दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015
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सम्पादकीय
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास, समस्याएं व चुनौतियां
नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशकः एक सिंहावलोकन (दूसरी किस्त) : दीपायन बोस
‘वामपन्थी आन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’ / सुखविन्दर
उन समझदारों के लिए सबक जो हमेशा हाशिये पर पड़े रहना चाहते हैं : अभिनव सिन्हा
भावुकतावादी क्रान्तिवाद बनाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी अप्रोच एवं पद्धति : कात्यायनी
विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास, समस्याएं व चुनौतियां
यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी : शिशिर
महान बहस के 50 वर्ष : राजकुमार
फासीवाद
मोदी सरकार के कार्यकाल का एक साल: विकास का विद्रूप प्रहसन : मीनाक्षी
साम्राज्यवाद
इस्लामिक स्टेट का उभार और मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का नया दौर : आनन्द
भूमण्डलीकरण के दौर में तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा : आनन्द
कश्मीर में बाढ़, भारत में अन्धराष्ट्रवाद की आँधी और कश्मीरी जनता का बढ़ता अलगाव : पुरुषोत्तम
महान क्रान्तिकारियों की कलम से
उद्धरण : दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015
आपकी बात
पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015
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Errata (भूल सुधार) :
‘दिशा सन्धान’, अंक-3 के प्रिंट संस्करण के पृष्ठ 37-38 पर ग़लत छप गए निम्लिखित अंश की जगह कृपया सबसे नीचे दिए गए सुधार किए गए अंश को पढ़ें (वेब संस्करण में यह ग़लती नहीं है):
“यहाँ हम पाठकों का इस ओर भी ध्यानाकर्षित करना चाहेंगे कि यारोशेंको की आलोचना करते हुए स्तालिन जहाँ कहीं भी समाजवाद में शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों की मौजूदगी या गै़र-मौजूदगी की बात कर रहे हैं, वहाँ उन्होंने उद्धरण चिन्हों का प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि स्तालिन 1936 की इस प्रस्थापना पर भी पुनर्विचार कर रहे थे कि समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में स्थापना के साथ शत्रुतापूर्ण वर्ग सोवियत समाज से समाप्त हो गये हैं। ऐसी अटकल लगाना बिल्कुल अतार्किक या मनोगत कवायद या फिर प्रतितथ्यात्मक अटकलबाज़ी भी नहीं मानी जायेगी क्योंकि अगर स्तालिन 1953 तक इस समझदारी तक पहुँच चुके थे कि समाजवाद में माल उत्पादन और माल सम्बन्ध मौजूद रहते हैं (हालाँकि इसके कारण के तौर पर अभी स्तालिन केवल दो प्रकार के समाजवादी सम्पत्ति रूपों की मौजूदगी को ही देख रहे थे), मूल्य का नियम एक प्रभावकारी कारक व सीमित अर्थों में विनियामक की भूमिका निभाता है, और गाँव और शहर के बीच का अन्तर का काम करता है (हालाँकि मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के अन्तर को स्तालिन ने उतना महत्व नहीं दिया है), तो ज़्यादा सम्भावना यही है कि स्तालिन (अगर उन्हें अपने इस चिन्तन को आगे बढ़ाने का मौका मिलता) इसी नतीजे पर पहुँचते कि समाजवादी समाज में भी कुंजीभूत कड़ी वर्ग संघर्ष होता है, बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी पार्टी और राज्य के भीतर राजकीय बुर्जुआज़ी को जन्म देती है, तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ बुर्जुआ अधिकारों और विनिमय सम्बन्धों को जन्म देती हैं, इस वजह से श्रम शक्ति अभी भी एक माल होती है और समाजवाद की इन समस्याओं के लिए जहाँ उत्पादक शक्तियों का द्रुत विकास करना होगा वहीं उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को आगे बढ़ाना होगा और साथ ही अधिरचना के क्षेत्र में सतत् क्रान्ति के कार्यभार को हाथों में लेना होगा। ज़ाहिर है, स्तालिन अपने तरीके और किसी अलहदा रास्ते से इन्हीं नतीजों पर पहुँच सकते थे जो शायद माओ के विचारों और चिन्तन प्रक्रिया के रास्ते से अलग होती। लेकिन इन अटकलबाज़ियों या प्रति-तथ्यात्मक इतिहास को एक तरफ़ भी रख दें तो स्तालिन के अन्तिम दौर का लेखन यह दिखलाता है कि समाजवाद की समस्याओं पर उनके चिन्तन की दिशा कमोबेश दुरुस्त थी।”
प्रूफ सुधार:
“यहाँ हम पाठकों का इस ओर भी ध्यानाकर्षित करना चाहेंगे कि यारोशेंको की आलोचना करते हुए स्तालिन जहाँ कहीं भी समाजवाद में शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोधों की मौजूदगी या गै़र-मौजूदगी की बात कर रहे हैं, वहाँ उन्होंने उद्धरण चिन्हों का प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि स्तालिन 1936 की इस प्रस्थापना पर भी पुनर्विचार कर रहे थे कि समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में स्थापना के साथ शत्रुतापूर्ण वर्ग सोवियत समाज से समाप्त हो गये हैं। ऐसी अटकल लगाना बिल्कुल अतार्किक या मनोगत कवायद या फिर प्रतितथ्यात्मक अटकलबाज़ी भी नहीं मानी जायेगी क्योंकि अगर स्तालिन 1953 तक इस समझदारी तक पहुँच चुके थे कि समाजवाद में माल उत्पादन और माल सम्बन्ध मौजूद रहते हैं (हालाँकि इसके कारण के तौर पर अभी स्तालिन केवल दो प्रकार के समाजवादी सम्पत्ति रूपों की मौजूदगी को ही देख रहे थे), मूल्य का नियम एक प्रभावकारी कारक व सीमित अर्थों में विनियामक की भूमिका निभाता है, और गाँव और शहर के बीच का अन्तर का काम करता है (हालाँकि मानसिक और शारीरिक श्रम के बीच के अन्तर को स्तालिन ने उतना महत्व नहीं दिया है), तो ज़्यादा सम्भावना यही है कि स्तालिन (अगर उन्हें अपने इस चिन्तन को आगे बढ़ाने का मौका मिलता) इसी नतीजे पर पहुँचते कि समाजवादी समाज में भी कुंजीभूत कड़ी वर्ग संघर्ष होता है, बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी पार्टी और राज्य के भीतर राजकीय बुर्जुआज़ी को जन्म देती है, तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ बुर्जुआ अधिकारों और विनिमय सम्बन्धों को जन्म देती हैं। समाजवाद की इन समस्याओं के लिए जहाँ उत्पादक शक्तियों का द्रुत विकास करना होगा वहीं उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को आगे बढ़ाना होगा और साथ ही अधिरचना के क्षेत्र में सतत् क्रान्ति के कार्यभार को हाथों में लेना होगा। ज़ाहिर है, स्तालिन अपने तरीके और किसी अलहदा रास्ते से इन्हीं नतीजों पर पहुँच सकते थे जो शायद माओ के विचारों और चिन्तन प्रक्रिया के रास्ते से अलग होती। लेकिन इन अटकलबाज़ियों या प्रति-तथ्यात्मक इतिहास को एक तरफ़ भी रख दें तो स्तालिन के अन्तिम दौर का लेखन यह दिखलाता है कि समाजवाद की समस्याओं पर उनके चिन्तन की दिशा कमोबेश दुरुस्त थी।”
– सम्पादक (जनवरी 2016)