माकपा के भीतर फ़ासीवाद पर बहस – चुनावी जोड़-जुगाड़ के लिए सामाजिक जनवाद की बेशर्म क़वायद
- आनन्द सिंह
हाल ही में संसदीय वामपन्थ की सिरमौर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के भीतर प्रकाश करात धड़े और सीताराम येचुरी धड़े के बीच फ़ासीवाद पर चल रही बहस सुर्ख़ियों में रही। ग़ौरतलब है कि फ़ासीवाद जैसे गम्भीर मुद्दे पर सामाजिक जनवाद की दो धाराओं के बीच की इस बहस का केन्द्र बिन्दु यह है कि चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबन्धन बनाया जायेे या नहीं। संसद के सुअरबाड़े में लोट लगाने के लिए अपने रहे-सहे कोने के भी छिनने की सम्भावना से तिलमिलाये सामाजिक जनवादी आने वाले चुनावों में अपनी लुटिया डूबने से बचाने के लिए जोड़-जुगाड़ के मौक़े तलाशने की क़वायद में लगे हैं। बेशर्मी भरी इस क़वायद पर गम्भीरता का आवरण डालने के लिए वे इसे फ़ासीवाद पर बहस का नाम दे रहे हैं। मज़दूर वर्ग के इन विश्वासघातियों से इससे ज़्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन चूँकि इस क़वायद की आड़ में ये सामाजिक जनवादी फ़ासीवाद को लेकर भ्रम का धुँआ छोड़ रहे हैं इसलिए इस पर स्पष्टता बेहद ज़रूरी है।
प्रकाश करात का वैचारिक दिवालियापन: फ़ासीवाद नहीं निरंकुशता
गुज़रे 6 सितम्बर को अंग्रेज़ी दैनिक ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ में लिखे अपने एक लेख में माकपा के पोलित ब्यूरो सदस्य और पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने दलील दी कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने के बाद भी भारत में फ़ासीवाद की कोई सम्भावना नहीं है, हालाँकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) से सम्बन्ध रखने की वजह से वह समय आने पर निरंकुश राज्यसत्ता थोप सकती है। संघ परिवार को क्लीन चिट देते हुए करात लिखते हैं कि भाजपा फ़ासीवादी पार्टी नहीं है बल्कि वह बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिकता से लैस एक दक्षिणपन्थी पार्टी है। करात के अनुसार आर.एस.एस. की विचारधारा भी फ़ासीवादी नहीं बल्कि अर्द्ध-फ़ासीवादी है, हालाँकि वे इसका कोई कारण बताने की जहमत नहीं उठाते कि इस विचारधारा को फ़ासीवादी क्यों न कहा जाये। ज़ाहिरा तौर पर फ़ासीवाद के सन्दर्भ में करात के ज्ञानचक्षु हाल ही में खुले हैं, क्योंकि इस लेख से पहले तक माकपा के तमाम प्रकाशनों में संघ व भाजपा को फ़ासीवादी ही कहा जाता रहा है।
करात के इस लेख को पढ़ने से सामाजिक उथल-पुथल से दूर अपने आरामगाह में बैठे एक कुर्सीतोड़ नौकरशाह बुद्धिजीवी की निश्चिन्तता साफ़ उभरकर आती है। नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल के ढाई वर्षों में जिस तरह से संघ परिवार ने पूरे देश में भय और आतंक का माहौल लगातार बनाया हुआ है, जिस तरीक़े से मज़दूरों के अधिकार छीने जा रहे हैं और जनता के जनवादी अधिकारों पर धड़ल्ले से हमले हो रहे हैं, जिस क़दर अन्ध-राष्ट्रवादी जुनून सुनियोजित ढंग से पूरे देश में फैलाया जा रहा है, जिस तरह से संघी गुण्डावाहिनियाँ अल्पसंख्यकों, दलितों, प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और भाजपा व मोदी के प्रति आलोचनात्मक दृष्टि रखने वालों पर हमले कर रही हैं, जिस तरह से नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिपूजा की संस्कृति फल-फूल रही है उसे देखने के बाद भी अगर कोई व्यक्ति फ़ासीवाद की आहट तक नहीं सुन पा रहा है तो उसे निठल्ला नौकरशाह बुद्धिजीवी नहीं तो और क्या कहा जाये!
अपने निश्चिन्त नतीजे के पक्ष में दलील देते हुए करात 1935 में हुई कोमिण्टर्न की सातवीं कांग्रेस द्वारा दिये गये सूत्रीकरण को उद्धृत करते हैं जिसमें कहा गया था कि ”फ़ासीवाद वित्तीय पूँजी के सबसे प्रतिक्रियावादी, सबसे अन्धराष्ट्रवादी, सबसे साम्राज्यवादी तत्वों की खुली आतंकी तानाशाही होती है”। करात के अनुसार भारत में ऐसी आर्थिक, राजनीतिक व वर्गीय परिस्थितियाँ नहीं हैं और इस समय ऐसा कोई संकट नहीं है जिससे पूँजीवादी व्यवस्था ढहने वाली हो एवं भारत का शासक वर्गों के वर्गीय शासन के ख़त्म होने का कोई ख़तरा नहीं है। उनके अनुसार शासक वर्ग का कोई भी हिस्सा बुर्जुआ संसदीय व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए कार्यरत नहीं है। करात की माने तो शासक वर्ग अपने वर्गीय हितों के लिए फ़ासीवाद नहीं बल्कि केवल निरंकुशता के रूपों को ही आज़माना चाह रहे हैं।
करात के लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने कोमिण्टर्न के सूत्रीकरण के अतिरिक्त द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले और बाद के तमाम मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने फ़ासीवाद की सैद्धान्तिकी विकसित करने का जो उत्कृष्ट काम किया है, उसको पढ़ने की जहमत नहीं उठायी है और फ़ासीवाद की पूरी परिघटना को महज़ एक उद्धरण में समेट दिया है। यानी उन्होंने एक कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी जितनी मेहनत भी नहीं की है, बस परीक्षा में नम्बर पाने वाले रट्टू छात्र की तरह एक उद्धरण रटकर फ़ासीवाद पर बहस करने उतर गये हैं।
अगर करात ने कोमिण्टर्न के सूत्रीकरण के उस सुप्रसिद्ध उद्धरण (जो दिमित्रोव थीसिस के नाम से भी जाना जाता है) के अलावा भी फ़ासीवाद की सैद्धान्तिकी पर तमाम मार्क्सवादियों ने जो काम किया है उसे पढ़ने की जहमत उठाई होती तो वे ऐसी बचकानी उद्धरणबाज़ी की बजाय फ़ासीवाद की परिघटना की बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं को समझने की कोशिश करते और वे पाते कि सत्ता में पहुँचने से पहले फ़ासीवाद एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन के रूप में समाज में मौजूद रहता है, जिसका एक व्यापक सामाजिक आधार होता है जो मुख्य रूप से टटपुँजिया वर्ग और मज़दूर वर्ग के एक हिस्से से निर्मित होता है। फ़ासीवाद मुख्यत: टटपुँजिया वर्ग का एक रूमानी और रहस्यमयी उभार होता है जिसका नेतृत्व फ़ासीवाद की आधुनिक विचारधारा से लैस एक काडर आधारित फ़ासिस्ट पार्टी करती है। फ़ासीवाद बड़ी पूँजी के ही हितों को साधता है क्योंकि मुनाफ़़े की गिरती दर से आने वाले पूँजीवाद के संकट की परिस्थिति में जब इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग बुर्जुआ लोकतन्त्र के पुराने तरीक़े से सत्ता नहीं चला पाता तो वह फ़ासिस्ट विकल्प को चुनता है और इस प्रकार फ़ासीवादी आन्दोलन सत्ता तक पहुँच जाता है।
करात फ़ासीवाद की बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं को समझकर दिक् और काल में आये बदलावों के अनुसार उसमें आये बदलावों को समझने की बजाय दो विश्वयुद्धों के बीच जर्मनी और इटली की परिस्थिति का आज के भारत की परिस्थिति से सादृश्य निरूपण करते हैं और चूँकि ये परिस्थितियाँ हूबहू मेल नहीं खातीं, इसलिए उनका शान्त चित निश्चिन्त हो जाता है कि चलो भारत में फ़ासीवाद का कोई ख़तरा नहीं है। अगर वे दिमित्रोव थीसिस को भी पूरा पढ़ने की जहमत उठाते तो पाते कि उसमें भी यह लिखा था कि फ़ासीवाद अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग रूप धारण कर सकता है।
21वीं सदी के भारत की तुलना दो विश्वयुद्धों के बीच जर्मनी और इटली की परिस्थितियों से करने पर हम कुछ समानताओं के अतिरिक्त तमाम असमानताएँ भी पाते हैं। इन दोनों कालखण्डों में एक समानता यह है कि ये दोनों इज़ारेदार पूँजीवाद के संकट के दौर हैं, हालाँकि आज के दौर के पूँजीवादी संकट पहले के मुक़ाबले ढाँचागत है और इसमें आकस्मिकता के पहलू की बजाय सततता का पहलू हावी है। विश्व पूँजीवाद 1970 के दशक से ही इस ढाँचागत मन्दी का शिकार है जिसके बाद से उसने कोई तेज़ी का दौर नहीं देखा है, इस दौर में मन्दी की तीव्रता कभी बढ़ जाती है तो कभी कम। 2007 में अमेरिका में आवासीय बुलबुला फूटने से विश्वव्यापी मन्दी का जो मौजूदा चरण शुरू हुआ है उसकी तुलना 1930 के दशक की मन्दी से की जा रही है, हालाँकि पूँजीवाद को आज के दौर की मन्दी से निजात पाने के कोई आसार नहीं नज़र आ रहे हैं। ऐसे में दुनिया के विभिन्न हिस्सों में धुर-दक्षिणपन्थी उभार की विभिन्न कि़स्में देखने में आ रही हैं।
भारत में धुर-दक्षिणपन्थी का जो उभार देखने में आया है वह फ़ासीवादी इसलिए है क्योंकि इसके पीछे टटपुँजिया वर्ग का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन है जिसका नेतृत्व संघ के रूप में फ़ासीवादी विचारधारा वाला एक काडर आधारित संगठन कर रहा है। यह सच है कि 2014 में जब नरेन्द्र मोदी के रूप में भाजपा सत्ता में आयी उस समय भारत के पूँजीपति वर्ग के समक्ष अपने वर्गीय शासन के अस्तित्व का संकट नहीं था, लेकिन यह भी सच है कि मुनाफ़़े की गिरती दर और आम जनता का कांग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आकर मोहभंग होने की स्थिति में भारत के पूँजीपति वर्ग के पास भाजपा का विकल्प ही सबसे कारगर विकल्प था जो सबसे अधिक मुस्तैदी से उसके हितों में नीतियाँ बनाकर उसके मुनाफ़़े की दर को बढ़ा सकती थी और मज़दूर वर्ग के अधिकारों को सबसे बर्बर तरीक़े से छीन सकती थी। ऐसे में केवल इस आधार पर इस शासन को फ़ासीवादी न कहना जड़मति की निशानी ही कही जायेगी कि भारत के पूँजीपति वर्ग ने समय से पहले ही इस विकल्प को चुन लिया। करात जैसे लोग फ़ासीवाद की प्रक्रिया को समझने की बजाय महज़ उसके अन्त-उत्पाद को ही फ़ासीवाद मान बैठते हैं। ऐसे लोग फ़ासीवाद के अस्तित्व को तब तक स्वीकार नहीं करेंगे जब तक कि बुर्जुआ लोकतन्त्र का ढाँचा पूरी तरह विसर्जित न कर दिया जायेे और जब लोग गैस चैम्बरों में न भेजे जाने लगें। ग़ौरतलब है कि फ़ासीवाद ने भी अपने अतीत से सबक़ लिया है और आज उसे अपनी घृणित करतूतों को अंजाम देने के लिए बुर्जुआ लोकतन्त्र का औपचारिक ढाँचा गिराने की ज़रूरत ही नहीं है। ऊपर से इस औपचारिक ढाँचे को क़ायम रखते हुए लोगों के अधिकारों को छीनकर और राज्यसत्ता को ज़्यादा से ज़्यादा ताक़त देकर इसे भीतर से खोखला करके वो सब कुछ किया जा सकता है जो एक नंगी तानाशाही में किया जा सकता है। नौकरशाही, न्यायपालिका और फ़ौज में फ़ासीवादियों की घुसपैठ से ये काम करना और भी आसान हो गया है। ऐसे में बुर्जुआ लोकतन्त्र का औपचारिक ढाँचा दरअसल फ़ासिस्टों की करतूतों के आवरण का काम करता है। इसी आवरण को देखकर प्रकाश करात और उनका धड़ा आश्वस्त है कि भारत में फ़ासीवाद न तो आया है और न ही इसके आने की कोई सम्भावना है। ज़्यादा से ज़्यादा करात इस ख़तरे को निरंकुशता का नाम देते हैं। लेकिन वे यह नहीं बताते कि अगर यह निरंकुशता है तो नवउदारवादी युग में ग़ैर-भाजपा दलों के नेतृत्व में बनी सरकारें क्या थीं? इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है। आख़िर माकपा ने भी इस दौर में कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन को समर्थन दिया था तो वो निरंकुश कैसे हो सकती है। करात को अच्छी तरह पता होगा कि अगर नवउदारवादी दौर में अन्य सरकारों की निरंकुश कहने का जोख़िम उठायेंगे तो उन्हें नन्दीग्राम और सिंगूर को अंजाम देने वाली पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार को भी निरंकुश कहना होगा।
फ़ासीवाद पर येचुरी की लाइन : कांग्रेस से चुनावी गठबन्धन की तैयारी
प्रकाश करात के लेख के बाद माकपा महासचिव सीताराम ने उनकी लाइन से मतभेद ज़ाहिर करते हुए कहा कि भाजपा भले ही क्लासिकीय अर्थों में फ़ासिस्ट न हो लेकिन वह आर.एस.एस. की राजनीतिक धड़ा है जो फ़ासिस्ट एजेण्डे पर काम कर रही है। येचुरी ने यह भी कहा कि भले ही आज भारत की परिस्थितियाँ हिटलर के जर्मनी जैसी नहीं हैं, लेकिन भविष्य में ऐसी परिस्थितियाँ बन भी सकती हैं। उन्होंने पार्टी की हालिया कांग्रेस में पारित पार्टी कार्यक्रम को उद्धृत करते हुए कहा कि उसमें स्पष्ट रूप से आर.एस.एस-भाजपा को साम्प्रदायिक फ़ासीवादी कहा गया है। येचुरी ने यह भी कहा केन्द्रीय कमेटी ने लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के साथ साम्प्रदायिकता-विरोधी मंच बनाने का फ़ैसला लिया था। ज़ाहिर है येचुरी का इशारा इस ओर था कि करात ने पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ लिखा है।
किसी को यह भ्रम हो सकता है कि इस मुद्दे पर येचुरी जैसे व्यवहारवादी ने सैद्धान्तिक रूप से सापेक्षत: सही अवस्थिति अपनायी है। लेकिन सच तो यह है कि येचुरी की इस अवस्थिति के पीछे भी उनका व्यवहारवाद ही काम कर रहा है। पार्टी कार्यक्रम का हवाला देते हुए भाजपा-विरोधी जिस लोकतान्त्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताक़तों के मंच की बात येचुरी कर रहे थे उसको सरल राजनीतिक शब्दावली में समझा जायेे तो उनका मतलब कांग्रेस के साथ गठबन्धन बनाने से था। दरअसल जिसे फ़ासीवाद पर बहस का नाम दिया जा रहा है उसके मूल में कोई सैद्धान्तिक सवाल नहीं बल्कि यह सामाजिक जनवाद के दो धड़ों के बीच इस सवाल पर चल रही धींगामुश्ती है कि चुनावों में माकपा को कांग्रेस से गठबन्धन बनाना चाहिए या नहीं। येचुरी धड़े का मानना है कि कांग्रेस के साथ गठबन्धन बनाना चाहिए जबकि करात का धड़ा ऐसे गठबन्धन के ख़िलाफ़ है। माकपा की पश्चिम बंगाल इकाई येचुरी की लाइन के समर्थन में है, जबकि केरल इकाई करात की लाइन के समर्थन में है क्योंकि केरल में कांग्रेस मुख्य विरोधी पार्टी है। इस चुनावी तिकड़म में येचुरी के पलड़े में उस समय एक बड़ा बटखरा पड़ा जब करात के लेख के कुछ दिन बाद ही प्रख्यात मार्क्सवादी इतिहासकार इरफ़ान हबीब ने माकपा के नेतृत्व को पत्र लिखकर भाजपा के ख़िलाफ़ कांग्रेस के साथ गठबन्धन बनाने की पुरज़ोर वकालत की। इरफ़ान हबीब जब तक मध्यकाल के इतिहास पर लिखते हैं तब तक तो वे मार्क्सवादी उपकरणों का शानदार इस्तेमाल करते हैं, लेकिन जैसे-जैसे आधुनिक काल से होते हुए समकालीन इतिहास पर आते हैं तो मार्क्सवादी उपकरणों के इस्तेमाल की उनकी क्षमता आश्चर्यजनक रूप से गुम हो जाती है और वे भोथरी अकादमिक मार्क्सवादी रचनाओं से सामाजिक जनवाद की सेवा करते प्रतीत होते हैं।
येचुरी धड़े के समर्थन में दलील देने वाले अक्सर 1935 में कोमिण्टर्न की सातवीं कांग्रेस में पारित ‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ की लाइन का हवाला देते हैं जिसमें उदार पूँजीवाद और फ़ासिस्ट तानाशाही के बीच फ़र्क किया गया था और फ़ासीवाद से लड़ने के लिए मज़दूर वर्ग की ताक़तों को उदार बुर्जुआ ताक़तों के साथ मिलकर मोर्चा बनाना चाहिए। लेकिन ऐसी दलील देने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि पॉपुलर फ़्रण्ट की लाइन कोई ऐसी सार्वभौमिक लाइन नहीं है जो फ़ासीवाद से लड़ाई के हर मुक़ाम और हर समय लागू करनी ही करनी है। कोमिण्टर्न की ख़ुद की लाइन भी हमेशा ‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ की नहीं थी। 1921-28 तक कोमिण्टर्न की लाइन ‘यूनाइटेड फ़्रण्ट’ की थी जिसमें केवल मज़दूर वर्ग की शक्तियों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की बात की गयी थी। 1924 में कोमिण्टर्न की पाँचवीं कांग्रेस में फ़ासीवाद के उभार में सामाजिक जनवादियों की भूमिका भी चिह्नित की गयी थी और उन्हें सामाजिक फ़ासीवादी कहते हुए बेनक़ाब करने की भी बात की गयी थी।
‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ की लाइन एक विशेष परिस्थिति में अनुमोदित की गयी थी जब यूरोप के तमाम देशों में मज़दूर आन्दोलन निर्णायक तौर पर परास्त हो चुका था और जर्मनी व इटली में फ़ासीवादी तानाशाही मज़बूती से जड़ें चुकी थी और मानवता के ऊपर भीषण नरसंहार व विनाश का ख़तरा आसन्न था। वैसे अभी यह भी पक्के दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि ‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ बना वहाँ उदार बुर्जुआ ताक़तों ने फ़ासीवाद-विरोधी गतिविधियों में बढ़चढ़ भागीदारी की थी जिससे फ़ासीवाद को हराने में विचारणीय मदद मिली हो।
ग़ौर करने की बात यह भी है कि पॉपुलर फ़्रण्ट की लाइन भी चुनावी मोर्चे के सम्बन्ध में नहीं बल्कि फ़ासीवाद-विरोधी कार्रवाइयों के सम्बन्ध में थी। वैसे भी इज़ारेदार पूँजीवाद आज जिस अवस्था में पहुँच चुका है उसमें उदार पूँजीपति वर्ग की थोड़ी भी प्रगतिशीलता पर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न है। भारत की बात करें तो नवउदारवादी नीतियों को लागू करने की शुरुआत कांग्रेस की सरकार ने की थी। इन नीतियों ने फ़ासीवाद के लिए उपजाऊ ज़मीन मुहैया की जिसकी बदौलत ही आज फ़ासिस्ट सत्ता में पहुँचे हैं। ग़ौरतलब है कि नवउदारवादी नीतियों पर सभी चुनावी पार्टियों में आम-सहमति है। संसदीय वामपन्थी भी थोड़ी ना-नुकुर करने के बाद इन्हीं नीतियों को लागू करने पर अपनी सहमति जताते हैं और केरल व पश्चिम बंगाल में शासन करने के दौरान वे इन्हीं नीतियों को लागू करते हैं। ऐसे में आज की परिस्थितियों में ‘पॉपुलर फ़्रण्ट’ की लाइन के कारगर होने की सम्भावना नगण्य है। सामाजिक जनवाद से यह उम्मीद करना बेमानी होगा कि वे परिस्थितियों का द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करके अपनी कार्यदिशा तय करेंगे, लेकिन क्रान्तिकारी ताक़तों को इस विषय में अपनी दृष्टि स्पष्ट रखनी चाहिए।
दिशा सन्धान – अंक 4 (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित