मज़दूरों का यह प्रवास भले ही एक देश के भीतर हो या एक से दूसरे देश की तरफ़।

साम्राज्यवादी देशों में श्रम शक्ति की कीमत पिछड़े पूँजीवादी देशों से कहीं अधिक है। इन देशों के पूँजीपतियों के लिये तो अन्य देशों से मज़दूरों का प्रवास वरदान ही साबित होता है। इन देशों में क़ानूनी प्रवास के साथ–साथ बड़े पैमाने पर गैर–क़ानूनी प्रवास भी होता है। इन प्रवासियों को खासकर गैर–क़ानूनी प्रवासियों को सभी नागरिक अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। इन देशों में इन प्रवासियों को अमानवीय शोषण उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा हाल ही में शुरू किया गया नया ‘गैसर वर्कर कार्यक्रम’ इसका एक उदाहरण है। अमेरिका में इस कार्यक्रम से तहत लाये जाने वाले लाखों मेक्सिकन तथा मध्‍य अमेरिकी मज़दूरों को, अमेरिकी मज़दूरों को आमतौर पर मिलने वाले सभी अधिकारों से वंचित रखा जायेगा। क्योंकि प्रवासी मज़दूरों का सस्ता श्रम इन देशों के पूँजीपतियों के लिये अपार मुनाफ़ों का स्रोत है, इसलिए इन देशों की सरकारें इन पूँजीपतियों के लिये सस्ती श्रम शक्ति की आपूर्ति यकीनी बनाने में जुटी रहती हैं। 20 सितम्बर 2000 में इंग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपने एक भाषण में ब्रिटेन के प्रवास क़ानूनों को नर्म बनाये जाने की बात कही थी। इसी समय, लम्बी बहसों के बाद जर्मन केबिनेट ने ‘गरीब कार्ड’ स्कीम को स्वीकृति दी थी ताकि उच्च शिक्षा प्राप्त सूचना तकनीक श्रमिकों को खींचा जा सके और अमेरिकी फेडरल रिर्जव के चैयरमैन तो वृद्धि को बढ़ाने के लिये प्रवास को उत्साहित करने पर बार–बार ज़ोर देते हैं।

जुलाई 2000 में, यूरोपीय यूनियन के गृह मंत्रियों के एक मीटिंग में ज्यां–पियरे शेवेनमेंट ने कहा कि यूरोपीय यूनियन को 2050 तक खाली नौकरियाँ भरने के लिये पाँच से लेकर साढ़े सात करोड़ तक प्रवासियों को दाखिला देना पड़ेगा। 22 अक्टूबर 2000 को यूरोपीय यूनियन ने प्रवास पर एक बहस की शुरुआत की ताकि प्रवास पर एक साझा नीति बनाई जा सके।

संयुक्त राष्ट्र के जनसंख्या डिवीजन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जन्म दर कम होने तथा जीवन प्रत्याशा बढ़ने के चलते, 2000 से 2050 के बीच यूरोप की आबादी 13 प्रतिशत तक कम हो जायेगी। अब और 2050 के बीच जन्म–मृत्यु की वर्तमान दर पर जर्मनी को सालाना 4,87,000 प्रवासियों का आयात करना पड़ेगा। फ़्रांस को 1,09,000 तथा पूरे यूरोपीय यूनियन को 16 लाख सालाना।

पूँजीवादी–साम्राज्यवादी देशों में प्रवास जहाँ इन देशों के लिये सस्ती श्रम शक्ति का एक बड़ा जरिया है वहीं इन देशों के शासकों के हाथों में मज़दूरों को आपस में बाँटने लड़ाने का एक हथियार भी है। खास तौर पर मन्दी को समय, बढ़ते जनअसन्तोष से बचने के लिये, मज़दूरों का ध्यान असल मुजरिम, सारी मुसीबतों की जड़ इस पूँजीवादी सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था से हटाने के लिये, इन देशों के शासक प्रवासियों को ही सारी मुसीबतों की जड़ बताकर, स्थानीय मज़दूरों में प्रवासियों विरोधी भावनाओं, नस्लवाद को हवा देते हैं। लगभग सभी साम्राज्यवादी देशों में ऐसी पार्टियाँ हैं, जो खुलेआम प्रवासी विरोधी भावनाओं को हवा देती हैं। फ़्रांस में निकोलस सारकोज़ी की ‘यूनियन फार ए. पापुलर मूवमेण्ट’, इटली में उम्बर्टो बोस्सी की ‘उत्तरी लीग’, आस्ट्रिया में जोर्ग हेदर की ‘फ्रीडम पार्टी’, नीदरलैण्ड में पिम फोर्टविन की ‘फोर्टविन लिस्ट’, बेल्जियम में फिलिप डे विंटर की ‘व्लाम्स ब्लॉक़, डेनमार्क में पिया क्लेरगार्ड की ‘पीपुल्स पार्टी’, नार्वे में कार्ल हेगन की ‘प्रोग्रेस पार्टी’ तथा इंग्लैण्ड में निक गिफ्न की ‘ब्रिटिश नेशनल पार्टी’ आदि बहुतेरी अन्य ऐसी पार्टियों में से कुछेक ऐसे नाम हैं। इन देशों में चुनावों में हर बार इन देशों में होने वाला प्रवास एक अहम मुद्दा होता है। यह दक्षिणपंथी पार्टियाँ प्रवासियों विरोधी भावनाओं को भड़काकर ही सत्ता की कुर्सी तक पहुँचती हैं। फ़्रांस में हाल ही में हुए चुनावों में निकोलस सारकोजी ने सत्ता तक पहुँचने के लिये यही हथकण्डा अपनाया है।

इन साम्राज्यवादी देशों की सरकारें समय–समय पर प्रवास विरोधी क़ानून बनाती रहती हैं। हालाँकि ऐसे क़ानूनी कभी भी प्रवास को रोकने में कामयाब नहीं होते बस, शासक वर्गों के हाथों में मज़दूरों को आपस में बाँटने के लिये एक हथियार के तौर पर जरूर इस्तेमाल किये जाते हैं। इन देशों में क़दम–क़दम पर प्रवासी मज़दूरों को नस्ली नफरत का सामना करना पड़ता है।

ऐतिहासिक तौर पर मज़दूरों का प्रवास एक प्रगतिशील क़दम है

मज़दूरों का प्रवास विभिन्न राष्ट्रीयताओं, भाषाओं, संस्कृतियों के मज़दूरों को एक जगह इकट्ठा करता है। उनके बीच भाषा, संस्कृति, राष्ट्रीयता के बँटवारों को तोड़कर उन्हें वर्गीय आधार पर एक ही साझा सूत्र में जोड़ता है। फ़्रांस की राजधानी पेरिस के ट्रेपस इलाके का उदाहरण लें जहाँ पर कि 70 राष्ट्रीयताओं के मज़दूर एक जैसी ही जीवन परिस्थितियों में रहते हैं।

यह पिछड़े इलाकों, देशों के मज़दूरों को उन्नत उत्पादक शक्तियों, उन्नत सभ्यता, संस्कृति के सम्पर्क में लाकर उनकी चेतना की धार को तीखा करता है। यह मज़दूरों में विश्व व्यापी एकता का आधार तैयार करता है। मज़दूरों का प्रवास वह ज़मीन तैयार करता है यहाँ ‘दुनिया भर के मज़दूरो एक हो’ के नारे को व्यवहार में उतारा जा सकता हो।

जब मज़दूर आन्दोलन कमज़ोर होता है तो शासक वर्ग मज़दूरों को भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर बाँटने में कामयाब रहते हैं, जैसा कि आज के समय में हो रहा है। मगर पूँजीवाद अपने ही तर्क से अपनी ही जरूरतों से दुनिया भर के मज़दूरों को एकजुट भी कर रहा है। यह अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा कर रहा है और उन्हें भाषा, नस्ल, राष्ट्रीयता के किसी भेद के बगैर एक ही जैसी जीवन परिस्थितियों में धकेलता है। विश्व पूँजीवाद के केन्द्रों पर इकट्ठा हो रहे ये आधुनिक समय के उजरती गुलाम एक दिन अपनी एकता का वास्तविक आधार पहचानेंगे, और पूँजीवाद को उसकी कब्र में पहुँचा देंगे। आज खुद पूँजीवाद ने ही इसकी पहले किसी भी समय से अधिक पुख्ता ज़मीन तैयार कर दी है।

(इस लेख में दिये गये ज़्यादातर तथ्य हरपाल बराड़ के लेख “पूँजीवाद और प्रवास” से लिये गये हैं)

दायित्वबोध, जनवरी-मार्च 2008