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गहराता वैश्विक पूँजीवादी संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला

गहराता वैश्विक पूँजीवादी  संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला 

  • सत्यम

वर्ष 2006 से जिस विश्वव्यापी मन्‍दी ने पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी जकड़ में ले रखा है उससे उबरने के अभी कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं। संकट को टालने के लिए पूँजीवाद के नीम-हकीमों और वैद्यों ने जितने नुस्खे सुझाये हैं उनके कारण संकट के नये रूपों में फिर वापसी ही होती रही है। इन सभी उपायों की एक आम विशेषता यह रही है कि पूँजीपतियों और उच्च वर्गों को राहत देने के लिए संकट का ज्यादा से ज्यादा बोझ मेहनतकशों और आम लोगों पर डाल दिया जाये। इसके कारण लगभग सभी देशों में सामाजिक सुरक्षा के व्यय में भारी कटौती, वास्तविक मजदूरी में गिरावट, व्यापक पैमाने पर छँटनी, तालाबन्‍दी आदि का कहर मेहनतकश आबादी पर टूटा है। पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों के चलते भारी मजदूर आबादी जिस तरह असंगठित और खण्ड-खण्ड में बिखेर दी गयी है उस कारण पूँजी के इन हमलों के आगे वह लाचार और बेबस-सी दिखती रही है। लेकिन पिछले दो-तीन वर्षों में तस्वीर बदलती दिखायी दे रही है।

दुनिया भर में मजदूर इस बर्बर लूट का जमकर प्रतिरोध कर रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर रहे हैं। वैसे तो संकट की शुरुआत के साथ सरकारी खर्च घटाने के विभिन्न कदमों के विरोध में अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में व्यापक प्रदर्शनों और हड़तालों का सिलसिला शुरू हो गया था जो अब भी जारी है। लेकिन पिछले 2-3 वर्षों के दौरान तीसरी दुनिया के पूँजीवादी देशों में उभर रहे मजदूर संघर्षों की प्रकृति इनसे काफी अलग है। उन्नत पूँजीवादी देशों के मजदूर, जो ज्यादातर यूनियनों में संगठित हैं, मुख्यतया अपनी सुविधाओं में कटौती और रोजगार के घटते अवसरों के विरुद्ध सड़कों पर उतर रहे हैं। इनका बड़ा हिस्सा उस अभिजन मजदूर वर्ग का है जिसे तीसरी दुनिया की जनता की बर्बर लूट से कुछ टुकड़े मिलते रहे थे और इसका जीवन काफी हद तक सुखी और सुरक्षित था। ग्रीस जैसे देशों की स्थिति अलग है जो पहले भी दूसरी दुनिया के देशों की निचली कतार में थे और वित्तीय संकट की मार से लगभग तीसरी दुनिया की हालत में पहुँच गये हैं। मगर भारत, बंगलादेश, पाकिस्तान से लेकर मलेशिया, इण्डोनेशिया, कोरिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, मेक्सिको, चीन आदि देशों में एक के बाद उठ रहे जुझारू आन्‍दोलन इन देशों के उस मजदूर वर्ग की बढ़ती बेचैनी और राजनीतिक चेतना का संकेत दे रहे हैं जो हर तरह के अधिकारों से वंचित और सबसे बर्बर शोषण का शिकार है। बेहद कम मजदूरी पर और बहुत खराब व खतरनाक स्थितियों में 12-14 घण्टे रोज, अक्सर बिना साप्ताहिक अवकाश के काम करने वाली यह विशाल मजदूर आबादी तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों में मजदूरों के 90 प्रतिशत से अधिक है। इनका भारी हिस्सा असंगठित है और ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल या पीसरेट पर काम करने वाले मजदूरों का है। इन देशों में हो रहा पूँजीवादी विकास इसी विराट मजदूर आबादी की अस्थि-मज्जा को निचोड़कर हो रहा है। विकसित पूँजीवादी देशों की कम्पनियों के मुनाफे का स्रोत भी इन्हीं रसातलवासी मजदूरों से चूसा गया खून है। बिखराव, संगठनविहीनता और पिछड़ी चेतना का शिकार यह मजदूर वर्ग अब तक प्रायः कुछ रक्षात्मक संघर्षों या बीच-बीच में फूट पड़ने वाली उग्र झड़पों के विस्फोट तक सीमित रहा था। लेकिन दुनिया भर में जगह-जगह हो रहे आन्‍दोलन बताते हैं कि इसमें तेजी से अपने अधिकारों और एकजुटता की चेतना का संचार हो रहा है और यह पूँजी की ताकतों से लोहा लेने के लिए तैयार हो रहा है। यह अलग बात है कि संघर्ष की दिशा, दूरगामी रणनीति और तैयारी के अभाव में ये आन्‍दोलन अभी ज्यादा दूर नहीं जा पा रहे।

दुनिया का शायद सबसे विशाल सर्वहारा वर्ग, चीन के मजदूर कम्युनिस्ट नामधारी पूँजीवादी शासकों की लुटेरी नीतियों के खिलाफ लगातार लड़ रहे हैं। नयी ‘‘महाशक्ति’’ के रूप में उभरते चीन के विकास की कहानी दुनियाभर की बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए सस्ता और भरपूर उपलब्ध श्रम मुहैया कराने की चीनी शासकों की कुशलता पर टिकी है। बीजिंग, शंघाई, ग्वांगझाउ, चेंगदू, शेनझेन जैसे दर्जनों औद्योगिक इलाकों में करोड़ों-करोड़ मजदूर भारत के मजदूरों जैसे हालात में काम कर रहे हैं। बेहद कम मजदूरी और भयंकर दमघोटू माहौल में 12-14 घण्टे काम, किसी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा नहीं, दड़बे जैसे कमरों में नर्क जैसी जिन्‍दगी। अन्धाधुन्ध मुनाफे की हवस में सारे सुरक्षा उपाय ताक पर धरकर कराये जाने वाले उत्पादन के चलते औद्योगिक दुर्घटनाओं में चीन पूरी दुनिया में सबसे आगे है। सरकारी ट्रेड यूनियनें मजदूरों को कठोर नियन्त्रण में रखने के औजार भर हैं। वैसे भारी असंगठित मजदूर आबादी इनसे बाहर है और उसे यूनियन बनाने का अधिकार ही नहीं है। विशाल और बेहद संगठित सरकारी दमनतन्त्र के साथ ही उद्योगपतियों की निजी सुरक्षा सेनाएँ मजदूरों को आतंकित और नियन्त्रित करने के लिए तैनात रहती हैं। कठोर सरकारी नियन्त्रण में चलने वाले मीडिया में उनकी आवाज नहीं के बराबर आती है। लेकिन तमाम बन्दिशों के बावजूद चीन मजदूर लड़ाई के रास्ते पर हैं। चाइना लेबर बुलेटिन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2011 के मध्य से 2013 के अन्‍त तक चीन में मजदूरों की 1170 हड़तालें और अन्य सामूहिक कार्रवाइयाँ हुईं। इनमें से 40 प्रतिशत से अधिक हड़तालें मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में हुईं। सीएलबी के अनुसार वास्तविक संख्या इससे कहीं ज्यादा है। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों ने पिछले कुछ महीनों में ही सैकड़ों हड़तालें और विरोध प्रदर्शन किये हैं। एप्पल कम्पनी के लिए आईपैड और आईफोन बनाने वाली कुख्यात चीनी कम्पनी फॉक्सकॉन की कई फैक्टरियों में पिछले वर्ष मजदूरों ने एक साथ की गयी हड़तालों की बदौलत कई माँगों पर कम्पनी को झुकने के लिए मजबूर कर दिया था। होण्डा की चीन स्थित कई इकाइयों के मजदूरों ने भी एक साथ की गयी कार्रवाइयों से अपनी ताकत दिखायी थी। इन दोनों ही मामलों में चीनी मजदूरों ने मोबाइल और इण्टरनेट के जरिये एक-दूसरे से सम्पर्क और तालमेल करने का रास्ता निकाला था। इस रास्ते का इस्तेमाल अब चीनी मजदूर बड़े पैमाने पर करने लगे हैं। मजदूरों की कार्रवाइयों की सिर्फ संख्या और जुझारूपन ही नहीं बढ़ रहे हैं बल्कि सीएलबी के अनुसार उनमें राजनीतिक चेतना भी तेजी से बढ़ रही है। सरकारी नियन्त्रण से छन-छनाकर आने वाली कुछ छोटी-छोटी खबरों से पता चलता है कि पार्टी और राज्य पर कब्जा जमाये संशोधनवादियों के खिलाफ क्रान्तिकारी माओवादी ग्रुप भी मजदूरों के बीच सक्रिय हैं। मजदूरों के बढ़ते जुझारूपन का ही नतीजा है कि चीनी सरकार को एक के बाद एक कई सेक्टरों में मजदूरी में बढ़ोत्तरी और सेवा-दशाओं में सुधार की घोषणाएँ करनी पड़ी हैं।

यूरोप में वित्तीय संकट की सबसे बुरी मार झेल रहे ग्रीस में मजदूरों ने पिछले तीन वर्षों के दौरान लगभग दो दर्जन देशव्यापी आम हड़तालें करके सरकार को मजदूरी और सामाजिक सुरक्षा में प्रस्तावित कटौतियाँ लागू करने से कई बार रोकने में सफलता हासिल की है। अन्‍तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय यूनियन और यूरोपीय केन्‍द्रीय बैंक सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छँटनी और वेतन-भत्तों में कटौती के लिए ग्रीस की सत्ता पर लगातार दबाव डाल रहे हैं। सत्ता के दलाल यूनियन नेताओं की टालमटोल और कई बार हड़ताल से सीधे इन्कार के बावजूद मजदूरों के भारी दबाव में उन्हें आम हड़तालों के आह्वान का समर्थन करने पर मजबूर होना पड़ा है। मजदूरों ने स्थानीय स्तर पर स्वतन्त्र हड़ताल समितियाँ गठित करके हड़तालों को अनुष्ठानिक बना देने की नेताओं की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है। ग्रीस में नवनाजीवाद के उभार के विरुद्ध जुझारू लड़ाई में भी मजदूर बढ़चढ़कर आगे रहे हैं। भूतपूर्व समाजवादी देशों में खुले पूँजीवाद के आने के बाद से अमीर-गरीब के बीच ध्रुवीकरण तेजी से बढ़ा है और महँगाई तथा बेरोजगारी ने मजदूरों की जिन्‍दगी बेहाल कर दी है। इनमें से कई देशों में भी पिछले दिनों जुझारू मजदूर आन्‍दोलन हुए हैं। 44 प्रतिशत बेरोजगारी झेल रहे बोस्निया में पिछले दिनों कई शहरों में हुए मजदूरों के उग्र प्रदर्शनों में हजारों मजदूरों ने पुलिस से मोर्चा लिया जिसमें करीब डेढ सौ पुलिसवाले जख्मी हो गये।

बंगलादेश में पिछले वर्ष राना प्लाजा की इमारत गिरने से 1100 से अधिक मजदूरों की मौत के बाद से गारमेण्ट मजदूरों के आन्‍दोलनों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। बंगलादेश में करीब 40 लाख मजदूर बेहद खराब हालात में गारमेण्ट उद्योग में काम करते हैं। इस घटना से कुछ ही महीने पहले ढाका की एक गारमेण्ट फैक्ट्री में आग से 150 मजदूर मारे गये थे। बंगलादेश में इस घटना से पहले पिछले 3 वर्ष में आग लगने या इमारत गिरने से 1800 से ज्यादा गारमेण्ट मजदूरों की मौत हो चुकी थी। राना प्लाजा की घटना के बाद सरकार और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की ओर से कुछ दिखावटी घोषणाओं के अलावा कोई ठोस कार्रवाई न होने से क्रुद्ध मजदूरों ने मई दिवस के दिन देश के कई शहरों में जुझारू विशाल प्रदर्शन किये। उसके बाद सितम्बर और नवम्बर में भी गारमेण्ट मजदूरों ने व्यापक विरोध प्रदर्शन आयोजित किये जिसके दबाव में सरकार को उनकी न्यूनतम मजदूरी में 77 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करनी पड़ी (हालाँकि अब भी यह बेहद कम है)। अभी हाल में आयी एक स्वतन्त्र रिपोर्ट के अनुसार बंगलादेश के कारखानों में मजदूरों के साथ जोर-जबर्दस्ती पहले की ही तरह जारी है। मन्‍दी के दौर में बढ़ती प्रतिस्पर्धा के चलते ज्यादातर कम्पनियाँ बढ़ी हुई मजदूरी देने को तैयार नहीं हैं और काम के खतरनाक हालात अब भी बने हुए हैं। पाकिस्तान में भी गारमेण्ट मजदूरों, रेलवे मजदूरों और बन्‍दरगाह मजदूरों के जुझारू आन्‍दोलन पिछले दिनों हुए हैं।

इण्डोनेशिया, पापुआ-न्यू गिनी, फिलिप्पीन्स, मलेशिया आदि में पिछले दो वर्षों के दौरान अनेक जुझारू और लम्‍बे चलने वाले मजदूर आन्‍दोलन हुए हैं। कम्पूचिया में जनवरी 2014 में हुए मजदूरों के प्रदर्शनों के हिंसक दमन, जिसमें कम से कम पाँच मजदूर पुलिस की गोली से मारे गये, के बावजूद मजदूर संघर्षों का सिलसिला तेज हो रहा है। फरवरी के अन्तिम सप्ताह में 200 कारखानों के एक लाख से अधिक मजदूरों ने ओवरटाइम करने से इन्कार कर दिया जो 12 मार्च को होने वाली आम हड़ताल तक जारी रहेगा। कोरिया में मजदूरों के जुझारू प्रदर्शनों का सिलसिला पिछले 2-3 साल से लगातार जारी है।

दक्षिण अफ्रीका में सबसे बड़ी यूनियन, सत्तारूढ़ अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस से जुड़ी कोसाटू का चरित्र पार्टी के सत्ता में आने और पूँजीवादी विकास का रास्ता अपनाने के साथ ही बदल चुका था। इसके कई नेता तो खुद कम्पनियों के मोटे शेयरधारक बन चुके हैं। मगर वहाँ मजदूरों की भारी आबादी सत्ताधर्मी यूनियनों से अलग हटकर अपनी बेहद बुरी स्थितियों के विरुद्ध संघर्ष कर रही है। पिछले वर्ष मरिकाना प्लेटिनम खदान में मजदूरों के बर्बर हत्याकाण्ड के बाद से इसमें और तेजी आयी है और कोसाटू का चरित्र और नंगा हुआ है। पिछले दिनों मेटलवर्कर्स की सबसे बड़ी यूनियन भी उससे अलग हो गयी है और खदान मजदूरों की यूनियनों तथा अन्य वाम झुकाव वाले संगठनों से साथ आने का उसने आह्वान किया है।

मिस्र में जनवरी 2011 के प्रदर्शनों में भी मजदूरों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था, हालाँकि हुस्नी मुबारक को अपदस्थ करने वाले आन्‍दोलन में उन्हें उचित श्रेय नहीं दिया गया। उसके बाद भी मिस्र के मजदूर लगातार अपनी आर्थिक और राजनीतिक माँगों को लेकर संघर्षरत हैं।

भारत में भी मजदूरों की जुझारू लड़ाइयाँ देश के अलग-अलग कोनों में फूट पड़ रही हैं। इनमें भी असंगठित मजदूरों या बड़ी यूनियनों से स्वतन्त्र छोटी-छोटी यूनियनों के नेतृत्व में लड़ रहे मजदूरों की संख्या अधिक है। पिछले वर्ष केन्‍द्रीय यूनियनों द्वारा आयोजित अनुष्ठानिक हड़ताल में भी नेताओं की उम्मीद से आगे जाकर असंगठित मजदूरों ने कई जगह उग्र और जुझारू कार्रवाइयाँ कीं। अकेले ऑटोमोबाइल सेक्टर में पिछले दो-तीन साल में देशभर में 100 से अधिक हड़तालें और उग्र सामूहिक कार्रवाइयाँ दर्ज हुई हैं। तय ही है कि आने वाले समय में ऐसे संघर्षों का सिलसिला और तेज होगा। अपने असहनीय हालात के खिलाफ आज जगह-जगह मजदूरों के स्वतःस्फूर्त संघर्ष उठ रहे हैं। लेकिन इन संघर्षों में हस्तक्षेप करके उन्हें एक क्रान्तिकारी दिशा देने की कोशिश करने के बजाय अनेक क्रान्तिकारी संगठनों में इस स्वतःस्फूर्तता का जश्न मनाने की प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। इसके विरुद्ध संघर्ष करना आज बेहद जरूरी है।

आज पूँजीवाद के बढ़ते संकट के दौर में अपना मुनाफा बनाये रखने के लिए पूँजीपति मजदूरों की हड्डियाँ तक निचोड़ डाल रहे हैं। लेकिन मजदूर भी अब चुपचाप बर्दाश्त नहीं कर रहे। पूरी दुनिया में सन्नाटा टूट रहा है। मजदूर वर्ग नये सिरे से जाग रहा है। ऐसे में मजदूर वर्ग के क्रान्तिकारी हरावलों के सामने मजदूर आन्‍दोलन के क्रान्तिकारी पुनर्जागरण में जी-जान से जुट जाने की चुनौती है। अनौपचारिक क्षेत्र के जो मजदूर और औपचारिक क्षेत्र के जो अनौपचारिक मजदूर अदृश्य ‘ग्लोबल असेम्बली लाइन’ पर उजरती गुलामों की भाँति खट रहे हैं, वे सोचते हैं कि वे बहुत कम हैं, बिखरे हुए हैं, इसलिए मजबूर और कमजोर हैं। लेकिन यह उनकी मिथ्याभासी चेतना है। इस मिथ्याभासी चेतना को यदि तोड़ दिया जाये तो उन्हें इस सच्चाई का अहसास कराया जा सकता है कि एक अदृश्य भूमण्डलीय श्रृंखला के जरिये हजारों मील दूर, यहाँ तक कि अलग-अलग देशों में काम करने वाले समान नियति वाले उजरती गुलाम आज एक-दूसरे से जुड़ गये हैं। जापान या कोरिया की किसी एक कार निर्माता कम्पनी के भारत में चार या पाँच जगहों पर स्थित संयन्त्रों और पूरी दुनिया में स्थित दर्जनों संयन्त्रों में खटने वाले मजदूर एक-दूसरे को न जानते हुए भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बिखराव की मिथ्याभासी चेतना को भेदकर जुड़ाव की वास्तविक चेतना तक पहुँचने के लिए, उसे मुखर बनाने के लिए मजदूर वर्ग के हरावल दस्तों को उनके बीच, बीसवीं शताब्दी के मजदूर आन्‍दोलनों की अपेक्षा ज्यादा सघन, ज्यादा विविधतापूर्ण, ज्यादा रचनात्मक, ज्यादा सूक्ष्म, ज्यादा व्यापक और ज्यादा दीर्घकालिक राजनीतिक प्रचार, शिक्षा एवं उद्वेलन की कार्रवाई चलानी होगी। यह सबसे बड़ी चुनौती है। इसे वही अंजाम दे सकते हैं जो नयी परिस्थितियों का पूर्वाग्रहमुक्त, साहसी वैज्ञानिक विश्लेषण कर सकते हैं, जो अनुभववादी कूपमण्डूकता और अतीत के अनुभवों को हूबहू दुहराने की कठमुल्लावादी जिद से अपने को मुक्त कर सकते हैं।

यह समझने की जरूरत है कि पिछले बीस वर्षों के दौरान उत्पादन के ढाँचों में बदलाव करके पूँजीपति वर्ग मजदूर वर्ग की संगठित शक्ति को बिखराने में काफी हद तक कामयाब हुआ है। कारखानों में अधिकांश काम अब ठेका, दिहाड़ी या कैजुअल मजदूरों से कराना आम चलन बन चुका है। मजदूर वर्ग के इस भौतिक बिखराव ने उसकी चेतना पर भी काफी नकारात्मक असर डाला है। वह अपनी ताकत को बँटा हुआ और पूँजीपति वर्ग की संगठित शक्ति के सामने खुद को कमजोर, असहाय और निरुपाय महसूस कर रहा है। आज मजदूर आबादी को संगठित करने की व्यावहारिक चुनौतियाँ बढ़ गयी हैं और संगठन के पुराने प्रचलित तरीकों और रूपों से काम नहीं चलने वाला है। लेकिन कोई भी परिस्थिति ऐसी नहीं हो सकती कि बुर्जुआ वर्ग द्वारा उपस्थित की गयी चुनौती के सामने सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हाथ खड़े कर दें। मजदूर वर्ग को संगठित करने के नये रूपों और तरीकों को ईजाद करने की जरूरत है। दरअसल कारखाना-केन्द्रित ट्रेड यूनियनवाद से पीछा छुड़ाये बिना आज मजदूर आन्‍दोलन को नये सिरे से संगठित ही नहीं किया जा सकता। मजदूरों को संगठित करने की तात्कालिक व्यावहारिक चुनौतियों से निपटना मजदूरों के क्रान्तिकारी हरावलों का काम है। जमीनी संगठनकर्ताओं को पुरानी रूढ़ियों से मुक्त होकर सर्जनात्मक तरीके से संगठन के नये-नये रूप और तरीके खोज निकालने होंगे।

अगर आज की परिस्थिति पर थोड़ा गहराई से विचार किया जाये तो हमें वे छुपी हुई क्रान्तिकारी सम्भावनाएँ नजर आयेंगी जो आँखों से ओझल होने पर सामने मौजूद फौरी चुनौतियाँ ज्यादा कठिन लगने लगती हैं। आज के दौर में औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूर वर्ग के काम के जो हालात हैं और पूँजीपतियों का समूचा गिरोह, उनकी सरकारें और पुलिस-कानून-अदालतें जिस तरह उसके ऊपर एकजुट होकर हमले कर रही हैं, उससे मजदूर वर्ग स्वयं यह सीखता जा रहा है कि उसकी लड़ाई अलग-अलग पूँजीपतियों से नहीं बल्कि समूची व्यवस्था से है। यह जमीनी सच्चाई अर्थवाद के आधार को अपनेआप ही कमजोर बना रही है और मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना के उन्नत होने के लिए अनुकूल जमीन मुहैया करा रही है। इसकी सही पहचान करना और इस आधार पर मजदूर आबादी के बीच घनीभूत एवं व्यापक राजनीतिक प्रचार की कार्रवाइयाँ संचालित करना जरूरी है। मजदूरों की व्यापक आबादी को यह भी बताया जाना चाहिए कि असेम्बली लाइन का बिखराव आज भले ही मजदूरों को संगठित करने में बाधक है लेकिन दूरगामी तौर पर यह फायदेमन्‍द है। यह मजदूर वर्ग की ज्यादा व्यापक एकता का आधार तैयार कर रहा है और कारखाना-केन्द्रित और पेशागत संकुचित मनोवृत्ति को दूर करने में भी मददगार साबित होगा। इसने मजदूर वर्ग की विश्वव्यापी एकजुटता का आधार भी मजबूत किया है। अब ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ का विश्व ऐतिहासिक नारा एक व्यावहारिक नारे की ओर बढ़ता जा रहा है।

 

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

आधुनिक यूनानी त्रासदी के त्रासद नायक के विरोधाभास

क्रान्तिकारी स्थिति हमेशा क्रान्तिकारी नेतृत्व और संगठन के खड़े होने का इन्तज़ार नहीं करेगी। हर पूँजीवादी संकट हमेशा की तरह यूनान में भी प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिकारी, दोनों ही सम्भावनाओं को जन्म दे रहा है। अगर क्रान्तिकारी ताक़तें अपनी सम्भावना को हक़ीकत में तब्दील करने में नाकाम रहीं, तो यह काम प्रतिक्रियावादी ताक़तें करेंगी और यूनान की जनता को फ़ासीवाद की सज़ा भुगतनी पड़ेगी। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की राज्यसत्ता और क्रान्ति के सम्बन्ध में स्थापित और सिद्ध शिक्षा पर अमल न करने की सज़ा इतिहास में पहले भी यूरोपीय जनता भोग चुकी है, और एक बार फिर इस बात की सम्भावना पैदा हो रही है। सिरिज़ा की असफलता यूनान के इतिहास में वही भूमिका निभायेगी, जो कि जर्मन सामाज़िक जनवादियों की असफलता ने 1920 और 1930 के दशक में जर्मनी में निभायी थी। इसलिए यूनान में मौजूद मार्क्सवादी लेनिनवादी ताक़तों को संगठित होना होगा और अपने आपको विकल्प के तौर पर जनता के सामने पेश करना होगा। read more