चीन : एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त और उसके निहितार्थ

चीन : एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त और उसके निहितार्थ

  • आनन्द सिंह

14-15 मई 2017 को चीन की राजधानी बीजिंग में सम्पन्न ‘वन बेल्ट वन रोड’ शिखर सम्मेलन में 29 देशों के राष्ट्राध्यक्षों और 130 देशों के व्यावसायिक प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने विश्व के मुक्त व्यापार में चीन की नैतिक और व्यावहारिक नेतृत्वकारी क्षमता का दावा किया। विश्व मीडिया में इस सम्मेलन की व्यापक कवरेज हुई और तमाम बुर्जुआ विश्लेषकों ने भी इसे विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था में चीन के बढ़ते वर्चस्व के रूप में प्रस्तुत किया। इससे पहले जनवरी में डावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फ़ोरम की बैठक में भी शी जिनपिंग ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की संरक्षणवादी नीतियों के मद्देनज़र चीन को भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व पूँजीवाद की रहनुमाई करने का दावा ठोंका था। नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में विश्व-पूँजीवाद की रहनुमाई करने की चीनी हुक़्मरानों की आकांक्षा का भौतिक कारण हाल के वर्षों में चीन का उभरती हुई साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में विश्वपटल पर उपस्थिति दर्ज़ कराना है। ऐसे में मात्र तीन दशकों के भीतर एक समाजवादी राष्ट्र के एक उभरते हुए साम्राज्यवादी राष्ट्र में हुए इस संक्रमण की प्रक्रिया और उसके निहितार्थ को समझना बेहद ज़रूरी हो जाता है।

चीन में माओ की मृत्यु के पश्चात 1970 के दशक के अन्त तक पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो चुकी थी। पुनर्स्थापना की इस प्रक्रिया को देङ सियाओ-पेङ ने तथाकथित ”बाज़ार समाजवाद” के ज़रिये औपचारिक स्वरूप दिया। इस प्रक्रिया के तहत गाँवों में पुराने सामूहिक फार्मों की व्यवस्था को समाप्त करके पारिवारिक फार्मों को मंज़ूरी दी गयी जो बाज़ार के लिए पैदा करते थे। इसी तरह ग्रामीण क्षेत्रों में कस्बा और गाँव उद्यम स्थापित किये गये जो बाज़ार के लिए हल्के-फुल्के औद्योगिक माल बनाते थे। लाखों की संख्या में राज्य के स्वामित्व वाले उद्यमों को बन्द किया गया और इन उद्यमों में काम करने वाले लाखों मज़दूरों को निकाल दिया गया। इसके अतिरिक्त दक्षिण में पर्ल नदी के डेल्टा क्षेत्र (हांगकांग और मकाओ से लगे), फुजिआन प्रदेश (ताइवान के निकट) और शंघाई में नये निर्यातोन्मुख औद्योगिक क्षेत्र स्थापित किये गये। इसकी वजह से पहले हांगकांग में रहने वाले चीनी लोगों और बाद में बड़ी पश्चिमी, जापानी और कोरियाई कम्पनियों की ओर से बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आना मुमकिन हुआ। ऐसे क़दमों से चीनी विशेषता वाले पूँजीवाद का विकास हुआ जिसके चलते 1980 से लेकर 2014 तक चीन की अर्थव्यस्था की वृद्धि दर अभूतपूर्व तेज़ी से बढ़ी।

विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति

चीन की अर्थव्यवस्था इस समय नॉमिनल जीडीपी के अनुसार अमेरिका के बाद दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है जिसका नॉमिनल जीडीपी 10 ट्रिलियन डॉलर से भी अधिक है जोकि विश्व की तीसरी व चौथी अर्थव्यवस्थाओं – जापान व जर्मनी – के जीडीपी के योग से भी अधिक है।

चूँकि दुनिया के तमाम देशों में जीवन स्तर और मुद्राओं का मूल्य अलग होता है, इसलिए विश्व अर्थव्यवस्था में किसी देश की वास्तविक स्थिति जानने के लिए उस देश के जीडीपी के अतिरिक्त उसकी मुद्रा के मूल्य को भी ध्यान में रखना चाहिए। परचेज़ि‍ंग पॉवर पैरिटी (पीपीपी) ऐसा ही एक मापदण्ड है जिसके अनुसार चीन की अर्थव्यवस्था पहले ही दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुकी है।[1] 1990 में विश्व अर्थव्यवस्था में चीन की अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 2 प्रतिशत से भी कम थी जोकि 2014 में बढ़कर 13 प्रतिशत हो गयी।[2] इस समय दुनिया के 80 प्रतिशत एयरकंडीशनर, 70 प्रतिशत मोबाइल फ़ोन और 60 प्रतिशत जूते चीन में बनते हैं।[3] विश्व बैंक के डेटा के अनुसार वैश्विक कपड़ा निर्यात में चीन की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से भी ऊपर है। मैन्युफै़क्चरिंग सेक्टर, जिसे पूँजीवादी मूल्य उत्पादन का सबसे प्रमुख क्षेत्र माना जाता है, में चीन दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। इस प्रकार चीन ने मैन्युफै़क्चरिंग में 110 वर्षों से चले आ रहे अमेरिका के नेतृत्व को पछाड़ दिया है। दुनिया के कुल कच्चे स्टील के उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा चीन का है। मार्क्सवादी भूगोलशास्त्री डेविड हार्वी ने यह दिखाया है कि वर्ष 2011 और 2013 के बीच चीन में सीमेण्ट की जितनी खपत हुई वह अमेरिका द्वारा समूची बीसवीं सदी में सीमेण्ट की कुल खपत का डेढ़ गुना है।  इसके अतिरिक्त खदान व सेवा क्षेत्रों में भी चीन ने हाल के दशकों मे तेज़ी से विकास किया है। आज दुनिया की कुल आर्थिक वृद्धि का 30 प्रतिशत चीन की बदौलत है।

‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका द्वारा हर वर्ष जारी दुनिया की शीर्ष की 2000 बहुराष्ट्रीय कम्पनियों पर आधारित एक अध्ययन में क्रिश्चियन फुक्स ने यह दिखाया है कि किस प्रकार 2004 और 2014 के बीच संख्या, परिसम्पत्ति और मुनाफ़े के लिहाज़ से अमेरिकी (व यूरोपीय) कम्पनियों की तुलना में चीनी कम्पनियों की ताक़त आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है।                                                                                                                                       2004       2014

शीर्ष की 2000 कम्पनियों में चीन की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ             49          207

शीर्ष की 2000 कम्पनियों में अमेरिका की बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ     751         563

चीन की परिसम्पत्तियों का हिस्सा                                           1.1%        13.7%

चीन के मुनाफ़े का हिस्सा                                                    3.6%      14.3%

उत्तरी अमेरिका और यूरोप की परिसम्पित्तियों का हिस्सा               77.4%     63.1%

उत्तरी अमेरिका और यूरोप के मुनाफ़े का हिस्सा                         82.9%     61.7%

ऐसे तमाम आँकड़े दिये जा सकते हैं जो यह निर्विवाद रूप से साबित करते हैं कि चीन दुनिया की अग्रणी पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की क़तार में तमाम पुराने साम्राज्यवादी देशों को मात दे रहा है।

चीन की अर्थव्यवस्था में इज़ारेदारी का विकास और बढ़ता वित्तीयकरण

समाजवादी अतीत की वजह से 1970 के दशक के अन्त में चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना होने के बावजूद 1990 तक चीन की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक उपक्रमों का ही दबदबा था। लेकिन 1990 के दशक से निजीकरण की प्रक्रिया के ज़ोर पकड़ने की वजह से चीन की अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका क्रमश: कम से कम होती गयी है। सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में भी निजी कम्पनियों जैसा ही तानाशाहाना प्रबन्धन काम करता है। आज हालात ये हैं कि चीन का अधिकांश उत्पादन निजी क्षेत्र में होता है, हालाँकि अभी भी सार्वजनिक उपक्रम चीन की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सार्वजनिक कंपनियाँ भी निजी कम्पनियों की ही तरह मुनाफ़े के आधार पर काम करती हैं और उनको होने वाला मुनाफ़ा सरकार को न जाकर सार्वजनिक कम्पनियों के लिए विशेष रूप से निर्मित फ़ण्ड में जाता है। इस प्रकार चीन की अर्थव्यवस्था में पूँजीवादी विकास के साथ ही साथ सार्वजनिक और निजी दोनों ही क्षेत्रों में इज़ारेदारी का विकास हुआ है।

चीन की अर्थव्यस्था में इज़ारेदारी का आलम यह है कि दुनिया की 2000 सबसे बड़ी और सबसे ताक़तवर कम्पनियों की सूची फ़ोर्ब्स ग्लोबल 2000 में चीन अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। इस सूची में 565 कम्पनियाँ अमेरिका की हैं, जबकि 263 कम्पनियाँ चीन की हैं। फ़ॉर्च्यून ग्लोबल 500 सूची में 100 से भी अधिक कम्पनियाँ चीन की हैं, जबकि 2001 में इस सूची में केवल 12 चीनी कंपनियाँ थीं।[4] इनमें से दो-तिहाई से भी अधिक कम्पनियाँ सार्वजनिक क्षेत्र की हैं। दुनिया के दस सबसे बड़े बैंकों में चार बैंक चीन के हैं। यह तथ्य विश्व वित्तीय बाज़ार में चीन के बढ़ते दबदबे की ओर इशारा करता है। औद्योगिक पूँजी और बैंकिंग पूँजी के विलय से चीन में भी वित्तीय पूँजी का एक विराट साम्राज्य खड़ा हुआ है जिसकी अहमियत चीन की अर्थव्यवस्था में समय बीतने के साथ बढ़ती ही जा रही है। अधिकांश बैंक और बीमा कम्पनियाँ अभी भी राज्य के स्वामित्व में हैं। इस प्रकार चीन में एक विशिष्ट क़ि‍स्म का राज्य एकाधिकार पूँजीवाद का निर्माण हुआ है।

पूँजी का निर्यात

पूँजी के निर्यात के मामले में भी चीन की अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ वर्षों में ज़बर्दस्त विकास किया है जो उसके उभरते हुए साम्राज्यवादी शक्ति का संकेत है। चीन का पूँजी निर्यात उत्पादक निवेश (कारख़ानों, सड़कों, बन्दरगाहों आदि के निर्माण के लिए) और वित्तीय पूँजी (बॉण्ड, क़र्ज आदि) दोनों ही रूपों में हो रहा है। पिछले तीन दशकों में उत्पादन के क्षेत्र में तेज़ी से बढ़ते पूँजी संचय के फलस्वरूप चीन में वित्तीय पूँजी का एक विशाल भण्डार एकत्र हुआ है जिसका एक सूचक वहाँ का विपुल विदेश मुद्रा भण्डार है। जहाँ वर्ष 2000 में यह भण्डार 1.65 बिलियन डॉलर था, वहीं अब यह बढ़कर 4 ट्रिलियन डॉलर के आसपास जा पहुँचा है। इस विदेशी मुद्रा भण्डार का बड़ा हिस्सा अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों में ट्रेज़री बॉण्ड की ख़रीदारी में लगा है। इन ट्रेज़री बॉण्डों में निवेश की वजह से चीन अमेरिकी सरकार का सबसे बड़ा विदेशी ऋणदाता बन चुका है।

साम्राज्यवादी मुल्कों में वित्तीय पूँजी लगाने के अतिरिक्त चीन अपने देश में मेहनतकशों के शोषण से संचित अपार पूँजी का लाभ उठाते हुए विकासशील या अल्पवि‍कसित देशों में भी विकास क़र्ज़ के रूप में वित्तीय पूँजी का निर्यात कर रहा है। तीसरी दुनिया के देशों को क़र्ज़ देने के मामले में चीन विश्व बैंक को भी पीछे छोड़ चुका है। 16 जनवरी 2016 को चीन के नेतृत्व में एशियन इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेण्ट बैंक (एआईआईबी) की शुरुआत हुई जिसका मुख्यालय बीजिंग में है। यह एक बहुपक्षीय विकास बैंक है जिसका विशेष मैंडेट एशिया में इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास करना है। 100 बिलियन डॉलर के पेडअप कैपिटल वाले इस बैंक में 50 बिलियन डॉलर का योगदान अकेले चीन ने किया है। यह बैंक शुरुआती पाँच से छह वर्षों में प्रतिवर्ष 10-15 बिलियन डॉलर का क़र्ज़ देगा। एआईआईबी की शुरुआत के अतिरिक्त चीन पिछले वर्ष यूरोपियन बैंक फ़ॉर रीकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेण्ट (ईबीआरडी) के 67वें सदस्य के रूप में शामिल हुआ। जहाँ एआईआईबी एशिया में इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए फ़ण्डिंग पर ध्यान केंद्रित करेगा वहीं ईबीआरडी मुख्य तौर पर पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के कुछ क्षेत्रों में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास पर ज़ोर देगा। इसके अतिरिक्त ब्रिक्स देशों द्वारा निर्मित ब्रिक्स बैंक या न्यू डेवलपमेण्ट बैंक (एनडीबी) की स्थापना में भी चीन की अग्रणी भूमिका रही है। एआईआईबी, ईबीआरडी और एनडीबी में चीन की अग्रणी भूमिका तथाकथित ‘ब्रेटनवुड बहनों’, वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ के वर्चस्व में कमी और विश्व वित्तीय तन्त्र में बुनियादी बदलावों की ओर इंगित करती है। चीन पहले ही तीसरी दुनिया के देशों को ऋण देने के मामले में पश्चिमी साम्राज्यवादियों को पीछे छोड़ चुका है। ग़ौरतलब है कि चीनी बैंकों द्वारा दिये गये ऋण पर ब्याज़ की दर अन्य अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये जाने वाले ऋण पर ब्याज़ की दर से अमूमन अधिक होती है। उदाहरण के लिए श्रीलंका ने चीन से अरबों डॉलर का ऋण लिया है। श्रीलंका का कुल राष्ट्रीय ऋण 64.9 बिलियन डॉलर है जिसमें से चीन से लिये गये ऋण का हिस्सा 8 बिलियन डॉलर है जो बेहद उच्च ब्याज दर से लिया गया ऋण है। उदाहरण के लिए श्रीलंका के हम्बनटोटा बन्दरगाह के निर्माण के लिए वहाँ की सरकार ने चीन से 6.3 प्रतिशत की ब्याज दर पर 301 मिलियन डॉलर का ऋण लिया है जबकि विश्वबैंक और एशियाई विकास बैंक द्वारा 0.25 से 3 प्रतिशत की ब्याज दर पर ऋण दिये जाते हैं। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था में मन्दी की वजह से श्रीलंका की सरकार चीन से लिये गये ऋण का भुगतान नहीं कर पा रही है जिसकी वजह से श्रीलंका की सरकार ने इस ऋण को ईक्विटी में बदलने का फ़ैसला किया है। इसकी परिणति उस परियोजना में चीन के मालिकाने के रूप में भी हो सकती है। यही नहीं श्रीलंका की सरकार ने चीन की कम्पनियों को हम्बनटोटा बन्दरगाह के कुल शेयर का 80 प्रतिशत और समूचे बन्दरगाह को 99 साल के पट्टे पर भी देने का फ़ैसला किया है। इसी प्रकार चीन की कम्पनियों को श्रीलंका के मट्टला हवाई अड्डे के परिचालन और प्रबन्धन का पूरा नियन्त्रण दे दिया गया है। ग़ौरतलब है कि मट्टला हवाई अड्डे का निर्माण श्रीलंका की सरकार ने चीन से 300-400 मिलियन डॉलर का ऋण लेकर किया था। चूँकि अब श्रीलंका की सरकार इस हवाई अड्डे के परिचालन व परिवहन में लगने वाला ख़र्च वहन नहीं कर पा रही है इसलिए उसने चीन की कम्पनि‍यों को नियन्त्रण सौंप दिया है।

2007 में शुरू हुई मौजूदा विश्वव्यापी महामन्दी के पहले से ही चीन ने ‘गो ग्लोबल’ (‘दुनिया की ओर जाओ’) नीति के तहत अपनी अर्थव्यवस्था को सस्ते मालों के निर्यात वाली अर्थव्यवस्था से पूँजी निर्यात वाली अर्थव्यवस्था की ओर मोड़ना शुरू कर दिया था। महामन्दी के बाद से तो इस दिशा में वह अभूतपूर्व तेज़ी के साथ आगे बढ़ा है। वर्ष 2011 में चीन ने कुल 4-6 खरब डॉलर की पूँजी निर्यात की थी। यह बात भी सच है कि चीन की अर्थव्यवस्था में विदेशी पूँजी का आयात भी बड़े पैमाने पर होता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीन का पूँजी निर्यात पूँजी आयात के मुक़ाबले कहीं तेज़ी से बढ़ा है और आज चीन नेट पूँजी निर्यातक देश बन चुका है।

आज चीन पश्चिमी विकसित मुल्कों से लेकर एशिया, अफ्रीका एवं लातिन अमेरिका के देशों सहित दुनिया के कोने-कोने में अपनी पूँजी लगा रहा है। चीन की कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर अमेरिका की कई कम्पनियों में निवेश कर रही हैं और तमाम कम्पनियों को ख़रीद भी रही हैं जिससे अमेरिकी पूँजीपति सकते में आ गये हैं। ऑस्ट्रेलिया में चीन ने खनन, तेल, गैस व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में बड़े पैमाने पर निवेश किया है और हाल के वर्षों में उसने खाद्य, एग्रीबिज़नेस, रियल स्टेट, नवीकरणीय ऊर्जा, हाई टेक एवं वित्तीय सेवाओं में भी निवेश करना शुरू किया है। इसी तरह से कनाडा में भी चीन तेल, गैस व खनन में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। ब्राजील में चीन का निवेश मुख्य रूप से ऊर्जा एवं धातु उद्योग में हो रहा है। इसी तरह से लातिन अमेरिका के अन्य मुल्कों जैसे पेरू, अर्जेण्टीना, इक्वाडोर आदि में चीन ऊर्जा एवं अवरचनागत क्षेत्र में पूँजी लगा रहा है। अपने पड़ोसी मुल्क वियतनाम में चीन लकड़ी, रबर, खाद्य फसलों एवं खनिज सम्पदा के दोहन में बेतहाशा निवेश कर रहा है और वहाँ से मालों को ढोकर चीन लाने के लिए बड़े पैमाने पर सड़कों एवं रेलमार्ग के विकास में निवेश कर रहा है। इसी तरह चीन हिन्दचीन एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के मुल्कों में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। दक्षिण एशिया में नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी चीन पूँजी निवेश कर रहा है। नेपाल में चीन पूँजी निवेश के मामले में भारत को भी पीछे छोड़ चुका है। यही नहीं चीन ने भारत की ‘मेक-इन-इण्डिया’ स्कीम का लाभ उठाते हुए इसे भारत में पूँजी निर्यात के अवसर के रूप में हाथोहाथ लिया है।

अफ्रीका में चीन पूँजी निवेश करने पर विशेष ज़ोर दे रहा है। ग़ौरतलब है कि माओकालीन चीन अफ्रीकी मुल्कों में बुनियादी ढाँचे के निर्माण से लेकर खनन आदि में निवेश करके मित्रतापूर्ण मदद करता था। लेकिन आज का चीन इस पुरानी दोस्ती का इस्तेमाल अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश करके अपनी अर्थव्यवस्था को सरपट रफ़्तार से दौड़ाने के लिए ज़रूरी तेल और खनिज सम्पदा की लूट के लिए कर रहा है। अंगोला चीन के सबसे बड़े तेल-आपूर्तिकर्ताओं में से एक बन गया है। चीन का पूँजी निवेश नाइज़ीरिया, ज़ाम्बिया, घाना, लाइबेरिया, रवाण्डा, सूडान जैसे अफ्रीकी मुल्कों में सबसे ज़्यादा है। इस वक़्त समूचे अफ्रीका में चीन की 800 से भी अधिक कम्पनियाँ काम कर रही हैं और वहाँ रहने वाले चीनी नागरिकों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। ये तथ्य अपने आप में अफ्रीका में चीन की साम्राज्यवादी दख़ल को दिखा रहे हैं।

‘वन बेल्ट, वन रोड’ परियोजना

चीन की बहुचर्चित ‘वन बेल्ट, वन रोड’ (ओबीओर) परियोजना अपने आप में चीन की साम्राज्यवादी महत्वकांक्षा का सूचक है। इस परियोजना में 4 अरब से अधिक जनसंख्या वाले 68 देशों के शामिल होने की सम्भावना है जिनका वैश्विक जीडीपी में 40 प्रतिशत का योगदान है।[5] इसके दो हिस्से हैं – सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट और ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी मैरिटाइम सिल्क रोड। सिल्क रोड इकोनॉमिक बेल्ट के तहत चीन से यूरोप के बीच सड़क, रेलमार्ग, तेल और प्राकृतिक गैस पाइपलाइन समेत कई इंफ्रास्ट्रक्‍चर और व्यापारिक परियोजनाएँ शामिल हैं जिसका विस्तार चीन के मध्य में स्थित ज़ि‍यान प्रान्त से शुरू होकर मध्य एशिया से होते हुए मॉस्को, रॉटरडम और वेनिस तक होगा। इस बेल्ट में कई मार्ग होंगे जो चीन-मंगोलिया-रूस, चीन-मध्य और पश्चिम एशिया, चीन-इण्डोचीन प्रायद्वीप, चीन-पाकिस्तान, चीन-बांग्लादेश-म्यांमार से होते हुए गुज़रेंगे। जबकि ट्वेंटी फ़र्स्ट सेंचुरी मैरिटाइम सिल्क रोड के तहत समूचे एशिया व प्रशान्त में शिपिंग लेन का समुद्र आधारित नेटवर्क और बन्दरगाह विकास की योजना है जिसका विस्तार दक्षिण व दक्षिण-पूर्व एशिया से होते हुए पूर्वी अफ्रीका और उत्तरी भूमध्यसागर तक होगा। चीन की राज्य मीडिया के अनुसार इस परियोजना में 1 ट्रिलियन डॉलर का निवेश पहले ही चुका है और अगले दशक तक कई ट्रिलियन डॉलर के निवेश की योजना है।[6] ग़ौरतलब है कि यह परियोजना केवल इंफ्रास्ट्रक्चर विकास तक ही सीमित नहीं है। इसके विज़न दस्तावेज़ के अनुसार इसमें इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास के अतिरिक्त आर्थिक विकास की नीतियों में तालमेल, इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए तकनीकी मानकों में समरूपता, निवेश और व्यापार की बाधाओं को दूर करना, मुक्त व्यापार क्षेत्रों की स्थापना, वित्तीय तालमेल और सांस्कृतिक व अकादमिक लेन-देन के माध्यम से लोगों का लोगों से सम्पर्क स्थापित करना भी शामिल है।[7] इस परि‍योजना के माध्यम से पूँजी निर्यात करके चीन अपने देश में स्टील, एलुमिनियम और सीमेण्ट जैसे भारी उद्योगों में जारी अति-उत्पादन के संकट से उबरने और साथ ही साथ चीन के मालों के नये बाज़ार तैयार करने की फ़ि‍राक में है। आर्थिक प्रभुत्व के साथ ही साथ चीन इस महत्वाकांक्षी परियोजना के ज़रिये अपनी सामरिक शक्ति में भी इज़ाफ़ा करना चाह रहा है। उदाहरण के लिए इस परियोजना के तहत ही चीनी सरकारी कम्पनी कॉस्को ने यूनान के पिरौस बन्दरगाह के 67 प्रतिशत शेयर खरीदकर उसपर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया जिससे उसे यूरोप में अपना पैर जमाने में मदद मिलेगी। इसी प्रकार इस परियोजना के ज़रिये हिन्द महासागर तक अपनी पहुँच बनाने के लिए चीन मलक्का जलडमरूमध्य और सिंगापुर पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए दक्षिण-पश्चिमी चीन से हिन्द महासागर की ओर एक नये समुद्री मार्ग का निर्माण करना चाहता है। पाकिस्तान के ग्वादार बन्दरगाह का निर्माण भी चीन हिन्द महासागर तक अपनी पहुँच के विकल्पों को बढ़ाने के मक़सद से करवा रहा है।

जैसाकि ऊपर उल्लेख किया गया था, श्रीलंका का हम्बनटोटा बन्दरगाह और मट्टला  हवाई अड्डे में काफ़ी हद तक चीन की कम्पनियों का नियन्त्रण स्थापित हो गया है। इससे हिन्द महासागर के समूचे क्षेत्र में चीन का रणनीतिक व सैन्य प्रभुत्व बढ़ेगा। इसी प्रकार चीन-पाकिस्तान-आर्थिक-कॉरिडोर के लिए चीन अब तक  पाकिस्तान को ऊँची ब्याज़ दर पर 50 बिलियन डॉलर से भी अधिक का ऋण दे चुका है। विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान इस ऋण को 40 साल से पहले भुगतान नहीं कर पायेगा। पाकिस्तान के ग्वादार बन्दरगाह के निर्माण में भी चीन की बड़ी भूमिका रही है। इसी प्रकार चीन म्यांमार और बांग्‍लादेश में भी अवरचनागत क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है।

चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति और तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा

अपनी आर्थिक शक्तिमत्ता के विस्तार के अनुरूप चीन अपनी सैन्य शक्ति का ज़बरदस्त विकास कर रहा है। सैन्य सम्बन्धी ख़र्च की दृष्टि से चीन दुनिया में अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर आता है। पिछले दशक के दौरान चीन ने अपनी सैन्य शक्ति का आधुनिकीकरण करने पर विशेष ज़ोर दिया है। एक वैश्विक सैन्य शक्ति बनने के मक़सद से चीन जहाज, पनडुब्बी, हवाई जहाज, इलेक्ट्रॉनिक खुफ़ि‍या तन्त्र और विदेशी चौकियों का निर्माण कर रहा है। वह सुदूर सागर में वायु, धरातल और अधस्तल हर परिवेश के अनुसार अपनी सैन्य क्षमताओं को विकसित कर रहा है। चीन अपनी नाभिकीय शक्ति‍ से लैस पनडुब्बियों में लगातार इज़ाफ़ा कर रहा है। इसके अलावा चीन विदेशों में अपनी चौकियाँ भी स्थापित कर रहा है, मिसाल के लिए अफ्रीका के जिबूती में चीन ने अपनी नयी सैन्य चौ‍की स्थापित की है। इसके अतिरि‍क्त श्रीलंका और पाकिस्तान में चीन जिन बन्दरगाहों का निर्माण कर रहा वे उसकी सामरिक शक्ति में विचारणीय इज़ाफ़ा करेंगे।

हथियारों के निर्यात के मामले में भी चीन ने पिछले दशक में ज़बरदस्त प्रगति की है। अमेरिका और रूस के बाद चीन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा हथियारों  का निर्यातक देश बन चुका है। इसके अतिरिक्त दुनिया के विभिन्न हिस्सों में संयुक्त राष्ट्र की शान्ति सेना में चीन 2 हज़ार से भी अधिक सैनिक भेजता है जो संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्यों में सबसे अधिक है। इससे चीन के सैनिकों को विभिन्न परिस्थितियों में लड़ने के लिए महत्वपूर्ण अनुभव मिलता है।

एक उभरती हुई साम्राज्यवादी ताक़त के रूप में विश्वपटल पर चीन की मौजूदगी और उसकी बढ़ती सैन्य शक्ति से दुनिया के पैमाने पर जारी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा तीखी हुई है। इस प्रतिस्पर्द्धा की घनीभूत अभिव्यक्ति दक्षिण चीन सागर में जारी तनाव में देखी जा सकती है। ग़ौरतलब है कि दुनिया के कुल कच्चे तेल का एक चौथाई हिस्सा और अन्य व्यापारिक वस्तुओं का आधा हिस्सा दक्षिण चीन सागर से होकर गुज़रता है। चीन के सैन्य रणनीतिकारों ने ‘टू आइलैंड चेन’ की धारणा के तहत समूचे विवादित समुद्री क्षेत्र को टापुओं की दो श्रृंखलाओं में बाँटा है। पहली श्रृंखला, ‘’नाइन डैश्ड लाइन”, को लेकर चीन का विवाद वियतनाम, फ़ि‍लीपींस और मलेशिया से है। चीन दक्षिण चीन सागर के लगभग पूरे हिस्से में अपना वर्चस्व क़ायम करना चाहता है। दूसरी श्रृंखला थोड़ा और आगे से गुज़रती है जिसमें चीन का विवाद जापान जैसे साम्राज्यवादी देश से है। चीन के लिए दक्षिण चीन सागर का महत्व न सिर्फ़ व्यापार की दृष्टि से है, बल्कि संसाधनों की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बेहद अहम है। मछलियों व समुद्री जीवों के साथ ही साथ इस क्षेत्र में तेल व गैस के भण्डार की भी प्रचुर सम्भावना जताई जाती है। सामरिक और आर्थिक दृष्टि से इतना महत्वपूर्ण होने की वजह से इस क्षेत्र में एक तरह से हथियारों की होड़ लगी हुई है और दक्षिण चीन सागर के किनारे स्थित सभी देश अपनी-अपनी सैन्य शक्ति बढ़ा रहे हैं। इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते वर्चस्व को देखकर अमेरिका भी सकते में आ गया है और इसी वजह से वह इस क्षेत्र में स्थित तमाम देशों को सैन्य मदद प्रदान कर रहा है, जिसकी वजह से स्थिति और तनावपूर्ण होती जा रही है।

हालाँकि चीन की सैन्य क्षमता अब भी अमेरिका की तुलना में बहुत कम होने की वजह से वह अमेरिका को अकेले टक्कर तो नहीं दे सकता, लेकिन हाल के वर्षों  में रूस और चीन के संयुक्त नेतृत्व में अमेरिकी साम्राज्यवाद के बरक्स एक नयी साम्राज्यवादी धुरी का उभार साफ़ देखा जा सकता है। मध्य-पूर्व और विशेषकर सीरिया में जारी युद्ध इस अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के तीखे होने की स्पष्ट गवाही दे रहा है। शंघाई कोऑपरेशन काउंसिल और ब्रिक्स जैसी बहुपक्षीय संस्थाओं का अस्तित्व में आना अपने आप में एकध्रुवीय विश्व के मिथक को ख़ारिज कर रहा है। उधर पश्चिम में भी ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर जाने और अमेरिका में ट्रम्प की संरक्षणवादी नीतियों की वजह से नाटो में भी दरार के संकेत दिख रहे हैं जो इस सम्भावना को बल देते हैं कि यूरोप के कुछ मुल्क भी अपना खेमा बदल सकते हैं। जो भी हो, इतना तो तय है कि आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और तीखी होने वाली है। आज के दौर में विश्वयुद्ध की सम्भावनाएँ भले ही क्षीण हों, लेकिन क्षेत्रीय स्तर पर छोटे पैमाने के युद्धों और हिंसात्मक वारदातों की संख्या में निश्चय ही इजा़फ़ा होगा।

सन्दर्भ सूची

[1]   “Report for Selected Countries and Subjects”. IMF

[2]   http://data.worldbank.org/indicator/NY.GDP.MKTP.CD

[3]   http://www.economist.com/news/leaders/21646204-asias-dominance-manufacturing-will-endure-will-make-development-harder-others-made

[4]   https://www.forbes.com/forbes/welcome/?toURL=https://www.forbes.com/sites/corinnejurney/2017/05/24/the-worlds-largest-public-companies-2017/

[5]   https://eng.yidaiyilu.gov.cn/info/iList.jsp?cat_id=10076&cur_page=1

[6]   https://news.cgtn.com/news/3d63544d3363544d/share_p.html

[7]   http://blogs.worldbank.org/eastasiapacific/china-one-belt-one-road-initiative-what-we-know-thus-far#_ftnref1

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

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