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इस्लामिक स्टेट का उभार और मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का नया दौर

इस्लामिक स्टेट का उभार और मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का नया दौर

  • आनन्द

11 सितम्बर के आतंकवादी हमले की 13 वीं बरसी पर नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस्लामिक स्टेट (आईएस) नामक आतंकी संगठन को कमज़ोर करने और उसको नष्ट करने के घोषित उद्देश्य के तहत सीरिया और इराक़ में उसके ठिकानों पर हवाई बमबारी एवं इराक़ में 500 अतिरिक्त सैन्य सलाहकारों को भेजने का ऐलान किया। साथ ही सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद की सरकार के खि़लाफ़ लड़ रहे विद्रोहियों के ‘नरमपन्थी’ हिस्सों को हथियारों की सप्लाई एवं सैन्य प्रशिक्षण की योजना का भी खुलासा किया गया। 23 सितम्बर से अमेरिका ने सीरिया की सीमा के भीतर क्रूज़ मिसाइलों और प्रिसीज़न-गाइडेड बमों की बौछार शुरू कर दी। इसके पहले अमेरिका ने इराक़ में हवाई हमले 8 अगस्त से ही शुरू कर दिये थे। यह मध्य-पूर्व में प्रत्यक्ष अमेरिकी हस्तक्षेप का नया दौर है। ग़ौरतलब है कि अभी तीन वर्ष पहले ही अमेरिका ने अपनी सेना इराक़ से वापस बुलायी थी जो 2003 में इराक़ पर अमेरिकी क़ब्ज़े के समय से ही वहाँ तैनात थी। उसके बाद पिछले वर्ष अमेरिका ने सीरिया में इस आरोप की आड़ में प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप की तैयारी कर ली थी कि सीरिया में जारी गृहयुद्ध में असद सरकार ने रासायनिक हथियारों का प्रयोग किया था। परन्तु जल्द ही यह सच्चाई सामने आने लगी कि दरअसल सीरियाई गृहयुद्ध में रासायनिक हथियारों का प्रयोग सीरिया के विद्रोहियों ने किया था जिनको अमेरिका और मध्य-पूर्व में उसके सहयोगी सैन्य और वित्तीय मदद दे रहे थे। उस वक़्त अमेरिका सीरिया में प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप करने के अपने मक़सद में क़ामयाब नहीं हो पाया था क्योंकि वह नाटो के अन्य सहयोगियों को इस हमले के लिए तैयार नहीं कर सका था। परन्तु एक साल बाद अब मध्य-पूर्व का परिदृश्य काफ़ी बदल चुका है। अब इस्लामिक स्टेट के रूप में अमेरिका और नाटो के अन्य साम्राज्यवादियों को एक ऐसा पुख़्ता कारण मिल चुका है जिसके नाम पर वे अपने-अपने देशों की जनता को सैन्य हस्तक्षेप करने के लिए तैयार कर सकते हैं।

इस्लामिक स्टेट (आईएस) का उभार

इस साल जून के महीने में यकायक इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक़ एण्ड सीरिया (आईएसआईएस जिसे अब आईएस के नाम से जाना जाता है) नामक एक इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन के द्वारा इराक़ में की जाने वाली मध्ययुगीन बर्बर करतूतों की ख़बरें पूरी दुनिया में सुख़िर्याँ बटोरने लगीं। आईएस के जिहादी लड़ाके तेज़ी से एक के बाद एक इराक़ के कई मुख्य शहरों पर क़ब्ज़ा करने लगे और यहाँ तक कि वे इराक़ की राजधानी बग़दाद के प्रवेशद्वार तक आ पहुँचे। यही नहीं, इस संगठन के सरगना अबू बक्र अल-बग़दादी ने अपने आपको समूचे इस्लामिक जगत का ख़लीफ़ा तक घोषित कर दिया। मध्य-पूर्व की राजनीति से अनजान लोगों के लिए भले ही आईएसआईएस एक नया नाम हो, परन्तु उस पूरे क्षेत्र की राजनीति एवं वहाँ अमेरिका-नीत साम्राज्यवादी हस्तक्षेप से वाकिफ़ लोग इस संगठन से परिचित थे, हालाँकि मध्य-पूर्व के प्रकाण्ड रणनीतिक विश्लेषकों के लिए भी इसका इराक़ में इतनी तेज़ी से उभार और फैलाव विस्मयकारी था। अभी कुछ महीनों पहले तक आईएसआईएस के जिहादी लड़ाके अमेरिकी, ब्रिटिश, फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों एवं उनके अरब के टट्टुओं मसलन सउदी अरब, कतर और कुवैत की शह पर सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद का तख़्तापलट करने के उद्देश्य से वहाँ जारी गृहयुद्ध में भाग ले रहे थे। उस समय अमेरिका की नज़र में वे “अच्छे” जिहादी थे क्योंकि वे अमेरिकी हितों के अनुकूल काम कर रहे थे। लेकिन अब जब वे अमेरिका के हाथों से निकलते दिख रहे हैं तो वे बुरे जिहादी हो गये हैं और उन पर नकेल कसने की कवायदें शुरू हो गयी हैं। दरअसल, इस्लामिक स्टेट अल-क़ायदा और तालिबान की तर्ज़ पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा पैदा किया गया और पाला-पोसा गया नया भस्मासुर है जो अब अपने आका को ही शिकार बनाने लगा है।

आईएस की पृष्ठभूमि

puppetsइस्लामिक स्टेट (आईएस), जिसको आईएसआईएस के नाम से भी जाना जाता है, अल-कायदा से ही निकला एक आतंकवादी संगठन है जिसने हाल ही में दज़ला और फ़रात नदियों के किनारे स्थित उत्तरी सीरिया एवं उत्तरी और मध्य इराक़ के अनेक महत्वपूर्ण शहरों, तेलशोधक कारखानों और बाँधों पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया है। इस लेख के लिखे जाने तक इराक़ के लगभग एक तिहाई क्षेत्र पर इसका क़ब्ज़ा हो चुका है और सीरिया के कई इलाकों में भी इसने अपनी पैठ बना ली है। इस आतंकवादी संगठन ने इराक़ में 2003 के अमेरिकी हमले (ऑपरेशन शॉक एण्ड ऑ) के बाद वहाँ अपनी जड़ें जमानी शुरू की। ग़ौरतलब है कि इस हमले के पहले तक इराक़ में अल-क़ायदा का नामोनिशान तक नहीं था। सद्दाम हुसैन बेशक एक तानाशाह था जिसने अपने देश की जनता पर अकथनीय जुल्म ढाये, परन्तु उसके शासन में शिया-सुन्नी के अन्तरविरोध दुश्मनाना नहीं थे। उस दौर में इराक़ में शिया-सुन्नी में आपस में विवाह आम बात थी। अमेरिकी हमले में सद्दाम हुसैन के सत्ताच्युत होने के बाद इराक़ में घोर अराजकता, पन्थीय और नृजातीय संकीर्णता और इस्लामिक कट्टरपंथियों के पनपने की ज़मीन तैयार हुई। साथ ही इराक़ में अमेरिकी क़ब्ज़े और सेना की उपस्थिति के खि़लाफ़ व्यापक जनउभार भी शुरू हो गया। इस जनउभार को काबू में करने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने योजनाबद्ध तरीके से इराकी समाज में शिया-सुन्नी की पन्थीय संकीर्णता एवं उत्तरी इराक़ में रहने वाली कुर्द नृजातीय आबादी में अलगाववादी भावनाओं को हवा देना शुरू किया। “बाँटो और राज करो” की इस साम्राज्यवादी नीति का नतीजा यह हुआ कि इराक़ में एक गृहयुद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गयी। शियाओं एवं सुन्नियों की अलग-अलग मिलीशिया और फ़िदायीं दस्ते बनने लगे जो एक दूसरे के ख़ून के प्यासे हो गये। अमेरिकी साम्राज्यवादियों की शह पर बनने वाली राजनीतिक संरचना में शिया-सुन्नी विवाद को हवा देने के लिए ऐसे प्रावधान डाले गये जिससे वहाँ की राजनीति में बहुसंख्यक शियाओं का दबदबा क़ायम हो सके।

ग़ौरतलब है कि इराक़ में शियाओं की बहुसंख्या होने के बावजूद अमेरिकी हमले से पहले तक वहाँ की राजनीति में शियाओं के वर्चस्व जैसी कोई बात नहीं थी। सद्दाम हुसैन स्वयं अल्पसंख्यक सुन्न्नी समाज से आता था और उसकी बाथ पार्टी में शिया और सुन्नी दोनों ही सदस्य थे। अमेरिकी हमले के बाद इराक़ में जो राजनीतिक संरचना अस्तित्व में आयी उसमें संवैधानिक रूप से यह प्रावधान किया गया कि वहाँ के सबसे रसूख़दार प्रधानमंत्री के ओहदे पर शिया ही क़ाबिज़ हो सकता है एवं राष्ट्रपति तथा संसद के स्पीकर जैसे कम महत्वपूर्ण ओहदे क्रमशः सुन्नियों तथा कुर्दों के लिए सुरक्षित रखे गये। लेबनान मॉडल पर किये गये इस विचित्र संवैधानिक-राजनीतिक प्रबन्ध का नतीजा यह हुआ कि समय बीतने के साथ ही साथ वहाँ की राजनीति एवं अर्थव्यवस्था में शियाओं का दबदबा बढ़ता गया और सुन्नी एवं कुर्द हाशिये पर जाते गये। इसकी वजह से सुन्नियों एवं कुर्दों में अलगाववादी भावना पनपने लगी। अमेरिकी हमले के बाद इराक़ की अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो गयी, बेरोज़गारी और महँगाई आसमान छूने लगी। हालाँकि इस अराजकता का दंश इराक़ की जनता के हर हिस्से ने झेला, लेकिन सुन्नी जो सद्दाम हुसैन के शासनकाल में बेहतर स्थिति में थे, उनकी तो मानो पूरी दुनिया ही तबाह हो गयी।

ये वो हालात थे जिनमें सुन्नी इस्लामिक कट्टरपन्थी अल-कायदा ने इराक़ में पैर जमाना शुरू किया। इसका शुरुआती नाम ‘अल-कायदा इन मेसोपोटामिया’ था जिसकी स्थापना इराक़ के ताल अफ़ार नामक शहर में हुई थी। शुरुआत में इसका नेतृत्व जार्डनी आतंकवादी अबू मुसब अल-ज़रकावी के हाथों में था जिसे ओसामा बिन लादेन तक ने अत्यधिक हिंसक और संकीर्ण माना था। यही संगठन 2006 में इस्लामिक स्टेट आफ इराक़ (आईएसआई) के नाम से जाना जाने लगा जो बाद में आईएसआईएस या सिर्फ़ आईएस के नाम से प्रचलित हुआ। इसका मौजूदा मुखिया अबूबक्र अल-बग़दादी है जो 2003 तक एक छुटभैया चोर-उचक्का था। इराक़ में अमेरिकी हमले के बाद अमेरिकी डिटेंशन सेंटर में प्रताड़ना झेलने के बाद वह आतंकवाद की दिशा में बढ़ा और आईएस जैसे आतंकवादी संगठन का मुखिया बन बैठा। इस संगठन ने मुक़्तदा अल-सद्र की महदी शिया सेना और बद्र एवं सलाम ब्रिगेड जैसी शिया मिलीशिया से भी लोहा लिया था। लेकिन यह अभी भी महज़ एक छोटा सा जिहादी समूह भर था जिसके पास इतनी ताक़त हरगिज़ नहीं थी कि वह इराक़ के किसी शहर पर क़ब्ज़ा करने की सोच भी सकता। आईएसआईएस की ताकत में इज़ाफ़ा होना तब शुरू हुआ जब 2011 के बाद से सीरिया में जारी गृहयुद्ध में इसने विद्रोहियों की तरफ़ से शिरकत करनी शुरू की।

आईएस की बढ़ती ताक़त की वजह

2011 में ट्यूनिशिया एवं मिस्र में जनविद्रोहों के बाद अरब के तमाम देशों की तरह सीरिया में भी निरंकुश शासन एवं आर्थिक संकट के विरोध में व्यापक जनउभार देखने को आया। अमेरिकी एवं पश्चिमी यूरोपीय साम्राज्यवादियों को इस जनउभार में सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल-असद (जिसकी क़रीबी रूस और ईरान से है) का तख़्तापलट करने की सम्भावना दिखी। साम्राज्यवादियों की मंशा यह थी कि जिस प्रकार वे लीबिया में इस्लामिक कट्टरपन्थी विद्रोहियों को सैन्य एवं वित्तीय मदद देकर क़द्दाफ़ी का तख़्तापलट करने में क़ामयाब रहे (यह बात दीग़र है कि लीबिया में इस्लामिक कट्टरपंथियों की बढ़ती ताक़त की वजह से अभी भी राजनीतिक अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल व्याप्त है), उसी प्रकार सीरिया में भी बशर अल-सद्र का भी तख़्तापलट किया जा सकता है और वहाँ एक कठपुतली सरकार बनवाई जा सकती है। इसके लिए उन्होंने सीरिया में सुन्नी कट्टरपंन्थी विद्रोहियों को बढ़ावा दिया जाये। असद सरकार के खि़लाफ़ जिहाद का एलान करने वाले लड़ाकों को मुद्रा, हथियार एवं सैन्य प्रशिक्षण देने के काम में उनकी मदद सउदी अरब, कतर एवं कुवैत के शेखों और शाहों के साथ ही साथ तुर्की की सरकार ने की। आईएस के अतिरिक्त सीरिया में जिहाद का एलान करने वाले लड़ाकों में एक अन्य इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठन जबत अल-नूसरा भी है जिसको अल-कायदा की सीरिया शाखा कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सीरिया में असद सरकार के खि़लाफ़ विद्रोह का ऐलान करने वाले में फ्री सीरियन आर्मी के लड़ाके शामिल हैं, परन्तु आईएस के मुकाबले उनकी ताक़त बहुत कम है।

लेकिन बशर अल-असद की सरकार क़द्दाफ़ी की सरकार जितनी कमज़ोर न थी, उसकी सैन्य क्षमता एवं सामाजिक आधार कहीं ज़्यादा व्यापक थे। नतीजतन, साम्राज्यवादियों को सीरिया में बशर अल-असद का तख़्तापलट करने में अभी तक कोई ख़ास क़ामयाबी नहीं हासिल हुई है। सीरिया में विद्रोही जिहादियों ने महज़ कुछ ही शहरों को अपने कब्ज़े में लेने में क़ामयाबी हासिल की है। लेकिन इस प्रक्रिया में आईएस जैसे खूँख़ार जिहादी लड़ाकों को अकूत धनसामग्री एवं अत्याधुनिक हथियार (ख़ासकर टोयोटा ट्रक और हॉविटज़र बन्दूकें) ज़रूर मिल गये जिससे उनकी ताक़त में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ।

पिछले साल के अन्त में आईएसआईएस ने सीरिया-इराक़ की सीमा को पार कर इराक़ में एक बार फिर से नयी ताकत के साथ प्रवेश किया। इस साल जनवरी में उसने इराक़ के अनबार प्रदेश के रमादी एवं फलूजा शहरों पर क़ब्ज़ा कर लिया। जून में उसने समारा, मोसुल, निनेवेह एवं सद्दाम हुसैन के गृह शहर तिकरित पर क़ब्ज़ा कर लिया। जून के अन्त तक इराक़ की सीरिया एवं जार्डन की सीमा पर आईएस का क़ब्ज़ा हो चुका था और उसके जिहादी लड़ाके बग़दाद के प्रवेशद्वार तक पहुँच चुके थे।

सीरिया में प्राप्त मुद्रा, हथियारों एवं सैन्य प्रशिक्षण के अतिरिक्त आईएस की बढ़ती ताकत का एक अन्य प्रमुख कारण सद्दाम हुसैन की बाथ पार्टी से जुड़े सेना के जनरलों एवं नौकरशाहों के साथ उसका गठबन्धन रहा। ग़ौरतलब है कि 2003 के अमेरिकी हमले के बाद से अमेरिका के निर्देश पर सुनियोजित रूप से वहाँ विबाथीकरण (डीबाथीफिकेशन) की मुहिम चलायी गयी जिसकी वजह से बाथ पार्टी से जुड़े सेना के अधिकारी और नौकरशाह बेरोज़गार होकर वस्तुतः सड़क पर आ गये। सैन्य अधिकारियों ने ‘मिलिटरी काउंसिल’ नाम से एक संगठन बनाया जो इस वक़्त आईएस के लड़ाकों को रणनीतिक मार्गदर्शन कर रहा है। आईएस के दूसरे सहयोगी नक़्शबन्दी आन्दोलन से जुड़े लड़ाके हैं जिनका नेतृत्व सद्दाम हुसैन की सरकार में उपराष्ट्रपति एवं पूर्व बाथ पार्टी का सदस्य इज्ज़त अल-दौरी कर रहा है। हालाँकि नक़्शबन्दी आन्दोलन इस्लाम की सूफ़ी परम्परा से प्रेरित है, लेकिन उसने आईएस जैसे कट्टरपन्थी संगठन से एक अवसरवादी गठजोड़ बना लिया है जिससे आईएस की ताक़त में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ है।

आईएस की गुरिल्ला फौज में इराक और अरब जगत के इस्लामिक कट्टरपंथियों के अतिरिक्त चेचेन्या, पाकिस्तान एवं यूरोपीय देशों के इस्लामिक कट्टरपन्थी लड़ाके हैं। भारत से भी कुछ मुस्लिम युवाओं के आईएस में शामिल होने की ख़बरें आयी हैं। इराक़ की राजनीति में शियाओं के वर्चस्व होने के बाद से सुन्नी समुदाय की आम आबादी का बड़ा हिस्सा भी आईएस को अपने हितों का प्रतिनिधित्व करने वाले लड़ाकू संगठन के रूप में देखता है। इराक़ में इतनी तेज़ी से आईएस के प्रभुत्व के बढ़ने के पीछे एक अन्य कारण अमेरिकी हमले के बाद से इराक़ी सेना के मनोबल में भारी गिरावट भी रहा जिसकी वजह से संख्या में आईएस के मुकाबले कई गुना होने के बावजूद वे उसके सामने टिक न सके। आईएस ने जिन शहरों पर क़ब्ज़ा किया वहाँ भारी मात्रा में इराकी सेना के हथियारों और लूटपाट से अर्जित अकूत धनदौलत से भी आईएस की ताक़त में इज़ाफ़ा हुआ। इसके अतिरिक्त मोसुल और किरकुक जैसे स्थानों में स्थित तेलों के कुँओं पर कब्ज़े से भी उनकी आर्थिक ताक़त बढ़ी। लेकिन जितनी तेज़ी से इसकी ताक़त बढ़ी उतनी ही तेज़ी से समूचे अरब जगत की आम जनता के बीच इसके प्रतिक्रियावादी चरित्र का खुलासा भी हुआ। जब यह इराक़ में एक के बाद एक शहरों पर क़ब्ज़ा करने में व्यस्त था था उसी दौरान जॉयनवादी इज़रायल गाज़ा की जनता पर अकथनीय क़हर बरपा रहा था। लेकिन पूरी दुनिया में इस्लामिक राज्य का स्थापित करने का दावा करने वाले इस आतंकवादी संगठन के पास फलस्तीन की जनता के शानदार और बहादुराना संघर्ष में भाग लेना तो दूर उनके समर्थन में एक शब्द तक नहीं बोले।

इराक़ एवं सीरिया में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के पीछे का राजनीतिक अर्थशास्त्र

इराक़ एवं सीरिया सहित समूचे मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप शुरू से ही इस क्षेत्र की अकूत तेल और गैस संसाधनों की मौजूदगी से सीधे तौर पर जुड़ा रहा है। दुनिया के कुल तेल रिज़र्व का 65 फ़ीसदी मध्य-पूर्व में और लगभग 10 फ़ीसदी अकेले इराक़ में है। 1991 के प्रथम खाड़ी युद्ध, उसके बाद इराक़ पर अमानवीय प्रतिबन्ध और 2003 में द्वितीय खाड़ी युद्ध के बाद सद्दाम हुसैन की सत्ता का पतन और उसके बाद से इराक़ में जारी भयंकर अराजकता, इन सभी का मूल कारण इराक़ के तेल के संसाधन ही थे। हालाँकि सद्दाम हुसैन को इराक़ का तानाशाह बनाने में अमेरिका की भी भूमिका थी और 1980 के दशक में चले ईरान-इराक़ युद्ध में अमेरिका ने सद्दाम हुसैन का साथ दिया था, लेकिन सद्दाम हुसैन चूँकि अमेरिका का कठपुतली बनने की बजाय स्वतंत्र आकांक्षाएँ पालने लगा था, इसलिए वह अमेरिकी साम्राज्यवाद की आँखों की किरकिरी बन गया था। प्रथम खाड़ी युद्ध से ठीक पहले सद्दाम हुसैन कुवैत पर क़ब्ज़ा करके उसके तेल के कुँओं को पर नियंत्रण करने के ख़्वाब देख रहा था जो अमेरिका को हरगिज़ मंजूर न था। सितम्बर 2000 में सद्दाम हुसैन ने यूरोपीय यूनियन की मुद्रा यूरो में तेल व्यापार करने की घोषणा कर दी थी जिससे विश्व तेल व्यापार में डालर के वर्चस्व को ख़तरा उत्पन्न हो गया था। इसके बाद 2001 में विश्व व्यापार केन्द्र पर आतंकी हमले की आड़ में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने आतंक के खि़लाफ़ युद्ध की घोषणा की जिसके तहत अमेरिका ने पहले अफगानिस्तान पर साम्राज्यवादी हमला किया गया और फिर 2003 में इराक़ पर हमला किया और सद्दाम हुसैन को सत्ताच्युत करके इराक़ पर क़ब्ज़ा कर लिया और वहाँ अपनी कठपुतली सरकार की स्थापना कर दी। लेकिन इराक़ में अमेरिकी क़ब्ज़े के खि़लाफ़ वहाँ जनप्रतिरोध भी शुरू हो गया। इस जनप्रतिरोध को तोड़ने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवादियों ने इराक़ी समाज में शिया-सुन्नी की पन्थीय संकीर्णता और कुर्द की नृजातीय अलगाववादी भावनाओं को हवा देना शुरू किया। इराक़ के उत्तरी भाग में स्थित कुर्दिस्तान स्वायत्तशासी क्षेत्र वहाँ के तेल संसाधन सम्पन्न क्षेत्रों में से एक है जहाँ एक्सान मोबिल और शेवरान जैसी अमेरिकी तेल कम्पनियाँ तेल के कुओं से तेल निकालकर अकूत मुनाफ़ा कमाती हैं। कुर्दिस्तान स्वायत्त क्षेत्र की राजधानी इरबिल में इन तमाम तेल कम्पनियों के क्षेत्रीय कार्यालय हैं। अमेरिका का दूतावास भी इरबिल में स्थित है और इसके अलावा यह अमेरिका के सैन्य और खुफ़िया अधिकारियों का गढ़ भी है। अगस्त के महीने में जब आईएस के जिहादी लड़ाके इरबिल की ओर बढ़ने लगे तो इरबिल में आईएस के क़ब्ज़े की सम्भावना से अमेरिका सकते में आ गया। आनन-फानन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा, जो अब तक आईएस को एक छोटा-मोटा संगठन बताते थे, ने कुर्दिस्तान में आईएस के क़ब्ज़े वाले क्षेत्रों में अमेरिकी वायुसेना को हवाई हमले का आदेश दे दिया। दुनिया भर की पूँजीवादी मीडिया में यह प्रचारित किया गया कि अमेरिका ने आईएस के डर से सिंजर पहाड़ों में छिपे यज़ीदी समुदाय के लोगों को बचाने के लिए यह हमला किया था। लेकिन सच्चाई यह थी कि यह हमला आईएस को इरबिल से दूर हटाने के लिए किया गया था। इस हमले की दूसरा मक़सद मोसुल बाँध पर से आईएस के कब्ज़े से छुड़ाना था जिससे इराक़ के बड़े हिस्से में बिजली और पानी भेजी जाती है। यज़ीदी समुदाय के लोगों को बचाने का काम दरअसल सीरिया स्थित वाईपीजी (पीपुल्स प्रोटेक्शन ग्रुप) और तुर्की की पीकेके (कुर्दिश वर्कर्स पार्टी) के ज़मीनी कुर्द लड़ाकों ने किया था।

इराक़ पर क़ब्ज़ा करने के बाद अमेरिकी साम्राज्यवादियों का अगला प्रमुख निशाना ईरान था। ईरान कच्चे तेल के रिज़र्व के मामले में दुनिया में चौथे स्थान पर और प्राकृतिक गैस में दुनिया मे दूसरे स्थान पर है। 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के बाद से ही अमेरिका और ईरान के सत्ताधारियों के बीच दुश्मनाना सम्बन्ध रहे हैं। सामरिक रूप से ईरान की नज़दीकी रूसी साम्राज्यवादियों से रही है। अपनी अकूत तेल और गैस सम्पदा के बूते ईरान ने अपना स्वतंत्र तेल बाज़ार बना लिया है जिसमें वह डालर के अलावा अन्य मुद्राओं में भी व्यापार करता है। इस प्रकार ईरान ने विश्व तेल बाज़ार में अमेरिकी डालर के एकाधिकार को ज़बरदस्त चुनौती दी है। आर्थिक मन्दी से गुजर रही अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए यह एक ज़बरदस्त धक्का था। इसीलिए अमेरिका पिछले कई वर्षों से ईरान पर हमला करने की फ़िराक में है। राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने पूरे कार्यकाल के दौरान ईरान पर हमले के लिए जनमत तैयार करते रहे हैं। और ईरान पर प्रतिबन्ध भी इसी मक़सद से लगाये गये।

मध्य-पूर्व में सामरिक, सैन्य एवं आर्थिक रूप से ईरान का सबसे घनिष्ठ सहयोगी सीरिया रहा है। इसके अतिरिक्त लेबनान स्थित हिज़बुल्ला भी मध्य-पूर्व में ईरान का घनिष्ठ सहयोगी है जिसने इज़रायली जॉयनवादियों की नाक में दम कर रखा है। इस प्रकार मध्य-पूर्व में ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला की एक धुरी है जो उस क्षेत्र में शिया-सुन्नी की पन्थीय संकीर्णता के बढ़ने के साथ ही साथ ही सुदृढ़ हुई है। हालाँकि बशर अल-असद स्वयं शिया नहीं है, बल्कि अलावी पन्थ से आता है, लेकिन उसका सीरिया के शिया और ईसाई अल्पसंख्यकों में अच्छा-ख़ासा आधार है। सीरिया की बाथ पार्टी की सरकार लम्बे समय से पश्चिमी साम्राज्यवादियों की योजनाओं में एक बड़ी बाधा रही है और हिज़बुल्ला तथा हमास जैसे प्रतिरोध आन्दोलनों के समर्थन की वजह से इज़रायल से भी उसके सम्बन्ध दुश्मनाना रहे हैं। भू-राजनीतिक दृष्टि से मध्य-पूर्व में सीरिया बेहद अहम स्थान रखता है क्योंकि यह क्षेत्रीय शक्ति-सन्तुलन एवं जल तथा प्राकृतिक गैस जैसे संसाधनों के ट्रांज़िट के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। हाल में मध्य-पूर्व के क्षेत्र से यूरोप को पाइपलाइन के ज़रिये प्राकृतिक गैस पहुँचाने के लिए दो योजनाएँ प्रस्तावित हैं और ये दोनों प्रस्तावित पाइपलाइनें सीरिया से होकर जाने की योजना है। पहली योजना, जिसको इस्लामिक पाइपलाइन भी कहा जा रहा है, में गैस पाइपलाइन ईरान की असालुयेह गैस क्षेत्र से ईराक़ और सीरिया होते हुए मेडिटेरेनियन समुद्री तट और फिर वहाँ से यूरोप को ले जायी जायेगी। दूसरी योजना में कतर से गैस पाइपलाइन शुरू होकर हुए सउदी अरब, जॉर्डन और सीरिया होकर तुर्की और फिर वहाँ से यूरोप की ओर जायेगी। इस्लामिक गैस पाइपलाइन के लिए 2011 में समझौते पर दस्तख़त भी हो चुके हैं। यदि यह पाइपलाइन अस्तित्व में आती है तो इससे कतर, इज़रायल और अमेरिकी साम्राज्यवादियों को काफ़ी नुक़सान पहुँचेगा एवं ईरान लाभ की स्थिति में होगा। इसीलिए साम्राज्यवादियों की योजना में सीरिया काफ़ी अहमियत रखता है।

मध्य-पूर्व में हालिया हस्तक्षेप के पीछे अमेरिकी साम्राज्यवाद की रणनीति

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इराक़ और सीरिया में हालिया हस्तक्षेप का मक़सद इस्लामिक स्टेट (आईएस) को कमज़ोर करके उसको नष्ट करना बताया है। परन्तु जिस तरीके से अमेरिका आईएस का हौव्वा खड़ा करके समूचे मध्य-पूर्व के क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य उपस्थिति बढ़ा रहा है उससे साफ़ ज़ाहिर है कि उसका असली मक़सद अभी भी असद सरकार का तख़्तापलट करवाना और फिर ईरान का घेरना है। हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं कि पिछले वर्ष भी अमेरिका सीरिया पर हमला करने की फ़िराक में था, लेकिन साम्राज्यवादियों के आपसी मतभेद की वजह से वह अपने मक़सद में क़ामयाब न हो सका था। आईएस और जबत अल-नूसरा जैसे जिहादी लड़ाकों को उसने अपने सहयोगियों की मदद से इसलिए बढ़ावा दिया था ताकि वे असद सरकार का तख़्तापलट करवाने के उसके मक़सद को पूरा करें। लेकिन अब जबकि आईएस अमेरिका के काबू से बाहर होकर एक स्वतंत्र ताकत बन चुका है तो साम्राज्यवादियों की अपनी रणनीति में फेरबदल करना पड़ा है। अब वह आईएस द्वारा ढायी जा रही मध्ययुगीन बर्बरता जैसे गला रेतकर हत्या करना, सामूहिक कत्लेआम करना, महिलाओं को यौन दास बनाकर रखना, गैर-मुस्लिमों को ज़बरन इस्लाम कबूल करवाने की वीडियो इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया के ज़रिये फैलाकर मध्य-पूर्व में सैन्य हस्तक्षेप के लिए औचित्य प्रतिपादन और जनमत तैयार करने की रणनीति अपना रहा है। अभी हाल ही में अमेरिकी मीडिया में अचानक खोरासान ग्रुप नामक एक नये जिहादी संगठन का हौव्वा खड़ा किया गया जिसके बारे में यह प्रचारित किया गया कि वह आईएस से भी ज़्यादा ख़तरनाक और बर्बर संगठन है और वह अमेरिका पर एक बड़ा हमला करने की योजना बना रहा है। अमेरिकी मीडिया में एक बार फिर से मध्य-पूर्व में सेना भेजने की चर्चाएँ आम हो गयी हैं।

लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवादियों की रणनीति के अपने अन्तरविरोध भी है। जहाँ एक ओर वह आईएस को कमज़ोर करने के लिए अन्य नरमपन्थी जिहादियों एवं कुर्दों को हथियारों की सप्लाई एवं सैन्य प्रशिक्षण देकर मज़बूत करना चाहता है, वही दूसरी ओर उसके क्षेत्रीय सहयोगी इसमें उतनी दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। मिसाल के तौर पर तुर्की का यह डर है कि यदि कुर्दों की ताक़त बढ़ती है तो वे तुर्की में अपने आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग तेज़ कर देंगे। ग़ौरतलब है कि तुर्की में 1.5-2 करोड़ कुर्द रहते हैं और लम्बे अरसे से वे अपने आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर संघर्षरत हैं। तुर्की की सरकार इस संघर्ष का बर्बर दमन करती आयी है। इस संघर्ष का नेतृत्व पीकेके (कुर्दिश वर्कर्स पार्टी) के हाथों में है जिसको तुर्की ने आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है। अभी हाल ही में जब आईएस की जिहादी तुर्की-सीरिया सीमा से लगे सीरियाई शहर कोबानी को कब्ज़ा करने के क़रीब आ पहुँचे तो कुर्दों की माँग के बावजूद तुर्की ने न तो स्वयं हस्तक्षेप किया और न ही पीकेके के लड़ाकों को वहाँ जाने की अनुमति देने में कोई आतुरता दिखायी। मध्य-पूर्व क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि तुर्की ने कोबानी को आईएस के कब्ज़े से बचाने में कोई आतुरता इसलिए नहीं दिखायी क्योंकि वह चाहता था कि कोबानी कुर्दों के हाथ से निकल जाये। कोबानी सीरिया के कुर्दों के स्वायत्तशासी क्षेत्र के बीचोंबीच स्थित है और यदि वह कुर्दों के हाथ से निकल जाता तो कुर्दों की ताक़त कमज़ोर होती जिससे तुर्की में आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए चल रहा उनका संघर्ष भी कमज़ोर पड़ता। इसी प्रकार से अमेरिका का घनिष्ठतम सहयोगी सउदी अरब भी हालाँकि आईएस की स्वतंत्र आकांक्षाओं से खौफ़ज़दा है, लेकिन उसे यह भी डर है कि आईएस के कमज़ोर पड़ने से सीरिया और ईरान की ताक़त बढ़ेगी। इराक़ में शियाओं के वर्चस्व के बाद ईरान की ताक़त बढ़ने से वह पहले से ही चिन्तित रहता है।

इन तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद अमेरिकी साम्राज्यवादी आईएस और अन्य इस्लामिक कट्टरपन्थी संगठनों का हौव्वा खड़ा करके समूचे मध्यपूर्व में सैन्य हस्तक्षेप बढ़ाकर सीरिया में तख़्तापलट और फिर ईरान को घेरने की योजना को बदले हुए परिदृश्य में भी लागू करने की ओर बढ़ रहे हैं। साथ ही वह इराक़ में शिया-सुन्नी-कुर्द की दरार को और बढ़ाकर इराक़ को तीन स्वतंत्र क्षेत्रों में विभाजित करने की अपनी योजना को अमल में लाने की दिशा में ही आगे बढ़ रहे हैं। दरअसल अमेरिकी साम्राज्यवादियों की योजना समूचे मध्य-पूर्व का नक्शा बदलकर वर्तमान राष्ट्र-राज्यों को छोटे-छोटे कई हिस्सों में बदलने की है जिससे कि उनको बेहतर तरीके से साम्राज्यवादियों के हितों के अनुकूल संचालित किया जा सके। इस जटिल परिस्थिति में इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में यह पूरा क्षेत्र भयंकर पन्थीय हिंसा और गृहयुद्धों की चपेट में रहेगा। लेकिन इतिहास ने यह बार-बार सिद्ध किया है कि किसी समाज का विकास सदैव साम्राज्यवादियों की रणनीतियों के अनुसार ही नहीं होता बल्कि उनकी इच्छा से स्वतंत्र और अक्सर उनकी इच्छा के विपरीत उसकी स्वतंत्र गति भी होती है। मध्य-पूर्व के समूचे क्षेत्र में वहाँ के शासकों और साम्राज्यवादियों के खि़लाफ़ जनता में ज़बरदस्त असंतोष व्याप्त है। इस क्षेत्र में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के नये दौर में यह जन असंतोष और उग्र रूप धारण करेगा और भविष्य में जन विद्रोहों की दिशा में अग्रसर होगा।

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित