‘वामपन्थी आन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’ – पुस्‍तक समीक्षा

‘वामपन्थी आन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’

  • सुखविन्दर

पुस्‍तक समीक्षा : पुस्‍तक का नाम – वामपन्थी अन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न, प्रकाशक- पंज आब प्रकाशन, जालंधर, सम्पादक – बूटा सिंह

पिछले दिनों ‘वामपन्थी अन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’ शीर्षक से प्रकाशित पुस्तक कुछ प्रतिष्ठित समझे जानेवाले लेखकों के हिन्दी और अंग्रेजी से अनूदित लेखों व साक्षात्कारों का संग्रह है। इस में प्रो. रणधीर सिंह, सुमन्त बनर्जी और सुभाष गताड़े के लेखों के अलावा अरुन्धती राय और प्रो. उमा चक्रवर्ती के साक्षात्कार भीं शामिल किये गये हैं। पुस्तक का सम्पादकीय लेख हमें यह बताता है कि “हमारे देश का वामपन्थी आन्दोलन जनता के बीच अपने राजनीतिक प्रभाव और आधार को गहन और व्यापक बनाने के लिए कोई रास्ता निकाल पाने में असफल साबित हो रहा है। अकूत कुर्बानियों और बेशुमार संघर्षों की शानदार विरासत के बावजूद इस पर अतीत की भयंकर ग़लतियों और कमियों-कमज़ोरियों की काली परछाई भी है वहीं दूसरी तरफ वर्तमान और भविष्य की बड़ी चुनौतियों के बावजूद इससे उम्मीद की किरण भी मिलती है।” इन चुनौतियों और उनसे जुड़े प्रश्नों पर विचार विमर्श करने से अधिक इस पुस्तक के प्रकाशन का मकसद कदाचित उम्मीद की वह किरण दिखाना है जिसमें उपरोक्त ‘नामवर चिन्तकों’ के ‘विचारों और टिप्पणियों’ से मार्गदर्शन लेकर वामपन्थी आन्दोलन किसी नये रास्ते का संधान कर सकेगा और ‘अतीत की ‘भयंकर ग़लतियों और कमियों-कमजोरियों की काली परछाई’ से स्वयं को मुक्त कर सकेगा। पुस्तक के सम्पादक और लेखकों का यहाँ वामपन्थी आन्दोलन से तात्पर्य सभी कम्युनिस्ट नामधारी पार्टियों/संगठनों से है। इसमें वे घोषित रूप से संसदमार्गी हो चुकी पार्टियों यानी भाकपा, माकपा, और इनके विभिन्न हिस्सों और नक्सली कहे जाने वाले सभी ग्रुपों आदि को शामिल करते हैं। ज़ाहिर है वामपन्थी आन्दोलन की इस परिभाषा से ज़रा भी सहमत नहीं हुआ जा सकता। हमारे लिए वामपन्थी आन्दोलन से मतलब नक्सलबाड़ी आन्दोलन की ऐतिहासिक विरासत को मानने वाले उन ग्रुपों/संगठनों से है, जिन्होंने देश और दुनिया की परिस्थितियों के मूल्यांकन पर आपसी मतभेदों के बावजूद अपना सत्ता-विरोधी चरित्र बरकरार रखा हुआ है। भाकपा, माकपा और नक्सली पृष्ठभूमि वाले कई संगठन तो अब वर्तमान शोषणकारी व्यवस्था के साथ पूरी तरह नाभिनालबद्ध हो चुके हैं। इन्हें वामपन्थी आन्दोलन का हिस्सा मानना, विचारधारात्मक दिवालियेपन के प्रदर्शन से अधिक कुछ नहीं है।

हर क्रान्तिकारी आन्दोलन अपने अतीत के व्यवहार से सीखता है, इसकी ग़लतियों, कमियों, कमज़ोरियों से भी और इसकी उपलब्धियों से भी। भारत के वामपन्थी या क्रान्तिकारी आन्दोलन के बारे में भी यही सच है। इसके लिए उसे आन्दोलन से हमेशा एक सुरक्षित दूरी पर रहने वाले बुद्धिजीवियों की सलाह की कोई ज़रूरत नहीं होती। उनके बिना भी वह ऐसा करता रहा है। कम्युनिस्ट या कम्युनिस्ट आन्दोलन किसी से भी सीखने के लिए तैयार रहता है बशर्ते कि सिखाने वाला वास्तव में इस लायक हो। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो उपरोक्त पुस्तक के शुरू से अन्त तक कहीं भी न तो हमें कोई विचारधारात्मक अन्तर्दृष्टि मिलती है और न ही सोचने-विचारने लायक कोई प्रश्न। प्रो. रणधीर सिंह का लेख छोड़ दिया जाये (इसकी अपनी समस्याएँ हैं, जिनपर अलग से चर्चा की जायेगी) तो अन्य लेखक ‘वामपन्थी आन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’ तो मुहैया नहीं कराते और न ही वे यह बताते हैं कि वामपन्थी आन्दोलन ‘अतीत की ग़लतियों की काली परछाइयों’ से कैसे मुक्त हो सकता है, उल्टे वे भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन और विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के गौरवमय इतिहास पर कीचड़ खूब उछालते हैं। सुमन्त बनर्जी जैसे लोग तो इस मामले में साम्राज्यवाद के भोंपू डिस्कवरी, नैट जीओ आदि चैनलों को भी मात दे रहे हैं।

दरअसल यह पुस्तक असंगतिपूर्ण, अनैतिहासिक दृष्टि और मनोगतवादी विश्लेषण का बेमिसाल नमूना है। इसकी शुरुआत तो सम्पादक द्वारा लिखी गई भूमिका से ही हो जाती है। पुस्तक का सम्पादक जिन ‘गम्भीर ग़लतियों की काली परछाइयों’ की बात करता है और लेखकगण जिन ग़लतियों के लिए, विशेषकर जाति प्रश्न के सन्दर्भ में, भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन को कोसते नहीं थकते, वास्तव में वे ग़लतियाँ भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन ने कभी की ही नहीं। जाति प्रश्न, स्त्री प्रश्न आदि को सही ढंग से हल करने के मामले में अतीत में कम्युनिस्ट आन्दोलन की जो कमियाँ-कमजोरियां रही हैं उनकी जड़ों तक पहुँचने की बजाय ये लेखक (प्रो. रणधीर सिंह के सिवाय) इस प्रश्न को इस ढंग से उठा रहे हैं जैसे इसे हल करने में कम्युनिस्टों की नीयतन बेईमानी आड़े आ रही हो। उनमें कुछ तो (उदाहरण के तौर पर अरुन्धती राय) इसकी जड़ कम्युनिस्ट नेतृत्व की जातिगत संरचना में तलाशने लगते हैं।

जो व्यवहार और प्रयोग के धरातल पर कामों को अंजाम देता है, वह ग़लतियाँ भी करता है, यह व्यक्तियों के लिए भी सच है, पार्टियों और आन्दोलनों के लिए भी। दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियों से ग़लतियाँ हुई हैं और इन ग़लतियों से सीखते हुए ही वे आगे बढ़ी हैं। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन ने अतीत में बहुत गम्भीर ग़लतियाँ की हैं लेकिन उन तमाम ग़लतियों के बावजूद उसने एक गौरवशाली इतिहास का निर्माण भी किया है।

रूस की अक्टूबर 1917 की विजयी समाजवादी क्रान्ति के बाद मार्क्सवाद का तेज़ प्रकाश दुनिया के पिछड़े देशों, उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों की ओर भी फैलने लगा। रूसी क्रान्ति के प्रभाव में सबसे पहले 1920 में एम.एन.राय के नेतृत्व में ताशकन्द में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई लेकिन भारत में इसका कोई आधार नहीं था। फिर भारत में सक्रिय विभिन्न कम्युनिस्ट ग्रुपों की एकता के जरिये 1925 में सत्यभक्त के नेतृत्व में कानपुर में अलग से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। औपनिवेशिक गुलामी से त्रस्त भारत में पैदा हुई यह कम्युनिस्ट पार्टी शुरू से ही विचारधारात्मक तौर पर बेहद कमज़ोर थी। 1933 तक इस पार्टी की कोई केन्द्रीय समिति तक नहीं थी। कोमिण्टर्न व चीन, जर्मनी और ब्रिटिश कम्युनिस्ट पार्टियों के कई बार सुझाव देने के बाद 1933 में कानपुर कांग्रेस में भाकपा की पहली केन्द्रीय समिति चुनी गई। लेकिन इसके बाद भी पूरी पार्टी एक एकजुट बोल्शेविक केन्द्र के नेतृत्व में नहीं आ सकी। पार्टी में गुट बरकरार रहे। जब तक यह पार्टी एक कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पार्टी बनी रही (1951 तक) इसने भारत के मेहनतकश लोगों की मुक्ति के लि‍ए अकूत संघर्ष किया, अनेकों कुबार्नियाँ दीं। तेलंगाना, तेभागा, पुनप्रा वायलार इस गौरवशाली इतिहास के चमकते सितारे हैं। जहाँ एक तरफ पार्टी ने यह शानदार इतिहास रचा (1951 तक) वहीं दूसरी ओर पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी एक जन्मचिन्ह की तरह इससे चिपकी रही। 1951 तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के पास भारतीय क्रान्ति का कोई कार्यक्रम नहीं था। 1951 में जैसे-तैसे एक कार्यक्रम तैयार किया गया वह भी सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी के सुझावों को आधार बनाकर। भारत तब जनवादी क्रान्ति के दौर में था, कृषि क्रान्ति को इस क्रान्ति का धुरी बनना था, लेकिन पार्टी के पास कोई कृषि कार्यक्रम तक न था। मार्क्सवादी विज्ञान की कमज़ोर समझ के चलते भारत की कम्युनिस्ट पार्टी न तो सही अर्थों में अपना लेनिनवादी ढाँचा ही खड़ा कर सकी और न ही भारत की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण के आधार पर भारतीय क्रान्ति का एक सही कार्यक्रम, रणनीति और रणकौशल ही गढ़ पाई। अगर भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के अतीत की कमज़ोरियों की चर्चा की जाये तो इसकी केन्द्रीय कमज़ोरी मार्क्सवादी विज्ञान की इसकी कमज़ोर समझ थी, जिसके चलते मार्क्सवाद की सर्वजनीन सच्चाइयों को वह भारत की परिस्थितियों में सृजनात्मक ढंग से लागू नहीं कर सकी। विचारधारात्मक तौर पर वह हमेशा विश्व की बड़ी बिरादराना पार्टियों पर निर्भर रही। अतीत की विजयी क्रान्तियों की नकल करने की कठमुल्लावादी धुन इस पर सदा सवार रही। अगर ग़लतियों की बात की जाये तो भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन पर वास्तव में आज भी इस ग़लती की काली परछाई बरकरार है। आज भी कई क्रान्तिकारी ग्रुप देश और दुनिया के बदले हुए हालातों को समझने में असमर्थ हैं। उनके लिए दुनिया दूसरे विश्व युद्ध के पहले के समय में ही रुक गई है। भारत के कई क्रान्तिकारी ग्रुप तो आज भी भारत को अर्द्ध-सामन्ती अर्द्ध-औपनिवेशिक देश मानते हैं जहाँ उन्हें नवजनवादी क्रान्ति सम्पन्न करनी है। उनके इस क्रान्ति का कार्यक्रम, रणनीति एक तरह से चीन की नवजनवादी क्रान्ति की हूबहू नकल पर आधारित है। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन के अतीत और वर्तमान के विभिन्न सामाजिक मसलों (जाति, लिंग, राष्ट्रीयता, धार्मिक अल्पसंख्यकों के मसले आदि) को हल करने में जो कमियाँ रही थीं/हैं उन्हें कम्युनिस्ट आन्दोलन की इस केन्द्रीय कमज़ोरी (विचारधारात्मक कमज़ोरी) के सन्दर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए। इसी तरह से इसे सही ढंग से समझा जा सकता है और दूर किया जा सकता है। ज़ाहिर है कि उपरोक्त पुस्तक के सम्पादक और लेखक भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमज़ोरियों को सही सन्दर्भ में रखने में कामयाब नहीं हो सके।

अब हम इस पुस्तक में विभिन्न लेखकों द्वारा व्यक्त किए गए विचारों की ओर लौटते हैं। सबसे पहले हम प्रो. रणधीर सिंह के लेख की चर्चा करते हैं। अन्य लेखकों के विचारों में काफ़ी कुछ साझा है उनकी चर्चा की ओर हम बाद में लौटेंगे।

प्रो. रणधीर सिंह के विचारधारात्मक विभ्रम

प्रो. रणधीर सिंह एक मार्क्सवादी चिन्तक के तौर पर जाने जाते हैं। लेकिन उनका मार्क्सवाद मार्क्स के ज़माने में ही रुक गया लगता है। वे मार्क्स के बाद मार्क्सवाद में लेनिन और माओ द्वारा किए गए इज़ाफ़े को नहीं समझते। वह मार्क्सवाद के पॉल स्वीज़ी-पन्थी संस्करण के पैरोकार हैं। कुछ समय पहले ‘समाजवाद का संकट’ नामक उनकी पुस्तक भी आई है जिसमें उन्होंने पॉल स्वीज़ी-पन्थी चश्मे से 20वीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को देखने की कोशिश की है और इससे भयानक नतीजे निकाले हैं। बेशक भारत की मेहनतकश जनता की मुक्ति और भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के प्रति प्रो. रणधीर सिंह के जेनुइन सरोकार हैं। इसके लिए वे चिन्तित भी रहते हैं। लेकिन विचारधारा के मामले में वह भी बुरी तरह विभ्रम के शिकार हैं। प्रस्तुत पुस्तक के उनके लेख में भी उनका विचारधारात्मक विभ्रम स्पष्ट झलकता है।

1992 में जालंधर के गदरी बाबाओं के मेले में दिया गया उनका वक्तव्य जो एक लेख की शक्ल में ‘पंजाब के 1914-15 के क्रान्तिकारियों की याद में’ शीर्षक से इस पुस्तक में शामिल है, इस बात को ही पुष्ट करता है कि स्वीज़ीपन्थी “मार्क्सवाद” के चश्मे ने चीज़ों को सही परिप्रेक्ष्य में उनके देखने समझने की प्रक्रिया को बुरी तरह बाधित कर रखा है। वक्तव्य में रूसी क्रान्ति के बारे में उनकी टिप्पणियों और भाकपा-माकपा जैसी संशोधनवादी पार्टियों के बारे में उनकी समझ को देखते हुए यह बात और स्पष्ट हो जाती है। वक्तव्य का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा भारत के ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ की समस्याओं को सम्बोधित है। ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ से उनका अभिप्राय मुख्य तौर पर ‘मुख्य धारा के कम्युनिस्ट आन्दोलन से’ है जिसका प्रतिनिधित्व माकपा और भाकपा करती हैं।

प्रस्तुत लेख में ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ की तुलना वे गदरी क्रान्तिकारी राजनीति से करते हैं और कुछ निराशाजनक नतीजों पर पहुँचते हैं। उनका कहना है कि गदरी क्रान्तिकारी राजनीति के तीन गहरे अन्तरसम्बन्धित पहलू ग़ौरतलब हैं। पहला, गदर के क्रान्तिकारियों के पास एक सुस्पष्ट रणनीतिक लक्ष्य था। दूसरा, तत्कालीन बुर्जुआ राष्ट्रवादी राजनीति की मुख्य धारा के सामान्तर उनके पास हथियारबन्द बग़ावत की एक आज़ाद और मुकम्मिल राजनीति थी। तीसरा पहलू था, गदरी क्रान्तिकारियों का जोशो-खरोश। आगे वह इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इन तीनों पहलुओं की दृष्टि से ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ यानी भाकपा, माकपा की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय है। प्रो. रणधीर सिंह इस सरल सामान्य सी सच्चाई को समझ नहीं पा रहे कि जिसे वह ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ कह रहे हैं उसे काफ़ी पहले से ही इन तीनों ही चीजों की जरूरत नहीं रह गई थी। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी 1951 तक इन तीनों ही पहलुओं से काफ़ी समृद्ध थी। भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों के ठोस विश्लेषण, सही रणनीति व रणकौशल, आदि से सम्बन्धित तमाम समस्याओं के बावजूद पार्टी के पास भारत में समाजवाद की स्थापना का स्पष्ट रणनीतिक लक्ष्य था, बुर्जुआ राष्ट्रवादी आन्दोलन के समानान्तर एक आज़ाद ताकतवर कम्युनिस्ट आन्दोलन था और कम्युनिस्टों में क्रान्तिकारी जोश की कोई कमी नहीं थी। 1951 में पार्टी तेलंगाना का हथियारबन्द संघर्ष वापस लेने के बाद संसदमार्गी हो गई। 1951 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी के सुझावों के आधार पर भारत में लोक-जनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम तैयार किया गया था, जो अपनी कई कमियों के बावजूद उस समय भारत के लिए प्रासंगिक था। लेकिन संसद की राह पकड़नेवाली पार्टी के लिए अब क्रान्ति का कार्यक्रम अलमारियों में धूल चाटने की चीज़ बन चुकी थी। 1956 में सोवियत संघ में ख्रुश्चेव के संशोधनवादी गुट के सत्ता पर काबिज़ होने के साथ पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हुई और वहाँ से आए ‘तीन शान्तिपूर्ण’ के सिद्धान्त पहले से ही संशोधनवाद की राह पर चल रही भाकपा के लिए बिल्ली के भाग से छींका टूटने के समान था। 1964 में भाकपा में फूट पड़ गई और इसके एक धड़े ने अलग होकर माकपा का गठन किया। यह पार्टी तो पैदाइशी संशोधनवादी थी। अब इन पार्टियों का एकमात्र “रणनीतिक” लक्ष्य था- वोट के खेल में शामिल होकर संसदीय चुनाव के ज़रिए राज्यों और केन्द्र में सरकारें बनाना और पूँजीपति वर्ग की सेवा में सन्नद्ध होकर मजदूर वर्ग और आम मेहनतकशों का दमन करना। यही इनकी “आज़ाद और मुतबादल राजनीति” थी। ऐसी राजनीति के लिए किसी ‘क्रान्तिकारी जोशो-खरोश’ की कोई ज़रूरत नहीं थी। यह सब कुछ तो 1951 में ही घटित हो गया था और उस समय से लेकर 1992 तक (रणधीर सिंह का वक्तव्य आने के समय तक) तो इन पुलों के नीचे से काफ़ी गन्दा पानी बह चुका था। रणधीर सिंह के “मार्क्सवादी” शब्दकोश में संशोधनवाद नाम का शब्द ही गायब है। वह भाकपा, माकपा के पतन की बात तो करते हैं, लेकिन इसके कारणों को समझने से पूरी तरह अक्षम हैं। वह इन पार्टियों के क्षरित और मद्धिम पड़ चुके ‘क्रान्तिकारी जोश’ से बहुत दुखी और निराश हैं। उनका कहना है कि “लम्बे समय से दुख भोग रही यह मिट्टी, आज बिल्कुल हार चुकी है, इससे अब ऐसे दिल-गुर्दे वाले (गदरी क्रान्तिकारियों जैसे) इंसान जन्म नहीं लेते”।

प्रो. रणधीर सिंह काफ़ी लम्बे अरसे से भाकपा, माकपा के लिए काम करते रहे हैं। इन पार्टियों ने संशोधनवाद की राह पकड़ ली है (खासकर भाकपा, क्योंकि माकपा का तो जन्म ही संशोधनवाद के पालने में हुआ था), इस बात को वे नहीं समझते। अतः इन पार्टियों से वे निराश और दुखी भी हैं और साथ ही इनसे उम्मीदें भी पालते हैं। जब ये उम्मीदें पूरी होती नहीं दिखतीं देतीं तो इससे उपजी निराशा का वे सामान्यीकरण कर देते हैं (जैसाकि उपरोक्त कथन में उन्होंने किया है)। धरती को बांझ कहते हुए वे इस हकीकत को देख नहीं पाते कि भाकपा, माकपा द्वारा भारतीय क्रान्ति के साथ गद्दारी करने के बाद नक्सलबाड़ी धारा के क्रान्तिकारियों ने (कार्यक्रम की ग़लत समझ के बावजूद) महान क्रान्तिकारी परम्पराओं की हिफ़ाज़त की। यह सिलसिला आज भी जारी है। लेकिन रणधीर सिंह भाकपा, माकपा के प्रति अपने निराशापूर्ण मोहग्रस्तता के कारण इस सच्चाई को देखने से इन्कार कर देते हैं।

प्रो. रणधीर सिंह 1947 के बाद भारत में हुए परिवर्तनों को ठीक-ठीक चिह्नित करते हैं, और यहाँ हुए पूँजीवादी विकास की चर्चा करते हैं। वह कहते हैं कि मेहनतकशों की मुक्ति की लड़ाई अब किसी राष्ट्रवादी दायरे में नहीं लड़ी जा सकती। अब यह एक राष्ट्र की दूसरे राष्ट्र के साथ लड़ाई नहीं बल्कि देश के अन्दर ही सत्ता पर काबिज़ पूँजीपति वर्ग के खिलाफ़ मेहनतकश जनता की लड़ाई है। इसी तरह के विचार उन्होंने अधिक स्पष्टता के साथ अपने लेख ‘एक राष्ट्रीय लक्ष्य का अन्त’ में भी व्यक्त किए थे। उनका कहना है कि भारत के ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ राष्ट्रवाद की बीमारी से ग्रसित हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि उनके तथाकथित ‘कम्युनिस्ट वाम पक्ष’ के लिए क्रान्तिकारी संघर्ष के किसी भी चौखटे का कोई मतलब नहीं रह गया है। हालाँकि, उनकी यह बात कई नक्सली ग्रुपों के मामले में आज भी सही साबित होती है। ये ग्रुप आज भी राष्ट्रवाद की बीमारी से मुक्त नहीं हो पाए हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद देश और दुनिया की परिस्थितियाँ भले ही आज कितनी भी क्यों न बदल चुकी हों लेकिन ये आज भी नवजनवादी क्रान्ति पर अड़े हुए हैं। इनके मुताबिक भारत में राष्ट्रीय मुक्ति का कार्यभार आज भी भारत के लोगों के एजण्डे पर है। जनवादी क्रान्तियों के कार्यभार ऐसे कार्यभार थे जो इतिहास ने 20वीं सदी के शुरू में मज़दूर वर्ग के कन्धों पर लाद दिए थे क्योंकि रूस में 1917 की अक्टूबर (समाजवादी) क्रान्ति के बाद एशिया, अफ्रीका व लातिनी अमेरिका आदि के उपनिवेशों, अर्द्धउपनिवेशों और नव-उपनिवेशों का पूँजीपति वर्ग जनवादी क्रान्तियों को पूरा करने के अयोग्य हो गया था। 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में इतिहास ने मज़दूर वर्ग को इन कार्यभारों से मुक्त कर दिया। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद उपरोक्त देशों ने विभिन्न ढंग से औपनिवेशिक जकड़बन्दी से मुक्ति हासिल की और पूँजीवादी विकास यहाँ आगे बढ़ा। आज ये देश साम्राज्यवाद से राजनीतिक तौर पर आज़ाद पूँजीवादी देशों की श्रेणी में आते हैं जो कि समाजवादी क्रान्ति के मंजिल में दाखिल हो चुके हैं। लेकिन हमारे ये क्रान्तिकारी ग्रुप मार्क्सवाद की कठमुल्ला समझ के चलते अतीत के कार्यभार वर्तमान में पूरा करने की ज़िद कर रहे हैं।

रणधीर सिंह ने अपने वक्तव्य में सोवियत संघ में समाजवाद की अवधि के बारे में भी कुछ दिक्कततलब टिप्पणियाँ की हैं। वह कहते हैं कि लेनिन के नेतृत्व में रूस में सर्वहारा क्रान्ति सफ़ल हुई लेकिन सत्तर वर्ष बाद उसके (लेनिन के) नालायक वारिसों के हाथों असफल हो गई। सोवियत संघ में ख्रुश्चेवी गुट द्वारा 1956 में सत्ता हथियाए जाने के बाद विश्व के कम्युनिस्ट आन्दोलन में यह बहस चल रही थी कि सोवियत यूनियन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो चुकी है या नहीं। आज यह प्रश्न ही ख़त्म हो चुका है लेकिन आज भी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में इस प्रश्न पर बहस जारी है कि सोवियत यूनियन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना कैसे और कब हुई। यह दोनों प्रश्न समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। इन प्रश्नों पर स्पष्टता की कमी या ग़लत अवस्थिति किसी भी विद्वान या पार्टी को संशोधनवाद की तरफ ले जाएगी।

1956 में ख्रुश्चेव गुट ने सोवियत संघ में जब पार्टी और राज्य को हथिया लिया तो तो सबसे पहले उसने लेनिन के बाद समाजवादी निर्माण को आगे बढ़ानेवाले विश्व सर्वहारा वर्ग के महान नेता व शिक्षक स्तालिन पर हमला बोला। फिर मार्क्सवाद लेनिनवाद की मूल प्रस्थापनाओं पर प्रहार करते हुए उसने तीन शान्तिपूर्ण का सिद्धान्त और समस्त जनता की पार्टी, समूची जनता का राज्य आदि संशोधानवादी नीतियाँ प्रतिपादित की। यह स्पष्ट रूप में मार्क्सवाद से सम्बन्ध-विच्छेद था। यह सबकुछ “बदली परिस्थितियों” का हवाला देकर और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को विकसित करने के नाम पर किया जा रहा था। माओ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद को समझा और इसके खिलाफ़ संघर्ष चलाया। परन्तु पार्टी द्वारा ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के खिलाफ़ खुला संघर्ष चलाने में हुई देरी के कारण ख्रुश्चेव पन्थी विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन को भारी नुक़सान पहुँचाने में कामयाब रहे। सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बारे में माओकालीन चीनी पार्टी की समझ और विश्लेषण को इतिहास ने सही साबित किया। लेकिन आज भी ऐसे विद्वानों की कमी नहीं है जो सोवियत संघ में 1991 तक समाजवाद की मौजूदगी देखते हैं। प्रो. रणधीर सिंह भी 1991 तक सोवियत संघ में सर्वहारा सत्ता की मौजूदगी मानते हैं और 1991 में सोवियत संघ में ‘समाजवाद को असफ़ल बनाने वालों’ को वे लेनिन का वारिस कहते हैं। ऐसा बयान इतिहास के बारे में उनकी ग़लत समझ को ही अभिव्यक्त करता है। इसी वक्तव्य में वह कहते हैं कि सोवियत संघ का ‘वास्तविक समाजवाद’ क्लासिकीय मार्क्सवाद द्वारा कल्पित समाजवाद का भद्दा रूप था। लेकिन इसकी कोई व्याख्या उन्होंने प्रस्तुत नहीं की है। इसलिए इस बारे में हम यहाँ बस इतना ही कहेंगे कि किसी आदर्श समाजवाद के लिए किन्हीं आदर्श परिस्थितियों का इंतजार नहीं किया जा सकता। समाजवाद उपलब्ध वस्तुगत परिस्थितियों में पैदा होता और विकास करता है, और उसपर उन हालातों के जन्म-चिह्न का होना लाजिमी है। किसी आदर्श समाजवाद के लिए आदर्श परिस्थितियों का इंतजार निठ्ठले मुक्त चिन्तन की ओर ले जाती है।

इसके अतिरिक्त भी, उनके वक्तव्य में ऐसी कई टिप्पणियाँ हैं जो एतराज योग्य हैं लेकिन इन सभी पर चर्चा करना यहाँ सम्भव नहीं।

सुमन्त बनर्जी का कुत्साप्रचार

प्रस्तुत पुस्तक का दूसरा महत्वपूर्ण लेख ‘मार्क्स के बाद के हालात और क्रान्तिकारी परिवर्तन की चुनौतियाँ’ है जो सुमन्त बनर्जी के किसी लम्बे लेख का संक्षिप्त संस्करण है। लेख पढ़कर ऐसा लगता है जैसे लेखक की मार्क्सवादी ज्ञान मीमांसा का मुख्य स्रोत नैट जीओ, डिस्कवरी जैसे साम्राज्यवादी मीडिया के भोंपू चैनल हैं। वह 20वीं सदी के समाजवादी निर्माण के गौरवशाली प्रयोगों पर जी भरकर कीचड़ उछालता है। मृत्युपर्यन्त समाजवाद की हिफ़ाज़त करने वाले और मज़दूर वर्ग के शत्रुओं का दृढ़तापूर्वक मुकाबला करनवाले महान नेता और शिक्षक कामरेड स्तालिन को यह निठल्ला अकादमिक बुद्धिजीवी ‘आदर्शवादी क्रान्तिकारी’ ‘सनकी और वहशी’ कहने की हद तक चला गया है। वह इन कम्युनिस्ट नेताओं पर चलते-चलाते ऐसी टिप्पणियाँ करता है, जिसके लिए न तो वह कोई दलील देना ज़रूरी समझता है और न ही कोई तथ्य। मार्क्स के बाद हुए परिवर्तनों को देखते हुए वह मार्क्सवाद के अधूरेपन की दम्भपूर्ण घोषणा करता नज़र आता है। कम्युनिस्ट पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को वह तोड़ता-मरोड़ता है, और क्रान्ति व समाजवादी निर्माण में एक ‘कम्युनिस्ट पार्टी’ की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगाता है। कहा जाये तो उसके लेख में बुर्जुआ कुत्साप्रचार, उत्तर-आधुनिकतावादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यावादी झूठ की भरमार है। यदि उसकी कोई बात सही भी है तो वह मौलिक नहीं है। त्रात्स्की के बारे में कहा जाता है कि जहाँ वह मौलिक बात करता है वहाँ वह ग़लत होता है और जहाँ वह सही बात करता है वहाँ वह मौलिक नहीं होता। जहाँ तक सुमन्त बैनर्जीं का सवाल है तो उसके बारे में बस यही कहा जा सकता है कि वह कहीं भी मौलिक नहीं, न ही अपनी ग़लतियों के मामले में और न ही जब वह कोई सही बात करता है। आइये, अब हम इस लेख के कुछ महत्वपूर्ण नुक्तों की तरफ़ लौटते हैं।

  1. 1. लेखक को नयामार्क्सवाद चाहिए

अपने लेख के शुरू में ही लेखक मार्क्सवादियों (मार्क्सवादियों की आज विभिन्न किस्में मौजूद हैं। जिसमें हर कोई अपनी कथनी और करनी के लिए स्वयं ज़िम्मेदार है। लेकिन लेखक यहाँ कोई फर्क किए बगैर सभी को एक मानकर बात कर रहा है) की तुलना ऐसे शराबी से करता है जिसकी चाबियाँ गुम तो अँधेरी जगह में हुई हैं लेकिन वह ढूँढ़ उन्हें उस जगह रहा है जहाँ बल्ब का प्रकाश है। फिर वह प्रश्न करता है, “कभी-कभी मुझे हैरानी होने लगती है कि कहीं हमारा रवैया भी उसी शराबी जैसा तो नहीं? कहीं हम अपने समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की चाबी एक ही राजनीतिक प्रकाश स्तम्भ के नीचे ढूँढने के लिए टक्करें तो नहीं मार रहे, हो सकता है कि चाबी उस बल्ब की रोशनी के दायरे के बाहर पड़ी हो। शायद यह हमारा विश्वास है कि हम जो तलाश करना चाहते हैं उसे परम्परागत मार्क्सवादी समझ के प्रकाश में ही ढूँढ़ा जा सकता है।” लेखक ‘परम्परागत मार्क्सवादी क्लासिकीय’ समझ को यहाँ पूरी तरह ख़ारिज नहीं करता। वह कहता है, “यह प्रकाश स्तम्भ पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली और इसके मौजूदा बदनाम रूप नवउदारवादी वैश्वीकरण के बहुत सारे अँधेरे कोनों पर सचमुच ही रोशनी डाल रहा है।” लेकिन फिर पूछता है, “क्‍या पुराना मार्क्सवादी प्रकाश स्तम्भ मौजूदा समाजिक-आर्थिक व्यवस्था के व्यापक बाहरी अँधेरे कोनों पर प्रकाश डालने के लिए काफ़ी है? क्या हमें मार्क्सवादी बल्ब की क्षमता नहीं बढ़ानी चाहिए जिससे यह वैश्वीकरण की नवउदारवादी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध के उन विभिन्न उभारों को अपने में समाहित कर सके जो ऐन पश्चिम के केन्द्र में और तीसरी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अमेरिकी वैश्विक रणनीति की ख़्वाहिशों के ख़िलाफ़ उठ रहे हैं? और साथ ही जिससे भारत के विभिन्न हिस्सों में रोषपूर्ण प्रदर्शनों के मौजूदा विस्फोटों के बीच से समाज के भावी क्रान्तिकारी रूपान्तरण की सम्भावनाएँ तलाशी जा सकें?”

लेख विसंगतियों से भरा है, एकतरफ लेखक “मौजूदा बदल चुके विश्व” को समझने और बदलने में मार्गदर्शन करने की मार्क्सवाद की क्षमता और प्रासंगिकता को मानता है तो दूसरी तरफ “परिवर्तनों” के बहाने वह मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर प्रश्न उठाता है और इसे पूरी तरह खारिज करने तक जा पहुँचता है। वह कहता है, “आधुनिक विश्व में क्रान्तिकारी बदलाव की चाबी पुराने मार्क्सवादी प्रकाश स्तम्भ के “पवित्र” दायरे के पार मौजूद है।”

इस पर सकारात्मक रूप से अपनी बात रखने से पहले लेखक से कुछ प्रश्न किए जा सकते हैं। मसलन, अगर समाज के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की चाबी ‘एक ही राजनीतिक प्रकाश स्तम्भ के नीचे’ नहीं ढूँढ़ी जा सकती तो क्या इसे कईं ‘राजनीतिक प्रकाश स्तम्भों के नीचे’ ढूँढना होगा? अगर ‘पुराना मार्क्सवादी प्रकाश स्तम्भ मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के व्यापक बाहरी कोनों पर रोशनी डालने के लिए’ नाकाफ़ी है तो उसका नया मार्क्सवादी ‘प्रकाश स्तम्भ’ कौन सा है? वह ‘मार्क्सवादी बल्ब की क्षमता’ को कैसे बढ़ाएगा या उसने यह क्षमता कितनी और कैसे बढ़ा ली है? अगर ‘आधुनिक विश्व में परिवर्तन की चाबी पुराने मार्क्सवादी प्रकाश सतम्भ के पार कहीं मौजूद है’ तो इस चाबी का दर्शन जरा हमें भी करवा दें?

लेखक ने “पुराने” मार्क्सवाद पर तो प्रश्नों की झड़ी लगा दी है लेकिन पूरे लेख में उसने कहीं भी अपने नये मार्क्सवाद के हमें दर्शन नहीं करवाए। लेखक के पास साकारात्मक रूप में कहने के लिए वास्तव में कुछ है भी नहीं। उसके लेख का एकमात्र मकसद कम्युनिस्ट आन्दोलन की भर्त्सना और कम्युनिस्ट कतारों में भ्रम पैदा करना ही है।

मार्क्स के बाद विश्व में बेशक काफ़ी परिवर्तन आए हैं। दुनियाभर के मार्क्सवादी इन बदलावों को खुले दिमाग से, वैज्ञानिकों जैसे साहस के साथ इन्हें समझने की कोशिशें भी करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं। लेकिन इसके साथ ही कठमुल्ले मार्क्सवादियों की भी एक धारा रही है, जो परिवर्तनों की अनदेखी करके अप्रासंगिक हो चुके फार्मूलों को नयी बदली हुई परिस्थितियों पर लागू करने की कोशिश करती रही है। यह धारा आज भी विश्व वामपन्थी आन्दोलन में मौजूद है। इन कठमुल्लावादियों के अतिरिक्त मार्क्सवादी कहलाने वाले मुक्त चिन्तकों की भी एक धारा पूरी दुनिया में मौजूद रही है जो परिवर्तनों की आड़ लेकर बुनियादी मार्क्सवादी अवधारणाओं पर प्रहार करती रही है, इन्हें ही ग़लत ठहरा कर, व्यवस्था का हिस्सा बनती रही है या सामाजिक परिवर्तन की परियोजना को त्याग कर भूतपूर्व “मार्क्सवादियों” या “कम्युनिस्टों” की उपाधियाँ हासिल करती रही है। सुमन्त बनर्जी के लक्षण भी इन्हीं मुक्त चिन्तकों जैसे ही हैं।

आजकल यह एक बहुत प्रचलित, फैशनेबल जुमला है कि मार्क्स के बाद दुनिया बहुत बदल गई है। अगर यह कहने वालों पलटकर प्रश्न करें कि क्या बदल गया है तो इनमें से अधिकतर फटी-फटी आँखों से देखने लगते हैं। अगर कहीं यह पूछ लिया जाए कि क्या कुछ ऐसा भी है जो मार्क्स के समय से लेकर अब तक नहीं बदला तो ये और भी घबरा जाते हैं। दुनिया निरन्तरता और परिवर्तन के द्वन्द्व के जरिए विकास करती है। मार्क्स के बाद पूँजीवादी व्यवस्था में कई परिवर्तन आए हैं और कई पहलुओं की निरन्तरता भी बरकरार है। मुक्त चिन्तक सिर्फ बदलाव के पहलू पर ज़ोर देते हैं और कठमुल्ले सिर्फ निरन्तरता के पहलू पर। यह विश्लेषण की इनकी अधिभूतवादी पद्धति से पैदा होता है। द्वन्द्ववादी भौतिकवादी या कहें सच्चे मार्क्सवादी विकास प्रक्रिया के दोनों पहलुओं का अध्ययन करते हैं, उन्हें समझते हैं और फिर इसे बदलने की रणनीति व रणकौशल गढ़ते हैं।

मार्क्स के समय पूँजीवाद मुख्य रूप से एक यूरोपीय और उत्तर अमेरिकी परिघटना ही थी। यह स्वतंत्र प्रतियोगिता का पूँजीवाद था। 19वीं सदी के अन्त में स्वतंत्र प्रतियोगिता वाला पूँजीवाद एक नये दौर में दाखिल हुआ जिसे साम्राज्यवाद का दौर कहा जाता है। लेनिन ने पूँजीवाद की इस सर्वोच्च अवस्था, साम्राज्यवाद का विश्लेषण किया और इस बदले दौर में मज़दूर क्रान्तियों की रणनीति व रणकौशल गढ़े। पूँजीवादी विकास के इस दौर में लेनिन ने न सिर्फ मज़दूर आन्दोलन के भीतर और बाहर से मार्क्सवाद पर होने वाले हमलों से उसकी हिफ़ाज़त की बल्कि इसे आगे विकसित भी किया। मार्क्सवाद में लेनिन के अवदानों का समाहार करते हुए स्तालिन ने इन्हें लेनिनवाद कहा। उन्होंने कहा कि लेनिनवाद साम्राज्यवाद और मज़दूर क्रान्तियों के युग का मार्क्सवाद है। लेनिन के नेतृत्व में रूस में हुई पहली सफल क्रान्ति और इसके बाद लगभग चार दशकों में यहाँ हुए समाजवादी निर्माण के प्रयोगों ने मार्क्सवादी विचारधारा को और समृद्ध बनाया।

1956 में ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो चुकी थी। दूसरे बड़े समाजवादी देश, चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा सामने था। माओ ने समाजवादी संक्रमण के दौर के चरित्र, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों के स्रोतों, और समाजवादी समाज के बुनियादी अन्तरविरोधों को गहराई में समझा। उन्होंने सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति का सिद्धान्त दिया जिसे महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति भी कहा जाता है। विश्वभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों ने मार्क्सवाद के विकास में माओ के योगदानों का समाहार करते हुए इन्हें माओवाद का नाम दिया। इस तरह देखा जा सकता है कि मार्क्सवादी विचारधारा का विकास मार्क्स के समय में ही रुका नहीं रह गया और न ही दुनिया की बदलती परिस्थितियों की समझ से कम्युनिस्ट आन्दोलन वंचित ही है। बस सुमन्त बनर्जी जैसे विचारधारात्मक मोतियाबिंद के शिकार लोगों को ही यह असलियत दिखायी नहीं देती। वह मार्क्सवाद में लेनिन और उसके बाद माओ द्वारा किए गए इज़ाफ़े की तो कोई चर्चा नहीं करते। लेकिन कुछ अज्ञात लोगों को मार्क्स के विश्लेषण को और अधिक माँजने-निखारने का श्रेय देते हैं, ‘आधुनिक राजनीति के वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों के विभिन्न स्कूलों ने मार्क्स के विश्लेषण के औज़ारों को और अधिक निखारा व सुधारा है।’ वह इन ‘राजनीतिक विज्ञानियों और समाजशास्त्रियों’ का नाम बताने की ज़रूरत नहीं समझते और न ही यह बताने की कि उन्होंने ‘मार्क्स के विश्लेषण के औज़ारों को’ आखिर किस प्रकार ‘और भी निखारा व सुधारा है’।

लेनिन और माओ के बाद भी दुनिया में परिवर्तनों का सिलसिला ज़ारी है। दुनियाभर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के प्रकाश के आलोक में इन परिवर्तनों को समझ रहे हैं और उसके मुताबिक अपनी रणनीति व रणकौशल गढ़ रहे हैं। जहाँ तक कठमुल्लों और मुक्त चिन्तकों की बात है वे परमहंस की अवस्था में पहुँच चुके हैं।

मार्क्स के समय में पूँजीवादी व्यवस्था, जो मुख्य तौर पर यूरोपीय और उत्तर अमेरिकी परिघटना थी, आज विश्वव्यापी परिघटना बन चुकी है। मार्क्स, एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र लिखते समय ही पूँजीवाद के जिस परिवर्तनक्रम को देख लिया था वह आज हकीकत बन चुका है। पूँजीवाद ने अब ‘हर जगह घोंसले’ (कम्युनिस्ट घोषणापत्र) बना लिए हैं और हर जगह बसेरा’ कर लिया है और ‘हर जगह सम्बन्ध’ स्थापित कर लिए हैं। तमाम परिवर्तनों के बावजूद हर जगह यह पूँजीवादी व्यवस्था ही है। मार्क्सवाद का ‘प्रकाश स्तम्भ’ न केवल इन परिवर्तनों को समझने में हमारी मदद कर रहा है, बल्कि एकमात्र यही अकेला ऐसा प्रकाश स्तम्भ है।

जो “परिवर्तन” सुमन्त बनर्जी के लिए अबूझ पहेली बने हुए हैं, और जिनकी व्याख्या के लिहाज़ से उन्हें मार्क्सवाद अधूरा लगता है उन्हें वह इस प्रकार व्यक्त करते हैं, “समाज के वंचित और अदृश्य हिस्सों की अब तक नज़रान्दाज की गईं शिकायतें (मसलन आदिवासियों, नस्ली, सांस्कृतिक व भाषाई अल्पसंख्यकों, और स्त्रियों के विशेष अधिकार सम्बन्धी) और सामाजिक व राजनीतिक माँगें अब प्रतिरोध की लपट बन फूट रहे हैं। ये लपट उस व्यापक अँधेरे के उपेक्षित कोनों पर रोशनी डाल रहे हैं जो मार्क्सवादी प्रकाश स्तम्भ के दायरे के बाहर मौजूद हैं।” ‘मार्क्स और मार्क्स के बाद की राजनीति’ की चर्चा करते हुए वह कहता है कि नवउदारवादी वैश्विक व्यवस्था में विकसित नई तकनोलॉजी ने जो परिवर्तन किये हैं उसने एक तरफ तो औद्योगिक मज़दूर वर्ग की संरचना बदल दी है वहीं दूसरी तरफ ‘दबे कुचले समुदायों और हिस्सों’ की अधिकार-चेतना को बढ़ाने का काम किया है। उसका कहना है मार्क्स के क्रान्तिकारी मॉडल की पूर्वशर्तों में से एक था ‘पश्चिम के समकालीन विकसित पूँजीवादी राज्यों के औद्योगिक सर्वहारा का लाज़िमी तौर पर नेतृत्व’। ‘मार्क्स के क्रान्ति के मॉडल’ की अन्य ‘पूर्वशर्तों’ की चर्चा करते हुए वह आगे कहता है कि गुज़री सदी के दौरान मार्क्सवादी मॉडल की इन शर्तों को यूरोप व अन्य जगहों पर चुनौतियों का सामना करना पड़ा है।

यहाँ लेखक के हमले का निशाना है सामाजिक परिवर्तन (या समाजवाद के संघर्ष) में औद्योगिक सर्वहारा की नेतृत्वकारी भू‍मिका। अब से लगभग डेढ़ दशक पहले अरविन्द के नेतृत्व वाली भारत की कम्युनिस्ट लीग (माले) यही थीसिस लेकर आई थी। उसका कहना था कि अब ‘क्रान्ति’ में औद्योगिक मज़दूर वर्ग का नेतृत्व और वर्ग संघर्षों की जरूरत नहीं रह गई है अथवा यह सम्भव नहीं है। अब क्रान्ति ‘नये सामाजिक आन्दोलनों’ (पर्यावरण, जाति, लिंग आदि के मुद्दों पर संघर्ष) के जरिए सम्पन्न होगी। आज इस धड़े का हश्र हमारे सामने है। इन्होंने मज़दूर आन्दोलन से दूरी तो बना ही ली थी, ‘नये सामाजिक आन्दोलनों’ में भी वे कहीं नज़र नहीं आए। आज ये गैर सरकारी संगठनों का संचालन करते हुए व्यवस्था के पक्ष में जा खड़े हुए हैं। सुमन्त बनर्जी आज डेढ़ दशक बाद उन्हीं बातों को दोहरा रहे हैं और इस चोरी के माल को मौलिक चिन्तन बनाकर परोस रहे हैं।

पूँजीवादी व्यवस्था के ध्वंस और समाजवाद के निर्माण में औद्योगिक सर्वहारा की नेतृत्वकारी भूमिका को ख़ारिज करना, मज़दूर आन्दोलन के इतिहास में कोई नई बात नहीं है। अपने जन्म और विकास के विभिन्न पड़ावों के दौरान वैज्ञानिक समाजवाद तीखे विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्षों का केन्द्र रहा है। इस संघर्ष का केन्द्रीय बिन्दु सर्वहारा का क्रान्तिकारी और मुक्तिदायी मिशन रहा है और एक नेतृत्वकारी क्रान्तिकारी सामाजिक ताकत के तौर पर इसके उभार और सरंचना की वैज्ञानिक समझ मार्क्सवाद की कुंजीभूत प्रस्थापना रही है। मार्क्सवाद के विरोधियों द्वारा लगातार इस पर हमले होते रहे हैं। बुर्जुआ इतिहासकारों के विभिन्न रूझानों के लेखन का, भले ही वे रूढ़िवादी (conservative) हों या रैडीकल,यह एक मुख्य थीम रहा है, और आज भी है। सुधारवादी, अराजकतावादी, अतिवामपन्थी, निम्न-बुर्जुआ समाजवादी आदि सभी तरह के लोग इन हमलों में शामिल रहे हैं। बुर्जुआ इतिहासकारों के विभिन्न स्कूल जैसे कि सामाजिक अधिकार स्कूल (Social Right School) का इतिहास लेखन, संस्थावाद (Institutionalism) के विचारक (थर्स्टीन वेब्लेन), व्यावसायिक इतिहासकार, नवउदारवादी और मैनेज़रिज़म स्कूल (जोसेफ शुम्पीटर) आदि नियमतः बुर्जुआज़ी या गाँव अथवा शहर के निम्न-बुर्जुआ तबकों को या अन्त में ‘टेक्नोक्रेसी’ को विश्व इतिहास की सामाजिक चालक शक्ति घोषित करते रहे हैं। निम्न बुर्जुआ समाजवादियों और अराजकतावादियों ने निम्न बुर्जुआ व लम्पट सर्वहारा को समाज की चालक शक्ति घोषित किया। इसे निम्न बुर्जुआ समाजवादी प्रूधों और अराजकतावाद के संस्थापक बाकूनिन की रचनाओं में देखा जा सकता है।

कुछ का यह कहना है कि पूँजीवाद के बारे में मार्क्स का विश्लेषण 19वीं सदी के लिए तो प्रासंगिक था लेकिन 20वीं सदी में पूँजीवाद बुनियादी तौर पर बदल गया है। इसलिए अब न तो मार्क्सवाद ही प्रासंगिक रह गया है, न सर्वहारा रह गया है और न ही अब उसकी मुक्ति का प्रश्न। आस्ट्रीयाई सामाजिक जनवाद के मशहूर सिद्धान्तकार कार्ल रेनन ऐसा ही कहते हैं, “मैं कार्ल मार्क्स की पूँजी दुबारा पढ़ रहा हूँ। लेकिन पाठ के हाशिये पर मुझे यह लिखना पढ़ रहा है कि चीजें अब कितनी भिन्न हो चुकी हैं।”(1) जर्मन दार्शनिक एच. शॉक (H.Shock) अपनी पुस्तक ‘मार्क्सवाद-लेनिनवाद का संशोधित संस्करण ’ (Revision of Marxism-Leninism) में लिखता हैः ‘मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन द्वारा चित्रित बहादुर सर्वहारा अब नहीं रहा। नतीजतन, समूची मानवता के पक्ष में सर्वहारा की मुक्ति का प्रश्न भी नहीं रहा।” अब इन पुरानी बातों को नये सिरे से दोहराने वालों की कमी नहीं है। तकनीकी विकास, स्वचालन (ऑटोमेशन) के बढ़ने आदि से सर्वहारा के विलोपित होने का शोर फिज़ा में काफ़ी अधिक है। सुमन्त बनर्जी तकनीकी विकास के चलते ‘सर्वहारा की सरंचना बदलने’ के बहाना लेकर आबादी के गैर-सर्वहारा हिस्सों की राजनीतिक सक्रियता पर ज़ोर देते हैं। प्रस्तुत पुस्तक में अरुन्धति राय भी यही बात कहती है, “जब मार्क्स सर्वहारा की बात करता है, तो सर्वहारा से उसका अभिप्राय मज़दूर वर्ग से है। अधिकतर जगहों पर मज़दूरों की तादाद घटाने की पूरी कोशिश की जा रही है अब वहाँ रॉबोट व उच्च तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। क्लासिकीय मायनों में श्रमिकों की तादाद भी अब वह नहीं जो हुआ करती है ।” (पन्ना नं.42) यह कलासिकीय मायने क्या हैं? इसके अन्तर्गत मजदूरों की तादाद कितनी होती थी? और अब यह कितनी कम हो गई है? लेखिका इन प्रश्नों का जबाव देना ज़रूरी नहीं समझतीं। ऐसे बुद्धिजीवी अपने मुँह से निकले शब्दों को ‘गुरू की वाणी’ समझते हैं। जिन्हें सुनते ही जनता निहाल हो जाएगी और कोई प्रश्न नहीं उठायेगी। पंजाब में तो काफ़ी लोग लेखिका के वचनों पर भक्तिभाव रखते भी हैं। उनके लिए अरुन्धति राय मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ से भी बड़ी विद्वान हैं। ये लोग अब “मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी” नहीं रह गये बल्कि अरुन्धतिवादी हो गये हैं। अरुन्धति राय अपने कहे को किसी भी तार्किक नतीजे तक नहीं पहुँचाती। वे यह नहीं बताती कि अगर मज़दूर वर्ग की जगह रोबोट ले रहे हैं तो विश्व इतिहास की अब सामाजिक चालक शक्ति कौन सी है? शायद आदिवासी हैं! जो भारत के जंगलों में हथियारबन्द लड़ाई लड़ रहे हैं। जहाँ अरुन्धति राय जैसे बुद्धिजीवी कभी-कभार तीर्थ यात्रा कर आते हैं। और लौटकर कुछ जज़बाती लेखों के ज़रिये वे जनमुक्ति की झूठी उम्मीदें जगाने के अपने कर्तव्य पूरा करते रहते हैं।

दरअसल पूँजीवादी व्यवस्था में गैर-सर्वहारा निम्न बुर्जुआ का एक हिस्सा लगातार मज़दूरों में रूपान्तरित होता रहता है। पूँजीवादी विकास इनके नाममात्र के उत्पादन के साधन लगातार छीनता रहता है। मेहनतकश जनता के इन हिस्सों का भी इस कारण बुर्जुआ राज्यसत्ता के साथ टकराव बना रहता है। विभिन्न रूपों में इनकी सत्ता के साथ संघर्ष चलता रहता है। लेकिन पूँजीवादी उत्पादन में इन्हें कोई महत्वपूर्ण जगह नहीं मिली होती। दूसरे, इनकी नाममात्र की सम्पत्ति इन्हें आपस में बाँटकर रखती है। तीसरे, यह हिस्सा अक्सर पिछड़े उत्पादन में लगा हाता है। इसलिए इनके संघर्ष या उभार स्थाई नहीं होते और अपने बूते ये बुर्जुआ राज्यसत्ता का कुछ भी बिगाड़ पाने में अक्षम होते हैं।

दूसरी ओर मज़दूर वर्ग, खास तौर पर औद्योगिक मज़दूर वर्ग पूँजीवादी उत्पादन में सबसे अहम स्थान रखता है। पूँजीवादी समाज में लगभग सारी भौतिक दौलत इसके हाथों ही सृजित होती है। पूँजीवादी उत्पादन इसे बड़े औद्योगिक केन्द्रों में इकठ्ठा करता है और बहुत सारे दृश्य व अदृश्य कड़ियों के ज़रिए इसे न सिर्फ़ राष्ट्रीय पैमाने बल्कि अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर भी जोड़ता है। इस वर्ग के संघर्ष पूँजीवादी ढाँचे पर घातक चोट करते हैं। मार्क्स, एंगेल्स ने कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा था कि “सर्वहारा एकमात्र वास्तविक क्रान्तिकारी वर्ग है।” पूँजीवादी समाज के निम्न बुर्जुआ हिस्सों का अस्तित्व लगातार ख़तरे में रहता है और ख़त्म होता रहता है। इसलिए ये हिस्से इतिहास की चालक शक्ति नहीं बन सकते। सिर्फ़ मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में ही इनका संघर्ष क्रान्तिकारी भूमिका निभा सकता है।

सुमन्त बनर्जी और अरुन्धति राय जैसे लोग इस व्याख्या पर चीख-पुकार मचाने लगेंगे। वे कहेंगे कि अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं और कदाचित वे हम पर कठमुल्ला (डॉग्‍मेटिक) होने का ठप्पा भी जड़ दें। यह उनकी अपनी कोई मौलिक सोच नहीं, सर्वहारा के विलोपित होने की थीसिस कर प्रतिपादन आज दुनिया भर के इस नमूने के तथाकथित सिद्धान्तकार कर रहे हैं। इन मूर्ख सिद्धान्तकारों को पहले यह जान लेना चाहिए कि सर्वहारा वर्ग के महान नेताओं, मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और न ही माओ ने कभी यह कहा कि औद्योगिक सर्वहारा पूँजीवादी समाज का बहुसंख्यक होता है। यह न तो मार्क्स के समय में था और न ही आज है। मार्क्स के समय यूरोप के कई देशों में अभी पूँजीवादी विकास जारी था। और सामन्ती अवशेषों को साफ़ करने का कार्यभार पूरा कर रहा था। तब यूरोपीय समाजों की बहुसंख्यक आबादी कृषि में लगी हुई थी। पूँजीवादी विकास के आगे डग भरने के साथ कृषि में लगी आबादी निरपेक्ष रूप से सिकुड़ती गई और औद्योगिक व सेवा क्षेत्र की आबादी में इज़ाफ़ा होता गया। पिछड़े क्षेत्रों में यह वृद्धि और भी तेज़ रही। आज नेपाल, भूटान जैसे बेहद पिछड़े देशों को छोड़ दिया जाये तो अपेक्षाकृत पिछड़ी अर्थव्यवस्था वाले अधिकांश देशों की कमोबेश यही तस्वीर है। विकसित पूँजीवादी देशों में औद्योगिक मज़दूरों की संख्या में निश्चय ही गिरावट आई है। इसकी मुख्य वजह यह है कि सस्ते कच्चे माल व सस्ती श्रम शक्ति की लूट के लिए पूँजी यहाँ से निकलकर तीसरी दुनिया के देशों की ओर चली गई है। तीसरी दुनिया के इन देशों में औद्योगिक सर्वहारा की संख्या में तेज़ी के साथ वृद्धि हुई है। आज तीसरी दुनिया के देशों में औद्यागिक महानगर अस्तित्व में आ रहे हैं, जहाँ करोड़ों-करोड़ औद्योगिक मज़दूरों का महासागर देखा जा सकता है। गन्दी और बदहाल बस्तियों में भीषण जीवन परिस्थितियों के बीच रहते उनके जीवन में आज भी 19वीं सदी के यूरोपीय साहित्य में चित्रित मज़दूरों के नारकीय जीवन का अक्स दिखाई पड़ता है। परन्तु अपने ही पाण्डित्य से चौंधियाये इन सिद्धान्तकारों को औद्योगिक सर्वहारा कहीं नज़र नहीं आता। इनकी समस्या यह है कि वे किसी एक-आध यूरोपीय देश की हक़ीकत का सामान्यीकरण कर पूरे विश्व पर थोप देते हैं। वे अंश को सम्पूर्ण बना देते हैं। सच्चाई यही है कि आज भी विश्व इतिहास की चालक शक्ति मज़दूर वर्ग ही है। यह मार्क्स के समय में जितना सच था उतना ही सच आज भी है। पूँजीवादी विकास के साथ जैसे-जैसे पूरी दुनिया में निम्न बुर्जुआ का एक हिस्सा उजड़कर सर्वहारा की कतारों में शामिल होता जा रहा है, यह सच और भी अधिक स्पष्ट हो कर सामने आता जा रहा है।

2.कम्युनिस्ट पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करने की साज़िश

सुमन्त बनर्जी न सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा में तोड़-फोड़ करता है बल्कि 20वीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों पर कीचड़ उछालने का काम भी करता है। वह कहता है कि मध्यवर्ग बुद्धिजीवियों का बड़ा हिस्सा भ्रष्ट हो चुका है और सामाजिक दायरे व बौद्धिक जगत में प्रतिष्ठित मध्यवर्ग के इस ‘पेशेवर तबके’ को सहयोजित कर लेने की पूँजीवादी विश्व व्यवस्था की ताकत ने अब मार्क्सवादी आन्दोलन से मध्यवर्ग के इन चेतस बुद्धिजीवियों को ही छीन लिया है। इसलिए ‘समाजवादी रूपान्तरण के लिए मधयवर्गीय बुद्धिजीवियों की एक “हिरावल दस्ते” के तौर पर (लेनिनवादी भावना के साथ) काम करने की न तो योग्यता रही और न ही ही कोई आकांक्षा।

लेनिन ने मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी को कहीं भी समाजवादी रूपान्तरण का हिरावल दस्ता नहीं कहा है। उन्होंने मज़दूर वर्ग की पार्टी को हिरावल दस्ता कहा था जिसकी बहुसंख्या वर्ग-सचेत मज़दूरों की होती है। लेनिन ने तो यहाँ तक कहा था कि इस हिरावल दस्ते (कम्युनिस्ट पार्टी) में जहाँ एक बुद्धिजीवी हो वहीं आठ मज़दूर होने चाहिए और बाद में उन्होंने इसे संशोधित कर कहा कि एक बुद्धिजीवी पर सैंकड़ों मज़दूर होने चाहिए।

सुमन्त बनर्जी का एक और प्रचण्ड झूठ: वह कहता है कि “रूस में, शहरी मध्यवर्ग का बुद्धिजीवी तबका बोल्शेविक क्रान्ति का नेतृत्वकारी शक्ति बना”, ऐसा ही सफद झूठ वह चीनी क्रान्ति के बारे में बोलता है। सच तो यह है कि रूसी समाजवादी क्रान्ति का नेतृत्व वहाँ के औद्योगिक मज़दूर वर्ग ने किया था और हिरावल दस्ते के रूप में इस मज़दूर वर्ग का नेतृत्व बोल्शेविक पार्टी कर रही थी, जिसकी बहुसंख्या वर्ग-सचेत मज़दूरों की थी। यही बात चीनी क्रान्ति के बारे में भी सच है। जहाँ तक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का प्रश्न है, वे भी इन क्रान्तियों में शामिल थे लेकिन मज़दूरों के मुकाबले इनकी संख्या काफ़ी कम थी। इन बुद्धिजीवियों से कइयों ने अपने वर्ग से नाता तोड़़कर पूरी तरह अपनी नियति मज़दूर वर्ग के साथ जोड़ ली थी। समाजवादी मज़दूर आन्दोलन के पूरे इतिहास में मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा हमेशा ही आन्दोलन में शामिल होता रहा है और आज भी हो रहा है।

सुमन्त बनर्जी ने समूचे मध्य वर्ग को भ्रष्ट घोषित कर दिया है। वह इतनी सीधी-सरल-सी सच्चाई भी नहीं समझता कि पूँजीवादी व्यवस्था में अपनी स्थिति के चलते मध्यवर्ग के बड़े हिस्से को भ्रष्ट होने का अवसर ही मुहैया नहीं हो सकता। मध्य वर्ग का नीचे का हिस्सा हमेशा पूँजीवादी व्यवस्था से उत्पीड़ित रहता है और इस आबादी से बड़ी संख्या में नौजवान, मज़दूर आन्दोलन के साथ जुड़ते रहते हैं। मध्य वर्ग के ऊपरी हिस्से को ज़रूर पूँजीपति वर्ग ने भ्रष्ट कर दिया है। लेकिन यहाँ से भी लगातार कुछ बुद्धिजीवी सर्वहारा पार्टी की कतारों में शामिल होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं भले ही इनकी संख्या काफ़ी कम होती है।

बीसवीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों के पहले चक्र के पराजय के बाद जब विश्व मजदूर आन्दोलन अभूतपूर्व विपर्यय के अंधेरे दौर से गुज़र रहा है और जर्जर, मरणासन्न पूँजीवाद अपने अस्तित्व की अन्तिम लड़ाई में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ज़रिये नौजवानों और मेहनतकशों पर विचारधारात्मक और सांस्कृतिक हमला कर रहा है तब दुनिया भर के कम्युनिस्ट संगठन ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मजदूर आन्दोलन को नेतृत्व देने और बदली परिस्थितियों में नई राह खोजने में लगे हुए हैं। परन्तु सुमन्त बनर्जी को उनके नेतृत्व में बौद्धिक क्षमता की कमी नज़र आती है (जैसे सिर्फ़ इसी कमी के कारण आज क्रान्तियाँ सम्पन्न नहीं हो रही)। सारी बुद्धि का ठेका तो सुमन्त बनर्जी के पास है। जिसका डंका वह आये दिन पीटते ही रहते हैं और इस काम से फारिग होकर वह अपने हाथी दांत की मीनार में जा बैठते हैं और दुनिया के सबसे सरलतम कामों में स्वयं को व्यस्त कर लेते हैं। यानी समाज के क्रान्तिकारी बदलाव के संघर्ष में लोगों में ग़लतियाँ निकालना और इस संघर्ष से एक सुरक्षित दूरी बनाकर उन्हें सलाह देते रहना। यह देखा गया है कि सक्रिय क्रान्तिकारी राजनीति से रिटायर होने के बाद अकसर लोग इस घिनौने धन्धे में व्यस्त हो जाते हैं।

सुमन्त बनर्जी एक तरफ़ तो इस बात से चिंतित और परेशान हैं कि ‘भ्रष्ट हो चुके’ मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी अब कम्युनिस्ट पार्टी में नहीं आ रहे जिससे पार्टी में नई स्पिरिट पैदा हो सके और दूसरी ओर वह कम्युनिस्ट पार्टी पर ही 20वीं सदी की समाजवादी क्रान्तियों के पराजय का ठीकरा फोड़ते हैं। वह कहते हैं कि “पहले सोवियत संघ और फिर चीन में… पार्टी अधिपत्य ने आखिरकार कम्युनिस्ट आन्दोलन का नौकरशाहीकरण कर दिया।” यहाँ वह हार के कारणों का अतिसरलीकरण कर देता है। पार्टी अधिपत्य को हार की वजह बताना अपने आप में यह स्पष्ट कर देता है कि उतार-चढ़ाव से भरे समाजवादी संक्रमण और सतत् क्रान्ति के बारे में स्वयं सुमन्त बनर्जी की समझ कितनी भोथरी है। समाजवादी प्रयोगों की असफलता के कई वस्तुगत (क्रान्तियों और समाजवादी निर्माण का काम बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में सम्पन्न होना ) और आत्मगत (सोवियत संघ में स्तालिन व चीन में माओ से हुई ग़लतियाँ) कारण थे, जिन्हें समझे बिना न तो 20वीं सदी की समाजवादी क्रान्तियों की पराजय को समझा जा सकता है और न ही भविष्य में समाजवादी निर्माण के पथप्रदर्शक सिद्धान्त को विकसित ही किया जा सकता है (इसकी विस्तृत चर्चा अन्यत्र हो चुकी है लिहाजा यहाँ विस्तार में जाना गैर-ज़रूरी होगा )।(2)

सुमन्त बनर्जी के लिए 20वीं सदी की समाजवादी क्रान्ति के उत्तरवर्त्ती समाज में एक ही पार्टी के अधिपत्य का अनुभव ‘त्रसदपूर्ण’ था। लेकिन एक पार्टी सिद्धान्त का वह कोई विकल्प नहीं बताता। क्या वहाँ कई पार्टियों की ‘हेजेमनी’ होनी चाहिए थी? 20वीं सदी के समाजवादी निर्माण के प्रयोगों ने यह स्पष्तः दिखाया है कि सर्वहारा जनवाद का स्वरूप बहुपार्टी नहीं हो सकता, जिन्होंने भी इस सबक को भुला दिया है, या इसकी अनदेखी की है वे संशोधनवाद की दलदल में जा धँसे हैं। इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है प्रचण्ड के नेतृत्व वाली नेकपा (माओवादी), जिसे अब एनेकपा (माओवादी) के नाम से जाना जाता है।

  1. 3. क्रान्ति के दो रास्ते बनाम क्रान्ति के सभी बन्द होते रास्तों का प्रश्न

सुमन्त बनर्जी हमें अपने ज्ञान से समृद्ध करते हैं। वह बताते हैं कि क्रान्ति के “दो रास्ते” होते हैं। एक है संसदीय रास्ता और दूसरा हथियारबन्द संघर्ष का रास्ता। फिर वह कहते हैं कि इन दोनों ही रास्तों से क्रान्ति की कोशिशें सफल नहीं हुईं और वह कोई तीसरा रास्ता हमें बताते नहीं। यहाँ पाठक को भूलभुलैया में चक्कर काटता छोड़कर वह आगे बढ़ जाते हैं।

इसके उपरान्त संसदीय रास्ते की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए वह फ्रेडरिक एंगेल्स को बतौर वकील पेश करते हैं। इसके लिए वह बड़ी चालाकी के साथ मार्क्स की पुस्तक ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-1850’ की एंगेल्स द्वारा लिखी भूमिका से हवाला देते हैं। एंगेल्स द्वारा लिखी इस भूमिका को जर्मन सामाजिक जनवाद के अवसरवादी रुझान द्वारा भी तोड़ा-मरोड़ा गया था। मार्च 1895 में विल्हेल्म लीबनेख़्त ने इस भूमिका से कुछ अंश लेकर अपनी मर्ज़ी से पार्टी के केन्द्रीय मुखपत्र फोरवॉर्ट्स (Vorworts) में प्रकाशित किया था। इस संदर्भ में 3 अप्रैल 1895 के पाल लफ़ार्ग को लिखे अपने ख़त में एंगेल्स ने कहा था कि लीबनेख़्त ने वह सबकुछ ले लिया “जो हर क़ीमत पर शांति के रणकौशल की हिफ़ाजत करने और ताकत के प्रति नफ़रत दिखाने के लिए उसकी सेवा कर सकता हो”।(3) 1 अप्रैल 1895 को एंगेल्स ने काउत्स्की को लिखा, “आज मैंने ‘फोरवॉर्ट्स’ में अपनी भूमिका का एक हिस्सा देखा जिस मेरी जानकारी के बिना छापा गया है और इसकी इस ढंग से काँट-छाँट की गई है कि मैं हर क़ीमत पर कानूनियत का पूजक नज़र आऊँ।”(4)

मार्क्स ने एक जगह लिखा था कि इतिहास खुद को दोहराता है पर हू-ब-हू नहीं, पहली बार त्रसदी के रूप में और दूसरी बार प्रहसन के रूप में। लेकिन सुमन्त बनर्जी ने यहाँ अवश्य ही मार्क्स को गलत सिद्ध कर दिया है। एंगेल्स को शांतिवादी, कानूनवादी सिद्ध करने के लिए वह उनकी बातों को तोड़-मरोड़कर रखने में जर्मन सामाजिक जनवाद के अवसरवादी रुझान का इतिहास हू-ब-हू दोहराता नज़र आता है।

एंगेल्स ने अपनी भूमिका में लिखा था कि सार्विक मताधिकार ने मज़दूर वर्ग को संघर्ष का नया तरीका दिया है वह हमारे प्रचार का सर्वश्रेष्ठ साधन बन गया। इस मताधिकार ने हमें स्वयं अपनी शक्ति के बारे में और सभी विरोधी पार्टियों की शक्ति के बारे में सही सूचना दी और इस प्रकार हमारी कार्रवाइयों में सन्तुलन पैदा करने में मदद की है। वह कहते हैं कि चुनाव प्रचार के ज़रिये इसने हमें लोगों के सम्पर्क में रहने, और अपने विचारों और कार्यक्रम के प्रचार के लिए संसद के मंच का इस्तेमाल करने का अवसर प्रदान किया है। वह कहीं भी यह नहीं कहते कि संसदीय संघर्ष के जरिए समाजवाद आ जाएगा। वह कहते हैं कि अब 1848 की तरह की बगावतें और सड़कों पर मोर्चे बाँधकर लड़ाइयों का रूप बहुत हद तक अप्रासंगिक हो चुका है। इसके लिए वह सैन्य संख्या में वृद्धि, आधुनिक हथियारों, परिवहन के विकसित साधनों, मध्य वर्ग (1848 में बुर्जआजी) के मज़दूरों के पक्ष में न आने, शहरों की सरंचना में परिवर्तन आदि बदलावों का ज़िक्र करते हैं। लेकिन वह कहीं भी यह नहीं कहते कि अब शान्तिपूर्वक क्रान्ति हो जाएगी। वह कहते हैं, “क्‍या इसका मतलब यह है कि भविष्य में सड़कों की लड़ाई की कोई भूमिका नहीं रह जायेगी? नहीं, निश्चय ही नहीं!” इसका मतलब केवल यह है कि 1848 के बाद से संघर्षरत जनता के लिए परिस्थितियाँ कहीं अधिक प्रतिकूल और सेना के लिए कहीं अधिक अनुकूल हो गई हैं।

सुमन्त बनर्जी क्रान्ति के “दो रास्तों” की बात करते हैं (हालांकि वह दोनों रास्ते बन्द भी कर देते हैं) लेकिन विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन की यह सर्वस्वीकृत समझ है कि क्रान्ति का रास्ता एक ही है। वह है हिंसक क्रान्ति का रास्ता। संघर्ष के संसदीय रूप को कम्युनिस्ट रणकौशल की तरह इस्तेमाल करते हैं। यह उनके लिए रणनीति का प्रश्न होता ही नहीं है।

हमने सुमन्त बनर्जी द्वारा उठाए गए उन्हीं प्रश्नों को लिया है और उन पर अपना पक्ष रखा है जो मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं के बारे में भ्रम फैलाते हैं। उसका लेख तमाम तरह की ऊट-पटाँग बातों से भरा हुआ है। ज़ाहिरा तौर पर इन सब पर चर्चा करना हम अपनी ऊर्जा और समय का अपव्यय मानते हैं।

सुभाष गाताड़े का अम्बेडकरवाद

प्रस्तुत पुस्तक में एक अन्य वृहत्तर, निबन्धमार्का लेख मार्क्सवादी से अम्बेडकरवादी बने सुभाष गाताड़े का है। गाताड़े ने अपने इस लेख में जाति उन्मूलन के प्रति अतीत में भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन का रुख़, दलित मुक्ति की अम्बेडकरवादी धारा के प्रति कम्युनिस्टों का रवैया, अम्बेडकर का मार्क्सवाद, और उनका भारत के कम्युनिस्टों और उपनिवेशवाद के प्रति दृष्टिकोण आदि मुद्दों को समेटा है। ग़ौरतलब है कि इन सभी मुद्दों पर गाताड़े को कम्युनिस्टों में सिर्फ़ गड़बड़ियाँ ही नज़र आती हैं जबकि अम्बेडकर की वह किसी आलोचनात्मक विवेक के बगैर हर हाल में हिफ़ाजत करने पर आमादा नज़र आते हैं। इन सभी प्रश्नों पर हम पहले भी काफ़ी विस्तार में लिख चुके हैं।(5) इसलिए यहाँ हम संक्षेप में ही अपनी बात रखेंगे।

सुभाष गाताड़े ने यह साबित करने में एड़ी चोटी का ज़ोर लगा दिया है कि भारत के कम्युनिस्टों ने अपने पूरे इतिहास में (और ख़ासकर औपनिवेशिक दौर में) किस प्रकार यहाँ जाति प्रश्न की अनदेखी की है। इसके लिए उन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेजों से काफ़ी उद्धरण भी दिए हैं। लेकिन भारत के कम्युनिस्टों ने इस देश के हर कोने में जातिवाद के खिलाफ़ व्यवहारिक धरातल पर उतरकर जो लड़ाई लड़ी है उसके बारे में उन्होंने ने पूरी तरह चुप्पी साध रखी है। औपनिवेशिक दौर में जाति प्रश्न को हल करने के प्रति भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की पहुँच में जो समस्याएँ रहीं और व्यवहारिक धरातल पर पार्टी ने इस मसले पर जो रुख़ अपनाया, उसके बारे में हम यहां संक्षिप्त चर्चा करेंगे।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना 1925 में हुई थी और 1933 में इसने अपने नेतृत्वकारी केन्द्र (केन्द्रीय समिति) का गठन किया। इस दौर में पार्टी ने मज़दूरों, किसानों के गौरवशाली ऐतिहासिक संघर्षों का नेतृत्व किया। हर तरह के शोषण और उत्पीड़न से मेहनतकशों की मुक्ति के संघर्ष में कम्युनिस्टों ने साहस व त्याग के नये कीर्तिमान स्थापित किए। भारत में जाति-आधारित दमन-उत्पीड़न के विरुद्ध भी कम्युनिस्टों ने अनेकशः लड़ाइयाँ लड़ीं परन्तु भारतीय समाज की इस विशिष्टता को समुचित रूप में समझने, इसके खात्मे के लिए एक कारगर रणनीति बनाने और एक विशेष कार्य के रूप में इसे हाथ में लेकर इसके विरुद्ध संघर्ष छेड़ने में वे असफ़ल रहे। हालांकि बिल्कुल शुरू में ही पार्टी ने भारत में जातिवाद और छुआ-छूत की समस्या को पहचान लिया था।

यह सच है कि कम्युनिस्ट पार्टी ने जाति उन्मूलन के सवाल को अपने दस्तावेजों में शामिल करने और अपने जनसंगठनों द्वारा जातिवाद की समस्या पर कुछ प्रस्ताव पारित करने से आगे बढ़कर, कभी भी इसे एक व्यापक आन्दोलन का मुद्दा नहीं बनाया। इस बात को भी बेझिझक स्वीकार किया जाना चाहिए कि भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में दलित प्रश्न, स्त्री प्रश्न और अन्य अधिरचना के प्रश्नों को देखने का एक वर्ग अपचयनवादी भटकाव पार्टी में मौजूद रहा है। यह भी एक तरह का वर्ग अपचयनवाद ही है कि आर्थिक प्रश्नों पर तो सोचा गया, इससे थोड़ा आगे बढ़े तो राजनीतिक अधिरचना के बारे में भी सोच लिया जैसेकि राजनीतिक वर्ग संघर्ष का स्वरूप क्या होगा, वर्गों की लामबन्दी किस प्रकार होगी। लेकिन वर्ग संघर्ष की जो सामाजिक सांस्कृतिक तैयारी का प्रश्न है, संघर्ष का जो सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र (Arena) है, उसके बारे में पार्टी ने कभी नहीं सोचा। इसकी मुख्य वजह यह है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अपने जन्म से ही विचारधारात्मक तौर पर काफ़ी कमज़ोर रही है। इस विचारधारात्मक कमज़ोरी की भी एक वजह है, वह है भारत का औपनिवेशिकीकरण, एक औपनिवेशिक सामाजिक ढाँचे में निर्मित पार्टी ऐसी ही हो सकती थी। लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है। जैसे कि हमने ऊपर की पंक्तियों में उल्लेख किया है पार्टी 1925 में अपनी स्थापना के आठ वर्ष बाद भी अपने नेतृत्वकारी केन्द्र का गठन नहीं कर सकी थी। उस समय भारत एक अर्द्धसामन्ती-औपनिवेशिक देश था जो नवजनवादी क्रान्ति की मंजिल में था, लेकिन पार्टी के पास क्रान्ति का कोई कार्यक्रम तक न था। और न ही नवजनवादी क्रान्ति की मंजिल में होते हुए भी इसके पास अलग से कोई कृषि कार्यक्रम ही था। ऐसी हालत में इससे कैसे उम्मीद की जा सकती थी कि वह पूरे विश्व की सबसे जटिल परिघटनाओं में से एक जातिवाद की परिघटना को समझे और उसके बारे में एक दस्तावेज़ पेश करे? दूसरे, यह पार्टी अन्य देशों की बड़ी बिरादर पार्टियों ख़ासकर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी पर विचारधारात्मक तौर पर निर्भर रही। ज़ाहिर है अपने देश की सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों का इसका विश्लेषण भी बहुत सतही ही था। स्थिति यह थी कि पार्टी कम्युनिस्ट इण्टरनेश्नल की नीतियों और मार्क्सवादी सिद्धान्तकार के रूप में ख्यात रजनीपाम दत्त के ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल और ‘इम्प्रेकोर’ (दुनिया भर के क्रान्तिकारियों को एक दूसरे के विचारों और दस्तावेजों से परिचित कराने और समझ बनाने के उद्देश्य से ‘थर्ड इण्टरनेशनल’ द्वारा स्थापित मार्क्सवादी पत्रिका जो 1938 में बन्द हो गई) में छपे निबन्धों के आधार पर अपनी रणनीति एवं आम रणकौशल तय करती थी। जातिवाद जैसी बेहद जटिल परिघटना को समझ पाने और इसके उन्मूलन की कोई रणनीति निरूपित़ कर पाने में कम्युनिस्ट पार्टी की अक्षमता को उसकी इसी विचारधारात्मक कमज़ोरी के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए। समस्या को समझने का हमारा दृष्टिकोण वैज्ञानिक होना चाहिए, किसी को कोसने और ग़लतियाँ निकालने का नज़रिया हमें महज अहमन्नयतापूर्ण और अनुत्पादक बहस में उलझाये रखेगा।

भारत की जाति व्यवस्था नस्लीय या रंग आधरित भेदभाव से बिल्कुल भिन्न व अत्यन्त प्राचीन है। रंग और नस्लीय भेदभाव आधुनिक इतिहास की परिघटनाएँ हैं जबकि जाति व्यवस्था की मौजूदगी प्राचीन इतिहास काल की निरन्तरता में है। जब भारत में गुलामी का युग था, जब गणराज्यों का युग था उसी समय से जाति व्यवस्था अपना रूप बदलती हुई मौजूद रही है। समाज के वर्ग अन्तरविरोधों का टकराव कहीं तो जातिगत अन्तरविरोधों से होता रहा है और कहीं इनकी ओवरलैपिंग (Overlapping) भी होती रही है। जिसके चलते जाति का सवाल और भी अधिक जटिल हो जाता है। ज़ाहिर है इसे समझ पाना भारत जैसी विचारधारात्मक तौर पर एक अत्यंत कमज़ोर कम्पुनिस्ट पार्टी के लिए काफ़ी मुश्किल काम था। दलित समस्या को अगर हम एक सामाजिक समस्या, सामाजिक अधिरचना के साथ जुड़ी समस्या के रूप में लें तो यह सच है कि इस मामले में अनेक प्रश्नों की अनदेखी हुई है।

परन्तु यह अनदेखी कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारात्मक कमज़ोरी के कारण थी, लिहाज़ा पार्टी का ज़ोर आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर केन्द्रित वर्ग संघर्ष पर अधिक रहा और सामाजिक-सांस्कृतिक मुद्दों को न तो वह ठीक ढंग से समझ ही पाई और न ही इनके इर्द-गिर्द संघर्ष संगठित करने पर वह पूरा ज़ोर ही दे पाई। उस समय मोटे तौर पर कतारों तक में यह समझ पैठी हुई थी कि वर्ग संघर्ष जब आगे बढ़ेगा तो ऐसे सारे प्रश्न इस प्रक्रिया में हल हो जायेंगे। दूसरी यह धारणा भी उनके दिमाग में बैठी हुई थी कि कुछ मोटे-मोटे नारे देकर, मसलन, दो ही जातियाँ हैं एक अमीर और दूसरा ग़रीब, या कि जातिवाद के सारे फर्क भुलाकर सभी ग़रीब एक हो जाओ, कम्युनिस्ट आन्दोलन इस बात पर ध्यान नहीं दे पाया कि पूरे सामाजिक ताने-बाने में उसके एक-एक रेशे में, तमाम छोटी-छोटी सामाजिक संस्थाओं में जातिगत संस्कार घुले हुए हैं। उनके खिलाफ़ लगातार सांस्कृतिक क्रान्ति चलाए बिना, शासक वर्ग के विचारधारात्मक-सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़े बिना, जिसे बनाए रखने के लिए वह लोगों के बीच जड़ जमाए जातिगत संस्कारों का इस्तेमाल करता है, कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन विकास नहीं कर सकता। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कम्युनिस्टों ने इन प्रश्नों पर कुछ किया ही नहीं, जैसा कि तमाम तरह के दलितवादी इलज़ाम लगाते हैं। कम्युनिस्टों ने अपने सहज वर्ग बोध से हर तरह की सामाजिक-आर्थिक असमानता, लूट-दमन, और अन्याय के खिलाफ़ हर जगह लड़ाई लड़ी। उल्लेखनीय है कि कम्युनिस्टों के नेतृत्व में लड़े गए ऐतिहासिक तेलंगाना किसान संघर्ष की ज़मीन आंध्र महासभा ने तैयार की थी जिसमें कम्युनिस्ट प्रभावी हैसीयत में थे। इसने जातिवाद, स्त्रियों के दमन-उत्पीड़न, नशा व दहेज जैसी कुरीतियों के विरुद्ध छह-सात साल ज़बरदस्त सामाजिक आन्दोलन चलाया था। जिसके उपरांत तेलंगाना संघर्ष की ज़मीन तैयार हुई थी। तेलंगाना के महान संघर्ष के दौरान भी दलितों और स्त्रियों के दमन के खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द की गई थी और इस आन्दोलन ने दलितों और स्त्रियों पर होनेवाले दमन-उत्पीड़न को काफ़ी हद तक रोका। सामन्तों और उच्च जातियों के लिए किये जाने वाले वेटी (बेगार) को, जिसे मुख्यतः दलित ही करते थे, ख़त्म कर दिया गया। इसके प्रभाव से खेतिहर मज़दूरों (जो मुख्य रूप से दलित ही थे) की उजरत में वृद्धि हुई। सामन्तों की लाखों एकड़ की ज़मीन ग़रीब, भूमिहीन और मँझोले किसानों के बीच (जिनमें दलित भी शामिल थे) बाँट दी गई। स्त्रियों के ख़िलाफ ग़ैर-बराबरी और अन्याय तथा हर किस्म के भेदभाव और छुआछूत पर तेलंगाना के किसान विद्रोह ने जो ज़बरदस्त चोट की उसके बारे में सुन्दरैया लिखते हैं:

“इस संघर्ष में स्त्रियों ने पुरुषों के बराबर भागीदारी की थी, अतः समाज में युगों से प्रचलित इन विचारों के खिलाफ कि स्त्रियाँ, पुरुषों से कमतर होती हैं, अभियान चलाना आसान हो गया। राज्य ग्राम समितियों ने इस तरह के अभियान चलाये और यह घोषित किया कि स्त्रियों और मर्दों के अधिकार बराबर हैं। स्त्रियाँ ग्राम पंचायत समितियों में चुनी गईं… अनचाही शादियों पर (यानी लड़कियों को ऐसे व्यक्ति से शादी के लिए मज़बूर करना जिसे वे पसन्द नहीं करतीं) रोक लगाई गई और उचित मामलों में उनके लिए तलाक लेना साथ ही नये वैवाहिक जोड़े के लिए एक सम्मानजनक ज़िन्दगी बसर करना आसान बनाया गया।”

आगे वह छुआछूत के ख़ात्मे के बारे में लिखते हैं, “गाँवों में जाति-आधारित भेद-भाव काफ़ी गहरे थे। सरकार के विरुद्ध संघर्ष में जाति और धर्म के भेदभाव भुलाकर लोगों को जब एकजुट होकर एकबारगी लड़ना पड़ा, तो छुआछूत के खिलाफ लड़ना भी उसके बाद अपेक्षाकृत आसान हो गया। गिुरल्ला दस्तों में समानता और परस्पर सम्मान पर सख़्ती से अमल किया जाता था। इस व्यवहार ने लोगों की सोच को बदलने का काम किया।

ईश्वर, भूत-प्रेतों आदि में विश्वास बहुत हद तक टूट गए। खासकर नौजवानों में यह उल्लेखनीय हद तक समाप्त हो गए।”(6)

ऐसी ही गतिविधियाँ कम्युनिस्टों ने कई जगहों पर संचालित किया। पूर्वी उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्टों द्वारा संगठित संघर्ष की बदौलत आज़ादी के पहले ही गाँव के साझा कुओं से दलितों के पानी पीने पर रोक जैसी प्रथाएँ खत्म हो गई थीं। सुभाष गाताड़े जैसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि वे कम्युनिस्ट ही थे जिन्होंने जातिवाद की बेड़ियों के खिलाफ़ जबरदस्त संघर्ष चलाते हुए दलितों के बीच लगातार रहकर इस प्रकार काम किया कि वे चमार ही कहे जाने लगे।

इस प्रकार कम्युनिस्ट कतारें अनुभववादी ढंग से जगह-जगह काम तो करती रहीं, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने इसे सूत्रबद्ध नहीं किया। इन कामों को उन्होंने विचारधारात्मक आधार मुहैया नहीं कराया।

सुभाष गाताड़े का कहना है कि औपनिवेशिक भारत में उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष के दौर में कम्युनिस्ट आन्दोलन, और फूले व अम्बेडकर के आन्दोलन में एक रणनीतिक गठबन्धन की सम्भावना मौजूद थी। लेकिन डा. अम्बेडकर और जाति के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी की ग़लत पहुँच के चलते ऐसा सम्भव नहीं हो सका। यह सरासर ग़लतबयानी है। औपनिवेशिक भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन और अम्बेडकर के नेतृत्व वाले “आन्दोलन” में ऐसे किसी भी गठबन्धन की कोई सम्भावना नहीं थी। यह दोनों धाराएँ एक-दूसरे से विपरीत दिशाओं में बह रही थीं। कम्युनिस्ट पार्टी औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति की लड़ाई लड़ रही थी जबकि अम्बेडकर दलितों की रहनुमाई करते-करते उपनिवेशवाद के पक्ष में जा खड़े हुए थे।

राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन काल में देश के जात-पात व अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन के तीन बड़े नाम हैं: ज्योतिबा फुले, अम्बेडकर और पेरियार (बेशक यह कोई इकलौता आन्दोलन नहीं था, इसी के समान्तर और इससे कहीं ताक़तवर कम्युनिस्ट आन्दोलन भी था, जो तमाम विचारधारात्मक कमजोरियों के बावजूद, अपने ढंग से जात-पात व अस्पृश्यता के खि़लाफ़ अपेक्षाकृत कहीं अधिक बड़े पैमाने पर और कामयाबी के साथ लड़ रहा था।) ज्योतिबा फूले अम्बेडकर के पहले थे, जबकि पेरियार उनके समकालीन। जाति के मूल और इसके उन्मूलन के सवालों पर इन तीनों के विचार अलग-अलग हैं, लेकिन भारत की औपनिवेशिक गुलामी के लिए ज़िम्मेदार ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति इनकी पहुँच एक समान थी। भारत के औपनिवेशीकरण से, ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों तथा सस्ती श्रमशक्ति के बेतहाशा शोषण के उपोत्पाद के बतौर यहाँ जिस पूँजीवादी विकास की शुरुआत हुई, उससे यहाँ के जातिगत कठोर श्रम-विभाजन में दरारें पड़ने लगीं। नये-नये धन्धों के पैदा होने से दलितों के एक हिस्से को भी अपने जाति आधारित धन्धे छोड़कर अन्य पेशों को अपनाने का मौक़ा मिला। अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गयी शिक्षा व्यवस्था में दलित जातियों के एक छोटे से हिस्से को भी पढ़ने का मौक़ा मिला। ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा किये गये ऐसे सुधारोंके चलते फुले, अम्बेडकर तथा पेरियार जैसे समाज-सुधारक ब्रिटिश राज्य के प्रति प्रशंसा का रुख़ रखते थे। अम्बेडकर कहते हैं, “यह हिन्दू ईश्वर द्वारा पहले से आदेशित नियति थी। ब्रिटिश के आने से पहले, अछूत, अछूत बने रहने में ही संतुष्ट थे। यह हिन्दू ईश्वर द्वारा पूर्व आदेशित नियति थी और हिन्दू राज्य इसे लागू करवाता था। इससे बचने का कोई उपाय नहीं था। दुर्भाग्य या सौभाग्य से, ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपनी सेना के लिए सैनिकों की आवश्यकता पड़ी और उसे अछूतों के अलावा और कोई नहीं मिला।… अछूतों से बनी सेना की मदद से ब्रिटिश ने भारत को जीता।…”(7) अम्बेडकर कहते हैं कि इससे अछूतों को भी फ़ायदा हुआ, उन्होंनें अंग्रेज़ों से शिक्षा प्राप्त की। हालाँकि फूले तथा अम्बेडकर बीच-बीच में ब्रिटिश राज्य की आलोचना भी करते रहे हैं, मगर यह आलोचना जुबानी जमाख़र्च से अधिक कुछ नहीं थी। व्यवहार में वह कभी भी औपनिवेशिक राज्य के खि़लाफ़ राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल नहीं हुए। फुले ब्रिटिश राज्य की आलोचना करते हुए भी अंग्रेज़ों के शुभाकांक्षी रहे और किसी प्रकार की माँग के लिए वे अपील करने तक सीमित रहते हैं।(8) अम्बेडकर तथा उनके समकालीन पेरियार ने तो राष्ट्रीय आन्दोलन के खि़लाफ़ ब्रिटिश साम्राज्यवाद का साथ दिया। पेरियार नास्तिक थे। वह जात-पात विरोधी, ब्राह्मणवाद विरोधी होने के साथ-साथ उत्तर विरोधी तथा हिन्दी भाषा विरोधी भी थे। अम्बेडकर तथा फुले की तरह वह भी अपने समय के अन्तरविरोधों को समझने में नाकाम रहे। वह अंग्रेज़ों से भारत की आज़ादी के सख़्त विरोधी थे। उनका कहना था कि अंग्रेज़ों से आज़ादी का नतीजा ब्राह्मणवाद की वापसी होगा।

अम्बेडकर कहीं तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद का महिमागान करते हैं और कहीं इसकी आलोचना करते हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का महिमागान करते हुए वह कहते हैं, “दलित वर्ग तथा ब्रिटिश एक असाधारण बन्धन में बँधे हुए हैं। दलित वर्गों ने अंग्रेज़ों का रूढ़िवादी हिन्दुओं के सदियों पुराने जुल्मों तथा अत्याचारों से मुक्ति दिलाने वाले लोगों के रूप में स्वागत किया था। उन्होंने हिन्दुओं, मुसलमानों तथा सिखों के खि़लाफ़ युद्ध लड़कर अंग्रेज़ों को भारत का यह विशाल साम्राज्य जीतकर दिया था, जिसके चलते उन्होंने दलित वर्गों के सरपरस्त की भूमिका ग्रहण की।”(9)

अपनी उक्त अवस्थिति से 180 डिग्री के कोण पर मुड़कर ब्रिटिश राज्य की कटु आलोचना करते हुए वह कहते हैं, “उन्नीसवीं शताब्दी के पहले 25 वर्षों में जब ब्रिटिश शासन एक यथार्थ बन गया, यहाँ पाँच अकाल पड़े, जिन्होंने क़रीब 10 लाख लोगों की जान ली। दूसरे 25 वर्षों में दो अकाल पड़े, लगभग चार लाख लोग मारे गये। तीसरे 25 वर्षों में छह अकाल पड़े, और मरने वालों की संख्या 50 लाख हो गयी। और सदी के अन्तिम 25 वर्षों में हम क्या देखते हैं? अठारह अकाल! और इनमें मरने वालों की संख्या अन्दाज़न डेढ़ से दो करोड़ है।… महानुभावो, इसका कारण क्या है! साफ़-साफ़ शब्दों में कहना हो तो यह ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनायी गई नीति है, जिसका उद्देश्य हमेशा देश में व्यापार और उद्योग के विकास को रोकना रहा है।… इस नीति के चलते भारत को एक ग़रीब देश में बदल दिया गया है। ग़रीबी की स्थापना के मुख्य शिकार कौन हैं? वे दलित किसान जो अभी भी छह-छह महीने अपना पेट नहीं भर पाते, वह शिकारों की बहुसंख्या है…

“…ब्रिटिशों के आने से पहले अस्पृश्यता के चलते आपकी हालत अत्यन्त भयानक थी। क्या ब्रिटिश सरकार ने इस अस्पृश्यता को ख़त्म करने के लिए कुछ भी किया है? ब्रिटिशों के आने से पहले आप गाँव के कुँओं से पानी नहीं ले सकते थे। क्या ब्रिटिश सरकार ने आपको यह अधिकार देने की कोशिश की है? ब्रिटिशों के आने से पहले आप मन्दिरों में दाखि़ल नहीं हो सकते थे। क्या आप आज ऐसा कर सकते हैं? ब्रिटिशों के आने से पहले आपको पुलिस में नौकरी नहीं दी जाती थी। क्या ब्रिटिश सरकार अब आपको नौकरी दे रही है? ब्रिटिशों के आने से पहले आपको फ़ौज में भर्ती होने की आज्ञा नहीं थी। क्या अब आपके लिए यह मौक़ा है?… महानुभावो, आप एक भी सवाल का हाँ में जवाब नहीं दे सकते। जिन्होंने इस देश पर इतना लम्बा समय शासन किया है, हो सकता है कि उन्होंने कुछ अच्छी चीज़ें की हों। पर एक बात पक्की है कि आपकी हालत में इससे कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है…”(10)

अम्बेडकर के ही शब्दों में ब्रिटिश शासन की एक शताब्दी (19वीं) में भारत में उसकी नीतियों की बदौलत पड़े अकालों के कारण 2 करोड़ से भी अधिक हिन्दुस्तानी (ग़रीब) मारे गये जिनमें बहुसंख्यक दलित थे। अम्बेडकर यह भी कहते हैं कि अंग्रेज़ों के आने से भारत में अछूतों की हालत में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया। इस सबके बावजूद वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय संघर्ष में शामिल नहीं हुए, बल्कि उसका विरोध करते रहे।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश की आज़ादी के आन्दोलन में अछूतों के शामिल न होने (यहाँ पर अम्बेडकर सभी अछूतों की तरफ़ से बोल रहे हैं, भले ही अछूतों के एकमात्र नेता केवल वही नहीं थे। देश में जगह-जगह दलित कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जाति उत्पीड़न के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए भी लड़ रहे थे) की वजह बताते हुए अम्बेडकर कहते हैं कि उसकी वजह, “यह नहीं है कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औज़ार हैं, बल्कि उनका यह डर है कि भारत की स्वतंत्रता से हिन्दू प्रभुत्व स्थापित हो जायेगा जो निश्चय ही उनके लिए जीवन, समृद्धि और खुशी प्राप्त करने की सभी संभावनाओं के द्वार बंद कर देगा।”(11)

अम्बेडकर देश की आज़ादी की लड़ाई को “कपटभरा आन्दोलन” (Dishonest Agitation)(12) कहते हैं। देश की आज़ादी के आन्दोलन का जातिवादी विश्लेषण पेश करते हुए वह कहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई “मुख्य तौर पर हिन्दुओं द्वारा लड़ी जा रही है।” (गांधी और कांग्रेस ने अछूतों के साथ क्या किया, अम्बेडकर, What the Congress and Gandhi have done to the Untouchables) इसलिए दलितों को इस लड़ाई से दूर रहना चाहिए।

एक अन्य जगह पर अम्बेडकर कहते हैं, “डिप्रेस्ड क्लासेज़ (यानी अम्बेडकर तथा उनके नेतृत्व वाला आन्दोलन – लेखक) व्यग्र नहीं हैं, वे शोर नहीं मचा रहे हैं, उन्होंने यह माँग करते हुए कोई आंदोलन नहीं शुरू किया है कि ब्रिटिश द्वारा भारतीय जनता को तत्काल सत्ता का हस्तांतरण होना चाहिए। …सीधे शब्दों में कहें तो उनकी अवस्थिति यह है कि हम राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण के लिए व्यग्र नहीं हैं…”(13)

अम्बेडकर इस विभ्रम के शिकार थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ाद होने के बाद भारत के दलितों की हालत में कोई सुधार नहीं आयेगा, बल्कि उनकी हालत और भी बुरी हो जायेगी। अंग्रेज़ों के भारत पर क़ब्ज़े के बाद यहाँ के दलितों की स्थिति में कुछ मामूली सुधार ज़रूर हुए थे, लेकिन अंग्रेज़ों ने यहाँ की जाति व्यवस्था को जस का तस रहने दिया था। मुख्य तौर पर इसी बिन्दु पर अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की बार-बार आलोचना करते थे। और यहाँ की जाति व्यवस्था को ख़त्म करने का बार-बार अंग्रेज़ों से अनुरोध करते थे।

भारत के लोगों के जातियों में बँटवारे (इसी तरह धार्मिक, इलाक़ाई, राष्ट्रीय बँटवारों) को ख़त्म करना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हित में नहीं था। उल्टे ऐसे बँटवारे लोगों में फूट डालकर उन पर शासन करने में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के सहायक सिद्ध होते थे। इसीलिए उन्होंने यहाँ पहले से ही विद्यमान जाति व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं की। लार्ड कार्नवालिस ने जिस नये भूमि-बन्दोबस्त (ज़मींदारी बन्दोबस्त) को लागू किया, उसमें दलितों की स्थिति ठीक वैसी ही बनी रही, जैसी ग्रामीण भाईचारे की व्यवस्था में थी। अंग्रेज़ों ने दलितों को पुलिस या सेना में भी भर्ती नहीं किया। बस अलग से एक महार रेजिमेण्ट बना दी थी। कहीं भी उन्होंने दलितों तथा अन्य जातियों के भारतीय सैनिकों की साझा रेजिमेण्ट नहीं बनायी।

दरअसल, ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत में हुकूमत करने के वास्ते यहाँ पर सामन्तवाद के साथ गठबन्धन बनाया था। उसने यहाँ पर सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों को बरकरार रखा। इस व्यवस्था में दलितों की भारी बहुसंख्या कृषि मज़दूर या ग़रीब भूमिहीन किसान थे। एक छोटी सी दलित आबादी शहरों में निकृष्टतम कोटि की उजरती गुलाम थी, जो अपने जाति आधारित पेशों में लगी हुई थी। इसलिए औपनिवेशिक भारत में उस समय के प्रभुत्वशील उत्पादन सम्बन्धों को तोड़े बग़ैर दलित मुक्ति की बात करना हवा में क़िले बनाने जैसा था, और यही काम अम्बेडकर, फुले और पेरियार ने किया। वे भारत में जाति व्यवस्था की जड़ तक पहुँचने में नाकाम रहे। अपने भाववादी विश्वदृष्टिकोण के चलते वह जाति व्यवस्था की जड़ ब्राह्मणवादी विचारधारा में ही खोजते रहे। और अम्बेडकर ने तो इस खोज की ख़ातिर प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने में अपने जीवन का अच्छा-ख़ासा वक़्त बर्बाद किया। वह अपने समय के अन्तरविरोधों और उनमें से प्रधान अन्तरविरोध छाँटने में नाकाम रहे। यही दृष्टिकोण उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ मेल-मिलाप की तरफ़ ले गया। अपने समकालीन आन्दोलनों, कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों तथा कम्युनिस्ट आन्दोलन का अम्बेडकर ने जातिवादी विश्लेषण पेश किया। कांग्रेस के नेतृत्व वाले आन्दोलन को उन्होंने सवर्णों का आन्दोलन बताकर ख़ुद को इससे अलग कर लिया। इस तरह राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई का मैदान पूरी तरह सवर्णों के लिए खुला छोड़कर अम्बेडकर ने ख़ुद को गाँव के कुँओं से दलितों के पानी लेने के हक़, तथा दलितों के मन्दिरों में प्रवेश करने के “आन्दोलनों” तथा ब्रिटिश सरकार से दलितों के लिए रियायतों के कुछ टुकड़ों की भीख माँगने तक सीमित कर लिया।

अम्बेडकर के नेतृत्व में समाज-सुधार के जो आन्दोलन हुए भी, वे इतने मरियल तथा बेजान थे कि वे जाति व्यवस्था पर किसी तरह की प्रभावी चोट कर पाने में निहायत ही अयोग्य थे। उनके नेतृत्व में दलितों के मन्दिर प्रवेश के जो भी “आन्दोलन” हुए, उनमें से ज़्यादातर असफल ही रहे। एकाध मामले में ही उन्हें कामयाबी मिली (जैसे 1929 में बम्बई में एक सार्वजनिक स्थल पर गणेश की मूर्ति पूजा के हक़ के लिए दलित “आन्दोलन”)।

अम्बेडकर के नेतृत्व में जो सबसे बड़ा दलित आन्दोलन हुआ वह था, उस समय के बम्बई महाप्रान्त के कोलाबा ज़िले के महाड़ क़स्बे में स्थित चावदार तालाब से दलितों द्वारा पानी लेने के लिए मार्च 1927 में हुआ आन्दोलन। इस आन्दोलन में लगभग 10 हज़ार दलितों ने हिस्सा लिया। अम्बेडकर के नेतृत्व में हज़ारों दलित महाड़ क़स्बे में जुटे, उन्होंने चावदार तालाब तक मार्च किया और वहाँ से पानी लिया। उसके बाद जब लोग छोटी-छोटी टुकड़ियों में अपने-अपने घरों को लौट रहे थे तो हिन्दू कट्टरपन्थियों ने उन पर हमला किया और उन्हें घेर-घेरकर पीटा। उसके बाद हिन्दू कट्टरपन्थियों ने अपने धार्मिक अनुष्ठानों से तालाब को शुद्ध किया और उस पर पुनः क़ब्ज़ा करके दलितों के वहाँ से पानी लेने पर पाबन्दी लगा दी।

दिसम्बर 1927 में अम्बेडकर के नेतृत्व में चावदार तालाब से दलितों द्वारा पानी लेने के लिए दोबारा आन्दोलन शुरू किया गया। मगर आन्दोलन शुरू होने से पहले ही हिन्दू कट्टरपन्थियों ने स्थानीय अदालत से स्टे ले लिया। अम्बेडकर का आन्दोलन 25 दिसम्बर 1927 को महाड़ से पाँच मील दूर दसगाँव से शुरू हुआ। जैसे ही अम्बेडकर वहाँ पहुँचे, उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट से बुलावा आ गया और अम्बेडकर डी.एम. से मिलने पहुँचे। डी.एम. ने अम्बेडकर को क़ानून अपने हाथ में न लेने की “सलाह” दी और अम्बेडकर ने यह “सलाह” मान ली। बाद में डी.एम. ख़ुद दलितों की सभा में पहुँचे और उसे सम्बोधित करते हुए उन्होंने दलितों को क़ानून का उल्लंघन करने पर सख़्त सज़ाओं की धमकी दी। इसके बाद 27 दिसम्बर को अम्बेडकर ने आन्दोलन वापस लेने का एलान कर दिया, ताकि सरकार दलितों से नाराज़ न हो।(14) अम्बेडकर के नेतृत्व में लड़े गये जिस सबसे बड़े आन्दोलन की चर्चा होती है वह इस प्रकार समाप्त हुआ।

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होने को अम्बेडकर यह कहकर जायज़ ठहराते रहे कि “हम एक ही समय में सभी दुश्मनों ने नहीं लड़ सकते।”(15)अम्बेडकर औपनिवेशिक भारत में दलितों के शोषण-उत्पीड़न की जड़ (साम्राज्यवाद-सामन्तवाद गठबन्धन) पर हाथ डालने की बजाय ब्राह्मणवाद विरोधी छोटे-मोटे सुधार “आन्दोलनों” में ही उलझे रहे। ऐसे सुधारों के लिए भी कभी भी वह क़ानून का उल्लंघन करने को तैयार नहीं थे।

राष्ट्रीय आन्दोलन में उस समय एक और बड़ी शक्ति थी, उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी। कम्युनिस्ट पार्टी ही उस समय साम्राज्यवाद-सामन्ती गठबन्धन के खि़लाफ़ आन्दोलन का नेतृत्व कर रही थी। भारत में जाति प्रश्न का समाधान अटूट रूप से साम्राज्यवाद-सामन्ती गठबन्धन से भारत के तमाम मेहनतकश लोगों की मुक्ति के साथ जुड़ा हुआ था। यह सच है कि उस समय कम्युनिस्ट पार्टी एक हद तक वर्ग अपचयनवाद के भटकाव की शिकार थी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कम्युनिस्ट पार्टी ने जाति प्रश्न के समाधान के लिए कुछ किया ही नहीं, जैसा कि आज के दलितवादी बुद्धिजीवी इल्जाम लगाते हैं। जैसा कि अम्बेडकर कम्युनिस्ट पार्टी की ‘ब्राह्मण लड़कों का झुण्ड’ कहकर भर्त्सना करते थे।(16) हर जगह कम्युनिस्टों ने हर तरह की सामाजिक-आर्थिक ग़ैर-बराबरी, शोषण-उत्पीड़न, अन्याय के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ी। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लड़े गये महान तेलंगाना किसान संघर्ष ने सामन्ती व्यवस्था द्वारा किये जा रहे महिलाओं तथा दलितों के शोषण-उत्पीड़न पर भी ज़ोरदार प्रहार किया था। (इस पर और अधिक विस्तार से जानने के लिए देखें, पी. सुन्दरैया, “Telengana People’s Struggle and Its Lessons’)

लेकिन अपनी विचारधारात्मक कमजोरियों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के हाथों से छीनने में नाकाम रही। इस कारण भारत के मेहनतकशों की मुक्ति की परियोजना (जाति प्रश्न के समाधान सहित) आगे नहीं बढ़ पायी।

अम्बेडकर ने कम्युनिस्टों की सिर्फ़ ‘ब्राह्मण लड़कों का झुण्ड’ कहकर ही भर्त्सना नहीं की, उन्होंने कम्युनिस्टों द्वारा अपनाये जाने वाले हिंसक तौर-तरीक़ों की भी भर्त्सना की।(17) हिंसा के सवाल पर भी अम्बेडकर का स्टैण्ड एकदम विरोधाभासी था। कहीं तो वह शोषित वर्गों द्वारा अपनी मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लिये जाने के खि़लाफ़ (उपरोक्त) हैं और कहीं वह इसके हक़ में दिखायी पड़ते हैं। वह कहते हैं, “अहिंसा सबसे सही नियम है…जो व्यक्ति आपको मारने, या किसी स्त्री को बेइज़्ज़त करने आता है, या किसी दूसरे के घर को आग लगाता है, या चोरी करता है और भागने की कोशिश में मारा जाता है, वह खुद अपने पापों के द्वारा मारा जाता है जैसा कि सभी हमलावरों और दुष्ट लोगों के साथ होता है… सच कहूँ तो नियम यह होना चाहिए कि जहाँ भी सम्भव हो वहाँ अहिंसा हो, और जब भी आवश्यक हो तब हिंसा हो।”(18)

हिंसा के सवाल पर अम्बेडकर के ख़यालात भले ही कितने भी विरोधाभासी रहे हों, लेकिन व्यवहार में उन्होंने हमेशा ही अहिंसा का पालन किया। उनके नेतृत्व में दलितों की हालत में सुधार के लिए चले “आन्दोलनों” में से कोई भी “आन्दोलन” कभी भी व्यवस्था से टक्कर लेने की राह पर आगे नहीं बढ़ा।

हिंसा कभी भी कम्युनिस्टों के लिए पहली पसन्द नहीं रही। यह उनके लिए आखि़री उपाय है। कम्युनिस्ट शोषक वर्गों द्वारा फैलाई जाने वाली प्रति-क्रान्तिकारी हिंसा के प्रतिकार के लिए मेहनतकश जनता को क्रान्तिकारी हिंसा के लिए तैयार करते हैं, क्योंकि इसके बग़ैर शोषित जनों का कोई भी आन्दोलन कामयाबी की दिशा में एक इंच भी नहीं बढ़ सकता। हिंसा के प्रति नकारात्मक रुख़ या क़ानूनी दायरे में ही सीमित रहने के चलते अम्बेडकर के नेतृत्व वाला कोई भी समाज-सुधार “आन्दोलन” कभी भी वह स्तर हासिल नहीं कर पाया, जो कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में तेलंगाना के किसान संग्राम ने हासिल किया था, जिसने सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों पर घातक प्रहार करने के साथ-साथ दलितों और महिलाओं को भी बड़े पैमाने पर हर तरह के शोषण-उत्पीड़न से राहत पहुँचायी।

अम्बेडकर के नेतृत्व वाला दलित आन्दोलन ज़्यादातर कुँओं से पानी भरने तथा मन्दिर प्रवेश जैसे मुद्दों में ही उलझा रहा। भले ही समाज में दलितों को बराबरी का दर्ज़ा दिलाने के लिए ये अहम मुद्दे थे। लेकिन इनसे भी अहम (सर्वाधिक अहम) मुद्दा था भूमि सुधारों, या सामन्तों के क़ब्ज़े वाली ज़मीन के ग़रीब तथा भूमिहीन किसानों में वितरण का मुद्दा, जो सभी जातियों के ग्रामीण ग़रीबों का साझा मुद्दा था। अगर इस तथा ऐसे ही सभी ग़रीबों के साझा मुद्दों पर जनता को लामबन्द किया जाता, तो मेहनतकश जनता के भीतर के अन्तरविरोधों (जैसे कि उच्च जातियों के ग़रीबों के जातीय पूर्वाग्रह) को भी हल किया जा सकता था। इस तरह ‘ब्राह्मणवादी’ शक्तियों (उच्च जाति के कुलीनों) को उन्हीं की जातियों के ग़रीबों से अलग-थलग किया जा सकता था। लेकिन अम्बेडकर दलित मुक्ति के सर्वाधिक अहम मुद्दों को उठाने की बजाय गौण मुद्दों में ही उलझे रहे। और अम्बेडकर द्वारा ग़लत क्रम से उठाये गये मुद्दे उच्च जातियों के ग़रीबों को भी (अपने जातीय पूर्वाग्रहों के चलते) ग़रीब दलितों के विरोध में खड़ा कर देते थे। इस तरह अम्बेडकर अनजाने ही ‘ब्राह्मणवाद’ को कमज़ोर करने की बजाय और मज़बूत ही बनाते थे।

जब अंग्रेज़ ‘फूट डालो और राज करो’ की अपनी नीति के तहत हिन्दू, मुसलमानों तथा सिखों के लिए अलग मण्डल बना रहे थे तो अम्बेडकर ने अंग्रेज़ों की चाल में आकर अछूतों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल बनाये जाने की माँग उठा दी। लेकिन बाद में गाँधी के दबाव में वह इस माँग से पीछे हट गये (प्रसिद्ध पूना पैक्ट)। अम्बेडकर द्वारा उठाया गया यह भी एक ग़ैर-मुद्दा ही था। यह राष्ट्रीय आन्दोलन में फूट डालता और उसे कमज़ोर बनाता था।

अम्बेडकर राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में एक फूट-परस्त शक्ति के रूप में काम करते रहे। उन्होंने अपने प्रभाव वाले दलितों को राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई से दूर रखा। उन्होंने कम्युनिस्टों को ‘ब्राह्मण लड़कों का झुण्ड’ का नाम देकर दलितों को उनकी मुक्ति की असल विचारधारा तथा राह से दूर किया।

अम्बेडकर ने मज़दूर संघर्षों में भी फूट-परस्त की ही भूमिका निभायी, इसका उदाहरण है 1929 की बम्बई के टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल। बम्बई टेक्सटाइल मिलों के मालिक अपने कारख़ानों में नयी मशीनें लाये, जिससे एक ही मज़दूर तीन लूम चला सके। नतीजे के तौर पर मज़दूरों की छँटनी शुरू हुई। इस छँटनी के खि़लाफ़ कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली मज़दूर यूनियन गिरनी कामगार महामण्डल के आह्वान पर डेढ़ लाख मज़दूर हड़ताल पर चले गये। ई.डी.सेसून मिल (E.D. Sassoon Mill) के मैनेजर फ्रेडरिक स्टोन्ज़ की अपील पर अम्बेडकर ने हड़ताल में शामिल मज़दूरों को काम पर लौटने के लिए प्रेरित किया। अम्बेडकर के कहने पर दलित मज़दूरों के काम पर लौटने से, बम्बई के लाखों टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल टूट गयी। 26 अप्रैल 1929 को जब गिरनी कामगार महामण्डल के आह्वान पर बम्बई के टेक्सटाइल मज़दूरों ने दोबारा हड़ताल की तो अम्बेडकर ने इस हड़ताल को तोड़ने के लिए फिर से ज़ोरदार अभियान चलाया।

अम्बेडकर द्वारा इन हड़तालों का विरोध करने की वजह एक तो यह बतायी जाती है कि उस समय कपड़ा मिलों में बुनाई विभाग जैसे अधिक तनख़्वाह वाले विभाग में दलित मज़दूरों को काम करने की आज्ञा नहीं थी। और कोई भी ट्रेड यूनियन इस भेदभाव के खि़लाफ़ नहीं लड़ रही थी। इसके अलावा अम्बेडकर समझते थे कि कम्युनिज़्म तथा हड़तालें अलग ना किये जा सकने वाले जुड़वा हैं। उनका मानना था कि हड़तालों का इस्तेमाल मज़दूरों की आर्थिक लड़ाई से ज़्यादा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है, जिससे दलितों की आर्थिक स्थिति अधिक बिगड़ जाती है।(19)

यहाँ पर अम्बेडकर कम्युनिज़्म से अपनी नफ़रत तथा मालिकों के प्रति वफ़ादारी दर्शाते हुए, फिर से मेहनतकशों की (दलित और गैरदलित की) साझा दुश्मन के साथ लड़ाई को आगे बढ़ाने की बजाय जनता के बीच के दोयम दर्जे के अन्तरविरोधों को प्रधान बनाने की ग़लती करते हैं, जिससे दलित और गै़रदलित मज़दूरों दोनों को ही नुक़सान उठाना पड़ता है और फ़ायदा सिर्फ़ मालिकों को ही होता है।

अम्बेडकर की हर हाल हिफ़ाजत करने के चक्कर में लेखक है उपनिवेशवाद के प्रति अम्बेडकर की पहुँच की तुलना भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रभावों के बारे में ‘मार्क्स की समझ’ के साथ करता है। लेकिन ऐसा वह बेहद अवसरवादी ढंग से करता है और अपने कुकर्म को सही सिद्ध करने के लिए मार्क्स की रचना से कुछ पसन्दीदा हिस्से सन्दर्भ से काटकर छाँट लेता है। वह अपनी बात साफ-साफ कहने की बजाए एक प्रश्न के रूप में कहता है। वह प्रश्न करता है (जो कि दरअसल प्रश्न नहीं, बल्कि उत्तर है) कि “क्‍या यह कहना दुरुस्त न होगा कि अंग्रजों के अधीन भारत के बारे में फुले-अम्बेडकर की समझ की तुलना आंशिक तौर पर कार्ल मार्क्स की समझ से की जा सकती है? मार्क्स ने 1853 में लिखा है कि, “इंग्लैंड को भारत में दोहरा मिशन पूरा करना था, एक ध्वंस, और दूसरा पुनर्निर्माण का- पुराने एशियाई समाज का खात्मा भी और पश्चिमी समाज के नींव की स्थापना।” फिर चलताऊ ढंग से वह यह भी जोड़ देता है कि मार्क्स ने 1857 के जंग को जंगे आज़ादी’ कहा था। फिर वह हमें बताते हैं कि ‘मार्क्स को ‘यह कहने में कोई हिचक नहीं कि अंग्रेजों ने नई सामाजिक क्रान्ति के बीज’ बोए हैं।’

मार्क्स को अम्बेडकर के पक्ष में खड़ा करने का गाताड़े ने जो अवसरवादी कुकर्म किया है, उसके भण्डाफोड़ के भय से वे मार्क्स के उक्त उद्धरण का सन्दर्भ बड़ी चालाकी से गोल कर जाते हैं। ऐसी चालाकियों और शब्दों की बाजीगरी से कुछ लोगों को भरमाने में वह एक हद तक सफल तो हो ही जाते हैं। बहरहाल, ‘न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून’ में 22 जुलाई 1853 को प्रकाशित मार्क्स के आलेख ‘भारत में ब्रिटिश शासन के भावी नतीजे’ के जिस अंश के हवाले से उन्होंने अपनी बात कही है उसी आलेख में आगे चलकर, जिसकी चर्चा से गाताड़े बच निकलते है, मार्क्स यह लिखते हैं, “अंग्रेज बुर्जुआजी को चाहें जो कुछ भी करने को बाध्य कर दिया जाये वह जनता को मुक्ति नहीं दिलाएगी, न ही भौतिक तौर पर उनकी सामाजिक स्थिति को बेहतर बनाएगी, ये दोनों ही बातें उत्पादक शक्तियों के विकास पर ही नहीं, बल्कि जनता द्वारा उनके विनियोजन पर भी निर्भर करती हैं। लेकिन जिस चीज़ को करने में अंग्रेज पूँजीपति वर्ग विफल नहीं होगा, वह है इन दोनों की भौतिक बुनियाद रखना। क्या बुर्जुआजी ने कभी इससे कुछ अधिक भी किया है? व्यक्तियों और जनता को ख़ून और गन्दगी, विपदा और दुर्गति में घसीटे बगैर भी क्या इसने कभी विकास किया है? भारतीय जनता ब्रिटिश बुर्जआ वर्ग द्वारा अपने बीच बिखेरे गए समाज के नये तत्वों का लाभ तब तक नहीं उठा सकेगी जब तक स्वयं ब्रिटेन में मौजूदा शासक वर्गों की जगह औद्योगिक सर्वहारा नहीं ले लेता, या जब तक हिन्दुस्तानी खुद इतने शक्तिशाली नहीं हो जाते कि अंग्रेजी जुए को पूरी तरह उतार फेंकें।(20)

ब्रिटिश औपनिवेशिक सत्तों द्वारा भारत के प्राकृतिक संसाधानों की लूट के उपोत्पाद के तौर पर उत्पादक शक्तियों की यहाँ एक सीमित हद तक विकास के चलते, मार्क्स कहीं भी इस नतीजे पर नहीं पहुँचते कि ब्रिटिश गुलामी भारतीय जनता के लिए वरदान है, या इस गुलामी के बोझ को अपने गले से उतार फेंकने के लिए भारत की जनता को संघर्ष नहीं चाहिए। अम्बेडकर की ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रति पहुँच मार्क्स की पहुँच के बिलकुल विपरीत थी। वह भारत की औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के घनघोर विरोधी थे। ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रति मार्क्स और अम्बेडकर की पहुँच को एक समान बताना अत्यन्त सुनियोजित ढंग से किया गया कुत्सा प्रचार ही है।

यह सर्वविदित तथ्य है कि अम्बेडकर मार्क्सवाद को समझे बगैर उसके प्रति कटु भाव रखते थे। वह मार्क्सवाद को ‘सुअरों का दर्शन’ कहने तक चले गए। लेकिन सुभाष गाताड़े मार्क्सवाद के प्रति अम्बेडकर की हमदर्दी का प्रमाण देने के लिए उनके लेख ‘जाति उन्मूलन’ से कुछ पंक्तियाँ चुनकर हमारे सामने धर देते हैं। और इस बात से हमें सहमत करने में अपनी पूरी काबिलियत लगा देते हैं कि किसी भी सामाजिक शोषण-उत्पीड़न के खात्मे के लिए अब मार्क्सवाद को अम्बेडकर और बुद्ध के विचारों से अपने को समृद्ध करना होगा। वह कहते हैं, “उनकी (अम्बेडकर की) एक शानदार रचना ‘जाति उन्मूलन’ पर एक सरसरी नज़र ही यह स्पष्ट कर देती है कि वे मार्क्सवाद की कद्र करते थे, लेकिन इसके भारतीय पैरोकारों का व्यवहार उनके लिए एक बड़ी पहेली जैसा ही था। उन्होंने अपने निबन्ध ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’ में मार्क्स के क्रान्तिकारी समानतावाद के प्रति आस्था व्यक्त की है। वह यह मानते थे कि एक मुक्तिदाता विचारधारा के तौर पर मार्क्सवाद बुद्ध मत के बहुत करीब है। दोनों में कुछ बातें साझा हैं। बुद्ध मत की तरह, मार्क्सवाद भी निजी सम्पत्ति के खात्मे की वकालत करता था, गरीबी का सम्बन्ध सामाजिक लूट-खसोट के साथ जोड़कर देखता था और सामाजिक संताप का हल वहीं और उसी वक्त प्रस्तुत करता था।”

हमें यहाँ यथार्थ को समझना होगा।

अम्बेडकर ने यूँ तो अपने लेखन तथा भाषणों में कई जगह कम्युनिज्म और मार्क्सवाद पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं। लेकिन ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’(21) के अपने निबन्ध में उन्होंने मार्क्सवाद के बारे में अपने जिन विचारों का सविस्तार रखा है, मार्क्सवाद के बारे में अपनी जो समझ पेश की है तथा मार्क्सवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की है, वह नितान्त चलताऊ, सतही और लचर है। उनके इस निबन्ध से ही यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने मार्क्सवाद की एक भी मूल कृति को नहीं पढ़ा है।

अम्बेडकर अपने निबन्ध की शुरुआत इन शब्दों से करते हैं, “यदि कुछ लोगों को कार्ल मार्क्स और बुद्ध के बीच तुलना का काम मजा़किया लगता है, तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं।”(22) बुद्ध और कार्ल मार्क्स की तुलना करना अपने आप में निश्चय ही कोई मज़ाक़ की बात नहीं है। लेकिन उचित होता कि वे दोनों के सिद्धान्तों का पहले स्वयं भलीभांति अध्ययन करने के उपरान्त ही इस काम में हाथ डालते, तब यह पाठक के लिए ज्ञानवर्धक होता और लेखक के रूप में खुद अम्बेडकर के लिए भी। आगे अम्बेडकर लिखते हैं, “दोनों (बुद्ध और कार्ल मार्क्स – लेखक) के बीच तुलना आकर्षक तथा शिक्षाप्रद है।”(23) अफ़सोस कि अम्बेडकर द्वारा की गयी इस तुलना में से ये दोनों ही चीज़ें ग़ायब हैं। यह आकर्षक होने की बजाय बेहद उबाऊ और शिक्षाप्रद होने की जगह ग़लत जानकारियों से लबरेज़ है। आगे अम्बेडकर लिखते हैं, “यदि मार्क्सवादी अपने पूर्वाग्रहों को पीछे रखकर बुद्ध का अध्ययन करें और उन बातों को समझें जो उन्होंने कही हैं और जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया, तो मुझे यक़ीन है कि उनका दृष्टिकोण बदल जायेगा। वास्तव में उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि बुद्ध की हँसी व मज़ाक़ उड़ाने का निश्चय करने के बाद वे उनकी प्रार्थना करेंगे”(24) यहाँ पर अम्बेडकर पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि मार्क्सवादी बुद्ध के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त हैं और उनकी हँसी व मज़ाक़ उड़ाते हैं। कौन ऐसे मार्क्सवादी हैं? अम्बेडकर यह नहीं बताते और न ही उनके ऐसे किसी लेखन का हवाला ही देते हैं। अगर हम थोड़ी देर के लिए अम्बेडकर से सहमत भी हो जायें कि कोई मार्क्सवादी बुद्ध के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त है और उनका मज़ाक़ उड़ाता है तब भी इसमें मार्क्सवाद का क्या दोष है? यह किसी मार्क्सवादी की समझ का दोष हो सकता है। मार्क्सवाद तो किसी भी दर्शन के पैदा होने, विकसित होने तथा पतन (और ऐसा होने के भौतिक आधार) को वैज्ञानिक ढंग से समझने में हमारी मदद करता है। मार्क्सवाद का दर्शन भौतिकवादी है तथा पद्धति द्वन्द्वात्मक। यह पद्धति हमें हर चीज़ को ‘एक को दो में बाँटने’ तथा सकारात्मक को नकारात्मक से अलग करना सिखाती है। इसी पद्धति से मार्क्सवादी बौद्ध धर्म या दर्शन का अध्ययन करते हैं। उसके सकारात्मक तत्वों को स्वीकार करते हैं तथा नकारात्मक तत्वों को नकारते हैं। वह बुद्ध की हँसी व मज़ाक़ तो बिल्कुल नहीं उड़ाते और ऐसा न करने के बावजूद भी वह बुद्ध की प्रार्थना तो क़तई नहीं करते।

आगे अम्बेडकर बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों की व्याख्या करते हैं या यूँ कहें कि वह बुद्ध और कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों की ख़ुद की समझ की व्याख्या करते हैं। बुद्ध के सिद्धान्तों के बारे में बताने के लिए तो वह कहते हैं कि “मैंने त्रिपिटक का अध्ययन किया।” लेकिन कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों के बारे में बताने के लिए उन्होंने मार्क्सवाद की कौन सी कृति का अध्ययन किया था, इसके बारे में वह कुछ नहीं बताते। मार्क्सवाद के बारे में जानकारी देते हुए वह कहते हैं, “मार्क्स आधुनिक समाजवाद या साम्यवाद का जनक है। परन्तु उसकी रुचि केवल समाजवाद के सिद्धान्त को प्रतिपादित करने व प्रस्तुत करने में ही नहीं थी। यह कार्य तो उससे बहुत पहले अन्य लोगों द्वारा कर दिया गया था। मार्क्स की अधिक रुचि इस बात को सिद्ध करने में थी कि उसका समाजवाद वैज्ञानिक है। उसका जेहाद पूँजीपतियों के विरुद्ध जितना था, उतना ही उन लोगों के विरुद्ध भी था, जिन्हें वह स्वप्नदर्शी या अव्यावहारिक समाजवादी कहता था।”(25) अगर अम्बेडकर ने मार्क्सवाद के बारे में बताने से पहले कुछ अध्ययन कर लेने की ज़रा सी भी जहमत उठाई होती तो वह इस तरह की हास्यास्पद बातें नहीं करते। वह यह नहीं बताते कि ‘समाजवाद के सिद्धान्तों को प्रतिपादित व प्रस्तुत’ करने का काम कार्ल मार्क्स से ‘बहुत पहले’ किसने किया था? शायद उनका इशारा स सेंट-सीमों, शार्ल फूरिये, रॉबर्ट ओवेन के समाजवाद (यूटोपियाई) की तरफ़ है जो एक ऐसे समय में पैदा हुआ था जब सर्वहारा वर्ग अल्पसंख्यक और अविकसित था। यूटोपियाई समाजवाद के प्रवर्तकों के खि़लाफ़ मार्क्सवाद के जेहाद या नापसन्दगी की बात तो दूर रही उल्टे आधुनिक (वैज्ञानिक) समाजवाद ख़ुद को यूटोपियाई समाजवाद का वारिस मानता है। अपनी पुस्तिका ‘समाजवाद काल्पनिक तथा वैज्ञानिक’ में एंगेल्स यूटोपियाई समाजवादियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, वहीं वे उनके सिद्धान्तों की सीमाओं की भी चर्चा करते हैं। मार्क्सवाद का ‘जेहाद’ काल्पनिक समाजवादियों के अनुयायियों के विरुद्ध था जो विभिन्न धड़े व सम्प्रदाय बनाकर बिल्कुल अलग ही भूमिका अदा कर रहे थे। मज़दूर आन्दोलन के विकास के बावजूद काल्पनिक समाजवाद और कम्युनिज़्म के समर्थक पहले की ही भाँति हड़तालों, ट्रेड यूनियनों और राजनीतिक संघर्ष के प्रति नकारात्मक रुख़ रखते थे। वे मज़दूरों को वर्ग संघर्ष के पथ से परे एक यूटोपिया के क्षेत्र में, समाजवादी मनसूबेबाज़ी के क्षेत्र में (जैसेकि कम्युनिस्ट कालोनियों की स्थापना का विचार) ले जाते थे। अम्बेडकर न तो काल्पनिक तथा वैज्ञानिक समाजवाद के पैदा होने की भिन्न भौतिक परिस्थितियों को ही समझते हैं और न ही दोनों के बीच के बुनियादी फ़र्क़ को। अम्बेडकर “मार्क्सवाद” की अपनी व्याख्या जारी रखते हुए “मार्क्स के सिद्धान्तों” की एक सूची बनाते हैं और एक के बाद एक उन पर कहर बरपा करते हैं। उनका कहना है, “मार्क्स की अवधारणा निम्नलिखित प्रमेयों पर आधारित है:-

“दर्शन का उद्देश्य विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं।”(26) इसी बात को अम्बेडकर दूसरे शब्दों में भी प्रस्तुत करते हैं, “दर्शन का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना है, विश्व की उत्पत्ति का स्पष्टीकरण देने या समझाने में अपना समय नष्ट करना नहीं।” लेकिन मार्क्स ऐसा कुछ नहीं कहते। अम्बेडकर जो कहते हैं, वह मार्क्स द्वारा फ़ायरबाख़ पर लिखी गयी ग्याहरवीं थीसिस का बिगड़ा और ग़लत रूप है। मार्क्स कहते हैं, “दार्शनिकों ने तरह-तरह से दुनिया की केवल व्याख्या की है, सवाल उसे बदलने का है।”(27) ऐसा नहीं है कि अम्बेडकर ने मार्क्स की कही हुई बात को ग़लत रूप में समझा, बल्कि उन्होंने इसे समझा ही नहीं है। आगे अम्बेडकर कहते हैं कि मार्क्स के मुताबिक़, “समाज दो वर्गों में विभक्त है – मालिक तथा मज़दूर”। यहाँ भी अम्बेडकर ग़लत जानकारी ही दे रहे हैं। मार्क्सवाद पूँजीवादी समाज को (या किसी भी अन्य पूर्व पूँजीवादी वर्गीय समाज को सिर्फ़ दो वर्गों में बँटा हुआ नहीं मानता। मार्क्सवाद बताता है कि मालिक तथा मज़दूर पूँजीवादी समाज के दो मुख्य वर्ग हैं, मगर इनके अलावा वह समाज में अन्य (मध्य) वर्गों की मौजूदगी से इनकार नहीं करता है। अम्बेडकर हमें बताते हैं कि मार्क्स कहते हैं, “मज़दूरों का मालिकों द्वारा शोषण किया जाता है। मालिक उस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं।” इसमें से अम्बेडकर आधी बात तो सही कहते हैं कि मालिक मज़दूरों का शोषण करते हैं, लेकिन मार्क्सवाद अतिरिक्त मूल्य के दुरुपयोग या सदुपयोग की बात नहीं करता। मार्क्सवाद हमें बताता है कि पूँजीपतियों के धन (मुनाफ़े) का एकमात्र स्रोत मज़दूरों के श्रम (अतिरिक्त मूल्य) का शोषण है। मार्क्सवाद ऐसा कुछ नहीं कहता कि अगर मालिक वर्ग इस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं तो मज़दूरों का शोषण ग़लत है और अगर सदुपयोग करते हैं तो मज़दूरों का शोषण सही है।

आगे अम्बेडकर बताते हैं कि मार्क्सवादी सिद्धान्त के मौलिक संग्रह में से कई बातों को इतिहास द्वारा असत्य प्रमाणित कर दिया गया है। वह कहते हैं कि जब से मार्क्सवाद अस्तित्व में आया है, तभी से इसकी काफ़ी आलोचना होती आ रही है। इस आलोचना के फलस्वरूप कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत विचारधारा का काफ़ी बड़ा ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मार्क्स का यह दावा कि उसका समाजवाद अपरिहार्य है, पूर्णतया असत्य सिद्ध हो चुका है। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वप्रथम 1917 में, उसकी पुस्तक दास कैपिटल, समाजवाद का सिद्धान्त के प्रकाशित होने के लगभग सत्तर वर्ष बाद (अम्बेडकर इतना भी नहीं जानते कि ‘पूँजी’ कब प्रकाशित हुई थी) यहाँ तक कि साम्यवाद, जोकि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है, रूस में आया, तो यह किसी प्रकार के मानवीय प्रयास के बिना किसी अपरिहार्य वस्तु के रूप में नहीं आया था। घनघोर अज्ञान! अम्बेडकर की मार्क्सवाद की समझ निहायत ही गयी-गुज़री है। मार्क्सवाद का सामान्य विद्यार्थी भी समझ सकता है कि यह एकदम वाहियात बकवास है। क्या मार्क्स ने कहीं भी कहा है कि समाजवाद अपरिहार्य है तो यह बिना किसी मानवीय प्रयासों के ही स्थापित हो जायेगा। मार्क्स बार-बार कहते हैं कि समाजवाद (सर्वहारा वर्ग की तानाशाही) सर्वहारा वर्ग के संगठित, सचेतन प्रयासों (वर्ग संघर्ष) के ज़रिये ही पूँजीवादी व्यवस्था को उलट कर ही स्थापित हो सकता है। अम्बेडकर कहते हैं कि ‘साम्यवाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है।’ यह निहायत ही बचकानापन है। मार्क्सवाद के मुताबिक़ साम्यवाद समाजवाद के आगे की मंज़िल है। यहाँ वर्ग, वर्ग संघर्ष तथा इन वर्ग अन्तरविरोधों के उत्पाद राज्य का अस्तित्व नहीं रह जायेगा।

इसलिए साम्यवाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का ही दूसरा नाम नहीं है, बल्कि एक-दूसरे के विपरीत चीज़ें हैं।

यह दावा करने के बाद कि मार्क्सवाद का काफ़ी बड़ा हिस्सा ध्वस्त हो चुका है, अम्बेडकर हमें बताते हैं कि मार्क्सवाद की ये चार बातें ही बाक़ी बची रहती हैं:

  1. 1. दर्शन का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना है, विश्व की उत्पत्ति का स्पष्टीकरण देने या समझाने में अपने समय को नष्ट करना नहीं।
  2. 2. एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ स्वार्थ व हित का टकराव व उनमें संघर्ष होता है।
  3. 3. सम्पत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व से एक वर्ग को शक्ति प्राप्त होती है और दूसरे वर्ग को शोषण के द्वारा दुख पहुँचाया जाता है।
  4. 4. समाज की भलाई के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति का उन्मूलन करके, दुख का निराकरण किया जाये।(28)

इसके बाद अम्बेडकर बुद्ध और कार्ल मार्क्स के बीच तुलना करते हुए कहते हैं कि इन चार बिन्दुओं पर बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स में सहमति है और पहली बात पर बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स में पूर्ण सहमति है। हम देख चुके हैं कि मार्क्सवाद (‘बाक़ी बचे’) की अम्बेडकरवादी व्याख्या में जिस पहले बिन्दु की चर्चा की गयी है, वह सरासर ग़लतबयानी है। मार्क्स ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं। जहाँ तक दूसरे बिन्दु की बात है, उस पर अम्बेडकर कहते हैं कि बुद्ध के मुताबिक़ “राजाओं के बीच, कुलीनों के बीच, ब्राह्मणों के बीच, गृहस्थों के बीच, माता तथा पुत्र के बीच, पुत्र तथा पिता के बीच, भाई तथा बहन के बीच, साथियों तथा साथियों के बीच सदा संघर्ष चलता रहता है।”(29) अम्बेडकर के इस तर्क के जवाब में रंगनायकम्मा लिखती हैं, “अम्बेडकर की दृष्टि में इन टिप्पणियों का आशय वर्ग संघर्ष की बात करना है।”

यहाँ तक कि जो लोग वर्गों के बारे में बिल्कुल ही अनजान हैं, वो भी ऐसी दयनीय अवस्था में नहीं होंगे।

जब हम वर्गों की बात करते हैं तो हम ‘मालिक-मज़दूर’ सम्बन्ध के अस्तित्व की बात करते हैं। हम श्रम के शोषण की भी बात करते हैं।…

श्रम के शोषण पर ही वर्ग टिके रहते हैं। वर्ग संघर्ष और विभिन्न हित वर्गों पर टिके रहते हैं। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर हम किसी भी प्रकार के समाज में वर्गों को रेखांकित कर सकते हैं।…

हम वर्गों, वर्गों के भीतर विद्यमान तबकों और सामाजिक सम्बन्धों के पूरे समुच्चय को समझने में तभी सक्षम हो सकेंगे, जब हम श्रम के शोषण के बारे में स्पष्ट रूप से जानते हों।

अम्बेडकर के इस दावे का वर्गों से कुछ लेना-देना नहीं है कि ‘बुद्ध ने वर्गों के बारे में पहले ही बता दिया था।’ किन्तु यदि हम वर्गों को यथोचित रूप में समझ लें तो हम उन अन्तरविरोधों की प्रकृति को समझ सकते हैं, जिनका बुद्ध ने उल्लेख किया है।”(30)

तीसरे तथा चौथे बिन्दु की व्याख्या करते हुए अम्बेडकर बताते हैं कि कैसे बुद्ध ने दुखों की जड़ निजी सम्पत्ति का उन्मूलन किया, कि बौद्ध भिक्षु केवल आठ व्यक्तिगत वस्तुओं के अलावा कोई निजी सम्पत्ति नहीं रख सकते थे। अम्बेडकर की इस तुलना का निजी सम्पत्ति के उन्मूलन के मार्क्सवादी सिद्धान्त से कुछ भी लेना-देना नहीं। मार्क्सवादी शिक्षा के मुताबिक़ सर्वप्रथम सर्वहारा अपनी क्रान्तिकारी (कम्युनिस्ट) पार्टी के नेतृत्व में संगठित हो बुर्जुआ वर्ग से राज्यसत्ता छीनता है। इसके बाद वह उत्पादन के साधनों तथा फिर क्रमशः सम्पत्ति के अन्य रूपों का समाजीकरण करता जाता है तथा एक प्रक्रिया में वर्गविहीन समाज (कम्युनिज़्म) की तरफ़ बढ़ते जाना सर्वहारा सत्ता का उद्देश्य होता है। संन्यास तथा त्यागवाद (बुद्ध) से मार्क्सवाद का कुछ भी लेना-देना नहीं है। मार्क्सवाद का सरोकार मानवता की भौतिक तथा सांस्कृतिक ख़ुशहाली से है।

अपने लेख के अन्त में अम्बेडकर बुद्ध तथा मार्क्सवाद द्वारा अपने उद्देश्य (अम्बेडकर का कहना है कि दोनों का उद्देश्य एक ही है) को हासिल करने के साधनों की तुलना की है। अम्बेडकर का कहना है कि “साम्यवादी कहते हैं कि साम्यवाद को स्थापित करने के केवल दो ही साधन हैं, पहला है हिंसा।… दूसरा साधन है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही।”(31) जहाँ तक हिंसा का प्रश्न है, इस पर अम्बेडकर कहते हैं, ‘हिंसा का पूणर्तया त्याग नहीं किया जा सकता।’ बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे। परन्तु वह न्याय के पक्ष में भी थे और जहाँ पर न्याय के लिए बल-प्रयोग अपेक्षित होता है, वहाँ उन्होंने बल-प्रयोग की अनुमति दी है।(32) लेकिन अम्बेडकर साम्यवादियों की हिंसा के लिए भर्त्सना करते हैं क्योंकि, “साम्यवादी हिंसा का प्रतिपादन एक निरपेक्ष सिद्धान्त के रूप में करते हैं।”(33) लेकिन अपने इस इल्ज़ाम के हक़ में अम्बेडकर कोई भी तथ्य पेश नहीं करते। वह यह मानकर चलते हैं कि साम्यवादी जब हिंसा की वकालत करते हैं तो यह हिंसा न्याय की ख़ातिर नहीं होती। अगर मेहनतकश वर्ग शोषण-उत्पीड़न से निजात पाने के लिए तथा शोषक वर्गों द्वारा उन पर थोपी प्रतिक्रियावादी हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा का इस्तेमाल करते हैं तो क्या यह न्याय के लिए नहीं है? अगर यह भी न्याय के लिए नहीं है तो फिर अम्बेडकर की न्याय की परिभाषा क्या है? इस पर अम्बेडकर पूरी तरह मौन साधे हुए हैं।

तानाशाही तथा लोकतन्त्र आदि सवालों पर भी अम्बेडकर बुरी तरह से भ्रमित हैं। वह इतना भी नहीं समझते कि जिसे वह लोकतन्त्र कह रहे हैं, वह भी किसी ना किसी वर्ग की तानाशाही ही होता है। पूँजीवादी समाज में यह बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही होता है। यह बुर्जुआ वर्ग के लिए जनवाद तथा सर्वहारा वर्ग के लिए तानाशाही होता है। मार्क्सवादी बस इतना ही “गुनाह” करते हैं कि वह डण्डे को डण्डा कहते हैं। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सत्ताच्युत किये बुर्जुआ वर्ग के लिए तानाशाही तथा सर्वहारा तथा अन्य मेहनतकश वर्गों के लिए जनवाद होता है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद की अम्बेडकरवादी व्याख्या तथा आलोचना बेहद बचकानी तथा हास्यास्पद है। यह अम्बेडकर के अज्ञान तथा राजनीतिक अनपढ़ता का उत्पाद है।

अरुन्धति राय के अनोखे लेकिन मौलिक विचार!

भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन की जाति प्रश्न के समाधान के लिए जो पहुँच रही है, उसके बारे में अरुन्धति राय के विचारों की हम पहले ही चर्चा कर आए हैं। इस पुस्तक में अरुन्धति राय का जो साक्षात्कार छपा है उसमें उसने कई अजीबो-गरीब विचार व्यक्त किए हैं, जिन पर चर्चा ज़रूरी है। बेशक उसने इस साक्षात्कार में कुछ सही बातें भी की हैं (कोई भी मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति सारी बातें ग़लत नहीं करता और न ही कर सकता है)। अपने साक्षात्कार के शुरू में ही अरुन्धती राय एक अर्धसत्य बात करती है। उसका कहना है कि आज लड़ाई मुख्य तौर पर उन लोगों के लिए लड़ी जा रही है, जिनके पास ज़मीन है। भाकपा (माओवादी) भी यही लड़ाई लड़ रही है। अरुन्धती राय ने यह बात ठीक ही पकड़ी है। किसी न किसी रूप में यह बात सभी नक्सली ग्रुपों पर लागू होती है। आज यह ग्रुप सम्पत्तिहीन मज़दूरों की लड़ाई को त्यागकर स्वामी वर्गों की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन अरुन्धति राय का यह कहना दुरुस्त नहीं है कि शहरी ग़रीब या दलित, जिनके पास कुछ भी नहीं है उनके लिए कोई भी नहीं लड़ रहा। ऐसी वाम शक्तियाँ हैं जो शहरी मज़दूरों को संगठित करने में लगी हुई हैं। बेशक आज ये अभी कमज़ोर हैं। यह अलग बात है कि अरुन्धती राय अपनी “बौद्धिक व्यस्तताओं” के चलते इन ग्रुपों के बारे में जानने के लिए वक्त नहीं निकाल पाती।

अपने साक्षात्कार में उसने कुछ ऐसी बातें कही हैं जिन्हें अनर्गल बातों की कोटि में ही रखा जा सकता है। कुछ झलकें देखें। उसका कहना है, “जो कुछ हो रहा है वह तो पूँजीपति भी नहीं करते। यहाँ जो मुकाबलेबाज़ी के लिए एकसमान मैदान होता है, वह अब नहीं है। कारोबारी लोगों (व्यपारियों) को कार्पोरेटों ने एक कोने में धकेल दिया है। छोटे व्यपारियों को मॉल ने कोने में धकेल दिया है। यह पूँजीवाद नहीं है। यह पता नहीं क्या है? यह कोई अन्य ही बला है?”

न जाने लेखिका के सपनों में कौन-सा पूँजीवाद बसता है, जहाँ मुकाबलेबाज़ी के लिए एकसमान मैदान होता है। ऐसा ‘मैदान’ तो पूँजीवाद के पूरे इतिहास में कभी नज़र नहीं आया। पूँजीवाद में मुकाबला हमेशा असमान होता है और ऐसा ही हो सकता है। इस मुकाबले में बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। यह जो हो रहा है, पूँजीवादी व्यवस्था में यही होता है। किसी अन्य तरह के पूँजीवाद की कल्पना करना मूर्खतापूर्ण भोलापन है। इस भोलेपन का एक और नमूना देखें, लेखिका कहती है, “नवउदारवादी नीतियाँ… ताकतवर को और ताकतवर बनाती हैं। यही तो कार्पोरेट पूँजीवाद है। हो सकता है यह क्लासिकीय पूँजीवाद जैसा न हो, क्योंकि क्लासिकीय पूँजीवाद उसूलों पर चलता होगा और वहाँ ‘चेक व बैलेंस’ की व्यवस्था होगी।” यह क्लासिकीय पूँजीवाद उसूलों पर चलने वाला पूँजीवाद भी लेखिका के ख्यालों में बसता है। पूँजीवाद के पूरे इतिहास में इसका कोई अस्तित्व नहीं है। उभर रहे पूँजीवाद (अगर लेखिका का अर्थ इस पूँजीवाद से है) का बर्बर रूप मार्क्स, एंगेल्स, अनेकों मार्क्सवादी और गैर-माक्सवादी इतिहासकारों, शेक्सपियर, बालज़ाक, डिकेन्स आदि अनेकों साहित्यकारों की रचनाओं में देखा जा सकता है। अगर क्लासिकीय पूँजीवाद से लेखिका का अर्थ भाकपा, माकपा और इनसे जुड़े बुद्धिजीवियों की तरह सार्वजनिक क्षेत्र की प्रमुखता वाली फ्मिश्रित अर्थव्यवस्था” से है तो इसके लिए भारत की आज़ादी के बाद का इतिहास देखना ही काफ़ी रहेगा।

अरुन्धति राय ने कम्युनिस्ट पार्टियों के पतन के कारणों पर रोशनी डालता मौलिक सिद्धान्त भी खोज ही लिया है। उसका कहना है, “जब पार्टियाँ छोटी होती हैं,…तो हमारे पास नेक नीयत होती है। तुम अच्छी अवस्थितियों और उच्च नैतिक आधार अपना सकते हो। लेकिन अगर तुम…बड़ी पार्टी हो तो हालत और होती है।” यानी किसी पार्टी को पतन से बचना है तो उसे बड़ी पार्टी बनने से बचना होगा, छोटी पार्टी ही बने रहना होगा। है न अनोखा लेकिन मौलिक विचार। अरुन्धति राय का यह सिद्धान्त जानकर तो कई कम्युनिस्ट सिद्धान्तकार भी शर्मा गए होंगे कि इतना “महान” विचार उनके दिमाग में क्यों नहीं आया। ऐसे अनोखे लेकिन मौलिक विचार पढ़कर अरुन्धति राय के श्रद्धालुओं की समझ पर दया आती है, जो उसकी बौद्धिकता पर हमेशा मंत्र-मुग्ध हुए रहते हैं।

संदर्भ

1 The International Working Class Movement, Problems of History and Theory, Vol.1, P.629

2 देखें, प्रतिबद्ध, बुलेटिन 21 और 22 में छपा लेख ‘सोवियत संघ विच समाजवादी प्रयोगां दे तजुर्बे – इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ’ (पंजाबी)

3 Marx, The Class Struggle in France 1848 to 1850, P.5, Progress Publsihers, Moscow, 1975 (अनुवाद हमारा)

4 उपरोक्त

5 देखें, प्रतिबद्ध, बुलेटिन-20, (सितम्बर, 2013) में छपा लेख ‘अम्बेडकर अते दलित मुक्ति’ (पंजाबी)

6 P. Sundraya, Telengana People’s Struggle and its Lessons, pages 126-27

7 Dr. Baba Saheb Ambedkar, Writings and Speeches, vol. 9, p. 189,अनुवाद हमारा

8 Gail Omvedt, ‘Dalits and Democratic Revolution’, First Edition, 1994, p. 98

9 अम्बेडकर, सम्पूर्ण रचनाएँ (हिन्दी), भाग -5, पन्ना-16 (अनुवाद हमारा)

10 गेल की उपरोक्त पुस्तक में अम्बेडकर का उद्धरण, पन्ना 80-81, अनुवाद हमारा

11 Dr. Baba Saheb Ambedkar, Writings and Speeches, vol. 9, p. 189, vuqokn gekjk

12 उपरोक्त, पन्ना 178

13 उपरोक्त, पन्ना 63-64, अनुवाद हमारा

14 इस पर अधिक विस्तार में देखें Dhananjay Keer, ‘Ambedkar Life and Mission’, Chapter 6

15 Gail Omvedt, उपरोक्त, पन्ना 15

16 Gail Omvedt, उपरोक्त, पन्ना 183

17 देखें बहिष्कृत भारत (हिन्दी), 31 मई 1929

18 Dhananjay Keer, Ibid

19 इस पर अधिक जानकारी के लिए देखें, उपरोक्त पाठ 7-8

20 मार्क्स-एंगेल्स, ‘बस्तीवाद बारे’ (पंजाबी), पंजाब बुक सेंटर, चण्डीगढ़, पन्ना 93-94

21 सम्पूर्ण वांगमय (हिन्दी), खण्ड 7, डा. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मंत्रलय, भारत सरकार द्वारा प्राकशित

22 उपरोक्त, पन्ना 343

23 उपरोक्त

24 उपरोक्त

25 ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’, उपरोक्त, पन्ना 345

26 उपरोक्त, पन्ना 346

27 Marx-Engles, ‘The German Ideology’, Progress Publishers, Moscow, p. 617

28 डा. अम्बेडकर, सम्पूर्ण वांगमय (हिन्दी), खण्ड 7, पन्ना 347

29 उपरोक्त, पन्ना 348

30 रंगानायकम्मा, ‘जाति प्रश्न के समाधान के लिए बुद्ध काफ़ी नहीं, अम्बेडकर भी काफ़ी नहीं, मार्क्स ज़रूरी नहीं, (हिन्दी) पन्ना 357-58

31 डा.अम्बेडकर, सम्पूर्ण वांगमय (हिन्दी), खण्ड 7, पन्ना 354

32 उपरोक्त, पन्ना 355

33 उपरोक्त, पन्ना 356

 

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

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