दिशा सन्धान : एक बेहद महत्वपूर्ण नयी वैचारिकी
मार्क्सवादी सैद्धान्तिक शोध एवं विमर्श का मंच
साथियो!
हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। पहले रूस में और फिर चीन में संशोधनवादियों के सत्ता में आने के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर पूँजी की शक्तियाँ निर्णायक तौर पर श्रम की शक्तियों पर हावी हो चुकी थीं। प्रतीतिगत धरातल पर जो छद्म समाजवादी सत्ताएँ बची हुर्इं थी, 1960 के दशक से पूर्वी यूरोप में उनके बिखरने की जो प्रक्रिया शुरू हुर्इ उसकी पराकाष्ठा 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आ गयीं। इन संशोधनवादी सत्ताओं के पतन के साथ और 1976 में चीन के खुले तौर पर पूँजीवादी रास्ते को अख़तियार करने के साथ पूँजीवादी विजयवाद का एक दौर शुरू हुआ। तरह-तरह के रुग्ण और अन्तवादी सिद्धान्त पेश किये जाने लगे। फ्रांसिस फुकुयामा ने समाजवादी प्रयोगों की असफलता को उदार पूँजीवादी जनतन्त्र की अन्तिम विजय करार दिया और ‘इतिहास के अन्त’ की घोषणा कर दी तार्किक निर्णय करने वाले बुर्जुआ व्यक्ति को अन्तिम मनुष्य घोषित कर दिया गया। दर्शन के धरातल पर उत्तर-विचार सरणियों का बोलबाला हो गया जो किसी भी प्रकार की मुक्तिकामी परियोजना को महाख्यान कहकर ख़ारिज कर रही थीं। ऐसी विचारधाराओं का अंकुरण तो वस्तुत: 1960 के दशक से ही होने लगा था, जब सोवियत संघ में संशोधनवादी सत्ता आयी थी और शीत युग के दौरान शुरू हो गया था, जिसने अमेरिकी साम्राज्यवाद और सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के बीच प्रतिस्पर्धा और साथ ही जनता के सभी आन्दोलनों के खिलाफ़ इन दोनों महाशक्तियों के अपवित्र प्रणय को भी देखा। लेकिन 1990 में सोवियत संघ में नकली लाल झण्डे के गिरने के साथ ये विचार सरणियाँ दार्शनिक, अकादमिक से लेकर राजनीतिक हलकों तक में छा गयीं। न सिर्फ़ भाड़े के बुद्धीजीवियों ने इसकी फेरी लगानी शुरू कर दी, बल्कि तमाम भूतपूर्व वामपंथी चिन्तकों आदि ने भी दर्शनान्तरण कर लिया! कहीं भी क्रान्ति, परिवर्तन, मार्क्सवाद की बात करना अपनी खिल्ली उड़वाने का पर्याय बन गया। विश्व पैमाने पर श्रम की ताक़तें आन्दोलनों और संघर्षों में भी पीछे धकेल दी गयीं और इसी का प्रतिबिम्बन वैचारिक-राजनीतिक जगत में भी हो रहा था।
लेकिन नयी सहस्राब्दि की शुरुआत से ही इस उन्मादपूर्ण पूँजीवादी विजयवाद ने हिचकियाँ लेनी शुरू कर दीं थीं। इस सहस्राब्दि की शुरुआत के साथ जो मन्द मन्दी डाट काम बुलबुले के फूटने और फर हाउसिंग बुलबुले के फूटने के साथ अमेरिका में शुरू हुर्इ, उसने धीरे- धीरे समूचे पूँजीवादी विश्व को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया। 2007 की शुरुआत में शुरू हुए विश्व आर्थिक संकट ने विलम्बित ताल में बज रहे मन्दी के हताशापूर्ण संगीत को द्रुत ताल में बजने वाले विनाशकारी संगीत में तब्दील कर दिया। 2009-10 तक यह मन्दी पूर्व की ओर स्थानान्तरित होते हुए यूरोप तक आ पहुँची और अब इसकी धमक उन अर्थव्यवस्थाओं में भी सुनायी दे रही है, जिन्हें बुर्जुआ अर्थशास्त्री विश्व पूँजीवाद की नैया का तारणहार मान रहे थे, यानी चीन, भारत, दक्षिण अफ्रीका, आदि की तथाकथित ‘उभरती हुर्इ’ अर्थव्यवस्थाएँ। यह संकट एक उलझे हुए ऐसे ऊन के गोले के समान पूँजीवादी व्यवस्था के नियन्ताओं के सामने पड़ा हुआ है, जिसका कोर्इ भी छोर दिखलायी नहीं दे रहा है। प्रत्यक्षत: उन्होंने मुनाफ़े की हवस में पागल होकर एक ऐसी वैश्विक व्यवस्था का निर्माण कर दिया है जिसे वे खु़द नहीं समझ पा रहे हैं। उनमें से कुछ तो अपनी बनायी इस व्यवस्था को समझने के लिए मार्क्स को पढ़ने की नसीहतें भी देने लगे हैं!
जाहिर है, पूँजीवादी विजयवाद की चीख-चीत्कार अब सर्वव्यापी आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक संकट की कड़कड़ाती ठण्ड से बिलबिलाए हुए कुत्ते की कूँ-कूँ में तब्दील हो चुकी है। हमेशा की तरह पूँजीवादी सरकारें सारी दुनिया में अपने द्वारा पैदा किये गये संकट का बोझ आम ग़रीब और मेहनतकश जनता पर डाल रही है और इसके खि़ालाफ़ सारी दुनिया में जनता सड़कों पर उतर रही है और स्वत:स्फूर्त आन्दोलन और विद्रोह कर रही है। मज़दूरों, आम ग़रीब किसानों, छात्रों-युवाओं और स्त्रियों के आन्दोलनों में भारी बढ़ोत्तरी हुर्इ है। आर्थिक संकट ने पूँजीवाद के लिए एक राजनीतिक और सामाजिक संकट पेश करना शुरू कर दिया है। इसीलिए हमने कहा कि हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। पिछले तीन-चार दशकों से जारी सन्नाटा टूट रहा है।
लेकिन यह समूची स्थिति का केवल एक पहलू है। पूँजीवाद का संकट ख़तरनाक हदों तक जा रहा है, इसका यह अर्थ नहीं कि क्रान्तिकारी वामपंथी आन्दोलन का संकट समाप्त हो गया है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की विचारधारा की बुर्जुआ विचारधारा पर वैज्ञानिक तौर पर विजय तो बहुत पहले ही निर्णायक तौर पर हो चुकी थी। जब पूँजीवादी विजयवाद का दौर जारी था, तभी तमाम मार्क्सवादी चिन्तकों और संगठनों ने उत्तरवादी विचारसरणियों की धज्जियाँ उड़ाते हुए साबित किया था, कि उनमें नया कुछ भी नहीं है और वह क्वाण्टम विज्ञान की नवकाण्टीय व्याख्याओं से पुनर्जीवन प्राप्त अज्ञेयवाद, 19वीं सदी के सर्वखण्डनवाद, नीत्शे व स्पेंग्लर के मानवतावाद-विरोध, अराजकतावाद आदि जैसी विचारधाराओं के विचित्र मिश्रण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था, जिसे फ्रांसीसी नवदार्शनिकों की फैशनपरस्त शब्दावली में परोसा जा रहा था। इन विचारधाराओं को मार्क्सवाद बहुत पहले ही वैचारिक तौर पर खणिडत कर चुका था और इनका जवाब देने के लिए मार्क्सवादी दार्शनिकों और चिन्तकों को कोर्इ नया आविष्कार नहीं करना था। सिप़र्फ पिछली सदी की बहसों की जानकारी ही पर्याप्त थी। इसलिए विचारधारात्मक धरातल पर मार्क्सवाद के समक्ष कोर्इ संकट नहीं था, बस नयी परिसिथतियों द्वारा पेश कुछ नये सवाल थे, जिनका कोर्इ भी वैज्ञानिक विचारधारा स्वागत करेगी, क्योंकि ये नये सवाल ही तो किसी भी विज्ञान की प्राणदायी शक्ति होते हैं।
लेकिन यह भी सच है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के सामने एक संकट खड़ा था। और एक रूप में वह संकट आज भी खड़ा है। क्रान्तिकारी शकितयाँ पूँजीवादी विजयवाद के दौर में पस्तहिम्मत और निराश थीं, उन्हें पीछे धकेल दिया गया था। मज़दूर आन्दोलन में एक सन्नाटा पसरा हुआ था, और इसी माहौल में कुछ बुद्धीजीवी और संगठन धुरीविहीन मुक्त चिन्तन करते हुए, जाने या अनजाने विचारधारात्मक समझौते करने की हदों तक जा पहुँचे थे, जबकि यह समय था जब अपने बुनियादी विचारों पर मज़बूती से अटल रहा जाय। बहरहाल, वह दौर अब बीत चुका है और तमाम लोग जो इस दौर में क्रानितकारी विचारधारा से दूर चले गये थे, वे वापस भी लौट रहे हैं। चारों तरफ़ ‘मार्क्सवाद के पुनरुत्थान’, ‘मार्क्स की वापसी’ आदि की बातें हो रही हैं। यह दीगर बात है कि हममें से बहुत इन ‘पुनरुत्थानों और वापसियों’ को मार्क्स और मार्क्सवाद की बजाय किसी और ही चीज़ की वापसी और पुनरुत्थान मान सकते हैं। फिर भी इतना तो तय है कि पूँजीवादी संकट के साथ वैचारिक, राजनीतिक और अकादमिक दायरों में भी माहौल बदला है। लेकिन इन सबके बावजूद जो संकट अभी भी हमारे सामने खड़ा है वह यह है: एक तरफ़ पूँजीवादी विश्व व्यवस्था महामन्दी के बाद सबसे भयंकर मन्दी की चपेट में है, और आकार-प्रकार में वैसी न होने के बावजूद एक रूप में यह मन्दी ज़्यादा ढाँचागत, ज़्यादा स्थायी और ज़्यादा भयंकर है। पिछली महामन्दी के बाद जो तेज़ी आयी थी, वैसी कोर्इ तेज़ी अब नहीं आने वाली भूमण्डलीकरण के दौर में अब वैसी ‘रिकवरी’ सम्भव ही नहीं है और 1970 के दशक की शुरुआत से ही पूँजीवादी विश्व ने कोर्इ तेज़ी का दौर नहीं देखा है। यह भी सच है कि जनता स्वत:स्फूर्त रूप से सड़कों पर उतर रही है और आन्दोलनों में मौजूद सन्नाटा टूट रहा है। लेकिन यह भी सच है कि क्रानितकारी खेमा दुनिया के पैमाने पर कोर्इ व्यावहारिक विकल्प पेश नहीं कर पा रहा है। कहीं पुरानी क्रान्तियों की पुनरावृत्ति करने का अतीतग्रस्त हठ मौजूद है, तो कहीं पुरानी क्रान्तियों और उनके प्रयोगों को सिरे से ख़ारिज कर देने और फिर से शून्य से नयी शुरुआत करने का अनैतिहासिक आग्रह। एक तरफ़ कठमुल्लावाद का छोर मौजूद है, तो दूसरी तरफ़ धुरीविहीन मुक्त चिन्तन का। तमाम ऐसे लोग भी हैं जो इन छोरों से अलग रचनात्मक तरीके से सोच-विचार रहे हैं, अतीत के समाजवादी प्रयोगों का विश्लेषण-समाहार कर रहे हैं, पूँजीवादी विश्व व्यवस्था की कार्य-प्रणाली में आये बदलावों का अध्ययन कर रहे हैं और नये समाजवादी प्रयोगों का नक्शा बनाने का प्रयास कर रहे हैं। एक राजनीतिक-वैचारिक अस्पष्टता और अपूर्णता की सिथति है। कोर्इ बना-बनाया विकल्प और कोर्इ पहले से तैयार राजनीतिक ताक़त मौजूद नहीं है जो कि मौजूदा जनउभारों को एक सही दिशा देकर क्रान्ति की तरफ़ मोड़ सके। ऐसे में एक विडम्बनापूर्ण सिथति पैदा हो गयी है। एक तरफ़ पूँजीवादी व्यवस्था असमाधेय संकटों से घिरी हुर्इ है और पहले हमेशा से ज़्यादा खोखली, मानवद्रोही और तमाम सैन्य शक्तिमत्ता के बावजूद अन्दर से कमज़ोर हो चुकी है, और केवल जड़त्व की शक्ति से टिकी हुर्इ है। लेकिन दूसरी तरफ़ श्रम का खेमा भी विचारधारात्मक विभ्रम, बिखराव और अस्पष्टता का शिकार है और स्वयं एक प्रकार के राजनीतिक संकट का शिकार है। और इस संकट के बीच जनता के स्वत:स्फूर्त आन्दोलन हो रहे हैं। और इसी व्यापक विचारधारात्मक, राजनीतिक और सामाजिक माहौल में हम ‘दिशा सन्धान’ के प्रस्ताव को लेकर आपके बीच उपस्थित हैं।
हमारा मानना है कि संक्रमण का यह दौर खुलकर सोचने, बहस-मुबाहसा करने, आन्दोलन और विचारधारा के सवालों पर सकर्मक विमर्श करने का है। यह समय है कि ऐसे सभी लोगों के बीच एक सही विचारधारात्मक, राजनीतिक अवस्थिति के नि:सरण के लिए खुले विचारधारात्मक-राजनीतिक विनिमय, विमर्श और बहस-मुबाहसे का आयोजन किया जाय, जो अभी भी संशयवाद के हामी नहीं बने हैं, जो अभी भी किसी क्रान्तिकारी परियोजना के साथ हैं और उसके प्रति एक वैज्ञानिक आशावाद रखते हैं और जिन्होंने ऐसी क्रान्तिकारी परियोजना के साथ किसी न किसी रूप में खड़े होने के संकल्प को छोड़ा नहीं है। हम विनम्रता के साथ ऐसे सभी साथियों के बीच एक संवाद स्थापित करने के प्रस्ताव के साथ उपसिथत हैं।
हमें लगता है कि हिन्दी जगत में एक ऐसी गम्भीर वैचारिक पत्रिका की ज़रूरत लम्बे समय से महसूस की जा रही है। यह पत्रिका मार्क्सवादी विचारधारा गम्भीर और विवादित प्रश्नों को उठायेगी और उन पर खुले विचार-विमर्श को आगे बढ़ायेगी। हमारा इरादा है कि इसके हर अंक को हम गम्भीर वैचारिक मुददों पर केनिद्रत शोधपरक निबन्धों के एक संकलन के रूप में पेश करें। हर अंक में तीन से चार शोधपरक निबन्ध होंगे। हम इन शोधपरक निबन्धों पर आने वाली आलोचनाओं को भी प्रकाशित करेंगे और उन पर लम्बी बहसों को स्थान देंगे। इसके अतिरिक्त, पत्रिका में कुछ अन्य लेख और समसामयिक मुददों पर टिप्पणियाँ भी होंगी। हमारा प्रयास होगा कि हर वर्ष इसके कम-से-कम तीन अंक प्रकाशित किये जायें और प्रत्येक अंक लगभग 250 पृष्ठों का हो। यह पत्रिका वास्तव में उसी परियोजना की निरन्तरता में है, जिसे ‘दायित्वबोध’ नामक पत्रिका चला रही थी। हम सभी उस परियोजना के भागीदार थे। लेकिन 2008 में पत्रिका के सम्पादक मण्डल के एक प्रमुख सदस्य साथी अरविन्द के निधन के बाद ‘दायित्वबोध’ का प्रकाशन जारी नहीं रह सका। हाल ही में, पत्रिका के प्रधान सम्पादक साथी विश्वनाथ मिश्र का भी आकस्मिक निधन हो गया। हम लम्बे समय से इस परियोजना को नये ढंग से पुनर्जीवित करने के बारे में सोच रहे थे और अब हम इसे कुछ नये संकल्पों के साथ शुरू कर रहे हैं।
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सम्पादक, ‘दिशा सन्धान’
69 ए-1, बाबा का पुरवा
पेपर मिल रोड, निशातगंज,
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क्रानितकारी अभिवादन के साथ,
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दिशा सन्धान
सम्पादकः कात्यायनी, सत्यम
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