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समाजवाद की समस्याएँ, पूँजीवादी पुनर्स्थापना और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति

 

समाजवाद की समस्याएँ, पूँजीवादी पुनर्स्थापना और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति

  • शशि प्रकाश

प्राक्कथन

पुस्तिका के रूप में प्रकाशित हो रहे इस निबन्ध और इसके अनुपूरक का लेखन पाँच वर्षों पूर्व हुआ था जब तत्कालीन सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में घट रही घटनाओं को “समाजवाद की पराजय”, “कम्युनिस्ट सत्ता के पतन” और “समाजवादी संरचना के विघटन” के रूप में देखा जा रहा था और पश्चिमी बुद्धिजीवी और उनकी पत्तलें चाटने वाले तीसरी दुनिया के कलमनवीस “(पश्चिमी) जनतन्त्र की विजय” पर जश्न मना रहे थे।

तब पूरी दुनिया में एक बार फिर “इतिहास का अन्त”, “विचारधारा का अन्त” आदि का शोर था। गोर्बाचोव और येल्त्सिन के दौर में बहुतेरे मार्क्सवादी “मुक्त चिन्तक” पहले “खुलेपन” के मुरीद हुए और फिर उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर मार्क्सवाद आदि-आदि के प्रवक्ता बन गये। परन्तु अफ़सोस! उनके तमाम दार्शनिक विमर्श पूँजीवादी दुनिया को उसकी असमाधेय समस्याओं से मुक्ति की राह न दिखला सके। नीत्शे, स्पेंग्लर, टॉयन्बी, डैनियल बेल आदि की प्रेतात्माएँ जागी भी तो ऐसे कि पूरा पूँजीवादी विश्व नैराश्यपूर्ण रुदन से भर गया। “समाजवाद के पतन” का “विक्षिप्त विजयोल्लास” (क्या विडम्बना है कि ये शब्द स्वयं उत्तर आधुनिकतावाद के मसीहा जॉक देरिदा के हैं!) जल्दी ही अवसादपूर्ण रुदन और भयपूर्ण चीख़ों में गुम हो गया।

पाँच वर्षों का समय बीत चुका है। इस बीच पूँजीवाद के पाप का भूमण्डलीय घड़ा कुछ और भर गया है। मुक्त बाज़ार के स्वर्ग का बहुप्रचारित सपना जब रूस सोवियत संघ के घटक देशों और पूर्वी यूरोप में साकार हुआ तो जनता ने पाया कि यह तो लूट, महँगाई, बेरोज़गारी, धनी-ग़रीब के बीच की बढ़ती खाई, हत्या-बलात्कार-वेश्यावृत्ति, राहजनी, नैतिक अधःपतन और मानसिक बीमारियों का सदियों पुराना वही क्लासिकी पूँजीवादी नर्क है जो दुनिया के रसातल के देशों (तीसरी दुनिया) से लेकर वैभव के पश्चिमी शिखर तक व्याप्त है।

विश्व पूँजीवाद की आज की बीमारियाँ सुपरिचित हैं पर उनकी प्रकृति आज पहले हमेशा से अधिक स्पष्ट रूप में असमाधेय और स्वरूप अधिक विकट है।

इन परिस्थितियों में, विगत पाँच वर्षों से रूस और पूर्वी यूरोप के देशों की जनता हाथों में लेनिन और स्तालिन के पोस्टर थामे हुए सड़कों पर जुलूस निकाल रही है जो इस बात का स्पष्ट संकेत है कि जिन देशों में कभी समाजवादी प्रयोग हो चुके हैं वहाँ की मेहनतकश जनता पूँजीवादी लूट-दमन-अपराध और फ़रेब को बहुत दिनों तक बर्दाश्त नहीं कर सकती। सर्वहारा क्रान्ति के विश्व-ऐतिहासिक महासमर का दूसरा चक्र शुरू हो चुका है।

और ऐन इसी मुक़ाम पर दुनिया के पैमाने पर सर्वहारा शक्तियाँ एक बार फिर बुनियादी विचारधारात्मक सवालों के रूबरू खड़ी है। अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की – आर्थिक नवउपनिवेशवाद के दौर की नयी सर्वहारा क्रान्तियों की प्रगति और सफलता की बुनियादी गारण्टी इन प्रश्नों के समाधान पर ही निर्भर करती हैं कि: · सोवियत संघ, पूर्वी यूरोप के देशों और चीन आदि के देशों में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना क्यों हुई और कब हुई · समाजवादी प्रयोगों की ऐतिहासिक उपलब्धियाँ, असफलताएँ, ग़लतियाँ और वस्तुगत सीमाएँ क्या थीं · समाजवादी समाज की प्रकृति एवं स्वरूप कैसा होता है · यदि समाजवाद वर्ग समाज से वर्गविहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमणकाल है और इस लम्बी अवधि के दौरान वर्ग (एवं ज़ाहिरा तौघ्र पर वर्ग-संघर्ष भी) मौजूद रहते हैं तो वे कौन-कौन से वर्ग होते हैं और वर्ग सम्बन्धों की प्रकृति क्या होती है · इस संक्रमणशील वर्ग समाज में राज्य की प्रकृति क्या होती है, वह किस वर्ग के हाथों में होता है यानी समाजवादी समाज में राज्य और क्रान्ति का प्रश्न किस रूप में मौजूद होता है और किस तरह से हल किया जाता है · सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के विचार क्या हैं, इस अवधारणा का क्रमशः विकास किस रूप मे हुआ तथा इसके व्यवहार के ऐतिहासिक अनुभव हमें क्या बताते हैं · समाजवादी समाज में कृषि और उद्योग के क्षेत्र में और समग्र रूप में उत्पादन सम्बन्धों की प्रकृति क्या होती है, उनमें बाज़ार की और बुर्जुआ अधिकारों की क्या स्थिति होती है, उनमें माल-उत्पादन की अर्थव्यवस्था किन रूपों में मौजूद रहती है, समाजवादी समाज की राजनीतिक-सांस्कृतिक अधिरचना की प्रकृति और गतिकी (डायनामिक्स) क्या होती है तथा सतत परिवर्तनशील आर्थिक मूलाधार को वह किस तरह प्रभावित करती है और उससे किन रूपों में प्रभावित होती है… आदि-आदि।

इन सभी प्रश्नों की कुंजीभूत कड़ी यह है कि यहाँ भी हम वर्ग-विश्लेषण को न भूलें। समाजवादी समाज यदि एक वर्गविहीन समाज नहीं है तो उसकी वर्गप्रकृति को समझना होगा ताकि सर्वहारा वर्ग के क्रान्तिकारी हरावल समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि में वर्गसंघर्ष में मेहनतकश अवाम को नेतृत्व देते रह सकें।

आज संशोधनवादी पार्टियों और मार्क्सवादी अकादमीशियनों से लेकर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बहुतेरे धड़ों तक के बीच रूस, पूर्वी यूरोप में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की एक हज़ार एक अनुभवसिद्ध आलोचनाएँ-व्याख्याएँ प्रस्तुत की जा रही हैं, इन व्याख्याओं में वर्ग-विश्लेषण की भौतिकवादी द्वन्द्ववादी पद्धति और राज्य और क्रान्ति के बुनियादी प्रश्न पर मार्क्सवादी दृष्टिकोण एवं पहुँच के अतिरिक्त बाक़ी सारी बातें मौजूद होती हैं। अकादमिक, “मौलिक” चिन्तनों, सूत्रीकरणों का घटाटोप-सा छा गया है। स्थिति यह है कि विनोद मिश्र के नेतृत्व वाली सी.पी.आई. (एम.एल.) एक ओर माओ त्से-तुङ और उनके नेतृत्व में चीनी पार्टी द्वारा ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध चलायी गयी ‘महान बहस’ की दुहाई भी देती है और अपनी पूर्व अवस्थिति से एकदम पलटा खाकर एकदम ख्रुश्चेवी मानदण्डों को अपनाकर ब्रेझनेव से लेकर कोसीगिन काल तक के सोवियत संघ को समाजवादी समाज तथा सोवियत पार्टी को एक सही कम्युनिस्ट पार्टी भी मानने लगती है। इसी के साथ वह देश के भीतर सी.पी.आई., सी.पी.एम. जैसी पार्टियों को सही वामपन्थी मानकर व्यापक वाम एकता की दुहाई भी देने लगती है। वह पूरी दुनिया के पूँजीवादी विचारकों और संशोधनवादियों की तरह रूस में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना 1990 से मानने लगती है। तब प्रश्न उठ जाता है कि आखि़रकार समाजवादी समाज और समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध की बुनियादी पहचान या लक्षण क्या है? आखि़रकार लेनिन से लेकर माओ तक द्वारा प्रयुक्त संशोधनवाद शब्द का वास्तविक अर्थ, पहचान या मानदण्ड क्या है? आज स्थिति यह है कि ‘महान बहस’ में तटस्थता का रुख़ अपनाने वाली सी.पी.एम. और ख्रुश्चेवी कम्युनिज़्म का पक्ष चुनने वाली सी.पी.आई. जैसी पार्टियों (जो माओ के काल तक के चीन को समाजवादी मानती ही नहीं थी) को चीनी ख्रुश्चेव देङ सियाओ पिङ का “बाज़ार समाजवाद” सच्चा समाजवाद नजर आ रहा है क्योंकि येल्त्सिन ने रूस में समाजवाद का नाश कर दिया है। स्वयंभू “मार्क्सवादी सिद्धान्तकार” के रूप में नया अवतार लेने वाले साहित्यालोचक रामविलास शर्मा एक ओर तो स्तालिन की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं और ख्रुश्चेव को ग़लत बताते हैं, दूसरी ओर वे येल्तसिन-पूर्व सोवियत समाज को समाजवादी भी मानते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ख्रुश्चेव से भी दो क़दम आगे बढ़कर यूरो-कम्युनिस्टों और नव वामपन्थियों के सुर में सुर मिलाते हुए वे सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा को ही सारी बुराइयों की जड़ ठहराने लगते हैं तथा जनतन्त्र की अवधारणा की दुहाई देने लगते हैं। तब वे यह नहीं बताते कि सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा पर दृढ़ता से अडिग रहने वाले स्तालिन सही कैसे थे और ‘समूची जनता के राज्य’ और ‘समग्र जनगण की पार्टी’ की बात करने वाला ख्रुश्चेव ग़लत कैसे था? तब वे यह भी नहीं बताते कि उनकी यह स्थापना नई नहीं बल्कि सदी भर पुरानी है। लासाल के विरुद्ध बहस में मार्क्स ने और काउत्स्की के विरुद्ध बहस में लेनिन ने पर्याप्त तर्कों के साथ ‘मुक्त राज्य’ और ‘वर्गेतर जनतन्त्र’ की भ्रान्त धारणाओं की धज्जियाँ उड़ायी थीं। मार्क्स और लेनिन ने यह स्पष्ट किया था कि सर्वहारा क्रान्ति का विज्ञान वर्गसंघर्ष के साथ सर्वहारा अधिनायकत्व की स्वीकृति को भी बुनियादी तत्त्व मानता है। रामविलास शर्मा समाजवादी समाज के उत्पादन सम्बन्धों और वर्ग सम्बन्धों के विश्लेषण के बिना केवल साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की घुसपैठ को ही समाजवाद की विफलता का मूल कारण मानते हैं।

कुल मिलाकर, भोंडे़ भौतिकवाद और अनुभववादी विश्लेषणों, और क़िस्म-क़िस्म की “मुक्त चिन्तन सरणियों” की धकापेल में मार्क्सवादी विश्लेषण पद्धति जैसे गुम हो गयी है। रामविलास शर्मा जैसे बुद्धिजीवियों, विनोद मिश्र ब्राण्ड नये संशोधनवादियों और पुराने ख्रुश्चेवी ब्राण्ड के संशोधनवादियों ने राज्य और क्रान्ति के बारे में, सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में, समाजवादी संक्रमण की प्रकृति के बारे में न केवल माओ और स्तालिन की बल्कि मार्क्स से लेकर लेनिन तक की आधारभूत शिक्षाओं पर धूल और राख़ की एक परत-सी चढ़ा दी है। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बारे में अपनी “मौलिक प्रस्थापनाएँ” देते हुए सभी नवमार्क्सवादी ब्राण्ड के चिन्तक गण कभी इस बात की चर्चा ही नहीं करते कि लेनिन और माओ ने (और यहाँ तक कि मार्क्स ने भी) समाजवादी समाज की वर्ग प्रकृति, समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष के स्वरूप, समाजवादी समाज में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों व अधिरचनाओं के विविध रूपों की मौजूदगी और तज्जन्य समाजवाद की समस्याओं के बारे में क्या-क्या लिखा है और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के किन-किन स्रोतों एवं सम्भावनाओं की चर्चा की है?

इन्हीं कूपमण्डूकतापूर्ण सोचों का नतीजा है कि पश्चिमी पूँजीवाद के प्रति आम जनता की अपार घृणा के परिणामस्वरूप रूस और पूर्वी यूरोप के बहुतेरे देशों के चुनावों में तथाकथित कम्युनिस्टों-पूर्व कम्युनिस्टों की जो विजय हुई है, उस पर सभी ब्राण्ड के नववामपन्थी ख़ुशियाँ मना रहे हैं और एक बार फिर जनता में विभ्रम पैदा कर रहे हैं।

सर्वहारा क्रान्तियों और सर्वहारा वर्ग की भावी सफलता की बुनियादी और सर्वोपरि गारण्टी है – अतीत की विफलताओं के बुनियादी कारणों की सांगोपांग समझ। इस दिशा में गम्भीर अधययन-चिन्तन के विस्तृत क्षेत्र का द्वार खोलने की दृष्टि से प्रस्तुत आलेख आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना कि पाँच वर्षों पहले था। हम एक बार फिर इस प्रश्न पर खुली बहस आमन्त्रित करते हैं जैसेकि 1990 के पाँच दिवसीय अखिल भारतीय सेमिनार के दौरान किया गया था। पाठकों से हमारी अपील है कि वे समाजवादी प्रयोगों, उनके पराजय के कारणों के विश्लेषण तथा सर्वहारा अधिनायकत्व आदि के बारे में सभी भाँति-भाँति के “मार्क्सवादियों” अकादमीशियनों के विश्लेषणों को अवश्य पढ़ें, पर उसके पहले यह भी अध्ययन कर लेना ज़रूरी है कि इन सभी बुनियादी प्रश्नों पर अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के महान शिक्षकों और नेताओं – मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ ने क्या कहा और लिखा है और विगत क्रान्तिकारी प्रयोगों के अनुभवों का स्वयं क्रान्तिकारी व्यवहार में लगी अनुभवी क्रान्तिकारी पार्टियों व उनके नेताओं ने क्या समाहार किया है। जो मानते हैं कि मार्क्सवाद कर्मों का मार्गदर्शक सिद्धान्त है उनकी पद्धति यही होनी चाहिए।

इस निबन्ध में विस्तृत विश्लेषण और मार्क्स, लेनिन और स्तालिन के विस्तृत हवालों से यह स्थापना प्रस्तुत की गयी है कि समाजवाद वर्गसमाज और वर्गविहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमण काल होता है। इस अवधि में भी समाज में वर्ग, पूँजीवादी-उत्पादन सम्बन्ध, शोषण और पूँजीवादी तथा अन्य वर्गीय अधिरचनाएँ मौजूद रहती हैं। समाजवादी संक्रमण की इस दीर्घावधि में लम्बे समय तक पुराने शोषक वर्गों, समाजवादी सामाजिक संरचना के भीतर से पैदा हुए नये बुर्जुआ वर्गों और उनकी सहायता के लिए तत्पर खड़े साम्राज्यवाद की ओर से पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावनाएँ अपरिहार्यतः मौजूद रहती हैं। मानव इतिहास में सर्वहारा क्रान्तियाँ पहली ऐसी क्रान्तियाँ हैं जिनका लक्ष्य वर्गविहीन-शोषणविहीन समाज बनाना है – यानी अन्ततोगत्वा वर्ग और राज्य को ही विलोपीकरण की प्रक्रिया से समाप्त कर देना है। इस दृष्टि से यह समझना कठिन नहीं है कि समाजवाद के अन्तर्गत जारी वर्गसंघर्ष पहले हमेशा की तुलना में अधिक जटिल, उत्कट, दुर्द्धर्ष और दीर्घकालिक होगा और जैसाकि लेनिन और माओ ने बार-बार इंगित किया है, इस दौरान कई हार-जीत और चढ़ाव-उतार के बाद ही अन्तिम विजय का फ़ैसला हो सकता है।

आलेख में तमाम नये-पुराने सामाजिक जनवादी कचरे की सफ़ाई करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि ‘मार्क्सवाद की राज्य और क्रान्ति विषयक बुनियादी प्रस्थापनाएँ आज भी सही हैं। राज्यसत्ता का सवाल क्रान्ति का सर्वोपरि प्रश्न है, यह बात समाजवाद के लिए भी सही है क्योंकि उस अवधि में भी बुर्जुआ वर्ग अभी मौजूद रहता है और हम जानते हैं कि राज्यसत्ता के ज़रिये ही एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन करता है। राज्यसत्ता एक वर्गीय अधिरचना है, यह कभी वर्गेतर नहीं हो सकती। पूँजीवादी जनतन्त्र वस्तुतः पूँजीपति वर्ग का अधिनायकत्व होता है और समाजवादी जनतन्त्र सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व। बुर्जुआ वर्ग पर अपनी राज्यसत्ता द्वारा बल प्रयोग करके ही सर्वहारा वर्ग समाजवाद को कम्युनिज़्म की दिशा में लगातार आगे बढ़ा सकता है। यानी समाजवाद के अन्तर्गत बुनियादी प्रश्न सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत क्रान्ति को जारी रखने का है। यानी समाजवाद के अन्तर्गत भी वर्गसंघर्ष ही समाज विकास की कुंजीभूत कड़ी होता है।

लेख में सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने और समाजवादी रूपान्तरण के सोवियत व चीनी प्रयोगों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों की विस्तार से चर्चा की गयी है, सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अनुभव तथा चीन में जारी वर्गसंघर्ष के अनुभव के आधार पर माओ के युगान्तरकारी प्रयोग – महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की चर्चा की गयी है और यह बताया गया है कि राज्य और क्रान्ति विषयक मार्क्सवादी शिक्षाओं को उन्नत करते हुए माओ ने पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों के कारणों की क्या व्याख्या की थी और उनके विरुद्ध संघर्ष का क्या मार्ग बताया! लेख में यह भी स्पष्ट किया गया है कि महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के पहले प्रयोग के बावजूद वर्ग शक्ति सन्तुलन में आये किन बदलावों तथा किन वस्तुगत मनोगत कारणों के चलते चीन में भी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो गयी और विश्व ऐतिहासिक विपयर्य का एक अभूतपूर्व दौर शुरू हो गया।

इस समझदारी के आधार पर ही सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करण निर्मित किये जा सकते हैं और पूँजीवादी पुनर्स्थापना की तमाम सम्भावनाओं से बचने की तैयारी पहले से ही जारी रखी जा सकती है।

लेख के प्रारम्भ में ही मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं के आधार पर यह स्पष्ट किया गया है कि सोवियत संघ में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना तो ख्रुश्चेव के ही काल में हो चुकी थी जिसने वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त को छोड़कर “शान्तिपूर्ण संक्रमण” की थीसिस प्रतिपादित की और समाजवाद में वर्गों एवं वर्ग संघर्षों की मौजूदगी को नकारकर “समूची जनता के राज्य” के नाम पर पूँजीवादी अधिनायकत्व क़ायम किया। ख्रुश्चेव के काल से लेकर ब्रेझनेव के काल तक समाजवाद का नक़ली झण्डा लहराता रहा क्योंकि नये क़ायम हुए पूँजीवाद का स्वरूप राजकीय इजारेदार पूँजीवाद का था जिसमें निजी स्वामित्व, नये पूँजीपति वर्ग तथा पूँजी और श्रम के बीच के अन्तरविरोध का बाह्य स्वरूप एकदम स्पष्ट नहीं था। नये बुर्जुआ वर्ग का शासन समाजवाद और कम्युनिस्ट पार्टी के नाम पर चलता रहा और उनके अपराध, भ्रष्टाचार और फिर नवफ़ासिस्ट हरकतें और भ्रष्टाचार जनता की नजरों में कम्युनिज़्म को कलंकित करते रहे।

समाजवादी चोंगा पहने इसी राजकीय इजारेदार पूँजीवाद के गर्भ से सत्ताधारी संशोधनवादी नौकरशाह नवबुर्जुआओं के साथ-साथ धीरे-धीरे विभिन्न संस्तरों पर नये बुर्जुआ तत्त्व पैदा हुए। अन्ततोगत्वा राजकीय इजारेदार पूँजीवाद के उग्र होते अन्तरविरोधों की तार्कित परिणति के तौर पर खुले निजी या क्लासिकी पूँजीवाद में उसका रूपान्तरण होना ही था जो 1989-90 में पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में सम्पन्न हुआ। दूसरे शब्दों में राजकीय इजारेदार पूँजीवादी ढाँचे में निहित ठहराव और तज्जन्य सामाजिक राजनीतिक संकटों के निदान के लिए मूलाधार और अधिरचना का 1985-90 के बीच नवक्लासिकी पूँजीवादी पैटर्न पर पुनर्गठन हुआ। संशोधनवादी कुलीनतान्त्रिक सत्ता के सभी नये क़िस्म के नौकरशाह इजारेदार पूँजीपति वर्ग की जगह खुले पूँजीवाद का हिमायती और पश्चिमपरस्त नया पूँजीपति वर्ग सत्ता में आया। ज़ाहिरा तौर पर इस प्रक्रिया में साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी और उसकी समस्त भौतिक शक्ति की भी अहम भूमिका थी।

अब पूर्वी यूरोप और रूस में चुनाव जीतकर जो तथाकथित कम्युनिस्ट या भूतपूर्व कम्युनिस्ट सत्ता में आ रहे हैं, ये सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि नहीं हैं (वैसे भी चुनाव की शान्तिपूर्ण प्रक्रिया से बुर्जुआ वर्ग और उनके सरपरस्त साम्राज्यवादी, सच्चे कम्युनिस्टों को सत्ता कदापि नहीं हस्तान्तरित कर सकते)। ये कम्युनिस्ट उसी पुराने नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि हैं जो ख्रुश्चेव काल से लेकर गोर्बाचोवी संक्रमण काल तक सत्ता में रहे। वह वर्ग (हर शासक वर्ग की ही तरह) सत्ताच्युत तो हुआ था, पर रूसी-पूर्वी यूरोपीय समाज में एक प्रबल आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक शक्ति के रूप में वह अभी भी मौजूद है। अब खुले पूँजीवाद के विरुद्ध आम मेहनतकश जनता की घृणा और बगावत का लाभ उठाकर वह एक बार फिर सत्ता का भागीदार बनना चाहता है और वस्तुतः साम्राज्यवाद और देशी नये पूँजीपतियों के सामने यह सिद्ध करना चाहता है कि आज की बदली परिस्थितियों में वह भी बाज़ार अर्थतन्त्र के प्रति प्रतिबद्ध, व्यवस्था का उपयोगी पुर्जा ओर उनका चाकर है।

और उसका यह सोचना एक मायने में, उसकी दृष्टि से, उचित ही है। जनाक्रोश के दबाव को कम करने वाले ‘सेफ्टी वाल्व’ के रूप में, पूँजीवादी राजनीतिक व्यवस्था की दूसरी-तीसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में सामाजिक जनवाद की, संशोधनवाद की या किसिम-किसिम के “वामपन्थों” की प्रभावी भूमिका अभी भी समाप्त नहीं हुई है। आज निजीकरण-उदारीकरण की लहर में भी, अर्थतन्त्र व राजनीति के क्षेत्र में एक सन्तुलनकारी शक्ति तथा जनता को विभ्रमकारी राहत देकर उसकी चेतना के क्रान्तिकारीकरण को भोथरा करने वाली शक्ति के रूप में सामाजिक जनवाद की भूमिका क़ायम है। रूस और पूर्वी यूरोप में तथाकथित कम्युनिस्टों की वापसी और चीनी ख्रुश्चेव देङ सियाओ पिङ के पश्चिम प्रशंसित “बाज़ार समाजवाद” की “सफलता” और संकटों को इसी सन्दर्भ में सही ढंग से समझा जा सकता है।

मगर विश्व पूँजीवाद के गहराते असमाधेय संकटों का यह चक्र इतना विकट है कि सामाजिक जनवाद उसके लिए क्षणिक राहत से अधिक कुछ दे नहीं सकता। कीन्सवादी नुस्ख़े अनुपयोगी हो चुके हैं। श्रम और पूँजी के नग्न अन्तरविरोध पर कोई पर्दा टिक पाना सम्भव नहीं लगता। पेरू में लाख दमन के बावजूद माओवादी पार्टी के नेतृत्व में संघर्ष जारी रहना, चियापास (मेक्सिको) किसान विद्रोह, फिलिप्पीन्स में छापामार संघर्ष का नया उभार, समूचे लातिन अमेरिका में छापामार संघर्षों का नया दौर शुरू होने के संकेत और पश्चिम के समृद्ध देशों तक में फूटते जनान्दोलन बताते हैं कि विश्व पूँजीवाद के विरुद्ध फिर जनता कमर कस रही है। ऐसे समय में सर्वहारा क्रान्ति के हरावल दस्तों का दायित्व है कि वे सर्वहारा क्रान्ति की सही सच्ची विचारधारा – मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी विचारधारा को आत्मसात करें, उसके विकृतिकरण-भ्रष्टीकरण की हर कोशिश का मुँहतोड़ जवाब दें, उसका व्यापक प्रचार करें और इसके आधार पर जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित करें।

रूस, उक्रेन, पूर्वी यूरोप के कई देशों और जर्मनी तक में आज फ़र्ज़ी, चुनावी कम्युनिस्टों के साथ-साथ क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियाँ भी तेज़ी से विकसित व संगठित हो रही हैं। उधर चीन में “बाज़ार समाजवाद” का सारा रंग-रोगन उतरता जा रहा है और जगह-जगह किसानों-मज़दूरों के विद्रोह फूटने लगे हैं।

हमें सतर्क निगाहों से इन संकेतों के अर्थ समझने होंगे और मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु से क्रान्ति की क़तारों को लगन और मेहनत के साथ परिचित कराना होगा। इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में इस छोटी-सी पुस्तिका की थोड़ी-सी सार्थकता होगी तो हम अपना उद्यम सफल मानेंगे।

                                                                शशिप्रकाश (14 फ़रवरी 1996)

ग्लासनोस्त-पेरेस्त्रोइका और उनके परिणाम तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में सत्ता-परिवर्तन की घटनाएँ पिछले दिनों लगातार राजनीतिक चर्चा का केन्द्रीय विषय रही हैं और आज भी बनी हुई हैं। इन देशों में आज समाजवादी व्यवस्थाएँ क़ायम नहीं रह गयी हैं, इसमें अब शायद ही किसी को सन्देह रह गया हो। पर कम्युनिस्टों के लिए आज ज़रूरी यह है कि वे पूँजीवादी पुनर्स्थापना की इस पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया का सांगोपांग विश्लेषण करके इनकी अन्तर्वस्तु और स्वरूप के बारे में तथा विश्व सर्वहारा क्रान्ति पर पड़ने वाले इनके प्रभावों के बारे में सम्यक समझदारी हासिल करें। केवल तभी वे अपने आगे के कार्यभार तय कर सकेंगे।

साथ ही, समाजवादी प्रयोगों की फिलहाली हार का लाभ उठाकर अन्तरराष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग ने सर्वहारा वर्ग की विचारधारा पर जो चौतरफ़ा हमला बोला है और झूठ एवं कुत्सा-प्रचार की जो अन्धाधुन्ध मुहिम छेड़ रखी है, उसका कारगर प्रतिकार करने के लिए ज़रूरी है कि हम इतिहास के अनुभवों एवं सामाजिक प्रयोगों द्वारा बार-बार सत्यापित मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मूल प्रस्थापनाओं को, उसकी रोशनी में सम्पन्न महान क्रान्तियों की शिक्षाओं को, और उनके प्राणतत्त्व को ज़ोर देकर रेखांकित करें।

रूस, पूर्वी यूरोप और चीन की वर्तमान स्थिति

ऐसा नहीं है कि सोवियत रूस और पूर्वी यूरोप के देशों में समाजवाद का स्थान पूँजीवाद आज ले रहा है। वस्तुतः यह प्रक्रिया इन देशों में स्तालिन की मृत्यु के बाद ही शुरू हो चुकी थी।

सोवियत रूस में स्तालिन के निधन के बाद सत्तासीन ख्रुश्चेव ने समाजवादी नीतियों-सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर, संशोधवादी नीतियों-सिद्धान्तों के अमल की शुरुआत कर दी थी। 1956 तक पार्टी और राज्य पर अपना निर्णायक नियन्त्रण क़ायम कर चुकने के बाद ख्रुश्चेव ने पूँजीवादी पुनर्स्थापना की नीतियों को स्पष्ट तौर पर लागू कर दिया और इसकी प्रक्रिया तेज़ गति से आगे बढ़ी। मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों को ख़ारिज़ करके ख्रुश्चेव ने सिलसिलेवार आधुनिक संशोधनवाद के सिद्धान्त प्रतिपादित किये और उन्हें लागू किया। ख्रुश्चेव का दौर राजकीय इजारेदार पूँजीवाद और एक नये तरह के बुर्जुआ वर्ग – संशोधनवादी बुर्जुआ वर्ग की निरंकुश तानाशाही का प्रारम्भिक दौर था। ब्रेझनेव के काल में राजकीय इजारेदार पूँजीवाद के ढाँचे और उसकी अधिरचनात्मक अट्टालिका के निर्माण की प्रक्रिया मुकम्मिल हो गयी, पूँजीवादी सम्बन्ध समाज में मजबूती से जम गये, सोवियत संघ एक सामाजिक साम्राज्यवादी अतिमहाशक्ति के रूप में विश्व-प्रभुत्व की होड़ में जा खड़ा हुआ और संशोधनवादी बुर्जुआ वर्ग की सामाजिक फ़ासीवादी तानाशाही की जकड़बन्दी ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश होती चली गयी।

आज जो सोवियत संघ में हो रहा है, वह यह कि संशोधनवादी पूँजीवाद का स्थान वहाँ पश्चिमी ढंग का खुला पूँजीवाद ले रहा है। राज्यसत्ता पर संशोधनवादी पार्टी के वर्चस्व के माध्यम से जनता पर क़ायम संशोधनवादी बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व का स्थान वहाँ पश्चिमी पूँजीवाद जैसा बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व ले रहा है जिसका बाहरी मुखौटा बुर्जुआ जनवाद का है। सामाजिक फ़ासीवादी राज्य का स्थान वहाँ बहुदलीय संसदीय प्रणाली पर आधारित बुर्जुआ राज्य ले रहा है। गोर्बाचोव की नीतियाँ सोवियत पूँजीवादी समाज की आज की अनिवार्य आवश्यकता और अब तक के विकास की तार्किक परिणति हैं। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के पिछले पैंतीस वर्षों के दौरान सोवियत संघ में बुर्जुआ दायरे के भीतर मूलाधार और अधिरचना के अन्तरविरोध क्रमशः उग्र होते चले गये थे और अब असमाधेय हो चुके थे। अर्थतन्त्र के ठहराव और तज्जन्य सामाजिक-राजनीतिक संकटों से निजात पाने के लिए मूलाधार और उसकी पूरी अधिरचनात्मक अट्टालिका का पुनर्गठन ज़रूरी था। राजकीय इजारेदार पूँजीवादी ढाँचे में निहित प्रतियोगिता का सापेक्षिक अभाव बुर्जुआ दायरे के भीतर उत्पादक शक्तियों के पैरों में बेड़ी बन चुका था और इस संकट से निजात पाने के लिए निजीकरण और उदारीकरण का सहारा लेना, या दूसरे शब्दों में, पूँजीवाद को उसके क्लासिकीय रूप में फिर से बहाल करना आवश्यक बन चुका था। ब्रेझनेव की सत्ता उस संशोधनवादी पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी कर रही थी, जिसके हित संशोधनवादी बुर्जुआ कुलीन तन्त्र, सोवियत अर्थतन्त्र के राजकीय इजारेदारी ढाँचे और सामाजिक फ़ासीवादी राज्य पर उनके एकाधिकार में निहित थे और आज भी निहित हैं। इन विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक बुर्जुआ कुलीनों में पार्टी और राज्य के नौकरशाह, कारख़ानों और सामूहिक फ़ार्मों के प्रबन्धक, विशेषज्ञ और बुद्धिजीवियों के ऊपरी तबक़े शामिल हैं। आज की सोवियत पार्टी में गोर्बाचोव के सुधारों का विरोध करने वाले, अनुदारवादी कहलाने वाले लोग भी संशोधनवादी बुर्जुआ वर्ग के ही प्रतिनिधि हैं। गोर्बाचोव के सुधारों का, उदारीकरण एवं निजीकरण की नीतियों का समर्थक वह नया बुर्जुआ वर्ग है, जो समाज-विकास के बुर्जुआ मार्ग की अनिवार्य तार्किक परिणति के तौर पर पिछले पैंतीस वर्षों के दौरान विकसित हुआ है और जो खुले पूँजीवाद का हिमायती है। वर्ग शक्तियों का सन्तुलन आज सोवियत संघ में इस नये बुर्जुआ वर्ग के पक्ष में काफ़ी हद तक बदल चुका है और खुले पूँजीवाद में संक्रमण की दिशा तमाम विरोधों और दबावों के बावजूद वहाँ सुनिश्चित होती जा रही है।

इतिहासजन्य सुनिश्चित कारणों के चलते पूर्वी यूरोप के देशों में यही प्रक्रिया भिन्न रूप में घटित हुई है। इसका स्वरूप सोवियत रूस की अपेक्षा अधिक नग्न, और गति अधिक तेज़ रही है तथा परिणाम भी जल्दी सामने आये हैं। इन देशों में बालू की भीत की तरह ढह पड़ने वाली सत्ताएँ संशोधनवादी कुलीनतन्त्र की सत्ताएँ थीं, जिनका स्थान अब नये बुर्जुआ वर्ग ने ले लिया है। पूर्वी यूरोप में इस प्रक्रिया की गति अधिक तेज़ और स्वरूप अधिक नग्न होने के कुछ ऐतिहासिक कारण हैं। कम्युनिस्ट पार्टी की वर्ग संघर्ष में प्रभावी भूमिका और फ़ासिज़्म-विरोधी संघर्ष में अगुआ भूमिका होने के बावजूद, पूर्वी यूरोप के देशों में स्वतन्त्र आन्तरिक गति से क्रान्तियाँ सम्पन्न होने के बजाय सोवियत लाल सेना के फ़ासिज़्म-विरोधी विजय अभियान के ऐतिहासिक परिणाम के रूप में यहाँ जनता के जनवाद स्थापित हुए थे। इन देशों में समाजवादी निर्माण को मुश्किल से दस वर्षों का ही समय मिला था और समाजवाद की जड़ें आर्थिक-राजनीतिक धरातल पर अभी ठीक से जम भी नहीं पायी थीं कि यहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना की प्रक्रिया शुरू हो गयी। वस्तुतः समाजवाद के अल्पकालिक दौर में भी यहाँ पूँजीवादी ताक़तें अधिक मजबूत थीं और समाजवादी सोवियत संघ का प्रबल सहयोग-समर्थन इन देशों में सर्वहारा के शासन के बने रहने का एक महत्त्वपूर्ण कारण था। इसीलिए रूस में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के साथ ही अविलम्ब ये देश भी पूँजीवाद के रास्ते पर चल पड़े। रूस में सर्वहारा के अधिनायकत्व में समाजवादी प्रयोगों का दौर सर्वाधिक लम्बा रहा है। पूँजीवादी पुनर्स्थापना की गति इसलिए वहाँ 1956 के बाद भी उतनी सीधी और तेज़ नहीं थी जितनी कि पूर्वी यूरोप में। वहाँ का मज़दूर और मेहनतकश अवाम इसे आसानी से स्वीकार नहीं कर सकता था, इसीलिए वहाँ संशोधनवादियों को तरह-तरह के फ़रेब करने पड़े, आडम्बर करने पड़े और कई चरणों से गुज़रने के बाद ही वहाँ के समाज से उन्नत समाजवादी सामाजिक संस्थाओं और सम्बन्धों को समाप्त किया जा सका। समाजवाद से विरासत में प्राप्त मजबूत आर्थिक आधार पर खड़े रूसी संशोधनवाद की स्थिति पूर्वी यूरोप के संशोधनवादी पूँजीवाद की अपेक्षा बहुत अधिक सुदृढ़ रही है और पुराने मूलाधार और पुरानी अधिरचना की समर्थक सामाजिक शक्तियों की ओर से गोर्बाचोव को अभी भी कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है।

चीन में देङ सियाओ पिङ और उसके अनुयायियों की फ़ासीवादी सत्ता भी संशोधनवादी कुलीनतन्त्र के घटक बुर्जुआ वर्गों का – राजकीय इजारेदार पूँजीवाद का प्रतिनिधित्व कर रही है। पूँजीवाद की पुनर्स्थापना में देङ की सत्ता को भी जनता और कम्युनिस्ट क़तारों की ओर से उग्र प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है और आज भी करना पड़ रहा है। माओ के महान समाजवादी प्रयोगों के देश में लाज़िमी तौर पर उनका रास्ता सुगम नहीं हो सकता था। दूसरी ओर पिछड़ी हुई उत्पादक शक्तियों के चलते कमज़ोर आर्थिक आधार वाली, चीनी संशोधनवादी पूँजीवाद की सामाजिक फ़ासीवादी सत्ता न तो समाज में पैदा होने वाली बुराइयों की तेज़ गति को कम करने में सक्षम है और न ही निजीकरण एवं विदेशी पूँजी के तेज़ प्रवाह के दबाव को ही झेल या रोक सकने में सक्षम है, जो अन्ततोगत्वा पूर्वी यूरोप की तरह उसे विस्थापित करके नग्न पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम करेगी। चीनी संशोधनवादी पूँजीवाद का भी यही सुनिश्चित भविष्य है कि वहाँ साम्राज्यवाद पर आश्रित, कम राजनीतिक आज़ादी वाली ऐसी खुली पूँजीवादी व्यवस्था स्थापित होनी ही है, जिसका स्थान कुल मिलाकर तीसरी दुनिया के पूँजीवादी देशों की क़तारों में ही सुरक्षित होगा। चीन में भी आज बुर्जुआ जनवाद, सुधारों और खुले पूँजीवाद की माँग पूँजीवादी पुनरुत्थान के बाद फली-फूली और समाजवादी दौर से ही समाज में मौजूद बुर्जुआ सामाजिक शक्तियाँ कर रही हैं। साथ ही सामाजिक फ़ासीवादी सत्ता के विरुद्ध तथा मुट्ठीभर संशोधनवादी कुलीनों के भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के विरुद्ध वहाँ की जनता भी संघर्ष कर रही है। पिछले वर्ष के मई आन्दोलन में ये दोनों ही धाराएँ मौजूद थीं। एक, बुर्जुआ सुधारों और पश्चिमी पूँजीवाद की माँग करने वाली बुर्जुआ वर्ग की धारा और दूसरी, आम जनता की क्रान्तिकारी धारा, जो संशोधनवादी पूँजीवाद की फ़ासीवादी सत्ता के विरुद्ध जनवादी अधिकारों और समाजवाद की उपलब्धियों की बहाली के लिए लड़ रही थी।

किंचित भिन्नताओं के बावजूद, आर्थिक-सामाजिक संरचना की मूल प्रकृति के सन्दर्भ में पूर्वी यूरोप का आज का मॉडल ही रूस का भी मॉडल है और यही चीन का भी भविष्य का मॉडल है। पूर्वी यूरोप के देशों की कमज़ोर संशोधनवादी पूँजीवादी सत्ताओं का, रूस में गोर्बाचोव की सत्ता के रूप में नवक्लासिकीय पूँजीवाद के प्रतिनिधि की सत्ता स्थापित होने के बाद और रूसी समर्थन-संरक्षण का आधार खिसक जाने के बाद, तथा नये बुर्जुआ वर्ग को गोर्बाचोव से सीधे प्रोत्साहन मिलने के बाद, तुरन्त धराशायी हो जाना स्वाभाविक था। इन देशों में संशोधनवादी कुलीनतन्त्र की आपादमस्तक भ्रष्ट और निरंकुश फ़ासीवादी सत्ता के विरुद्ध आम जनता में भी व्यापक आक्रोश व्याप्त था, जिसका लाभ इन सभी देशों में नये बुर्जुआ शासक वर्ग ने उठाया। रूमानिया की स्थिति अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों से भिन्न थी। वहाँ खुले पूँजीवाद के समर्थक तत्त्व काफ़ी कमज़ोर थे और आज भी काफ़ी कमज़ोर हैं। वहाँ रूस ने चाउशेस्कू का तख़्तापलट कराके सत्ता रूस-परस्त जनरलों को सौंप दी है। उसके इस षड्यन्त्र और तख़्तापलट को अमेरिका और पूरी पश्चिमी दुनिया के शासक वर्गों का समर्थन प्राप्त था।

व्यापक और सांगोपांग सामाजिक-आर्थिक विश्लेषण के निचोड़ के रूप में, हमारी यह धारणा है कि आज के रूसी समाज में दो अन्तरविरोध काम कर रहे हैं। पहला, श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध, और दूसरा नये और पुराने पूँजीपति वर्गों के बीच का, या संशोधनवादी पूँजीवाद और नवक्लासिकीय पूँजीवाद के बीच का अन्तरविरोध। रूसी समाज में आज हो रहे परिवर्तन इस दूसरे अन्तरविरोध के समाधान के ही परिणाम हैं, हालाँकि इसके समाधान के पीछे भी पहला बुनियादी और शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध ही चालक शक्ति के रूप में लगातार काम करता रहा है। चीनी समाज में भी ये दो ही अन्तरविरोध आज काम कर रहे हैं। इनमें से पहला शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध ही बुनियादी है, जिसका समाधान केवल एक नयी सर्वहारा क्रान्ति ही प्रस्तुत कर सकती है। दूसरे अन्तरविरोध का समाधान खुले पूँजीवाद की स्थापना के रूप में होने की वस्तुगत परिस्थितियाँ अभी परिपक्व नहीं हुई हैं। लेकिन ऐसा होने की सम्भावना बहुत दूर भी नहीं है। पूर्वी यूरोपीय देशों में तीन अन्तरविरोध मौजूद रहे हैं। पहला, श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध। दूसरा, रूसी साम्राज्यवाद और उनके कठपुतली देशी संशोधनवादी बुर्जुआ सत्ता के साथ शेष बुर्जुआ वर्गों और जनता के सभी वर्गों का अन्तरविरोध। और तीसरा, नये और पुराने वर्गों – संशोधनवादी पूँजीवाद और खुले पूँजीवाद के बीच का अन्तरविरोध। रूस के समर्थन की समाप्ति के बाद और गोर्बाचोव द्वारा नये पूँजीपति वर्ग को सीधे प्रोत्साहन दिये जाने के बाद इन देशों में संशोधनवादी सत्ता का पतन अवश्यम्भावी था और इसी रूप में वहाँ तीसरे अन्तरविरोध का समाधान सामने आया है।

सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में आज जो बुर्जुआ जनवाद क़ायम हो रहा है, वह स्पष्टतः बुर्जुआ वर्ग का अधिनायकत्व ही है। मार्क्सवाद की यह प्रस्थापना आज भी शत-प्रतिशत सही है कि बुर्जुआ जनवाद सारतः बुर्जुआ अधिनायकत्व होता है और समाजवादी जनवाद सर्वहारा अधिनायकत्व। न इससे रत्तीभर कम, न रत्ती भर ज़्यादा। जब तक वर्गो का अस्तित्व है तब तक तीसरी कोई चीज़ हो ही नहीं सकती। पूर्वी यूरोप और रूस में पश्चिमी ढंग के बुर्जुआ जनवाद को लागू करने वाला बुर्जुआ वर्ग भी सर्वहारा वर्ग, मेहनतकश अवाम और पूरी जनता का वैसा ही शत्रु है जैसाकि संशोधनवादी बुर्जुआ वर्ग। मार्क्स के ज़माने में लन्दन के एक भव्य सभागार में पूँजीपतियों की सभा में एक मज़दूर ने चिल्लाकर कहा था, “यदि सामन्त हमारी हड्डियाँ निकालकर बेचेंगे तो तुम पूँजीपति लोग उसे मोल लेकर पाउडर बनाकर बेच दोगे।” आज के सन्दर्भों में भी प्रतिनिधि सर्वहारा वर्ग की यह आवाज़ सर्वथा प्रासंगिक है। संशोधनवादी पूँजीपति यदि मज़दूरों की हड्डियाँ नीलाम करेंगे तो उसे पाउडर बनाकर बाज़ारों में बेचने की होड़ में रूस और पूर्वी यूरोप का नया बुर्जुआ वर्ग उनसे एक क़दम पीछे नहीं रहेगा। संशोधनवादी पूँजीवाद ने रूस और पूर्वी यूरोप में समाज में असाध्य आर्थिक ठहराव के संकट, भ्रष्टाचार और फ़ासीवादी तानाशाही को जन्म दिया था। पश्चिमी ढंग का खुला पूँजीवाद वहाँ नग्न और तेज़ी से बढ़ती विषमता, बेरोज़गारी और महँगाई को जन्म देगा। सामाजिक बुराइयों का तेज़ी से फलना-फूलना इसकी अपरिहार्य तार्किक परिणति होगी। लालच और बलप्रयोग का पूँजीवादी खेल अब वहाँ खुले रूप में खेला जायेगा। इन देशों में जैसे-जैसे पुरानी भ्रष्ट सत्ता के पतन के हर्ष का प्रमाद मद्धिम पड़ता जा रहा है, वैसे-वैसे नयी व्यवस्था की विसंगतियाँ लोगों को दिखायी देती जा रही हैं। सच्चाई यह है कि इनके विरुद्ध अभी से ही जनता आवाज़ भी उठाने लगी है।

कुल मिलाकर, ये परिवर्तन वस्तुगत तौर पर सकारात्मक हैं, इतिहास के आगे बढ़े हुए क़दम हैं। अपनी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ता इतिहास कभी-कभी राह की बाधाओं को ठोकर मारकर किनारे हटा देता है। संशोधनवादी पूँजीवाद एक ऐसी ही बाधा था। वर्ग संघर्ष का स्वरूप अब और अधिक साफ़ होगा तथा बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग एक बार फिर एक-दूसरे के एकदम आमने-सामने खड़े होंगे। समाजवाद को बदनाम करने वाले संशोधनवाद का चेहरा अब साफ़ हो चुका है और दुनियाभर के सर्वहारा वर्ग और कम्युनिस्ट क़तारों में व्याप्त विभ्रम का कुहासा लगभग छँट चुका है।

समाजवादी समाज की प्रकृति और

संक्रमणकाल की समस्याएँ

1953 के बाद रूस और पूर्वी यूरोप तथा 1976 के बाद चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की शुरुआत समाजवाद की पराजय थी, पर यह कोई अनायास या आकस्मिक रूप से घटित होने वाली घटना नहीं थी। इसके कुछ सुनिश्चित वस्तुगत और मनोगत कारण तथा एक सुनिश्चित ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी। समाजवाद की पराजय को समझने के लिए तथा यह समझने के लिए कि अन्ततोगत्वा पूँजीवाद पर इसकी विजय किस प्रकार सुनिश्चित है, यह ज़रूरी है कि हम इस पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से – समाजवाद के लिए संघर्ष की दीर्घकालिक और जटिल प्रकृति से – भलीभाँति परिचित हों। इसकी सांगोपांग समझदारी हासिल किये बग़ैर हम समाजवाद के बारे में आदर्शवादी सोच और धारणा से मुक्त नहीं हो सकते। चार सौ वर्षों के लम्बे संघर्ष में गतिरोध और पराजय के कई दौरों के बाद पूँजीवाद ने सामन्तवाद को निर्णायक शिकस्त दी थी। पूँजीवाद के विरुद्ध कम्युनिज़्म का संघर्ष इससे भी अधिक जटिल और लम्बा संघर्ष है, क्योंकि यह सभी वर्गों और हर प्रकार के शोषण के ख़ात्मे का संघर्ष है – एक ऐसा संघर्ष है जिसकी विजय के बाद मानव समाज का अब तक का लिखित इतिहास “प्रागैतिहासिक काल” का इतिहास बन जायेगा। हमें इस बात को भलीभाँति समझना होगा कि मानवजन अपना इतिहास स्वयं रचाते हैं, पर वे इसे मनमानी परिस्थितियों में नहीं, बल्कि इतिहास द्वारा प्रदत्त परिस्थितियों में बनाते हैं। इतिहास बनाने के मनोगत प्रयास हमेशा ही वस्तुगत कारणों से प्रभावित, सीमित और नियन्त्रित होते हैं। साथ ही विचारधारा के सामाजिक प्रयोगों में रूपान्तरण की अपनी अपरिहार्य सीमाएँ-समस्याएँ होती हैं और दार्शनिक-वैचारिक स्तर पर किसी विचारधारा के स्थापित होने के बाद भी बहुत सारे प्रयासों, अनुभवों और सफलताओं-असफलताओं के समाहार के बाद ही अमल के ठोस रूप और रास्ते अस्तित्व में आते हैं।

इसीलिए, पूँजीवादी पुनर्स्थापना की प्रक्रिया और इसके कारणों की सुस्पष्ट और सम्यक समझदारी के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि सर्वहारा क्रान्ति के बाद स्थापित समाजवादी समाज की प्रकृति क्या होती है, इसकी अन्तर्वस्तु और इसका स्वरूप क्या होता है, इसकी बुनियादी अभिलाक्षणिकताएँ क्या होती हैं, इस दौर में सामाजिक-आर्थिक संरचना किस तरह की होती है और इसके विकास के नियम क्या होते हैं?

सबसे पहले, मोटे तौर पर यह जान लेना आवश्यक है कि समाजवाद एक स्थायी और समेकित सामाजिक-आर्थिक संरचना नहीं है। यह पूँजीवाद और वर्गविहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमण काल है। मानव इतिहास में सर्वहारा क्रान्तियाँ पहली ऐसी क्रान्तियाँ हैं जिनका लक्ष्य वर्गविहीन-शोषणविहीन समाज बनाना है – वर्ग और राज्य को ही विलोपीकरण की प्रक्रिया से समाप्त कर देना है। अतः सर्वहारा वर्ग का संघर्ष केवल बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ संस्कृति से ही नहीं, बल्कि सभी शोषक वर्गों, सभी वर्गीय प्रवृत्तियों और हज़ारों वर्षों से क़ायम तमाम वर्गीय आदतों-बुराइयों एवं संस्कृति के विरुद्ध है। इसे ध्यान में रखते हुए समाजवाद के लम्बे दौर में वर्ग संघर्ष की दीर्घकालिक प्रकृति, सतत क्रान्तियों की अपरिहार्यता और हार-जीत के अनेक उतार-चढ़ाव की सम्भावनाओं को सहज ही समझा जा सकता है।

इस लम्बे ऐतिहासिक काल के बारे में मार्क्स-एंगेल्स ने बार-बार बताया था। लेनिन ने इसकी प्रकृति, विकास के नियमों और समस्याओं का और अधिक स्पष्ट उल्लेख करते हुए पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लगातार मौजूद ख़तरे की बार-बार चर्चा की थी। रूस में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवों के समाहार और अपने देश में समाजवाद के दौर के वर्ग संघर्ष के अनुभवों के आधार पर माओ ने समाजवादी समाज के मूलाधार और अधिरचना की, उनके अन्तर्सम्बन्धों की तथा वर्ग संघर्ष की प्रकृति की सर्वाधिक सूक्ष्म और व्यापक विवेचना करते हुए पहली बार समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष के नियमों और रास्ते को स्पष्टतः उद्घाटित किया था और पूँजीवादी पुनर्स्थापना पर एकमात्र कारगर रोक के रूप में सतत क्रान्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। आज संशोधनवादी प्रचार के प्रभाव के चलते समाजवाद के बारे में मार्क्सवाद की इन वैज्ञानिक शिक्षाओं से ज़्यादातर कम्युनिस्ट या तो अपरिचित हैं या उनकी समझदारी बहुत सतही है, जिसके चलते वे समाजवाद के बारे में प्रायः आदर्शवादी और आधिभौतिक सोच के शिकार हैं और इसीलिए आज पूर्वी यूरोप, रूस या चीन में आ रहे पूँजीवादी को, उसके कारणों को, उसके वस्तुगत आधार को और उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को वे समझ नहीं पाते।

केवल समाजवादी संक्रमण के एक लम्बे ऐतिहासिक दौर से गुज़रने के बाद ही मानव-समाज विकास की उस उन्नत मंज़िल पर पहुँच सकता है जहाँ वस्तुओं का विनिमय-मूल्य समाप्त हो जायेगा और केवल उपयोग मूल्य और प्रभाव मूल्य ही बचे रह जायेंगे। अति उत्पादन की इस मंज़िल में वस्तुओं का माल के रूप में अस्तित्व क़ायम नहीं रह जायेगा, मुद्रा की सत्ता का विलोप हो जायेगा और लोग क्षमतानुसार काम करेंगे और आवश्यकतानुसार हासिल कर सकेंगे। केवल उसी मंज़िल पर पहुँचकर वर्गों का, राज्य सहित सभी सामाजिक वर्ग-संस्थाओं का, वर्ग-विचारधाराओं और वर्ग संघर्ष का उन्मूलन सम्भव हो सकेगा।

कम्युनिज़्म की मंज़िल तक जाने वाले समाजवादी संक्रमण काल में वस्तुओुं का बाज़ार-मूल्य बना रहता है, माल-अर्थव्यवस्था का अस्तित्व क़ायम रहता है, बाज़ार एवं मूल्य के नियम काम करते रहते हैं और लम्बे समय तक, कम्युनिज़्म के निकट पहुँचने तक, ‘प्रत्येक को उसके काम के अनुसार’ का सिद्धान्त लागू रहता है, यानी श्रम का माल के रूप में अस्तित्व क़ायम रहता है। तदनुरूप इस पूरे दौर में वर्ग मौजूद रहते हैं और वर्ग संघर्ष जारी रहता है। समाजवाद के इस पूरे दौर में अधिरचना के धरातल पर मौजूद वर्गीय धाराएँ-प्रवृत्तियाँ भी कम्युनिज़्म की ओर प्रगति की दिशा उलट देने के लिए सक्रिय भौतिक शक्ति के रूप में लम्बे समय तक मौजूद रहती हैं।

समाजवाद के संस्थापक और सर्वहारा के नेता समाजवाद की इन समस्याओं की चर्चा मार्क्सवाद के जन्म के प्रारम्भिक दौर से ही करते रहे हैं और इसके विकास तथा प्रयोगों के अनुभवों से समृद्ध होने के साथ ही इनकी समझदारी ज़्यादा ठोस, गहरी और व्यापक होती चली गयी है। मार्क्स और एंगेल्स ने समाजवाद को हमेशा ही एक अन्तिम लक्ष्य के बजाय “वर्ग विभेदों के ख़ात्मे के लिए आवश्यक” संक्रमण बिन्दु के रूप में रेखांकित किया। 1850 में ही मार्क्स ने अपनी क्लासिकीय कृति ‘फ़्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-50’ में अत्यन्त सारगर्भित ढंग से समाजवाद की सारभूत अभिलाक्षणिकताओं को रेखांकित कर दिया था, “यह समाजवाद क्रान्ति के स्थायित्व की घोषणा है, यह आमतौर पर वर्गविभेदों के उन्मूलन और जिन उत्पादन-सम्बन्धों पर ये वर्गविभेद आधारित हैं, उनके उन्मूलन तथा इन उत्पादन सम्बन्धों के अनुरूप सभी सामाजिक सम्बन्धों के उन्मूलन और इन सामाजिक सम्बन्धों से पैदा हुए सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण के आवश्यक संक्रमण बिन्दु के रूप में सर्वहारा का वर्ग-अधिनायकत्व है।” 1857 में गोथा कार्यक्रम की आलोचना करते हुए मार्क्स ने स्पष्ट शब्दों में कहा था, “पूँजीवादी और कम्युनिस्ट समाज के बीच एक के दूसरे में क्रान्तिकारी रूपान्तरण का काल मौजूद रहता है, जिस दौरान राज्य केवल सर्वहारा का क्रान्तिकारी अधिनायकत्व ही हो सकता है।” सर्वहारा का अधिनायकत्व क़ायम होने का मतलब यह कतई नहीं है कि शोषक वर्गों का अस्तित्व समाप्त हो गया। लेनिन ने बार-बार इसे रेखांकित किया है। लेनिन के अनुसार, “सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व वर्ग संघर्ष की समाप्ति नहीं बल्कि इसका नये रूपों में जारी रहना है। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व एक ऐसे सर्वहारा वर्ग द्वारा चलाये जाने वाला वर्ग संघर्ष है जो विजयी हुआ है और जिसने ऐसे पूँजीपति वर्ग के खि़लाफ़ राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले ली है जो पराजित हुआ है पर नष्ट नहीं हुआ है, ऐसा पूँजीपति जो विलुप्त नहीं हुआ है, जिसने प्रतिरोध करना बन्द नहीं किया है, बल्कि अपने प्रतिरोध को तीव्र कर दिया है (“स्वतन्त्रता और समानता के नारों द्वारा जनता के साथ धोखाधड़ी” नामक प्रकाशित भाषण की भूमिका)। इस पूरे मुद्दे पर अन्यत्र लेनिन कहते हैं, “पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण एक पूरे ऐतिहासिक युग का प्रतिनिधित्व करता है। जब तक यह युग समाप्त नहीं हो जाता, तब तक शोषक पुनर्स्थापना की उम्मीद अनिवार्यतः पाले रहते हैं और यही उम्मीद पुनर्स्थापना के प्रयासों में बदल जाती है।” और आगे वे कहते हैं, “वर्गों का उन्मूलन एक लम्बे कठिन और अटल वर्ग संघर्ष की माँग करता है, जो पूँजी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद, बुर्जुआ राज्य के ध्वंस के बाद और सर्वहारा के अधिनायकत्व के स्थापित हो जाने के बाद समाप्त नहीं हो जाता (जैसाकि पुराने समाजवाद और पुराने सामाजिक जनवाद के भोंड़े प्रतिनिधि कल्पना करते हैं) बल्कि केवल अपने रूप बदल लेता है और कई मायनों में तो अधिक प्रचण्ड हो जाता है।” लेनिन ने ज़ोर देकर कहा था कि पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण का काल “अपरिहार्यतः अभूतपूर्व उग्र रूपों में जारी अभूतपूर्व हिंसात्मक वर्गसंघर्ष का काल है।” (राज्य और क्रान्ति)।

रूस के समाजवादी प्रयोगों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों तथा चीन में क्रान्ति के बाद जारी प्रयोगों एवं संघर्षों के समाहार के आधार पर माओ ने 1962 में समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की मौजूदगी और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरे को स्पष्ट शब्दों में बताया, “समाजवादी समाज की काफ़ी लम्बी ऐतिहासिक अवधि होती है। समाजवाद की इस पूरी ऐतिहासिक अवधि में वर्ग, वर्ग-अन्तरविरोध और वर्ग संघर्ष मौजूद रहते हैं, समाजवादी रास्ते और पूँजीवादी रास्ते के बीच वर्ग संघर्ष जारी रहता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा बना रहता है। हमें इस संघर्ष की दीर्घकालिक और जटिल प्रकृति को अवश्य पहचानना चाहिए। हमें अपनी चौकसी को उन्नत करना चाहिए। हमें वर्ग-अन्तरविरोधों और वर्ग संघर्ष को सही ढंग से समझना और संचालित करना चाहिए, हमें अपने और दुश्मन के बीच के अन्तरविरोधों और जनता के आपसी अन्तरविरोधों के बीच फ़र्क़ करना चाहिए और उन्हें सही ढंग से हल करना चाहिए। अन्यथा, हमारे देश जैसा एक समाजवादी देश अपने विपरीत में बदल जायेगा, और पतित हो जायेगा, और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो जायेगी। अब से हमें हर वर्ष, हर माह और हर दिन ख़ुद को इस बात की याद दिलाते रहना चाहिए ताकि हम समस्या की अपेक्षतया गम्भीर समझदारी बनाये रख सकें और एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी लाइन अपना सकें।”

आइये, अब हम यह देखने का प्रयास करें कि किस प्रकार समाजवादी समाज के बुनियादी आर्थिक ढाँचे और ऊपरी ढाँचे की अन्तर्रचना में वे तत्त्व मौजूद होते हैं जो इस दौर में वर्ग संघर्ष की दीर्घकालिक प्रकृति के कारक होते हैं और जिनके चलते काफ़ी लम्बे समय तक पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावना बनी रहती है।

समाजवादी समाज में विकास की प्रारम्भिक मंज़िलों से गुज़रने के बाद सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था निजी स्वामित्व की व्यवस्था का स्थान ले लेती है और समाजवादी अर्थतन्त्र पर अपना नियन्त्रण क़ायम करने के बाद मेहनतकश अवाम समाज का स्वामी हो जाता है। मार्क्सवाद की शिक्षा और अमल धीरे-धीरे पुराने समाज की भौतिक-आत्मिक जकड़बन्दी से मुक्त करके पूरी जनता को कम्युनिज़्म की दिशा में अग्रसर करता है। इन्हीं अर्थों में समाजवादी समाज कम्युनिस्ट समाज की प्रारम्भिक मंज़िल है, लेकिन “यह अपनी ख़ुद की बुनियाद पर विकसित नहीं है। इसके विपरीत यह पूँजीवादी समाज से अभी पैदा ही हुआ होता है। इसीलिए जिस पुराने समाज से इसका जन्म होता है, उसके चिह्न इसके ऊपर आर्थिक, नैतिक, विचारधारात्मक पक्षों में अभी भी देखे जा सकते हैं।” (मार्क्स: गोथा कार्यक्रम की आलोचना) समाजवादी समाज के विविध पक्षों और आयामों पर, इसकी राजनीति, इसके अर्थतन्त्र और इसकी विचारधारा पर, बुर्जुआ वर्ग और सभी शोषक वर्गों के सत्ताच्युत किये जाने के बावजूद उनके प्रभाव बचे रहते हैं और यहाँ तक कि लम्बे समय तक उन वर्गों की भौतिक मौजूदगी भी बनी रहती है तथा नये सिरे से उनके पैदा होते रहने की प्रक्रिया भी धीरे-धीरे, लम्बे समय के बाद ही समाप्त हो पाती है। इसीलिए समाजवाद की पूरी ऐतिहासिक मंज़िल “ह्रासोन्मुख पूँजीवाद और उभरते कम्युनिज़्म के बीच का संघर्ष काल होता है” (लेनिन: सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति और राजनीति)

समाजवाद के दौर में एक सुनिश्चित समय तक ग़ैर-समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों की मौजूदगी बनी रहती है। उदाहरण के तौर पर, स्वामित्व की व्यवस्था को लें। सर्वहारा के हाथ में सत्ता आते ही निजी स्वामित्व का पूरी तरह ख़ात्मा नहीं हो जाता। सार्वजनिक स्वामित्व की समाजवादी व्यवस्था के साथ ही लम्बे समय तक पूँजीवादी निजी स्वामित्व के छोटे-छोटे रूपों और शोषण का अस्तित्व बना रहता है, उद्योगों और कृषि में छोटी मिल्कियत क़ायम रहती है, सहकारी खेती का भी सारतत्त्व पूँजीवादी ही होता है तथा सुनिर्धारित बुर्जुआ हितों के उन्मूलन के बाद भी गाँवों और शहरों में व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था के अवशेष क़ायम रहते हैं। अन्तरवैयक्तिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में, पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व करने वाले वर्गों और मेहनतकश जनता के बीच विरोध भी लम्बे समय तक बने रहते हैं। व्यक्तिगत उपभोक्ता सामग्रियों के वितरण के सन्दर्भ में, पूँजीपतियों और बुर्जुआ विशेषज्ञों को दी जाने वाली ऊँची तनख़्वाहें बनी रहती हैं। ये सभी ग़ैर-समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध न केवल उत्पादक शक्तियों के विकास में बाधक बने रहते हैं, बल्कि समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों के साथ ही इनका अन्तरविरोध बना रहता है। इसीलिए लेनिन ने बार-बार बताया था कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा केवल अपने खोये हुए “स्वर्ग” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत पुराने शोषक वर्गों की ओर से, बुर्जुआ वर्ग के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की ओर से, अन्तरराष्ट्रीय पूँजी की शक्ति की ओर से ही नहीं बल्कि उन बुर्जुआ तत्त्वों और उस पूँजीवाद की ओर से भी है जो छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन द्वारा प्रतिदिन, प्रतिघण्टा, लगातार और स्वतःस्फूर्त रूप से पैदा होता रहता है (विशेष रूप से, लेनिन: वामपन्थी कम्युनिज़्म एक बचकाना मर्ज़, सोवियत सरकार के फ़ौरी कार्यभार, सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति और राजनीति)। प्रयोगों के अनुभव के आधार पर माओ ने भी अनेक बार इस सच्चाई को रेखांकित किया। समाजवादी व्यवस्था के अन्तर्गत समाज में लम्बे समय तक एक ही साथ कई प्रकार की सामाजिक-आर्थिक संरचनाएँ बनी रहती हैं। लेनिन ने 1921 में सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत एक ही साथ पाँच सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की मौजूदगी का उल्लेख किया था।

समाजवादी संक्रमण के दौरान एक लम्बे समय तक पुराने शोषक वर्गों की मौजूदगी से भी अहम प्रश्न यह है कि समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों और समाजवादी सार्वजनिक – स्वामित्व व्यवस्था के निर्णायक रूप से स्थापित होने के बाद भी माल-अर्थव्यवस्था बनी रहती है, बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं, नये बुर्जुआ तत्त्वों के पैदा होने की ज़मीन मौजूद रहती है, मूल्य के नियम मौजूद रहते हैं, वर्ग संघर्ष जारी रहता है और इस प्रकार पूँजीवादी पुनर्स्थापना का वस्तुगत आधार मौजूद रहता है। यह सही है कि समाजवादी सार्वजनिक स्वामित्व की स्थापना पूँजीवादी निजी स्वामित्व का निषेध है, पर इसका तात्पर्य यह क़तई नहीं है कि स्वामित्व का प्रश्न अन्तिम तौर पर हल हो गया। माओ से भी पहले मार्क्स और लेनिन ने ही बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया था और इतिहास ने यह सिद्ध कर दिया है कि स्वामित्व के वैधिक रूपों में परिवर्तन मात्र ही वर्गों और वर्ग संघर्ष के अस्तित्व की परिस्थितियों को समाप्त करने के लिए काफ़ी नहीं है। इन परिस्थितियों का ताल्लुक स्वामित्व के वैधिक रूपों से नहीं, बल्कि उत्पादन सम्बन्धों से है, विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया के रूप से है और उन स्थितियों से है जो उत्पादन के अभिकर्ताओं के लिए यह प्रक्रिया तैयार करती हैं। पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों और पूँजीपति और सर्वहारा की शत्रुतापूर्ण मौजूदगी के सफाये के लिए केवल सम्पत्ति का राजकीयकरण या सामूहिकीकरण ही पर्याप्त नहीं है। इसके बाद भी पूँजीपति भिन्न रूपों में मौजूद रह सकता है और विशेष तौर पर राजकीय पूँजीपति वर्ग के रूप में पैदा हो सकता है। सर्वहारा अधिनायकत्व की ऐतिहासिक भूमिका मात्र सम्पत्ति के रूपों में परिवर्तन लाने की ही नहीं है। इसका असली काम विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया का जटिल एवं दीर्घकालिक रूपान्तरण और इसके द्वारा पुराने उत्पादन सम्बन्धों को नष्ट करके नये उत्पादन-सम्बन्ध बनाना और इस प्रकार पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली से कम्युनिस्ट उत्पादन प्रणाली में संक्रमण को सुनिश्चित बनाना है।

समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध ख़ुद भी एक सतत विकास की प्रक्रिया से होकर परिपूर्णता और शुद्धता की स्थिति की दिशा में आगे बढ़ते रहते हैं। समाजवादी राजकीय स्वामित्व और समाजवादी सामूहिक स्वामित्व के विकास और सुदृढ़ीकरण के पूरे दौर में सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच आर्थिक नेतृत्व के लिए संघर्ष जारी रहता है। समाजवादी संक्रमण के जारी रहने की यह अनिवार्य शर्त है कि मेहनतकश जनता का छोटे पैमाने का समाजवादी सामूहिक स्वामित्व बड़े पैमाने के समाजवादी सामूहिक स्वामित्व के रूप में और फिर समाजवादी राजकीय स्वामित्व के रूप में रूपान्तरित होने की दिशा में लगातार विकसित हो। सामूहिक स्वामित्व वाली आर्थिक इकाइयाँ (जैसे सामूहिक फ़ार्म) समूची जनता की सम्पत्ति नहीं होतीं और वे माल का विनिमय करती हैं, जबकि राजकीय स्वामित्व वाली आर्थिक इकाइयाँ समूची जनता की सम्पत्ति होती हैं और वे वस्तुओं का विनिमय करती हैं। इस तरह, नियन्त्रित और सीमित होते हुए भी समाजवाद के दौर में लम्बे समय तक माल का अस्तित्व बना रहता है।

यहीं पर इस वैधिक विभ्रम को भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि सम्पत्ति का राजकीयकरण और सम्पत्ति का समाजीकरण एक ही परिघटना या आर्थिक-सामाजिक प्रक्रिया है। इस वैधिक विभ्रम का इस्तेमाल प्रायः संशोधनवादी अपनी विचारधारा और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के असली चरित्र पर पर्दा डालने के लिए करते रहे हैं और सर्वहारा के नेता शुरू से ही बार-बार इसका पर्दाफाश करते रहे हैं। समूचे राज्य की सम्पत्ति निजी स्वामित्व का निषेध तो होती है, पर स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का पूर्ण निषेध नहीं होती। राजकीयकरण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी अन्तरवैयक्तिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में विषमता और बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं, माल उत्पादन का अस्तित्व अत्यधिक सीमित और नियन्त्रित होने के बावजूद बना रहता है और उपभोग की सामग्री के वितरण के सन्दर्भ में राज्य की भूमिका बनी रहती है। समाजीकरण इसके आगे की मंज़िल है जब उत्पादन की व्यवस्था और उपभोक्ता सामग्री के वितरण की व्यवस्था को विनियमित करने में राज्य की भूमिका समाप्त हो जाती है। राजकीयकरण की प्रक्रिया में सर्वहारा की राज्यसत्ता के सचेतन प्रयास की मुख्य भूमिका होती है, जबकि समाजीकरण वर्ग और राज्य की इच्छा से स्वतन्त्र एक वस्तुगत स्थिति है जो उत्पादन की शक्तियों के सुनिश्चित विकास की माँग करती है जो पूरे समाज के हित में उत्पादन और वितरण को सुनिश्चित कर सके। उत्पादक शक्तियों के विकास में समाज और संस्कृति का उन्नत होना भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है और इसका अविभाज्य अंग है।

समाजवाद की उन्नत अवस्था की ओर संक्रमण के साथ, और सम्पत्ति का ज़्यादा से ज़्यादा समाजीकरण होते जाने के साथ, माल का अस्तित्व सीमित और नियन्त्रित होता हुआ विलोपीकरण की दिशा में आगे बढ़ता जाता है। लेकिन जब तक माल का अस्तित्व रहता है तब तक समाज में किसी न किसी रूप में बाज़ार और मूल्य के नियम काम करते रहते हैं। समाजवादी उत्पादन में अन्तरवैयक्तिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में, किसान और मज़दूर के बीच, शहर और देहात के बीच तथा बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच असमानता भी लम्बे समय तक बनी रहती है और पुराने समाज के बुर्जुआ क़ानूनी अधिकारों की मौजूदगी में ये असमानताएँ भी प्रतिबिम्बित होती रहती हैं। इस बारे में लेनिन की शिक्षा सर्वथा स्पष्ट है: “वर्गों को पूरी तरह समाप्त करने के लिए काफ़ी नहीं है कि शोषकों, भूस्वामियों और पूँजीपतियों की सत्ता उखाड़ फेंकी जाये, यही काफ़ी नहीं है कि उनके स्वामित्व के अधिकार छीन लिये जायें, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि उत्पादन के साधनों के सभी निजी स्वामित्व को समाप्त कर दिया जाये और यह भी ज़रूरी है कि गाँव और शहर के बीच तथा शारीरिक और बौद्धिक मज़दूर के बीच के भेद को भी समाप्त कर दिया जाये। यह एक काफ़ी लम्बे समय की माँग करता है।” (लेनिन: ‘एक महान शुरुआत’, 1919)। समाजवादी समाज में होने वाला श्रम के अनुसार उपभोक्ता सामग्री का वितरण भी एक बुर्जुआ अधिकार है, जो जब तक मौजूद रहता है जब तक उत्पादक शक्तियों का अतिउत्पादन की मंज़िल तक और समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों का अत्यधिक उन्नत स्तर तक विकास न हो जाये। समग्र और शुद्ध अर्थों में बुर्जुआ अधिकारों की समाप्ति तो केवल तभी हो सकती है जब सभी लोग क्षमता मुताबिक़ श्रम करने के बाद आवश्यकतानुसार प्राप्त करने लगें।

समाजवादी समाज में बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी के व्यापक प्रभाव का विश्लेषण मार्क्स और एंगेल्स ने प्रारम्भ से ही अत्यधिक महत्त्व देकर किया है। मार्क्स ने ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना में इसकी विस्तृत विवेचना देते हुए बुर्जुआ अधिकारों को असमानता के अधिकार की संज्ञा दी है। ड्यूहरिंग मतखण्डन में एंगेल्स ने इसकी विस्तृत विवेचना की है और लेनिन ने राज्य और क्रान्ति में बताया है कि समाजवादी समाज में उपभोग की सामग्रियों के वितरण के सन्दर्भ में बुर्जुआ अधिकार की मौजूदगी का मतलब बुर्जुआ वर्ग के बग़ैर बुर्जुआ राज्य की मौजूदगी है। माओ ने चीन में समाजवाद की चर्चा करते हुए लेनिन के इस कथन का उल्लेख किया है और कहा है कि “हमने ख़ुद ऐसा एक राज्य खड़ा किया है जो पुराने समाज से बहुत भिन्न नहीं है। यहाँ रैंक और ग्रेड हैं, वेतन के आठ ग्रेड हैं, काम के अनुसार वितरण है और बराबर मूल्यों का विनिमय है।” ये बुर्जुआ अधिकार नये बुर्जुआ वर्ग के पैदा होने का एक महत्त्वपूर्ण आधार हैं।

अब समाजवादी अधिरचना के सवाल को लें। समाजवादी समाज की पूरी अन्तर्वस्तु को समझने के लिए यह जानना भी ज़रूरी है कि इसकी अधिरचना किस प्रकार आर्थिक मूलाधार के अनुरूप होती है और किस प्रकार इसके साथ अन्तरविरोध की स्थिति में खड़ी होती है। समाजवादी समाज में राजनीति से लेकर संस्कृति तक विविध धरातलों पर बुर्जुआ विचारधारा मौजूद रहती है, बुर्जुआ संस्कृति और मूल्य-मान्यताएँ-संस्थाएँ मौजूद रहती हैं, जनता के बीच पुराने वर्ग समाज की आदतें-प्रवृत्तियाँ मौजूद रहती हैं, राज्य के संगठन में बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं और नौकरशाहाना कार्यशैलियों के विविध रूप मौजूद रहते हैं। समाज में वर्ग, वर्ग-अन्तरविरोधों और वर्ग संघर्ष की मौजूदगी सर्वहारा वर्ग की पार्टी को भी निरन्तर प्रभावित करती रहती है, और पार्टी में भी बुर्जुआ तत्त्व, बुर्जुआ विचारधारा और बुर्जुआ लाइनें निरन्तर मौजूद रहती हैं और समय-समय पर निर्णायक संघर्ष की स्थिति पैदा करती हैं, पार्टी के भीतर बुर्जुआ हेडक्वार्टर क़ायम होते रहते हैं और यदि इनके विरुद्ध विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष न चलाया जाये तो सर्वहारा वर्ग की पार्टी के बुर्जुआ वर्ग की पार्टी में बदल जाने की प्रबल सम्भावना बनी रहती हैं। कुल मिलाकर, अपने खोये हुए “स्वर्ग” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत पुराने शासक वर्गों को मदद पहुँचाने के साथ ही समाजवाद के दौर के अधिरचनात्मक तन्त्र में मौजूद ये बुर्जुआ अवयव मज़दूर वर्ग के बीच से तथा पार्टी के कार्यकर्ताओं और राज्य के कर्मचारियेां के बीच से नये बुर्जुआ वर्ग के पैदा होने का आधार और परिवेश तैयार करते रहते हैं, समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में मौजूद पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली को बल प्रदान करते रहते हैं और कम्युनिज़्म की दिशा में संक्रमण के रास्ते में प्रभावी बाधा के रूप में लगातार मौजूद रहते हैं। मार्क्स ने इसीलिए पूँजीवादी सामाजिक सम्बन्धों के अनुरूप मौजूद सभी विचारों के क्रान्तिकरण को समाजवाद की एक अभिलाक्षणिकता बताया था। लेनिन ने भी मज़दूर वर्ग और जनता को भ्रष्ट करने वाले सभी विचारों और पुरानी आदतों के विरुद्ध लगातार संघर्ष की बात की थी और माओ ने अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने को इसीलिए अनिवार्यतः आवश्यक बताया था।

समाजवादी समाज के मूलाधार और अधिरचना के समग्र विश्लेषण और इतिहास के अनुभवों एवं प्रयोगों के समाहार के आधार पर माओ ने स्पष्ट शब्दों में यह बताया कि बुर्जुआ समाज से प्रकृति और स्वरूप की भिन्नता के बावजूद उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच के अन्तरविरोध, तथा मूलाधार और अधिरचना के बीच के अन्तरविरोध ही समाजवादी समाज के भी बुनियादी अन्तरविरोध हैं और ये अन्तरविरोध सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच अन्तरविरोध एवं संघर्ष के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। सर्वहारा अधिनायकत्व बुर्जुआ वर्ग, बुर्जुआ अधिकार और बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्ध को लगातार नियन्त्रित करता है, सीमित करता है, बुर्जुआ विचारों-संस्कृति-मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध लगातार संघर्ष चलाता है और उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ इन्हें क्रमशः नष्ट करते हुए कम्युनिज़्म की दिशा में संक्रमण को सुनिश्चित बनाता है। समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की निरन्तर मौजूदगी के साथ ही पूँजीवादी पुनर्स्थापना की प्रबल सम्भावना भी लम्बे समय तक लगातार बनी रहती है और सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत क्रान्तियों के सिलसिले को लगातार जारी रखना ही कम्युनिज़्म की ओर संक्रमण की एकमात्र गारण्टी हो सकती है।

सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में

पूरे समाजवादी संक्रमण की जटिल और दीर्घकालिक प्रक्रिया तथा उसमें मूलाधार और अधिरचना के स्तर पर अभूतपूर्व उग्र और कठिन वर्ग संघर्ष की प्रकृति की चर्चा के बाद यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण एक स्वतःस्फूर्त और अपने आप घटित होने वाली सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया नहीं है। यह एक सतत संघर्ष है जो सर्वहारा वर्ग लगातार बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध चलाता है और वर्गों, वर्ग शोषण, वर्ग-अन्तरविरोध और वर्ग शासन को क्रमशः समाप्ति की दिशा में संक्रमण की स्थिति को बुर्जुआ वर्ग की इच्छा के विरुद्ध, बलात उसके ऊपर आरोपित करता है। वर्ग संघर्ष के अब तक के इतिहास के ही अनुरूप सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध जारी इस संघर्ष में भी राजनीतिक सत्ता ही उसका पहला, बुनियादी और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हथियार है। राज्यसत्ता का सवाल क्रान्ति का सर्वोपरि प्रश्न है, मार्क्सवाद की यह बुनियादी प्रस्थापना समाजवादी क्रान्ति के दौर में भी लागू होती है। राज्यसत्ता के ज़रिये ही एक वर्ग दूसरे वर्ग पर शासन करता है। जब तक समाज में वर्ग क़ायम है तब तक राज्यसत्ता का अस्तित्व क़ायम रहेगा और अनिवार्यतः उसका एक सुनिश्चित वर्ग चरित्र होगा। एक वर्ग दूसरे वर्ग को अपने अधीन केवल तभी कर सकता है जब वह उसकी राज्यसत्ता को उखाड़ फेंके। राज्य और क्रान्ति के बारे में यह मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षा है।

सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ वर्ग पर अपना हिंसक और बल प्रयोग पूर्ण अधिनायकत्व लागू किये बग़ैर अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर सकता और यह अधिनायकत्व तब तक क़ायम रहेगा जब तक वर्गों का अस्तित्व बना रहेगा। राज्यसत्ता कभी भी वर्ग चरित्र से रहित नहीं हो सकती और जब वर्ग समाप्त हो जायेंगे तो राज्यसत्ता का विलोपीकरण हो जायेगा। समाजवाद के संघर्ष में बुर्जुआ वर्ग का लगातार मूल प्रयास यही रहता है कि तोड़-फोड़, घुसपैठ, तख़्तापलट – किसी भी तरह से वह सर्वहारा अधिनायकत्व को बुर्जुआ अधिनायकत्व में बदल दे। अतः समाजवादी संक्रमण की पहली गारण्टी सर्वहारा अधिनायकत्व का क़ायम रहना और उसका निरन्तर सुदृढ़ीकरण है। सर्वहारा अधिनायकत्व का सवाल सर्वहारा क्रान्ति की बुनियादी अन्तर्वस्तु है। सर्वहारा अधिनायकत्व समाजवाद की राज्य व्यवस्था है। यह समाजवादी राज्य की वर्गीय अन्तर्वस्तु है। यह समाजवाद के दौर में क्रान्ति की निरन्तरता की पहली शर्त है, या यूँ कहें कि यह क्रान्ति की निरन्तरता का ही दूसरा नाम है। समाजवाद के पूरे दौर में समाजवादी क्रान्ति सम्पन्न करने, पूँजीवादी पुनर्स्थापना पर रोक लगाने और कम्युनिज़्म में संक्रमण की यह अपरिहार्य शर्त और पहली गारण्टी है। इसीलिए समाजवाद के संस्थापकों ने और सर्वहारा के सभी महान शिक्षकों ने शुरू से ही इस पर सर्वाधिक ज़ोर दिया है। इसे मार्क्सवाद का सारतत्त्व बताया है और कहा है कि यह मार्क्सवाद और काल्पनिक समाजवाद, मार्क्सवाद और भोंड़े समाजवाद, मार्क्सवाद और सामाजिक जनवाद तथा मार्क्सवाद और संशोधनवाद के बीच फ़र्क़ करने वाला पहला मापदण्ड है। इसीलिए उन्होंने इसे तोड़ने-मरोड़ने और छोड़ने के हर संशोधनवादी प्रयासों का लगातार और बार-बार विरोध किया है। पूरी दुनिया के समाजवादी प्रयोगों और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अनुभवों ने इसी ऐतिहासिक सच्चाई को एक बार फिर पुष्ट किया है। प्रयोगों की तमाम भूलों-ग़लतियों और तमाम वस्तुगत बाधाओं-सीमाओं के बावजूद, यदि सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम रहा, तो ग़लतियों को ठीक करके समाजवाद को आगे ले जाने का मार्ग फिर भी खुला रहेगा और ठहराव को तोड़कर आगे बढ़ना फिर भी सम्भव बना रहेगा।

मार्क्सवाद के जन्मकाल से ही सर्वहारा वर्ग के नेताओं ने सर्वहारा अधिनायकत्व पर लगातार सर्वाधिक ज़ोर दिया है और क्रान्तियों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों के साथ ही इसकी प्रकृति, स्वरूप और इसके संघटक अवयवों और इसके कार्यभारों की समझदारी और अहसास व्यापक और गहरे होते चले गये हैं।

पूरे वर्ग-समाज के इतिहास और पूँजीवादी समाज के बुनियादी अन्तरविरोधों के विश्लेषण के बाद, मार्क्स ने उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में ही, जबकि मार्क्सवादी विज्ञान अभी आकार ग्रहण कर रहा था, बुर्जुआ अधिनायकत्व को उखाड़कर सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम करने का नारा दिया थ। 1850 में ही अपनी क्लासिकीय कृति ‘फ़्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-1850 में उन्होंने “सर्वहारा के वर्ग अधिनायकत्व” को “सभी वर्ग विभेदों, उनके आधार रूप में क़ायम सभी उत्पादन-सम्बन्धों और उनसे जन्म सभी सामाजिक सम्बन्धों के उन्मूलन का तथा उन सामाजिक सम्बन्धों से पैदा हुए सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण का आवश्यक संक्रमण बिन्दु” बताकर इसकी बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं एवं कार्यभारों को सारगर्भित ढंग से रेखांकित कर दिया था। 1852 में बेडेमेयर को लिखे गये एक पत्र में मार्क्स ने सर्वहारा अधिनायकत्व की अभिधारणा को वैज्ञानिक समाजवाद और बुर्जुआ सिद्धान्तों के बीच फ़र्क़ करने वाला मुख्य उपादान बताते हुए लिखा था: “मुझसे बहुत पहले, पूँजीवादी इतिहासकारों ने इस वर्ग संघर्ष के ऐतिहासिक विकास का वर्णन किया था और पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों ने वर्गों के आर्थिक रचना-विधान का वर्णन किया था। मैंने जो नया काम किया वह यह साबित करना था: (1) कि वर्गों का अस्तित्व केवल उत्पादन के विकास की विशेष ऐतिहासिक मंज़िलों से ही सम्बन्धित है, (2) कि वर्ग संघर्ष अनिवार्य रूप से अधिनायकत्व की ओर ले जाता है, (3) कि यह अधिनायकत्व ख़ुद भी तमाम वर्गों के उन्मूलन की स्थिति में और एक वर्गविहीन समाज में संक्रमण करने का एक साधन मात्र है।”

सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी अधिनायकत्व और बुर्जुआ वर्ग का प्रतिक्रान्तिकारी अधिनायकत्व प्रकृति से ही एक-दूसरे के विरोधी होते हैं, लेकिन सर्वहारा वर्ग को यह शिक्षा बुर्जुआ वर्ग से ही मिली है और उसने यह शिक्षा ख़ून की क़ीमत देकर सीखी है। पेरिस कम्यून सर्वहारा अधिनायकत्व स्थापित करने का पहला महान ऐतिहासिक प्रयास था, जिसके अनुभवों के निचोड़ के आधार पर मार्क्स और एंगेल्स ने 1872 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में यह संशोधन किया कि “मज़दूर वर्ग राज्य की बनी-बनायी मशीनरी पर क़ब्ज़ा करके ही उसका उपयोग अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए नहीं कर सकता।” अपनी पुस्तक ‘फ़्रांस में गृहयुद्ध में मार्क्स ने इसकी सम्यक विवेचना प्रस्तुत की। पेरिस कम्युन ने सर्वहारा अधिनायकत्व की प्रकृति स्पष्ट करते हुए यह सबक़ दिया कि सर्वहारा वर्ग को अपने राज्य के मुख्य संघटक अवयव के रूप में मज़दूरों के सशस्त्र दस्ते संगठित करने होंगे और पुरानी सेना-पुलिस, पुरानी नौकरशाही आदि के पूरे तन्त्र को विघटित कर देना होगा। मार्क्स ने कम्यून की पराजय के तत्काल बाद ही सितम्बर 1871 में इण्टरनेशनल की सातवीं वर्षगाँठ पर भाषण देते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व को वर्गीय शोषण-शासन की समाप्ति तक के लिए आवश्यक बताया और बताया कि इसका आधार सर्वहारा की सेना है। कम्यून का समाहार करते हुए मार्क्स ने बताया कि बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकत्व की जगह अपना क्रान्तिकारी अधिनायकत्व क़ायम करने के बाद बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए मज़दूर राज्य के एक क्रान्तिकारी और संक्रमणकालीन रूप का निर्माण करते हैं (लेनिन द्वारा ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की में उद्धृत)। एंगेल्स ने ‘प्राधिकार के बारे में शीर्षक अपने लेख में कम्यून का समाहार करते हुए लिखा, “…(क्रान्ति में) विजयी दल उस आतंक के माध्यम से अपना शासन क़ायम रखता है जो इसके हथियार प्रतिक्रियावादियों के भीतर पैदा करते हैं। क्या बुर्जुआ वर्ग के ऊपर सशस्त्र लोगों का प्राधिकार क़ायम किये बग़ैर पेरिस कम्यून एक दिन से भी अधिक टिक सकता था? इसके विपरीत, क्या हम सब यह आरोप नहीं लगा सकते कि इसने अपने प्राधिकार का बहुत कम इस्तेमाल किया? मार्क्स और एंगेल्स ने पेरिस कम्यून की असफलता के लिए ज़िम्मेदार मुख्य ग़लती यह बतायी कि इसने वर्ग-शत्रु के प्रति “उदारता” बरती और सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी शक्ति नहीं प्रदर्शित की जिसके चलते बुर्जुआ वर्ग को अपनी ताक़त संगठित करके प्रत्याक्रमण करने और पेरिस को रक्त में डुबोकर क्रान्ति का गला घोंट देने का मौक़ा मिल गया। पेरिस कम्यून का यह महँगा सबक़ तब तक प्रासंगिक बना रहेगा जब तक बुर्जुआ वर्ग का अस्तित्व बना रहेगा। यही कारण है कि जब भी संशोधनवादियों ने “स्वतन्त्र लोगों के राज्य”, “शुद्ध जनवाद” या “समूची जनता के राज्य” का धूम्रावरण खड़ा करके सर्वहारा अधिनायकत्व को ख़ारिज़ करने की कोशिश की तो सर्वहारा के नेताओं ने उसकी धज्जियाँ उड़ाने में पल भर की भी देर नहीं की।

पेरिस कम्यून के तत्काल बाद जब लासाल और उसके अनुयायियों की संशोधनवादी लाइन गोथा कार्यक्रम के माध्यम से सामने आयी तो उसकी आलोचना करते हुए मार्क्स ने यह सिद्ध किया कि इसकी सारवस्तु सर्वहारा अधिनायकत्व और इस तरह सर्वहारा क्रान्ति का निषेध है। लासाल के “मुक्त राज्य” के प्रतिक्रान्तिकारी चरित्र को स्पष्ट करते हुए मार्क्स ने बताया कि समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में राज्य की प्रकृति केवल सर्वहारा के क्रान्तिकारी अधिनायकत्व की ही हो सकती है। मार्क्स और एंगेल्स ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि सर्वहारा के अधिनायकत्व का सिद्धान्त ही वैज्ञानिक समाजवाद को हर क़िस्म के काल्पनिक समाजवाद और नक़ली समाजवाद से स्पष्ट तौर पर अलग करता है।

मार्क्स और एंगेल्स की मृत्यु के बाद, लेनिन ने मज़दूर आन्दोलन के भीतर सभी विजातीय विचारों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की सर्वोपरिता पर लगातार बल दिया। काउत्स्की के नेतृत्व में दूसरे इण्टरनेशनल के संशोधनवादियों के हमले के विरुद्ध लेनिन ने जो संघर्ष चलाया, वह सर्वहारा अधिनायकत्व के सवाल पर ही केन्द्रित था। उन्होंने दो टूक शब्दों में बताया कि “सिर्फ़ वही एक मार्क्सवादी है जो वर्ग संघर्ष की स्वीकृति को सर्वहारा के अधिनायकत्व की स्वीकृति तक विस्तारित करता है (लेनिन: राज्य और क्रान्ति)।” काउत्स्की ने जब वर्गसंघर्ष को सर्वहारा अधिनायकत्व से अलग करके और दोनों को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करके मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के बुर्जुआ सिद्धान्त तक ही सीमित करने की कोशिश की तो अपनी सविख्यात पुस्तिका ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की’ में लेनिन ने इसे मार्क्सवाद का “निम्नपूँजीवादी विकृत रूप” बताते हुए ज़ोर देकर बताया कि सर्वहारा क्रान्ति बुर्जुआ राज्य मशीन का बलात ध्वंस किये बिना और इसकी जगह एक नया (राज्य) क़ायम किये बिना, जो एंगेल्स के शब्दों में, “शुद्ध शाब्दिक अर्थों में राज्य नहीं रह जाता”, असम्भव है (वही)। उन्होंने बताया कि “सर्वहारा अधिनायकत्व बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग द्वारा हिंसा के प्रयोग के ज़रिये जीता गया और क़ायम रखा गया शासन है, जो किन्हीं भी क़ानूनों द्वारा सीमित नहीं है” (वही)। लेनिन ने काउत्स्की की ग़लत प्रस्थापना को रद्द करते हुए बताया कि अधिनायकत्व सरकार का एक रूप नहीं बल्कि राज्य का एक रूप या प्रकार है। काउत्स्की द्वारा प्रस्तुत “शुद्ध जनवाद” को धोखा सिद्ध करते हुए लेनिन ने बताया कि वर्गमुक्त जनवाद हो ही नहीं सकता। जनवाद की प्रकृति या तो बुर्जुआ हो सकती है या सर्वहारा। बुर्जुआ जनवाद “सीमित, विकृत, झूठा, कपटपूर्ण तथा धनिकों को जनवाद” होता हे और इसकी अन्तर्वस्तु बुर्जुआ अधिनायकत्व ही होती है, पर उसे अपने असली चरित्र और मंशा पर लगातार पर्दा डालने की ज़रूरत इसलिए होती है कि वह बहुसंख्यकों पर अल्पसंख्यकों का, शोषितों पर शोषकों का क़ायम अधिनायकत्व होता है। इसके विपरीत समाजवादी जनवाद की अन्तर्वस्तु सर्वहारा अधिनायकत्व की ही होती है। यह बहुसंख्यक जनता के लिए अधिकतम जनवाद होता है और शोषक वर्गों पर अधिनायकत्व लागू करता है। लेनिन ने संशोधनवादी और बुर्जुआ धोखाधड़ी को उजागर करते हुए विस्तार से बताया कि प्रेस और सभा की स्वतन्त्रता तथा “क़ानून के समक्ष सभी नागरिकों की बराबरी” जैसी बातें बुर्जुआ जनवाद के छल-छद्म मात्र हैं। सबकी बराबर आज़ादी की बातें धोखा हैं। शोषकों और शोषितों की बराबरी ओर बराबर आज़ादी वर्ग-समाज में असम्भव है। साथ ही, सोवियत सत्ता का उदाहरण देते हुए उन्होंने यह भी बताया कि “सर्वहारा जनवाद अब तक के विश्व इतिहास में जनवाद का अभूतपूर्व विकास और विस्तार” है और यह “बुर्जुआ जनवाद से लाखों गुना अधिक जनवादी है।” आज भी बुर्जुआ वर्ग के भाड़े के कलमघसीट और संशोधनवादी ग़ैरवर्गीय भाषा में जनवाद, आज़ादी और बराबरी आदि की जो घटिया बकवास करते हैं, वह कुछ नया नहीं है और इस धोखाधड़ी का पर्दाफाश लेनिन ने ही ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काउत्स्की, सहित कई लेखों-पुस्तिकाओं में सविस्तार किया था।

अक्टूबर क्रान्ति के तत्काल बाद दुनिया के प्रथम सर्वहारा राज्य – सोवियत सत्ता का नेतृत्व करते हुए लेनिन ने मार्क्स-एंगेल्स की सर्वहारा अधिनायकत्व सम्बन्धी प्रस्थापनाओं को ठोस अनुभवों के आधार पर विकसित करना शुरू कर दिया। सोवियत सत्ता के बुर्जुआ वर्ग द्वारा विरोध के विविध रूपों, और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के सभी तरह के और सभी ओर से उपस्थित होने वाले उन ख़तरों को उन्होंने बार-बार लगातार रेखांकित किया (जिनकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं) और इन सबके प्रतिकार के लिए “लोहे के हाथ” की अपरिहार्य आवश्यकता पर सर्वाधिक बल दिया। (लेनिन सोवियत सरकार के फ़ौरी कार्यभार’, (मार्च-अप्रैल 1918), अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारी समिति’, किसानों-मज़दूरों की मास्को सोवियत, लाल सेना के प्रतिनिधियों और ट्रेड यूनियनों के एक संयुक्त अधिवेशन में प्रस्तुत रिपोर्ट (जून, 1918), सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में राजनीति और अर्थनीति’ (अक्टूबर 1919), सोवियतों की सातवीं अखिल रूसी कांग्रेस में भाषण’ (दिसम्बर 1919), रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की आठवीं कांग्रेस में रिपोर्ट’ (मार्च 1921), दूसरी अखिल रूसी ट्रेड यूनियन कांग्रेस में रिपोर्ट’ (जनवरी 1919), एक महान शुरुआत’ (जून 1919), वामपन्थी कम्युनिज़्म एक बचकाना मर्ज़’ (अप्रैल-मई 1920), कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में रिपोर्ट’ (जुलाई-अगस्त 1920), राज्य’ (जुलाई 1919) आदि।)

लेनिन ने सोवियत रूस में समाजवादी प्रयोगों के ठोस अनुभवों के आधार पर सर्वहारा अधिनायकत्व के स्वरूप और इसके कार्यभार की व्यापक समझदारी क़ायम की और इससे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन को शिक्षित किया। उन्होंने बोल्शेविक पार्टी और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद उन तमाम अर्थवादी प्रवृत्तियों और रुझानों के विरुद्ध संघर्ष किया, जो एक या दूसरे रूप में राजनीतिक वर्ग संघर्ष और सर्वहारा की राजनीतिक सत्ता की अहमियत को घटाकर देखने की ग़लती को जन्म देती थीं। साथ ही, उन्होंने सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में उस समय तक मौजूद आदर्शवादी-शुद्धतावादी धारणाओं का भी परिष्कार और खण्डन किया तथा उन वस्तुगत सीमाओं को स्पष्ट किया जो दौर-विशेष में सर्वहारा अधिनायकत्व के स्वरूप का निर्धारण करती थीं। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि समाजवादी उत्पादन-सम्बन्ध ही सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के सुदृढ़ीकरण के साथ द्वन्द्वात्मक रूप से अन्तरसम्बन्धित हैं। उन्होंने उन अपरिहार्य समझौतों का भी उल्लेख किया, जो समाजवाद के शुरुआती दौर में, ख़ासकर पिछड़े देशों में सर्वहारा वर्ग को सम्पत्तिशाली वर्गों के साथ करने पड़ सकते हैं।

1921 के बाद और ख़ासकर नयी आर्थिक नीति के दौर के सोवियत रूस के अनुभवों के आधार पर लेनिन ने यह सिद्ध किया कि समाजवादी समाज में पूँजीवादी तथा विविध प्राक्-समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों की प्रभावी मौजूदगी और यहाँ तक कि उनकी प्रधानता होने के बावजूद तथा उन्हें छूट देने की अपरिहार्य मजबूरियों के बावजूद, यदि सर्वहारा का अधिनायकत्व क़ायम रहता है, राज्यसत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टी के माध्यम से सर्वहारा वर्ग का नियन्त्रण क़ायम रहता है तो समाजवादी क्रान्ति का भविष्य सुनिश्चित बना रहेगा। उन्होंने स्पष्टतः बताया कि राजकीय पूँजीवाद, निजी पूँजीवाद, सहकारी खेती, सामूहिक और राजकीय स्वामित्व के विविध रूपों आदि के साथ-साथ प्रभावी उपस्थिति के बावजूद, यदि सोवियत सत्ता क़ायम है, राजनीतिक शक्ति का केन्द्र सर्वहारा वर्ग के हाथों में सुरक्षित है तो पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों और बुर्जुआ ताक़तों को नियन्त्रित रखते हुए और उत्पादक शक्तियों के विकास एवं समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों का आधार विस्तारित होते जाने के साथ कालान्तर में सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों और बुर्जुआ तत्त्वों पर सर्वतोमुखी सतत आक्रमण की शक्ति जुटाते हुए समाज को आगे की ओर गति दे सकता है। इस तरह लेनिन ने पहली बार यह ठोस रूप में बताया कि समाजवाद के बने रहने की पहली गारण्टी सर्वहारा अधिनायकत्व है और इसी पर मुख्य दारोमदार है।

स्तालिन काल के समाजवादी दौर ने लेनिन की इस प्रस्थापना को सही सिद्ध किया। समाजवादी निर्माण की ऐतिहासिक उपलब्धियों और शानदार जीतों के दौर में सर्वहारा के महान नेता स्तालिन की मुख्य और गम्भीरतम ग़लती का स्रोत दार्शनिक-सैद्धान्तिक था। वह ग़लती यह थी कि 1936 में उन्होंने निजी स्वामित्व के ख़ात्मे से यह निष्कर्ष निकाला कि शोषक वर्गों और वर्ग संघर्ष का देश के भीतर अब अस्तित्व समाप्त हो गया है तथा सर्वहारा अधिनायकत्व की मुख्य आवश्यकता अब बाहरी दबावों-आक्रमणों से समाजवाद को बचाने के लिए ही है। लेकिन ऐसी प्रस्थापना रखने के बावजूद स्तालिन ने न केवल अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर, बल्कि व्यावहारिक स्तर और आनुभविक तरीक़े से देश के भीतर भी बुर्जुआ तत्त्वों के विरुद्ध सर्वहारा अधिनायकत्व का इस्तेमाल और सीमित अर्थों में वर्ग संघर्ष जारी रखा तथा पार्टी और राज्य का सर्वहारा चरित्र बना रहा। इसीलिए यद्यपि स्तालिन काल में सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत क्रान्ति नहीं की जा सकी, समाज में नये बुर्जुआ तत्त्व पैदा होते रहे और उनका आधार विस्तारित होता रहा, लेकिन पूँजीवाद की पुनर्स्थापना न हो सकी और चूँकि राज्यसत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथों में ही बनी रही इसलिए गम्भीर ग़लतियों को भी ठीक करके समाजवादी क्रान्ति को आगे बढ़ाने की सम्भावना मौजूद रही। पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत केवल तभी हो सकी, जब ख्रुश्चेव ने सर्वहारा अधिनायकत्व को तिलांजलि देकर, बुर्जुआ अधिनायकत्व की स्थापना कर दी।

माओ त्से-तुङ ने रूस में समाजवादी प्रयोगों और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों का सार-संग्रह करते हुए तथा चीन में समाजवादी निर्माण के दौरान जारी वर्ग संघर्ष से नतीजे निकालते हुए, सर्वहारा अधिनायकत्व की प्रकृति, उसकी अनिवार्यता और उसके कार्यभार के बारे में सर्वाधिक सम्यक समझदारी प्रस्तुत करते हुए ख़ासकर महान बहस से लेकर ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति तक के दौर में, मार्क्सवाद को नयी ऊँचाइयों तक पहुँचाया। उन्होंने न केवल मार्क्स से लेकर लेनिन तक विकसित सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त को समेटते हुए ठोस रूप में प्रस्तुत किया बल्कि उसे आगे विकसित किया।

मार्च 1949 में ही माओ ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की सातवीं केन्द्रीय कमेटी के दूसरे पूर्ण अधिवेशन में प्रस्तुत रिपोर्ट में साफ़ शब्दों में बताया कि सर्वहारा वर्ग द्वारा देश भर में सत्ता पर अधिकार कर लेने के बाद भी प्रधान अन्दरूनी अन्तरविरोध “सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध” ही है और संघर्ष अभी भी राज्यसत्ता के सवाल पर ही केन्द्रित है। 1957 में माओ की रचना ‘जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में,’ प्रकाशित हुई जिसने सर्वहारा अधिनायकत्व के सिद्धान्त को समृद्ध और विकसित किया। मार्क्सवादी सिद्धान्त और व्यवहार के इतिहास में इसने पहली बार ठोस शब्दों में बताया कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण का कार्य मूलतः पूरा हो जाने के बाद भी वर्ग, वर्ग-अन्तरविरोध और वर्ग संघर्ष मौजूद हैं और सर्वहारा वर्ग को अनिवार्यतः न केवल आर्थिक बल्कि राजनीतिक और विचारधारात्मक मोर्चे पर भी क्रान्ति जारी रखनी होगी। माओ ने समाजवाद के बुनियादी अन्तरविरोधों का विश्लेषण करके पहली बार सर्वहारा अधिनायकत्व में जारी वर्ग संघर्ष के वस्तुगत नियम प्रस्तुत किये और समाजवाद के पूरे ऐतिहासिक दौर के लिए पार्टी की बुनियादी लाइन तय की। ‘महान बहस’ के दौरान ख्रुश्चेवी-संशोधनवाद के सभी अवयवों का पोस्टमार्टम करते हुए माओ ने ‘समूची जनता के राज्य’ और ‘पूरी जनता की पार्टी’ की बुर्जुआ अन्तर्वस्तु का पर्दाफाश किया और सर्वहारा अधिनायकत्व के मार्क्सवादी सिद्धान्त की हिफ़ाज़त की।

सर्वहारा अधिनायकत्व का सिद्धान्त और व्यवहार अपने सर्वोन्नत रूप में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान सामने आया जब माओ ने सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत क्रान्ति चलाते रहने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया, सर्वाधिक ठोस रूप में इसके कार्यभार और इसकी नीतियाँ तय कीं और व्यवहार द्वारा इनका सत्यापन भी किया। पूँजीवादी पुनर्स्थापना की समस्या की सर्वाधिक ठोस समझ के आधार पर माओ ने एकदम ठोस रूप में बुर्जुआ वर्ग पर सर्वतोमुखी अधिनायकत्व क़ायम करने का कार्यक्रम प्रस्तुत किया और संस्कृति सहित अधिरचना के सभी क्षेत्रों में भी सर्वहारा अधिनायकत्व के अमल को अनिवार्यतः महत्त्वपूर्ण बताया।

मार्क्सवाद के जन्म से लेकर अब तक के दौर में सिद्धान्त और व्यवहार ने सर्वहारा के अधिनायकत्व के बुनियादी महत्त्व को लगातार और ज़्यादा से ज़्यादा ठोस रूप में सिद्ध किया है। पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अनुभवों ने भी इसके बारे में माओ की इस उक्ति को सही प्रमाणित किया है कि ‘खाने और भोजन की तरह यह सत्ता भी ऐसी चीज़ है, जिसके बिना (क्रान्ति में) विजयी जनता एक क्षण के लिए भी कुछ नहीं कर सकती।’

सर्वहारा अधिनायकत्व के इस बुनियादी महत्त्व को देखते हुए यह समझना कठिन नहीं है कि आज गोर्बाचोव क्यों लासाल, काउत्स्की और ख्रुश्चेव के सुर में सुर मिलाकर पूँजीवादी तथा कपटपूर्ण भाषा में सर्वहारा अधिनायकत्व को हमले का निशाना बना रहा है और रूस तथा पूर्वी यूरोप की हाल की घटनाओं के बाद अन्तरराष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग, उसके प्रचारतन्त्र तथा उसके बुद्धिजीवियों ने मार्क्सवाद पर कुत्सा प्रचार, झूठ, फ़रेब, अफवाहों के ज़रिये जो चौतरफ़ा हमला बोला है, उसमें वे सर्वहारा अधिनायकत्व को एक मुख्य निशाना क्यों बना रहे हैं।

 

सोवियत रूस में समाजवादी प्रयोग: इतिहास के

सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों का एक समाहार

समाजवादी समाज की प्रकृति, स्वरूप, उसमें जारी सर्वग्राही वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व की निरपवाद अपरिहार्यता की चर्चा के बाद यह आवश्यक है कि हम अब तक के समाजवादी प्रयोगों के ऐतिहासिक अनुभवों का एक सैद्धान्तिक सार-संक्षेप भी यहाँ प्रस्तुत करें।

पेरिस कम्यून के अनुभवों के बाद पहली बार सर्वहारा अधिनायकत्व अक्टूबर क्रान्ति के पश्चात रूस में स्थापित हुआ और वह इतिहास के पहले समाजवादी प्रयोगों की प्रयोगशाला बना। 1949 की चीनी क्रान्ति ने इन्हीं प्रयोगों के सभी पहलुओं से समृद्ध होकर समाजवाद की दिशा में आगे क़दम बढ़ाये और कई दौरों से गुज़रकर मार्क्सवादी सिद्धान्त और व्यवहार को नयी ऊँचाइयों तक विकसित किया। इन क्रान्तियों के इतिहास से निगमित सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षाओं के उल्लेख के लिए समाजवाद की वस्तुगत सीमाओं-समस्याओं और मनोगत भूलों-ग़लतियों की सन्तुलित समझ हासिल करने के लिए और पूँजीवादी पुनर्स्थापना की इतिहास में निहित आधार-भूमि को जानने के लिए ही हम यहाँ रूस, चीन के महान समाजवादी प्रयोगों का निचोड़ प्रस्तुत कर रहे हैं। यहाँ हमारा मन्तव्य घटनाक्रमों का ब्यौरा प्रस्तुत करना या समाजवाद की चमत्कारी उपलब्धियों का विवरण देना नहीं है, हालाँकि यह अपने आपमें विश्व इतिहास की एक महाकाव्यात्मक गाथा है. लेकिन स्थानाभाव के कारण और अपनी मूल विषयवस्तु की सीमा को देखते हुए इस प्रलोभन से बचना ही होगा। ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण का तकाजा है कि हम किसी भी वास्तव में खड़े किये गये सामाजिक प्रयोगों के मॉडल का अध्ययन एक “आदर्श” मॉडल से तुलना करके न करें। यह एक आदर्शवादी पहुँच और ग़ैर-द्वन्द्वात्मक पद्धति होगी। इतिहास बनाने का हर प्रयास मनचाही परिस्थितियों में नहीं बल्कि अतीत से प्राप्त और अतीत द्वारा सम्प्रेषित परिस्थितियों में होता है। अधिकतम सम्भव वैज्ञानिक सिद्धान्त भी जब प्रयोग में आता है तो परिस्थितियाँ उसके सामने कुछ बाधाएँ-सीमाएँ खड़ी करती ही हैं और साथ ही, इन प्रयोगों के दौरान असाधारण मेधावान वैज्ञानिकों-क्रान्तिकारियों से भी कुछ ग़लतियाँ होती ही हैं। लेकिन यह भी सही है कि इन प्रयोगों के दौरान ही सिद्धान्तों का सापेक्षिक अधूरापन दूर होता है और उनका परिष्कार होता है। वैज्ञानिक नज़ूमी नहीं होते और कोई भी सिद्धान्त समाज का भविष्यफल नहीं होता। रूस में, समाजवाद के पहला प्रयोग होने की स्थिति और समाजवादी दौर के वर्ग संघर्ष की जटिल प्रकृति में निहित समस्याएँ तो थीं ही, आगे हम यह भी देखेंगे कि रूस के पिछड़ेपन और प्रथम विश्वयुद्ध के तुरन्त बाद की भुखमरी और तबाही ने भी क्रान्ति के लिए सीमाएँ-समस्याएँ खड़ी कर दी थीं। लेकिन आखि़रकार हम लेनिन को, बोल्शेविकों को या सर्वहारा वर्ग को इस बात के लिए तो दोष नहीं दे सकते कि उन्होंने क्रान्ति के लिए रूस को ही और प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के समय को ही क्यों चुना?

आगे हम देखेंगे कि किस तरह 1917 से लेकर 1953 तक लेनिन और स्तालिन के सामने एक के बाद एक लगातार गम्भीर फ़ौरी समस्याएँ उपस्थित होती रहीं जिनके समाधान के लिए लगातार फ़ौरी निर्णय लेने और कार्रवाई करने की मजबूरी बनी रही और लम्बे समय की नीतियों-कार्यक्रमों पर सोचने-विचारने के लिए समय का अभाव लगातार बना रहा। हालाँकि यह भी सही है कि प्रारम्भिक दौर के अल्पकाल में ही तमाम व्यस्तताओं के बावजूद लेनिन ने समाजवाद की समस्याओं पर ज़्यादा गहराई के साथ सोचना शुरू कर दिया था जो सिलसिला स्तालिनकाल के दौरान उसी रूप में जारी नहीं रह सका। लेकिन अपने जीवन काल के अन्तिम दौर में स्तालिन ने भी इस दिशा में सोचना शुरू कर दिया था। साथ ही, यह भी ध्यान रखना होगा कि सर्वहारा सत्ता के सुदृढ़ीकरण के बाद, स्तालिन के ही दौर में पूरे तौर पर समाज के समाजवादी रूपान्तरण का काम शुरू हुआ और समस्याओं के कुछ उन ठोस रूपों-आयामों से भी स्तालिन को साक्षात्कार करना पड़ा जो लेनिन के जीवन काल में अभी भ्रूण रूप में ही थीं। आगे हम यह भी देखेंगे कि कुछ बुनियादी समस्याओं को न देख पाने और कुछ के आंशिक एवं ग़लत समाधान प्रस्तुत करने के बावजूद, कुछ गम्भीर सैद्धान्तिक भूलों और कुछ गौण व्यावहारिक ग़लतियों के बावजूद स्तालिन के पूरे दौर में सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम रहा, समाजवाद ने आगे की ओर लम्बे डग भरे और फ़ासिज़्म को पराजित करने की विकट चुनौती का सफल मुक़ाबला करने के साथ ही पूरी दुनिया में क्रान्ति की धारा को आगे गति देने में सोवियत रूस ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस पूरे दौर में समाजवाद के पूरे नियमों की सुस्पष्ट समझ के अभाव के बावजूद, बुर्जुआ तत्त्वों और बुर्जुआ अधिकारों को नियन्त्रित करने का काम जारी रहा, समाजवादी सार्वजनिक स्वामित्व की व्यवस्था सफलतापूर्वक स्थापित हुई, निर्माण का काम लगातार जारी रहा और मज़दूरों और मेहनतकश जनता की पहलक़दमी और उत्साह लगातार बना रहा। उत्पादन सम्बन्धों में क्रान्तिकारी परिवर्तन उत्पादक शक्तियों को लगातार विकसित करता रहा।

अक्टूबर क्रान्ति रूस में ऐसे समय में सम्पन्न हुई जब प्रथम साम्राज्यवादी युद्ध में उलझाव के चलते उसकी अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी थी और किसानों-मज़दूरों की भारी आबादी भयंकर अभावों और बदहाली का जीवन बिता रही थी। फ़रवरी क्रान्ति के बाद से ही पूरे देश के भीतर अराजकता का माहौल व्याप्त था और उग्र रूप में जारी वर्ग संघर्ष अक्टूबर क्रान्ति की भूमिका तैयार कर रहा था। ऐसे ही चुनौती पूर्ण समय में रूस में सत्ता बोल्शेविकों के हाथ आयी। स्वयं लेनिन ने रूसी क्रान्ति के प्रारम्भिक काल को तीन चरणों में बाँटा था (लेनिन: रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के सातवें मास्को गुर्बेनिया सम्मेलन में नयी आर्थिक नीति के बारे में रिपोर्ट, संग्रहित रचनाएँ, खण्ड 33) अक्टूबर 1917 से लेकर 1918 के बसन्त तक के प्रथम चरण में सर्वहारा अधिनायकत्व को दृढ़ता के साथ स्थापित करना, भूस्वामियों की सम्पत्ति जब्त करना, साम्राज्यवादी युद्ध से रूस को बाहर निकालना और उत्पादन के प्रमुख साधनों, परिवहन और विनिमय का राष्ट्रीकरण करना क्रान्ति के मुख्य राजनीतिक कार्यभार थे। ये क्रान्ति के निहायत फ़ौरी और आपातकालीन राजनीतिक कार्य थे।

1918 के शुरू से ही देश के भीतर भी प्रतिक्रान्ति की शक्तियों ने संगठित होकर नवजात सर्वहारा क्रान्ति पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया था और अगले तीन वर्षों तक पूरा देश रक्तपातपूर्ण गृहयुद्ध में उलझा रहा। चौदह साम्राज्यवादी ताक़तों ने एक साथ मिलकर सोवियत सत्ता का गला घोंट देने की कोई भी कोशिश बाक़ी नहीं रखी। लेनिन द्वारा किये गये चरण-विभाजन के अनुसार क्रान्ति का दूसरा चरण 1918 से 1921 तक था, जिसे “युद्ध कम्युनिज़्म” का काल कहा गया। इस दौर के मुख्य कार्यभार आर्थिक और सामरिक थे। 1921 के बसन्त से शुरू होने वाला तीसरा दौर नयी आर्थिक नीति का दौर था, स्वयं लेनिन के शब्दों में “नये ढंग से, राजकीय पूँजीवाद के विकास का दौर” था। “युद्ध कम्युनिज़्म” की नीतियाँ फ़ौरी और आपातकालीन थीं जो नवजात सोवियत राज्य को अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर संगठित सशस्त्र प्रतिकान्ति से बचाने के लिए ज़रूरी थी। इनके अन्तर्गत बड़े पैमाने पर उद्योगों का राष्ट्रीकरण, कृषि-उत्पादों की अनिवार्य वसूली और व्यापार का राज्य के हाथों में केन्द्रीकरण शामिल थे। जैसाकि दसवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने स्पष्ट तौर पर बताया था और बाद में ‘जिन्स के रूप में कर’ शीर्षक पुस्तिका में भी उल्लेख किया था, (संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 32), “युद्ध कम्युनिज़्म” की नीतियाँ सामान्य तौर पर समाजवादी क्रान्ति के प्रारम्भिक दौर में सर्वहारा वर्ग के आर्थिक कार्यभारों के अनुरूप नहीं थीं और इनके अमल में ग़लतियाँ और अतिरेक भी हुए, लेकिन युद्ध और तबाही ने इन्हें अपनाने के लिए बोल्शेविकों को विवश कर दिया था और उनके सामने कोई दूसरा विकल्प नहीं था। अतः “युद्ध कम्युनिज़्म” की आपातकालीन विवशता और नवजात प्रथम समाजवादी राज्य के नेताओं द्वारा इनके अमल के दौरान हुई ग़लतियों के जो भी प्रतिकूल प्रभाव पड़े, वे बोल्शेविकों की इच्छा से स्वतन्त्र थे और उनसे बचा नहीं जा सकता था।

“युद्ध कम्युनिज़्म” का दौर समाप्त होने के बाद अब अपेक्षतया दीर्घकालिक प्रकृति का संकट सामने खड़ा था। गृहयुद्ध की समाप्ति और तात्कालिक बाहरी आक्रमण के पीछे धकेल दिये जाने के बाद भी समाजवादी निर्माण का काम सामान्य परिस्थितियों में शुरू करने का समय नहीं आ सका। विश्व युद्ध तथा क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के सात तूफ़ानी वर्षों ने रूसी राष्ट्रीय अर्थतन्त्र को पंगु बना दिया था। युद्धों में हुए विध्वंस ने पूँजीपतियों द्वारा उद्योगों को छोड़ देने और तोड़-फोड़ करने की स्थिति ने तथा सोवियत सत्ता की हिफ़ाज़त के लिए सभी संसाधनों को झोंक देने की विवशता ने आर्थिक जीवन को ठप्प कर दिया था और इसे किसी फ़ौरी कार्रवाई द्वारा गतिमान कर सकना सम्भव नहीं था। ऐसे ही समय में बोल्शेविकों ने क्रमबद्ध ढंग से पीछे हटने का विकल्प चुना ताकि समाजवाद की दिशा में फिर आगे बढ़ा जा सके। यही नयी आर्थिक नीति का दौर था जिसे लेनिन ने “राजकीय पूँजीवाद की नीति की ओर वापसी का दौर” कहा (लेनिन: ‘जिन्स के रूप में कर’ पुस्तिका, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 32)। यह सर्वहारा राज्य द्वारा संगठित और नियन्त्रित पीछे हटना था ताकि पूँजीवादी दुर्ग पर फिर से धावा बोला जा सके, और “सोवियत राज्य के राजनीतिक लाभों के लिए आर्थिक बुनियाद डाली जा सके” (लेनिन: संग्रहीत रचनाएँ (अंग्रेज़ी), खण्ड 33, पृ. 73)। इस पीछे हटने की प्रक्रिया को भी रोकने की शुरुआत एक वर्ष बाद ही कर दी गयी, हालाँकि नयी आर्थिक नीति के दौर की पूर्ण समाप्ति प्रथम पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के साथ हुई। ग्यारहवीं कांग्रेस में लेनिन ने यह कहा था कि “एक वर्ष से हम लोग पीछे हटते रहे हैं, अब इसे रोक देना होगा।”

और नयी आर्थिक नीति मात्र इतनी नहीं थी। यह मज़दूर-किसान संश्रय की भी पहली समाजवादी मिसाल थी। क्रान्ति के पूर्व बोल्शेविकों का आधार किसानों में अत्यन्त सीमित था और 1921 तक इस दिशा में सोवियत राज्य और पार्टी को सोचने का पर्याप्त मौक़ा नहीं मिल सका था। 1921 तक लेनिन इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि पूरे रूसी समाज को समाजवादी क्रान्ति के पथ पर अग्रसर करने के लिए विशाल किसान आबादी को परिवर्तन की मुख्य धारा के साथ खड़ा करना आवश्यक था। इसीलिए उद्योग के क्षेत्र में पूँजीपतियों, विदेशी पूँजी और प्रबन्धकों-विशेषज्ञों को तथा कृषि के क्षेत्र में कुलकों को जो तात्कालिक छूट दी गयी थी और जिन्हें लेनिन ने पूँजीवादी सम्बन्धों पर आधारित बताया था (फ़र्क़ केवल यह था कि यह सर्वहारा अधिनायकत्व द्वारा नियन्त्रित था और सोवियत रूस के समाजवादी होने का मुख्य कारण यह था कि राजनीतिक सत्ता सर्वहारा के हाथों में थी),उन छूटों से अलग मध्यम श्रेणी तक के किसानों के साथ उन्हें दूरगामी तौर पर साथ लेने के लिए तथा उन्हें बग़ैर दबाव के समाजवादी रूपान्तरण का भागीदार बनाने के लिए, सहकार-सहयोग की नीति अपनायी गयी। इसीलिए ग्याहरवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन जब पीछे हटने को रोक देने की बात कह रहे थे, ठीक उसी समय वे “समाजवाद के रास्ते पर किसान समुदाय को नेतृत्व देने के लिए” और उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए मज़दूर-किसान संश्रय को जारी रखने के रूप में नयी आर्थिक नीति को क़ायम रखने के प्रबल पक्षधर भी थे। जनवरी 1923 में उन्होंने यह कहकर समाजवादी विकास में कृषि क्षेत्र की भूमिका को और अधिक स्पष्ट कर दिया था कि “यदि यह पूरी किसान आबादी सहकारी इकाइयों में संगठित हो जाये तो हम समाजवाद की ज़मीन पर दोनों पैरों के सहारे खड़े हो जायेंगे।” फिर भी यह स्मरणीय है कि सोवियत रूस में समाजवाद के विकास के लिए लेनिन का भी मुख्य ज़ोर बड़े उद्योगों पर ही था और दसवीं पार्टी कांग्रेस (मई, 1921) में तो उन्होंने इन्हें “समाजवादी समाज के निर्माण का एकमात्र वास्तविक आधार” तक बताया था। लेनिन के चिन्तन के इस पहलू की चर्चा हम स्तालिन द्वारा अपनायी गयी औद्योगीकरण की नीति के सन्दर्भ में आगे फिर करेंगे।

नयी आर्थिक नीति रूसी समाजवादी क्रान्ति की तात्कालिक और दूरगामी आवश्यकता भी थी तथा तात्कालिक विवशता भी। इसके तहत मध्यम और लघु निजी उद्योगों और निजी आन्तरिक व्यापार की अस्थायी पुनर्स्थापना की गयी, विदेशी पूँजी को कुछ ख़ास क्षेत्रों में विशेष छूटें दी गयीं, राष्ट्रीकृत बड़े उद्योगों को भी एक सदस्यीय प्रबन्धन, विशेषज्ञों के लिए ऊँचे वेतन आदि के बुर्जुआ आधारों पर चलाया जाने लगा, विशेषाधिकार प्राप्त बुर्जुआ विशेषज्ञों, लेनिन के शब्दों में “सुसंस्कृत पूँजीपतियों”. के हाथों में निर्णय और प्रबन्ध की अत्यधिक ताक़त आ गयी, राजकीय उद्यमों को मुनाफे के आधार पर चलाया जाने लगा और अनिवार्य कृषि वसूली की जगह हल्के कराधान की व्यवस्था आदि से केवल आम किसान आबादी को राहत ही नहीं बल्कि कुलकों को भी काफ़ी छूट दी गयी। समाजवाद के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त के रूप में पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के इस विकास की जो परिणतियाँ नये बुर्जुआ तत्त्वों और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरे के रूप में पैदा होती थीं, वे सर्वहारा नेतृत्व की इच्छा से स्वतन्त्र थीं। उस समय केवल यही किया जा सकता था कि उनके प्रति चौकसी बरती जा सकती थी, उन पर सर्वहारा सत्ता का राजनीतिक नियन्त्रण सख्ती से क़ायम रखा जा सकता था और भविष्य में यह नीति अपनाने की विवशता का वस्तुगत आधार ख़त्म होने के साथ ही इनके विरुद्ध संघर्ष और समाजवादी आर्थिक नीतियों पर सख्ती से अमल की शुरुआत की जा सकती थी। लेनिन का ऐसा ही सोचना था और उन्होंने बार-बार इसे स्पष्ट किया था।

नयी आर्थिक नीति का दौर बोल्शेविकों के लिए समाजवाद के जटिल संघर्ष का दौर था जिसने अर्थनीति की पाठशाला का काम भी किया। लेनिन ने तात्कालिक व्यस्तताओं और फ़ौरी कार्रवाइयों की मजबूरियों के बीच भी, इस पूरे दौर में समाजवादी समाज में जारी वर्ग संघर्ष की प्रकृति के बारे में सर्वहारा अधिनायकत्व की अपरिहार्यता और प्रकृति के बारे में, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के स्रोत के बारे में, मज़दूर-किसान संश्रय के बारे में और अधिरचना के सतत क्रान्तिकारीकरण के बारे में, कुछ ऐतिहासिक महत्त्व वाले नतीजे निकाले, समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष जारी रखने सम्बन्धी मुख्य प्रश्नों को रेखांकित किया और उन पर सोचने की शुरुआत भी की। इन पहलुओं पर लेनिन के विचारों-अवदानों की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। यहाँ यह भी समझना ज़रूरी है कि लेनिन जैसे युगान्तरकारी नेतृत्व के समक्ष भी समाजवादी प्रयोग की कितनी अपरिहार्य वस्तुगत बाधाएँ-समस्याएँ-सीमाएँ थीं और प्रारम्भिक प्रयोगों में स्वाभाविक तौर पर कुछ ग़लतियाँ भी होनी ही थीं और इन सबके प्रभाव में अपनायी गयी नीतियों के कुछ ऐसे प्रतिकूल परिणाम भी सामने आने ही थे जो सर्वहारा वर्ग और समाजवाद के लिए नुक़सानदेह होते। पर सच पूछा जाये, तो इतिहास की यही स्वाभाविक गति है। यदि यहाँ समय और लेख का आकार हमें इजाजत देता और इस पूरे दौर में एक-एक नीति और निर्णय को लेकर लेनिन को विजातीय-प्रवृत्तियों-रुझानों-लाइनों के विरुद्ध जो विकट संघर्ष करना पड़ा, उसकी भी हम चर्चा कर पाते तो समाजवादी प्रयोग की समस्याओं को ठोस रूप में समझने में और अधिक आसानी होती। पर यह सम्भव नहीं है।

लेनिन की मृत्यु के बाद नयी आर्थिक नीति का दौर मुख्यतः पहली पंचवर्षीय योजना (1928-32) तक जारी रहा लेकिन आर्थिक स्थिति अपेक्षतया सुदृढ़ होने के साथ ही “पीछे हटना” रोक दिया गया और इसके परिणामस्वरूप पैदा हुई पूँजीवादी बुराइयों, बुर्जुआ तत्त्वों और पूँजीवादी स्वामित्व एवं अधिकारों सहित पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों के विविध पक्षों को सीमित और नष्ट करने की प्रक्रिया तीसरे दशक के मध्य में ही शुरू हो गयी। राज्य ने निजी व्यापारियों और निजी उद्यमों को हटाना शुरू किया और 1932 तक उत्पादन में विकास की गति को बाधित किये बग़ैर इन्हें समाप्त कर दिया गया। राजकीय उद्यमियों के प्रबन्धों की स्वायत्तता क्रमशः सीमित की गयी और क्रमशः हर क्षेत्र को समाजवादी नियोजन के अन्तर्गत लाया गया। लेकिन इस दौर में कुछ महत्त्वपूर्ण ग़लतियाँ भी हुईं। लेनिन के प्रबल विरोध के बावजूद विदेश-व्यापार को निजी हाथों में सौंपा जाना एक ऐसी ही ग़लती थी।

नयी आर्थिक नीति ने वह पूर्वाधार तैयार किया जिस पर खड़ा होकर समाजवादी केन्द्रीकृत नियोजन का काम शुरू किया जा सकता था। पूरे देश के लिए एक आर्थिक योजना तैयार करने के लिए राजकीय योजना आयोग (गास्प्लान) की स्थापना तो 1921 में हो चुकी थी लेकिन पहली पंचवर्षीय योजना 1928 में जाकर ही तैयार हो सकी। पहली पंचवर्षीय योजना केन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था के नियोजन का इतिहास में पहला प्रयास था। ठोस रूप में आर्थिक निर्माण का यह पहला समाजवादी क़दम था, जब योजना की प्राथमिकताएँ, सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश अवाम के हितों के मुताबिक़, और तात्कालिक भौतिक फ़ायदों की शर्त से नहीं, बल्कि एक समाजवादी समाज के निर्माण और उसके लिए आवश्यक भौतिक आधार का निर्माण करने की शर्तों से निर्धारित की गयी थीं। लेनिन की ही लाइन पर सोचते हुए स्तालिन ने भी बड़े उद्योगों की – आधारभूत और अवरचनागत उद्योगों की स्थापना को समाजवाद के लिए अपरिहार्य माना और पहली योजना में तेज़ गति से औद्योगीकरण को सर्वोच्च प्राथमिकताएँ दी गयीं। अब सबसे बड़ी समस्या थी – औद्योगिक विकास के लिए प्रारम्भिक पूँजी संचय की। पूँजीवाद ने प्रारम्भिक दौर में कृषि से अतिरिक्त मूल्य के विनियोग द्वारा ही उत्पादक शक्तियों के विकास की यह ज़रूरत पूरी की थी। साथ ही उसे उपनिवेशों की भारी लूट से भी औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्यक प्रारम्भिक पूँजी का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त हुआ था। समाजवाद के सामने लम्बे दौर में इस काम के लिए तो उत्पादक शक्तियों के विकास का – उनकी उत्पादकता बढ़ाने का, आम जनता की पहलक़दमी बढ़ाकर और नैतिक प्रोत्साहन पर काम करने की चेतना को तथा उन्नत समाजवादी संस्कृति को विकसित करके तथा कृषि के सामूहिकीकरण और समाजवादी प्रगति के साथ छोटे उद्योगों से शुरू करके क्रमशः आगे बढ़ने का रास्ता मौजूद था, पर दुनिया के प्रथम समाजवादी राज्य के पास इतना समय कदापि नहीं था। अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवादी घेरेबन्दी लगातार मौजूद थी और अस्तित्व का ख़तरा लगातार बना हुआ था। चीन ने जिस दौर में कृषि और छोटे उद्योगों के विकास पर बल देते हुए (कृषि और उद्योग के) दो पैरों पर खड़े होकर समाजवादी विकास का रास्ता अपनाया था तो उसकी मदद करने के लिए शक्तिशाली समाजवादी खेमा मौजूद था, बुनियादी और अवरचनागत उद्योग खड़े करने के लिए सोवियत रूस की मदद मौजूद थी। साम्राज्यवाद, अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता, द्वितीय विश्व युद्ध के विनाश और मुक्तियुद्धों के विजय की शुरुआत के चलते पराभव की ओर अग्रसर था और कोरिया एवं वियतनाम में उसकी पराजय भी शुरू हो चुकी थी। रूस में संशोधनवाद के आने के बाद भी तीसरी दुनिया की मौजूदगी, अतिमहाशक्तियों की होड़ और साम्राज्यवाद के गम्भीर आर्थिक संकट ने चीन को अन्तरराष्ट्रीय घेरेबन्दी द्वारा अस्तित्व का संकट पैदा होने की स्थिति से मुक्त रखा। पर रूस के सामने ऐसी स्थिति नहीं थी। एक देश में समाजवाद को किसी भी तरह से तमाम सीमाओं के बावजूद अपने दम पर खड़ा होना था और तात्कालिक तौर पर उसे तमाम आर्थिक-सामाजिक विसंगतियों के रूप में इसकी क़ीमत भी चुकानी ही थी। उस दौर के सोवियत संघ के लिए यह बात सही थी कि आधारभूत और अवरचनागत उद्योगों के विकास के बिना बिजली, लोहा और इंजीनियरिंग उद्योगों के विकास के बिना, न तो समाजवाद खड़ा हो सकता था, न ही वह विश्व पूँजी की सम्मिलित आर्थिक-सामरिक शक्ति का मुक़ाबला ही कर सकता था। हमें यह भी याद रखना होगा कि फ़ासिज़्म का ख़तरा चौथे दशक के शुरू में ही उभरकर सामने आ चुका था। सोवियत रूस को पूँजीवादी देशों के किसी भी सम्भावित आक्रमण के विरुद्ध तैयार रहना था और पिछड़ी हुई उत्पादक शक्तियों वाले अकेले समाजवादी देश के लिए यह आसान नहीं था। उसकी एकमात्र शक्ति समाजवाद की शक्ति थी और वस्तुतः इसी के बूते पर इसके लिए उसने अपने को तैयार भी किया। स्तालिन के सामने और सोवियत सत्ता के सामने उन स्थितियों में रास्ता एक ही था और वह यह कि कृषि क्षेत्र से अतिरिक्त मूल्य के विनियोग को, कृषि की अतिरिक्त उपज को, कृषि के विकास की तात्कालिक कुर्बानी देते हुए, गाँव और शहर के बीच अन्तरवैयक्तिक असमानता की क़ीमत चुकाते हुए भी, औद्योगीकरण के लिए इस्तेमाल किया जाये। पर स्तालिन ने ऐसा यह मानते हुए किया कि कृषि के तात्कालिक नुक़सान की बाद में भरपायी करनी होगी और जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ेगा, यन्त्रीकरण से कृषि को कहीं ज़्यादा लाभ मिलने लगेंगे, बशर्ते कि स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण को तब तक गाँवों में भी पूरा कर लिया जाये। आज जो लोग गाँव और शहर के बढ़ते अन्तर के रूप में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के एक आधार के निर्माण के लिए तथा किसानों की सापेक्षिक तात्कालिक बदहाली के लिए स्तालिन की बड़े उद्योगों पर ज़ोर देने की नीतियों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, वे यह नहीं बताते कि आखि़र उस समय और रास्ता ही क्या था। एक अकेला समाजवादी राष्ट्र अपनी पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के साथ पूँजीवादी विश्व में कैसे खड़ा रह सकता था और क्या वह बड़े उद्योगों का त्वरित विकास किये बग़ैर द्वितीय विश्व युद्ध में फ़ासीवाद का मुक़ाबला कर सकता था? लेनिन ने भी गाँव और शहर के अन्तर पर ध्यान दिया था और समाजवादी निर्माण के लिए किसानों को साथ लेकर चलने वाली बात की थी, पर साथ ही उन्होंने भी बड़े उद्योगों को समाजवाद की बुनियादी शर्त बताया था। प्रश्न यह है कि इनमें से किसकी क़ीमत पर किसको प्राथमिकता देना उस समय फ़ौरी तौर पर समाजवाद के अस्तित्व की शर्त थी? यदि लेनिन को स्वयं समाजवादी नियोजन के काम को 1928 में शुरू करना होता तो उनके सामने क्या विकल्प होता? इन प्रश्नों पर सोचे बिना सही-ग़लत का निर्णय नहीं किया जा सकता।

कृषि के सामूहिकीकरण में एक हद तक दबाव के इस्तेमाल और विकुलकीकरण की नीति को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। तीसरे दशक के अन्त तक सोवियत रूस की खेती में पूँजीवादी सम्बन्ध ही प्रधानतः क़ायम थे और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर मुख्यतः उन कुलकों की सत्ता क़ायम थी जो सोवियत सत्ता की खुलेआम अवज्ञा करते थे और उसे टैक्स देने या अनाज बेचने से इन्कार करते थे। नयी आर्थिक नीति के दौर में इनका आधार और अधिक विस्तारित हुआ था और इनकी आर्थिक-सामाजिक शक्ति भी बढ़ी थी। सामूहिकीकरण या विकुलकीकरण के बुर्जुआ आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि गाँवों में ग़रीब किसानों (बेद्न्याकों) और खेतिहर मज़दूरों (बतरकों) का जीवन नारकीय बना हुआ था तथा कुलकों के प्रति उनमें गहरी नफ़रत व्याप्त थी। किसानों के सहकारी प्रयासों को बल देकर कृषि के समाजवादी रूपान्तरण का काम शुरू करने के लिए, कृषि से वसूली को सुरक्षित करने के लिए और सोवियत अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कुलकों की आर्थिक शक्ति को समाप्त करना और सामूहिकीकरण अपरिहार्य थी। समस्या यह थी कि फ़ौरी संकटों के फ़ौरी समाधान के कार्यों में लगातार उलझाव ने किसानों में काम करने की तथा मज़दूर-किसान संश्रय को मजबूत किये जाने की ज़रूरत लगातार महसूस किये जाने के बावजूद बोल्शेविकों को इसके लिए समय नहीं दिया था जिसके परिणामस्वरूप सामूहिकीकरण के प्रयासों को मध्यम किसानों (सेरदन्याकों) से भी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। इसी माहौल में ग़रीब किसानों और पार्टी सदस्यों की ओर से सामूहिकीकरण अभियान चलाने में एक हद तक दबाव का भी इस्तेमाल हुआ, पर यह पार्टी की नीति नहीं थी। स्तालिन ने तोड़-फोड़ करने वालों के प्रति सावधान करने के साथ ही सामूहिकीकरण में होने वाली ऐसी ग़लतियों की आलोचना की (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास, संक्षिप्त कोर्स, पृ. 308) और मध्यम किसानों को अपने पक्ष में करने की ज़रूरत पर विशेष ज़ोर दिया। इस प्रक्रिया में किसानों के बीच पार्टी की ग्रामीण सदस्यता चार लाख से बढ़कर आठ लाख हो गयी। 1930 से 1934 के बीच तेज़ सामूहिकीकरण पूरी सोवियत समाजवादी निर्माण की नीति का एक अंग और उसकी एक फ़ौरी ज़रूरत थी जिसके अमल में कुछ ग़लतियाँ हुईं। और इसके प्रारम्भिक दौर में कुलकों और साथ ही मध्यम किसानों के भी विरोध का असर उत्पादन पर पड़ा। लेकिन इसके दूसरे चरण में 1933 से 1937 के बीच कुल कृषि उपज में पुनः 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई। चौथे दशक के मध्य तक सोवियत सरकार इस स्थिति में पहुँच चुकी थी कि उसने रोटी और अन्य वस्तुओं की राशनिंग समाप्त कर दी और खाद्य सामग्रियों की बिक्री से प्रतिबन्ध हटा लिये गये। गाँवों की सामाजिक संरचना में भी इस दौरान भारी बदलाव आया और समाजवाद का वर्गीय आधार विस्तारित हुआ। तथ्यों की इस संक्षिप्त रूपरेखा से सामूहिकीकरण की तेज़ प्रक्रिया की विवशता और उसमें होने वाली ग़लतियों की प्रकृति को स्वाभाविक तौर पर समझा जा सकता है।

पहली पंचवर्षीय योजना निर्धारित समय से भी पहले, चार वर्ष तीन माह में ही पूरी हो गयी। इस दौरान औद्योगिक उत्पादन दूना हो गया और तकनीशियनों के भारी अभाव के बावजूद लगभग शून्य से ऊपर उठकर ट्रैक्टर, आटोमोबाइल, मशीन टूल्स, इंजीनियरिंग और युद्ध-सामग्री आदि उद्योगों का पूरा ढाँचा उठ खड़ा हुआ। लोहा, बिजली, तेल आदि के उत्पादन में भी भारी वृद्धि हुई। मज़दूरों की मज़दूरी और जीवन स्तर में दूने की वृद्धि हो गयी और पश्चिम में जब महामन्दी का कहर बरपा हो रहा था, उस समय सोवियत संघ में बेरोज़गारी का पूर्ण उन्मूलन कर दिया गया था। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1933-1937) भी निर्धारित समय से पहले, चार वर्ष तीन महीने में ही पूरी हो गयी। इस योजना के अन्त तक पुनः औद्योगिक उत्पादन 1932 की तुलना में दूना हो गया और सोवियत संघ दुनिया के दूसरे नम्बर का औद्योगिक देश बन गया। इसके औद्योगिक विकास की दर दुनिया में सबसे अधिक, और इतिहास में बुर्जुआ औद्योगिक क्रान्तियों की दर से भी बहुत अधिक रही। साथ ही पूरे समाज में सामाजिक न्याय, शिक्षा, जन स्वास्थ्य, औरतों की आज़ादी आदि मामलों में जो अभूतपूर्व चमत्कारी प्रगति हुई, उसे समाजवाद के कटु आलोचकों ने भी स्वीकार किया। इन आँकड़ों को एक साथ रखने पर एकबारगी तो किसी के लिए विश्वास करना कठिन हो जाता है। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1938-1942), जो 1941 में युद्ध के कारण बाधित हो गयी, के दौरान भी समाजवादी निर्माण का कार्य पूर्ववत वृद्धि दर से ही जारी रहा, पर आसन्न फ़ासिस्ट हमले के कारण रक्षा इसकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी। तीनों पंचवर्षीय योजनाओं की समाजवादी प्रगति का ही यह परिणाम था कि युद्ध के दौरान अपने औद्योगिक उत्पादन का औसतन आधे से भी अधिक जर्मन आक्रमण के दौरान खोने के बावजूद सोवियत अर्थव्यवस्था खड़ी रही और लाल सेना ने हिटलर की 254 डिवीज़नों में से 200 उन्नत डिवीज़नों का मुक़ाबला करके फ़ासिस्टों को परास्त किया। युद्ध में दो करोड़ जनता की भारी क़ुर्बानी देकर सोवियत रूस ने यह विजय हासिल की और पूर्वी यूरोप के देशों की मुक्ति के साथ ही एक शक्तिशाली समाजवादी शिविर अस्तित्व में आया।

सोवियत संघ की इन ऐतिहासिक आर्थिक-राजनीतिक उपलब्धियों की एकमात्र ताक़त स्तालिन की अगुवाई और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में सोवियत जनता द्वारा खड़ा किये गये समाजवाद की ताक़त में निहित थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के परिणाम के परिप्रेक्ष्य में भी सोचा जा सकता है कि साम्राज्यवादी घेरेबन्दी के बीच अकेले खड़े पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले देश में समाजवाद का निर्माण कितनी बड़ी चुनौती थी, कृषि की क़ीमत पर बड़े उद्योगों के विकास और तेज़ी के साथ सामूहिकीकरण की क्या फ़ौरी आवश्यकता और क्या विवशताएँ थीं तथा किन तात्कालिक संकटों के लगातार दबाव ने स्तालिन को समाजवाद की बुनियादी और दूरगामी समस्याओं पर सोचने का कभी अवसर ही नहीं दिया।

स्तालिन की यदि कोई बुनियादी सैद्धान्तिक ग़लती थी जिसने सोवियत रूस में और पूरी दुनिया में सर्वहारा आन्दोलनों और समाजवाद पर महत्त्वपूर्ण प्रतिकूल असर डाला, तो वह एक ही थी। वह ग़लती यह थी कि स्तालिन आनुभविक और व्यावहारिक धरातल पर लगातार वर्ग संघर्ष चलाते हुए भी समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की प्रकृति और उसके बुनियादी नियमों को नहीं समझ सके और इस ग़लती का सर्वाधिक विकसित रूप यह था कि नवम्बर 1936 में सोवियतों की सातवीं कांग्रेस में सोवियत संघ के संविधान के मसौदे पर प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में उन्होंने यह सूत्रीकरण प्रस्तुत किया कि 1924-36 के दौरान सोवियत रूस में उत्पादन के साधनों व विनिमय के वैधिक निजी स्वामित्व की समाप्ति और समाजवादी स्वामित्व के क़ायम होने के बाद वर्गों के बीच के आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोध अब “घट रहे हैं और समाप्त हो रहे हैं” तथा उन्नत समाजवादी सम्बन्धों और पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के बीच अन्तरविरोध अब सोवियत समाज का मुख्य अन्तरविरोध बन गया है।

इस त्रुटिपूर्ण धारणा का विश्लेषण करते हुए पहले हम बता चुके हैं कि स्वामित्व के वैधिक रूपों में परिवर्तन मात्र ही वर्गों व वर्ग संघर्ष के अस्तित्व की परिस्थितियों को समाप्त नहीं कर देता और ये परिस्थितियाँ उत्पादन सम्बन्धों से – विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया के रूपों से जुड़ी हुई हैं। स्तालिन का मानना था कि सर्वहारा अधिनायकत्व की आवश्यकता अब केवल साम्राज्यवादी घेरेबन्दी, तोड़-फोड़ और साम्राज्यवाद के एजेण्टों के विरुद्ध ही मुख्यतः रह गयी है। लेकिन यह भी सही है कि 1936 के बाद भी स्तालिन ने सर्वहारा अधिनायकत्व का इस्तेमाल केवल बाहरी ख़तरों के विरुद्ध ही नहीं बल्कि समाजवाद विरोधी भीतरी शक्तियों के विरुद्ध भी लगातार किया, यानी व्यावहारिक और आनुभविक धरातल पर उन्होंने वर्ग संघर्ष को जारी रखा। लेकिन समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और नियमों की सुसंगत समझ के अभाव में वे समाजवाद-विरोधी तत्त्वों को अतीत का अवशेष या साम्राज्यवाद का एजेण्ट मात्र समझते रहे। समाजवादी समाज के आर्थिक मूलाधार से नये बुर्जुआ तत्त्वों के पैदा होने की प्रक्रिया को वे नहीं समझ सके। इसी कारण से उनका आनुभविक व्यावहारिक वर्ग संघर्ष सुसंगत समझ से संचालित, सर्वग्राही वर्ग संघर्ष नहीं बन सका और वे यह नहीं समझ सके कि सतत क्रान्तियों के बग़ैर ऐसे बुर्जुआ तत्त्व समाजवाद के भीतर लगातार ही पैदा होते रहेंगे और उनका दमन या सफाया तात्कालिक कार्रवाई मात्र ही हो सकती है, स्थायी समाधान नहीं। ज़ाहिरा तौर पर, अपने इसी ग़लत सूत्रीकरण के चलते स्तालिन मूलाधार के अतिरिक्त अधिरचना में निहित पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों को और अधिरचना में क्रान्ति की अपरिहार्यता को भी नहीं पहचान सके। सम्भवतः उत्पादक शक्तियों के विकास पर अतिरिक्त बल देने और उसे समाजवाद की मूल प्रेरक शक्ति मानने की ही एक तार्किक परिणति यह भी थी कि स्तालिन का ज़ोर तकनीक पर आवश्यकता से अधिक और मनुष्य पर कम था। साथ ही मूलतः इसी कारण से स्तालिन पार्टी के भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष को समाज में जारी वर्ग संघर्ष के ही एक रूप और विस्तार के रूप में नहीं देख सके, समाजवाद के दौर में पार्टी के सर्वहारा चरित्र की हिफ़ाज़त के लिए जनता से लगातार उसका जीवन्त सम्पर्क बनाये रखने तथा जनता से पार्टी के सीखने के सुसंगत रूपों को नहीं विकसित कर सके और राज्य व्यवस्था एवं प्रबन्ध के कामों में समाजवादी चेतना के उन्नत होते जाने के साथ ही मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम की क्रमशः बढ़ती भागीदारी को सुनिश्चित करने के स्पष्ट तौर-तरीक़े नहीं ढूँढ़ सके। इस तरह स्तालिन की इस गम्भीर सैद्धान्तिक भूल ने पद्धति, प्रक्रिया और परिणाम के धरातल पर समाजवादी क्रान्ति पर प्रतिकूल प्रभाव छोड़ा और वे सर्वग्राही एवं सतत क्रान्ति के द्वारा पूँजीवाद के निर्मूलन और समाजवाद को गुणात्मक रूप से आगे की ओर गति देने में सफल नहीं हो सके। पर स्तालिन की इस मुख्य सैद्धान्तिक ग़लती को भी उस समय की वस्तुगत सीमाओं-समस्याओं की पृष्ठभूमि में रखकर देखने के बाद ही हम इतिहास के साथ न्याय कर सकेंगे और सही नतीजे निकाल सकेंगे, अन्यथा मुक्त चिन्तकों की ग़ैरिज़म्मेदाराना और बचकाना पहुँच का शिकार तथा दुष्प्रचार से प्रभावित होने से बच पाना कठिन होगा।

अपनी इस गम्भीर सैद्धान्तिक ग़लती के बावजूद विश्व सर्वहारा के लिए स्तालिन के अवदान महान हैं। वे प्रखर और उत्कट सर्वहारा क्रान्तिकारी थे, जिसने सर्वहारा अधिनायकत्व को कभी नहीं छोड़ा। हालाँकि वे समाजवाद को एक मंज़िल से आगे नहीं ले जा सके थे, लेकिन निजी स्वामित्व के वैधिक रूपों की समाप्ति और केन्द्रीकृत समाजवादी नियोजन का जो काम उन्होंने अंजाम दिया वह सर्वथा सही और समाजवाद को आगे ले जाने की अनिवार्य पूर्वशर्त थी। इन क़दमों के परिणामस्वरूप और तदनुरूप सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक नीतियों के परिणामस्वरूप सर्वहारा की सत्ता का भौतिक आधार मजबूत और विस्तारित हुआ। चूँकि उनके जीवनपर्यन्त सर्वहारा के हाथों में राजनीतिक सत्ता दृढ़ता के साथ क़ायम थी और स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण और समाजवादी नियोजन का सुदृढ़ीकरण हो चुका था, अतः ग़लतियों को दूर करके सतत क्रान्ति द्वारा समाजवाद को आगे ले जाने का द्वार खुला हुआ था, हालाँकि पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए बुर्जुआ वर्ग भी अपनी शक्ति काफ़ी हद तक संगठित कर चुका था। इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण तथ्य की अनदेखी क़तई नहीं की जानी चाहिए कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, अत्यधिक तीव्र गति के साथ सोवियत रूस अपनी अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करके जैसे ही समाजवादी निर्माण के कार्य में जुटा और विविध राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं के बावजूद, अपेक्षतया सुदृढ़ स्थिति में जैसे ही स्तालिन को समाजवाद की दूरगामी नीतियों और विगत के समाहार के बारे में सोचने का अवसर मिला, वैसे ही उन्होंने अपनी उपरोक्त सैद्धान्तिक ग़लती को सुधारने की दिशा में सोचना शुरू कर दिया था। 1952 में लिखित अपनी पुस्तक ‘सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याएँ में उन्होंने स्पष्टतः यह उल्लेख किया कि सोवियत समाज में माल उत्पादन की व्यवस्था मौजूद है और तदनुरूप मूल्य के नियम काम कर रहे हैं। यह प्रकारान्तर से सोवियत समाज में बुर्जुआ तत्त्वों के अस्तित्व को भी स्वीकार करना था जो स्तालिन के 1936 के ग़लत सूत्रीकरण का निषेध था और समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की समस्या पर नये सिरे से सोचने की शुरुआत था। साथ ही, यह भी तथ्य उल्लेखनीय है कि अपने अन्तिम दिनों में स्तालिन पार्टी से बुर्जुआ तत्त्वों को निकाल बाहर करने की तैयारी में एक बार फिर जुटे हुए थे।

अपनी उपरोक्त ग़लती के बावजूद स्तालिन ने सच्ची कम्युनिस्ट स्पिरिट और उत्कट सर्वहारा जुझारूपन के साथ पार्टी के भीतर पूँजीवादी-मध्यमवर्गीय तत्त्वों के विरुद्ध लगातार संघर्ष चलाया और नीचे से कई तरह के आन्दोलन चलाकर सर्वहारा सत्ता को सुनिश्चित और सुदृढ़ बनाया। तोड़फोड़ करने वाले और समाजवाद-विरोधी तत्त्वों को कुचलने में उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी और इसी नाते वे साम्राज्यवाद और फ़ासिज़्म पर समाजवाद की अवजय को सुनिश्चित कर सके। यही कारण है कि आज बुर्जुआ वर्ग समाजवाद के विरुद्ध अपने कुत्साप्रचार अथियान में स्तालिन को मुख्य निशाना बनाता है। यह मूल्यांकन सही है कि समाजवाद के दुश्मनों को कुचलने की प्रक्रिया में दमन का दायरा आवश्यकता से बड़ा हो गया था, पर क्रान्ति की प्रक्रिया में ऐसी ग़लतियाँ हज़ार बार माफ़ हैं। समाजवाद-विरोधी बुर्जुआ तत्त्वों की सही पहचान का सिद्धान्त और उनके विरुद्ध संघर्ष का सिद्धान्त मौजूद न होने और उन्हें विकसित न कर पाने की स्थिति में ये ग़लतियाँ होनी ही थीं, पर दुश्मनों को कुचल देने की यह नीति यदि स्तालिन ने नहीं अपनायी होती और फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष में समाजवाद की जीत सुनिश्चित नहीं हो पाती, यह बुर्जुआ इतिहासकार भी स्वीकार करते हैं।

और यही कारण है कि स्तालिन के पूरे जीवनकाल में श्रम के प्रति जनता का उत्साह, उसकी सर्जनात्मक पहलक़दमी और सर्वहारा राज्य के साथ उसका तादात्म्य लगातार बना रहा और अनेक रूपों में अभिव्यक्त होता रहा। ऐसी पहली अभिव्यक्ति ‘सुब्बोतनिकों’ के रूप में गृहयुद्ध के दौरान ही सामने आयी थी। यही भावना पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान ‘वास्क्रेनिक’ (औद्योगीकीकरण के दौरान स्वैच्छिक ओवरटाइम) के रूप में और ‘धुरन्धर कार्यदस्ता’ (शाक वर्क टीम) आन्दोलन के रूप में और फिर 1935 में ‘स्ताखानोव’ आन्दोलन और ‘पब्लिक टगबोट’ की परिघटना के रूप में सामने आयी। समाज-विकास की इस दिशा को मोड़ने में और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की शुरुआत कर सकने में बुर्जुआ वर्ग स्तालिन के बाद ही सफल हो सका।

सोवियत रूस में इतिहास के पहले समाजवादी प्रयोगों की इन्हीं सफलताओं-असफलताओं, इन्हीं सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों के सांगोपांग अध्ययन-विश्लेषण-समाहार के बाद और इसी परिप्रेक्ष्य में चीन में समाजवादी संक्रमण के दौरान के संघर्षों के नतीजों के आधार पर माओ समाजवादी समाज में वर्ग-अन्तरविरोधों को ढूँढ़ सकने में, वर्ग संघर्ष को सही ढंग से सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत संचालित करने के नियम और तौर-तरीक़े ढूँढ़ सकने में सफल रहे। इन्हीं अनुभवों के आधार पर उन्होंने पार्टी के भीतर नीचे की इकाई से लेकर पोलित ब्यूरो तक मौजूद पूँजीवादी पथगामियों की तथा राज्य के भीतर, देश की छोटी आर्थिक इकाई के भीतर और शिक्षा की संस्कृति के क्षेत्र में मौजूद तथा फल-फूल रहे पूँजीवादी तत्त्वों की पहली बार सुस्पष्ट पहचान क़ायम की, उनके विरुद्ध एक सर्वग्राही महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को जन्म दिया और पूँजीपतियों पर लगातार जीत हासिल करते हुए कम्युनिज़्म की दिशा में संक्रमण को सुनिश्चित करने के दर्शन से सर्वहारा वर्ग को परिचित कराया।

माओ त्से-तुङ का सामाजिक प्रयोग, समाजवाद की

प्रकृति और समस्याओं के बारे में चिन्तन और

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति

समाजवादी समाज में वर्गसंघर्ष की पूरी प्रकृति, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के सभी अन्तर्निहित ख़तरों और उसे रोकने के कारगर उपाय की समझ तक माओ कुछ दिनों या कुछ वर्षों में नहीं पहुँचे। अपने देश के ठोस अनुभवों का समाहार करते हुए और सोवियत संघ के प्रयोगों से क्रमशः उसी परिप्रेक्ष्य में नतीजे निकालते हुए वे 1966 तक – महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शुरुआत के समय तक, इस मुक़ाम तक पहुँचे। लेकिन यह प्रक्रिया किसी न किसी रूप में 1949 के पहले से ही जारी थी और 1949 में सर्वहारा वर्ग के हाथों में सत्ता आने के तत्काल बाद ही इसकी ठोस रूप में शुरुआत हो चुकी थी। तत्कालीन अनुकूल विश्व-परिस्थितियों ने माओ को इसके लिए एक हद तक अवसर भी प्रदान किया जिसकी चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। और सबसे बढ़कर, सोवियत संघ के पहले समाजवादी प्रयोगों का अनुभव भी सामने मौजूद था।

मार्च, 1949 में ही जब चीनी क्रान्ति नयी जनवादी क्रान्ति की मंज़िल से समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रवेश करने वाली थी, माओ ने पार्टी की सातवीं केन्द्रीय कमेटी के दूसरे पूर्ण अधिवेशन में यह स्पष्ट किया था कि सर्वहारा वर्ग द्वारा देश भर में सत्ता पर अधिकार कर लेने के बाद भी सर्वहारा वर्ग और पूँजीवादी वर्ग के बीच का अन्तरविरोध ही प्रधान अन्तरविरोध है और संघर्ष अब भी राज्यसत्ता के सवाल पर ही केन्द्रित है। इसके बावजूद छठे दशक के पूर्वार्द्ध तक चीन मुख्यतः सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण और क्रान्ति के रास्ते को ही अपना मॉडल मानता रहा। समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की प्रकृति, किसानों की क़ीमत पर प्रारम्भिक समाजवादी पूँजी संचय की समस्या, गाँव और शहर के बढ़ते अन्तर की समस्या, बुर्जुआ अधिकारों की समस्या, उत्पादक शक्तियों के विकास पर अधिक बल देने की ग़लती आदि के बारे में शुरू में सुस्पष्ट समझदारी नहीं थी। शुरू में चीन में भी बड़े उद्योगों को ही समाजवाद का आधार बनाया गया, उद्योगों में एक सदस्यीय प्रबन्धन की नीति लागू की गयी और अत्यधिक केन्द्रीकृत नियोजन तन्त्र स्थापित किया गया। लेकिन छठे दशक के मध्य से माओ ने इन समस्याओं पर नये सिरे से सोचना, सोवियत संघ के प्रयोगों और पृथक परिस्थितियों का आलोचनात्मक अध्ययन करना और समाजवादी क्रान्ति की समस्याओं पर व्यापक और दूरगामी परिप्रेक्ष्य में सोचना शुरू कर दिया। कारख़ानों के एक सदस्यीय प्रबन्धन के स्थान पर पार्टी की भूमिका और मज़दूरों की भागीदारी बढ़ाने पर बल दिया जाने लगा। बड़े उद्योगों की जगह छोटे उद्योगों और कृषि को आधार बनाने पर ज़ोर देने की बात की जाने लगी और सोवियत मॉडल के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति की आलोचना की जाने लगी। चीन जैसे पिछड़ी उत्पादक शक्तियों और बहुसंख्यक किसान आबादी वाले देश में कृषि के समाजवादी रूपान्तरण को प्राथमिकता देना सर्वहारा सत्ता के सुदृढ़ीकरण के लिए आवश्यक समझा जाने लगा। माओ ने इस दौरान मज़दूर किसान संश्रय पर विशेष ज़ोर दिया, गाँवों और शहरों के बढ़ते अन्तर को समाजवाद के लिए नुक़सानदेह बताया, और ‘पहले तकनीकी विकास और फिर समाजवादी रूपान्तरण’ की समझ को ग़लत बताया। उन्होंने बताया कि गाँवों-शहरों का बढ़ता अन्तर शारीरिक श्रम को हेय समझने की प्रवृत्ति और नेतृत्व की नौकरशाहाना अभिजात्यवादी शैली को जन्म दे रहा है। महान अग्रवर्ती छलांग (ग्रेट लीप फ़ारवर्ड)’ के दौरान इस विकसित होती समझ को प्रयोगों में लागू करने का प्रयास किया गया। जुलाई 1955 में माओ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि देहाती और शहरी क्षेत्रों का समाजवादी विकास एक-दूसरे से अन्तर्सम्बन्धित हैं, “वह किसी भी क़ीमत पर उद्योग और कृषि, समाजवादी औद्योगीकीकरण और कृषि के समाजवादी रूपान्तरण को दो भिन्न और अलग-अलग चीज़ें क़तई नहीं मान सकते और किसी भी तरह से एक पर अधिक ज़ोर देना और दूसरे की उपेक्षा करने का काम क़तई नहीं कर सकते” (कृषि सहकारिता के सवाल पर’)। 1956 तक माओ ने इन सभी प्रश्नों को समेटकर समाजवाद की समस्याओं को रेखांकित करना और समाजवाद की विकास-रणनीति के रूप में उनका समाधान प्रस्तुत करना शुरू कर दिया था।

1956 तक चीन में कृषि, दस्तकारी, बड़े उद्योग और वाणिज्य के क्षेत्र में उत्पादन के साधनों की मिल्कियत के समाजवादी रूपान्तरण का काम मुख्य तौर पर पूरा हो चुका था। इस मुक़ाम पर पहुँचकर समाजवादी क्रान्ति को आगे ले जाने का कार्यभार ठोस रूप में एकदम सामने खड़ा था। इस बिन्दु पर पहुँचकर माओ ने रूस में समाजवादी निर्माण की नीतियों का एक सन्तुलित समाहार और चीन में समाजवादी क्रान्ति की एक वैकल्पिक रणनीति प्रस्तुत करना शुरू किया। इस नये प्रस्थान-बिन्दु ने ‘दस मुख्य सम्बन्धों के बारे में शीर्षक लेख में मूर्त शक्ल अिख़्तयार की जिसमें माओ ने बड़े उद्योगों को प्राथमिकता देकर और अलग-अलग चरणों में (पहले भौतिक प्रगति और उसके बाद सामाजिक सम्बन्धों एवं विचारधारा का रूपान्तरण) विकास की रणनीति को रद्द करते हुए सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में एक साथ समाजवादी रूपान्तरण पर बल दिया, किसानों की क़ीमत पर उनसे अतिरिक्त मूल्य निकालकर उद्योगों को विकास करने की रणनीति को समाजवाद विरोधी और विभिन्न क्षेत्रों एवं विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच अन्तरविरोध बढ़ाने वाला बताया और इसके विकल्प के तौर पर कृषि एवं उद्योग क्षेत्र की श्रम-शक्ति की उत्पादकता बढ़ाकर समाजवादी औद्योगीकीकरण और कृषि के समाजवादी रूपान्तरण की समस्या को एक साथ हल करने की रणनीति प्रस्तुत की।

माओ 1956 में इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि समाजवादी निर्माण के दौर में निजी स्वामित्व के समाजवादी स्वामित्व में रूपान्तरण का काम मुख्यतः पूरा होने के बावजूद समाज में बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी और गाँव और शहर के बीच, मज़दूर और किसान के बीच तथा शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच अन्तरवैयक्तिक अन्तर की मौजूदगी समाज में वर्ग-अन्तरविरोधों की मौजूदगी का द्योतक है। वे ठोस रूप में समाजवादी समाज में पिछड़ी उत्पादक शक्तियों और उन्नत उत्पादन सम्बन्धों के बीच के अन्तरविरोध को ही प्रधान मानने की धारणा की ग़लती को समझ चुके थे और व्यावहारिक धरातल पर भी इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि स्वामित्व में परिवर्तन उत्पादन सम्बन्धों में परिवर्तन का पर्याय नहीं है। उत्पादक शक्तियों के विकास के सिद्धान्त को उस समय पार्टी में मौजूद ल्यू शाओ-ची का संशोधनवादी गुट वर्ग संघर्ष को रद्द करने वाले सुविकसित सिद्धान्त के रूप में प्रस्तुत कर रहा था। यह अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में ख्रुश्चेव के आविर्भाव के बाद, संशोधनवाद की बाढ़ का समय था जो चीन में भी पार्टी के भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष में संशोधनवादी लाइन को बल प्रदान कर रहा था। ऐसे समय में माओ ने ‘जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में’ नामक अपनी रचना में पहली बार सिद्धान्त और व्यवहार की दृष्टि से यह स्पष्ट रूप में बताया कि मिल्कियत के समाजवादी रूपान्तरण का काम मुख्यतः पूरा हो जाने के बाद भी वर्गों और वर्ग संघर्ष का अस्तित्व बना रहता है और यह कि सर्वहारा वर्ग को क्रान्ति जारी रखनी चाहिए। उन्होंने ज़ोर देकर बताया कि “सर्वहारा और पूँजीपति वर्ग के बीच का वर्ग संघर्ष, विभिन्न राजनीतिक शक्तियों के बीच का वर्ग संघर्ष और विचारधारात्मक क्षेत्र में सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का वर्ग संघर्ष लम्बे समय तक जारी रहेगा, टेढ़ा-मेढ़ा होगा और यहाँ तक कि समय-समय पर अत्यन्त गम्भीर हो जायेगा।” ल्यू शाओ-ची द्वारा प्रस्तुत भ्रान्त धारणा का खण्डन करते हुए उन्होंने बताया कि समाजवाद और पूँजीवाद के बीच कौन जीतेगा, यह प्रश्न अभी भी तय नहीं हुआ है। माओ ने पहली बार समाजवादी समाज में बुर्जुआ विचारधारा और नौकरशाहाना कार्यशैली के विरुद्ध लगातार जनसंघर्ष पर विशेष ज़ोर दिया और बताया कि आर्थिक आधार का विकास स्वतन्त्र रूप से और अपने आप उन संगठनात्मक रूपों को जन्म नहीं देता जो क्रान्ति को आगे ने जाने के लिए ज़रूरी है। समय-समय पर अधिरचना की भूमिका निर्णायक हो जाने की बात माओ ने बहुत पहले ही ‘अन्तरविरोध के बारे में’ शीर्षक अपनी रचना में की थी। अब समाजवादी समाज में अधिरचना के धरातल पर वर्ग संघर्ष को उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण के लिए अपरिहार्य बताते हुए उन्होंने इस पर क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर देना शुरू किया। ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ के समाहार के दौरान ही माओ ने पार्टी और जनता के अन्तरसम्बन्धों पर और विचारधारात्मक-राजनीतिक संघर्ष में जनता की भूमिका पर ज़्यादा से ज़्यादा ज़ोर देना शुरू किया। माओ ने जनता को इतिहास के सच्चे निर्माता के रूप में देखा, और बताया कि जनता की सृजनात्मकता, पहलक़दमी और निर्णय की प्रक्रिया में ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी के द्वारा ही समाजवाद को आगे ले जाया जा सकता है, और यह कि कम्युनिस्ट पार्टी को जनता से सीखना चाहिए। इस तरह माओ ने भी समाजवादी समाज की जनवादी केन्द्रीयता के स्वरूप को ज़्यादा स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया और साथ ही यह भी बताया कि समाजवादी वर्ग समाज में कम्युनिस्ट पार्टी भी समेकित और एकरूप नहीं होती। उन्होंने पार्टी में उस समय चल रहे दो लाइनों के संघर्ष के अनुभव से यह नतीजा निकाला कि केवल अन्तरपार्टी आलोचना-आत्मालोचना, शुद्धीकरण अभियान और विचारधारात्मक प्रतिबद्धता ही पार्टी की क्रान्तिकारी भूमिका को बनाये रखने के लिए पर्याप्त नहीं है। पार्टी के भीतर के अन्तरविरोध समाज के भीतर के अन्तरविरोधों से गुँथे हुए हैं और पार्टी जनता के साथ एकरूप होकर और उसकी आलोचनाओं से सबक़ लेकर ही अपना परिष्कार करती रह सकती है। इसे भी माओ ने अधिरचना के क्षेत्र में वर्ग संघर्ष के एक आवश्यक रूप के तौर पर देखा।

इस तरह, हम देखते हैं कि छठे दशक के मध्य तक ही माओ की चिन्तन-प्रक्रिया में सांस्कृतिक क्रान्ति की अवधारणा, उसकी नीति और उसके कार्यक्रम के संघटक अवयव सुनिश्चित शक्ल ग्रहण करने लगे थे। समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की प्रकृति, पार्टी के भीतर बुर्जुआ लाइन के प्रस्तोताओं के रूप में बुर्जुआ तत्त्वों की मौजूदगी, समाजवादी रूपान्तरण में अधिरचना के निर्णायक महत्त्व, अन्तरवैयक्तिक अन्तरों और बुर्जुआ अधिकारों को तथा समाज में हर धरातल पर मौजूद विषमता को नियन्त्रित और सीमित करने की अपरिहार्यता, समाजवादी समाज में जारी वर्ग संघर्ष में व्यापक जनसमुदाय की हिस्सेदारी की आवश्यकता और इसके रूप – इन सभी पर माओ ने गम्भीरतापूवर्क उस समय सोचना और नतीजे निकालना शुरू कर दिया था। इसी समय पूरी दुनिया के पैमाने पर ख्रुश्चेव के प्रभाव में आधुनिक संशोधनवाद की लहर चल पड़ी थी और इसके विरुद्ध 1956 से लेकर ‘महान बहस’ तक के निर्णायक संघर्ष चलाने के अनुभवों ने भी माओ के चिन्तन को संशोधनवादी, पूँजीवादी तत्त्वों के विरुद्ध वर्ग संघर्ष के चलाने के बारे में तथा पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बारे में आवश्यक, ठोस और व्यावहारिक शिक्षाओं से समृद्ध बनाया। देश के भीतर भी पार्टी में प्रबल मौजूदगी वाले संशोधनवादियों के विरुद्ध संघर्ष जारी था, जिनके विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति की पूरी दिशा और एक-एक नीति तथा एक-एक निर्णय को लेकर संघर्ष करते हुए माओ समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व के महत्त्व एवं स्वरूप को ज़्यादा से ज़्यादा स्पष्ट रूप में समझते हुए क़दम-ब-क़दम सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की सैद्धान्तिक-व्यावहारिक पूर्वपीठिका तैयार करते जा रहे थे। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष की तैयारी और इसकी क्रमशः शुरुआत भी इस प्रक्रिया में निर्णायक तौर पर अहम भूमिका निभा रही थी। ख्रुश्चेव द्वारा सर्वहारा अधिनायकत्व के परित्याग के बाद वहाँ पुनर्स्थापित पूँजीवादी समाज की आर्थिक-सामाजिक संरचना, वर्ग संघर्ष के स्वरूप, इसके विकास की दिशा और अतीत में निहित इसके पूर्वाधारों को समझने की प्रक्रिया में माओ त्से-तुङ ने पूँजीवादी पुनर्स्थापना के मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन द्वारा बार-बार रेखांकित किये गये ख़तरे की ठोस समझदारी हासिल की और उसे रोकने के उपायों-रास्तों के बारे में सोचते हुए समाजवादी समाज में सतत क्रान्ति चलाने की प्रस्थापना की ओर आगे बढ़े। 1957 में पूँजीवादी दक्षिणपन्थियों के खि़लाफ़ चलाये गये संघर्ष से लेकर 1959 की लूशान मीटिंग में फङ-तङ-हुवाई के पार्टी विरोधी गुट के विरुद्ध संघर्ष तक दो लाइनों के बीच संघर्ष का मुख्य केन्द्र-बिन्दु यही था कि समाजवादी क्रान्ति को वर्ग-संघर्ष के ज़रिये आगे बढ़ाया जाये या पूँजीवाद के रास्ते पर आगे बढ़ा जाये। दो लाइनों का यह संघर्ष ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध पूँजीवादी पुनर्स्थापना के विरुद्ध महान बहस के दौरान खुले संघर्ष का बिगुल बज उठने के बाद एकदम मुखर हो गया और 1964 में समाजवादी शिक्षा आन्दोलन की शुरुआत तक ज़्यादा से ज़्यादा तीक्ष्ण होता चला गया।

जनवरी, 1962 में केन्द्रीय कमेटी की कार्यकारी बैठक में माओ ने संशोधनवाद के ख़तरे के विरुद्ध सतर्कता पर विशेष ज़ोर दिया और उसी वर्ष अगस्त में पैताएहो में हुई केन्द्रीय कमेटी की कार्यकारी बैठक में तथा सितम्बर में हुए पार्टी की आठवीं केन्द्रीय कमेटी के दसवें पूर्ण अधिवेशन में उन्होंने पहली बार समाजवाद के पूरे ऐतिहासिक काल की बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं का विशद उल्लेख करते हुए इस पूरे काल के लिए पार्टी की बुनियादी कार्य दिशा प्रस्तुत की। उन्होंने संक्रमण के दौरान जारी वर्ग संघर्ष की दीर्घकालिक प्रकृति, अन्तरविरोधों के स्वरूप और लगातार मौजूद पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों की चर्चा करते हुए समाजवादी शिक्षा के आन्दोलन पर विशेष ज़ोर दिया और इस तरह अधिरचना के महत्त्व को रेखांकित किया। मई, 1963 में माओ के निर्देशन में तैयार किये गये ‘10 सूत्री फ़ैसले’ में समाजवादी शिक्षा आन्दोलन के बारे में पार्टी की लाइन, उसूल और नीतियाँ निर्धारित की गयीं। माओ ने स्पष्टतः बताया कि अगर हम वर्ग संघर्ष और सर्वहारा अधिनायकत्व को भूल गये तो “लाज़िमी तौर पर प्रतिक्रान्तिकारी पुनर्स्थापना होने में, मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के अनिवार्य रूप से एक संशोधनवादी पार्टी या एक फ़ासीवादी पार्टी बनने में तथा समूचे चीन का राजनीतिक रंग बदलने में, ज़्यादा समय नहीं लगेगा, शायद कुछ ही वर्ष लगेंगे, अथवा एक दशाब्दी लगेगी, या ज़्यादा से ज़्यादा चन्द दशाब्दियाँ लगेंगी।” 1963 में महान बहस के दौरान प्रस्तुत आम दिशा विषयक ऐतिहासिक दस्तावेज़ में माओ ने एक बार फिर समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष को पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने के लिए अपरिहार्य बताया।

1964 में शुरू हुआ महान समाजवादी शिक्षा आन्दोलन सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की भूमिका था। माओ ने इस दौरान पहली बार ठोस रूप में बताया कि “वर्तमान आन्दोलन में प्रहार के मुख्य लक्ष्य पार्टी के वे सत्ताधारी लोग हैं जो पूँजीवादी रास्ता अपना रहे हैं।”

इस तरह उन्होंने पहली बार स्पष्ट किया कि समाजवादी समाज में मौजूदा बुर्जुआ शक्तियों की नुमाइन्दगी कौन लोग करते हैं और भविष्य में वर्ग संघर्ष का राजनीतिक रूप क्या होगा। ठीक इसी दौरान शिक्षा के साथ ही साहित्य-कला-संस्कृति के क्षेत्र में भी बुर्जुआ प्रवृत्तियों-रुझानों के विरुद्ध उग्र संघर्ष शुरू हो चुका था।

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति मार्क्स के समय से ही लगातार रेखांकित की गयी समाजवाद की बुनियादी समस्याओं का सम्यक और व्यापक ढंग से समाधान प्रस्तुत करने वाला पहला प्रयास था। यह एक सर्वतोमुखी महान राजनीतिक क्रान्ति थी। पहली बार सर्वहारा वर्ग को माओ ने अधिरचना के क्षेत्र में वर्ग संघर्ष चलाने के रास्ते से, एक सुनियोजित क्रान्ति को चलाने के रास्ते से, परिचित कराया और उसे ऊपर चर्चित समाजवाद के सभी अन्तरविरोधों को सतत क्रान्ति के ज़रिये हल करके कम्युनिज़्म की ओर संक्रमण को सुनिश्चित करने की कुंजी प्रदान की। फ़रवरी 1967 में इसके ऐतिहासिक महत्त्व की चर्चा करते हुए स्वयं माओ ने एक बातचीत के दौरान कहा था: “अतीत काल में, हमने देहातों में, कारख़ानों में सांस्कृतिक क्षेत्र में संघर्ष चलाया और हमने समाजवादी शिक्षा आन्दोलन भी चलाया। लेकिन ये बातें समस्या को हल करने में असफल रहीं, क्योंकि हम व्यापक जनसमुदाय को जागृत करने का ऐसा कोई ढंग, ऐसा कोई तरीक़ा नहीं निकाल पाये जिससे वह हमारे अन्धकारपूर्ण पहलू का खुल्लम-खुल्ला, चौतरफ़ा रूप से बिल्कुल नीचे से पर्दाफाश कर सके।” कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम होने के बावजूद राज्य और पार्टी में बैठे जो पूँजीवादी पथगामी समाजवाद की प्रगति की राह में रोड़े बने हुए थे, पहली बार उनकी स्पष्ट पहचान क़ायम करके कोटि-कोटि जनसमुदाय को जागृत करके बुर्जुआ हेडक्वार्टर को ध्वस्त करने के लिए उनका आह्वान किया गया।

इस महान क्रान्ति का पहला बिगुल 16 मई, 1966 के सर्कुलर ने बजाया जो माओ त्से-तुङ के प्रत्यक्ष निर्देशन में तैयार किया गया था और जिसके माध्यम से सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त, लाइन, उसूल, नीतियाँ और उसका कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया। माओ की सर्वहारा लाइन के निर्देशन में व्यापक क्रान्तिकारी जनसमुदाय क्रान्ति के सैलाब के रूप में उमड़ पड़ा, केन्द्रीय कमेटी के मातहत काम करने वाले सांस्कृतिक क्रान्ति ग्रुप संगठित किये गये, पीकिंग विश्वविद्यालय से शुरू होने के बाद देशभर में प्रतिक्रियावादी पूँजीवादी विचारों और रहनुमाओं की आलोचना करने वाले बड़े चित्राक्षर वाले पोस्टरों की बाढ़ सी आ गयी और बहादुर पथ-निर्माताओं की भूमिका अदा करने वाले ‘रेड गार्ड्स’ के रूप में देश के करोड़ों क्रान्तिकारी नौजवान संगठित हो गये। बाद के दौर में संघर्ष को सुचारू रूप से चलाने के लिए क्रान्तिकारी कमेटियाँ गठित की गयीं। सत्ता में और पार्टी में जड़ जमाये ल्यू शाओ-ची के नेतृत्व वाले पूँजीवादी पथगामियों ने इस आन्दोलन के दमन में कोई कोर-कसद नहीं छोड़ी और उनके विरुद्ध एक दुद्धर्ष संघर्ष छिड़ गया। अगस्त, 1966 में आठवीं केन्द्रीय कमेटी ने सुप्रसिद्ध कार्यक्रमपरक दस्तावेज़ ‘सोलह सूत्री सर्कुलर’ पारित किया और बुर्जुआ सदर मुक़ाम पर बमबारी करने के प्रसिद्ध नारे के साथ सांस्कृतिक क्रान्ति ने जीवन-मरण के एक नये संघर्ष के एक नये दौर में प्रवेश किया। संघर्ष के इस दौर की परिणति ल्यू शाओ-ची के सत्ताच्युत किये जाने के रूप में हुई। मई, 1966 से लेकर 1969 के प्रारम्भ तक क्रान्ति का प्रथम ज्वार चढ़ावों-उतारों के कई दौरों और टेढ़े-मेढ़े रास्तों से होकर गुज़रा। कई बार पूँजीवादी पथगामी जवाबी हमला करके कुछ समय के लिए प्रतिकूल धारा बहाने में सफल भी रहे, लेकिन अन्ततोगत्वा उन्हें शिकस्त खानी पड़ी। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के इस पहले प्रयोग का सांगोपांग समाहार अप्रैल 1969 में पार्टी की नवीं कांग्रेस की रिपोर्ट ने प्रस्तुत किया, जिसे माओ त्से-तुङ के प्रत्यक्ष निर्देशन में तैयार किया गया था।

महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति सर्वहारा विचारधारा के विकास में नवीनतम अग्रवर्ती क़दम और कम्युनिस्ट समाज की ओर आरोहण के दौरान अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग द्वारा विजित सर्वोच्च चोटी है।

इसके द्वारा वैज्ञानिक समाजवाद मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओ त्से-तुङ विचारधारा की मंज़िल तक विकसित हुआ। इसके पीछे सर्वहारा वर्ग के समग्र ऐतिहासिक अनुभवों के निचोड़ का कुल योग था। इस मंज़िल पर पहुँचकर माओ ने पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के भौतिक आधारों और संशोधनवाद के सामाजिक आधारों को सर्वांगीण रूप से उद्घाटित किया। उन्होंने बुर्जुआ अधिकारों, मूल्य के नियम, माल-अर्थव्यवस्था, गाँव और शहर, किसान और मज़दूर तथा शारीरिक श्रम और बौद्धिक श्रम के बीच अन्तरवैयक्तिक असमानता की मौजूदगी की और इनके मूल स्रोत के रूप में वर्गों की मौजूदगी की तथा इस स्थिति से लगातार पैदा होने वाले बुर्जुआ सामाजिक सम्बन्धों-संस्थाओं-विचारों-मूल्यों-मान्यताओं और संस्कृति के नये-नये रूपों की एक सुस्पष्ट पहचान प्रस्तुत की और बताया कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व में वर्ग संघर्ष जारी रखना, बुर्जुआ अधिकारों को क्रमशः सीमित और नियन्त्रित करना,भौतिक प्रोत्साहन और उपभोग में असमानता को क्रमशः समाप्त करना और कला-साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में बुर्जुआ प्रवृत्तियों के विरुद्ध लगातार संघर्ष करके नयी सर्वहारा संस्कृति को विकसित करना ही पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का एकमात्र उपाय है। इस प्रक्रिया में पार्टी और राज्य में मौजूद बुर्जुआ तत्त्व लगातार अड़चनें पैदा करेंगे और उनके विरुद्ध व्यापक जनसमुदाय को जागृत करके राजनीतिक संघर्ष चलाना अनिवार्य होगा। यह संघर्ष सतत क्रान्ति होगी जो मूलाधार और अधिरचना के धरातल पर लगातार जारी रखनी होगी और हर कुछ वर्षों के अन्तराल पर यह उग्र और खुले संघर्ष का रूप, खुली राजनीतिक क्रान्ति का रूप धारण करती रहेगी। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ ने सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की अवधारणा को समृद्ध और विकसित किया और बुर्जुआ वर्ग पर अधिरचना के दायरे सहित जीवन के हर क्षेत्र में सर्वतोमुखी अधिनायकत्व को लागू करने को अनिवार्य बताया। सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत क्रान्ति को जारी रखने का सिद्धान्त और सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति द्वारा इसका व्यवहार मार्क्सवाद को माओ त्से-तुङ का महानतम अवदान है। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ ने मूलाधार और अधिरचना के बीच द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों का प्रतिभाशाली विश्लेषण प्रस्तुत किया।

माओ त्से-तुङ ने दुनिया को बदलने में जनता की सर्वोपरि भूमिका को नये अहसास के साथ रेखांकित किया और बताया कि परिवर्तन के इस महान प्रयास में भागीदारी के ज़रिये लोग ख़ुद को भी बदल लेते हैं। उन्होंने बताया कि सांस्कृतिक क्रान्ति सर्वोपरि तौर पर मानव को बदलने का दहन-पात्र (क्रुसिबल) है। इसीलिए सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान उन्होंने कम्युनिस्टों को, सर्वहारा वर्ग को और पूरी जनता को ‘स्वके विरुद्ध संघर्ष करने का और नये मानव का निर्माण करने का नारा दिया। सांस्कृतिक क्रान्ति ने पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका और जनता से लगातार सीखने पर एक साथ बल देकर और उन्हें एक-दूसरे का पूरक बताकर, पार्टी और जनता के द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की सर्वाधिक विकसित और ठोस समझदारी प्रस्तुत की। सांस्कृतिक क्रान्ति ने अभूतपूर्व पैमाने पर जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा, उत्साह, पहलक़दमी और सर्जनात्मकता को निर्बन्ध कर दिया जिसके परिणामस्वरूप नये-नये प्रयोग हुए। वर्ग संघर्ष, उत्पादन के लिए संघर्ष और वैज्ञानिक प्रयोग इन तीन आन्दोलनों ने सर्जनात्मकता और उत्साह के एक प्रचण्ड प्रस्फोट को जन्म दिया। नये-नये प्रयोग हुए और उत्पादन में जब़रदस्त वृद्धि हुई। उत्पादन-सम्बन्धों में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए और एक सदस्यीय कमेटियों के माध्यम से विशेषज्ञों-नौकरशाहों द्वारा प्रबन्धन का स्थान मज़दूरों की क्रान्तिकारी कमेटियों ने ले लिया। समाजवादी उत्पादक उपक्रमों के सर्वथा नये प्रकार के मॉडल-उद्योग के क्षेत्र में ता-चिंङ और कृषि के क्षेत्र में ताचाई के निर्माण हुए। माओ ने ज्ञान के व्यक्तिगत सम्पत्ति होने के बुर्जुआ दर्शन पर प्रहार करते हुए जनसमुदाय को बताया कि ज्ञान एक सामाजिक सम्पत्ति है और इस पर कुछ लोगो का अधिकार बुर्जुआ वर्ग की सत्ता का एक प्रबल भौतिक आधार है। द्वन्द्ववाद और अन्य दार्शनिक विषय जो अब तक जनता के लिए अबुझ माने जाने थे और उसकी पहुँच से बाहर थे, उनका सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान व्यापक प्रसार हुआ और आप मेहनतकश जनता ने इन्हें आत्मसात करके दैनन्दिन व्यवहार में लागू करने की चमत्कारी मिसालें क़ायम कीं।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की नवीं कांग्रेस द्वारा महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के प्रथम तूफ़ान का समाहार प्रस्तुत करने के बाद भी, जैसाकि माओ ने बार-बार बताया था, वर्ग संघर्ष नये-नये रूपों में जारी रहा और माओ अपनी मृत्यु शैय्या पर पड़े हुए भी इस उत्कट संघर्ष के कठिन दौर में जूझते हुए सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व करते रहे। नवीं कांग्रेस के तुरन्त बाद ही लिन प्याओ ने यह कहकर माओ की शिक्षा का निषेध करना शुरू कर दिया कि सांस्कृतिक क्रान्ति अब सफलतापूर्वक सम्पन्न हो चुकी है और चीन में समाजवाद की विजय सुनिश्चित हो चुकी है। इस तरह सतत क्रान्ति की प्रक्रिया को रोककर वह अपने नये बुर्जुआ गुट की सत्ता को पार्टी और राज्य पर प्रभावी बनाना चाहता था। जनता की जगह वह सेना की भूमिका को निर्णायक बनाना चाहता था और लाल सेना को एक बुर्जुआ सेना में रूपान्तरित कर देना चाहता था। वह ज्ञान के बुर्जुआ सिद्धान्त का पैरोकार था और प्रकारान्तर से उग्र वामपन्थी लफ्फ़ाज़ी करते हुए वर्ग संघर्ष को नहीं, बल्कि उत्पादक शक्तियों के विकास को ही समाजवाद की कुंजीभूत कड़ी बनाना चाहता था। पार्टी के भीतर नवीं कांग्रेस के बाद से ही उसके विरुद्ध संघर्ष शुरू हो चुका था। उसके प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट के षड्यन्त्र के पर्दाफाश के बाद चीन में लिन प्याओ के विचारों के बुर्जुआ चरित्र का उद्घाटन करते हुए उनके विरुद्ध व्यापक अभियान चलाया गया। पर संघर्ष को अभी और कठिन दौरों से गुज़रना था। वर्ग शक्तियों का सन्तुलन अभी भी निर्णायक तौर पर सर्वहारा वर्ग के पक्ष में नहीं क़ायम हुआ था, इसका सबसे बड़ा प्रमाण अप्रैल 1973 में देंग सियाओ-पिङ का पुनः पार्टी और राज्य के पदों पर वापस लौटना था। पार्टी में राज्य की नीतियों के स्तर पर और कला-साहित्य-संस्कृति के स्तर पर यह पुनः तीक्ष्ण वर्ग संघर्ष का एक नया दौर था। अक्टूबर, 1975 से लेकर अप्रैल 1976 के तियेन-एन-मेन चौक में हुए प्रति क्रान्तिकारी प्रदर्शन तक दक्षिणपन्थी ताक़तों ने लगातार सांस्कृतिक क्रान्ति की लाइन को अपने हमले का निशाना बनाया। यह सिलसिला देङ के विरुद्ध देशव्यापी संघर्ष और उसे हटाये जाने के बावजूद माओ के अन्तिम क्षणों तक जारी रहा। 1976 में माओ ने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा था, “आप समाजवादी क्रान्ति कर रहे हैं फिर भी यह नहीं जानते कि बुर्जुआ वर्ग कहाँ है। वह कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर ही है। जो सत्ता में हैं वही पूँजीवादी मार्ग अपना रहे हैं। पूँजीवादी मार्गावलम्बी अभी भी पूँजीवादी मार्ग पर ही हैं।” अन्तिम समय तक उन्होंने बार-बार आगाह किया कि चीन में अभी भी यह तय नहीं हुआ है कि विजय समाजवाद की होगी या पूँजीवाद की। उन्होंने चीन और पूरी दुनिया के मज़दूरों और मेहनतकश जनता से अपील की कि यदि चीन में भी पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो जाती है तो वह बिना रुके उसके विरुद्ध संघर्ष की शुरुआत कर दें।

माओ की मृत्यु के बाद चीन में संशोधनवादियों ने पार्टी और राज्य का नेतृत्व हथिया लिया, लेकिन जैसाकि माओ ने भविष्यवाणी की थी, सत्ता पर क़ाबिज़ होने और क्रान्ति की आवाज़ को बेरहमी से कुचलने के बावजूद वे एक क्षण के लिए भी चैन की साँस नहीं ले सके हैं।

प्रायः कुछ हल्कों से यह सवाल भी उठाया जाता है कि महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के बाद भी चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना कैसे सम्भव हो सकी? जैसाकि माओ ने भी बार-बार स्पष्ट किया था, इस ख़तरे का मुकम्मिल तौर पर निर्मूलन एक या दो नहीं बल्कि कई सांस्कृतिक क्रान्तियों और कई पीढ़ियों तक जारी दीर्घकालिक संघर्ष की माँग करता है। चीन जैसे पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले देश में समाजवाद के दौर में पूँजीवादी पुनर्स्थापना का और अधिक मजबूत आधार मौजूद था और उसके निरन्तर विस्तार की आन्तरिक गति और अधिक प्रबल रूप में मौजूद थी। दूसरे, सिद्धान्त और व्यवहार में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की मंज़िल तक की यात्रा तय करने में माओ को क़रीब 17 वर्षों का लम्बा समय लगा, जिस दौरान हालाँकि सर्वहारा अधिनायकत्व और वर्ग संघर्ष मौजूद था, लेकिन पूँजीवादी शक्तियाँ लगातार समाज, पार्टी औरा राज्य में अपने आधार और शक्ति का विस्तार करती रही थीं, यही नहीं, यदि सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शुरुआत लेनिन या स्तालिन के समय भी हो गयी होती, तो भी वर्ग-शक्तियों के राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सन्तुलन को देखते हुए समाजवाद की विजय को सुनिश्चित और अन्तिम नहीं बताया जा सकता था। हाँ, इसकी सम्भावना अपेक्षतया कुछ अधिक हो सकती थी या कुछ और निकट आ सकती थी। क्रान्ति की विजय और उसकी निरन्तरता में मनोगत शक्तियों की भूमिका अनिवार्यतः महत्त्वपूर्ण है लेकिन वस्तुगत स्थिति को, इतिहास के रंगमंच की सीमाओं को नकारा नहीं जा सकता। यह एक ग़ैर द्वन्द्वात्मक और आदर्शवादी पहुँच होगी। यह याद रखना ज़रूरी है कि सर्वहारा क्रान्तियों की प्रकृति और कार्यभार को देखते हुए अक्टूबर क्रान्ति से अब तक के दौर को प्रारम्भिक प्रयोगों की मंज़िल ही कहा जा सकता है। साथ ही,यह भी ध्यान रखना होगा कि पूँजीवादी विश्व में एक या कुछ देशों में और ख़ासकर पिछड़े देशों में क्रान्तियों की कुछ अपनी अनिवार्य सीमाएँ-समस्याएँ मौजूद रहती हैं, जो कई बार वर्ग शक्तियों के सन्तुलन को विश्व पूँजीवाद के पक्ष में बदल सकती हैं। समाजवाद का संघर्ष एक विश्वव्यापी महासमर है और पूँजी के मुख्य दुर्गों को ध्वस्त करने का सर्वहारा का संघर्ष अधिक कठिन बना रहेगा।

समाजवाद का मार्ग अभी काफ़ी लम्बा है और संघर्ष को अभी अनेकों कठिनाइयों से होकर गुज़रना है लेकिन उतनी ही बड़ी सच्चाई यह भी है कि साम्राज्यवाद का संकट अभी से क्रान्तियों के नये चक्र की शुरुआत का पूर्व संकेत दे रहा है। संकट पश्चिम में भी है और पूरब में भी। यह विश्वव्यापी है। पूर्वी यूरोप के देशों में और रूस में नवस्थापित पश्चिमी पूँजीवादी व्यवस्थाओं के विरुद्ध असन्तोष अभी से उभरने लगा है और समाजवाद द्वारा प्रदत्त अधिकारों-सुविधाओं की बहाली के लिए आवाज़ें उठने लगी हैं। चीन की सामाजिक फ़ासीवादी हुकूमत को लगातार जनता के प्रतिरोधों का सामाना करना पड़ रहा है। ये सभी घटनाएँ आने वाले दिनों में तीसरी दुनिया के देशों में समाजवादी क्रान्तियों के फूट पड़ने का और पश्चिमी दुनिया, रूस, पूर्वी यूरोप और चीन में अक्टूबर क्रान्ति के दूसरे संस्करण की तैयारी का पूर्व संकेत दे रही हैं और उनकी ज़मीन वहाँ तेज़ी से तैयार हो रही है।

सत्ता में बने रहना पूँजीपति वर्ग की मर्जी पर निर्भर नहीं रहता। इतिहास विकास की गति उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करती। सर्वहारा क्रान्तियाँ उसके चाहने और उसके मनोगत प्रयासों से रुकी नहीं रह सकती क्योंकि वस्तुगत परिस्थितियाँ उसके लिए पुनः ज़मीन तैयार कर रही है। और इससे भिन्न और कुछ हो भी नहीं सकता। आने वाले दिन एक बार फिर सतत समाजवादी क्रान्तियों के अनवरत विकास प्रवाह के दिन होंगे। सर्वहारा क्रान्तियों का मार्ग कठिन और टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन उनकी विजय होनी ही है। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की अनश्वर अग्निशिखा सर्वहारा वर्गसंघर्ष का मार्ग प्रदीप्त करती रहेगी।

1962 में माओ त्से-तुङ द्वारा भविष्य के बारे में प्रस्तुत किया गया आकलन आज भी ऐतिहासिक रूप में महत्त्वपूर्ण, सही और प्रासंगिक है। माओ ने बताया था: “अब से लेकर अगले पचास सौ वर्षों तक का युग एक ऐसा महान युग होगा जिसमें दुनिया की सामाजिक व्यवस्था बुनियादी तौर पर बदल जायेगी, यह एक ऐसा भूकम्पकारी युग होगा जिसकी तुलना इतिहास के पिछले किसी भी युग में नहीं की जा सकेगी। एक ऐसे युग में रहते हुए, हमें उन महान संघर्षों में जूझने के लिए तैयार रहना चाहिए तो अपनी विशेषताओं में अतीत के तमाम संघर्षों से कई मायनों में भिन्न होंगे।”

मई,1990

अनुपूरक

गोरखपुर-संगोष्ठी (6 जून-10 जून ’90) में प्रस्तुत अपने निबन्ध में, संगोष्ठी के दौरान चली पूरी बहस और उसके सार-संग्रह की रोशनी में, हम कुछ जोड़ने की और इसे बेहतर बनाने की आवश्यकता अनुभव करते हैं। इसी उद्देश्य से यह अनुपूरक (सप्लीमेण्ट) प्रस्तुत किया जा रहा है।

निबन्ध में हमने समाजवाद की पराजय के वस्तुगत कारणों की – इतिहास के रंगमंच की वस्तुगत सीमाओं की विस्तृत चर्चा की है। वस्तुगत कारणों के साथ ही मनोगत सीमाओं-समस्याओं, नेतृत्व की भूलों-ग़लतियों की सन्तुलित समझ हासिल करने की आवश्यकता का भी उल्लेख हमने किया है, लेकिन स्तालिन की एक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक भूल के अतिरिक्त अन्य मनोगत उपादानों (सब्जेक्टिव फ़ैक्टर्स) का तथा वस्तुगत उपादानों के साथ उनके द्वन्द्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों का सांगोपांग निरूपण निबन्ध की सीमाओं के चलते नहीं हो पाया है। हालाँकि हमारा दृष्टिकोण और हमारी पहुँच (अप्रोच) स्पष्ट है, लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर अपनी अवस्थिति हम यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत कर देना चाहते हैं ताकि पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बारे में नियतत्ववादी (डिटरमिनिस्ट) निष्कर्षों तक पहुँचने की हर सम्भावना समाप्त हो जाये।

समाजवादी संक्रमण के विगत पूरे दौर में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के एक आधार के रूप में लगातार ऐसी वस्तुगत सीमाएँ-समस्याएँ मौजूद रहीं, जो सर्वहारा वर्ग, उसकी पार्टी और नेतृत्व की इच्छा से स्वतन्त्र थीं। और आगे भी लम्बे समय तक यह स्थिति बनी रहेगी। साथ ही, समाजवादी संक्रमण-काल के क्रान्तिकारी सामाजिक प्रयोगों के दौरान नेतृत्व की मनोगत सीमाओं और भूलों-ग़लतियों की भी पूँजीवादी पुनर्स्थापना में अहम भूमिका रही है। समाजवाद की पराजय के वस्तुगत और मनोगत कारण द्वन्द्वात्मक रूप से अन्तर्सम्बन्धित हैं और ये दोनों ही उपादान लगातार एक-दूसरे को क्रिया-प्रतिक्रिया-अन्तरक्रिया के ज़रिये प्रभावित करते रहते हैं। इन दोनों उपादानों और इनके अन्तर्सम्बन्धों की सन्तुलित समझ के अभाव में समाजवाद की समस्याओं के प्रति न तो वैज्ञानिक यथार्थपरक दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है, न ही अतीत की मनोगत भूलों-ग़लतियों की स्पष्ट पहचान, सभी समाहार और प्रयोगों के दौरान उनका निराकरण ही किया जा सकता है।

समाजवादी संक्रमण के दौरान लम्बी अवधि तक इतिहासजन्य वस्तुगत सीमाओं के चलते पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावना बनी रहेगी, पर यह केवल सम्भावना ही है, अपरिहार्यता नहीं। वस्तुगत कारणों के चलते समाजवादी संक्रमण की प्रक्रिया का विपर्यय (रिवर्सल) अपरिहार्य कदापि नहीं है। यदि वस्तुगत परिस्थितियों की सापेक्षतः अधिक सांगोपांग सन्तुलित समझ नेतृत्व के पास हो और वह गम्भीर भूलों-ग़लतियों से बच सके तो वस्तुगत अवरोधों के बावजूद पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावना न्यून से न्यूनतर हो सकती है और इससे बचा भी जा सकता है, हालाँकि निबन्ध में सविस्तार उल्लिखित वस्तुगत सीमाओं के चलते इसे भी अवश्यम्भावी नहीं कहा जा सकता। यह भी एक तरह का नियतत्ववाद ही होगा।

जब तक सर्वहारा क्रान्ति केवल एक देश तक सीमित थी, तब तक तो पूँजीवादी पुनर्स्थापना की सम्भावना अवश्य ही बहुत प्रबल थी, लेकिन विशेषकर समाजवादी देशों के एक पूरे शिविर के अस्तित्व में आने के बाद की स्थिति में यदि समाजवाद की वस्तुगत समस्याओं की और उनके निराकरण के उपायों की एक सुसंगत समझदारी मौजूद होती और कुछ गम्भीर ग़लतियाँ नहीं होतीं तो पुनर्स्थापना से बच सकने की सम्भावना बहुत अधिक होती। रूस और चीन के समाजवादी संक्रमण-काल के प्रयोगों के सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों और स्तालिन और माओ की भूलों-ग़लतियों का विश्लेषण और समाहार इसी परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए।

सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण के अनुभवों का सार-संकलन करते हुए माओ त्से-तुङ ने स्तालिन की योग्यताओं और उपलब्धियों के साथ ही उनकी भूलों और ग़लतियों का भी सन्तुलित और सांगोपांग विश्लेषण प्रस्तुत किया, इनसे निगमित आवश्यक निष्कर्षों-शिक्षाओं की रोशनी में चीन में समाजवादी क्रान्ति के प्रयोगों को महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की मंज़िल तक आगे बढ़ाया और पहली बार पूँजीवादी पूनर्स्थापना पर कारगर रोक के लिए ठोस सिद्धान्त प्रतिपादित किये तथा व्यवहार में भी उनके सत्यापन के लिए प्रयोग की शुरुआत की। माओ द्वारा प्रस्तुत स्तालिन के मूल्यांकन और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की रोशनी में ही दुनिया भर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सोवियत समाज में समाजवादी प्रयोगों की मनोगत सीमाओं को आज समझते और विश्लेषित करते हैं।

वस्तुगत और मनोगत उपादान निरन्तर एक-दूसरे के साथ अन्तरक्रिया में संलग्न रहते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। स्तालिन काल के दौरान हुई नेतृत्व की भूलों-ग़लतियों ने समाज में हो रहे परिवर्तनों को किस तरह प्रभावित किया, किस तरह उनके परिणामस्वरूप समाज में बुर्जुआ सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों और नये बुर्जुआ तत्त्वों का आधार विस्तारित होने में वस्तुगत रूप से सहायता मिल गयी, सामाजिक संघटन में हो रहे इन परिवर्तनों ने किस प्रकार पार्टी के भीतर संशोधनवादी विचारधारा, लाइन एवं पूँजीवादी पथगामियों की स्थिति को क्रमशः मजबूत और उनके आधार को क्रमशः व्यापक बनाया तथा इन पूँजीवादी पथगामियों ने नेतृत्व की हर भूल का लाभ उठाते हुए किस तरह पूँजीवादी पुनर्स्थापना का पूर्वाधार और परिस्थितियाँ तैयार कीं – इन सभी पहलुओं का विस्तृत विश्लेषण माओ त्से-तुङ ने किया है। इस तरह पार्टी नेतृत्व की मनोगत सीमाओं, असफलताओं और भूलों ने वस्तुगत स्थितियों के साथ निरन्तर क्रिया-प्रतिक्रिया के ज़रिये एक ऐसी स्थिति को मजबूत बनाने में मदद पहुँचायी, जिसके चलते ऐतिहासिक विकास की एक प्रक्रिया में समाज में तथा पार्टी और राज्य में बुर्जुआ तत्त्वों की स्थिति मजबूत हुई और कालान्तर में ख्रुश्चेव के रूप में उनका प्रतिनिधि सामने आया जिसने अनुकूल स्थिति का लाभ उठाकर षड्यन्त्र और प्रतिक्रियावादी सत्ता-परिवर्तन के बाद पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत कर दी। इस तरह सोवियत संघ में वर्ग शक्तियों का सन्तुलन बुर्जुआ वर्ग के पक्ष में बदल जाने के पीछे स्तालिन की सीमाओं, असफलताओं और ग़लतियों की एक अहम भूमिका थी।

जहाँ तक माओ त्से-तुङ और चीन की पार्टी की भूलों-ग़लतियों का प्रश्न है, आज एक परिपक्व अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व का अभाव इनके सही-सन्तुलित मूल्यांकन के काम को अत्यन्त कठिन बना देता है और वास्तव में इनके सम्यक और सांगोपांग आकलन-मूल्यांकन-समाहार का काम तो तभी हो सकेगा जब उसी स्तर का सामाजिक प्रयोग किसी देश-विशेष में हो रहा हो या हो चुका हो और उससे उन्नत स्तर के सामाजिक प्रयोग की आवश्यकता और पूर्वाधार मौजूद हो। केवल तभी माओ त्से-तुङ के निर्देशन और नेतृत्व में हुए महान समाजवादी प्रयोगों की त्रुटियों-कमियों से सबक़ लेकर नये सिद्धान्त विकसित किये जा सकते हैं और सामाजिक प्रयोग द्वारा उन्हें सत्यापित एवं प्रमाणित किया जा सकता है। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास और नेताओं के मूल्यांकन और महान क्रान्तियों की सफलताओं-असफलताओं के लिए उत्तरदायी मनोगत उपादानों के विश्लेषण में केवल यही दृष्टिकोण और पहुँच सही हो सकती है।

फिर भी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की कुछ महत्त्वपूर्ण ऐसी ग़लतियाँ हैं, जिनकी चर्चा करना, जिन पर गम्भीरतापूर्वक सोचना-विचारना आज ज़रूरी है। इनमें से बहुत सारी भूले-ग़लतियाँ ऐसी हैं, जिनका समाहार समय-समय पर स्वयं माओ त्से-तुङ ने ही प्रस्तुत किया था। बहुत सारी ग़लतियों को समाजवादी समाज में जारी वर्ग संघर्ष और विचारधारात्मक संघर्ष के बारे में मार्क्स से लेकर माओ तक की शिक्षाओं और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के सबकों की रौशनी में आज समझा जा सकता है। बहुत सारे प्रश्न ऐसे हैं, जिन पर आज भले किसी नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता हो, लेकिन जिनके समाधान की दिशा में दुनियाभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को संयत-सन्तुलित ढंग से और धैर्यपूर्वक प्रयास करने ही होंगे। हम यहाँ माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में हुए महान सामाजिक प्रयोगों के दौरान हुई ऐसी ही कुछ गम्भीर भूलों-ग़लतियों की चर्चा करेंगे जिन्होंने वर्ग-शक्ति सन्तुलन को बुर्जुआ वर्ग के पक्ष में बदल देने में और विपर्यय की धारा को, बल प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन मनोगत उपादानों ने वस्तुगत स्थिति के साथ अन्तरक्रिया करते हुए समाज में नये बुर्जुआ तत्त्वों, पूँजीवादी उत्पादन और बुर्जुआ अधिरचना के फलने-फूलने का नया वस्तुगत आधार तैयार किया या इसमें हुए सर्वहारा पार्टी और राज्य के संघटन और चरित्र को प्रभावित किया तथा पार्टी के भीतर बुर्जुआ तत्त्वों को फलने-फूलने के लिए अनुकूल अवसर प्रदान किया। पार्टी के भीतर के इन पूँजीवादी पथगामियों ने क्रान्तिकारी नेतृत्व की हर भूल का लाभ उठाकर अपनी नीतियों को आगे बढ़ाया, समाज में अपने आधारों को क्रमशः विस्तारित किया और माओ की मृत्यु के बाद सर्वाधिक अनुकूल स्थिति उत्पन्न होते ही प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट में ज़रा भी देर नहीं की।

महान बहस के दौरान माओ ने दुनिया भर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी उसूलों की हिफ़ाज़त की, लेकिन ख्रुश्चेव के आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध खुले संघर्ष की शुरुआत में सात वर्षों से भी कुछ अधिक समय के विलम्ब की भारी क़ीमत अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को चुकानी पड़ी। लम्बे समय तक माओ यह चाहते रहे कि अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की एकता क़ायम रहे। इसके लिए न केवल ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध खुला विचाराधारात्मक संघर्ष शुरू करने में देर की गयी, बल्कि कुछ समय तक उसके साथ समझौता भी किया गया। नवम्बर, 1957 और नवम्बर, 1960 की मास्को-बैठकों के बाद जारी घोषणा और वक्तव्य समझौते के दस्तावेज़ थे। इन दोनों दस्तावेज़ों में यद्यपि क्रान्तिकारी और संशोधनवादी दोनों ही लाइनें मौजूद थीं, लेकिन इतिहास में, सिद्धान्तों में होने वाले ऐसे हर समझौते का लाभ हमेशा प्रतिक्रियावादियों ने ही उठाया है और ’57 और ’60 के समझौतों के साथ भी यही हुआ। अनिर्णय और ढुलमुलपन की स्थिति में खड़ी विचारधारात्मक रूप से कमज़ोर पार्टियों को सही और ग़लत के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचने के बाद ही सही लाइन के साथ ला खड़ा करने की अपेक्षा की जा सकती है। यदि सही क्रान्तिकारी लाइन ही समझौते की अवस्थिति में खड़ी हो तो उसके इर्दगिर्द क्रान्तिकारी शक्तियों को प्रभावी ढंग से गोलबन्द नहीं किया जा सकता। ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष में समझौते और विलम्ब के चलते यही हुआ। ख्रुश्चेव गुट द्वारा साजिश, कुत्सा-प्रचार और तोड़-फोड़ के बावजूद और उसकी संशोधनवादी लाइन के एकदम नंगे रूप में सामने आ जाने के बावजूद चीनी पार्टी द्वारा समझौते करना, विवाद को खुला न करना और संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष में खुला आह्वान करके दुनिया भर के मार्क्सवादी-लेनिनवादियों को लामबन्द करने में सात वर्षों से भी अधिक समय तक इन्तज़ार करना एक गम्भीर ग़लती थी, जिसने रूस में, पूरे विश्व में और यहाँ तक कि चीन के भीतर संशोधनवादियों और पूँजीवादी पथगामियों को वस्तुगत तौर पर मदद पहुँचायी। इससे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन को गम्भीर नुक़सान पहुँचा। इस ऐतिहासिक विचारधारात्मक संघर्ष में समझौते और विलम्ब की ग़लती को चीन की पार्टी ने बाद में स्वीकार भी किया था।

हमारी यह पक्की राय है कि यदि ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध तत्काल खुले और समझौताहीन संघर्ष की तथा अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट बिरादरी में ध्रुवीकरण की शुरुआत हो जाती तो परिस्थितियाँ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के अधिक अनुकूल होतीं। चीन की पार्टी की इस गम्भीर भूल ने न केवल विश्व-स्तर पर, बल्कि चीन के भीतर भी संशोधनवादी लाइन और पूँजीवादी पथगामियों को बल प्रदान किया। उल्लेखनीय है कि ठीक इसी समय चीनी पार्टी के भीतर भी दो लाइनों का संघर्ष उग्र रूप में जारी था और 1956 की आठवीं कांग्रेस में तो संशोधनवादी लाइन ही हावी थी। उसके बाद भी यह संघर्ष लगातार उग्र से उग्रतर रूप में जारी रहा, जिसकी चरम परिणति महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति थी। ल्यू शाओ ची के नेतृत्व वाले पूँजीवादी पथगामी गुट को ख्रुश्चेवी संशोधनवाद से लगातार हर स्तर पर मदद मिलती रही। विश्व-स्तर पर संशोधनवाद के साथ समझौते के लम्बे दौर में चीन में भी कम्युनिस्ट क़तारों में विभ्रम पैदा किया, उनके बीच संशोधनवाद के फलने-फूलने की प्रक्रिया को मदद पहुँचायी तथा क्रान्तिकारी एवं संशोधनवादी लाइनों के बीच की विभाजक रेखा को धुँधला कर दिया. जिसका भरपूर लाभ ल्यू शाओ ची-देङ सियाओ पिङ गुट ने उठाया।

विचारधारात्मक संघर्षों में मार्क्स और लेनिन द्वारा अपनायी गयी पहुँच और पद्धति इससे भिन्न थी। मार्क्स ने अपने समय में मज़दूर आन्दोलन में विजातीय धाराओं-प्रवृत्तियों-रूझानों के सामने आते ही उनके विरुद्ध खुला, समझौताहीन और उग्र संघर्ष छेड़ने में कभी क्षणभर की भी देर नहीं की। उन्होंने विचारधारात्मक समझौतों की क़ीमत चुकाकर सांगठनिक एकता बनाये रखने का प्रयास कभी नहीं किया। विचारधारा की हिफ़ाज़त के लिए कोई भी एकता तोड़ देने या संगठन भंग कर देने में उन्होंने कभी न तो कोई हिचक दिखायी और न ही कभी देर की। लेनिन की भी यही पहुँच और पद्धति थी। संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष में अलगाव में पड़ जाने का ख़तरा लेकर भी लेनिन ने हमेशा ही प्रचण्ड समझौताहीन संघर्ष का रुख़ अपनाया। रूस में मार्क्सवाद के संस्थापक और स्थापित नेता प्लेख़ानोव के विरुद्ध तत्काल संघर्ष शुरू करने में उन्होंने कोई हिचक नहीं दिखायी थी। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ जाने का जोखिम मोल लेकर भी उन्होंने काउत्स्की के संशोधनवाद के विरुद्ध मुहिम छेड़ देने में रत्तीभर भी दुविधा नहीं दिखायी और थोड़ी भी देर नहीं की। दूसरे इण्टरनेशनल के टूट जाने की क़ीमत चुकाकर भी उन्होंने विचारधारा की हिफ़ाज़त की। इतिहास ने विचारधारा की सर्वोपरिता और समझौताहीन विचारधारात्मक संघर्ष की अनिवार्यता को परिणामों से सही प्रमाणित कर दिया है। माओ ने भी महान बहस शुरू करने में देर करने की ग़लती का निचोड़ निकालते हुए दुनियाभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को यही सलाह दी थी कि उन्हें संशोधनवादियों और पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने में रत्तीभर भी देर नहीं करनी चाहिए। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की भी यही शिक्षा है।

छठे दशक के उत्तरार्ध में माओ त्से-तुङ की एक और महत्त्वपूर्ण नीतिगत ग़लती ने वर्ग-शक्तियों के सन्तुलन को बुर्जुआ वर्गों और पार्टी एवं राज्य में मौजूद पंजीवादी पथगामियों के पक्ष में करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। ‘जनता के बीच अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में’ नामक अपने जिस क्लासिकीय प्रतिपादन में माओ त्से-तुङ ने समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की मौजूदगी और संक्रमण काल की समस्याओं का तीक्ष्ण विश्लेषण प्रस्तुत किया, उसी में उन्होंने यह ग़लत रणनीतिगत स्थापना भी प्रस्तुत की कि चीन में समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में भी राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच का अन्तरविरोध जनता के बीच के अन्तरविरोध की श्रेणी में आता है और इसका समाधान शान्तिपूर्ण तरीव़फ़ों से किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि हमारी नीति राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के प्रति एकता क़ायम करने, आलोचना करने और शिक्षित करने की होनी चाहिए। इस तरह माओ त्से-तुङ का ज़ोर यहाँ वर्ग की ठोस वस्तुगत स्थिति पर नहीं, बल्कि मनोगत इच्छा पर अधिक है। समाजवाद का मुख्य अन्तरविरोध केवल श्रम और पूँजी के बीच ही हो सकता है और इस शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध का शान्तिपूर्ण समाधान एक मनोगत चाहत हो सकती है लेकिन समाज-विकास के वस्तुगत नियम इसे असम्भव बताते हैं। पूँजीपति वर्ग का कोई हिस्सा समाजवादी संक्रमण के दौर में मेहनतकश वर्गों का रणनीतिक संश्रयकारी और जनता का एक हिस्सा क़तई नहीं हो सकता क्योंकि कोई भी शोषक वर्ग स्वेच्छा से अपने अस्तित्व का ख़ात्मा स्वीकार नहीं कर सकता। वर्ग संघर्ष और समाजवाद के बारे में मार्क्स से लेकर स्वयं माओ तक की यही शिक्षा रही है। उल्लेखनीय है कि 1957 में प्रस्तुत माओ का यह सूत्रीकरण स्वयं उन्हीं द्वारा 1952 में प्रस्तुत स्थापना के विपरीत है और बाद में भी, ख़ासकर सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान उन्होंने बुर्जुआ वर्ग के विरुद्ध जीवन-मरण का संघर्ष करते हुए समाजवाद के वर्ग संश्रय और उस दौरान वर्ग संघर्ष की प्रकृति के बारे में एकाधिक बार ज़ोर देकर जो स्थापना प्रस्तुत की वह भी उनकी 1957 के ग़लत सूत्रीकरण का निषेध प्रस्तुत करती थी। 6 जून, 1952 को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय कमेटी के संयुक्त मोर्चा कार्य विभाग द्वारा प्रस्तुत एक दस्तावेज़ के मसविदे पर आलोचनात्मक टिप्पणी करते हुए माओ ने लिखा था: “ज़मींदार वर्ग और नौकरशाह पूँजीपति वर्ग की सत्ता उखाड़ फेंकने के बाद, मज़दूर वर्ग और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के बीच का अन्तरविरोध अब चीन का मुख्य अन्तरविरोध हो गया है; इसलिए अब राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग को मध्यवर्ती वर्ग के रूप में परिभाषित नहीं किया जाना चाहिए।” (माओ त्से-तुङ; संकलित रचनाएँ (अंग्रेज़ी संस्करण) ग्रन्थ 5, पृ. 77)। 1957 के पहले एकाधिक बार उन्होंने बताया था कि समाजवादी संक्रमण के संघर्ष में पूरे पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध जनता को संघर्ष करना होगा। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति शुरू होने के पूर्व और उसके दौरान विविध लेखों और दस्तावेज़ों में इस बात को एकदम स्पष्ट और ठोस रूप में प्रस्तुत किया गया। इस तरह स्वयं माओ त्से-तुङ की ही पहले और बाद की स्थापनाओं के प्रतिकूल 1957 का सूत्रीकरण समाजवादी क्रान्ति के वर्ग संश्रय की एक ग़लत समझदारी और पूँजीपति वर्ग के प्रति समझौते का दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। यह समाजवादी संस्करण में जारी वर्ग संघर्ष के दौरान कम्युनिस्ट क़तारों और सर्वहारा वर्ग में एक तरह की आत्मतुष्टि और ढीलापन पैदा करता है और सर्वहारा अधिनायकत्व की शत्रु के प्रति निर्ममता और सर्वहारा वर्ग एवं कम्युनिस्टों की क्रान्तिकारी चौकसी और सतर्कता को कमज़ोर बनाता है। वर्ग संघर्ष के दौरान लाज़िमी तौर पर हर ऐसे समझौते की राई-राई, रत्ती-रत्ती क़ीमत चुकानी पड़ती है और चीन में भी ऐसा ही हुआ। ख़ास तौर पर माओ ने यह समझौता उस दौर में किया जब विश्व स्तर पर ख्रुश्चेवी संशोधनवाद अपनी जड़ें जमाकर आक्रामक मुद्रा अिख़्तयार कर चुका था और चीन की पार्टी में भी संशोधनवादी लाइन पार्टी पर प्रभुत्व के लिए जी-तोड़ प्रयास कर रही थी। 1956 में हुई आठवीं कांग्रेस के दौरान तो वस्तुतः संशोधनवादी लाइन ही पार्टी पर हावी थी। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के प्रति एकता क़ायम करने, उन्हें समझाने-बुझाने और शिक्षित करने की नीति ने ज़ाहिर तौर पर पूँजीवादी पथगामियों को यह अवसर दिया कि वे समाजवादी संक्रमण की सही नीतियों का विरोध करने के लिए, पूँजीपति वर्ग की हिफ़ाज़त के लिए और उसे बल प्रदान करने के लिए इस ग़लत नीति का इस्तेमाल करें। इस तरह माओ की इस गम्भीर भूल ने वर्ग-शक्ति सन्तुलन को बुर्जुआ वर्ग के पक्ष में बदलने में तथा पूँजीवादी पुनर्स्थापना की लाइन का आधार मजबूत करने में वस्तुगत तौर पर मदद पहुँचायी।

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रयोगों के दौरान हुई सभी भूलों-ग़लतियों का विश्लेषण और उनके बारे में अन्तिम निष्कर्षों तक पहुँचना आज सम्भव नहीं है, लेकिन हमारी समझ में कुछ और ऐसी ग़लतियाँ ज़रूर रही हैं जिन्होंने पूँजीवादी पुनर्स्थापना की परिस्थितियाँ तैयार करने में मदद पहुँचायी। इन सभी ग़लतियों के स्रोतों और परिणामों की विस्तृत विवेचना अलग से निबन्ध का विषय है। साथ ही, इनके बारे में अन्तिम रूप से नतीजे तक आज नहीं पहुँचा जा सकता क्योंकि न तो उस समय की परिस्थितियों के विस्तृत तथ्य उपलब्ध हैं, न ही उन्नत स्तर के सामाजिक प्रयोगों के अनुभव से गुज़रे बिना उनके बारे में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को गम्भीरतापूर्वक सोचना होगा। हम यहाँ केवल उनका उल्लेख करेंगे और मोटे तौर पर उन पर अपने विचार संक्षेप में रखेंगे।

पूरी विकास प्रक्रिया की चर्चा और विश्लेषण के बिना व्यक्तियों के मूल्यांकन की चीनी पार्टी की पद्धति को हम ग़लत मानते हैं। द्वन्द्ववादी प्रणाली-विज्ञान का यह तकाज़ा है कि किसी घटना, परिघटना या व्यक्ति का मूल्यांकन उसकी पूरी ऐतिहासिक विकास-प्रक्रिया के साथ प्रस्तुत किया जाये। प्लेख़ानोव या काउत्स्की का मूल्यांकन लेनिन इसी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। लेकिन ल्यू शाओ ची या लिन प्याओ के मूल्यांकन या चीनी पार्टी द्वारा प्रस्तुत अन्य मूल्यांकनों की पद्धति में हमें इस पहुँच का अभाव दिखायी देता है।

नवीं कांग्रेस में पारित पार्टी के संविधान में हम लिन प्याओ को माओ का योग्य उत्तराधिकारी घोषित करने के फ़ैसले को ग़लत मानते हैं। किसी भी व्यक्ति को उत्तराधिकारी षोषित करना मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूलों के साथ मेल नहीं खाता।

चीन की पार्टी का उल्लेख पार्टी दस्तावेज़ों और लेखों में एकाधिक बार “महान गौरवशाली और सही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी” कहकर किया गया है। उसे महान और गौरवशाली कहना एक बात है, लेकिन किसी भी पार्टी को सही घोषित करना ग़ैरद्वन्द्वात्मक पहुँच और आदर्शवादी दृष्टिकोण का द्योतक है।

एक ख़ास दौर में सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने संघर्ष में सर्वथा सही होते हुए भी अलग-अलग देशों में चल रहे संघर्षों में वहाँ के प्रधान अन्तरविरोध और समग्र स्थिति के ग़लत निरूपण के चलते और सोवियत साम्राज्यवाद की आक्रामकता को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर आँकने के चलते भी चीनी नेतृत्व द्वारा कुछ भूलें हुईं। इसमें ख़ास तौर पर, उस दौर में अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति नरमी बरतने की भूल को रेखांकित किया जा सकता है।

अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों का आकलन करते समय द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल को “साम्राज्यवाद के पूर्ण निपात और सर्वहारा क्रान्तियों के युग” (एरा ऑफ़ टोटल कोलैप्स ऑफ़ इम्पीरियलिज़्म एण्ड प्रोलेतारियन रिवोल्यूशन्स) के रूप में निनरूपित करना भी हम ग़लत मानते हैं। विश्व परिस्थितियों के उत्तरवर्ती विकास ने भी इस आकलन को ग़लत सिद्ध किया है। हमारी यह धारणा है कि द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर काल में कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बुनियादी परिवर्तनों, साम्राज्यवाद की कुछ महत्त्वपूर्ण पराजयों और गम्भीर अन्तकारी संकट के नये दौर की शुरुआत के बावजूद हम अभी भी साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों के युग में जी रहे हैं, जैसा कि लेनिन ने इसे निरूपित किया था। उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद के दौर के मूलतः समाप्त होने के बाद दुनिया अब एक नये दौर के प्रवेश-द्वारा पर – आर्थिक नवउपनिवेशवाद के प्रवेश-द्वार पर खड़ी है, लेकिन इसे साम्राज्यवाद के पूर्ण निपात के एक नये युग के रूप में निरूपित करना सही नहीं है।

कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच विचार-विमर्श के लिए एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दा हम यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत करना चाहते हैं जो वस्तुतः एक अत्यन्त आवश्यक और गम्भीर प्रश्न है और अलग से विस्तृत चर्चा-विश्लेषण की माँग करता है।

लेनिन ने पेरिस कम्युन के मॉडल को सर्वहारा राज्य के आदर्श के रूप में प्रस्तुत करते हुए लगातार इस बात पर ज़ोर दिया था कि एक केन्द्रीकृत ढाँचा सर्वहारा राज्य का आदर्श स्वरूप नहीं हो सकता। इन्हीं अर्थों में एंगेल्स का यह कहना सर्वथा सही था कि सर्वहारा अधिनायकत्व सख्त शाब्दिक अर्थों में राज्य नहीं होता। लेनिन ने भी सर्वहारा राज्य में अ-राज्य (नो-स्टेट) के तत्त्व की मौजूदगी को रेखांकित किया था। इसीलिए लेनिन का ज़ोर लगातार इस बात पर था कि निर्णय और राज्य के अन्य कार्यों की प्रक्रिया में अधिकतम सम्भव सीमा तक व्यापक मेहनतकश अवाम की भागीदारी होनी चाहिए और पार्टी की भूमिका ज़्यादा से ज़्यादा एक राजनीतिक पथ प्रदर्शक और राजनीतिक नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में सीमित होती जानी चाहिए। व्यापक जनता की चेतना उन्नत होते जाने के साथ ही सचेतन प्रयास द्वारा उसकी पहलक़दमी और सर्जनात्मकता को संस्थागत रूप देकर सर्वहारा सत्ता के व्यापक आधार का निर्माण किया जाना चाहिए। ऐसा करके ही सोवियत रूस में उस समय क़ायम सर्वहारा अधिनायकत्व में अन्तर्निहित बुर्जुआ विकृतियों और नौकरशाहाना विरूपताओं का क्रमशः उच्छेद किया जा सकता था। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर लेनिन सोवियतों को पेरिस कम्यून के एक नये संस्करण के रूप में देखते थे और उन्हें निर्णय और नीति-निर्धारण की ज़्यादा से ज़्यादा शक्ति देने और सर्वहारा सत्ता की बुनियादी इकाई के रूप में ढालने के पक्षधर थे जहाँ जनता प्रत्यक्षतः शासन सूत्र अपने हाथ में क्रमशः ज़्यादा से ज़्यादा हद तक लेती चली जाये। और लेनिन की यह पहुँच केवल सोवियतों के मामले तक ही सीमित नहीं थी। उन्होंने तो यहाँ तक कहा कि सर्वहारा की सत्ता पूरी तरह क़ायम हो जाने के बाद प्रतिरक्षा और वैदेशिक मामलों के कुछ महत्त्वपूर्ण पहलुओं को छोड़कर सभी विषयों को जनता के बीच खुला कर देना चाहिए। निर्णय की प्रक्रिया में व्यापक जनता की पूर्ण भागीदारी और सर्वहारा अधिनायकत्व में निहित मेहनतकश जनता के लिए पूर्ण जनवाद का सही रूप केवल तभी मूर्तिमान हो सकता था।

यह एक विचारणीय प्रश्न है कि आखि़र क्यों महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर तक पहुँच जाने के बाद भी निर्णय की प्रक्रिया में जनता की इस स्तर तक की भागीदारी के उद्देश्य को चीन में अमली जामा नहीं पहनाया जा सका? और प्रतिरक्षा एवं वैदेशिक मामलों के कुछ महत्त्वपूर्ण पक्षों को छोड़कर अन्य सभी मामलों पर बहस और निर्णय की प्रक्रिया को पूरी जनता के बीच खुला करने और इसमें उसकी भागीदारी बढ़ाते जाने का काम चीन की पार्टी ने क्यों नहीं किया, यह एक विचारणीय प्रश्न है। लेकिन इतना तय है कि ऐसा नहीं करने के परिणाम समाजवाद के प्रतिकूल सिद्ध हुए।

लेनिन ने जिस तरह पेरिस कम्यून के दौरान स्थापित कम्यूनों के मॉडल से सोवियतों को ऐतिहासिक सादृश्य-निरूपण किया था, उसी तरह महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान स्थापित क्रान्तिकारी कमेटियों को भी कम्यूनों के मॉडल पर ही क़ायम किया गया था। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान पेरिस कम्यून के मॉडल को व्यापक रूप से और ज़ोर देकर एक आदर्श के रूप में प्रचारित किया गया था और यह एकदम सही था, क्योंकि पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का एकमात्र कारगर उपाय शासन और निर्णय की प्रक्रिया में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी ज़्यादा से ज़्यादा क़ायम करके सर्वहारा राज्य के आधारों को विस्तारित करना ही हो सकता था। सांस्कृतिक क्रान्ति के प्रारम्भिक चरण में क्रान्तिकारी कमेटियों की भूमिका इसी रूप में बन रही थी, लेकिन बाद में उन्हें क़ानूनी मान्यता देकर सरकार की मातहत संस्था में रूपान्तरित कर दिया गया, जो मूल लक्ष्य से स्पष्ट विचलन था। क्रान्तिकारी कमेटियों को धीरे-धीरे सरकार की ज़िम्मेदारियाँ हस्तान्तरित की जानी थीं और इस तरह सर्वहारा राज्यसत्ता के अहम घटक के रूप में इन्हें सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त निकाय के रूप में खड़ा होना था। लेकिन सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त निकाय के रूप में बदलने के बाद ये कमेटियाँ नीति निर्धारक निकाय के बजाय मात्र जनसम्पर्क मंच बनकर रह गयी। इसका भरपूर लाभ मौक़ा मिलते ही पूँजीवादी पथगामियों ने उठाया। प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट के बाद देङ सियाओ पिङ ने पहला मौक़ा मिलते ही क्रान्तिकारी कमेटियों को ग़ैरक़ानूनी करार दे दिया। यदि ये कमेटियाँ सरकार की मातहत संस्थाएँ न बना दी गयी होतीं तो यह कार्य कठिन होता, सर्वहारा अधिनायकत्व का आधार व्यापक होने के चलते वर्ग-शक्ति सन्तुलन बुर्जुआ शक्तियों के इस हद तक अनुकूल नहीं होता और पूँजीवादी पथगामियों के लिए प्रतिक्रान्तिकारी तख़्तापलट अपेक्षतया अधिक कठिन होता, या हो सकता है कि असम्भव भी होता। वैसे यह विषय विस्तृत और गहरी विवेचना की माँग करता है, लेकिन कुल मिलाकर हमारी राय यह है कि मेहनतकश वर्गों को प्रत्यक्षतः सत्ता हस्तान्तरित करने, शासन सूत्र सीधे उनके हाथों में सौंपने, नीति निर्धारण और निर्णय की प्रक्रिया में उनकी भागीदारी बढ़ाने और इस तरह सर्वहारा अधिनायकत्व के आधार को व्यापक बनाने के प्रयोग में चीन की पार्टी की कुछ सीमाएँ और असफलताएँ रही हैं। यदि ऐसा हुआ हेाता और पेरिस कम्यून के आदर्शों को प्रभावी ढंग से व्यवहार में रूपान्तरित किया गया होता तो केन्द्रीय कमेटी सहित अन्य ऊपरी कमेटियों में बैठे हुए और राज्य के अहम पदों पर आसीन मुठ्ठी भर पूँजीवादी पथगामियों द्वारा छल-नियोजन (मैनिपुलेशन), षड्यन्त्र और फिर तख़्तापलट इतना सुगम नहीं होता।

हम एक बार फिर यह स्पष्ट कर दें कि रूस और चीन के समाजवादी प्रयोगों की सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षाओं के समाहार तथा उनकी वस्तुगत और मनोगत सीमाओं-समस्याओं के विश्लेषण का हमारा यह प्रयास फिलहाल एकदम प्रारम्भिक ही कहा जा सकता है। इनमें से कुछ पर हमारी पक्की राय है, कुछ पर अभी कमोबेश एक समझ बनी है या बन रही है और कुछ मुद्दे फिलहाल हमारे सामने विचारणीय प्रश्न के रूप में खड़े हैं। हम अपने प्रयासों से और दुनियाभर के मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों-संगठनों-व्यक्तियों से लगातार सीखते हुए इन सभी मुद्दों पर अपनी समझदारी गहरी बनाने के प्रयास जारी रखेंगे लेकिन पहले उल्लिखित कारणों से फिर भी हमारी सीमाएँ बनी रहेंगी।

एक और बात जो इस अनुपूरक में हम स्पष्ट कर देना चाहते हैं, वह यह कि रूस, चीन, पूर्वी यूरोप या पूरी दुनिया से कहीं भी जारी वर्ग-संघर्ष विश्व-स्तर पर जारी वर्ग-संघर्ष से निश्चित तौर पर जुड़ा हुआ है और दोनों एक-दूसरे को इतने घनिष्ट रूप से प्रभावित करते हैं कि इन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता। समाजवादी देशों में पूँजीवादी पुनर्स्थापना इन देशों के वर्ग संघर्ष और आन्तरिक वर्ग-शक्ति सन्तुलन में परिवर्तन के परिणामस्वरूप हुई है, लेकिन विश्वव्यापी वर्ग संघर्ष की तथा साम्राज्यवादी शक्तियों की मदद षड्यन्त्र और घुसपैठ की और विश्व पूँजीवादी तन्त्र की उपस्थिति एवं अन्तराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी की शक्ति की निस्सन्देह विपर्यय की प्रक्रिया में अहम भूमिका रही है। श्रम और पूँजी के बीच का संघर्ष एक दीघ्रकालिक विश्वव्यापी महासमर है और अलग-थलग देशों में होने वाली क्रान्तियाँ और उनकी पराजय इस विश्वव्यापी महासमर में केवल कुछ मोर्चों पर होने वाली जीतें और हारें हैं। इस पूरे विषय की चर्चा केवल एक स्वतन्त्र निबन्ध में ही विस्तार से सम्भव है। यहाँ पर इतना उल्लेख हमने इस मुद्दे पर केवल अपनी अवस्थिति स्पष्ट करने के लिए किया है।