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मोदी सरकार द्वारा नोटबन्दी का राजनीतिक अर्थशास्त्र

मोदी सरकार द्वारा नोटबन्दी का राजनीतिक अर्थशास्त्र

  • शिशिर

8 नवम्बर की आधी रात से मोदी सरकार ने अपने अचानक लिये फ़ैसले में 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों का प्रचलन बन्द करने का एेलान किया। यह एेलान नोटों के प्रचलन के बन्द होने के मात्र 4 घण्टे पहले किया गया। इसके बाद से पूरे देश में जो अफ़रा-तफ़री मची वह अभी तक जारी है। इस तानाशाहाना फ़रमान के बाद से मोदी सरकार ने नोटबन्दी के ही विषय में कई सर्कुलर जारी किये हैं, जिन्होंने इस अफ़रा-तफ़री को बढ़ावा ही दिया है। मसलन, पुराने नोटों को बदलने की सीमा को घटाते जाने और साप्ताहिक नक़द निकासी पर सीमा निर्धारित करना आदि। अपने इस फ़रमान को सही ठहराने के लिए मोदी सरकार ने जो तर्क पेश किये वे इस प्रकार थे : इस प्रकार अचानक नोटबन्दी से काले धन की अर्थव्यवस्था पर एक ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की गयी है; नक़ली नोटों का लेन-देन इस नोटबन्दी की वजह से बन्द हो जायेेगा; चूँकि नक़ली नोटों का प्रयोग आतंकवाद समेत तमाम किस्म की आपराधिक गतिविधियों में होता है, इसलिए इन गतिविधियों को चलाने वाले संगठनों/व्यक्तियों के वित्त की भी कमर टूट जायेेगी; जो काला धन लौटकर सरकार के पास आयेगा उससे सरकार अवसंरचना का विकास करेगी जिससे कि निवेश बढ़ेगा और रोज़गार पैदा होंगे। ये सरकार के दावे थे। अभी हम उन अफ़वाहों की बात नहीं कर रहे हैं जो कि फ़ासीवादी मोदी सरकार के तलवे चाटने वाले कॉरपोरेट मीडिया ने नोटबन्दी के बाद फैलायी। मसलन, एक अग्रणी समाचार चैनल ‘आज तक’ ने इस विषय पर एक घण्टे का कार्यक्रम पेश किया कि नये नोटों में कोई चिप लगा हुआ है, जिससे सभी नोटों को इलेक्ट्रॉनिक रूप से ट्रैक किया जा सकेगा। वैसे तो ऐसी अफ़वाहों और झूठी ख़बरों के लिए इन चैनलों पर मुक़दमा किया जाना चाहिए क्यों‍कि जनता को गुमराह करके ये मीडिया की बुनियादी नैतिकता और निष्पक्षता के उसूलों का उल्लंघन कर रहे हैं। लेकिन यहाँ हम केवल सरकार के दावों और हक़ीक़त पर अपनी बात केन्द्रित करेंगे और इस प्रक्रिया में दिखलाने का प्रयास करेंगे कि नोटबन्दी के राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्या मायने हैं। नोटबन्दी भारतीय इतिहास में पहली बार नहीं की गयी है। इससे पहले 1946 में सरकार ने 1000 और 10000 के नोटों का प्रचलन बन्द किया था। और उसके बाद मोरारजी देसाई की सरकार ने जनवरी 1978 में 1000, 5000 और 10000 के नोटों पर पाबन्दी लगायी थी। लेकिन उस समय और आज की नोटबन्दी में एक फ़र्क़ है। पहले जो नोटबन्दी हुई थी, उसमें वे नोट बन्द हुए थे जिन्हें आमतौर पर 80 फ़ीसदी जनता कभी देखती भी नहीं है, या कम-से-कम छू तो कभी नहीं पाती। 1946 में 1000 रुपये एक बहुत बड़ी रक़म थी जिसे देश के 90 फ़ीसदी से ज़्यादा लोग कभी देखते भी नहीं थे। 1978 में 1000 रुपये से आप जो कुछ ख़रीद सकते थे, उसे ख़रीदने के लिए आपको आज 25000 रुपयों की आवश्यकता होगी। ज़ाहिर है, आज अगर 25,000 रुपये का कोई नोट होता तो वह धन्नासेठों की तिजोरियों में ही पाया जाता क्योंकि देश की 77 फ़ीसदी आबादी की पारिवारिक मासिक आय 5000 रुपये से कम बैठती है। ऐसे में, 1978 में हुई नोटबन्दी या 1946 में हुई नोटबन्दी से आम मेहनतकश अवाम और मध्यवर्ग के निम्नवर्ती संस्तरों पर कोई विशेष असर नहीं पड़ा था। 1978 में रिज़र्व बैंक के गवर्नर आई. जी. पटेल ने तभी कहा था कि ”इस प्रकार की कवायद से बिरले ही कोई नतीजा निकलता है…क्योंकि जिनके पास काला धन होता है वे इसे नक़द में नहीं रखते। यह सोचना नादानी है कि जिनके पास काला धन होता है वे उसे नोटों के रूप में सूटकेसों या गिलाफ़ों में ठूँसकर रखते हैं।” आगे हम काले धन की इस अवधारणा की चीर-फाड़ करेंगे जिसे कि पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों ने समाज में हावी बना रखा है।

कार्टून साभार – रागदेश

लेकिन 2016 में 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों को बन्द करने से इन वर्गों के जीवन पर गहरा नकारात्मक असर पड़ा है। परिचलन में मौजूद कुल मूल्य का 86 प्रतिशत और नोटों की संख्या के अनुसार क़रीब 25 प्रतिशत नोट 500 और 1000 के थे। मज़दूर वर्ग और मध्य वर्ग की बहुसंख्यक आबादी की वेतन, मज़दूरी या आमदनी और साथ ही उनकी थोड़ी-बहुत बचत मुख्य रूप से इन्हीं नोटों के रूप में थी। सरकार ने यह नोटबन्दी करने से पहले कोई आर्थिक चिन्तन या विश्लेषण नहीं किया है, इसका प्रमाण यह है कि सरकार अभी तक परिचलन से हटाये गये नोटों का आधा हिस्सा भी अर्थव्यवस्था में वापस नहीं डाल पायी है, जिससे कि नक़दी के अभाव की समस्या विकराल रूप में बनी हुई है। वास्तव में, ऐसा सम्भव ही नहीं था क्योंकि मोदी सरकार ने 8 नवम्बर को 22 अरब नोटों को यानी कुल नोटों के 25 प्रतिशत को परिचलन से हटाया था। यदि सरकार के सभी नोट छापने वाले प्रेस अन्य सभी नोटों को छापना बन्द करके केवल नये 2000 और 500 के नोटों को छापें तो 86 प्रतिशत मूल्य परिचलन की कमी और 25 प्रतिशत नोटों की कमी को पूरा करने में एक वर्ष का समय लगेगा। मोदी सरकार का दावा था कि वह इस फ़ैसले पर लम्बे समय से विचार कर रही थी लेकिन उसने इसे गोपनीय रखा था ताकि जिन लोगों के पास ”काला धन” है वे उसे ठिकाने न लगा पायें। यह तर्क मज़ाकि़या है क्योंकि मोदी सरकार यदि वाक़ई ऐसे लोगों को पकड़ना चा‍हती थी तो उसे नोटबन्दी का एेलान करने के बाद कुछेक महीनों की मोहलत देनी चाहिए थी और उसके बाद अपने कर विभाग व आर्थिक चौकसी के लिए जि़म्मेदार विभागों को निर्देश देना चाहिए था कि वह प्रॉपर्टी, सोने, जवाहरात आदि की ख़रीद पर निगाह रखे। ज़ाहिर है, ऐसे सभी काले धन के स्वामी आनन-फ़ानन में अपने काले धन को समृद्धि के अन्य रूपों में बदलते और फिर उन्हें एक प्रभावी और सक्षम कर प्रशासन द्वारा पकड़ा जा सकता था। लेकिन मूल बात यह है ही नहीं।

मूल बात यह है कि काले धन की जिस अवधारणा के चलते कुछ लोगों में मोदी सरकार की दलील शुरुआती दौर में असरदार हुई थी कि नोटबन्दी से काले धन पर फ़र्क़ पड़ेगा, वह अवधारणा ही बुरी तरह से ग़लत है। अव्वलन तो काले धन और सफ़ेद धन के बीच का बँटवारा ही ग़लत है। यह शुरू से ही ग़लत था लेकिन वित्तीय सट्टेबाज़ पूँजी के युग में तो यह एकदम मज़ाकि़या है। लेकिन अभी हम केवल काले धन के बारे में और उसके बारे में प्रचलित अवधारणा के बारे में बात करते हैं।

काला धन बोरियों, तकिये के गिलाफ़ों, रज़ाइयों, दीवानों और अलमारियों के छिपाया हुआ या ज़मीन में दबाया हुआ धन नहीं होता है। बहुत से लोगों को यह भी लगता है कि काला धन बैंकों में जमा नहीं होता। यह भी ग़लत है। काला धन हर व्यावहारिक मसले में सफ़ेद धन के समान ही होता है। इसे मरकूरी अवदेविच के समान लोग तकियों में छिपाकर नहीं रखते और न ही समुद्री लुटेरों की तरह किसी द्वीप में ज़मीन के नीचे छिपाकर रखते हैं। यह काला धन किसी भी धन की तरह लोग लगातार निवेश करते हैं। वे उसे अचल सम्पत्ति (रियल एस्टेट), शेयरों, सोने-चाँदी या जवाहरात आदि में लगाते हैं, उससे विदेशी मुद्रा ख़रीदते हैं और हवाला के रास्ते उसे विदेशी बैंकों में जमा करते हैं, तमाम कर चोरी के लिए उपयुक्त देशों में फ़र्ज़ी कम्पनियों में लगाते हैं, और अन्य तमाम प्रकार की आर्थिक गतिविधियों में लगाते हैं। प्रभात पटनायक ने इस मामले में बिल्कुल सही कहा है कि काले धन के स्वामी भी वास्तव में पूँजीपति ही हैं जो अपनी पूँजी को मूल्य संवर्धन के लिए सतत निवेश करते रहते हैं। मार्क्स के शब्दों में वे कंजूस नहीं हैं, बल्कि तार्किक कंजूस हैं। पूँजीपति एक तार्किक कंजूस होता है और कंजूस एक ऐसा पूँजीपति होता है जो कि पागल हो चुका होता है। इसलिए काले धन का अर्थ नोटों के छिपे हुए भण्डार नहीं होते, बल्कि वे तमाम आर्थिक गतिविधियाँ होती हैं, जिनके बारे में सरकारी एजेंसियों और कर प्रशासन के अधिकारियों को रिपोर्ट नहीं की जाती। रिश्वतखोरी वग़ैरह इसका बहुत ही छोटा हिस्सा होती है। मुख्य तौर पर, काले धन के ये लेन-देन बहुत ही सुनियोजित और संगठित रूप से तमाम पूँजीपति, कम्पनियाँ, बड़े दुकानदार आदि करते हैं। इनमें मुख्य तौर पर ये गतिविधियाँ होती हैं : ओवर-इनवॉ‍इसिंग/अण्डर इनवॉसिंग, बिकवाली के मूल्य को कम करके रिपोर्ट करना, लागत को ज़्यादा करके दिखाना, ग़लत या ऐसे लेन-देन को दिखाना जो कि हुए ही नहीं हैं और हर प्रकार की आपराधिक गतिविधियाँ जैसे स्मगलिंग, ड्रग्स व्यापार आदि। मिसाल के तौर पर, यदि किसी कम्पनी को खनिज या तेल निकालने का ठेका मिला है और वह ज़्यादा खनिज या तेल निकालकर उसके उत्पादन को लेखांकन में कम दिखलाये और इस तरीक़े से अपनी देनदारियों (तमाम प्रकार के कर आदि) को कम करके दिखाये तो यह काला धन पैदा करने वाली आर्थिक गतिविधि की श्रेणी में आयेगा। यह काम तो दुनिया भर में सारे बड़े कॉरपोरेट घराने करते हैं। इनमें से भी बहुत से लेन-देन के लिए वस्तुत: नक़दी की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। इस विषय पर आगे आयेंगे कि यह एक भ्रामक धारणा है कि भ्रष्टाचार और काले धन के लिए नक़दी की ही आवश्यकता पड़ती है। जो भी हो, काला धन वास्तव में नक़दी के भण्डारों के रूप में नहीं होता है। अगर आँकड़ों की बात करें तो देश में काले धन की कुल अर्थव्यवस्था का मात्र 6 प्रतिशत ही नक़द के रूप में है, बाक़ी काला धन विदेशी बैंकों व कर चोरी के अड्डों में रखा गया है (वहाँ भी वह लगातार परिचलन में है), रियल एस्टेट में, सोने-जवाहरात में और शेयरों/बाण्ड्स आदि में रूपान्तरित करके रखा गया है। काले धन को शेयरों या बॉण्ड्स में रूपान्तरित करना तो सबसे आसान है और सरकार ने स्वयं इसके लिए उपयुक्त वित्तीय उपकरण मुहैया करा रखा है : पार्टिसिपेटरी नोट्स। यह एक ऐसा वित्तीय उपकरण है जिसके ज़रिये शेयर/बॉण्ड्स आदि की ख़रीद करने वाला व्यक्ति अपनी पहचान को छिपाकर रख सकता है। यूपीए के दोनों कार्यकालों में इन पार्टिसिपेटरी नोट्स पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग उठायी गयी थी और मोदी सरकार के कार्यकाल में भी ऐसी माँगें उठती रही हैं। लेकिन इन दोनों ही सरकारों ने इस पर प्रतिबन्ध न लगाकर काले धन की अर्थव्यवस्था को ख़त्म करने के प्रति अपनी कटिबद्धता को पहले ही जता दिया था।

इसलिए काला धन किसी भी अन्य प्रकार का धन है जिसे ग़ैर-क़ानूनी और अप्रेतिवेदित आर्थिक क्रियाकलाप द्वारा अर्जित किया जाता है और इसे अर्जित करके बोरों और अलमारियों में नहीं रखा जाता है, बल्कि इससे सतत निवेशित किया जाता है ताकि इस पूँजी का मूल्य-संवर्धन किया जा सके। यदि मार्क्स के शब्दों में कोई पूँजीपति, यानी तार्किक कंजूस, पागल होकर ठेठ कंजूस में तब्दील हो जायेे, तो उसके धन के ढेर का कुछ महीनों या ज़्यादा से ज़्यादा कुछ वर्षों के बाद ही वह मूल्य नहीं रह जायेेगा जो कि उसका आरम्भ में था। इसलिए कोई भी काले धन का स्वामी अपने सभी आर्थिक क्रियाकलापों में किसी भी अन्य पूँजीपति के समान होता है और अपने इस धन को लगातार निवेशित करता रहता है। इसलिए काले धन को पकड़ने के लिए नोटबन्दी किसी भी रूप में प्रभावी नहीं होने वाली थी। जिसे काला धन कहा जाता है, यदि सरकार उसे पकड़ना ही चाहती थी तो उसे अपना यह वायदा पूरा करना चाहिए था कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन वह वापस लाती। अब सरकार के पास स्विस बैंकों व टैक्स हैवेन्स में काला धन रखने वालों की सूची भी है और वह चाहे तो उन पर कार्रवाई कर सकती है, मगर मोदी सरकार ने इन खाताधारकों के नाम उजागर करने तक से इंकार कर दिया है। साथ ही, मोदी सरकार को काले धन की अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण करना ही था, तो उसे कर प्रशासन में तमाम ऐसे सुधार करने चाहिए थे जो कि कर चोरी रोकने को सम्भव बना पाता। अगर मोदी सरकार वास्तव में काले धन की अर्थव्यवस्था को लेकर संजीदा होती तो उसे चुनावी पार्टियों के चन्दे व अन्य लेन-देन को सूचना अधिकार के तहत लाना चाहिए था। लेकिन इसकी बजाय मोदी सरकार ने क्या किया? मोदी सरकार ने कॉरपोरेट घरानों के 1.14 लाख करोड़ रुपये की बैंक देनदारी माफ़ कर दी। साथ ही, लाखों-करोड़ों रुपये की कर देनदारी भी माफ़ कर दी। इसके अलावा, सबसे बड़े करचोर और बैंकों का पैसा गबन करने वाले विजय माल्या को बड़ी ही सुगमता से देश से भागने की इजाज़त दे दी गयी। पार्टिसिपेटरी नोट्स को बढ़ावा देकर शेयर बाज़ार में काले धन की अर्थव्यवस्था को और बढ़ावा दिया गया। स्पष्ट है, कि काले धन पर सर्जिकल स्ट्राइक एक और जुमला था। कुछ आँकड़ों पर नज़र डालें तो भी यह बात साफ़ हो जाती है कि नोटबन्दी का असली लक्ष्य काले धन की अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण पाना था ही नहीं। क्योंकि नोटबन्दी से काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष असर नहीं पड़ने वाला है।

देश में काले धन की अर्थव्यवस्था का आकार क्या है? अलग-अलग स्रोतों के अनुसार इसका आकार सकल घरेलू उत्पाद के 25 प्रतिशत से लेकर 75 प्रतिशत तक है। एक निजी शोध समूह ऐम्बिट कैपिटल रिसर्च के अनुसार यह 25 प्रतिशत है जबकि राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त व नीति संस्थान के अनुसार यह 75 प्रतिशत है। देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का सुचारू रूप से विनिमय हो सके इसके लिए उसमें कितना नक़दी मौजूद है? कुल मौजूद नक़दी सकल घरेलू उत्पाद का 12 प्रतिशत है जो कि सतत विनिमय के लिए पर्याप्त है। इस कुल नक़दी का 86.2 प्रतिशत 500 और 1000 रुपये के नोटों के रूप में था। अब यदि हम मानते हैं कि काले धन की अर्थव्यवस्था सकल घरेलू उत्पाद का 25 से 75 फ़ीसदी है, और सकल घरेलू उत्पाद का 12 प्रतिशत नक़दी के रूप में है, और नक़दी का 86 प्रतिशत 500 रुपये और 1000 रुपये के नोटों के रूप में था, तो स्पष्ट है कि 500 और 1000 रुपये के नोटों को बन्द करने से नक़दी में मौजूद काले धन पर ही असर पड़ सकता है जो कि कुल काले धन का मात्र 2.3 से 5.2 प्रतिशत तक हुआ। दूसरी बात यह कि यह काला धन भी तभी पकड़ा जायेेगा, जबकि इसके स्वामी बेहद नादान और मूर्ख हों। नोटबन्दी के बाद के दो महीनों में यह तो स्पष्ट हो गया है कि काले धन की अर्थव्यवस्था के बड़े खिलाड़ी इसमें कहीं भी हत्थे नहीं चढ़ने वाले क्योंकि उनका काला धन नक़दी में है ही नहीं। दूसरी बात यह कि छोटे और मध्यवर्ती आकार के खिलाडि़यों ने भी अपने नक़दी में रखे काले धन को ठिकाने लगाने के तरीक़े तुरन्त ही निकाल लिये। गुजरात के व्यापारियों ने तो अपनी नक़दी को 8 नवम्बर की रात ही बड़े पैमाने पर ज्यूलरी में तब्दील कर लिया था। और बाद में भी अवैध कारख़ानों के मालिकों, दुकानों के मालिकों ने अपने कारिन्दों, मज़दूरों को बैंकों की लाइन में लगवाकर नोट बदले और अपने नौकरों, ड्राइवरों, मालियों आदि के खातों में पैसे डलवाकर बाद में उसे निकलवा लिया। कुछ मामलों में उन्होंने इसके लिए कुछ कमीशन भी दिया लेकिन ज़्यादातर मामलों में तो उन्हें यह ख़र्च भी नहीं उठाना पड़ा क्योंकि ऐसे छोटे उद्यमियों के यहाँ काम करने वाले ये मज़दूर आमतौर पर बेहद अरक्षित स्थिति में होते हैं, मालिकों पर निर्भर होते हैं और सौदेबाज़ी करने या कोई शर्त रखने की स्थिति में नहीं होते हैं। इसलिए काले धन की अर्थव्यवस्था का जो बेहद मामूली सा हिस्सा नक़दी में है, उस पर भी नोटबन्दी से कोइ असर नहीं पड़ने वाला है। उल्टे इस नोटबन्दी से देश के आम ग़रीब लोगों की जि़न्दगी तबाह हो गयी है। इसका कारण यह है कि हमारे देश की अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक क्षेत्र का काफ़ी महत्व है। देश की कार्यशक्ति का क़रीब 85 फ़ीसदी अनौपचारिक क्षेत्र में नौकरी करता है या किसी न किसी रूप में उसकी आय अनौपचारिक क्षेत्र पर निर्भर करती है। सकल घरेलू उत्पाद का क़रीब 47 प्रतिशत हिस्सा इसी अनौपचारिक क्षेत्र से आता है। इस क्षेत्र में लगभग सभी लेन-देन नक़दी में होते हैं क्योंकि उनका आकार आमतौर पर छोटा ही होता है। इससे आमदनी पाने वाले लोगों का धन कोई काला धन नहीं होता है। उनकी आमदनी आमतौर पर इतनी छोटी होती है कि वह प्रत्यक्ष कर के दायरे में नहीं आती है और अप्रत्यक्ष कर के तमाम रूपों का भुगतान तो वे करते ही हैं। ऐसे में, उनकी छोटी-सी आमदनी और सम्भवत: छोटी-सी बचत कोई काला धन नहीं होती। लेकिन नोटबन्दी के बाद इनमें से ज़्यादातर के पास जो भी जमा धन था वह रद्दी काग़ज़ बन गये। दिहाड़ी मज़दूरों को दिहाड़ी नहीं मिल रही, कारख़ाना मज़दूरों को मज़दूरी नहीं मिल रही या फिर मालिक उन्हें पुराने नोटों में भुगतान करने का प्रयास कर रहा है। और इनमें से अधिकांश के पास कोई बैंक खाता नहीं है। ऐसे में वे कुछ नहीं कर सकते। तमाम औद्योगिक केन्द्रों में कारख़ाने बन्द हो रहे हैं और मज़दूर गाँव लौट रहे हैं। जो मज़दूर लौट नहीं रहे हैं, उन्होंने अपनी ख़रीद में बेहद कमी कर दी है और वे नोट बचाकर रख रहे हैं। इससे मज़दूर इलाक़ों के छोटे व्यापा‍री और दुकानदार भी तबाह हो रहे हैं क्योंकि ख़रीद न होने के कारण और कुल उपभोग में कमी आने के कारण उनके पास भी नक़दी नहीं आ रही कि वे बड़ी थोक मण्डियों से माल ले सकें। नतीजतन, बड़ी थोक मण्डियों में भी माल पटा पड़ा सड़ रहा है। दिल्ली की सब्ज़ी मण्डी व फल मण्डी इसका उदाहरण है। फ़सल मण्डियों में जो ख़रीफ़ की फ़सल कटकर पहुँची उसे ख़रीदार नहीं मिल रहे हैं क्योंकि भुगतान के लिए नक़दी ही नहीं है।

जो मज़दूर गाँव लौट रहे हैं उन्हें गाँव में भी नोटबन्दी के कहर से कोई राहत नहीं है। किसानों और विशेषकर ग़रीब किसानों की स्थिति सबसे बुरी है। जब नोटबन्दी का फ़ैसला मोदी सरकार ने सुनाया तो उस समय ख़रीफ़ की फ़सल की कटाई का वक़्त आ रहा था और रबी की बुआई की तैयारी होनी थी। लेकिन ये दोनों कार्य ही बाधित हो गये हैं। किसानों की बहुसंख्या की पहुँच बैंकों तक नहीं है। बैंकों को गाँवों-गाँवों में पहुँचाने की लम्बी-चौड़ी बातों के बावजूद मोदी सरकार (और उसके पहले की सरकारों की) नवउदारवादी नीतियों के कारण बैंकों तक ग़रीब किसान आबादी की प्रत्यक्ष पहुँच कम होती गयी है। भारतीय राज्यसत्ता की पुरानी नीति थी कि किसानों को ऋण देने को प्राथमिकता श्रेणी में रखा जायेेगा और इसके लिए सभी निजी बैंकों व सरकारी बैंकों के लिए ऋण की एक न्यूनतम सीमा तय की गयी थी जो कि ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों को दिया जायेेगा। लेकिन सभी निजी बैंक इसका खुले तौर पर उल्लंघन करते हैं और सरकारी बैंकों ने भी इस विनियमन से बचने के कई रास्ते निकाल लिये हैं। मिसाल के तौर पर, एग्रो आधारित व सम्बन्धित क्षेत्र की कम्पनियों को अपने बीज या उर्वरक के कारख़ानों या अन्य प्रकार के निवेशों के लिए भारी-भरकम ऋण दिये जाते हैं और इसे भी उस प्राथमिकता सेगमेण्ट में दर्ज कर दिया जाता है। निजी से लेकर सरकारी बैंकों तक ने पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद के पतन के बाद से बड़ी संख्या में किसानों के साथ लेन-देन करने में असमर्थता ज़ाहिर कर दी है और वे तमाम प्रकार के मध्यस्थों, यानी, सूदखोरों के ज़रिये किसानों तक ऋण की पहुँच बनाने के हामी हो गये हैं। नतीजतन, बैंकों और अन्य प्रकार के खातों की जितनी पहुँच आज से तीस वर्ष पहले सीधे किसानों तक थी, आज वह भी नहीं है और सरकारी से लेकर निजी बैंक तक तमाम प्रकार के निजी व्यक्तियों (सूदखोरों और मध्यस्थों) के ज़रिये अपना काम करते हैं। नतीजतन, एक बड़ी किसान आबादी सीधे-सीधे नक़द प्राप्ति के लिए इन मध्यस्थों पर निर्भर है। यही कारण था कि रबी की बुआई के लिए बीजों व अन्य चीज़ों की ख़रीद तक करने में किसानों को भारी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा है। इस तरह हम देख सकते हैं कि मोदी सरकार के नोटबन्दी के क़दम ने वास्तव में काले धन की अर्थव्यवस्था पर कोई ख़ास असर नहीं डाला, लेकिन आम ग़रीब मेहनतकश अवाम के जीवन को नर्क बना दिया। यहाँ तक कि शहरी मध्यवर्ग का भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा इससे बेहद परेशान हुआ है। जब यह बात स्पष्ट तौर पर सामने आ गयी तो फिर मोदी सरकार और उसके तलवे चाटने वाला कॉरपोरेट मीडिया दूसरी बीन बजाने लगा है। अब वह कह रहा है कि नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था का निर्माण किया जा रहा है, जिससे कि लोगों को डिजिटल दुनिया में जीने के सारे फ़ायदे मिलेंगे और साथ ही भविष्य में भ्रष्टाचार होने के कारण ही ख़त्म हो जायेेंगे। पहली बात तो यह है कि भ्रष्टाचार और काले धन का नक़दी पर निर्भरता का सिद्धान्त ही मूर्खतापूर्ण है। अब हम मोदी सरकार के इस दावे पर आते हैं कि नोटबन्दी के ज़रिये नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था पैदा हो सकती है। सच है कि आबादी का ऊपर का छोटा-सा अमीर और खाता-पीता मध्यवर्ग और विशेष कर शहरों में, नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था के कुछ लाभ उठा सकता है क्योंकि उसके पास क्रेडिट कार्ड और इण्टरनेट की सुविधा है। मगर आबादी का बड़ा हिस्सा इस नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था का कोई लाभ नहीं उठा सकता है। इसके कारण समझने के लिए हमें समझना होगा कि नक़दी मुद्रा आख़िर क्या होती है। नक़दी मुद्रा और कुछ नहीं बल्कि रिज़र्व बैंक ऑफ़ इण्डिया पर धारक का एक दावा होता है। नक़दी के रूप मे दावा केवल रिज़र्व बैंक के ऊपर होता है क्योंकि भारत में सभी नक़दी दावों के लिए केवल रिज़र्व बैंक ही जि़म्मेदार होता है। अन्य बैंक केवल नक़दी-रहित दावों या ग़ैर-करेंसी डिपॉजिट को सँभालते हैं, यानी वे दावों को एक पक्ष से दूसरे पक्ष पर स्थानान्तरित करने का काम करते हैं। जहाँ भी ये दावे नक़दी के रूप में वास्तवीकृत होते हैं, वहाँ यह दावा वास्तव में रिज़र्व बैंक के ऊपर स्थानान्तरित हो जाता है। यानी जब हम नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था की बात करते हैं तो इसका अर्थ होता है दावों को रोकने और फिर रिज़र्व बैंक पर स्थानान्तरित करने की बजाय, हम इन दावों को साधारण बैंकों पर स्थानान्तरित करते हैं। मिसाल के तौर पर, अगर कोई चेक के ज़रिये आपके खाते में पैसा डाल रहा है तो वह बैंक के ऊपर अपने दावे को आपको स्थानान्तरित कर रहा है; दूसरे शब्दों में वह अपनी लेनदारी आपको दे रहा है। आप अपनी ले‍नदारी किसी अन्य पक्ष को स्थानान्तरित करके तमाम उत्पादों अथवा सेवाओं के लिए भुगतान कर सकते हैं। नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था का अर्थ यह हुआ कि सारे आर्थिक विनिमय (उत्पादों अथवा सेवाओं, अथवा शुल्कों, करों, बिलों आदि के लिए भुगतान) अब साधारण बैंकों पर अपने दावों/ले‍नदारियों को स्थानान्तरित करके किये जायेेंगे। साधारण बैंकों पर आपके दावे या ले‍नदारी दो प्रकार की हो सकती है। पहला है ऋण अथवा क्रेडिट के रूप में, यानी बैंक आपको पहले से जमा किसी राशि के बिना ही आपको ख़र्च करने के लिए एक राशि ऋण के तौर पर देता है, मसलन क्रेडिट कार्ड के रूप में। दूसरा है जब आप चेक अथवा किसी अन्य माध्यम से अपने खाते में कोई राशि डालते हैं तब उतनी राशि का आपका दावा/लेनदारी बैंक पर बनती है। अब अगर सरकार यह उम्मीद करती है कि देश में सारे आर्थिक क्रिया व्यापार इन दो प्रकार के दावों के एक से दूसरे पक्ष को स्थानान्तरण के ज़रिये हो तो इसके लिए दो शर्तें पूरी होनी चाहिए। आबादी की भारी बहुसंख्या क्रेडिट हेतु विश्वसनीयता की श्रेणी में आनी चाहिए; दूसरे शब्दों में, उसके पास पर्याप्त धन होना चाहिए, उसके खाते में पर्याप्त राशि में नियमित रूप से आना-जाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो आपको ऋण हेतु अच्छा पात्र नहीं माना जायेेगा और बैंक के लिए आपको क्रेडिट कार्ड हेतु उपयुक्त नहीं माना जायेेगा। यह सच है कि शहरी खाते-पीते मध्य वर्ग के पीछे बैंक आज क्रेडिट कार्ड देने के लिए भाग रहे हैं, ताकि उपभोग बढ़े और पूँजीवादी व्यवस्था का संकट कुछ निपटे और साथ ही वित्तीय संस्थान सूद के ज़रिये अच्छी कमाई कर सकें। संकट से पैदा हुई हताशा में बैंक कई बार अच्छा क्रेडिट इतिहास न रखने वाले शहरी मध्यवर्ग को भी क्रेडिट कार्ड दे देता है। लेकिन यह एक विच्युति के तौर पर होता है। जब भी यह नियम के तौर पर होगा तो अन्तत: उसका नतीजा कुछ वैसा ही होगा जैसा कि अमेरिका में सबप्राइम संकट में हुआ था। इसलिए आमतौर पर क्रेडिट के रूप में लेनदारी के लिए आबादी का मुश्किल से 10 से 12 फ़ीसदी हिस्सा ही योग्य है। ऐसे में, भारत की 90 फ़ीसदी आबादी का पहले किस्म की यानी क्रेडिट के रूप में बैंकों पर कोई ले‍नदारी/दावा नहीं बनेगा और जब दावा बनेगा ही नहीं तो उसको स्थानान्तरित करके कोई आर्थिक विनिमय कर पाने का सवाल ही नहीं पैदा होता है। दूसरे प्रकार के दावों यानी कि खातों में पहले से जमा राशि के स्थानान्तरण के ज़रिये सारी आबादी अपना आर्थिक क्रिया-व्यापार के लिए यह ज़रूरी है कि सभी के पास बैंक खाते हों। भारत में मुश्किल से एक-तिहाई आबादी के पास बैंक खाते हैं। ऐसे में, यह कल्पना करना कि सारी आबादी इन नक़दी-रहित दावों को साधारण बैंकों के ज़रिये स्थानान्तरित करके अपने तमाम आर्थिक विनिमय करेंगे, एक शेखचिल्ली का सपना है। इस तरीक़े से हम देख सकते हैं कि मोदी सरकार द्वारा नक़दी-रहित अर्थव्यवस्था के लिए मचाया जा रहा हल्ला बेकार है और जनता को मूर्ख बनाने की एक चाल है। फिर सवाल उठता है कि नोटबन्दी का क़दम मोदी सरकार ने क्यों उठाया है और इससे किसे लाभ हुआ है। पहली बात तो यह है कि यह मुख्य तौर पर एक राजनीतिक क़दम है। मोदी ने चुनाव प्रचार के दौरान दावा किया था कि वह स्विस बैंकों में जमा काले धन को वापस लायेगा और सभी भारतीयों के खाते में 15 लाख रुपये डाले जायेेंगे। इसी प्रकार भ्रष्टाचार के अन्य रूपों पर रोकथाम के लिए भी मोदी ने बड़े-बड़े दावे किये थे। जैसा कि हमने पहले बताया कि बुर्जुआ दायरे के भीतर भी अगर कोई सरकार भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था पर लगाम लगाना चाहेगी तो जो कार्य वह सबसे पहले करेगी वह है करचोरी के अड्डों से और स्विस बैंकों में जमा धन को वापस लाना, करचोरी करने वाले कॉरपोरेट डिफॉल्टर्स पर कार्रवाई करना और पार्टिसिपेटरी नोट्स पर रोक लगाना। लेकिन चूँकि मोदी सरकार इन सारे कामों को करने का कोई इरादा नहीं रखती और अपने तमाम अन्य वायदों पर भी वह बुरी तरह नाकाम हुई है, इसलिए उसने एक राजनीतिक स्टण्ट किया है जिससे कि लोगों का ध्यान बढ़ती महँगाई, भाजपाइयों के भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी से हट जायेे। मोदी की छवि एक ताक़तवर नेता की बन सके जो कि परिणामों की परवाह किये बिना मज़बूत क़दम उठाने का साहस रखता है। यह बात कि यह क़दम किस क़दर जनविरोधी और मूर्खतापूर्ण है, इस पर कॉरपोरेट मीडिया के मोदी-समर्थक शोर में कोई ध्यान नहीं देगा। लेकिन वास्तव में ऐसा हो नहीं रहा है। जनता में इसके ख़ि‍लाफ़ माहौल बना हुआ है और आने वाले समय में मोदी सरकार को इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों में भाजपा की हार तय थी। यह क़दम इसलिए भी उठाया गया कि इसके ज़रिये एक ओर मोदी और भाजपा की छवि सँवारी जा सके और दूसरी ओर अपने राजनीतिक प्रतिद्वन्द्वियों को शिकस्त दी जा सके। अब यह तथ्य सामने आ चुका है कि इस नोटबन्दी में भी एक बड़ा घोटाला हुआ है। भाजपा नेताओं और भाजपा की क्षेत्रीय इकाइयों को पहले से ही इस फ़ैसले की सूचना दे दी गयी थी जिसके बाद भाजपा‍इयों ने बड़े पैमाने पर अपने काले धन को सफ़ेद किया। बैंकों में भारी राशियाँ जमा की गयीं, ज़मीनें ख़रीदी गयीं, चुनाव प्रचार के लिए गाडि़याँ आदि ख़रीदी गयीं। वहीं दूसरे विपक्षी दल अपने काले धन के भण्डार को ठिकाने नहीं लगा सके। बाद में, शासक वर्ग की तमाम चुनावी पार्टियों ने भाजपा के इस क़दम पर काफ़ी शोर मचाया।

एक अन्य मंशा जो ऐसा लगता है कि मोदी सरकार की थी वह था खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बड़ी पूँजी को फ़ायदा पहुँचाना और खाते-पीते मध्यवर्ग के उपभोग के स्तर को बढ़ाना। नोटबन्दी के बाद से शहरों में मध्यवर्ग का वह हिस्सा जो क्रेडिट कार्ड आदि रखता है, मगर रोज़मर्रा की ज़रूरत की तमाम चीज़ें सामान्य परचून की दुकानों से ख़रीदता था, वह भी अब इन सामानों के लिए बड़ी खुदरा व्यापार कम्पनियों की दुकानों जैसे रिलायंस रीटेल, नाइन-इलेवेन, बिग बाज़ार, फे़यर प्राइस आदि से ख़रीद रहा है। इससे इन कम्पनियों को भारी फ़ायदा पहुँचा है क्योंकि प‍हले भी इनके पास खाते-पीते मध्य वर्ग के ग्राहक ही आते थे, और अब उनका कहीं ज़्यादा बड़ा हिस्सा इन दुकानों से ख़रीदारी कर रहा है जिन पर कार्ड से भुगतान हो सकता है। वहीं दूसरी ओर कार्ड से भुगतान यदि बाध्यता हो तो आप छोटी ख़रीद नहीं कर सकते। ऐसे में, लोग अपनी ज़रूरत से ज़्यादा सामान भी ख़रीद रहे हैं। ऐसे में, एक ओर बड़ी पूँजी की इज़ारेदारी खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बढ़ेगी और छोटे व्यापारी और दुकानदार साफ़ होंगे। यही कारण है कि भाजपा के पारम्परिक समर्थक रहे छोटे और मँझोले व्यापारी नोटबन्दी पर काफ़ी छाती पीट रहे हैं। वहीं उपभोक्ता वर्ग (खाते-पीते मध्यवर्ग) के उपभोग का स्तर भी बढ़ेगा। इस रूप में नोटबन्दी ने बड़ी पूँजी काे किसी प्रकार का सीधा नुक़सान नहीं पहुँचाया है। निश्चित तौर पर, इसके दूरगामी प्रभाव के तौर पर जो आर्थिक दिक़्क़तें पैदा होंगी आगे उनका असर बड़ी पूँजी पर भी पड़ सकता है लेकिन तात्कालिक तौर पर उन्हें कोई विशेष हानि नहीं है और अगर कोई है तो भी इससे होने वाले फ़ायदे नुक़सान से बड़े हैं। ऐसे में, मोदी सरकार के इस क़दम का लाभ अमीरों और बड़ी पूँजी को होगा। लेकिन आम मेहनतकश अवाम पर इस क़दम का भारी नुक़सानदेह असर पड़ा है, जैसा कि हम ऊपर जि़क्र कर चुके हैं। लेकिन मोदी सरकार का यह क़दम उसके लिए नुक़सानदेह ही साबित होगा। शुरुआती दौर में सरकारी प्रचार और कॉरपोरेट मीडिया के शोर ने नोटबन्दी के पक्ष में जो माहौल बनाया था और जिस तरीक़े से कुछ दिनों की असुविधा के बदले काले धन से निजात का जो सपना दिखाया था, वह हर बीतते दिन के साथ फीका पड़ता जा रहा है। मोदी की प्रतिक्रियाओं में भाजपा की घबराहट को देखा जा सकता है। मोदी जिस प्रकार की ‘नी-जर्क’ प्रतिक्रियाएँ दे रहा है, उससे समझ में आ रहा है कि उसका आत्मविश्वास डगमगा गया है और वह अनसेटल हो चुका है। आत्मविश्वास अब केवल दिखावे के स्तर पर है। दूसरे भाजपा के ही अन्य नेताओं ने मोदी के लिए इस क़दम को वापस लेने के रास्ते बन्द कर दिये हैं। मिसाल के तौर पर, वेंकैया नायडू ने बयान दिया था, ”फ़ैसले वापस लेना मोदी जी के ख़ून में नहीं है।” उत्तर प्रदेश और पंजाब चुनावों में हार के ख़तरे को देखते हुए बीच में भाजपा ने चुनाव आयोग से चुनाव टालने की भी बात की थी। लेकिन तय है कि इस ग़लती की क़ीमत मोदी को चुकानी पड़ेगी। निराशा के माहौल में क्रान्तिकारियों में यह प्रवृत्ति होती है कि शासक वर्ग के हर क़दम के पीछे वे कोई बहुत ही युक्तिपूर्ण षड्यन्त्र या योजना तलाशते हैं। ऐसे में, कई बार उनका ध्यान इस बात पर नहीं जाता कि फ़ासीवादी शासक और आमतौर पर शासक वर्ग भी ग़लती करते हैं। मोदी का नोटबन्दी का क़दम ऐसी ही एक ग़लती है।

 

दिशा सन्धान – अंक 4  (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

सिरिज़ा के इन दोनों धड़ों के बीच का अन्तरविरोध किसी भी रूप में पूँजीवाद के अतिक्रमण और समाजवादी क्रान्ति की बात नहीं कर रहा है। इन दोनों ही धड़ों के रास्ते दो अलग किस्म के पूँजीवादी रास्तों की बात कर रहे हैं जो आज यूनानी मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश समुदायों की समस्या का कोई हल नहीं पेश कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति यही चाहेगा कि 5 जुलाई के जनमत सर्वेक्षण में यूनानी जनता यूरोपीय संघ, आई.एम.एफ़. और ई.सी.बी. की शर्तों वाले बेलआउट के प्रस्ताव को नकार दे क्योंकि इससे यूनान में अन्तरविरोधों का क्रान्तिकारी दिशा में विकास होगा। लेकिन यह क्रान्तिकारी स्थिति स्वयं क्रान्ति में तब्दील नहीं हो सकती है। इसे क्रान्ति में तब्दील करने के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता है। यूनान में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी और कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुप मौजूद हैं। लेकिन उनकी समेकित शक्ति भी अभी काफ़ी कमज़ोर है। ऐसे में यूनान में आने वाले कुछ हफ्तों में क्या होगा यह वाकई दिलचस्प होगा और एक रूप में यह ऐतिहासिक महत्व रखता है। read more

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाजिमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ न जा सके, इसके लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्‍त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है। देखना यह है कि यह सारी प्रक्रिया अब किसी रूप में घटित होती है। read more