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विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्धों का एक अवैज्ञानिक और अज्ञानतापूर्ण पाठ : एक आलोचना

विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्धों का एक अवैज्ञानिक और अज्ञानतापूर्ण पाठ : एक आलोचना

  • सनी सिंह
  1. परिचय

”अज्ञानता कोई तर्क नहीं होता है।”
(Ignorance is no argument)
स्पिनोज़ा

‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ पत्रिका के पहले अंक में प्रकाशित दीपक बख्शी का लेख ‘मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्याएँ’ प्रथम-दृष्टया गम्भीर विषयवस्तु पर विमर्श का प्रयास लगता है। बख्शी मार्क्सवाद के अपूर्ण व पुराने पड़ चुके सिद्धान्तों के ‘निषेध’ के ज़रिये क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव को तोड़ने की ज़रूरत महसूस करते हैं। मार्क्सवाद, उनके मतानुसार, आज गम्भीर संकट से गुज़र रहा है। क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव को तोड़ने की ज़रूरत को समझना और उसे पूरा करना बेहद गम्भीर व गहन शोध कार्य की माँग करता है। प्रतीतिगत और सारभूत यथार्थ में अन्तर होता है। यह बात इस लेख को पढ़कर दिमाग़ में बार-बार उठती है क्योंकि हम पाते हैं कि दीपक बख्शी का प्रयास बेहद अगम्भीर, जल्दबाज़ीभरा और हल्का है। उनके लेख में वैज्ञानिक निषेध की जगह प्रतिस्थापन है, द्वन्द्व की जगह यान्त्रिकता है।

‘मार्क्सवाद में संकट’ के निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए दीपक बख्शी मार्क्सवाद का यान्त्रिक गणितीय सूत्र सरीखे नियम से प्रतिस्थापन कर देते हैं। मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त के सम्बन्ध को वे एक गणितीय श्रृंखला के रूप में सूत्रबद्ध करते हैं। यह श्रृंखला इस प्रकार  है : प्राकृतिक विज्ञान – मार्क्सवादी दर्शन – मार्क्सवादी सिद्धान्त। इस श्रृंखला में आने वाले तमाम तत्व प्राथमिकता के क्रम के अनुसार बाएँ से दाएँ रखे गये हैं। यानी, किसी भी कम्युनिस्ट को क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव को तोड़ने के लिए पहले प्राकृतिक विज्ञान के विकास का अध्ययन करना होगा, तत्पश्चात प्राकृतिक विज्ञान के विकास को मार्क्सवादी दर्शन में व्याख्यायित करना होगा जिससे मार्क्सवादी दर्शन विकसित होगा, और तत्पश्चात इस विकसित मार्क्सवादी दर्शन की रोशनी में मार्क्सवादी सिद्धान्त विकसित हो सकते हैं।

यह मार्क्सवादी दर्शन में नवीनतम ‘नकारात्मक योगदान’ है! हमें यह नकारात्मक शिक्षा मिलती है कि इस ‘नवीनतम’ तरीक़े से ग़लती करने से बचा जाना चाहिए! दीपक बख्शी के विचार जगत में इस यान्त्रिक श्रृंखला के क्रम को जरा भी भंग नहीं किया जा सकता है। मौजूदा दौर में इस श्रृंखला का पालन न होने, यानी प्राकृतिक विज्ञान में बदलाव का अध्ययन न होने व मार्क्सवादी दर्शन के द्वारा इसकी विवचना न हाने के कारण, क्रान्तिकारी आन्दोलन में ठहराव आ गया है। पिछली शताब्दी में मार्क्सवादियों ने तथा मार्क्सवादी नेताओं माओ और स्तालिन ने प्राकृतिक विज्ञान में विकास का अध्ययन नहीं किया और न ही मार्क्सवाद पर हाइजे़नबर्ग द्वारा किये ‘सबसे गम्भीर हमले’(!) का जवाब दिया! यह ‘सबसे गम्भीर हमला’ क्वाण्टम भौतिकी का अनिश्चितता का नियम व उसकी नवकाण्टीय विवेचना व विस्तार है। नतीजतन, बख्शी के श्रृंखला नियम के अनुसार, माओ और स्तालिन द्वारा रचित दार्शनिक कृतियों में पेश की गयी द्वन्द्ववाद के नियमों की समझदारी ग़लत सिद्ध हुई और मार्क्सवादी सिद्धान्त में संकट उत्पन्न हुआ है। मार्क्सवादी सिद्धान्त में संकट से दीपक बख्शी का तात्पर्य पार्टी और जनवादी केन्द्रीयता के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों से है।

साथ ही, श्री बख्शी रूसी क्रान्ति और चीनी क्रान्ति के बाद स्थापित हुईं समाजवादी व्यवस्थाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं और इन्हें महज़ ‘समाजवाद का प्रयास’ घोषित करते हैं। रसायनशास्त्री जब प्रयोगशाला में आसवन की प्रक्रिया से अर्क निकालते हैं तो इस प्रक्रिया के प्रतिफल के तौर पर अवशेष (caput mortuum, या डेड हैड) बचता है जो कि लिसलिसा और तमाम तत्वों के यौगिक की जगह एक मिश्रण होता है। दीपक बख्शी का यान्त्रिक श्रृंखला नियम मार्क्सवादी वैचारिक संघर्षों के आसवन का अवशेष (‘केपुट मॉर्चुअम’) है जिसमें तमाम तत्वों का अधिभूतवादी मिश्रण है। परन्तु इस केपुट मॉर्चुअम पर मार्क्सवादी शब्दावली के इत्र का छिड़काव किया गया है ताकि बख्शी इसे मार्क्सवादी विमर्श के दायरे में रख सकें।

बख्शी अपनी यान्त्रिक श्रृंखला में प्राकृतिक विज्ञान के विषय आधुनिक भौतिकी को प्रमुख स्थान देते हैं। हाइज़ेनबर्ग का अनिश्चितता का नियम मार्क्सवादी सैद्धान्तिकी के विकास की इस यान्त्रिक श्रृंखला में सबसे कमज़ोर कड़ी साबित होता है, क्योंकि मार्क्सवादी नज़रिये से इसे व्याख्यायित नहीं किया गया। जब तक दीपक बख्शी ने इस अनिश्चितता के हमले को निष्फल नहीं किया था तब तक यह कम्युनिस्ट आन्दोलन को डरा रहा था! भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को ‘अनिश्चितता’ नामक प्रेत परेशान कर रहा था। सवाल कठमुल्लावाद या संशोधनवाद का नहीं है जो नवजनवादी क्रान्ति के फ्रे़मवर्क या संसदीय विभ्रमों से नहीं निकलने दे रहा है वरन आधुनिक भौतिकी की समस्याओं का है! 1925 के बाद से भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में दक्षिणपन्थ से वामपन्थ के बीच विचारधारात्मक दोलन वैचारिक कमज़ोरी के चलते नहीं बल्कि ‘ग्रैविटेशनल वेव्स’ के कारण हो रहा है! दिसम्बर 2017 में वैज्ञानिकों को पदार्थ के नये रूप ‘एक्साइटोनियम’ के बारे में पता चला है, तो दीपक बख्शी की तर्कपद्धति के अनुसार तत्काल ही इसका अध्ययन और इसकी मार्क्सवादी दार्शनिक समझ विकसित करना कम्युनिस्टों के सैद्धान्तिक कार्यक्रम में प्राथमिक होना चाहिए! इसमें कोई दो राय नहीं है कि विज्ञान के नये सीमान्तों के उद्घाटन के साथ द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी इन खोजों के अध्ययन और व्याख्या के ज़रिये विकसित होता है। लेकिन यह कहना कि मार्क्सवादी दर्शन (और आम तौर पर दर्शन) हमेशा प्राकृतिक विज्ञान के पीछे-पीछे चलता है, न तो तार्किक रूप से सही दावा है और न ही आनुभविक और ऐतिहासिक तौर पर। इतिहास में अगणित बार ऐसा हुआ है कि उन सिद्धान्तों की खोज दार्शनिकों ने अपने वैज्ञानिक नज़रिये और आगमनात्मक तार्किक नज़रिये से पहले कर दी, जिन्हें बाद में प्राकृतिक विज्ञान ने आनुभविक तौर पर सिद्ध किया।

श्री दीपक बख्शी के दावे का दूसरा हिस्सा भी उतना ही अज्ञानतापूर्ण है जो कहता है कि बीसवीं सदी में प्राकृतिक विज्ञान की नयी खोजों व सिद्धान्तों का मार्क्सवाद ने व्याख्या व विश्लेषण नहीं पेश किया, जिसके कारण आज वह सैद्धान्तिक संकट का शिकार है। ऐसा नहीं है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन की ओर से आधुनिक भौतिकी की समस्याओं का अध्ययन नहीं हुआ है। बस दिक़्क़त यह है कि दीपक बख्शी इससे वाकि़फ़ नहीं हैं। उनका अध्ययन बेहद सीमित है। हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता के नियम व दार्शनिक निहितार्थों के मार्क्सवादी विश्लेषण से अपरिचित दीपक बख्शी इसेे पढ़कर सैद्धान्तिक संकट के भय से सिहर जाते हैं। उन्हें यह इलहाम होता है कि इस नियम व इसकी दार्शनिक विवेचना के अभाव के कारण ही मार्क्सवाद सैद्धान्तिक संकट में है। श्री बख्शी इस बात से वाकि़फ़ नहीं हैं कि इन सभी प्रश्नों पर मार्क्सवाद ने बीसवीं सदी में ही विचार किया है और इस पर हुई जीवन्त बहसों ने मार्क्सवादी दर्शन व सिद्धान्त को विकसित भी किया है। हाइज़नबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धान्त और इसके नवकाण्टवादी विमर्श में ऐसा कुछ नहीं था जिसका जवाब मार्क्सवादी दृष्टिकोण से न दिया गया हो। जापानी वैज्ञानिकों ताकेतानी व सकाता ने और बाद में कई गै़र-मार्क्सवादी वैज्ञानिकों ने अनिश्चितता के नियम और इसकी प्रतिक्रियावादी विवेचना का जवाब दिया परन्तु दीपक बख्शी इन सबसे परिचित नहीं हैं। स्पिनोज़ा ने कहा था कि अज्ञानता कोई तर्क नहीं होती है (ignorance is no argumant) परन्तु दीपक बख्शी अपनी अज्ञानता का ही सैद्धान्तिकीकरण कर देते हैं! बीसवीं शताब्दी में आधुनिक भौतिकी के ”संकट” को आधार बनाते हुए वे मार्क्सवाद के ”संकट” के अपने विचार के लिए रास्ता बनाते हैं। परन्तु आप जैसे-जैसे उनके रहस्योद्घाटनों को पढ़ते हैं वैसे-वैसे आप पाते हैं कि उन्होंने आधुनिक भौतिकी के क्षेत्र में बिलकुल भी अध्ययन नहीं किया है। प्राकृतिक विज्ञान के सिद्धान्त तो दूर उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान के इतिहास का भी अध्ययन नहीं किया है।

वैसे भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में अध्ययन न करना आम समस्या है। दरअसल, मार्क्सवाद की छिछली समझ के चलते ही कई क्रान्तिकारी मार्क्सवादी संगठन और मार्क्सवादी बुद्धिजीवी मार्क्सवादी विचारधारा में ‘संकट’ का शोर रह-रहकर मचाते रहते हैं। अपने विभ्रमों और मार्क्सवाद की अधकचरी समझदारी के आधार पर कुछ लोग मार्क्सवाद पर ही सवाल खड़ा कर रहे हैं। अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी दृष्टिकोण ने ख़ास तौर पर तमाम ग़ैर-मार्क्सवादी विचारधाराओं के सम्मिश्रण को स्वीकार किया है और भारत में भी कई अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों ने पार्टी, क्रान्ति, हिरावल के सम्बन्ध में मार्क्सवादी सिद्धान्तों को नकारने की मानो ज़िम्मेदारी ही उठा रखी है! दीपक बख्शी सरीखे कई लोग अभी-अभी उत्तरआधुनिकतावाद और क्वाण्टम मैकेनिक्स की नवकाण्टीय व्याख्याओं को पढ़ रहे हैं और उन्हें ये व्याख्याएँ पढ़कर अचानक अहसास हुआ है कि ‘अरे! मार्क्सवाद तो संकट में है!’ और फिर वे संकटमोचक की भूमिका में उतरते हैं। अगर ये राजनीतिक नौदौलतिये मार्क्सवाद पर हो रहे नवीनतम हमलों को पढ़कर भ्रमित हुए होते तो कम-से-कम यह तो कहा जा सकता था कि वे ऐसे राजनीतिक नौदौलतिये हैं जो ‘अप-टू-डेट’ हैं! मगर कुछ के बारे में तो यह भी नहीं कहा जा सकता। वे जिस चीज़ को देखकर ‘यूरेका-यूरेका’ का शोर मचा रहे हैं, वह अब बहुत पुरानी पड़ चुकी है और उस पर बहुत कुछ कहा-सुना जा चुका है। कम-से-कम संजीदा मार्क्सवादियों के लिए आज ये नये प्रश्न नहीं हैं और लगभग हल हो चुके प्रश्न हैं। मिसाल के तौर पर, विश्वविद्यालय के अंग्रेज़ी और तुलनात्मक साहित्य विभागों को छोड़ दिया जाय, तो अकादमिक जगत भी अब ”उत्तरआधुनिकता द्वारा पैदा की गयी चुनौती” की बात करते हुए शर्मायेगा। वहीं क्वाण्टम मैकेनिक्स की नवकाण्टीय व्याख्याओं द्वारा खड़े किये गये प्रश्नों से भी मार्क्सवाद की आलोचनात्मक अन्तर्क्रिया का इतिहास अब पुराना हो चुका है, हालाँकि कई प्रबुद्ध वामपन्थी अकादमिक भी इससे वाकि़फ़ नहीं हैं। लुब्बेलुबाब यह कि कम-से-कम उत्तरआधुनिकतावाद और नवकाण्टवाद का हवाला देकर कोई मार्क्सवाद के ‘संकट’ की बात नहीं करता है। लेकिन भारत में ऐसे लोग भी हैं जो पूरे आत्मविश्वास के साथ आग का दोबारा आविष्कार करने का दावा करते घूम रहे हैं।

हम दीपक बख्शी के इस लेख को प्रातिनिधिक उदाहरण मानकर इसकी पड़ताल के ज़रिये यह दिखाने की कोशिश करेंगे कि आज जिस तरह मार्क्सवाद के संकट के नाम पर मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों पर हमले की कोशिश हो रही है उसमें कुछ भी नया नहीं है। दीपक बख्शी का लेख इन हमलों का प्रातिनिधिक उदाहरण बनने के लायक तो नहीं है परन्तु यह उन सारे बिन्दुओं पर संक्षिप्त बात रखने का मौक़ा देता है जो ख़ास तौर पर प्राकृतिक विज्ञान के विकास को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से देखने के लिए ज़रूरी हैं।

  1. दीपक बख्शी के मूल तर्क का खण्डन

हम सबसे पहले बख्शी की यान्त्रिक श्रृंखला की प्राथमिक कड़ी यानी प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्ध पर रोशनी डालेंगे। लेख के ‘दर्शन, विज्ञान तथा मार्क्सवाद’ शीर्षक में वे मार्क्स द्वारा ‘क्रान्तिकारी व्यवहार’ के हवाला देते हुए वैज्ञानिक प्रयोगों को इस व्यवहार में समाहित करने की दलील देते हैं :

”वैज्ञानिक प्रयोग और इण्डस्ट्री को … व्यवहार माना जाना चाहिए।” (बख्शी, ‘मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या’, मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन, अंक-1, वेब संस्करण, अनुवाद हमारा)

आगे वे लिखते हैं कि :

”प्राकृतिक विज्ञान और दर्शन का दीर्घकाल से स्थापित सम्बन्ध, ख़ासतौर पर मार्क्सवाद इसे जिस नज़रिये से देखता है, उससे यह स्पष्ट है कि ज्ञान की इस शाखा के विकास का मार्क्सवादी दर्शन के विकास के साथ अन्तर्गुन्थन होता है।” (वही, अनुवाद हमारा)

यह दीपक बख्शी के यान्त्रिक श्रृंखला नियम की परिभाषा है। वे बताते हैं कि मार्क्स और एंगेल्स की मृत्यु के बाद इस नियम का अनुसरण नहीं हुआ। वे कहते हैं :

”कम्युनिस्ट धड़े के भीतर से ही मार्क्सवाद पर अनवरत हमले होते रहे हैं, ग़लत व्याख्याएँ हुई हैं – परन्तु भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना की तर्ज़ पर नया काम नहीं हुआ है। एंगेल्स के द्वारा प्राकृतिक विज्ञान पर किये गये काम को आगे बढ़ाने की जि़म्मेदारी से मार्क्सवादी प्रत्यक्षतः पीछे हट गये हैं।” (वही, अनुवाद हमारा)

”मार्क्सवादियों ने एंगेल्स द्वारा प्राकृतिक विज्ञान पर किये कार्य का अनुसरण करना वस्तुतः छोड़ दिया है।” (वही, अनुवाद हमारा)

”एंगेल्स के प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन के महत्व पर बातचीत करना आज मार्क्सवादी सिद्धान्त के लिए बेहद ज़रूरी कार्यभार है।” (वही, अनुवाद हमारा)

यानी दीपक बख्शी की समझदारी के अनुसार ”प्राकृतिक विज्ञान” की ”ज्ञान शाखा का विकास मार्क्सवादी दर्शन के विकास के साथ अन्तर्गुन्थित है।” लेख में हमें मौजूदा दौर के संकट की घोषणा मिलती  है :

”मार्क्स तथा एंगेल्स द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त और विचारों का विकास आज एक गम्भीर संकट से गुज़र रहा है।” (वही)

”वैचारिक संघर्ष के विस्तृत कार्यक्रम के कार्यभार” के दूसरे बिन्दु में बख्शी लिखते हैं –

”मार्क्सवादी नज़रिये से विज्ञान (ख़ास तौर पर भौतिकी, एस्ट्रोनोमी, जैनेटिक्स, बायोटेक्नॉलोजी, साइकोलोजी), भाषाशास्त्र, तकनोलॉजिकल विज्ञान… का अध्ययन, समझ बनाना, बहस-मुबाहिसे में उतरना और पिछले 150 सालों के सिद्धान्तों को विकसित करना होगा।” (वही)

अगर इन सारे तर्कों को जोड़ा जाये तो लुब्बेलुबाब यह है : वैज्ञानिक प्रयोग मानवीय व्यवहार है इसलिए इसका विकास मार्क्सवादी दर्शन से अविभाज्य रूप से जुड़ा हुआ है। बीसवीं शताब्दी में वैज्ञानिक प्रयोग हुए परन्तु मार्क्सवादियों ने एंगेल्स के ‘प्रकृति के द्वन्द्ववाद’ के अध्ययन के कार्यभार को जारी नहीं रखा। प्राकृतिक विज्ञान में (ख़ासतौर पर भौतिकी में) संकट पैदा हुआ जिसने मार्क्सवाद में संकट पैदा किया। आज मार्क्सवादियों के सामने प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन का कार्यभार है जो मार्क्सवादी दर्शन के ठहराव को तोड़ सकता है। यह दीपक बख्शी द्वारा लेख में प्रस्तुत यान्त्रिक श्रृंखला की पहली कड़ी है। यह उनके लेख का मूल तर्क है जिसके आधार पर वे अपने विचार जगत की चौंका देने वाली संरचनाएँ खड़ी करते हैं। श्री बख्शी के प्राकृतिक विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के अन्तर्गुन्थन में प्रमुख पहलू हमेशा प्राकृतिक विज्ञान के विकास का होता है, जिसमें बदलाव के अनुरूप मार्क्सवादी दर्शन को बदलना होता है। यदि यह न हो तो मार्क्सवादी दर्शन की ग़लत समझदारी विकसित होती है। नतीजतन, ग़लत मार्क्सवादी सिद्धान्त प्रतिपादित किये जाते हैं। यह दीपक बख्शी का सैद्धान्तिकीकरण है जिसकी रोशनी में वे मौजूदा दौर में क्रान्तिकारी आन्दोलन के ठहराव की पड़ताल करते हैं। कारण – आधुनिक भौतिकी में संकट, कार्य – मार्क्सवाद में संकट। हम दीपक बख्शी के इस मूल तर्क का खण्डन दीपक बख्शी द्वारा इस यान्त्रिक श्रृंखला नियम को आधुनिक भौतिकी में अमली जामा पहनाने के प्रयास की पड़ताल के ज़रिये करेंगे।

2.1 मार्क्सवाद पर सबसे गम्भीर हमला

बख्शी 20वीं शताब्दी से आधुनिक भौतिकी में मौजूद संकट को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं :

”1972’ में हाइज़ेनबर्ग ने अपने सिद्धान्त दिये और प्राकृतिक विज्ञान की परिधि को पार कर इसकी दार्शनिक विवेचना की। उन्हें 1932 में ‘मैट्रिक्स मैकेनिक्स की व्यवस्था’ के लिए नोबल पुरस्कार से नवाज़ा गया। यह अनिश्चितता सिद्धान्त और इसकी दार्शनिक विवेचना एंगेल्स की मृत्यु के बाद मार्क्सवाद पर सबसे महत्वपूर्ण हमला था।” (वही) (’टिप्पणी – उपरोक्त उद्धरण में 1972 की जगह 1932 होना चाहिए।)

वे क्रिस्टोफ़र कॉडवेल की पुस्तक ‘भौतिकी में संकट’ से हवाला देकर यह घोषित करते हैं कि विज्ञान जगत संकट का शिकार है जो मार्क्सवादियों के लिए गहन चुनौती है। वे लिखते हैं :

”कॉडवेल की रचनाओं में स्पष्टता से यह बात अभिव्यक्त होती है कि विज्ञान के साथ सभी सैद्धान्तिक क्षेत्रों में संकट मौजूद  है : ‘विचारधारा के सभी क्षेत्रों में लक्षण हूबहू एक जैसे हैं।'”

हम इस विमर्श का निष्कर्ष कॉडवेल की टिप्पणी के साथ करेंगे जो आज मार्क्सवादियों के समक्ष विज्ञान जगत में मौजूद संकट की चुनौती की गहनता को स्पष्ट करेगी :

”आइन्सटीन सापेक्षिक भौतिकी के पिता हैं और प्लांक क्वाण्टम भौतिकी के जनक हैं। दोनों अपने आप में ‘क्रान्तिकारी’ थे। इसलिए प्लांक का यकीन और आइन्सटीन की अबोधगम्यता अनसुलझे प्रश्नों के हल में महत्व रखती है। परन्तु युवाओं में हाइज़ेनबर्ग, श्रोडिंगर और डिराक सरीखे लोग शामिल हैं जिनकी तकनीकी उपलब्धियाँ भी समान रूप से क्रान्तिकारी चरित्र रखती हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि यह नया स्कूल एक ज़्यादा रहस्यमय ब्रह्माण्ड के लिए संघर्ष में जनसमर्थन जीत रहा है।” (वही)

हम आगे देखेंगे कि उन्होंने यहाँ कॉडवेल के कथन की ग़लत व्याख्या की है। कॉडवेल इस पुस्तक में बुर्जुआ विचारधारा में संकट का जि़क्र कर रहे हैं वहीं बख्शी संकट के आगे ‘बुर्जुआ’ विशेषण हटा देते हैं और इसे मार्क्सवाद का संकट बना देते हैं। बहरहाल, हम आगे उनके प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन के नियम के ‘कार्य-कारण’ सम्बन्ध में ‘कारण’ की पड़ताल करेंगे। इस ‘कारण’ में दीपक बख्शी अनिश्चितता सिद्धान्त और उसकी दार्शनिक विवेचना को रखते हैं।

2.1.1. क्‍वाण्टम जगत की खोज तथा दीपक बख्शी की ऐतिहासिक अज्ञानता

”अज्ञानता के अमल से भयंकर कुछ भी नहीं है।” – गोएठे

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में वैज्ञानिकों की जमात पहली बार पदार्थ की आन्तरिक संरचना की गहराई तक पहुँची। पहली बार अणु के भीतर झाँक कर देखा जा सका। औद्योगिक क्रान्ति ने जिन मशीनों को जन्म दिया था वे अब इतनी ऊर्जा को क़ाबू कर सकती थीं कि अणु को भेद कर उसकी आन्तरिक संरचना तक पहुँचा जा सकता था। उन्नीसवीं शताब्दी में डॉल्टन ने अणु की अवधारणा सत्यापित की थी। जे. जे. थॅामसन ने 1903 में डॉल्टन के अणु के अन्दर के नये गुणों की व्याख्या की। थॉमसन ने ‘प्लम पुडिंग’ मॉडल दिया जिसमें कैथोड रे में मिले इलेक्ट्रॉन अणु धनात्मक आवेश के प्रोटोन में जड़ित (प्लम) होते हैं। परन्तु 1911 में रदरफ़ोर्ड के वैज्ञानिक प्रयोग में अणु के भीतर की संरचना ने थॉमसन मॉडल से विपरीत क़ि‍स्म का व्यवहार दर्शाया। अणु के रदरफ़ोर्ड मॉडल के अनुसार केन्द्र में धनात्मक आवेश के प्रोटोन मौजूद होते हैं जिसकी परिक्रमा इलेक्ट्रॉन अपनी कक्षा (ऑरबिट) में करते हैं। न्युटोनियन भौतिकी की प्रचलित अवधारणा के अनुसार पदार्थ के द्रव्य, ठोस और गैस रूप बुनियादी तत्व अणु से मिलकर बने होते हैं जिनमें तरह-तरह का ऊर्जा रूपान्तरण होता है व जिनके ऊर्जा, बल, गति और संवेग आदि गुणों का सटीक और निश्चित मूल्यांकन सम्भव था। वहीं मैक्सवेल का मॉडल रेडिएशन की संरचना और तरंग प्रकृति को न्यूटोनियन भौतिकी के ज़रिये व्याख्यायित करता था। बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में विश्व का यह क्लासिकीय दृष्टिकोण चरमरा कर गिर रहा था। इधर सूक्ष्म स्तर पर नयी परिघटनाएँ भी इस दृष्टिकोण पर सवालिया निशान लगा रही थीं। बोर ने रदरफ़ोर्ड के मॉडल की व्याख्या प्लांक के क्वाण्टम नियम (जिससे प्लांक ने ब्लैक बॉडी रेडिएशन को व्याख्यायित किया था) व आइन्सटीन ने फ़ोटोइलैक्ट्रिक इफ़ै़क्ट के अनुसार की। बोर ने प्लांक के क्वाण्टम नियम और न्यूटोनियन मैकेनिक्स के असंगत सिद्धान्तों को सार-संग्रहवादी तरीक़े से अपने सिद्धान्त में शामिल किया था। यह नाकाफ़ी था। साल दर साल आणविक स्तर पर परिघटनाएँ सामने आ रहीं थी जो बोर के मॉडल पर भी सवाल कर रही थीं। बोर ने कारेस्पॉण्डेंस प्रिंि‍सपल प्रतिपादित कर नयी परिघटनाओं को समझाने व क्वाण्टम और क्लासिकल जगत की सीमाओं के अन्तरभेदन को स्पष्ट करने का प्रयास किया। अन्य प्रयास भी हुए पर सब अध्ूरे साबित हो रहे थे। अन्ततः सभी असफल सिद्धान्तों का निषेध कर हाइज़नबर्ग और श्रोडिंगर द्वारा प्रतिपादित वेव मैकेनिक्स और मैट्रिक्स मैकेनिक्स ने क्वाण्टम भौतिकी की मूल प्रतिस्थपनाएँ स्थापित कीं और सूक्ष्म स्तर पर पदार्थ की गति के नियम रचे। इस सिद्धान्त के ही एक अंग के तौर पर अनिश्चितता के नियम ने वैज्ञानिकों के बीच एक विभाजक रेखा खींच दी। मैट्रिक्स मैकेनिक्स कॉपनहेगन स्कूल का उत्पाद था तो दूसरी ओर नियतत्ववादी स्कूल के श्रोडिंगर ने वैव मैकेनिक्स रची। इन दोनों दृष्टिकोणों के साथ खडे़ वैज्ञानिकों के भी कई रंग थे। जहाँ नियतत्ववादी स्कूल में आइन्सटीन, प्लांक, श्रोडिंगर और डीब्रोग्ली प्रमुख हैं वहीं अज्ञेयवादी और प्रत्यक्षवादी कॉपनहेगन स्कूल के प्रवर्तकों में बोर, हाइज़ेनबर्ग, डिराक, जोर्डन आदि थे। इस दौरान ही बोर और आइन्सटीन के बीच विज्ञान के क्षेत्र की एक महाकाव्यात्मक बहस चली। कॉपनहेगन स्कूल जीत रहा था। हर ओर काॅपनहेगन की धुन्ध छा गयी। दोनों स्कूलों में मूल मुद्दा ‘प्रेक्षण समस्या’ था जो हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता के नियम की विवेचना की समस्या है। इस बहस में इन दोनों स्कूलों के दृष्टिकोणों में ज़बर्दस्त टकराव चल रहा था।

इस बहस में न सिर्फ़ बुर्जुआ वैज्ञानिकों ने बल्कि मार्क्सवादी वैज्ञानिकों ने भी हिस्सा लिया। व्लादिमिर फ़ॉक, राज़नफ़ेल्ड, बोर्न, ब्रोन्स्टीन, ब्लोखिन्स्तेव, ताकेतानी, सकाता से लेकर दर्जनों सोवियत और ग़ैर-सोवियत वैज्ञानिक मार्क्सवादी नज़रिये से इस बहस में हस्तक्षेप कर रहे थे। इन सबके भी अलग-अलग मत थे। परन्तु दीपक बख्शी इस इतिहास से अनजान हैं। इस परिचय के बाद प्रेक्षण समस्या पर बहस के मूल में जाकर देखते हैं कि दीपक बख्शी जिस अनिश्चितता के नियम पर हाहाकार मचा रहे हैं उससे क्या हमें भयाक्रान्त होना चाहिए और साथ ही हम मार्क्सवादी नज़रिये से इस समस्या की पड़ताल पर रोशनी डालेंगे।

अनिश्चितता के नियम के अनुसार क्वाण्टम स्तर पर मौजूद इलेक्ट्रॉन की गति और स्थिति के समक्षणिक प्रेक्षण में अनिश्चितता मौजूद रहती है। इस प्रेक्षण में प्रेक्षक स्थूल स्तर पर मौजूद मानव दृष्टि और उसके प्रेक्षण उपकरण हैं तो प्रेक्ष्य अणु के अंदर मौजूद इलेक्ट्रॉन। इस प्रेक्षण में अनिश्चितता का माप 0.52728×10-34 मी2 किग्रा प्रति सैकेण्ड से कम नहीं हो सकता है। यह संख्या काफ़ी अल्पतर प्रतीत होती है परन्तु सूक्ष्म स्तर पर मापने में अनिश्चितता पैदा करने के लिए काफ़ी है। अनिश्चितता क्वाण्टम स्तर पर मौजूद प्रेक्षणों को सम्भाव्यता के क्षेत्र में ले आती है। इलेक्ट्रॉन के गुण को गणितीय सूत्र के रूप में वेवफ़ंक्शन (Ψ) में परिभाषित करते हैं। इलेक्ट्रॉन एक पार्टिकल होते हुए भी तरंग की तरह व्यवहार करता है। जिस प्रकार क्लासिकीय जगत में किसी भी कण को उसकी स्थिति, गति व ऊर्जा के परिमाण से व्याख्यायित किया जाता है वैसे ही क्वाण्टम भौतिकी इलेक्ट्रॉन के वेवफ़ंक्शन की स्थिति (स्टेट) को व्याख्यायित करती है। यह वेवफ़ंक्शन इलेक्ट्रॉन के दिक् व काल (स्पेस एण्ड टाइम) में विस्तार को व्याख्यायित करता है। वेवफ़ंक्शन की स्थिति की अवधारणा में कण व तरंग के अन्तर्विरोध की एकता होती है। इलेक्ट्रॉन का कण होना उसके संवेग को मापने योग्य बनाता है तो तरंग होना उसमें अनिश्चितता पैदा करता है। जिस प्रकार पानी में उठती लहरें एक दूसरे में मिलकर छोटी-बड़ी बन जाती हैं वैसे ही इलेक्ट्रॉन का एक वेवफ़ंक्शन कई स्थितियों (स्टेट्स) से मिलकर बनता है जिस कारण क्वाण्टम भौतिकी में समग्र तथा उपांग का अन्तरविरोध भी होता है। स्टेट की अवधारणा सांख्यिकी की अवधारणा होती है जिसके कारण इस सिद्धान्त में सटीकता की बहस ही बेमानी है।

जापानी मार्क्सवादी वैज्ञानिक ताकेतानी के अनुसार :

”क्वाण्टम भौतिकी में कण (पार्टिकल) और तरंग के दो अन्तरविरोधी परिघटनात्मक रूप होते हैं…जिन्हें स्टेट के सारभूत सिद्धान्त में इनकी एकता में समझा जा सकता है।” (ताकेतानी, 1971, डायलेक्टिक्स ऑफ़ नेचर, जर्नल ऑफ़ प्रोग्रेस इन थ्योरेटिकल फिज़िक्स, पेज 31, अनुवाद हमारा)

यह क्वाण्टम भौतिकी की बुनियादी मार्क्सवादी समझदारी है। इस समझदारी से अलग हाइज़ेनबर्ग प्रेक्षण की सीमा की दार्शनिक विवेचना अज्ञेयवादी व प्रत्यक्षवादी नज़रिये से कर रहे थे। हाइज़ेनबर्ग माख़वादी तरीक़े से केवल प्रत्यक्ष गुणों के आधार पर विज्ञान के अध्ययन की बात कह रहे थे। बोर ने 1927 की सोल्वे कॉन्फ़्रेन्स में क्वाण्टम भौतिकी के नियतत्ववादी स्कूल के पुरोधा आइन्सटीन को अनिश्चितता सिद्धान्त पर चली बहस में हराकर कॉपनहेगन स्कूल की पताका फहराई। इस स्कूल का समर्थन, हालाँकि ग़लत, मार्क्सवादी दृष्टिकोण से फ़ॉक और रोज़ेन्फ़ेल्ड ने किया। वहीं श्रोडिंगर ने नियतत्ववादी कैम्प का झण्डा उठाया और वेव मैकेनिक्स और प्रेक्षण समस्या पर ‘श्रोडिंगर की बिल्ली के पैरॉडॉक्स’ के ज़रिये क्वाण्टम भौतिकी की अलग व्याख्या कर प्रेक्षण समस्या की बहस को आगे बढाया। 1937 में पहली बार ताकेतानी और बाद में सकाता ने क्वाण्टम भौतिकी की सही मार्क्सवादी नज़रिये से व्याख्या की और नवकाण्टवादी, प्रत्यक्षवादी व नियतत्ववादी व्याख्याओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। 1952 में बोम ने भी मार्क्सवादी नज़रिये से क्वाण्टम भौतिकी को समझने व आगे विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह आइन्सटीन के बोर-आइन्सटीन बहस के सूत्रों को द्वन्द्वात्मक रूप से आगे बढ़ाने का प्रयास था। कॉपनहेगन स्कूल हार रहा था परन्तु निर्णायक चोट 1957 की ब्रिस्टल कॉन्फ़्रेन्स में हुई जहाँ प्रेक्षण समस्या पर कॉपनहेगन स्कूल पर चौतरफ़ा हमला हुआ।

लेकिन दीपक बख्शी इन सब बहसों से परिचित नहीं हैं। वे पहली बार हाइज़ेनबर्ग के अनिश्चितता सिद्धान्त को पढ़कर काँप उठते हैं और अपनेआप ही गत्ते की तलवार लेकर इस अनिश्चितता से लड़ने लगते हैं और सभी मार्क्सवादियों को इस लड़ाई में कूद पड़ने का आह्नान करते हैं। परन्तु वे यह लड़ाई अपने कल्पनालोक में लड़ रहे हैं। ये उनके अध्ययन के छूटे कार्यभार हैं मार्क्सवाद के नहीं। अगर वे इतिहास से परिचित होते तो वे अनिश्चितता के नियम को ‘मार्क्सवाद पर एंगेल्स की मृत्यु के बाद सबसे गम्भीर हमला’ घोषित नहीं करते और न ही यह कहते कि इस हमले का मार्क्सवादी नज़रिये से आज तक कोई जवाब नहीं दिया गया। इतिहास-शून्यता और अज्ञानता से दीपक बख्शी ही नहीं आज के युग के वैज्ञानिक भी परेशान हैं! 2014 के एक सर्वे में सबसे अधिक वैज्ञानिकों ने क्वाण्टम भौतिकी की कॉपनहेगन विवेचना से सहमति दर्ज करायी। ख़ैर, दीपक बख्शी के ‘प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन की अर्न्तनिर्भरता के नियम’ के ‘कार्य-कारण सम्बन्ध’ में अनिश्चितता के नियम द्वारा मार्क्सवाद पर हमले के ‘कारण’ का भाग पहला है जो मार्क्सवादी दर्शन में ठहराव व मार्क्सवादी सिद्धान्त के संकट के ‘कार्य’ को सम्पन्न करता है।

लेकिन सच्चाई क्या है? अनिश्चितता का नियम मार्क्सवाद के लिए कभी संकट नहीं बना बल्कि उलट यह इसकी पुष्टि ही है। इस नियम का हाइज़ेनबर्ग द्वारा दार्शनिकीकरण और इसका सैद्धान्तिक विस्तार नवकाण्टवाद को पुनर्जीवित करने के प्रयास से ज़्यादा कुछ नहीं है। आइये क्वाण्टम भौतिकी की इस कॉपनहेगन व्याख्या को विस्तार में समझें जो असल में नवकाण्टवादी दर्शन का ही रूप है जिसे मार्क्सवाद पहले ही ध्वस्त कर चुका है। साथ ही हम विज्ञान जगत में ताकेतानी और सकाता द्वारा क्वाण्टम भौतिकी के मार्क्सवादी मूल्यांकन को समझेंगे जिससे दीपक बख्शी द्वारा उठाये सवालों की सतही समझदारी उभर कर सामने आ सके।

2.1.2 मेघे (कॉपनहेगन) ढँके तारा (मार्क्सवाद)

बख्शी के अनुसार हाइज़ेनबर्ग का ‘अनिश्चितता का नियम’ और इसकी दार्शनिक विवेचना मार्क्सवाद पर सबसे भयंकर हमला थी। क्वाण्टम भौतिकी के उद्भव और विकास के दौरान अनिश्तिता के नियम व अन्य विवेचना-सम्बन्धी समस्याओं को लेकर वैज्ञानिकों और दार्शनिकों में काफ़ी घमासान हुआ। इस घमासान से अपरिचित दीपक बख्शी अनिश्चितता के नियम के अलावा हाइजे़नबर्ग के दर्शन को पढ़ने के बाद भयंकर भय का अनुभव करते हैं और भयाक्रान्त होकर मार्क्सवादियों को हिदायत देते हैं। हम देख चुके हैं कि अनिश्चितता के नियम के अनुसार प्रकृति में इलेक्ट्रॉन की गति और स्थिति का समक्षणिक सटीक प्रेक्षण नहीं किया जा सकता है व हर प्रेक्षण में एक अनिश्चितता मौजूद होती है। हाइजेनबर्ग ने इस अनिश्चितता का कारण हमारे ज्ञान के चरित्र में ढूँढ़ा और प्रकृति को हमारी धारणाओं का निर्माण बताया। वे ‘वस्तु निज रूप’, वस्तुगत यथार्थ और ‘कार्य-कारण’ की अवधारणाओं पर हमला करते हैं। हाइज़ेनबर्ग कहते हैं कि ”भौतिकशास्त्रियों को औपचारिक तौर पर सिर्फ़ अनुभवों के बीच सम्बन्ध स्थापित करना होता है”, ”आधुनिक भौतिकी में हम यथार्थ या अणुओं की संरचना को नहीं बल्कि महज़ परिघटनाओं के अनुभव को ट्रीट करते हैं।”

जैसा कि कोई भी पढ़ने-लिखने वाला मार्क्सवादी समझ सकता है, साफ़ तौर पर यह अनुभवसिद्ध आलोचना और नवकाण्टवाद का पुनर्जन्म ही था, और कुछ नहीं। हाइजे़नबर्ग के अनुसार प्रेक्षक यथार्थ का निर्माण करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यथार्थ एक निर्मिति है। हाइजे़नबर्ग द्वारा सूक्ष्म जगत में मौजूद अनिश्चितता के पहलू का यह नवकाण्टीय सामान्यीकरण भौतिकी के कार्य-कारण सम्बन्ध (कॉजैलिटी) सिद्धान्त को नकार देता है। इस दर्शन के विचारक यह तर्क देते हैं कि अगर किसी प्रयोग में 10 प्रेक्षण में से एक बार भी हमारी अवधारणा के विपरीत परिणाम आता है तो इसका मतलब यह है कि हम उस परिघटना के विषय में नहीं जान सकते हैं तथा यह कार्य-कारण सिद्धान्त का निषेध होता है। लेकिन वास्तव में यहाँ यह प्रयोग कार्य-कारण सिद्धान्त को दो तरह से सिद्ध करता है। 10 प्रेक्षण में से 9 बार हमारी पूर्वकल्पना के अनुसार परिणाम आते हैं और 1 बार विपरीत परिणाम आता है तो हमें उन अज्ञात कारणों की तलाश करने का मौक़ा मिलता है, जिनके कारण हमारी प्रस्थापना पुष्ट नहीं हो पायी। यहाँ एक ऐसा कार्य-कारण सिद्धान्त काम करता है जो हमें ज्ञात नहीं होता है। यह ‘काइनैटिक थियरी ऑफ़ गैस’ के समान ही है जहाँ गैस के अणुओं की गति का मापन भी सम्भाव्यता में ही होता है। इसके अलावा, क्वाण्टम भौतिकी में अनिश्चितता भी हमारे प्रेक्षण पर निर्भर करती है। यहाँ अनिश्चितता हमारे प्रेक्षण के उपकरणों की सीमा के कारण उत्पन्न होती है। प्रेक्षणों के और अधिक उन्नत और गहरे होने के साथ अनिश्चितता, फिर से निश्चितता तथा अनिश्चितता में टूट जाती है। नयी निश्चितता पुरानी निश्चितता से ज़्यादा उन्नत होगी और नयी अनिश्चितता पुरानी अनिश्चितता से अधिक उन्नत होगी। विज्ञान न सिर्फ़ उन्नत निश्चितताओं का स्वागत करता है, बल्कि उन्नत अनिश्चितताओं का भी स्वागत करता है, क्योंकि अनिश्चितता ही निश्चितता में बदल सकती है। निश्चितता तो पहले से ही निश्चितता है। इसलिए उन्नत निश्चितताओं के जन्म के लिए अनिश्चितताओं का होना ज़रूरी है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद भी शुरू से ही हर सिद्धान्त को दिक्-काल सापेक्ष मानता है और किसी भी निरपेक्ष सत्य या सिद्धान्त की अवधारणा के विरुद्ध है। यही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी नजरिया है और वास्तव में हाइजे़नबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धान्त (अपनी नवकाण्टीय दार्शनिक व्याख्या व विस्तार के बिना) द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण को सिद्ध करता है, जो हमेशा से नियतत्ववाद और प्रत्यक्षवाद दोनों के ही विरुद्ध संघर्ष करता रहा है। अनिश्चितता परिघटनात्मक स्तर पर घटित होती है जिसे समझने के लिए हमें सारभूत स्तर तक जाना होगा ठीक उसी प्रकार जैसे पूँजीवाद में संकट की परिघटनात्मक समझदारी असमानुपातिकता और अल्पउपभोग को कारण बताती है परन्तु असल में संकट सारभूत स्तर पर ‘मुनाफ़े़ की गिरती दर के रुझान का नियम’ के कारण पैदा होता है जो असमानुपातिकता और अल्पउपभोग को पैदा करता है।

क्वाण्टम भौतिकी को मार्क्सवादी नज़रिये से देखने में अग्रणी नाम ताकेतानी और सकाता का आता है। ताकेतानी ने प्राकृतिक विज्ञान का ‘तीन मंजि़ल सिद्धान्त’ दिया जिसमें तीन मंजि़लें हैं – परिघटनात्मक, तात्विक और सारभूत। यह प्राकृतिक विज्ञान या विज्ञान में होने वाले बदलावों के लिए कमोबेश सटीक सैद्धान्तिकीकरण है। इंसान के प्रेक्षण के गहराने या विस्तृत होने पर प्रकट होने वाली नयी परिघटनाओं को पहले तात्विक और फिर सारभूत स्तर पर समझाने वाले सिद्धान्त विकसित होते हैं और यह क्रम प्रेक्षण गहराने के साथ कुण्डलाकार गति में जारी रहता है। न्युटोनियन भौतिकी से क्वाण्टम भौतिकी के दौर में संक्रमण को इस तरह ही देखा जा सकता है। ताकेतानी के अनुसार :

”प्रकृति के संज्ञान की प्रक्रिया में तीन स्तर होते हैं। पहले स्तर पर परिघटना और प्रयोगात्मक परिणामों का उल्लेख किया जाता है। इस स्तर पर …परिघटना के बारे में विभिन्न जानकारियों और तथ्यों का संचय किया जाता है। …मैं इस स्तर को परिघटनात्मक स्तर का नाम देता हूँ। …दूसरे स्तर में परिघटना को जन्म देने वाली तात्विक संरचना ज्ञात होती है जिसकी मदद से परिघटना का उल्लेख कर उसकी वैधता सुनिश्चित की जाती है। इसे हम तात्विक मंजि़ल कहेंगे…तीसरे स्तर में ज्ञान तात्विक स्तर के माध्यम से सार में प्रवेश करता है। परिघटना का नियम पारस्परिक अन्तर्क्रिया में लिप्त तत्वों की आवश्यक गति के माध्यम से उभारा जाता है। यह स्पष्ट करना होता है कि किस प्रकार परिघटना एक निश्चित संरचना के तत्वों से किसी निश्चित परिस्तिथि में उत्पन्न होती है। मैं इस स्तर को सारभूत स्तर कहता हूँ।” (वही, पेज 61-62, अनुवाद हमारा)

ताकेतानी और सकाता ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी अवस्थिति से यह भी दर्शाया कि क्वाण्टम भौतिकी पूर्णतः पदार्थ जगत के एक विशिष्ट स्तर को समझाती है। यहाँ सटीकता की बहस ही बेमानी है। न्यूटोनीय भौतिकी वृहद जगत के लिए आज भी सच है। लेकिन प्रेक्षण के धरातल के बदलने के साथ, सन्दर्भ के बदलने के साथ, अलग-अलग जगत में गति के नियमों में भी परिवर्तन आ जाता है। क्वाण्टम भौतिकी में तीन स्तर पर अन्तरविरोध काम करते हैं – समग्र तथा अंग, आवश्यकता और आकस्मिकता तथा परिघटना (अनिश्चितता) और सार (स्टेट) के बीच मौजूद अन्तरविरोध। इलेक्ट्रॉन का स्टेट सारतत्व का स्तर होता है। यह सारतत्व ही अपने आप को परिघटनात्मक स्तर पर पेश करता है जिसे अनिश्चितता के रूप में समझा जाता है।

प्रकृति में निश्चितता और अनिश्चितता के बीच, निर्धारण और संयोग के बीच और परिघटनात्मक व सारभूत स्तर के बीच हमेशा एक द्वन्द्व मौजूद रहता है। निश्चित तौर पर यह द्वन्द्व अपने आपको प्रकृति के गति के नियमों की व्याख्या करने वाले विज्ञान में भी अभिव्यक्त करता है। सूक्ष्म जगत में जिन कारणों से आज अनिश्चितता मौजूद है, उसे इन वैज्ञानिकों ने प्रेक्षण समस्या (ऑब्ज़र्वेशन प्रॉब्लम) का नाम दिया और बताया कि प्रेक्षक और प्रेक्षण के उपकरणों के विकास के साथ इस धरातल पर मौजूद प्रेक्षण की समस्या का समाधान हो जायेगा, लेकिन तब कोई न कोई नया धरातल सामने होगा, जिस पर नये सिरे से अनिश्चितता और प्रेक्षण की समस्या मौजूद होगी। यह प्रक्रिया ही पदार्थ जगत के विकास की द्वन्द्वात्मकता को विज्ञान की द्वन्द्वात्मकता में प्रतिबिम्बित करती है।

अब चूँकि विज्ञान में निश्चितता और अनिश्चितता, दोनों के ही पहलू सतत और अनन्त रूप से मौजूद रहे हैं और रहेंगे, इसलिए यदि वैज्ञानिक पहले से ही एक द्वन्द्वात्मक अप्रोच को लेकर प्रस्थान नहीं करता तो वह निश्चित तौर पर या तो आइंस्टीन-श्रोडिंगर के नियतत्ववाद और स्पिनोज़ा के ईश्वर का शिकार बन जायेगा, या फिर, हाइजे़नबर्ग और बोर के नवकाण्टीय अज्ञेयवाद की खाई में जा गिरेगा, जहाँ उसके लिए होने और न होने का अर्थ ही समाप्त हो जायेगा, क्योंकि समस्त पदार्थ जगत ही है या नहीं, इसकी कोई गारण्टी नहीं है; ऐसा भी हो सकता है कि सब माया हो! सामाजिक विज्ञान की तरह ही प्रकृति विज्ञान में भी एक वैचारिक संघर्ष जारी रहा है। यह संघर्ष बीसवीं सदी में अपनी ऊँचाइयों और गहराइयों तक गया। लेकिन महान प्रतिभाएँ भी विज्ञानवादी नियतत्ववाद और विज्ञानवादी अज्ञेयवाद का शिकार हो गयीं। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद ने भौतिकी में मौजूद आभासी संकट का जो समाधान किया, उसे बुर्जुआ मीडिया कहीं भी नहीं प्रदर्शित करता और न ही उसे स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाता है। लेकिन सकाता, ताकेतानी और उनके सहयोगी युकावा जैसे वैज्ञानिकों के योगदान को समझे बिना आधुनिक भौतिकी की एक सही समझदारी विकसित कर पाना मुश्किल है। हाइज़ेनबर्ग द्वारा मार्क्सवाद पर सबसे गम्भीर हमले की बख्शी की विवेचना के काल्पनिक तर्क के बाद यह भी देख लिया जाये कि भौतिकी में संकट के सन्दर्भ में मार्क्सवादियों का दृष्टिकोण क्या है? क्योंकि दीपक बख्शी इस पहलू पर शान्त रहते हैं।

2.2 प्राकृतिक विज्ञान में संकट की मार्क्सवादी विवेचना

”मरना नये का बनना है।” – गोएठे

भौतिकी में आने वाला ”संकट” भौतिकी के द्वन्द्वात्मक विकास की अभिव्यक्ति है। प्राकृतिक विज्ञान भी निषेध के निषेध के ज़रिये आगे बढ़ता है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के अनुसार प्रकृति को न देखने के कारण वैज्ञानिकों में संकट का शोर मच जाता है। प्राकृतिक विज्ञान आगे बढ़ता है और हर 10-15 साल में नये संकट का शोर मचता है। एंगेल्स ने प्राकृतिक विज्ञान के संकट की ओर इशारा करते हुए लिखा कि ”खोज के परिणामों तथा पूर्वकल्पित चिन्तन प्रणलियों के बीच जो टकराव होता है उसी का नतीजा है कि इस समय सैद्धान्तिक प्राकृतिक विज्ञान में एक गड़बड़ी फैल गयी है, जिसका लगता है कभी अन्त नहीं होगा और जो शिक्षक तथा शिक्षार्थी, लेखक तथा पाठक सभी को विक्षिप्त बनाये डाल रही है।” (एंगेल्स, 1980, ड्यूहरिंग मत खण्डन, प्रगति प्रकाशन, पृष्ठ 42)

इस ‘गड़बड़’ ने ही आगे ‘संकट’ का रूप लिया जिसका कारण मार्क्सवाद का संकट नहीं बल्कि सैद्धान्तिक प्राकृतिक विज्ञान में मौजूद ”पूर्वकल्पित चिन्तन प्रणलियों” का नये नतीजों के साथ टकराव था। लेनिन 1908 में आधुनिक भौतिकवाद के संकट के कारणों की पड़ताल करते हैं। ताज्जुब की बात है कि ‘भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना’ में लेनिन के प्राकृतिक विज्ञान में ‘संकट’ के अध्ययन के बारे में बख्शी चुप रहते हैं क्योंकि इस विषय पर लिखते हुए कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी इस पुस्तक का सन्दर्भ न पेश करे तो इसके पीछे या तो स्मृतिलोप हो सकता है या अध्ययन का अभाव। लेनिन ने पहली बार आधुनिक भौतिकी में और प्राकृतिक विज्ञान में संकट के शोर के पीछे मौजूद कारणों की गहनता से पड़ताल की। भौतिकवाद से अपरिचित वैज्ञानिक जिस दार्शनिक गढ्ढे में गिरते हैं उसे लेनिन ने ”भौतिक भाववाद” का नाम दिया। लेनिन ”भौतिक भाववाद” के कारण पैदा हुए ‘संकट’ के पीछे एक कारण ज्ञान की सापेक्षिकता की ग़लत समझदारी बताते हैं तो दूसरा कारण बुर्जुआ दर्शन का वैज्ञानिकों पर मौजूद प्रभाव बताते हैं। दार्शनिक भाववाद जिसे पूँजीवाद में बुर्जुआ वर्ग अपने अस्तित्व के लिए प्रसारित करता है इस संकट को बनाये रखता है। लेनिन लिखते हैं :

”जिस तरह एक डूबता हुआ इंसान तिनके का भी सहारा लेने की कोशिश करता है उसी तरह बेहद विशिष्ट तौर पर पढ़ा-लिखा बुर्जुआ कृत्रिम तौर पर श्रद्धावाद (fideism), जो जनता की अज्ञानता और पूँजीवाद के अतार्किक और बर्बर अन्तरविरोधों के कारण में पाया जाता है, को बचाने की हर तरह की कोशिश करता है।

”भौतिक भाववाद के बढ़ने का दूसरा कारण सापेक्षिकतावाद का सिद्धान्त है, हमारे ज्ञान की सापेक्षिकता का सिद्धान्त जो पुराने सिद्धान्तों के असामयिक भंग होने के कारण भौतिकविदों के दिमाग़ों पर मज़बूत पकड़ बना रहा है और अगर वे द्वन्द्ववाद से परिचित न हों तो अन्त में भाववाद तक पहुँच जाते हैं।” (लेनिन, 1980, मैटिरियलिज़्म एण्ड इम्पिरियो क्रिटिसिज़्म, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ 288, अनुवाद हमारा)

और आगे लेनिन बताते हैं कि :

”संकट का सार यह है कि आधुनिक भौतिकी में पुराने नियम और बुनियादी सिद्धान्त बदलने को मस्तिष्क के बाहर मौजूद वस्तुगत यथार्थ का ख़ारिज होना माना जा रहा है, यानी भौतिकवाद का भाववाद और अज्ञेयवाद से तब्दीली करना माना जा रहा है। ”पदार्थ ग़ायब हो गया” – यह वह बुनियादी और चारित्रिक समस्या है जिसे उन सवालों के रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है जो यह संकट लेकर आया है।” (वही, पेज 231, अनुवाद हमारा)

”पदार्थ के ग़ायब होने” की जगह हाइज़ेनबर्ग ने अनिश्चितता को ला खड़ा किया और आधुनिक भौतिकी में फिर से संकट का शोर मचने लगा। ज्ञान की सापेक्षिकता की अभिव्यक्ति लगातार प्राकृतिक विज्ञान में भी होती है जहाँ लगातार गहराते ज्ञान के आधार पर हमें पुरानी धारणाओं को त्यागकर नये गहरे सिद्धान्तों को समझना होता है। यही लगातार भौतिकी में विकास करता है और उसके तार्किक मूल्यांकन में बदलाव करता है। इस बदलाव को प्रकृति के अन्तर्सम्बन्ध की तस्वीर के जटिल और ज़्यादा परिष्कृत होने के रूप में समझा जा सकता है न कि भौतिकवाद के पतन के रूप में। यानी यह संकट असल में ‘आभासी’ संकट है। दीपक बख्शी इस संकट को मार्क्सवाद के सिद्धान्तों में ‘संकट’ के आधार के तौर पर पेश करते हैं, परन्तु एंगेल्स और लेनिन के दृष्टिकोण के अनुसार यह प्राकृतिक विज्ञान का संकट नहीं बल्कि बुर्जुआ दर्शन का संकट है। दरअसल बख्शी का प्राकृतिक विज्ञान का ज्ञान बेहद कमज़ोर और भोंड़ा है। असल में संकट का कारण उलट है जिस तरफ़ लेनिन इशारा करते हैं –

”प्राकृतिक विज्ञान के वैज्ञानिकों को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद द्वारा खोला गया रास्ता नहीं दिखता है।” (वही, पेज 290, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी ज्ञान की सापेक्षिकता के सवाल पर थोड़ा लड़खड़ा जाते हैं। वे हाइज़ेनबर्ग के दर्शन का खण्डन करते हुए मार्क्सवादी ज्ञान सिद्धान्त के दृष्टिकोण से कोसों दूर खड़े दिखायी देते हैं। वे कहते हैं कि :

”मार्क्सवाद के लिए पदार्थ के अस्तित्व, गति व पदार्थ में बदलाव के अलावा (दार्शनिक तौर पर) कोई ज्ञान निरपेक्ष नहीं है। मार्क्सवाद निरपेक्ष सत्य को नकारता है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्याएँ, अनुवाद हमारा)

यहाँ दीपक बख्शी ने जो बात की है उसमें वह भौतिकवादियों से ज़्यादा भौतिकवादी हो गये हैं! और चिन्तन एवं अस्तित्व के सवाल पर बात करते हुए वे वह पहलू ग़ायब कर गये हैं जिससे ज्ञान पैदा होता है। ”पदार्थ के अस्तित्व, गति व पदार्थ में बदलाव” का ज्ञान निरपेक्ष नहीं होता है। यह सापेक्ष भी होता है और निरपेक्ष भी होता है। मार्क्सवाद ”पदार्थ के अस्तित्व, गति व बदलाव के ज्ञान” को नहीं पदार्थ के अस्तित्व, गति व बदलाव को निरपेक्ष मानता है। इसका मनुष्य के मस्तिष्क से प्रतिबिम्बन होता है, जो कि सही या ग़लत हो सकता है। प्रतिबिम्बनों के सही तार्किक व वैज्ञानिक सामान्यीकरण से ही ज्ञान पैदा होता है, जो कि स्वयं सापेक्ष होता है। दीपक बख्शी की सोच से उलट मार्क्सवाद निरपेक्ष सत्य को नकारता नहीं है बल्कि वह इंसान द्वारा निरपेक्ष सत्य के विषय में निरपेक्ष ज्ञान के विकास की सम्भावना को नकारता है। एंगेल्स के अनुसार :

”मानव चिन्तन के स्वरूप की हमारी परिकल्पना आवश्यक रूप से निरपेक्ष है, पर यह परिकल्पना वास्तविकता प्राप्त करती है बहुत-से अलग-अलग मनुष्यों से, जो सबके सब केवल सीमित ढंग से ही सोच सकते हैं। यह एक ऐसा अन्तर्विरोध है, जो केवल अनन्त प्रगति के दौरान ही हल हो सकता है। यह अन्तर्विरोध केवल मानवजाति की असंख्य पीढ़ियों के – कम से कम व्यावहारिक दृष्टि से – एक अन्तहीन क्रम में ही हल हो सकता है। इस अर्थ में मानव चिन्तन जितना परम सत्तासम्पन्न है; ठीक उतना ही परम सत्ताहीन भी है और ज्ञान प्राप्त करने की उसकी सामर्थ्य जितनी असीम है, ठीक उतनी ही सीमित भी है। जहाँ तक मानव चिन्तन की प्रकृति, उसकी परवर्ती, उसकी सम्भावनाओं तथा उसके अन्तिम ऐतिहासिक लक्ष्य का सम्बन्ध है, वह परम सत्तासम्पन्न तथा असीम है। जहाँ तक उसके व्यक्तिगत मूर्त रूपों तथा किसी विशिष्ट क्षण में उसकी वास्तविकता का सम्बन्ध है, वह परम सत्तासम्पन्न नहीं है और सीमित है। शाश्वत सत्यों के बारे में भी ठीक यही बात सच है।” (एंगेल्स, 1980, पेज 141-142)

इसे लेनिन सरलीकृत कर बताते हैं कि ”एंगेल्स के लिए निरपेक्ष सत्य सापेक्ष सत्यों का कुल जोड़ है” और ”विज्ञान के विकास का हर क़दम निरपेक्ष सत्य में नये अंश को जोड़ता है, परन्तु इस सत्य की वैज्ञानिक प्रतिस्थापनाएँ सापेक्ष होती हैं, जो ज्ञान में वृद्धि के साथ कभी विस्तृत होती तो कभी सीमित होती हैं।” (लेनिन, 1980, पेज 118-119, अनुवाद हमारा)

”ज्ञान के सिद्धान्त में, जैसा कि हर विज्ञान के क्षेत्र में करना चाहिए, हमें द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण से देखना चाहिए। यानी हमें अपने ज्ञान को बना-बनाया और अपरिवर्तनीय नहीं मानना चाहिए, बल्कि हमें यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि कैसे ज्ञान अज्ञान से उभरता है, कैसे अध्ूरा ज्ञान अधिक से अधिक पूर्ण होता जाता है।” (वही, पेज 88, अनुवाद हमारा)

यहाँ मार्क्सवादी ज्ञान मीमांसा को बेहतरीन तरीक़े से प्रस्तुत किया गया है। ज्ञान के हर क्षेत्र में अज्ञानता से ही ज्ञान उभरता है। पर इस ज्ञान के विकास की सीमाएँ ऐतिहासिक तौर पर परिभाषित होती हैं। लेनिन आगे कहते हैं :

”हम कब और किन परिस्थितियों में अपने ज्ञान में वस्तुओं की मूलभूत प्रकृति तक पहुँचते हैं, मसलन कोलतार में एलिज़रिन का खोजा जाना और अणु में इलेक्ट्रॉन की खोज होना इतिहास द्वारा निर्धरित होता है; परन्तु हर ऐसी खोज से ‘निरपेक्ष वस्तुगत सत्य’ की प्रगति होती है, यह निश्चित है और बिना शर्त होता है।…हर विचारधारा इतिहास द्वारा निर्धरित होती है, पर यह बिना शर्त सत्य है कि (धार्मिक विचारधारों से अलग) हर वैज्ञानिक विचारधारा किसी निरपेक्ष प्रकृति, वस्तुगत सत्य के अनुरूप होती है। आप कहेंगे कि निरपेक्ष और सापेक्षिक सत्य में अन्तर अनिश्चित है। मैं जवाब दूँगाः यह उतना ही ‘अनिश्चित’ है जितना कि विज्ञान को एक कठमुल्ला सिद्धान्त, मृत, अश्मिभूत बनने से बचने की ज़रूरत है; पर इसी समय यह इतनी ही ‘निश्चित’ है जितनी कि हम अपने आप को बेहद दृढ़ता और अटलता से अज्ञेयवाद और श्रद्धावाद (fiedism), दार्शनिक भाववाद से और ह्यूम और काण्ट के अनुयायिओं के हेत्वभासों से बचा सकें।” (वही, पेज 120-121, अनुवाद हमारा)

आगे लेनिन कहते हैं :

”द्वन्द्ववाद – जैसा हेगेल ने अपने समय में समझाया – में सापेक्षता का, निषेध का, सन्देहवाद का तत्व होता है पर यह सापेक्षतावाद में अपचयित नहीं की जा सकती है। मार्क्स और एंगेल्स के भौतिकवादी द्वन्द्ववाद में सापेक्षतावाद है, पर यह सापेक्षतावाद में अपचयित नहीं किया जा सकता है, यानी, यह हमारे ज्ञान की सापेक्षता को स्वीकार करता है, वस्तुगत सत्य को नकारने के रूप में नहीं, बल्कि इस अर्थ में कि ज्ञान के समीप पहुँचने की हदें इतिहास द्वारा निर्धरित होती हैं।” (वही, पेज 121, अनुवाद हमारा)

यही वह बुनियादी सिद्धान्त है जिसके ज़रिये प्राकृतिक विज्ञान व हर ज्ञान शाखा में अज्ञान से ज्ञान तक बढ़ने की प्रक्रिया को बेहतरीन ढंग से व्याख्यायित किया गया है। ज्ञान के विकास की यही सापेक्षता दरअसल ख़ुद मार्क्सवाद के विकास को भी निर्धारित करती है। इसके विकास की सीमाएँ भी इतिहास द्वारा ही निर्धरित होती हैं। लेकिन दीपक बख्शी के लिए अन्त में यह सब प्राकृतिक विज्ञान के विकास से संचालित होता है; परन्तु अफ़सोस इस बात का है कि वे प्राकृतिक विज्ञान के विकास की प्रक्रिया से भी अनभिज्ञ हैं। दरअसल, न सिर्फ़ वह इसके इतिहास से अनभिज्ञ हैं बल्कि दीपक बख्शी द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के सार तक ही नहीं पहुँचे हैं। उनका मार्क्सवाद यान्त्रिकतावाद है जो टुकड़े-टुकड़े में तो सभी बातें रख सकता है परन्तु इतिहास की किसी भी समस्या का हल नहीं कर सकता है। वह आधुनिक भौतिकी में जिस संकट की बात करते हैं असल में वह भी ज्ञान की सापेक्षिकता के कारण ही पैदा होता है जिसकी व्याख्या हमने ऊपर की है।

दीपक बख्शी क्रिस्टोफ़र कॉडवेल की टिप्पणी (ऊपर उपशीर्षक 2.1 में उद्धृत) को भी उलट कर पेश करते हैं। दीपक बख्शी यह साबित करते हैं कि इस दौर के भौतिकी के संकट की अभिव्यक्ति क्रिस्टोफ़र कॉडवेल ने भी की थी जिसके नतीजे के तौर बख्शी मार्क्सवाद में संकट की बात कहते हैं। परन्तु यहाँ वे कॉडवेल को ग़लत तरीक़े से पेश कर रहे हैं। कॉडवेल ने संकट की विवेचना करते हुए इसे बुर्जुआ दर्शन का संकट बताया था जहाँ बुर्जुआ दर्शन प्रणाली के अन्तर्गत फँसे रहने वाले वैज्ञानिक इस समाज का ही हिस्सा होते हैं। परन्तु दीपक बख्शी का दार्शनिक सर्कस यहाँ जारी रहता है। हम कॉडवेल की लेखनी के ज़रिये दीपक बख्शी की इस ग़लतबयानी को देखेंगे :

”भौतिकी का उदाहरण लीजिये। सबसे पहले तो यहाँ सामान्य सिद्धान्त या यान्त्रिकता का दर्शन मौजूद होता है जिसे बुर्जुआ वैज्ञानिक अचेतन रूप में स्वीकार कर लेता है। वह यह नहीं जानता है कि यह अधिभूतवाद है, वह यह कल्पना करता है कि यही वस्तुओं को वैज्ञानिक यानी कि वस्तुगत तौर पर देखने का नज़रिया है। वह यह मानता है कि जिस प्रकार वस्तु बुर्जुआ अर्थव्यवस्था में प्रकट होती है केवल उसी प्रकार प्रकृति इन्सान के समक्ष प्रकट हो सकती है। यह दर्शन सभी विज्ञानों के लिए समान है। इसके अलावा वे विशिष्ट सिद्धान्त जो सीधे भौतिकी के व्यवहार से उत्पन्न होते हैं वे लगातार इस आम सिद्धान्त के अन्तरविरोध में खड़े होते हैं… सब ठीक चलता रहता है जब तक कि एक ऐसा समय आता है कि विज्ञान के हर क्षेत्र के व्यवहार में विशिष्ट सिद्धान्त से विज्ञान के आम सिद्धान्त का विरोध इतना बढ़ जाता है कि यान्त्रिकता के दर्शन की ही धज्जियाँ उड़ जाती हैं। जीव विज्ञान, भौतिकी, मनोविज्ञान, नृतत्वशास्त्र, और रसायन शास्त्र में प्रायोगिक आँकड़ाें की  पड़ताल का दबाव विज्ञान के अचेतन दर्शन को विखण्डित कर देता है। वैज्ञानिक विज्ञान के किसी आम सिद्धान्त के प्रति निराशावान हो जाते हैं और अनुभववाद में शरण ले लेते हैं, जहाँ विश्व दृष्टिकोण को पाने की कोशिशें त्याग दी जाती हैं, या सार-संग्रहवाद में शरण लेते हैं जहाँ हर क्षेत्र के सिद्धान्त को एक-दूसरे से असंगत रूप से जोड़ दिया जाता है, या विशिष्टीकरण में जहाँ सारे विश्व को किसी ख़ास विशिष्ट सिद्धान्त में अपचयित कर दिया जाता है। किसी भी परिस्थिति में विज्ञान अराजकता में बिखर जाता है और इंसान पहली बार विज्ञान से यथार्थ की किसी प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करने की कोशिश में निराश हो जाता है। यही बुर्जुआ विज्ञान की मौजूदा हालत है, भौतिकी में संकट उसकी महज़ एक ख़ास अभिव्यक्ति है।” (क्रिस्टोफ़र कॉडवेल, 1939, क्राइसिस इन फिज़िक्स, पेज 60-61, अनुवाद हमारा)

कॉडवेल इस संकट को बुर्जुआ वर्ग का संकट बताते हैं परन्तु दीपक बख्शी इसे प्राकृतिक विज्ञान में संकट व मार्क्सवाद के दर्शन में ठहराव बताते हैं। वस्तुगत और आत्मगत के बीच पूँजीवादी समाज जो दरार खड़ी करता है यह संकट उसकी ही पैदाइश है और इसे हल करने का तरीक़ा इस दरार को मिटाने में है, यानी इस समाज को बदलने में है। परन्तु दीपक बख्शी की पूरी थीसिस इसकी उल्टी है उनके अनुसार मौजूदा संकट ‘प्राकृतिक विज्ञान के संकट – मार्क्सवादी दर्शन के ठहराव – मार्क्सवाद सिद्धान्त के विकास’ का संकट है और इस संकट को दूर करने के बाद ही क्रान्ति की समस्या भी हल हो सकती है। यानी, चीज़ों को उनके सिर के बल खड़ा कर दिया जाता है!

दीपक बख्शी खण्ड-खण्ड में मार्क्सवाद के हर सिद्धान्त पर मार्क्स व एंगेल्स की अवधारणाओं के बारे में लिख सकते हैं लेकिन जैसे ही सवाल इतिहास की व्यावहारिक समस्या पर आता है उनकी लेखनी संकट खोज लाती है। साफ़ है कि प्राकृतिक विज्ञान के इस संकट को समझने में दीपक बख्शी की अवधारणा मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और कॉडवेल से अलग है। वह इस मामले में कठमुल्ला साबित होते हैं। मार्क्स और एंगेल्स के ज़माने में भौतिकी के संकट का शोर नहीं था, यह हो भी नहीं सकता था क्योंकि मार्क्स और एंगेल्स के ज़माने की भौतिकी अपने पैरों पर खड़ी ही हो रही थी। परन्तु ज्ञान सिद्धान्त के उन्होंने जो सिरे दिये थे उसे लेनिन ने आगे विकसित किया और आधुनिक भौतिकी में संकट की अवधारणा का दार्शनिक सार बताया। ख़ुद वैज्ञानिकों की एक अच्छी-ख़ासी जमात ने विश्व को अज्ञेय बनाने में लगे दार्शनिकों को मुँहतोड़ जवाब दिया। इतनी उम्मीद तो दीपक बख्शी से की जा सकती थी कि वे अपने विचित्र सिद्धान्त का प्रतिपादन करने से पहले कम से कम भौतिकी का इतिहास ही पढ़ लेते।

  1. मार्क्सवाद व प्राकृतिक विज्ञान

दीपक बख्शी के विचार जगत में प्राकृतिक विज्ञान मानव व्यवहार से जनित अन्य शाखाओं से उन्नत पद पाता है, जिसे आगे दर्शन का आशीर्वाद प्राप्त होता है। मार्क्सवाद से पहले मौजूद दर्शन मानव अस्तित्व के दर्शन को और प्रकृति के दर्शन को अलग-अलग कर व्याख्यायित करते थे जिन्हें ध्वस्त कर मार्क्सवाद द्वन्द्वात्मक एकीकरण करता है। परन्तु दीपक बख्शी इस एकता को भंग करते हैं व यान्त्रिकतावादी समझदारी पेश करते हैं जिसके अनुसार प्राकृतिक विज्ञान ज्ञान के अन्य क्षेत्रों से महत्वपूर्ण बन जाता है। दीपक बख्शी मार्क्स-एंगेल्स का हवाला देकर अपने यान्त्रिक श्रृंखला नियम को मार्क्सवादी समझदारी के तौर पर स्थापित करने का प्रयास भी करते हैं। अपनी थीसिस के पक्ष में गवाही दिलवाने के लिए उन्होंने मार्क्स और एंगेल्स की रचनाओं के उद्धरणों के साथ काफ़ी अत्याचार किया है। परन्तु वे इस प्रयास में असफल रहे हैं। हम प्राकृतिक विज्ञान के संकट का मार्क्सवादी विश्लेषण कर चुके हैं जो दीपक बख्शी की मार्क्सवाद के संकट की थीसिस का पूर्वाधार बनता है। एक-एक करके श्री बख्शी के सभी तर्क खोखले साबित होते हैं। लेख के इस हिस्से में हम दीपक बख्शी द्वारा अपने नियम का मार्क्सवाद द्वारा सत्यापन कराने के प्रयास का खण्डन करेंगे व यह देखेंगे कि प्राकृतिक विज्ञान को मार्क्सवाद किस प्रकार देखता है।

3.1 बख्शी द्वारा मार्क्स-एंगेल्स का ग़लत हवाला

दीपक बख्शी ने फ़ायरबाख के भौतिकवादी दर्शन और हेगेलवादी द्वन्द्ववादी भाववाद के निषेध से द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विकसित होने की प्रक्रिया दिखाते हुए मार्क्स की डॉक्टोरल थीसिस, एंगेल्स द्वारा शेलिंग को जवाब, मार्क्स द्वारा ‘हेगेलवादी दर्शन की सामान्य आलोचना’, ‘फ़ायरबाख पर निबन्ध’, ‘लुडविग फ़ायरबाख और जर्मन क्लासिकीय दर्शन का अन्त’ व अन्य कृतियों से मार्क्स और एंगेल्स को उद्धृत किया है। परन्तु लेख के इस हिस्से में तारतम्यता नहीं है। बिना कोई गहन विश्लेषण किये वे चलताऊ तरीक़े से मार्क्सवादी दर्शन के उद्भव के समय को (उनके अनुसार 1837!) भी ‘खोज’ निकालते हैं। लेख में मार्क्स और एंगेल्स के कथनों को ज्यों का त्यों कई जगह पर लिख दिया गया है जिन्हें सही ढंग से उद्धृत भी नहीं किया गया है। हम यहाँ लेख के उन हिस्सों पर ही आलोचनात्मक दृष्टि डालेंगे जिनमें बख्शी ने प्राकृतिक विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के अन्तर्सम्बन्ध की अपनी थीसिस के लिए मार्क्स और एंगेल्स का ग़लत हवाला दिया है। मार्क्स की डॉक्टोरल थीसिस का समाहार करते हुए वे बताते हैं कि :

”मार्क्स का यह लेख भौतिकी और दर्शन तथा यूनानी दर्शन के विकास की पड़ताल के बारे में है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

परन्तु यह समाहार सही नहीं है। मार्क्स की थीसिस भौतिकी और दर्शन की पड़ताल नहीं बल्कि यूनानी प्रकृति दर्शन के इतिहास की समस्या पर आधारित थी। मार्क्स एपीक्यूरस को महज़ डेमाक्रिटस का शिष्य मानने से इन्कार कर दोनों के प्रकृति दर्शन का अन्तर स्पष्ट करते हैं। इस कृति में मार्क्स के रचना काल की न किसी भौतिकी की परिघटना का जि़क्र आता है और न ही भौतिकी का हवाला मिलता है। यह प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन पर विमर्श नहीं है परन्तु दर्शन पर विमर्श है। मार्क्स द्वारा यूनानी भौतिकी की अणु की अवधारणा का विवरण दार्शनिक अर्न्तवस्तु तक पहुँचने के लिए किया गया है। निश्चित ही इस थीसिस में मार्क्स का मूल्यांकन आधुनिक भौतिकी की समस्याओं व अणु की संरचना तथा उसके भीतर झाँककर देख पाने में एक द्वन्द्वात्मक दृष्टि देता है। पर ”भौतिकी और दर्शन तथा यूनानी दर्शन के विकास” तथा यूनानी प्रकृति दर्शन के अध्ययन में फ़र्क़ करना ज़रूरी है।

आगे बख्शी कहते हैं कि –

”1844 की पाण्डुलिपियों में मार्क्स दार्शनिकों और दर्शनों की प्राकृतिक विज्ञान के अपार ज्ञान से दूर रहने के लिए, जो असल में सभी ज्ञान का आधार है, आलोचना करते हैं”। (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त की समस्याएँ)

इस रचना में मार्क्स ने ऐसा नहीं कहा है। यह बख्शी की ग़लतबयानी है। मार्क्स ने यह कहा है कि :

”प्राकृतिक विज्ञान ने विराट सक्रियता पैदा की है और लगातार निरन्तर बढ़ती सामग्री एकत्रित की है। दर्शन, हालाँकि इससे इतना ही विलग रहा है जितना यह दर्शन से। उनकी क्षणभंगुर एकता सिर्फ़ एक मृग मरीचिका थी।” (मार्क्स, 1977, इकोनोमिक एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ि‍कल मैनुस्क्रिप्ट्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ 104, अनुवाद हमारा)

”प्राकृतिक विज्ञान…जीवन का आधार बनेगा।” (वही, पृष्ठ 105, अनुवाद हमारा)

मार्क्स जिस बात पर ज़ोर डालना चाहते हैं वह यह है कि विज्ञान केवल एक होता है, मनुष्य के जीवन के विज्ञान को और प्रकृति के विज्ञान को अलग करके नहीं देखा जा सकता है। यानी समाज के बदलाव के विज्ञान के लिए भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक आवश्यक पहुँच और पद्धति है और प्रकृति के बदलाव के विज्ञान के लिए भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक आवश्यक पहुँच और पद्धति है। परन्तु दीपक बख्शी इसे इस तरह से पेश करते हैं कि प्राकृतिक विज्ञान समस्त ज्ञान का आधार होता है। यह प्राकृतिक विज्ञान को बाकी अन्य ज्ञान शाखाओं से ऊँचा उठा देता है। आगे वे मार्क्स को ‘जर्मन विचारधारा’ से उद्धृत करते हुए कहते हैं कि :

”हम सिर्फ़ एक विज्ञान जानते हैं, इतिहास का विज्ञान। कोई व्यक्ति इतिहास को दो पहलुओं से देख सकता है और इसे प्रकृति के इतिहास और मनुष्य के इतिहास में बाँट सकता है। परन्तु ये दोनों पहलू अविभाज्य हैं; मनुष्य का इतिहास और प्रकृति का इतिहास एक दूसरे पर निर्भर करते हैं, जब तक मनुष्य का अस्तित्व है” (मार्क्स-एंगेल्स, जर्मन विचारधारा)। मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्राकृतिक विज्ञान और मनुष्य के सामाजिक-ऐतिहासिक विकास में परस्पर सम्बन्ध और अविभाज्यता जो हमें जर्मन विचारधारा में देखने को मिलती है वह एंगेल्स द्वारा आगे व्याख्यायित की गयी थी।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त की समस्याएँ)

जहाँ यह पंक्ति ख़त्म होती है उसके बाद मार्क्स ने एक ज़रूरी बात कही है जो बख्शी उद्धृत नहीं करते हैं क्योंकि वह उनकी थीसिस के लिए घातक साबित हो सकता था।

”प्रकृति का इतिहास, जो प्राकृतिक विज्ञान कहलाता है, अभी हमारी चिन्ता विषय नहीं है परन्तु हमें मनुष्य के इतिहास की पड़ताल करनी होगी, क्योंकि लगभग सारी विचारधारा इस इतिहास की विकृत अवधारणा है या उससे पूरी तरह अमूर्त अवधारणा है।” (मार्क्स-एंगेल्स, 2010, जर्मन आइडियोलोजी, पीपीएच, पृष्ठ 34, अनुवाद हमारा)

परन्तु दीपक बख्शी सबसे ज़्यादा चिन्ता प्राकृतिक विज्ञान की ही करते हैं। दूसरी बात, जर्मन विचारधारा की पाण्डुलिपियों में यह भाग मार्क्स और एंगेल्स ने काटा हुआ था। मार्क्स और एंगेल्स ने जर्मन विचारधारा में प्रकृति के इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान में फ़र्क़ किया है और सम्भवतः इस कारण ही इस हिस्से को काटा गया हो। इस हिस्से से अलग वे इस पुस्तक में जगह-जगह प्राकृतिक विज्ञान को मानव चेतना का रूप बताते हैं जिसका मानव इतिहास से अलग कोई इतिहास नहीं होता है। प्रकृति का इतिहास और प्राकृतिक विज्ञान में अन्तर होता है। प्रकृति का इतिहास मनुष्य से पहले से मौजूद होता है। प्रकृति के इतिहास को प्राकृतिक विज्ञान में अपचयित नहीं किया जा सकता है। प्राकृतिक विज्ञान इतिहास में इंसान द्वारा प्रकृति को समझने और नियंत्रित करने के प्रयास में विकसित होता है, यह मानव चेतना का एक रूप है। मार्क्स के उपरोक्त कथन से जो आशय है वह प्रकृति और मानव समाज की एकरूपता है, जिसमें सिर्फ़ एक विज्ञान, इतिहास का विज्ञान कार्यरत है। यहाँ दीपक बख्शी द्वारा वही भोंड़ा प्रयास किया गया है जिसके अनुसार प्राकृतिक विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र बन जाता है जिसका अध्ययन मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास के लिए न केवल अपरिहार्य है बल्कि मार्क्सवाद का विकास इस पर निर्भर करता है और इससे व्युत्पन्न होता है। यहाँ प्रकृति में बदलाव के विज्ञान और मानव समाज में हो रहे बदलाव के विज्ञान की जो एकता बार-बार मार्क्स और एंगेल्स पेश करते हैं उसे दीपक बख्शी भंग करते हैं और इनमें से प्रकृति के विज्ञान यानी प्राकृतिक विज्ञान को मानव समाज के बदलाव करने वाले कारक की निर्धारक भूमिका में पहुँचा देते हैं। मार्क्स के द्वारा इस हिस्से को काटना स्पष्ट है क्योंकि आगे वे लिखते हैं :

”नैतिकता, धर्म, अधिभूतवाद, और इनसे संगत सभी विचारधाराएँ व चेतना के रूप, स्वतंत्र होने का आवरण नहीं धारण कर सकते हैं। इनका कोई इतिहास नहीं होता है, बल्कि अपने भौतिक उत्पादन और क्रिया-व्यापार का विकास करते इंसान का, अपने विश्व और अपने चिन्तन में और चिन्तन के नतीजों में बदलाव को विकसित करते हुए इंसान का इतिहास होता है।” (वही, पृष्ठ 42, अनुवाद हमारा)

आगे इस पुस्तक में मार्क्स ‘सामाजिक चेतना के रूप’ शीर्षक में पुनः इस तरह अभिव्यक्त करते हैं :

”राजनीति, क़ानून, विज्ञान, आदि, कला का, धर्म का कोई इतिहास नहीं होता है।” (वही, पृष्ठ 101, अनुवाद हमारा)

”…परन्तु प्राकृतिक विज्ञान उद्योग व व्यापार के बग़ैर कहाँ होता? ”शुद्ध” प्राकृतिक विज्ञान को उसकी सामग्री के समान ही लक्ष्य भी व्यापार तथा उद्योग, इंसान की सेन्सुअस एक्टिविटी से मिलता है ।” (वही, पृष्ठ 46, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी का तर्क फ़ायरबाख का तर्क है। फ़ायरबाख भौतिकीविद और रसायनविद के प्राप्त अनुभव का विशिष्टिकरण करते हैं तो मार्क्स उन्हें टोकते हैं और प्राकृतिक विज्ञान को इंसान की ऐन्द्रिक गतिविधि (सेन्सुअस ऐक्टिविटी) पर निर्भर बताते हैं। इसे वे 1844 की पाण्डुलिपियों में दोहराते हैं –

”उद्योग और प्रकृति का, इसलिए प्राकृतिक विज्ञान का मनुष्य से असल रिश्ता है।..प्राकृतिक विज्ञान…मनुष्य की असल ज़िन्दगी का आधार बनेगा, और ज़िन्दगी का एक आधार होना और विज्ञान कोई अलग आधार होना एक झूठ होगा।

 ”प्राकृतिक विज्ञान ने इंसान की ज़िन्दगी को भेदा है और तब्दील कर दिया है, वह भी सबसे ज़्यादा उद्योग के माध्यम से; व साथ ही इसने मनुष्य की आज़ादी के लिए आधार खड़ा किया है, हालाँकि इसका तात्कालिक असर मनुष्य को अमानवीय बनाने में है।

”उद्योग असल में इंसान का प्रकृति से रिश्ता है, प्रकृति का ऐतिहासिक रिश्ता, और इसलिए प्राकृतिक विज्ञान का मनुष्य से।” (मार्क्स, 1977, इकोनोमिक एण्ड फ़िलोसोफ़ि‍कल मैन्युस्क्रिप्ट्स, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृष्ठ 104-5, अनुवाद हमारा)

वहीं बख्शी के अनुसार ”वैज्ञानिक प्रयोग और उद्योग को …व्यवहार माना जाना चाहिए।” साफ़ है कि वैज्ञानिक प्रयोग और इण्डस्ट्री के बीच समानता का नहीं मध्यस्थता का सम्बन्ध होता है। प्राकृतिक विज्ञान निश्चित ही व्यवहार का हिस्सा है परन्तु यह उद्योग द्वारा मीडिएट होता है। यह प्रमुख नहीं है। यानी मार्क्स के अनुसार प्राकृतिक विज्ञान की उत्पादन पर निर्भरता होती है। इस सवाल पर अगले हिस्से में हम विस्तार से बात करेंगे। ऊपर किये विमर्श से मार्क्स-एंगेल्स व बख्शी के दृष्टिकोण के बीच अन्तर स्पष्ट है तथा उनके ग़लतबयानी के प्रयास भी पकडे़ गये हैं।

दीपक बख्शी की बात का दो स्तर पर खण्डन होता है। पहला यह कि दीपक बख्शी से अलग मार्क्स प्राकृतिक विज्ञान को ‘सामाजिक चेतना के रूप’ समझते हैं जिसे अन्य किसी ज्ञान शाखा पर वरीयता नहीं दी गयी है। दूसरा इसका विकास ऐतिहासिक तौर पर निर्धारित होता है। इतिहास में भी यह मानव व्यवहार की बुनियादी क्रिया उत्पादन के ज़रिये सक्रिय होती है। मार्क्स और एंगेल्स ने अन्य रचनाओं में भी इन दोनों पहलुओं पर लिखा है। हम उनपर नज़र डालने से पहले मार्क्स और एंगेल्स द्वारा प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन का एक अति संक्षिप्त ब्यौरा देना चाहते हैं।

3.2 मार्क्स और एंगेल्स का प्राकृतिक विज्ञान का अध्ययन

”प्रकृति द्वन्द्ववाद की कसौटी है।” – एंगेल्स

मार्क्स की गणित की पाण्डुलिपियाँ दर्शाती हैं कि उन्होंने गणित की कुछ समस्याओं का गहन अध्ययन किया था। इस अध्ययन की उन्हें पूँजी की गतिकी और उसके विस्तार की पड़ताल हेतु ज़रूरत पड़ी। इस दौरान उन्होंने लीब्निज़ से लेकर न्यूटन द्वारा रचित कैल्कुलस का अध्ययन किया। मार्क्स द्वारा कैल्कुलस पर टिप्पणियाँ बेहद महत्वपूर्ण थीं जिन्हें आगे चलकर तमाम गणितज्ञों ने स्वतन्त्र तौर पर भी विकसित किया। उनसे पहले भी कोची ने ऐसा प्रयास किया था परन्तु मार्क्स की इस सवाल को लेकर पहुँच अलग थी जिस पर डर्क स्ट्रुइक ने विशेष ध्यान दिया। आज कोई यह कहे कि इस अध्ययन से आधुनिक गणित में बदलाव किया जा सकता है तो यह मूर्खता होगी क्योंकि आज का गणित मार्क्स के युग से बहुत आगे बढ़ चुका है और उन समस्याओं को हल कर चुका है जिस पर मार्क्स उस समय लिख रहे थे। परन्तु इससे जो सीखा जा सकता है वह है प्राकृतिक विज्ञान का द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से अध्ययन करने की पद्धति व पहुँच। मार्क्स द्वारा गणित का अध्ययन एंगेल्स के गणित के अध्ययन से ज़्यादा व्यापक और गहन था।

एंगेल्स ने प्राकृतिक विज्ञान का विस्तृत अध्ययन किया था जिसमें भौतिकी, रसायनशास्त्र, जीव विज्ञान, गणित, एस्ट्रोनॉमी आदि शामिल थे। एंगेल्स द्वारा लिखित ड्यूहरिंग मत खण्डनप्रकृति में द्वन्द्वात्मकता प्रमुख रचनाएँ हैं जिनमें एंगेल्स प्रकृति में द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण के लागू होने और उसकी पुष्टि की बात करते हैं। पिछली शताब्दी में एंगेल्स के प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन को सोवियत रूस में और समाजवादी चीन में आधार बनाकर प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में विस्तार से कार्य किया गया। इस विषय पर विराट अध्ययन हुआ है। इसके इतिहास पर हेलेना शीहन, लौरेन ग्राहम से लेकर रोबर्ट कोहेन का लेखन ग़लतियों के बावजूद पठनीय है। मार्क्स-एंगेल्स की प्राकृतिक विज्ञान पर लिखी कृतियों से भी यही स्पष्ट होता है कि उनके अनुसार मानव समाज व मानव मस्तिष्क की क्रियाओं से ऊपर प्राकृतिक विज्ञान का मार्क्सवादी दर्शन से कोई विशिष्ट सम्बन्ध नहीं होता है। इनका एकमात्र सम्बन्ध इनकी एकरूपता में है, यानी मानव समाज व मानव मस्तिष्क की क्रियाओं और प्रकृति के विज्ञान की एकता, यानी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के रूप में। इतिहास में मानव समाज के विकास के साथ ही इसका विकास हुआ है। ड्यूहरिंग मत खण्डन में एंगेल्स लिखते हैं :

”जब मैंने गणित और प्राकृतिक विज्ञान का पुनः अध्ययन किया था, तो मेरा उद्देश्य ख़ुद को यह विश्वास दिलाना था कि जिस बात की सामान्य सच्चाई में मुझे कोई सन्देह नहीं था, वह बात अलग-अलग रूप में सच है। अर्थात मैं इस बात की सच्चाई को अलग-अलग रूप में परखना चाहता था कि प्रकृति में जो असंख्य परिवर्तन होते रहते हैं, उनके बीच भी गति के वे ही द्वन्द्वात्मक नियम बलपूर्वक अमल में आते हैं; जो इसी प्रकार मानव चिन्तन के विकास के इतिहास में भी एक सतत् सूत्र की भाँति दिखायी पड़ते हैं तथा धीरे धीरे मनुष्य की चेतना में प्रवेश करते हैं।” (एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत खण्डन, पेज 20-21)

”प्रकृति द्वन्द्ववाद की कसौटी है; और आधुनिक प्राकृतिक विज्ञान के बारे में यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसने द्वन्द्ववाद के प्रमाण के रूप में अत्यन्त मूल्यवान सामग्री दी है, जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और इस प्रकार उसने सिद्ध कर दिया है कि अन्ततोगत्वा प्रकृति में हर चीज़ अधिभूतवादी ढंग से नहीं बल्कि द्वन्द्वात्मक ढंग से घटती रहती है। लेकिन प्रकृति विज्ञान के ऐसे विद्वानों की संख्या अभी बहुत थोड़ी है जिन्होंने द्वन्द्वात्मक ढंग से सोचना सीख लिया है, और खोज के परिणामों तथा पूर्वकल्पित चिन्तन प्रणलियों के बीच जो टकराव होता है उसी का नतीजा है कि इस समय सैद्धान्तिक प्राकृतिक विज्ञान में एक गड़बड़ी फैल गयी है, जिसका लगता है कभी अन्त नहीं होगा और जो शिक्षक तथा शिक्षार्थी, लेखक तथा पाठक सभी को विक्षिप्त बनाये डाल रही है। अतः विश्व की, उसके विकास की, मनुष्यजाति के विकास की तथा मनुष्यों के मस्तिष्क में इस विकास के प्रतिबिम्ब की सच्ची अवधारणा केवल द्वन्द्ववाद की पद्धति द्वारा ही की जा सकती है, जो निर्माण और निर्वाण की, प्रगतिशील और प्रतिगामी परिवर्तनों की असंख्य क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को निरन्तर ध्यान में रखती है।” (वही, पेज-42)

दीपक बख्शी द्वारा ‘गड़बड़ी’ को संकट में तब्दील कर शोर मचाने की आदत के विपरीत एंगेल्स बताते हैं कि प्राकृतिक विज्ञान मार्क्सवादी दर्शन-पद्धति तक पहुँचे बिना ग़लत रास्तों में चक्कर काटता रहता है। इसकी विस्तारपूर्वक विवेचना हम ‘प्राकृतिक विज्ञान और संकट’ शीर्षक के अन्तर्गत कर चुके हैं। एंगेल्स बताते हैं कि :

”मेरे लिए द्वन्द्ववाद के नियमों को प्रकृति में ज़बर्दस्ती ठूँसने का कोई प्रश्न नहीं उठा सकता था; मुझे तो इन नियमों को प्रकृति से खोज कर निकलना था और प्राकृतिक जगत के आधार पर उनको विकसित करना था।” (वही, पेज-23)

अपनी रचना लुडविग फ़ायरबाख में एंगेल्स उन तीन महती खोजों, जिन्होंने अधिभूतवादी दृष्टिकोण को हटाकर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के लिए जगह बनायी, के बारे में लिखते हैं :

”वास्तव में प्रकृति-विज्ञान, जो पिछली शताब्दी के अन्त तक प्रधानतः संग्रही विज्ञान, निष्पन्न वस्तुओं का विज्ञान था, हमारी शताब्दी में सारतः क्रम विषयक विज्ञान, प्रक्रियाओं का तथा इन वस्तुओं के उद्भव और विकास का और इन समस्त प्राकृतिक प्रक्रियाओं को एक सूत्र में बाँधकर उन्हें एक समष्टि का रूप देने वाले अन्तर्सम्बन्ध का विज्ञान बन गया।” इन तीन ”महती खोजों” – ”इकाई के रूप में कोशिका की खोज, दूसरी, ऊर्जा के रूपान्तरण की खोज और तीसरी डार्विन का उद् विकास का सिद्धान्त (थियरी ऑफ़ इवोल्यूशन) – ने प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध के हमारे ज्ञान को अत्यधिक वेग से आगे बढ़ाया है।

”इन तीन महती खोजों और प्रकृति-विज्ञान के क्षेत्र में और दूसरे बहुत बड़े क़दम बढ़ाये जाने की बदौलत हम अब प्रकृति की प्रक्रियाओं के अन्तर्सम्बन्ध केवल क्षेत्र विशेष में ही नहीं, बल्कि इन विशेष क्षेत्रों के बीच भी अन्तर्सम्बन्ध समग्रतः दिग्दर्शित कर सकते हैं और इस प्रकार आनुभविक प्रकृति-विज्ञान द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के ज़रिये हम काफ़ी क्रमबद्ध रूप में, प्रकृति के अन्तर्सम्बन्ध का एक व्यापक चित्र दे सकते हैं।” (एंगेल्स, 2006, लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त, राहुल फ़ाउण्डेशन, पेज 39-40)

प्राकृतिक विज्ञान में हुई प्रगति ने भी इंसान को उसके सही दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के करीब पहुँचने में मदद की और आगे होने वाली खोजें इस क्रिया को क़दम-ब-क़दम आगे बढ़ाती जायेंगी। प्राकृतिक विज्ञान में हो रहे बदलावों से भौतिकवाद को भी विकसित होना होता है। यही मार्क्सवादी नज़रिया है।

”प्राकृतिक विज्ञान (मानव इतिहास के बारे में आम तौर पर) में हर युगप्रवर्तक खोज के साथ भौतिकवाद को अपना रूप बदलना होता है।” (वही, पेज 19)

परन्तु इतिहास में ”प्राकृतिक विज्ञान में हर युगप्रवर्तक खोज” उत्पादन शक्तियों के विकास के ज़रिये होती है। मार्क्स ने पूँजी के खण्ड-एक में प्राकृतिक विज्ञान को ”श्रम शक्ति से पृथक कर दी गयी उत्पादन शक्ति” बताया है जिसे पूँजी की सेवा में लगा दिया जाता है। विज्ञान इतिहास की अलग-अलग मँजि़लों जैसे कि आदिम समाज, दास व्यवस्था, सामन्तवाद, विभिन्न प्राक् पूँजीवादी सामाजिक संरचनाओं और पूँजीवाद तक विकसित होता हुआ आया है और समाजवाद के लघुजीवी प्रयोगों में भी विज्ञान ने अद्भुत रफ़्तार से तरक़्क़ी की। आज हम ऐसे दौर में जी रहे हैं जहाँ दुनिया भर में समाजवाद के प्रथम प्रयोग असफल हो चुके हैं और पूँजीवाद ने साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण के अपने इस अभूतपूर्व रूप से मरणासन्न, सड़े और परजीवी दौर में दुनिया को युद्ध, तबाही और ग़रीबी में धकेल दिया। आरम्भिक सभ्यता के सृजन से लेकर पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रान्ति के बाद 20वीं शताब्दी के दौर समाज के उथल-पुथल या समाज के विकास के दौर थे। समाज की आर्थिक संरचना में बदलाव के दौरों में और विकास के दौर में विज्ञान व तकनोलॉजी में छलाँगें लगती रही हैं। विज्ञान व तकनोलॉजी उत्पादन शक्ति का ही अभिन्न अंग है जिन्हें पूँजीवाद में मुनाफ़ा पीटने के लिए ही लगा दिया जाता है। यही इसके ठहराव का कारण हैं। इसका ठहराव श्रम से विज्ञान के विभाजन में अभिव्यक्त होता है। यही वह उक्ति है जो मार्क्स ने विज्ञान के लिए दी थी – श्रम से कट कर विज्ञान पूँजी की सेवा में लगी उत्पादक शक्ति बन जाता है। मौजूदा दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास का ठहराव ही विज्ञान व तकनीक का ठहराव है। यही वह बेड़ी है जो इसके विकास पर पड़ी हुई है। मौजूदा उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बिना इस बेड़ी को भी तोड़ा नहीं जा सकता है। यही आकलन मार्क्स ने अपनी 1844 की पाण्डुलिपियों में किया है जहाँ वे कहते हैं कि ”प्राकृतिक विज्ञान ने इंसान की जि़न्दगी को भेदा और तब्दील कर दिया है, वह भी सबसे ज़्यादा उद्योग के माध्यम से; व साथ ही इसने मनुष्य की आज़ादी के लिए आधार खड़ा किया है, हालाँकि इसका तात्कालिक असर मनुष्य को अमानवीय बनाने में है।” (मार्क्स, इकोनोमिक एण्ड फ़िलोसॉफ़ि‍कल मैनुस्क्रिप्ट्स, पृष्ठ 105, अनुवाद हमारा)

आज प्राकृतिक विज्ञान का प्रयोग जिस क्षेत्र में सबसे ज़्यादा और उन्नत स्तर पर किया जा रहा है वह है युद्ध। इसका प्रयोग मनुष्य को मशीन बनाने में किया जा रहा है और ”मनुष्य की आज़ादी के लिए आधार” सामाजिक क्रान्ति के बिना सम्भव नहीं है। यह वह वृहद् दृष्टिकोण है जो दीपक बख्शी द्वारा प्राकृतिक विज्ञान के सामाजिक बदलाव के यान्त्रिकतावादी दृष्टिकोण को ग़लत साबित करता है। दीपक बख्शी के लिए प्राकृतिक विज्ञान में ठहराव के कारण मार्क्सवादी दर्शन में ठहराव आता है और इस कारण मार्क्सवादी सिद्धान्त में और मार्क्सवाद संकट में पड़ जाता है। मार्क्सवाद का मत इससे भिन्न है। एंगेल्स ने प्रकृति में द्वन्द्वात्मकता के परिचय में दिखाया है कि किस प्रकार सामाजिक परिवर्तनों के कारण ही प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में तब्दीली होती है। जिस प्रकार सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी की वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल प्रगति इतिहास में इनसे पूर्व हुई सामाजिक क्रान्तियों के बाद हुई और फिर इसने पलटकर उत्तरोत्तर सामाजिक परिवर्तनों को भी बल दिया, उसी तरह सामाजिक क्रान्तियों और उथल-पुथल ने ही उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी की वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल प्रगति में भूमिका निभायी। यही मार्क्स द्वारा विज्ञान को उत्पादक शक्ति के रूप में व्याख्यायित करने का अर्थ है। दूसरे शब्दों में, जब तक पुराने पड़ चुके उत्पादन सम्बन्धों को क्रान्तियों द्वारा बदला नहीं जाता तब तक वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल धरातल पर भी कोई क्रान्तिकारी युगान्तरकारी छलाँग लगना मुश्किल होता है (हालाँकि महत्वपूर्ण परिमाणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं) और विज्ञान और तकनोलॉजी के क्षेत्र में लगने वाली हर नयी छलाँग फिर से क्रान्तिकारी परिवर्तनों की ज़मीन भी तैयार करती है।

3.3 मार्क्सवाद में संकट या पूँजीवाद का संकट

आज विज्ञान का संकट उत्पादक शक्तियों के ठहराव का संकट है। यही वह संकट है जिसे न समझ पाने के कारण दीपक बख्शी मार्क्सवाद के ऊपर यह जि़म्मेदारी डाल देते हैं कि वह भौतिकी में हुई नयी खोजों और नये सिद्धान्तों को व्याख्यायित कर स्वयं का विकास करे और अपना संकट दूर करे। अव्वलन तो यह मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त का संकट नहीं, बल्कि बुर्जुआ दर्शन, विज्ञान और सिद्धान्त का संकट है और दूसरी बात यह कि मार्क्सवाद ने भौतिकी के क्षेत्र में पेश नये सिद्धान्तों की व्याख्या की दिशा में बहुत काम किया है, जिनकी श्री बख्शी को जानकारी नहीं है। उत्पादक शक्तियों के ठहराव के संकट को दूर करने का काम सामाजिक क्रान्ति के ज़रिये किया जा सकता है। सोवियत रूस में प्राकृतिक विज्ञान को द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से देखने की नज़र दी गयी और वहाँ इस सवाल पर ज़बर्दस्त दार्शनिक बहसें चलीं। ब्लोखिंस्तेव, व्लादिमि‍र फ़ोक, लैन्दाऊ से लेकर रोसेंफ़ेल्ड, बोर्न, लेंजविन व तमाम प्राकृतिक वैज्ञानिकों ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण को अपनाया और आधुनिक भौतिकी के विकास में मदद की। इस दृष्टिकोण से ताकेतानी ने तीन मंजि़ल का सिद्धान्त भी दिया और क्वाण्टम भौतिकी की प्रेक्षण समस्या का हल भी निकाला। जिन समाजों में मानवता की रचनात्मकता और नवोन्मेष पर मुनाफ़े की ताक़तों द्वारा लगायी गयी पाबन्दियाँ हटा दी गयीं, उन समाजों में विज्ञान ने चमत्कारिक रफ़्तार से तरक्की की। सोवियत संघ में 1920 से लेकर विशेष तौर पर 1970 के दशक के अन्त तक सैद्धान्तिक और प्रायोगिक विज्ञान दोनों के ही क्षेत्रों में अभूतपूर्व विकास हुआ। राज्यसत्ता पर संशोधनवाद के काबिज़ होने का असर अधिरचना के विभिन्न क्षेत्रों में आते-आते कुछ समय लगना स्वाभाविक था। फ़ॉक का यह कथन वैज्ञानिकों के बीच उस दौर की आम अभिव्यक्ति था – ”दिक्-काल और गुरुत्वाकर्षण-सम्बन्धित हमारे विचारों के सिद्धान्त द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद और विशेषकर लेनिन के भौतिकवाद और अनुभवसिद्ध आलोचना के प्रभाव में निर्मित हुए थे।” (व्लादिमि‍र फ़ोक, थियरी ऑफ़ स्पेस, टाइम एण्ड ग्रेविटेशन, पृष्ठ 16) समाजवादी सोवियत रूस में और चीन में सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान प्राकृतिक विज्ञान में द्वन्द्व की पड़ताल करने वाली पत्रिकाओं – सोवियत संघ में अण्डर दि बैनर ऑफ़ मार्क्सिस्म और चीन में निकलने वाला जर्नल डायलेक्टिक्स ऑफ़ नेचर इसके ही प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। केवल तभी विज्ञान के संकट को दूर किया जा सकता है जब पूँजी की बेड़ियों से विज्ञान मुक्त हो जाये।

आज की आधुनिक भौतिकी पर नजर डालें तो हिग्स बुसोन के मिलने के बाद भी आधुनिक भौतिकी में संकट के गीत बजने लगे हैं। और यह लाज़िमी भी है। कारण यह कि इस खोज की व्याख्या भी एक ए प्रायोरी द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण से नहीं की जा रही है। नतीजतन, नियतत्ववाद और अज्ञेयवाद के दो छोरों के बीच दोलन स्वाभाविक है। विज्ञान में संकट के अन्य ठोस भौतिक कारण भी मौजूद हैं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण स्पेन देश है जहाँ आर्थिक मन्दी के चलते सरकार ने दो साल पहले अपने विज्ञान मन्त्रालय को ही ख़त्म कर दिया। यूरोप में लगभग हर सरकार ने प्राकृतिक विज्ञान पर हो रहे खर्च को 60-80 फ़ीसदी कम किया है और यही कारण है कि आज के ऐतिहासिक युग का महानतम वैज्ञानिक प्रयोग (सर्न का हाईड्रॉन कोलाइडर प्रयोग) भी वित्तपोषण के अपर्याप्त होने के कारण अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ पा रहा है। इस संकट से निजात पाना समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के बिना असम्भव है।

परन्तु दीपक बख्शी का मत अलग है। उनके मतानुसार आज का कार्यभार :

”मार्क्सवादी नज़रिये से विज्ञान (ख़ास तौर पर भौतिकी में, एस्ट्रोनोमी, जैनेटिक्स, बायोटेक्नॉलोजी… का अध्ययन, उनकी समझ बनाना, बहस-मुबाहिसे में उतरना और विज्ञान के पिछले 150 सालों के सिद्धान्तों को विकसित करना होगा।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन तथा मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्याएँ, अनुवाद हमारा)

परन्तु आज हम फ़ैराडे के ज़माने में नहीं जी रहे हैं। फ़ैराडे बेहद ग़रीब परिवार में पैदा होने के कारण उच्च शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाये परन्तु इसके बावजूद वे भौतिकी और रसायन विज्ञान में महानतम वैज्ञानिक अविष्कार अंजाम देने व नये सिद्धान्त रच पाने में सफल हुए। फ़ैराडे किताब पर जिल्द लगाने वाली दुकान में काम करते थे और इस दुकान के ही पिछले अाँगन में विज्ञान की किताबें पढ़कर स्वयं रसायन विज्ञान तथा भौतिकी के प्रयोग करते थे। परन्तु आज के युग में आधुनिक भौतिकी की सैद्धान्तिकी या प्रयोगों को दीपक बख्शी या कोई भी अपने घर के आँगन में नहीं आज़मा सकता है। ”विज्ञान के पिछले 150 सालों के सिद्धान्तों को विकसित” करने के लिए हमें सर्न और लीगो जैसी विशाल प्रयोगशालाएँ चाहिए। परन्तु ये प्रयोगशालाएँ आज पूँजी की सेवा में लगी हुई हैं। सर्न प्रयोगशला में एक दशक से ऊपर से वैज्ञानिक सैद्धान्तिक विकास के लिए जो माथापच्ची कर रहे हैं वह प्रक्रिया बार-बार थम जाती है। संक्षेप में कहें तो यह रुकावट पूँजी निवेश न हो पाने के कारण, शोध नीति में निवेशकों के प्रति संस्थान की जवाबदेही के कारण और वैज्ञानिकों के बीच पैटेन्ट, कॉपीराइट और पर्चे छपाने की होड़ के चलते आती है। दूसरा, बुर्जुआ समाज की परवरिश के चलते उपजी वैज्ञानिकों की ग़लत दार्शनिक प्रतिस्थापनाएँ उन्हें सही नतीजों पर नहीं पहुँचने देती हैं। आज पूँजी की बेड़ियों में जकड़ा विज्ञान संकट का शिकार है। इन बेड़ियों को चकनाचूर किये बिना हम विज्ञान के संकट को दूर नहीं कर सकते हैं। परन्तु दीपक बख्शी का उपरोक्त तर्क इसके बिलकुल उलट है, उनके अनुसार क्रान्ति के विज्ञान को विकसित करने के लिए हमें प्राकृतिक विज्ञान को विकसित करना होगा। यह इसलिए कि वे न तो प्राकृतिक विज्ञान का इतिहास ही जानते हैं और न ही आधुनिक भौतिकी के मौजूदा व्यवहार से वाकि़फ़ हैं।

प्राकृतिक विज्ञान पर दीपक बख्शी द्वारा मार्क्सवादी दृष्टिकोण की निर्भरता के सिद्धान्त को मार्क्सवाद से आशीर्वाद दिलाने का प्रयास बिखर गया है। दीपक बख्शी की तर्क प्रणाली मार्क्सवादी विश्व-दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं है। मार्क्सवाद का विश्व-दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है जिसे मार्क्स और एंगेल्स ने प्रकृति, मानव समाज तथा मानव चिन्तन के विज्ञान के रूप में व्याख्यायित किया। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या मार्क्सवादी विश्व दृष्टिकोण को समाज, प्रकृति व मानव चिन्तन के विकास के अनुसार विकसित और व्याख्यायित होना होता है न कि इसके उलट समाज, प्रकृति व मानव चिन्तन को इस दृष्टिकोण पर खरा उतरना होता है। यह विश्व-दृष्टिकोण वास्तव में प्रकृति, समाज और चिन्तन के तार्किक और वैज्ञानिक प्रेक्षण, विश्लेषण व सामान्यीकरण की प्रक्रिया में ही विकसित हुआ है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी किसी भी सामाजिक, प्राकृतिक या मानव चिन्तन के जगत की परिघटना को इस विज्ञान की दृष्टि से देखते हैं और यही प्रक्रिया इसी क्रम में इस विज्ञान को उत्तरोत्तर विकसित और समृद्ध भी करती है। इस विज्ञान की समृद्ध‍ि में सबसे बड़ी भूमिका सामाजिक व्यवहार की होती है। सामाजिक व्यवहार में भी उत्पादन व वर्ग संघर्ष सबसे प्रमुख महत्व रखते हैं। वर्ग संघर्ष ही इतिहास में समय-समय पर सामाजिक क्रान्तियों के रूप में परिणत होता है। इन सामाजिक क्रान्तियों की भी विज्ञान के विकास में महती भूमिका होती है। इतिहास के मौजूदा दौर में यह वैज्ञानिक समाजवाद के विज्ञान का आधार बनता है। यह खुले तौर पर सर्वहारा वर्ग की सेवा करने की घोषणा करता है। विश्व इतिहास की पिछली दो शताब्दियों में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ जारी संघर्षों, सफल और असफल क्रन्तियों के अनुभवों के कुल योग के रूप में वैज्ञानिक समाजवाद विकसित हुआ। मार्क्स और एंगेल्स के बाद लेनिन और स्तालिन ने रूसी क्रान्ति के दौर में मार्क्सवाद को एक नये क़दम की ओर बढ़ाया और माओ ने चीनी क्रान्ति और विशेष तौर पर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर में इसे नयी ऊँचाई तक पहुँचाया। आधुनिक भौतिकी से लेकर कला के उत्तरोत्तर विकास के क्षेत्र में भी सामाजिक क्रन्तियों ने ही अग्रिम भूमिका निभाते हुए एक ओर मानव सृजनशीलता के विकास को निर्बन्ध किया जो कि उत्पादक शक्तियों का सबसे अहम पहलू है और दूसरी ओर उत्पादक शक्तियों के वैज्ञानिक और तकनोलॉजिकल पहलू के विकास को भी प्रेरणा दी। पुराने उत्पादन सम्बन्धों की बेड़ियों से मुक्त हुए बिना, मानव समाज विज्ञान, कला, साहित्य, संस्कृति के क्षेत्र में भी जड़ता का शिकार हो जाता है (हालाँकि, परिमाणात्मक विकास लगातार होते रहते हैं) और ऐसे दौरों में ही ग्राम्शी के शब्दों में ”रुग्ण लक्षण” जन्म लेते हैं। क्या आज विज्ञान और कला दोनों की ही दुनिया में ऐसे रुग्ण लक्षणों को नहीं देखा जा सकता है? परन्तु दीपक बख्शी सरीखे राजनीतिक नौदोलतिए इन लक्षणों का कारण मार्क्सवाद में देखते हैं। दीपक बख्शी अपने लेख में मार्क्सवादी दर्शन में ठहराव और मार्क्सवादी सिद्धान्त के संकट से राजनीतिक परिणाम भी निकालते हैं। आइये अब इस ‘केपुट मॉर्चुअम’ (आसवन के अवशेष) के ऐतिहासिक और राजनीतिक नतीजों की पड़ताल कर लेते हैं।

  1. बुर्जुआ दार्शनिक हमले व मार्क्सवाद की ग़लत व्याख्या का संकट

”कोई यह नहीं सोचता कि कितना ख़ून बहा है।” – दांते

मार्क्सवाद लगातार विकसित होता हुआ विज्ञान है जो हज़ारों-लाखों इंसानों के सामूहिक सामाजिक व्यवहार के ज़रिये मानव समाज और प्रकृति से जुड़े हर आयाम में विकसित हो रहे मानव ज्ञान का सामान्यीकरण करता है। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ जैसे प्रतिभावान सामाजिक वैज्ञानिकों की भूमिका निश्चित तौर पर अहम होती है और इस वैज्ञानिक सामान्यीकरण के काम को वे अंजाम देते हैं। आधुनिक भौतिकी के क्षेत्र में ताकेतानी, सकाता से लेकर सोवियत काल में बोरिस हेस्सेन से लेकर व्लादिमि‍र फ़ोक ने तो वहीं कला के क्षेत्र में पिकासो, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और आइजें़स्ताइन व अन्य कलाकारों ने भी मार्क्सवादी दृष्टिकोण के अर्न्तगत अपने-अपने कर्मक्षेत्रों में प्रयोग, खोज व सैद्धान्तिकीकरण किया जिसने मार्क्सवादी सिद्धान्त में इज़ाफ़ा किया। परन्तु यह बिलकुल सीधे-सपाट रास्ते से नहीं हुआ बल्कि बेहद गहन और गम्भीर वैचारिक संघर्षों के जटिल, टेढ़े-मेढ़े और अन्तर्गुन्थित रास्तों से हुआ है। परन्तु दीपक बख्शी बीसवीं शताब्दी में मार्क्सवाद में हुए इन सैद्धान्तिक इज़ाफ़ों को ख़ारिज कर देते हैं या उनका ज़िक्र ही नहीं करते। प्राकृतिक विज्ञान के मार्क्सवादी दर्शन से रिश्ते की यान्त्रिक समझदारी क़ायम करने के बाद वे मार्क्सवादी दर्शन और सिद्धान्त के बीच भी यान्त्रिक सम्बन्ध क़ायम करते हैं। उनके अनुसार ”भविष्य के सैद्धान्तिक, विचारधारात्मक व राजनीतिक सवालों के आकलन में” दार्शनिक सवाल प्रमुख होता है। दीपक बख्शी की ‘प्राकृतिक विज्ञान – मार्क्सवादी दर्शन – मार्क्सवादी सिद्धान्त’ की यान्त्रिक श्रृंखला में हम प्राकृतिक विज्ञान-मार्क्सवादी दर्शन की कड़ी की बात कर चुके हैं। अब इस यान्त्रिक श्रृंखला की दूसरी कड़ी पर बात कर लेते हैं।

दीपक बख्शी अपने लेख की शुरुआत इस घोषणा से करते हैं कि आज मार्क्सवादी सिद्धान्त का विकास संकट में है और इसमें विकास की ज़रूरत सभी क्रान्तिकारी धड़े महसूस कर रहे हैं। दीपक बख्शी बताते हैं कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ का प्रयास इस ज़रूरत की पूर्ति के लिए है। दीपक बख्शी के शब्दों मेंः

”कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स द्वारा पेश किये गये सिद्धान्तों व विचारों का विकास आज एक बेहद कठिन संकट से गुज़र रहा है। लेनिन के हाथों में मार्क्सवाद एक तरफ़ तो विकसित हुआ और वहीं दूसरी तरफ़ मूलभूत सवालों व चुनौतियों से इसका सामना हुआ।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)।

यहाँ लेनिन और मार्क्स-एंगेल्स के बीच फ़र्क़ से यह बात ज़ाहिर है कि बख्शी के अनुसार लेनिन के दौर से ही मार्क्सवाद के सामने दिक़्क़ततलब अनुत्तरित प्रश्न उठने शुरू हो गये थे। आगे वे लिखते हैं :

”इक्कीसवीं शताब्दी की शुरुआत में मार्क्सवादी सिद्धान्त में एक गुणात्मक छलाँग निरपेक्ष रूप से ज़रूरी (इम्पेरेटिव) है” और ”विश्व भर में कम्युनिस्ट-क्रान्तिकारी धड़े बुर्जुआ सैद्धान्तिक हमलों के आगे कमज़ोर और असहाय महसूस कर रहे हैं…जो लोग इस दृष्टिकोण से सहमत हैं कि मार्क्सवाद का विकास संकट से गुज़र रहा है वे मार्क्सवाद के उभरने व परिपक्व होने की आशा करेंगे…एंगेल्स द्वारा मार्क्सवादी सिद्धान्त को पूर्ण बनाने का प्रयास, जो उन्होंने मार्क्स की सलाह पर किया, हमें कहीं भी अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में लेनिन के बिखरे हुए कार्य के बाद देखने को नहीं मिलता है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

यहाँ वह साफ़ तौर पर लेनिन के प्रयासों को ‘बिखरा’ हुआ मानते हैं और स्तालिन एवं माओ के अवदानों को बिलकुल सिरे से ख़ारिज कर देते हैं। आगे वह संकट की बात जारी रखते हुए कहते हैं कि आज मार्क्सवाद में नये सिद्धान्तों की ज़रूरत  है :

”हमारा यह मत है कि आज मार्क्सवादी सिद्धान्त के ‘विकास’ की जो दशा है उसमें पुराने सिद्धान्तों में किसी भी क़ि‍स्म के संयोजन से कुछ नहीं होगा। किसी भी एकतरफ़ा या असन्तुलित सिद्धान्त से मौजूदा परिस्थिति में बदलाव नहीं आने वाला है। आज हमें मार्क्सवाद के तमाम क्षेत्रों में सुसंगत और विशद सिद्धान्तों की ज़रूरत है।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

बख्शी की सैद्धान्तिक ‘संघर्ष’ की माँग का आधार उनकी मार्क्सवाद की व्याख्या को समझे बिना नहीं जानी जा सकती है। उनके अनुसार –

”मार्क्सवादी सिद्धान्त और मार्क्सवादी दर्शन के बीच अन्तर्सम्बन्ध मार्क्सवाद के विकास में सबसे महत्वपूर्ण आधार है।”

”सामाजिक-ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में किस तरह आवश्यकता और स्वतन्त्रता सही द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध में स्थानान्तरित होंगे यह न तो आर्थिकी का सवाल है, न इतिहास का और न ही राजनीति का सवाल है बल्कि यह दर्शन का सवाल है।” (वही, अनुवाद हमारा)।

आइये दीपक बख्शी के इस नवीन ‘दर्शन-सिद्धान्त’ की विचार प्रणाली पर सिलसिलेवार आलोचनात्मक दृष्टि डालें। दीपक बख्शी क्रान्ति के विचारधारात्मक, राजनीतिक और सैद्धान्तिक प्रश्नों के लिए दर्शन को प्रमुख बताते हैं। निश्चित ही सही दार्शनिक रोशनी में ही इन सभी प्रश्नों पर बात हो सकती है क्योंकि इन प्रश्नों में दार्शनिक अवस्थिति अभिव्यक्त होती है। दार्शनिक नज़रिया सैद्धान्तिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रश्नों का ही सार्वभौमिकीकरण है। सैद्धान्तिक, राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रश्न दार्शनिक नज़रिये के विशिष्टीकरण हैं। क्रान्ति का सवाल ‘आवश्यकता और स्वतन्त्रता’ को राजनीति, आर्थिकी और इतिहास में ही हल करता है परन्तु यहाँ बख्शी एक यान्त्रिक बँटवारा करते हैं और दर्शन के सवाल को इन सबसे ऊँचा बना देते हैं। मार्क्सवाद राजनीति, सिद्धान्त और विचारधारा के इस यान्त्रिक बँटवारे को ही ग़लत मानता है। दीपक बख्शी सवाल पूछते हैं कि इतिहास में आवश्यकता और स्वतन्त्रता के द्वन्द्व का हल किस नज़रिये की रोशनी में होगा; ग़ौर कीजिए कि आवश्यकता और स्वतन्त्रता दार्शनिक प्रवर्ग हैं; इस प्रश्न का जवाब देते हुए श्री बख्शी कहते हैं कि इस सवाल का जवाब दार्शनिक दृष्टिकोण से ही दिया जा सकता है। यह तर्क ही गोल है जिसमें सवाल के अन्दर पहले से ही जवाब छिपा हुआ है। अपने इस आवश्यकता और स्वतन्त्रता के द्वन्द्व के सवाल के ज़रिये वे यह साबित करते हैं कि दर्शन का सवाल मार्क्सवाद में मुख्य बिन्दु है। मार्क्स और एंगेल्स ने इस यान्त्रिक दृष्टिकोण का खण्डन करते हुए कहा था :

”भौतिकवाद मूलतया द्वन्द्वात्मक है और अब उसे अन्य विज्ञानों के ऊपर खड़े हुए किसी दर्शनशास्त्र की आवश्यकता नहीं है।” (एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत खण्डन, पेज 47)

”सारा दर्शनशास्त्र प्रकृति और इतिहास के निश्चित विज्ञान का अंग बन जाता है।…पर जिस तरह प्रकृति की द्वन्द्वात्मक धारणा पूरे प्रकृति दर्शन को अनावश्यक और असंभव बना देती है, उसी तरह उपरोक्त धारणा (इतिहास की मार्क्सवादी धारणा) इतिहास के क्षेत्र में दर्शन को ख़त्म कर देती है।” (एंगेल्स, लुडविग फ़ायरबाख व क्लासिकीय जर्मन दर्शन का अन्त, पृष्ठ 51-52)

मार्क्सवाद के उद्भव में दार्शनिक सवाल अहम था क्योंकि मार्क्स और एंगेल्स के बौद्धिक जीवन की जब शुरुआत हुई तब विशेष रूप से दर्शन के आवरण में राजनीतिक टकराव हो रहे थे। परन्तु इसके बाद मार्क्स और एंगेल्स ने उस दौर के राजनीतिक संघर्षों में हिस्सेदारी की और उनकी समझ में राजनीतिक व्यवहार ने उनके आगे के जीवन का रास्ता तय किया, और वे ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ तक पहुँचे। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को तो उनसे स्वतन्त्र रूप में एक हद तक जर्मन मज़दूर ड‍िएत्ज़गेन ने भी खोज निकाला था। परन्तु उसे सबसे परिष्कृत रूप देना व इतिहास तथा विज्ञान में लागू करने का कार्यभार मार्क्स और एंगेल्स ने स्वतन्त्र रूप से पूरा किया था। यह उन्होंने केवल दर्शन या प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन से ही नहीं बल्कि अपने राजनीतिक व्यवहार से भी किया। एंगेल्स लिखते हैं :

 ”…यह धारा मूलभूत रूप से मार्क्स के नाम के साथ जुड़ी हुई है…मैं इससे इनकार नहीं कर सकता कि मार्क्स के साथ चालीस वर्षों के अपने सहयोग के समय और इससे पहले भी इस सिद्धान्त की बुनियाद डालने और विशेषकर इसे विकसित करने में मेरा एक हद तक स्वतन्त्र योगदान रहा है। पर इसके अग्रणी, मूलभूत सिद्धान्तों का अधिकतर भाग, ख़ासकर अर्थशास्त्र और इतिहास के क्षेत्र में, और सर्वापरि इन सिद्धान्तों का सटीक निरूपण मार्क्स की देन है।” (एंगेल्स, लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकी जर्मन दर्शन का अन्त, पेज 35)

”इतिहास की भौतिकवादी अवधारणा और बेशी मूल्य के द्वारा पूँजीवादी उत्पादन के रहस्य का उद्घाटन इन दोनों महान आविष्कारों के लिए हम मार्क्स के आभारी हैं। इन आविष्कारों के कारण समाजवाद एक विज्ञान बन गया।” (एंगेल्स, ड्यूहरिंग मत खण्डन, पेज 49)

इतिहास के दौर विशेष में समाज में बदलाव सामाजिक व्यवहार के अलग-अलग आयामों में अभिव्यक्त होते हैं जिनके सार को व्यवहार विशेष के क्षेत्र के सिद्धान्त में अभिव्यक्त किया जाता है। आधुनिक भौतिकी में पदार्थ के सूक्ष्म स्तर की संरचना की गतिकी को क्वाण्टम मैकेनिक्स अभिव्यक्त करती है तो पूँजी की गतिकी को बेशी मूल्य का सिद्धान्त अभिव्यक्त करता है। समाज की गतिकी को उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियो के अन्तरविरोध को समाहित करने वाली ऐतिहासिक भौतिकवादी धारणा में अभिव्यक्त किया जाता है। इन सभी विज्ञानों का विश्व दृष्टिकोण द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद होता है। इस प्रस्तुति में जो एकरूपता है दीपक बख्शी इसे भंग कर देते हैं जिससे कि आगे माओ और स्तालिन के मूल्यांकन में उनकी ”शुद्ध” दार्शनिक कृतियों में हुई ‘ग़लतियों’ को आधार बनाकर उनके समस्त सैद्धान्तिक और राजनीति कर्म को ग़लत साबित कर सकें। वे लिखते हैं कि :

”इस लेख में हमने हाइडेगर और देरीदा के सिद्धान्तों जैसे मार्क्सवाद-विरोधी सिद्धान्तों के बारे में बात नहीं की है। लेकिन ‘मार्क्सवादी विश्व दृष्टिकोण की विवेचना’ या ‘मार्क्सवादी सिद्धान्त के आम विकास’ के लिए कोई हाइडेगर, देरीदा, कार्ल कोर्श, जॉर्ज लुकाच या अल्थूसर कोई संकट उत्पन्न नहीं करते। इन बुद्धि‍जीवियों का दुनियाभर के कम्युनिस्टों के क्रान्तिकारी व्यवहार से कोई सीधा महत्वपूर्ण सम्बन्ध नहीं था और न ही यह मार्क्सवादी सिद्धान्त के क्षेत्र में किसी संकट या समस्या को पैदा करने की स्थिति में थे। केवल कम्युनिस्टों की आन्तरिक सीमाएँ, कमज़ोरियाँ और असफलताएँ ही सिद्धान्त में ऐसी ‘समस्या’ पैदा कर सकती हैं।”

वैसे तो जॉर्ज लूकाच और एक हद तक अल्थूसर के समूचे सैद्धान्तिक व राजनीतिक जीवन के बारे में ऐसी टिप्पणी तथ्यतः ग़लत है कि उनका ”क्रान्तिकारी व्यवहार से कोई महत्वपूर्ण सम्बन्ध नहीं था” लेकिन अभी हम इसमें नहीं जायेंगे क्योंकि श्री बख्शी की हरेक अज्ञानतापूर्ण टिप्पणी का विवेचन करना किसी एक लेख में सम्भव नहीं है। आइये अब इन आन्तरिक समस्याओं पर मन्थन करें जो मार्क्सवाद के संकट के लिए जि़म्मेदार हैं।

4.1 मार्क्सवाद में संकट

दीपक बख्शी मार्क्सवाद में संकट की पहली अभिव्यक्ति 1920 के दशक में मार्क्सवाद पर शुरू हुए हमले के रूप में बताते हैं जब मार्क्स और एंगेल्स के दर्शन के बीच अन्तर करने की कोशिश की गयी। दीपक बख्शी के अनुसार 1920 का संकट मुख्यतः एंगेल्स द्वारा प्रकृति में द्वन्द्ववाद व्याख्यायित करने के सवाल को लेकर था। सिडनी हुक, जॉर्डन, लिख्तेम से लेकर ज्याँ पॉल सार्त्र, मौरिस लेफ़ेब्र तक ने इस सवाल पर एंगेल्स की आलोचना रखी। जहाँ मार्क्स को क्रान्तिकारी व मानवीय समाज की क्रान्तियों के ज्ञान के अध्येता के रूप में बताया गया वहीं एंगेल्स को प्रत्यक्षवादी व अनुभववादी के रूप में पेश किया गया। दीपक बख्शी ने लेख के इस हिस्से को हेलेना शीहन की किताब ‘मार्क्सवाद और प्राकृतिक विज्ञान के दर्शन’ के शोध पर आधारित किया है। वह कहते हैं कि इस हमले का मार्क्सवादियों की तरफ़ से और ख़ास तौर पर माओ और स्तालिन तथा कम्युनिस्ट पार्टियों (सोवियत रूस व चीन) द्वारा जवाब नहीं दिया गया। यह तथ्यतः ग़लत है। हेलेना शीहन की किताब में ही प्रस्तुत एंगेल्स के पक्ष में लिखने वाले सिद्धान्तकारों (जिनमें कई नाम सोवियत रूस से हैं) के पक्ष को दीपक बख्शी बिलकुल ग़ायब कर देते हैं। दीपक बख्शी ज़ोर देते हैं कि मार्क्सवाद पर इस हमले का जवाब नहीं दिये जाने का कारण दर्शन के सवाल को तरजीह नहीं दिया जाना है। वह कहते हैं कि :

”मार्क्सवादियों के धड़ों में आज कई लोगों के अनुसार मार्क्सवाद किसी ‘नये’ दार्शनिक सिद्धान्त पर आधारित है या नहीं इस पर बात करना या बहस करना ज़रूरी व अर्थपूर्ण नहीं है। अगर ‘सर्वहारा की तानाशाही’ लागू करने में कोई भी भ्रम नहीं है तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के प्राकृतिक विज्ञान पर लागू होने के सवाल का समाधान निकालना या उस पर बहस करना किसी भी महत्व या तात्कालिकता से रहित हो जाता है।”

”कामरेड स्तालिन और कामरेड माओ ने लेनिन की मृत्यु के बाद बुर्जुआ दार्शनिकों के हमले के ख़िलाफ़ कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं किया।”

”मार्क्स और एंगेल्स की मृत्यु के बाद एक तरफ़ तो काउत्स्की, हिल्फ़र्डिंग और दूसरी तरफ़ लूकाच, कोर्श, ग्राम्शी और अल्थूसर ने अपनी आलोचना के पहले दौर में मार्क्स के सर्वहारा की तानाशाही के विचार का ज़ोर देकर समर्थन किया और मार्क्स की अमर कृति पूँजी को सामाजिक ऐतिहासिक विकास को देखने के लिए चुनने में कोई दुविधा महसूस नहीं की। परन्तु इन विचार शाखाओं का अन्ततः क्या विकास हुआ यह सभी जानते हैं। इनसे अलग, अगर हम लेनिन-स्तालिन-माओ की क्रान्तिकारी शाखा को देखें तो हम पाते हैं कि उन्हें इन अन्तरराष्ट्रीय बहसों ने आन्तरिक और मुखर तौर पर प्रभावित किया। लेनिन ने दूसरे इण्टरनेशनल के लोगों के साथ गहन राजनीतिक और विचारधारात्मक युद्ध किया। परन्तु स्तालिन और माओ ने लूकाच या कोर्श के ख़िलाफ़ कोई मज़बूत सैद्धान्तिक रचना नहीं लिखी।” (बख्शी, मार्क्सवादी दर्शन और मार्क्सवादी सिद्धान्त के विकास की समस्या, अनुवाद हमारा)

‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ से लेकर ‘महान बहस’ तक के दौर में मार्क्सवाद पर लगातार हमले होते रहे हैं और ये आज भी जारी हैं। इनके ख़िलाफ़ मार्क्स से लेकर माओ तक संघर्ष करते रहे, हालाँकि मार्क्स-एंगेल्स का दौर, उनके जीवन्त प्रश्न और कार्यभार अलग थे जबकि माओ के दौर के जीवन्त प्रश्न और कार्यभार अलग थे। बल्कि कहना चाहिए कि विजातीय प्रवृत्तियों और विचारधाराओं के विरुद्ध संघर्ष की प्रक्रिया में ही मार्क्सवाद विकसित हुआ। उन्नीसवीं सदी में बर्नस्टीन से लेकर बीसवीं सदी में देङ सियाओ-पिङ तक ने मार्क्सवादी सिद्धान्त पर कई बड़े हमले किये। ख़ास तौर पर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं शताब्दी में साम्राज्यवाद के दौर में संशोधनवाद और अर्थवाद ने मार्क्सवाद को गम्भीर चुनौती दी। साम्राज्यवादियों के भाड़े के टट्टू कलमघसीट तो लगातार मार्क्सवाद को बदनाम करने का प्रयास करते ही रहे जिनका जवाब प्राथमिकता के क्रम में दिया गया। परन्तु दीपक बख्शी ने 1920 के दशक की इस लेख में जो तस्वीर पेश की है वह बेहद ही सरलीकृत तस्वीर है और उस परिस्थिति के मर्म तक नहीं पहुँचती जिसका सामना लेनिन, स्तालिन और माओ ने किया। स्तालिन पर समाजवादी व्यवस्था चलाने का कार्यभार था और एक ओर वह सोवियत समाजवाद पर और मार्क्सवाद पर हो रहे संशोधनवादी हमलों से तो दूसरी ओर फ़ासीवाद की व्यवहारिक चुनौती से जूझ रहे थे। स्तालिन के बाद माओ ने सोवियत समाजवाद का व स्तालिन की ग़लतियों का आलोचनात्मक विवेचन किया। चीनी क्रान्ति से पहले भी माओ ने सोवियत रूस के देबोरिन के अधिभूतवादी द्वन्द्वात्मक दृष्टिकोण के खिलाफ़ बहस चलायी। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के अवदानों से समाजवादी संक्रमण की सैद्धान्तिकी में इजाफ़ा किया। परन्तु दीपक बख्शी बेहद भोंड़े तरीक़े से माओ, स्तालिन और दबे स्वरों में लेनिन की आलोचना करते हैं। साथ ही वे यह भी ग़लत बताते हैं कि मार्क्सवाद पर हमला करने वाले दार्शनिकों की अवस्थितियों का जवाब नहीं दिया गया। लूकाच की सोवियत रूस के देबोरिन और हंगरी के रुडास से लम्बी बहसें चली जिसके जवाब में लूकाच को अपनी ‘हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शियसनैस’ में दी गयी कुछ अवस्थितियाँ बदलनी भी पड़ीं (ए डिफ़ेन्स ऑफ़ हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शियसनैस, टेलिस्म एण्ड डायलैक्टिक) व जिसे वे ‘हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शियसनैस’ के 1960 के बाद लिखे प्राक्कथन में दोहराते भी हैं। तीसरे इण्टरनेशनल के पाँचवे विश्व सम्मेलन में ज़ि‍नोविएव ने कोर्श और लूकाच की पहली बार आलोचना रखी थी (इस सम्मेलन में लेनिन भी मौजूद थे)। बख्शी द्वारा लेनिन, माओ और स्तालिन के दौर का प्रस्तुतिकरण बख्शी के इतिहास ज्ञान की शून्यता को दिखाता है। दूसरी बात यह है कि यह मानना ही मूर्खतापूर्ण है कि माओ और स्तालिन के दौर में मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर हो रहे हर हमले का जवाब व्यक्तिगत तौर पर माओ और स्तालिन को देना था! कोर्श, अल्थूसर व लूकाच जो कुछ लिख रहे थे, दुनिया भर के तमाम कम्युनिस्ट सिद्धान्तकार और कम्युनिस्ट पार्टियाँ उसका जवाब दे रहे थे। माओ और स्तालिन के समक्ष और ज़्यादा ज़रूरी और जीवन्त प्रश्न और समस्याएँ मौजूद थीं जिनका जवाब उन्हें देना था। लेकिन चूँकि श्री बख्शी के लिए दर्शन की समस्याएँ सबसे महत्वपूर्ण हैं और भौतिक और ठोस समस्याओं से अलग कहीं हवा में अस्तित्वमान रहती हैं इसलिए माओ और स्तालिन द्वारा मार्क्सवाद-लेनिनवाद की संशोधनवाद से हिफ़ाज़त के लिए लिखी गयी उनकी रचनाओं में या समाजवाद की समस्याओं के विषय में लिखी गयी शानदार रचनाओं में कोई दिलचस्पी नहीं है, क्योंकि उनके अनुसार ये रचनाएँ शुद्ध रूप से दार्शनिक प्रश्नों का जवाब नहीं दे रही थीं।

दीपक बख्शी लेनिन के प्रयासों से भी खुश नहीं हैं! दीपक बख्शी के अनुसार लेनिन ने मार्क्स और एंगेल्स के दर्शन और सिद्धान्त को आगे बढ़ने का प्रयास किया मगर वह ‘खण्डित’ प्रयास था। वे यह भी कहते हैं कि ”जहाँ तक हमारे (मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन के – लेखक) ज्ञान और समझ की बात है तो हमारा यह मत है कि मार्क्स और एंगेल्स के बाद के मार्क्सवादी नेताओं की भौतिकवादी दर्शन की समझ किसी भी ‘असंगति’ या ‘अध्ूरेपन’ को समझ या इंगित कर पाने में इस सिद्धान्त के जनकों की तुलना में बेहद अबोध्य थी।” आगे वह लिखते हैं कि लेनिन के प्रयासों का मूल्यांकन करने की ज़रूरत है और ”पूँजी से साम्राज्यवादः पूँजीवाद की आखिरी मंजि़ल तक की यात्रा” की विवेचना करने की ज़रूरत है। पर वह यह नहीं बताते हैं कि क्या कारण है कि यह विवेचना करने की ज़रूरत है। ओह नहीं! दरअसल वे बताते हैं कि उनके अनुसार लेनिन ने आधुनिक भौतिकी के संकट का संतोषजनक दार्शनिकीकरण नहीं किया! मत भूलिए कि हम श्री बख्शी के विचार जगत से संवाद में हैं जहाँ यान्त्रिक श्रृंखला का नियम कार्यरत है! इस नियम की रोशनी में ही श्री बख्शी माओ और स्तालिन की दार्शनिक अवस्थिति के नाम पर उनके समस्त राजनीतिक कर्म पर सवाल खड़ा करते हैं। उनके अनुसार दार्शनिक प्रश्नों पर ग़लत समझदारी रखने से (जिसका कारण आधुनिक भौतिकी का अध्ययन न करना है) मार्क्सवाद में संकट पैदा हो गया और 1920 के बाद के दौर में मार्क्सवादियों का व्यवहार ग़लत है। मसलन :

”संकट यहीं है। पिछले 100 सालों के क्रान्तिकारी व्यवहार के बावजूद द्वन्द्ववाद के नियमों की व्याख्या में एक गहन संकट है।” (वही, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी के अनुसार माओ द्वारा निषेध का निषेध को न मानना ”अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए सबसे अनपेक्षित और चौंका देने वाली घटना थी।” वे माओ और स्तालिन पर एक गम्भीर हमला करते हैं और कहते हैं :

”दोनों ने अलग क़ि‍स्म के ‘भौतिकवाद’ की पैरवी की, जो मार्क्स और एंगेल्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से अलग था।” (वही, अनुवाद हमारा)

स्तालिन ने अपनी पुस्तक ‘द्वन्द्वात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद’ में द्वन्द्ववाद की जो व्याख्या पेश की है उसमें निश्चित ही द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दृष्टिकोण से भटकाव दिखता है परन्तु इसे ”अलग क़ि‍स्म का ‘भौतिकवाद’” कहना अति होगी। स्तालिन के दार्शनिक-राजनीतिक-सैद्धान्तिक कर्म को द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का विरोधी मानना मूर्खतापूर्ण होगा बावजूद इसके कि स्तालिन के दर्शन में यान्त्रिकता का स्पष्ट प्रभाव था, जिसके बारे में स्वयं माओ ने भी लिखा था। माओ द्वारा ‘निषेध का निषेध’ को नकारने के पक्ष में माओ की एक अनौपचारिक बातचीत (जिसका जि़क्र बख्शी करते हैं) के अलावा कोई लेख नहीं है, और इस अनौपचारिक बातचीत का स्रोत भी बहुत विश्वसनीय नहीं है। माओ ने अपनी कृतियों में कई जगह ‘निषेध का निषेध’ के नियम का जि़क्र किया है। वहीं कुछ कृतियों में उन्होंने ‘अफ़र्मेशन’ व ‘निगेशन’ का इस्तेमाल किया है। हमें लगता है कि इस सवाल पर निर्णायक तौर पर बात करने के लिए गम्भीर शोध किये जाने की ज़रूरत है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद एक विश्व दृष्टिकोण है जो कि सतत् विकास से गुज़रता है। मार्क्स और एंगेल्स के बाद इसके विकास पर लेनिन ने गहन शोध-कार्य किया और यह कार्य उनके दौर के जीवन्त प्रश्नों और विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष के सन्दर्भ में हुआ। यह कार्य उनके द्वारा माखवादी दर्शन की आलोचना और उनकी दार्शनिक नोटबुक्स में देखा जा सकता है। लेनिन ने पहली बार ‘विपरीत तत्वों की एकता और संघर्ष’ यानी अन्तरविरोध के नियम को द्वन्द्ववाद का सबसे महत्वपूर्ण नियम बताया और साथ ही निषेध का निषेध के नियम को भी स्वीकार किया। माओ ने अन्तरविरोध के द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी सिद्धान्त को नयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया। इस प्रक्रिया में हर परिवर्तन सहज, सरल और सकारात्मक नहीं हो सकता था और न ही ऐसा हुआ। इस प्रक्रिया में स्तालिन, माओ या किसी से भी ग़लती हो सकती है। लेकिन यह कहना कि लेनिन, स्तालिन और माओ ने इस विषय में कोई चिन्तन नहीं किया या द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी दर्शन के विकास के कार्यभार को संजीदगी से नहीं लिया, श्री बख्शी द्वारा अपने भयंकर अज्ञान का प्रदर्शन है।

दीपक बख्शी इतिहास-अज्ञानता से इस क़दर ग्रसित हैं कि उनसे यह माँग करना बेमानी होगा कि वह ऐसा कोई ज्ञान प्रदर्शित करें। इतिहास की उपेक्षा करते हुए और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के विकास की द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया की उपेक्षा करते हुए अगर मान भी लें कि माओ और स्तालिन ने अपनी दार्शनिक कृतियों में ग़लत समझदारी के कारण ‘निषेध का निषेध’ मानने से इनकार कर दिया तो ”यह अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए सबसे अनपेक्षित और चौंका देने वाली घटना” कैसे बन गयी!? महान नेताओं व शिक्षकों और बोल्शेविक पार्टी, चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सरीखी महान पार्टियों की कई दार्शनिक व राजनीतिक अवस्थितियाँ ग़लत हो सकती हैं। इससे मार्क्सवाद में में संकट कैसे आ जायेगा? इस बात में यह मान्यता निहित है कि मार्क्सवादी नेताओं और महान पार्टियों के चिन्तन में कोई ग़लती नहीं होगी और यदि ऐसा होगा तो मार्क्सवादी दर्शन में ही संकट पैदा हो जायेगा। अगर दुनिया भर में कम्युनिस्ट आन्दोलन में लोग इस बात से घबरा जाते हैं कि उनके नेता व पार्टी ग़लत बोल सकते हैं या बोल रहे हैं और इससे मार्क्सवादी दर्शन में ही संकट पैदा हो जायेगा तब तो हमें कम्युनिज़्म को एक धर्म घोषित कर देना चाहिए और माओ व स्तालिन को इस कम्युनिस्ट धर्म के मसीहा! माओ और स्तालिन के दार्शनिक सवालों पर ग़लत होने से क्या उनके अन्य मार्क्सवादी सिद्धान्त या समूचा मार्क्सवादी दर्शन ही ग़लत या संकटग्रस्त साबित हो जाते हैं? निश्चित ही कोई कम्युनिस्ट नेता किसी पहलू पर ग़लत हो सकता है परन्तु इससे मार्क्सवादी दर्शन की सेहत पर असर नहीं पड़ता है।

वे आगे पेरू की कम्युनिस्ट पार्टी और नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा द्वन्द्व की व्याख्या में ‘निषेध का निषेध’ की व्याख्या न कर पाने या ग़लत व्याख्या करने का भी दोष माओ और स्तालिन पर मढ़ देते हैं। दीपक बख्शी की सारी बातों का सार यह  है : मार्क्स और एंगेल्स के बाद का मार्क्सवाद एक रुकावट का शिकार है। यह अनैतिहासिक दृष्टिकोण न सिर्फ़ ग़लत है बल्कि भयंकर रूप से अज्ञानतापूर्ण है।

4.2 बुर्जुआ दर्शन का हमला – श्री बख्शी की नौदौलतिया फ़लसफ़ाबाज़ी

बीसवीं सदी के मध्य से लेकर उत्तरार्द्ध तक प्रथम समाजवादी प्रयोगों के पतन के दौर में ही साम्राज्यवाद ने कई नयी विचार सरणियों को जन्म दिया, जिनमें उत्तरआधुनिकतावाद और उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्त प्रमुख हैं। इन सिद्धान्तों ने कोई नयी बात नहीं कही। इसने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में पैदा हुई कई मानवतावाद-विरोधी, तार्किकता-विरोधी विचारधाराओं से उधार लिया और नयी मानवद्रोही विचार सरणियों की रचना की। इनमें नीत्शे का मानवतावाद-विरोध और प्रबोधन व तार्किकता का विरोध, स्पेंगलर का प्रगतिवाद-विरोध, रूसी सर्वखण्डनवाद, नवकाण्टवादी अज्ञेयवाद, आदि का एक मिश्रण तैयार किया गया। 1960 के दशक से ही इन विचार सरणियों ने समाजवाद के प्रयोगों और मार्क्सवाद पर हमले करने शुरू किये। हर तरफ़ इतिहास के अन्त, कविता के अन्त, भौतिकी के अन्त आदि की बातें की जाने लगीं। ख़ुद क्रान्तिकारी दायरों में भी कुछ लोगों ने इस प्रभाव में बहकर ‘अन्त’ के सिद्धान्तकारों के सिद्धान्तों को मार्क्सवाद में मिलाने की कोशिश की व मार्क्सवादी दृष्टिकोण की मूल प्रस्थापनाओं पर ही सवाल खड़े करने शुरू कर दिये। ख़ास तौर पर बीसवीं शताब्दी की क्रन्तियाँ निशाना बनीं जिन्हें मार्क्सवाद से विचलन के तौर पर पेश किया गया और इस ‘विचलन’ के दौर में विकसित हुए मार्क्सवाद में संशोधन की माँग की जाने लगी।

आज भी ज़िज़ेक से लेकर एलन बेदियू जैसे उत्तरमार्क्सवादी सिद्धान्तकार मार्क्स, लेनिन और माओ पर सवाल खड़े करते हुए ये दावा कर रहे हैं कि मानव मुक्ति की परियोजना के लिए मार्क्सवाद की प्रासंगिकता एक दौर में थी, मगर वह अब ख़त्म हो चुकी है, या फिर यह कि बीसवीं सदी का समाजवाद एक ‘विपदा’ था और अब ‘कम्युनिस्ट विचार’ के लिए यह अपरिहार्य हो गया है कि वह जितनी जल्दी हो सके बीसवीं सदी की इन ‘विपदाओं’ के ‘हैंग-ओवर’ से मुक्त हो जाये। उत्तर-मार्क्सवादी वास्तव में वही काम कर रहे हैं जो कि एक दौर में उत्तरआधुनिकतावादी कर रहे थेः मार्क्सवाद के क्रान्तिकारी कोर पर हमला। जब उत्तरआधुनिकतावादियों के ये हमले क्रान्तिकारी मार्क्सवादियों के जवाबों और साथ ही पूँजीवादी संकट के गहराने के साथ बेकार हो गये, तो यही काम अब ‘रैडिकल’ जमातों के भीतर घुसकर उत्तर-मार्क्सवाद कर रहा है। इस उत्तर-मार्क्सवादी ऑफ़ेंसिव में भी कुछ नया नहीं है, बस पुराने अज्ञेयवाद, लकानियन मनोविश्लेषण के एक विशेष संस्करण, नीत्शेवाद, आदि का एक नये क़ि‍स्म का मिश्रण है जो कि ‘रैडिकल पैकेजिंग’ में पेश किया जा रहा है क्योंकि उत्तरआधुनिकतावाद गम्भीर अकादमिकों के बीच में भी एक चुटकुला बन चुका है। परन्तु दीपक बख्शी के लिए यह चुटकुला नहीं है बल्कि मार्क्सवाद में संकट की अभिव्यक्ति है। वे हाइज़ेनबर्ग के हमले के साथ अन्य प्रचलित प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों का भयानक विवरण पेश करते हैं :

”हाइजे़नबर्ग का सिद्धान्त कोई पृथक्कृत सिद्धान्त नहीं है, बल्कि यह इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक समकालीन भाषाशास्त्र और दर्शन में प्रचलित प्रभावी प्रतिक्रियावादी सिद्धान्तों का हिस्सा है। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से ही बुर्जुआ विचारधारा का ज्ञान के हर क्षेत्र में दबदबा था और हाइज़ेनबर्ग के इस दर्शन को भी इसी से जोड़ कर देखा जाना चाहिए, जो विज्ञान की दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली आदर्शवादी विचार है। अगर हाइडेगर शिलिंग की मशाल देरिदा को थमाते हैं तो हाइजे़नबर्ग भी विज्ञान की दुनिया में उसी स्कूल से शिक्षा लेते हैं। हाइडेगर और हाइजे़नबर्ग के राजनीतिक जीवन में के बीच गहरी समरूपता है, दोनों ही हिटलर के सक्रि‍य समर्थक थे।

”कमज़ोरी आखिरी सदी के तीसरे दशक से महसूस की जा सकती है। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की दोनों बड़ी पार्टियों में से किसी ने भी मार्क्सवासी सिद्धान्त पर हाइडेगर, हाइजे़नबर्ग, लूकाच, अल्थूसर आदि द्वारा किये जा रहे प्रचण्ड आक्रमणों का न ही कोई जवाब देने का प्रयास किया और न ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की।

”कामरेड स्तालिन और कामरेड माओ ने लेनिन की मृत्यु के बाद बुर्जुआ दार्शनिकों के हमले के ख़िलाफ़ कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं किया।” (वही, अनुवाद हमारा)

दीपक बख्शी हाइज़ेनबर्ग, हाइडेगर और देरिदा की विचारधाराओं के प्रचण्ड दबदबे से भयाक्रान्त हैं। उनके अनुसार इनका कोई जवाब नहीं दिया गया। यह दावा उनकी भयंकर अज्ञानता को ही प्रदर्शित करता है। वे इन विचारधाराओं को पढ़कर भयाक्रान्त हो गये हैं और इस कारण मार्क्सवाद में संकट की घोषणा करते हैं। दीपक बख्शी के उपरोक्त कथनों में ज़रा भी सच्चाई नहीं है। हाइज़ेनबर्ग के उदाहरण में हम उनकी अज्ञानता की विस्तार से विवेचना कर चुके हैं। जिस प्रकार उत्तरआधुनिकतावादी आलोचनाओं के दौर में मार्क्सवाद में ‘संकट’ का शोर मचा था, उसी प्रकार आज भी दीपक बख्शी सरीखे ‘आउट-डेटेड’ राजनीतिक नौदौलतिए मार्क्सवाद में ‘संकट’ का शोर मचा रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन आज संकट का शिकार है। मगर क्या मार्क्सवादी विचारधारा संकट का शिकार है? इन नये हमलों में क्या नया है जिनका जवाब मार्क्सवादी विचारधारा ने पेश नहीं किया है? परन्तु दीपक बख्शी से इन जवाबों की उम्मीद रखना ही बेमानी है क्योंकि उनके विचार जगत में यह जानकारी मौजूद नहीं है। और दीपक बख्शी के लिए ‘इग्नोरेन्स इज़ द ऑरग्युमेण्ट’ यानी अज्ञानता ही तर्क है।

4.3 दीपक बख्शी की अप्रत्यक्ष राजनीतिक अवस्थिति

बख्शी के अनुसार, मुख्य प्रश्न ‘चेतना का प्रश्न’ है जो कि दार्शनिक सवाल है और मार्क्सवादी दर्शन का सीधा सम्पर्क प्राकृतिक विज्ञान से है। इन्हीं प्रश्नों पर अपनी ग़लत समझदारी के कारण लेनिन, स्तालिन और माओ ने मार्क्सवाद के ग़लत सिद्धान्तों को जन्म दिया जिसके कारण मार्क्सवाद संकट में है और पूरा कम्युनिस्ट आन्दोलन संकट में है। इस बात को ही पुष्ट करते हुए दीपक बख्शी माओ और स्तालिन के दार्शनिक लेखों को द्वन्द्ववाद के नियमों से दूर पाते हैं जो कि मार्क्स और एंगेल्स ने दिये थे। परन्तु इस बौद्धिक सर्कस के ज़रिये जाने या अनजाने दीपक बख्शी का यान्त्रिक श्रृंखला नियम वास्तव में अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी अवस्थिति की अप्रत्यक्ष तौर पर सेवा करता है। हालाँकि वे खुलकर कहीं यह व्यक्त नहीं करते हैं परन्तु कुछ जगह वे इशारों में बात करते हैं। बकौल दीपक बख्शी – ”विश्व इतिहास की अद्वितीय घटनाएँ; रूसी और चीनी क्रान्तिकारी सत्ता अधिग्रहण और ‘समाजवाद’ को क़ायम करने लिए हुए संघर्षों के अनुभव का पूँजी और ड्यूहरिंग मत खण्डन के प्रकाश में उच्चतम वस्तुपरकता एवं उद्यम से पुनर्मूल्यांकन करना चाहिए।”

‘वैचारिक संघर्ष के विस्तृत कार्यक्रम के कार्यभार’ के चौथे बिन्दु में बख्शी लिखते हैं-

”समाजवादी संक्रमणकाल की अवधि में ‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ और ‘सर्वहारा जनवाद’ के बीच के द्वन्द्वात्मक रिश्ते का” तथा ”कम्युनिस्ट पार्टी में ‘जनवादी केन्द्रीयता’ के व्यवहार में ‘केन्द्रीयता’ और ‘सर्वहारा जनवाद’ के एक दूसरे में अन्तर्भेदन और रूपान्तरण की उचित प्रकृति और चरित्र का, राज्यसत्ता पर कब्जे़ से पहले और बाद में कम्युनिस्ट पार्टी और सर्वहारा के बीच के अन्तरसम्बन्ध का… गहन रूप से विश्लेषण और पुनःनिरीक्षण करना आवश्यक है।” (वही, अनुवाद हमारा)

अपने सम्पूर्ण लेख में मार्क्सवाद में संकट की रोशनी में प्राकृतिक विज्ञान के अध्ययन अलावा वे जिन सिद्धान्तों का  ”गहन रूप से विश्लेषण और पुनःनिरीक्षण करने” की बात करते हैं वे जनवादी केन्द्रीयता व ‘सर्वहारा का अधिनायकत्व’ हैं। समाजवादी प्रयोगों को ”समाजवाद के प्रयास” बनाने की यह अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की राजनीतिक छलाँग बख्शी प्राकृतिक विज्ञान-दर्शन-सिद्धान्त की यान्त्रिक श्रृंखला के स्प्रिंग से सम्भव करते हैं। ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ पत्रिका के अन्य लेख ज़्यादा खुले तौर पर अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी समझदारी व्यक्त करते हैं। वहीं बख्शी की ‘प्राकृतिक विज्ञान – मार्क्सवादी दर्शन – मार्क्सवादी सिद्धान्त’ यान्त्रिक श्रृंखला अप्रत्यक्ष रूप से इस राजनीति की सेवा करती है। उपरोक्त उद्धरण में हम देख सकते हैं कि श्री बख्शी मार्क्सवाद-लेनिनवाद की बुनियादी शिक्षाओं के बारे में भी किस कदर भ्रमित हैं। मिसाल के तौर पर, ‘जनवादी केन्द्रीयता’ की अवधारणा को एक योगात्मक अवधारणा बना दिया गया है, जिसके अनुसार इसमें केन्द्रीयता और सर्वहारा जनवाद के ”एक-दूसरे में अन्तर्भेदन” की बात की गयी है। जनवादी केन्द्रीयता के विषय में इससे ज़्यादा हास्यास्पद क्या हो सकता है? उसी प्रकार सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की भी ऐसी ही योगात्मक और अधिभूतवादी अवधारणा पेश की गयी है। लेकिन अभी हम इन भ्रमों के खण्डन में नहीं जा सकते हैं।

दीपक बख्शी के इस लेख के विषय में बहुत-कुछ लिखना पड़ेगा अगर हम इसकी एक-एक अज्ञानता और मूर्खता का खण्डन करें। हमने केवल उनकी अज्ञानताओं में अन्तर्निहित बुनियादी तर्क (मेथड इन मैडनेस) का खण्डन किया है। श्री बख्शी इतिहास से अनभिज्ञ हैं, यान्त्रिकतावादी हैं और नौदौलतिया फ़लसफ़ेबाज़ी के शिकार हैं। इस यान्त्रिकता के चलते ही वे मार्क्सवादी दर्शन की प्राकृतिक विज्ञान पर निर्भरता का सम्बन्ध खोज निकलते हैं जिसके आधार पर वह मार्क्सवादियों द्वारा दार्शनिक व्याख्या में ग़लती ढूँढ़कर पूरे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के लिए संकट घोषित कर देते हैं। इस प्रकार का बड़बोलापन केवल उनकी आधी-अधूरी पढ़ाई और भयंकर अज्ञानता को ही प्रदर्शित करता है।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रसायनशास्त्र विभाग में शोधार्थी हैं)

सन्दर्भ सूचीः

    1. डायलैक्टिक्स ऑफ़ नेचर – फ़्रेडरिक एंगेल्स
    2. ड्यूहरिंग मत खण्डन – फ़्रेडरिक एंगेल्स
    3. मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स – खण्ड 1
    4. मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स – खण्ड 2
    5. मार्क्स-एंगेल्स, कलेक्टेड वर्क्स – खण्ड 3
    6. लुडविग फ़ायरबाख और क्लासिकल जर्मन दर्शन का अन्त – फ़्रेडरिक एंगेल्स
    7. फि़लोसोफ़ि‍कल नोटबुक्स – व्लादीमिर लेनिन
    8. कार्ल मार्क्स और उनकी शिक्षा – व्लादीमिर लेनिन
    9. मैटिरियलिज़्म एण्ड इम्पीरियो क्रिटिसिज़्म – व्लादीमिर लेनिन
    10. द जर्मन आइडियोलॉजी – मार्क्स-एंगेल्स
    11. अन्तरविरोध के बारे में – माओ त्से तुङ
    12. क्यों माओवाद – शशि प्रकाश
    13. सोवियत समाजवाद के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ, दिशा सन्धान (1, 2, 3, व 4) – अभिनव सिन्हा
    14. मैटिरियलिज़्म और काण्टियनिज़्म – जी. प्लेखानोव
    15. पूँजी, खण्ड-1 – कार्ल मार्क्स
    16. मार्क्सिस्ट फ़ि‍लोसोफ़ी एण्ड द प्रोब्लम ऑफ़ डेवलपमैन्ट ऑफ़ मार्क्सिस्ट थियरी, मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन, दीपक बख्शी
    17. हिस्ट्री एण्ड क्लास कान्शियसनेस – जी. लूकाच
    18. ए डिफ़ेन्स ऑफ़ हिस्ट्री एण्ड क्लास कान्शियसनैस-टैलिस्म एण्ड डायलैक्टिक – जी. लूकाच
    19. मार्क्सिज़्म एण्ड द फ़ि‍लोसोफ़ी ऑफ़ साइन्सः ए क्रिटिकल हिस्ट्री – हेलेना शीहेन
    20. संकलित रचनाएँ – माओ त्से तुङ
    21. होली फ़ैमिली, ए क्रिटिक ऑफ़ क्रिटिकल क्रिटिसिज़्म – मार्क्स-एंगेल्स
    22. द एसेन्शियल स्तालिनः मेजर थियरेटिकल राइटिंग्स, 1905-52 – सं. ब्रूस फ़्रैंकलिन
    23. क्राइसिस इन फ़ि‍ज़िक्स – क्रिस्टोफ़र कॉडवेल
    24. फ़ि‍ज़िक्स एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी – वर्नर हाइजे़नबर्ग
    25. क्राइसिस इन फिज़िक्स, (साइंस एण्ड सोसाइटी) – हान्स फ़्रेस्टाट
    26. सोवियत मार्क्सिज़्म एण्ड नैचुरल साइंस – डेविड ज़ोराव्स्की
    27. मार्क्स एण्ड मैथेमैटिक्स – डर्क जे. स्ट्रुइक
    28. द थियरी ऑफ़ स्पेस, टाइम एण्ड ग्रेविटेशन – व्लादीमिर फ़ॉक
    29. द प्रेजे़ण्ट स्टेट ऑफ़ द प्रॉब्लम ऑफ़ ‘मार्क्सिज़्म एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी’ – एन एण्टी क्रिटिक – कार्ल कोर्श
    30. ड्रीम्स अॅाफ़ ए फ़ाइनल थियरी – स्टीवन वेनबर्ग
    31. 100 इयर्स ऑफ़ क्वाण्टम मिस्ट्रीज़ – मैक्स टेगमार्क व जॉन आर्किबाल्ड वीलर
    32. लाॅजिक एण्ड फ़ॅारमेशन ऑफ़ क्वाण्टम मैकेनिक्स – ताकेतानी
    33. बियोण्ड द होक्सः साइंस, फ़ि‍लोसोफ़ी एण्ड कल्चर – एलन सोकल
    34. पोस्ट मॉडर्निज़्म डिसरोब्ड – रिचर्ड डाकिन्स
    35. मार्क्सिज़्म एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी – कार्ल कोर्श
    36. ऑन मैटिरियलिज़्म – सबैस्चिएनो टिम्पानारो
    37. क्वाण्टम मैकेनिक्स – ब्लोखिन्स्तेव
    38. द फ़ि‍लोसोफ़ी ऑफ़ क्वाण्टम मैकेनिक्स – मैक्स जैमर
    39. डायलैक्टिक्स इन मॉडर्न फ़ि‍ज़ि‍क्स – ओमेल्यानोव्स्की
    40. रेडिकलाइजे़शन अॅाफ़ साइंस – हिलेरी एण्ड स्टीवन रोज़
    41. साइंस एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी इन सोवियत यूनियन – एल.आर. ग्राहम
    42. द सोशल फ़ंक्शन ऑफ़ साइंस – जे. डी. बरनाल
    43. साइंस इन हिस्ट्री (चार खण्डों में) – जे. डी. बरनाल
    44. द ट्रबल विद फ़ि‍ज़ि‍क्स – ली स्मोलिनी
    45. द हिस्टोरिकल डेवेलपमेन्ट ऑफ़ क्वाण्टम मैकेनिक्स (सभी खण्ड) – जगदीश मेहरा
    46. द स्ट्रक्चर ऑफ़ साइंटिफिक रिवोल्युशन्स – थॉमस कुन
    47. मार्क्सेज़ इकोलॉजी – जॉन बेलैमी फ़ॉस्टर
    48. क्लासिकल एण्ड नॉन-क्लासिकल कॉनसेप्ट्स इन क्वाण्टम थियरी, एन आन्सर टू हाइजे़न्बर्ग्स फ़ि‍ज़िक्स एण्ड फ़ि‍लोसोफ़ी, द ब्रिटिश सोसाइटी फ़ॉर द फिलोसोफ़ी ऑफ़ साइंस – डेविड बोहम
    49. फि़फ़्थ कांग्रेस ऑफ़ द कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल – पब्लिश्ड बॅाय कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ ग्रेट ब्रिटेन
    50. क्वाण्टम मैकेनिक्स एज़ ए बेसिस ऑफ़ फ़ि‍लोसोफ़ी – जे.बी.एस. हाल्डेन
    51. इज़ थियरेटिकल फ़ि‍ज़ि‍क्स इन क्राइसिस, सर्न डाक्युमेण्ट सर्वर – हैरिएट जारलैट
    52. मार्क्स, माओ एण्ड मैथेमैटिक्स, द पॉलिटिक्स ऑफ़ इन्फ़ाइनाट्स्मल्स, डाक्युमेन्टा मैथेमेटिका, एक्स्ट्रा वाल्युम आईसीएम – जोसेफ़ डॉबेन
    53. सप्लिमेन्ट ऑफ़ प्रोग्रेस ऑफ़ थियरेटिकल फ़ि‍ज़ि‍क्स, वाल्यूम 50, 1971

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित