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दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

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Cover-Disha-Sandhan-2

सम्‍पादकीय

अपनी बात

भारतीय कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल / अभिनव सिन्‍हा

विश्‍व कम्‍युनिस्‍ट आन्‍दोलन का इतिहास, समस्‍याएं व चुनौतियां

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त) / अभिनव सिन्‍हा

नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में / आलोक रंजन

‘कम्युनिज़्म’ का विचार या उग्रपरिवर्तनवाद के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी / शिवानी

आज के ज्‍वलंत सवाल

जाति प्रश्न और उसका समाधान: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण / शोध टीम, अरविन्‍द मार्क्‍सवादी अध्ययन संस्थान

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ / शिशिर

संघर्षरत्‍त्‍ जन

गहराता वैश्विक पूँजीवादी संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला / सत्‍यम

फासीवाद

फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें / कात्‍यायनी

नमो फासीवाद : नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन / कविता कृष्‍णपल्‍लवी

महान क्रान्तिकारियों की कलम से

उद्धरण : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

श्रद्धांजलि

नेल्सन मण्डेला / आनन्‍द सिंह

आपकी बात

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

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Errata (भूल सुधार) :
‘दिशा संधान’ के अंक-2, जुलाई-सितम्बर 2013 के प्रिंट संस्करण के कई लेखों में कुछ शब्दों के अंग्रेजी अनुवाद कोष्ठक में दिए गए हैं जिनके फाण्ट ग़लती से हिन्दी रह गए, जिनके कारण वे अपठनीय हो गए हैं। उनको पढ़ने के लिए वेब संस्करण को संदर्भित करें, जिसमें यह ग़लती नहीं है।

प्रिंट संस्करण में कृपया उन्हें इस प्रकार सुधार कर पढ़ें :

पृष्ठ संख्या/ पैरा/लाइन अशुद्ध छपाई सही शब्द

पृष्ठ 20, पैरा 1, लाइन 9 (चंतबमससप्रमक ‘जंजम)  (parcellized state)

पृष्ठ 20, पैरा 1, लाइन 13 (कमइज इवदकंहम) (debt bondage)

पृष्ठ 51, ऊपर से लाइन 9-10 (नदपदजमततनचजमक तमअवसनजपवद) (uninterrupted revolution)

पृष्ठ 75, ऊपर से लाइन 9  (नईजपजनजपवदपेउ) (substitutionism)

पृष्ठ 97, नीचे से लाइन 12 (बिजपवदंसपेउ) (factionalism)

पृष्ठ 102, पैरा 1, लाइन 10 (नदपदजमततनचजमक तमअवसनजपवद) (uninterrupted revolution)

पृष्ठ 114, पैरा 1, लाइन 8 (चतवअपेपवदंस लचवजीमेपे) (provisional hypothesis)

पृष्ठ 125, नीचे से लाइन 12 (वतजीवकवगजीमवबतंबल) (orthodox theocracy)

पृष्ठ 133, पैरा 1, लाइन 3-4 (दंजप.बिजपवदंसपेज बिजपवद) (anti-factionalist faction)

पृष्ठ 213, पैरा 2, लाइन 10 (बंचपजंसपेज तमदजपमत संदकसवतक.) (capitalist rentier landlord)

पृष्ठ 233 (कककककक) (सामयिक)

– सम्पादक (अक्‍टूबर 2013)

भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल

अगर भारतीय मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी आन्‍दोलन को प्रगति करनी है तो उसे अर्द्धसामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरण की बेडि़यों को तोड़ना होगा। हमारे विचार में अधिकांश माले पार्टियों और बुद्धिजीवियों को अर्द्ध-सामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरणों की वर्तमान भारतीय परिस्थिति और साथ ही भारतीय इतिहास पर भी इसकी प्रयोज्यता पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कार्यक्रम के सवाल को विचारधारा के सवाल में नहीं बदल दिया जाना चाहिए, जैसा कि भारत में कठमुल्लावादी वाम ने किया है। अगर कोई पूँजीवादी विकास या समाजवादी क्रान्ति की मंजिल की बात करता है तो उन्हें अक्सर त्रात्स्कीपन्‍थी कह दिया जाता है क्योंकि यह लगभग एक आकाशवाणी या स्वयंसिद्ध तथ्य जैसा बन चुका है कि ऐसा कहना ही लेनिन के दो चरणों में क्रान्ति के सिद्धान्‍त को खारिज करने के समान है! यह एक विडम्बना की, बल्कि त्रासदी की, स्थिति है, जिससे जितनी जल्दी हो सके छुटकारा पा लिया जाना चाहिए। read more

गहराता वैश्विक पूँजीवादी संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला

वर्ष 2006 से जिस विश्वव्यापी मन्दी ने पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी जकड़ में ले रखा है उससे उबरने के अभी कोई आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। संकट को टालने के लिए पूँजीवाद के नीम-हकीमों और वैद्दों ने जितने नुस्खे सुझाये हैं उनके कारण संकट की नये रूपों में फिर वापसी ही होती रही है। इन सभी उपायों की एक आम विशेषता यह रही है कि पूँजीपतियों और उच्च वर्गों को राहत देने के लिए संकट का ज़्यादा से ज़्यादा बोझ मेहनतकशों और आम लोगों पर डाल दिया जाये। इसके कारण लगभग सभी देशों में सामाजिक सुरक्षा के व्यय में भारी कटौती, वास्तविक मज़दूरी में गिरावट, व्यापक पैमाने पर छँटनी, तालाबन्दी आदि का कहर read more

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त)

पार्टी निर्माण और गठन के पहले नरोदवाद, ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद से चले संघर्ष और पार्टी गठन के बाद मेंशेविकों और त्रात्स्कीपन्थियों से चले संघर्ष वे प्रमुख राजनीतिक संघर्ष थे, जिन्होंने एक ओर शुरुआती दौर में रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के आकार और आकृति को निर्धारित किया, वहीं पार्टी गठन के बाद पार्टी के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को निर्धारित किया। इस पूरे संघर्ष में लेनिन की भूमिका कम-से-कम 1898-99 से निर्धारक की बन चुकी थी। लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति होगा कि करीब दो से ढाई दशक तक चले इस राजनीतिक संघर्ष को महज लेनिन के योगदानों की श्रृंखला के तौर देखा जा सकता है। लेनिन के नेतृत्व में समूचे बोल्शेविक नेतृत्व ने यह संघर्ष चलाया। निश्चित तौर पर, कई मौकों पर इस नेतृत्व में लेनिन स्वयं अकेले पड़ जाते थे, लेकिन अन्‍ततः यह बोल्शेविक नेताओं की कोर कुल मिलाकर लेनिन की अवस्थिति को अपनाती थी और अन्य विजातीय विचारधारात्मक प्रवृत्तियों से संघर्ष में लेनिन के साथ खड़ी होती थी। कोई भी कम्युनिस्ट एकता इसी प्रकार कार्य करती है। वह किसी भी सूरत में एकाश्मी नहीं हो सकती और द्वन्‍द्वात्मक गति से आगे बढ़ती है। लेनिन की महानता इस पूरे राजनीतिक संघर्ष को अपनी विचारधारात्मक व राजनीतिक समझदारी और नेतृत्व में सही दिशा में आगे ले जाने में निहित थी। read more

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाजिमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ न जा सके, इसके लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्‍त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है। देखना यह है कि यह सारी प्रक्रिया अब किसी रूप में घटित होती है। read more

श्रद्धांजलि – नेल्सन मण्डेला

निश्चित रूप से नेल्सन मण्डेला का जीवन (विशेष रूप से जेल से रिहाई से पहले तक) रंगभेद के खिलाफ अश्वेतों के संघर्ष का प्रतीक बन गया था। परन्‍तु यदि उनके जीवन के दूसरे पहलू यानी जेल से बाहर निकलने के बाद अश्वेतों की मुक्ति के स्वप्न के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात को नहीं उजागर किया जाता है, तो यह इतिहास के साथ अन्याय होगा। 27 वर्षों तक रंगभेदी हुकूमत की कैद में रहने के बाद एक समझौते के तहत रिहा होने के बाद नेल्सन मण्डेला ने जिस कदर साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके, उससे वह तीसरी दुनिया के देशों के राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नायकों के खण्डित गौरव की त्रासदी का भी प्रतीक बन गये। मण्डेला ने अश्वेतों की मुक्ति के जिस स्वप्न के लिए संघर्ष किया, वक्त आने पर उसी से उन्होंने आश्चर्यजनक तरीके से मुँह मोड़ लिया। read more

‘कम्युनिज़्म’ का विचार या उग्रपरिवर्तनवाद के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

‘‘कम्युनिज्म’’ की अपनी प्राक्कल्‍पना और विचार के नाम पर बेज्यू मार्क्‍सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं और क्रान्तिकारी अन्‍तर्वस्तु को खारिज करने का काम करते हैं। वह अतीत के सभी समाजवादी प्रयोगों पर ‘‘विफलता’’, ‘‘त्रासदी’’ और ‘‘आपदा’’ का लेबल तो चस्पाँ कर देते हैं, जो कि बेज्यू के लिए आकाशवाणी-समान सत्य है, लेकिन न तो उन प्रयोगों का कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन पेश करते हैं और न ही सामाजिक परिवर्तन का अपना कोई सकारात्मक मॉडल पेश करते हैं। वह एक ऐसे कम्युनिज्म की बात करते हैं जो मार्क्‍सवादी नहीं होगा। लेकिन, अकेले बेज्यू इस अनैतिहासिक, गैर-द्वन्‍द्वात्मक, प्रत्ययवादी सैद्धान्तिकीकरण का शिकार नहीं हैं, बल्कि उत्तर-मार्क्‍सवादी ‘‘रैडिकल’’ दार्शनिकों की पूरी धारा है जो मार्क्‍सवाद पर हमला बोल रही है। अकर्मण्यता और निष्क्रियता के इन सिद्धान्‍तकारों को हम दुनिया की ‘‘नयी व्याख्या’’ करनेवाले उनके ‘‘विचारों’’ के बीच ही छोड़ देते हैं, क्योंकि दुनिया को बदलने का काम अभी भी बाकी है। read more

नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में

आमतौर पर इतिहास में पहले भी यह देखा गया है कि कोई पार्टी यदि अपने ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव को साहसपूर्ण आत्मालोचना और दोष-निवारण द्वारा दूर नहीं करती है, तो पेण्डुलम फिर दूसरे छोर तक, यानी दक्षिणपन्‍थी भटकाव तक जाता ही है। एनेकपा (माओवादी) के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रचण्ड की लाइन में लोकयुद्ध के पूरे दौर में ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव एक सैन्यवादी लाइन के रूप में मौजूद था, राजनीति के ऊपर बन्‍दूक की प्रधानता थी, जुझारू कार्यकर्ताओं की राजनीतिक शिक्षा पर और उन्हें बोल्शेविक संस्कृति में ढालने पर जोर बहुत कम था। ऐसी पार्टी जब बुर्जुआ जनवाद के दाँवपेंच में उतरी तो फिर पूरी पार्टी उसी भँवर में उलझकर रह गयी। read more

अपनी बात

‘दिशा सन्धान’ के प्रवेशांक में हमने पूँजीवाद के गहराते वैश्विक संकट और उससे पैदा होने वाले राजनीतिक संकट की चर्चा की थी। गुज़रे एक वर्ष के दौरान स्थितियाँ और गम्भीर हुई हैं। कई लोग अक्सर यह ख़ुशफ़हमी पाल लेते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकटों के बोझ तले ख़ुद ही ढेर हो जायेगी। मगर यह बस ख़ुशफ़हमी ही है। जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्ता संगठित नहीं होगा, पूँजीवाद अपनेआप ध्वस्त नहीं होगा। इतना ही नहीं, पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो इसका प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फासीवाद के रूप में सामने आयेगा। read more