अक्टूबर क्रान्ति की उपलब्धियाँ, समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ और भविष्य की सम्भावनाएँ
– शशि प्रकाश
(यह लेख अक्टूबर क्रान्ति की शतवार्षिकी के अवसर पर नेपाल के वरिष्ठ लेखक और राजनीतिक कार्यकर्ता कॉ. निनु चपागाईं के सम्पादन में प्रकाशित ‘अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी स्मारिका’ के लिए पिछले वर्ष अक्टूबर में लिखा गया था। लॉकडाउन आदि की समस्याओं के कारण नेपाली में यह संकलन अभी-अभी प्रकाशित हुआ है।)
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7 नवम्बर, 1917 (नये कैलेण्डर के अनुसार) की आधी रात को पेत्रोग्राद के क्रान्तिकारी मज़दूरों के दस्ते जब शीत प्रासाद की ओर बढ़ रहे थे तब उन्हें सम्भवत: इस बात का अहसास नहीं रहा होगा कि वे मानवता के इतिहास के एक नये अध्याय का पन्ना पलटने जा रहे हैं। उनकी बन्दूकों ने रूसी क्रान्ति के साथ ही दूसरे देशों में भी क्रान्तियों की राह को रौशन किया। अक्टूबर क्रान्ति की तोपों के धमाके पूरी दुनिया में गूँज उठे। पूरी दुनिया में मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम के संगठित होने, कम्युनिस्ट पार्टियों के निर्माण और मज़दूर क्रान्तियों के अविराम क्रम के साथ ही राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों को भी नया संवेग मिला। कमोबेश 1980 के दशक के अन्त तक, उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद को इतिहास के क़ब्रिस्तान में निर्णायक तौर पर दफ्ऩ किया जा चुका था।
यह अक्टूबर क्रान्ति का ही प्रभाव था कि यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन पर हावी काउत्स्कीपंथी सामाजिक जनवादी दो-तीन वर्षों के भीतर सिमटकर अलग-अलग देशों में गुट बनकर रह गये और यूरोप के मज़दूर वर्ग का बहुलांश 1919 में स्थापित ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल‘ की घटक लेनिनवादी पार्टियों के नेतृत्व में संगठित हो गया। पहले विश्वयुद्ध के अन्तिम दौर की विशेष परिस्थितियों में जर्मनी और ग्रीस के सर्वहारा ने भी क्रान्ति की महत्वपूर्ण कोशिशें कीं और हंगरी में तो कुछ समय के लिए उसने सत्ता पर अधिकार भी कर लिया। हालाँकि ये सभी क्रान्तियाँ कुचल दी गयीं, लेकिन यूरोप की नवगठित पार्टियों के नेतृत्व में सर्वहारा संघर्षों का अटूट सिलसिला जारी रहा। अक्टूबर क्रान्ति के बाद, एशिया, लातिन अमेरिका और अरब अफ्रीका (और आगे चलकर अन्य अफ्रीकी देशों में भी) के उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों में संगठित मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट पार्टियाँ अस्तित्व में आयीं। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों में इनकी भूमिका सभी जगह महत्वपूर्ण थी और कुछ देशों में नेतृत्वकारी थी।
1. अक्टूबर क्रान्ति : एक विश्व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
आज अगर हम पीछे मुड़कर विश्व सर्वहारा क्रान्ति के इतिहास का सिंहावलोकन करें तो कहा जा सकता है कि 1848 के आसपास से लेकर 1871 के आसपास का कालखण्ड विश्व सर्वहारा क्रान्ति का पहला चरण था और इस दौरान विजित सर्वोच्च शिखर 1871 का पेरिस कम्यून था जब पेरिस के वीर कम्यूनार्डों ने सत्ता पर कब्जा करके सर्वहारा अधिनायकत्व का पहला मॉडल प्रस्तुत किया जिसका समाहार करते हुए मार्क्स-एंगेल्स ने मार्क्सवाद की सैद्धान्तिकी को नई समृद्धि प्रदान की। पेरिस कम्यून से लेकर अक्टूबर क्रान्ति तक का कालखण्ड (1871-1917) विश्व सर्वहारा क्रान्ति का दूसरा चरण था। 1874 में पहले इण्टरनेशनल के विघटन के बाद यूरोप में नवगठित सामाजिक जनवादी पार्टियों ने 1889 में दूसरे इण्टरनेशनल का गठन किया। यही वह समय था जब यूरोप में मार्क्सवाद से परिचित हुए प्लेखानोव और उनके कुछ सहयोगियों ने इस विचारधारा के आलोक को रूस में पहुँचाया। रूस में मार्क्सवाद घनीभूत विचारधारात्मक संघर्षों से गुज़रकर सिद्धान्त और व्यवहार में नयी ऊँचाइयों तक विकसित हुआ। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों ने किसानी समाजवाद (नरोदवाद) के विरुद्ध संघर्ष के साथ ही बलात् राज्यसत्ता-ध्वंस की बुनियादी मार्क्सवादी प्रस्थापना को तोड़ने-मरोड़ने की हर दुश्चेष्टा के विरुद्ध संघर्ष किया तथा मेन्शेविकों और यूरोपीय सामाजिक जनवादियों की ‘जन-पार्टी’ की अवधारणा के विरुद्ध, उन्नत चेतना वाले मज़दूरों के बीच से भरती कम्युनिस्ट हरावलों की एक ऐसी जुझारू ‘कैडर पार्टी’ की बोल्शेविक अवधारणा प्रस्तुत की, जिसका मेरुदण्ड पेशेवर क्रान्तिकारी होते थे और जो जनवादी केन्द्रीयता के सांगठनिक सिद्धान्तों से संचालित होती थी। बोल्शेविक पार्टी की इस अवधारणा को अक्टूबर क्रान्ति की विजय ने सत्यापित किया। उसके बाद भी दुनिया में जितनी सफल सर्वहारा क्रान्तियाँ हुईं, वे सभी बोल्शेविक सिद्धान्तों और साँचे-खाँचे वाली पार्टियों के ही नेतृत्व में हुईं। जहाँ कहीं भी कम्युनिस्टों ने पार्टी या समाजवाद की समस्याओं की ग़लत पहचान और ग़लत समाधान करते हुए पार्टी के बुनियादी बोल्शेविक उसूलों में तोड़मरोड़ या ढिलाई लाने की कोशिश की, वहाँ पार्टियाँ या तो विसर्जित हो गयीं या विपथगामी हो गयीं। या यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ कहीं भी पार्टी में संशोधनवादी हावी हुए, उन्होंने सबसे पहले पार्टी की बोल्शेविक संरचना को बदल डाला। जिन किन्हीं भी समाजवादी देशों में पूँजीवादी पथगामी पार्टी और सत्ता पर हावी हुए और उन्होंने पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत की, वहाँ पार्टी के लेनिनवादी ढाँचे और कार्य-प्रणाली को बदल देने का काम उन्होंने सबसे पहले किया।
पहले विश्वयुद्ध के दौरान कार्ल काउत्स्की के नेतृत्व में यूरोप की सामाजिक जनवादी पार्टियों के बहुलांश ने जब अन्धराष्ट्रवादी अवस्थिति अपनायी, तो लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने धारा के विरुद्ध तैरते हुए सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावादी अवस्थिति अपनायी। लेनिन ने काउत्स्की की ग़द्दारी को अनावृत्त करते हुए स्पष्ट किया कि विकसित देशों के साम्राज्यवादी विश्व बाजार के बँटवारे के लिए जब आपसी युद्ध में उलझे हों तो इन देशों के सर्वहारा का कार्यभार अपने-अपने देशों के शासक वर्ग का साथ देकर अपने ही सर्वहारा भाइयों पर गोली चलाना नहीं है, बल्कि अपने-अपने देशों के शासक वर्ग के विरुद्ध क्रान्तिकारी युद्ध छेड़ देना है। इन सन्दर्भों में, कहा जा सकता है कि अक्टूबर क्रान्ति काउत्स्कीपंथ पर लेनिन की सैद्धान्तिक विजय का व्यावहारिक सत्यापन थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में, वित्तीय पूँजी के जन्म, इज़ारेदारियों के बीच गहराती प्रतिस्पर्द्धा और पूँजी के निर्यात के साथ ही विश्व बाजार और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा का जो नया परिदृश्य उभरा, वह पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की मंज़िल में संक्रमण का द्योतक था। लेनिन ने काउत्स्की, हिल्फर्डिंग, हॉब्सन आदि की साम्राज्यवाद-विषयक स्थापनाओं का खण्डन करते हुए साम्राज्यवाद की अपनी थीसिस प्रस्तुत की और बताया कि विश्व पूँजीवाद के अन्तरविरोध और संकटों के विस्फोट युद्धों को जन्म देते रहेंगे और सर्वहारा क्रान्तियों के लिए अनुकूल वस्तुगत अवसर पैदा करते रहेंगे। यानी, साम्राज्यवाद सर्वहारा क्रान्तियों की पूर्वबेला है। अक्टूबर क्रान्ति ने लेनिन की इस स्थापना का भी सत्यापन किया।
पूँजीवाद के साम्राज्यवाद की मंजिल में संक्रमण के साथ ही क्रान्तियों के तूफ़ानों का केन्द्र कमोबेश पश्चिम से खिसककर पूरब की ओर आने लगा था। लेनिन ने साम्राज्यवाद का अध्ययन करते हुए इस परिघटना को भी रेखांकित किया। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ज़ारशाही के रूस की स्थिति कमोबेश ‘पूरब-पश्चिम सेतु’ की थी, जहाँ सर्वहारा वर्ग ने अपनी पहली क्रान्ति की। अक्टूबर क्रान्ति के बाद उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों (और आगे चलकर नवउपनिवेशों में) में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का जो ज्वार उठा वह गत शताब्दी के आठवें दशक तक चलता रहा। इनमें से कुछ देशों में राष्ट्रीय जनवाद के लिए संघर्ष में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका नेतृत्वकारी रही। शेष अधिकांश देशों में भी उसकी अहम सहयोगी भूमिका थी।
समाहारमूलक शब्दों में कहा जा सकता है कि विश्व मज़दूर आन्दोलन को ज़रूरी शिक्षाएँ देने वाला जर्मन सामाजिक जनवादी आन्दोलन फ्रांसीसी समाजवादी आन्दोलन और ब्रिटिश ट्रेड यूनियन आन्दोलन के ”कन्धों पर” (फ्रे. एंगेल्स) खड़ा हुआ था। इस शिक्षा को अमल में लाने का काम पेरिस कम्यून में फ्रांसीसी मज़दूरों ने किया। अक्टूबर क्रान्ति पेरिस कम्यून के ”कन्धों पर” (लेनिन) खड़ी हुई थी। 1905-07 की असफल रूसी क्रान्ति इसका ”ड्रेस रिहर्सल” थी और फरवरी, 1917 की बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति इसका ”प्राक्कथन” थी। पेरिस कम्यून और उत्तरवर्ती दशकों के अनुभवों से सीखकर तथा विचारधारात्मक संघर्षों के दौरान शिक्षा एवं परिपक्वता हासिल करते हुए मज़दूर वर्ग ने कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में राज्यसत्ता पर दूसरी बार कब्ज़ा अक्टूबर क्रान्ति के बाद जमाया। और इस बार यह कब्ज़ा महज़ 72 दिनों का नहीं, बल्कि 37 वर्षों का (1954 में स्तालिन की मृत्यु तक) रहा। यह दुनिया की पहली ऐसी राज्यसत्ता थी जो शोषकों की अल्पसंख्या पर शोषितों की बहुसंख्या का अधिनायकत्व थी। यह पहली ऐसी राज्यसत्ता थी जिसमें ”राज्य के साथ ही अ-राज्य के भी” तत्व थे और जिसका अन्त बलात् ध्वंस के द्वारा नहीं बल्कि क्रमश: विलोपीकरण के द्वारा होना था। इस सर्वहारा राज्यसत्ता के अन्तर्गत पहली बार ऐसा सम्भव हो सका कि उत्पादन के तमाम साधनों की निजी मिल्कियत को समाप्त करके साझा स्वामित्व की व्यवस्था को विचार से यथार्थ की जमीन पर उतार दिया गया। चार सहस्राब्दी से भी अधिक प्राचीन निजी भूस्वामित्व का ख़ात्मा हो गया। पहली बार जब उत्पादन करने वाले उत्पादन के साधनों के सामूहिक तौर पर स्वामी बने और वितरण, प्रबन्धन तथा पूरी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में वे स्वयं संचालित करने लगे तो विज्ञान, तकनोलाजी और उत्पादन की प्रगति की रफ़्तार ने यूरोपीय औद्योगिक क्रान्ति सहित इतिहास के सभी कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया। और उल्लेखनीय बात यह थी कि यह सारी प्रगति, पूँजीवादी प्रगति की तरह मेहनतकशों के शोषण और असमानता को बढ़ाते हुए नहीं, बल्कि समाज को ज़्यादा से ज़्यादा न्यायपूर्ण और मानवीय बनाते जाने के साथ-साथ हुई। क्रान्ति के बाद, दो दशकों से भी कम समय में सभी के लिए मुफ़्त शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास के लक्ष्य पूरे किये जा चुके थे। बेरोज़गारी और अपराध समाप्त हो चुके थे। इतिहास में स्त्रियों को पहली बार इस स्तर की सामाजिक बराबरी और सामाजिक आज़ादी हासिल हुई थी। कहा जा सकता है कि यहाँ तक, अक्टूबर क्रान्ति के बाद निर्मित समाजवादी समाज वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त का मूर्त रूप था, और इसीलिए अक्टूबर क्रान्ति पेरिस कम्यून के बाद विश्व सर्वहारा क्रान्ति का दूसरा मील का पत्थर थी।
अब यह एक अलग से विचारणीय प्रश्न है और इस पर हम अलग से विचार करेंगे भी कि इन युगान्तरकारी उपलब्धियों के बावजूद सोवियत संघ में समाजवाद की पराजय और पूँजीवादी पुनर्स्थापना क्यों हुई। इसी बात से चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति (1966-76) की विश्व-ऐतिहासिक महत्ता का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है, जिसे हम पेरिस कम्यून और अक्टूबर क्रान्ति के बाद विश्व सर्वहारा क्रान्ति की इतिहास-यात्रा का तीसरा महान मील का पत्थर मानते हैं। बेशक 1949 की चीनी नव जनवादी क्रान्ति भी एक पथान्वेषी और प्रवृत्ति-निर्धारक क्रान्ति थी जिसने सभी उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों में सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा और रास्ते का निर्धारण एवं मार्गदर्शन किया। लेकिन उपनिवेशों-अर्द्धउपनिवेशों-नवउपनिवेशों का दौर साम्राज्यवाद का एक चरण था जो अब बीत चुका है। सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति ने समाजवादी संक्रमण की शताब्दियों लम्बी ऐतिहासिक अवधि के दौरान जारी रहने वाली सतत् क्रान्ति की आम दिशा का निरूपण किया। उसने स्पष्ट किया कि समाजवादी समाज में वर्ग और वर्ग संघर्ष किस रूप में मौजूद रहते हैं, किस प्रकार श्रम शक्ति की ख़रीद-फ़रोख्त, उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व और शोषण की समाप्ति के बावजूद बुर्जुआ अधिकार और असमानताएँ बनी रहती हैं, नये बुर्जुआ वर्ग के पैदा होने की ज़मीन मौजूद रहती है और अगर उत्पादन-सम्बन्धों तथा अधिरचना के सतत् क्रान्तिकारीकरण की प्रक्रिया जारी न रहे, तो पूँजीवाद की पुनर्स्थापना अवश्यम्भावी होती है। लेकिन चीन में पार्टी के इस नतीजे तक पहुँचने और उसे अमल में उतारने तक देर हो चुकी थी, देश में वर्ग शक्ति सन्तुलन बदल चुका था, पार्टी और राज्य में नये बुर्जुआ तत्व मज़बूत हो चुके थे। नतीजतन, 1976 के बाद वहाँ भी ”बाजार समाजवाद” के नाम पर पूँजीवाद की स्थापना हो गयी। लेकिन फिर भी महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की विश्व ऐतिहासिक महत्ता अक्षुण्ण है, क्योंकि उसने समाजवाद की बुनियादी समस्याओं की शिनाख़्त करते हुए उनके समाधान की आम दिशा बतलायी।
2. सोवियत संघ में समाजवाद की युगान्तरकारी उपलब्धियाँ
आज की दुनिया पुनरुत्थान और विपर्यय के जिस घुटन भरे अँधेरे में जी रही है, वह एक ऐतिहासिक स्मृति-लोप का समय है। बुर्जुआ संचार और प्रचार का दैत्याकार वैश्विक तंत्र हमें लगातार यह बताता रहता है कि हमारे ”उत्तर-आधुनिक समय” में क्रान्तियों के महाख्यान विसर्जित हो चुके हैं, कि आधुनिकता, तर्कणा और मुक्ति की सारी परियोजनाएँ यूटोपिया सिद्ध हुई हैं, कि समाजवाद भी फासीवाद व अन्य बुर्जुआ निरंकुश तंत्रों जैसा ही सर्वसत्तावादी था… वगैरह-वगैरह। सोवियत संघ में 1956 से 1990 तक समाजवाद के नाम पर संशोधनवादी पार्टी के नेतृत्व में जो भ्रष्ट और निरंकुश बुर्जुआ सत्ता क़ायम थी (1976 के बाद चीन में भी ”बाज़ार समाजवाद” के नाम पर वैसी ही सत्ता क़ायम है), उस ‘सोशल फासिस्ट’ सत्ता के सभी कुकर्मों को समाजवाद के मत्थे थोपकर उसे बदनाम किया जाता है। जिन स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ ने प्रगति और न्यायपूर्ण समाज-निर्माण के अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किये तथा अपने एक करोड़ 70 लाख नागरिकों की कुर्बानी देकर पूरी दुनिया को फासिज़्म के कहर से बचाया, उन्हें सबसे अधिक कुत्सा-प्रचार का निशाना बनाया जाता है। 1920 से लेकर 1940 के दशक तक एच.जी. वेल्स, रोम्यां रोलां, टैगौर, नेहरू आदि दर्जनों शीर्ष बुद्धिजीवियों, लेखकों, वैज्ञानिकों और बुर्जुआ राजनेताओं ने सोवियत संघ की प्रगति के बारे में अभिभूत और चमत्कृत होकर जो कुछ भी लिखा था, उसे आज के अधिकांश प्रबुद्ध नागरिक भी नहीं जानते। बुर्जुआ मीडिया लाख कोशिशों के बावजूद बुर्जुआ समाज की रुग्णताओं और निरुपाय संकटों को छुपा नहीं पाता, लेकिन वह हमें विश्वास दिलाने की कोशिश करता है कि अब दुनिया विकल्पहीन है, कि समाजवाद यूटोपिया है इसीलिए समाप्त हो गया, कि पूँजीवाद को ही कुछ सुधारों के साथ चलते रहना है। यही दरअसल बुर्जुआ विचारधारा और राजनीति का वर्चस्व (हेजेमनी) है। इसी वर्चस्व के विरुद्ध प्रति-वर्चस्व (काउण्टर-हेजेमनी) का संघर्ष संगठित किया जाना है। अक्सर ऐसा भी होता है कि कुछ अधकचरे वाम बुद्धिजीवी और सामाजिक जनवादी पार्टियाँ समाजवादी-नामधारी कुछ रैडिकल सामाजिक जनवादी प्रयोगों (जैसे ब्राजील में लूला की पार्टी, निकारागुआ में सान्दिनिस्ता, वेनेजुएला में शाविस्ता, ग्रीस में सिरिजा) आदि की सत्ता को समाजवाद के ”इक्कीसवीं सदी के मॉडल” के रूप में प्रचारित करने लगते हैं और फिर उनके विघटन या पतन के रुदालियों की तरह छाती पीटने लगते हैं।
निराशा और विभ्रम के इस दौर में, सबसे पहले तो यह समझना ज़रूरी है कि विश्व इतिहास में अतीत में भी क्रान्तियों के शुरुआती संस्करण पराजित हुए हैं और फिर अगले दौर में उनके नये संस्करणों ने निर्णायक विजय हासिल की है। और फिर, सर्वहारा क्रान्तियाँ मानव इतिहास की सर्वाधिक आमूलगामी क्रान्तियाँ हैं, जो वर्ग समाज की बुनियाद पर—सम्पत्ति सम्बन्धों और निजी स्वामित्व पर चोट करती हैं। ये सिर्फ चन्द शताब्दियों की उम्र वाले पूँजीवादी समाज के ख़िलाफ़ ही नहीं बल्कि सहस्राब्दियों लम्बी उम्र वाले सम्पूर्ण वर्ग समाज के ख़िलाफ़ हैं। अत: यदि विश्व ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो बीसवीं शताब्दी की प्रारम्भिक सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय अप्रत्याशित नहीं है। इतना तय है कि यह पराजय स्थायी नहीं, बल्कि फिलहाली है। श्रम और पूँजी के शिविर के बीच विश्व ऐतिहासिक महासमर का पहला चक्र कई चरणों से होते हुए उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य से लेकर 1976 तक जारी रहा। फिर इस चक्र का समापन श्रम के शिविर की पराजय के रूप में हुआ। अब आने वाला समय इस विश्व-ऐतिहासिक समर के दूसरे चक्र का साक्षी होगा। विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट और अतीत की समाजवादी क्रान्तियों की पराजय से मिली शिक्षाओं के मद्देनज़र, आज यह बात ज़्यादा विश्वास के साथ कही जा सकती है कि विश्व सर्वहारा क्रान्ति के अगले चक्र की शुरुआत चाहे जितनी कठिनाई से और जितने विलम्ब से हो, वह चक्र श्रम के शिविर के पक्ष में निर्णायक होगा, इसकी सम्भावना अधिक है। अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की विजय के निर्णायक होने की सम्भावना अधिक है। समाजवाद को यूटोपिया बताने वाले कूपमण्डूकों और भाड़े के बुद्धिजीवियों को यह मोटी सी बात समझ में नहीं आती कि प्रयोगशाला में ट्रान्सप्लाण्ट किया गया कोई अंग अगर कुछ समय भी काम कर जाये तो वैज्ञानिक का निष्कर्ष यही होता है कि ‘ऑर्गन ट्रान्सप्लाण्ट’ मुमकिन है। इस दुनिया ने समाजवादी समाज की चमत्कारी प्रगति के कई दशक देखे हैं। आज कोई समाजवादी देश नहीं है, लेकिन समाजवादी क्रान्ति का विज्ञान मौजूद है। बिखरी हुई और कमज़ोर ही सही, पर उसकी वाहक शक्तियाँ भी मौजूद हैं। और समाजवाद की विफलता के कारणों की एक समझ भी मौजूद है। अत: अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों का निर्माण अवश्यम्भावी है। या तो यह होगा, या फिर युद्ध, फासिस्ट बर्बरता और पर्यावरणीय विनाश मानव सभ्यता को ही तबाह कर देंगे।
आज एक नयी शुरुआत के लिए समाजवादी संक्रमण की समस्याओं और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को समझना सबसे ज़रूरी है। लेकिन इसके पहले कुछ तथ्यों और आँकड़ों के ज़रिए हम उस विस्मयकारी प्रगति की एक तस्वीर प्रस्तुत करना चाहेंगे जो अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत समाजवाद ने हासिल की थी।
अक्टूबर क्रान्ति एक ऐसे समय में सम्पन्न हुई जब पहले साम्राज्यवादी युद्ध में उलझाव के चलते रूस की अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी थी। लोग भयंकर तबाही और बदहाली का जीवन बिता रहे थे। 1918 से 1921 के बीच नवजात सोवियत राज्य को अन्तरराष्ट्रीय तौर पर संगठित सशस्त्र प्रतिक्रान्ति का सामना करने के लिए “युद्ध कम्युनिज़्म” की नीतियाँ अपनायी गयीं। इन फौरी और आपातकालीन नीतियों में बड़े पैमाने पर उद्योगों का राष्ट्रीकरण, कृषि उत्पादों की अनिवार्य वसूली और व्यापार का राज्य के हाथों में केन्द्रीकरण शामिल था। ये नीतियाँ सामान्य तौर पर समाजवादी क्रान्ति के प्रारम्भिक दौर में सर्वहारा सत्ता के आर्थिक कार्यभारों के अनुरूप नहीं थीं, लेकिन युद्ध और तबाही के हालात में इन्हें अपनाने के लिए विवश होना पड़ा था।
बाहरी हमले और प्रतिक्रान्ति की अन्दरूनी कोशिशों को नाकाम कर दिये जाने के बाद भी समाजवादी निर्माण का काम सामान्य तौर पर शुरू करने की परिस्थितियाँ नहीं थीं। विश्वयुद्ध, क्रान्ति और प्रतिक्रान्ति के सात तूफानी वर्षों ने रूसी राष्ट्रीय अर्थतंत्र को पंगु बना दिया था। सोवियत संघ की साम्राज्यवादी घेरेबन्दी अभी भी जारी थी। हालत यह थी कि 1913-21 के बीच पूँजी-निवेश के लगभग ठप्प हो जाने के कारण, 1920 में बड़े उद्योगों का सकल राष्ट्रीय उत्पादन 1913 के स्तर का मात्र 14.4 प्रतिशत था। सीमेण्ट-उत्पादन युद्ध पूर्व स्तर का मात्र एक प्रतिशत रह गया था। कृषि उत्पादन युद्ध पूर्व समय के मुक़ाबले आधा रह गया था। उपभोक्ता सामग्रियों का घोर अभाव था। इन हालात में बोल्शेविकों ने क्रमबद्ध ढंग से पीछे हटने का रास्ता चुना ताकि समाजवाद की दिशा में फिर आगे बढ़ा जा सके। यह ‘नयी आर्थिक नीति’ का दौर था जो सर्वहारा राज्यसत्ता द्वारा संगठित और नियंत्रित ढंग से ‘राजकीय पूँजीवाद की नीतियों की ओर पीछे हटने का दौर‘ था। इस दौरान छोटे-मँझोले निजी उद्योगों और निजी आन्तरिक व्यापार को अस्थायी तौर पर फिर से बहाल किया गया, अनिवार्य कृषि-वसूली की जगह हल्के कराधान की व्यवस्था की गयी, उद्योगों को कुछ खास क्षेत्रों में काफी लाभप्रद छूटें दी गयीं। राष्ट्रीकृत बड़े पैमाने के ‘मास मार्केट’ उद्योगों को पूँजीवादी आधार पर चलाया जाने लगा, हालाँकि यह व्यवस्था सख्त नियंत्रण के तहत थी। राजकीय उद्योगों के लिए मुनाफे के आधार पर काम करने की व्यवस्था की गयी। कारखानों के प्रबंधकों को मज़दूरी तय करने में स्वायत्तता दी गयी और उन्हें अंशत: मुनाफे़ पर कमीशन के आधार पर वेतन दिया जाता था।
नयी आर्थिक नीति का उद्देश्य उत्पादन को फिर से गति देना तो था ही, लेकिन सिर्फ़ इतना ही नहीं था। उसने बोल्शेविकों के लिए अर्थव्यवस्था को चलाने के एक विशाल स्कूल का काम किया, ताकि वे उस बुर्जुआ वर्ग को परास्त करने के योग्य बन सकें जो अभी भी उनके बीच मौजूद था और लगातार, नये सिरे से (विशेषकर, छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन से) पैदा भी हो रहा था। यह लक्ष्य पूरा होते जाने के साथ ही नयी आर्थिक नीति राजकीय पूँजीवाद की ओर पीछे हटने से समाजवाद की ओर आगे बढ़ने के रूप में विकसित हो गयी। ग्यारहवीं पार्टी कांग्रेस में लेनिन ने कहा, ”एक साल से हम लोग पीछे हटते आ रहे हैं1 पार्टी की ओर से अब हमें इसे रोक देना होगा।”
यूँ तो नयी आर्थिक नीति का दौर 1928 में पहली पंचवर्षीय योजना लागू होने तक चलता रहा लेकिन आर्थिक स्थिति सापेक्षत: सुदृढ़ होते ही ”पीछे हटना” पहले ही रोक दिया गया था। 1920 के दशक के मध्य से निजी उद्यम और निजी व्यापार को समाप्त करना शुरू कर दिया गया था और 1932 तक उत्पादन या व्यापार को बाधित किये बिना इन्हें लगभग ख़त्म किया जा चुका था। राजकीय उद्यमों के प्रबन्धन की स्वायत्तता को क्रमश: सीमित किया गया और कदम ब कदम उद्योगों की सभी शाखाओं में समाजवादी नियोजन लागू कर दिया गया।
फिर भी 1920 के दशक के अन्त तक कृषि क्षेत्र पर पूँजीवादी सम्बन्धों की जकड़बन्दी क़ायम थी। कुलकों का अस्तित्व क़ायम था जो सोवियत राज्य की खुली अवज्ञा करते थे, टैक्स अदा करने और अनाज बेचने से इन्कार करते थे, तथा जमाखोरी और कालाबाज़ारी करते थे। दूसरी तरफ लाखों छोटे किसान परिवार आदिम युग के साधनों से जमीन के छोटे-छोटे अलाभप्रद टुकड़ों पर खेती करते थे और नारकीय जीवन बिताते थे। तेज़ गति से विकुलकीकरण और सामूहिकीकरण के पीछे इन लाखों ग़रीब किसानों (बेद्न्याक) की कुलकों के प्रति गहरी घृणा और उन्हें बेदखल करने की व्यग्रता की भी एक अहम भूमिका थी। आधुनिक खेती के विकास और गाँवों में समाजवाद के आधार-निर्माण के लिए ग़रीब किसानों की सक्रिय भूमिका के सहारे सामूहिकीकरण का अभियान शुरू किया। कुलकों के तीव्र प्रतिरोधों और विद्रोहों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन वे कुचल दिये गये। इस मुहिम में कुलकों को दबाने के दौरान निस्सन्देह कुछ ज़्यादतियाँ भी हुईं और कहीं-कहीं सहकारी फार्मों में शामिल होने के लिए किसानों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती भी की गयी। स्तालिन ने विध्वंसक तत्वों के साथ सख़्ती बरतने के साथ ही, इन ग़लतियों की आलोचना की और मध्यम किसानों को अपने पक्ष में करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। फलत: किसानों के बीच राजनीतिक कार्य और पार्टी उपकरण मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया गया। पुराने बोल्शेविकों में से चुने गये 17,000 पार्टी सदस्यों को मशीन ट्रैक्टर स्टेशनों में राजनीतिक विभाग स्थापित करने के लिए देहाती इलाक़ों में भेजा गया। ये मशीन ट्रैक्टर स्टेशन समाजवादी निर्माण के महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में सामूहिक फार्मों के लिए काम कर रहे थे। इस प्रक्रिया में गाँवों में पार्टी उपकरण मज़बूत हुए और पार्टी की ग्रामीण सदस्यता 1930 से 1934 के बीच चार लाख से बढ़कर आठ लाख हो गयी।
1934 के अन्त तक 75 प्रतिशत किसान परिवार और 90 प्रतिशत खेती लायक़ ज़मीन 2,40,000 सामूहिक फार्मों के दायरे में आ चुकी थी। जो खेती-बाड़ी अभी हाल तक मशीनीकरण से एकदम अछूती थी, उसमें 1934 के अन्त तक 2,81,000 ट्रैक्टर और 32,000 हार्वेस्टर कम्बाइन काम कर रहे थे। इस मशीनीकरण की बदौलत गाँवों से बड़े पैमाने पर श्रम शक्ति खाली हुई जो तेजी से बढ़ते उद्योगों के लिए ज़रूरी थी। चौथे दशक के मध्य तक सोवियत सत्ता इस स्थिति में पहुँच गयी थी कि रोटी और अधिकांश बुनियादी ज़रूरत की चीजों की राशनिंग समाप्त कर दी गयी।
पूरे देश के लिए केन्द्रीकृत रूप से एक आर्थिक योजना तैयार करने के लिए राजकीय योजना आयोग (गॉस्प्लान) की स्थापना तो 1921 में ही हो चुकी थी लेकिन पहली पंचवर्षीय योजना 1928 में ही जाकर बनायी जा सकी। पहली पंचवर्षीय योजना इतिहास में केन्द्रीकृत नियोजन का पहला प्रयास थी। यह आर्थिक निर्माण का पहला ऐसा समाजवादी क़दम था, जब योजना की प्राथमिकताएँ व्यापक जन समुदाय के हितों के मुताबिक, और तात्कालिक भौतिक फ़ायदों के लिए नहीं, बल्कि एक समाजवादी समाज की अग्रवर्ती प्रगति के लिए आवश्यक भौतिक आधार के निर्माण को केन्द्र में रखकर तय की गयी थीं। बड़े समाजवादी उपक्रमों के रूप में आधारभूत और अवरचनागत उद्योगों की स्थापना को समाजवाद के लिए अपरिहार्य मानते हुए स्तालिन भी लेनिन की ही लाइन पर सोच रहे थे। तेज़ गति से औद्योगीकरण समाजवाद को शक्तिशाली बनाने की अनिवार्य शर्त थी। लेकिन सबसे बड़ी समस्या औद्योगिक विकास के लिए आदिम पूँजी-संचय की थी। पूँजीवाद ने कृषि से अधिशेष निचोड़कर तथा उपनिवेशों की भारी लूट से औद्योगिक क्रान्ति के लिए आवश्यक प्रारम्भिक पूँजी जुटायी थी। समाजवाद के लम्बे दौर में कृषि के सामूहिकीकरण और उद्योगों के राष्ट्रीकरण के बाद, आम जनता की पहलकदमी और उत्पादकता बढ़ाकर, नैतिक प्रोत्साहन, उन्नत समाजवादी संस्कृति एवं चेतना तथा विज्ञान-तकनोलॉजी की प्रगति के ज़रिए औद्योगीकरण को अंजाम दिया जा सकता था। लेकिन दुनिया के पहले समाजवादी राज्य के पास इतना समय कत्तई नहीं था। साम्राज्यवादी घेरेबन्दी अभी भी काफी हद तक जारी थी और 1930 के दशक के प्रारम्भ से ही फासिज़्म और विश्वयुद्ध का ख़तरा सिर पर मँडराने लगा था। ऐसी स्थिति में सोवियत सत्ता के सामने एक ही रास्ता था, और वह था—सचेतन तौर पर कृषि की अतिरिक्त उपज को औद्योगीकरण का आधार बनाया जाये, युद्ध की स्थिति में प्रतिरक्षा के लिए ज़रूरी भारी उद्योगों के लिए कृषि से निकाले गये अधिशेष का इस्तेमाल किया जाये, तथा, उत्पादन के साधनों के उत्पादन के लिए तात्कालिक उपभोग की किसी हद तक क़ुर्बानी दी जाये। हालाँकि इस आसन्न विवशता और आवश्यकता का एक नतीजा गाँव और शहर के बीच बढ़ती अन्तरवैयक्तिक असमानता के रूप में सामने आना ही था, जो समाजवाद की एक गम्भीर समस्या थी, लेकिन युद्ध की दहलीज़ पर खड़े युवा समाजवादी राज्य के सामने और कोई रास्ता नहीं था। साथ ही, स्तालिन ने यह मानते हुए ऐसा किया कि कृषि के तात्कालिक नुकसान की बाद में भरपाई करनी होगी और जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ेगा, वैसे-वैसे मशीनीकरण से खेती को अधिक लाभ मिलने लगेगा, बशर्ते कि गाँवों में स्वामित्व के समाजवादी रूपान्तरण का काम तब तक पूरा कर लिया जाये।
जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है, फौरी संकट के फौरी समाधान के कामों में उलझाव की विवशता और युद्ध की आसन्नता के चलते बोल्शेविकों को किसानों में काम करने और मज़दूर-किसान संश्रय को मज़बूत करने का उतना समय नहीं मिला। फलत: तेज़ गति से सामूहिकीकरण का विरोध कुलकों के साथ ही, एक हद तक मँझोले किसानों ने भी किया। बेशक इसका असर किसी हद तक उत्पादन पर भी पड़ा। लेकिन स्थिति जल्दी ही नियंत्रण में आ गयी और 1933 से 1937 के बीच कुल कृषि उपज में पुन: 33 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
व्यापक जन-पहलकदमी और उत्साह के निर्बन्ध होने के चलते पहली पंचवर्षीय योजना निर्धारित समय से 9 माह पहले ही पूरी हो गयी। तकनीशियनों की भारी कमी के बावजूद, इस अवधि के दौरान ट्रैक्टर, ऑटोमोबाइल, जहाज़, रसायन, कृषि मशीनरी, मशीन टूल्स, इंजीनियरिंग, युद्धक सामग्री आदि के उत्पादन के विशालकाय औद्योगिक ढाँचे एकदम शून्य से शुरू करके खड़े किये गये। लौह खनिज और पेट्रोलियम उत्पादन तेज़ी से बढ़ा। जिस रफ़्तार से इस्पात कारखाने लगे और लगभग पूरे देश का विद्युतीकरण हुआ, उस पर पश्चिमी दुनिया दंग थी और बुर्जुआ मीडिया भी इन ”चमत्कारों” की चर्चा करने लगा। पूरे देश की जनता का, विशेषकर भारी उद्योगों के मज़दूरों का जीवन-स्तर तेजी से ऊपर उठा। मज़दूरी में 103.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। जिस समय पूँजीवादी विश्व पर महामन्दी का कहर बरपा हो रहा था और अमेरिका में 1.15 करोड़, जर्मनी में 56 लाख और ब्रिटेन में 23 लाख बेरोजगार थे, उस समय, यानी 1932 तक सोवियत संघ में बेरोजगारी का पूर्ण उन्मूलन हो चुका था। नवम्बर, 1932 में अमेरिका की उदारवादी पत्रिका ‘नेशन‘ ने लिखा था : ”पंचवर्षीय योजना के चार वर्षों में वाक़ई असाधारण विकास हुआ है।… रूस नये जीवन के भौतिक और सामाजिक साँचों के निर्माण के रचनात्मक कार्यभार को पूरा करने में युद्धस्तर की तेजी के साथ जुटा हुआ है। देश का नक्शा वाकई इतना ज़्यादा बदला जा रहा है कि इसे पहचानना मुश्किल होगा।”
दूसरी पंचवर्षीय योजना भी अपने समय से 9 माह पहले पूरी हो गयी। मॉरिस डॉब (‘सोवियत इकोनॉमिक डेवलपमेण्ट सिन्स 1917‘) के अनुसार, इस योजना का लक्ष्य पूरी अर्थव्यवस्था का तकनीकी पुनर्गठन था। योजना के अन्त तक देश के कुल औद्योगिक उत्पादन का 4/5 हिस्सा ”पहली और दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान निर्मित या पूर्णत: पुनर्गठित नये उद्योगों” द्वारा होना था। इसके लिए नये उद्योग लगाना, नयी तकनीक में महारत, श्रम-उत्पादकता में भारी वृद्धि, उत्पादन-लागत में कमी लाना और उत्पाद के स्तर को ऊपर उठाना ज़रूरी था। इस लक्ष्यसिद्धि में योजना पूर्णत: सफल रही। औद्योगिक उत्पादन 1932 की तुलना में 100 प्रतिशत और 1913 की तुलना में 500 प्रतिशत बढ़ गया। योजना के अंत तक 4500 नये औद्योगिक उपक्रम स्थापित हुए जो कुल औद्योगिक उत्पादन का 80 प्रतिशत पैदा कर रहे थे। बिजली उत्पादन 2600 करोड़ किलोवाट हो गया जो 1932 की तुलना में दोगुना और 1913 की तुलना में तेरह गुना था। सभी अवरचनागत उद्योगों ने ऐसी ही प्रचण्ड वृद्धि दर्ज की।
नयी आर्थिक नीति की समाप्ति के समय दुनिया के औद्योगिक देशों में रूस पाँचवें स्थान पर था, लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना की समाप्ति पर यह दूसरे स्थान पर आ चुका था। इसे निम्न तालिका में देखा जा सकता है :
सोवियत संघ के औद्योगिक विकास की दर समूचे आधुनिक इतिहास में अतुलनीय थी। इसे निम्न तालिका में देखा जा सकता है :
ब्रिटिश आर्थिक इतिहासकार ऐंगुस मैडिसन के अनुसार, सोवियत संघ में 1913 से 1965 के बीच प्रति व्यक्ति आर्थिक वृद्धि की दर दुनिया के सभी विकसित देशों से भी ऊपर थी। इस दौरान सोवियत संघ की आर्थिक वृद्धि दर 440 प्रतिशत थी। उसके ठीक नीचे जापान (400 प्रतिशत) था। मॉरिस डॉब के अनुसार, ”उद्योगों की परिमाणात्मक वृद्धि को संक्षेप में इन सूचकों के ज़रिए जाना जा सकता है –
1928-38 के दशक के दौरान लोहा और इस्पात उद्योग की उत्पादक क्षमता चार गुना, कोयले की साढ़े तीन गुना, तेल की भी तीन गुना और बिजली की लगभग सात गुना बढ़ गयी थी, जबकि इसी दौरान नये उद्योगों की एक पूरी कतार स्थापित की जा चुकी थी जिसमें वायुयान, प्लास्टिक और कृत्रिम रबर सहित विविध भारी रसायन, एल्यूमीनियम, ताँबा, निकिल और टिन आदि शामिल हैं। सोवियत संघ दुनिया में ट्रैक्टरों और रेल इंजनों का सबसे बड़ा उत्पादक तथा तेल, सोना और फॉस्फेट का दूसरे नम्बर का सबसे बड़ा उत्पादक बन गया थाा” (पूर्वोद्धृत, पृ. 454)
ज़ाहिर है कि उत्पादक शक्तियों के निरन्तर विकास का रास्ता लगातार समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों को उन्नत करके ही निर्बाध बनाया जा सकता था और उन्नततर समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों के लिए उत्पादक शक्तियों की सतत् प्रगति ज़रूरी थी। उत्पादन को विविधीकृत करने और उसकी मात्रात्मक वृद्धि की रफ़्तार बढ़ाकर समाजवादी समाज के नागरिकों के जीवन को न्यायपूर्ण, सुन्दर, सुसंस्कृत बनाने के लिए विज्ञान और तकनोलॉजी की तेज़ प्रगति ज़रूरी थी। समाजवाद के अन्तर्गत नियोजन को विज्ञान की उतनी ही ज़रूरत थी जितनी विज्ञान को नियोजन की। विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास बड़े उद्योगों की आधारशिला रखने और सामूहिक फार्मों में मशीनीकृत आधुनिक खेती की प्रगति के लिए तो ज़रूरी था ही, विज्ञान की सैद्धान्तिक प्रगति के द्वारा मानवता के सुदूर भविष्य को उज्ज्वल बनाना भी समाजवाद का लक्ष्य था। एक शत्रुतापूर्ण दुनिया में टिके रहने के लिए युद्ध तकनोलॉजी का विकास भी ज़रूरी था। सोवियत सत्ता ने गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद से ही विज्ञान-तकनोलॉजी के विकास पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया। पहली पंचवर्षीय योजना के समय से नाभिकीय भौतिकी, क्वाण्टम भौतिकी, अन्तरिक्ष भौतिकी, रसायन, जैव-रसायन, प्राणि विज्ञान, भूगर्भ शास्त्र आदि सभी क्षेत्रों में तथा इंजीनियरिंग की सभी शाखाओं में योजनाबद्ध शोध-अध्ययन की शुरुआत हुई। 1917-41 के दौरान सोवियत संघ की वैज्ञानिक प्रगति का एक अनुमान 1945 में रूसी विज्ञान अकादमी की 220वीं वर्षगाँठ पर आयोजित समारोह में (इसकी शुरुआत 1725 में ज़ारीना कैथरीन ने 15 अकादमीशियनों और उनके स्टॉफ के वित्त-पोषण से की थी) प्रस्तुत समीक्षा-रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। 1917 में अकादमी में 40 अकादमीशियन, थे, 5 प्रयोगशालाओं में कार्यरत 212 वैज्ञानिक और तकनीशियन थे, 5 संग्रहालय, एक शोध-संस्थान, दो वेधशालाएँ और 15 कमीशन थे। 1941 में सोवियत संघ में 76 शोध संस्थान थे, जिनमें 47 केन्द्रीय और 29 अकादमी की विभिन्न शाखाओं के अन्तर्गत थे। 11 स्वतंत्र प्रयोगशालाएँ थीं, 42 भूकम्प-अध्ययन केन्द्र, जीवशास्त्रीय केन्द्र व अन्य स्टेशन थे, और 6 बेधशालाएँ थीं, जिनमें 5000 वैज्ञानिक और तकनीशियन कार्यरत थे। 1917 में विज्ञान-तकनोलॉजी का बजट 5 लाख रूबल था। 1941 में इनका केन्द्रीय बजट 13 करोड़ 50 लाख रूबल और गणराज्यों का तथा स्थानीय बजट अतिरिक्त 3 करोड़ 10 लाख रूबल था। सोवियत विज्ञान अकादमी के अतिरिक्त हर गणराज्य की अपनी अकादमी थी। 1930 के दशक के मध्य तक, ब्रिटिश वैज्ञानिक जे.डी. बर्नाल के आकलन के अनुसार, सोवियत संघ अपनी राष्ट्रीय आय का एक प्रतिशत विज्ञान-तकनोलॉजी पर खर्च कर रहा था जो अमेरिका के मुकाबले 3 गुना और ब्रिटेन के मुकाबले 10 गुना था। इस वैज्ञानिक प्रगति का आधार तैयार करने के लिए सोवियत सत्ता विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए कई-कई संस्थाओं के ज़रिए समाज के तृणमूल स्तर पर काम करती थी। साथ ही, उच्च शिक्षा का एक व्यापक ताना-बाना खड़ा किया गया था। 1917 में रूस में मात्र 91 विश्वविद्यालय और कॉलेज तथा 289 शोध संस्थान थे जिनमें 4,340 वैज्ञानिक कार्यरत थे। 1941 में सोवियत संघ में 700 विश्वविद्यालय व कालेज तथा 908 शोध संस्थान थे जिनमें 26,246 वैज्ञानिक कार्यरत थे।
1941 तक गणित, क्वाण्टम भौतिकी, नाभिकीय भौतिकी, क्रिस्टल भौतिकी, भूगर्भ शास्त्र, भू-विज्ञान, भौतिक रसायन, प्लाण्ट-ब्रीडिंग और एयरोडायनॉमिक्स जैसे क्षेत्रों में सोवियत संघ में कई ‘पाथ ब्रेकिंग’ शोध हो चुके थे और यह सिलसिला आगे भी जारी रहा। सोवियत नाभिकीय कार्यक्रम और अन्तरिक्ष कार्यक्रम की नींव भी इसी समय पड़ चुकी थी। 1950 के दशक में अन्तरिक्ष कार्यक्रम में सोवियत संघ अमेरिका से आगे था। युद्धक सामग्री उद्योग और नाभिकीय कार्यक्रम में भी वह उसकी बराबरी पर खड़ा था। यह बात पूरी दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद पता चली कि अप्रत्याशित जर्मन हमले का सामना करते हुए सोवियत संघ ने अपनी प्रयोगशालाओं और उत्पादन इकाइयों को (जैसे स्तालिनग्राद ट्रैक्टर फैक्ट्री को, जिसमें प्रसिद्ध टी-34 टैंक बनते थे) आनन-फानन में सुदूर पूरब में उराल पहाड़ों में स्थानान्तरित कर दिया था तथा उस कठिन दौर में भी उत्पादन के साथ-साथ शोध एवं आविष्कार के काम लगातार जारी रहे।
”साक्षरता कम्युनिज़्म का रास्ता तैयार करती है” – 1920 के दशक के एक पोस्टर की इबारत को बोल्शेविकों ने इस तरह व्यवहार में उतारा कि गृहयुद्ध (1918-21) के दौरान भी निरक्षरता-विरोधी अभियान चलता रहा और दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान मज़दूरों के लिए फैक्ट्रियों, खदानों और रेलवे लाइन के किनारे विशेष स्कूल स्थापित किये गये। 192 से 1940 के बीच पाँच करोड़ प्रौढ़ लोगों ने पढ़ना-लिखना सीखा। 1914-15 में सभी शिक्षा संस्थानों में छात्रों की कुल संख्या 99 लाख थी। 1956-57 तक यह बढ़कर 3 करोड़ 55 लाख हो चुकी थी। समाजवाद की राजनीतिक प्राथमिकताओं के अनुरूप प्राथमिक शिक्षा और काम के साथ शिक्षा पर अधिक ज़ोर दिया गया। सोवियत संघ की निरक्षरता-निर्मूलन की विस्मयकारी मुहिम को नीचे दी गयी तालिका स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करती है :
अब हम स्वास्थ्य सेवाओं पर एक दृष्टि डालें। क्रान्ति के तुरन्त बाद सोवियत सत्ता ने सभी नागरिकों के लिए मुफ़्त चिकित्सा सेवा की व्यवस्था लागू की। इस मामले में सरकार की प्रतिबद्धता इतनी कठोर थी कि गृहयुद्ध के वर्षों में भी इसके लिए बुनियादी ढाँचा खड़ा करने का काम जारी रहा और 1920 के दशक से तो यह तूफ़ानी गति से आगे बढ़ा। 1960 में एक बुर्जुआ जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ मार्क जी. फील्ड ने सोवियत जन-स्वास्थ्य प्रणाली के बारे में लिखा था : ”किसी भी अन्य गतिविधि की तरह स्वास्थ्य-रक्षा भी नियोजित होनी चाहिए, इसमें समानता होनी चाहिए, स्वास्थ्य रक्षा राज्य द्वारा वित्त पोषित एक मुफ़्त सामाजिक सेवा है, जनता का स्वास्थ्य सरकार की ज़िम्मेदारी है, और इसमें व्यापकतम जन-भागीदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, सिद्धान्त और व्यवहार की एकता होनी चाहिए… सोवियत शासन ने पिछले चार दशकों के दौरान जन-सेवा के तौर पर प्रदान की जाने वाली चिकित्सीय उपचार और निरोधक चिकित्सा की एक व्यवस्था क़ायम की है जिसका विस्तार इस क्षेत्र में राष्ट्रीय पैमाने पर किये गये किसी भी प्रयास से अधिक व्यापक हैा” (एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रशिया ऐण्ड सोवियत यूनियन‘, सं. – एम.टी. फ्लोरिंस्की, न्यूयार्क)
स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में हुई चतुर्दिक क्रान्ति को कुछ आँकड़ों के ज़रिए समझा जा सकता है। अस्पतालों में शैयाओं की संख्या 1913 में 20,700 थी जो छ: गुना बढ़कर 1956 में 1,36,000 हो गयी। 1913 में प्रति दस हजार आबादी पर 13 शैयाएँ थी जो 1956 में बढ़कर 68 हो गयीं। डाक्टरों की संख्या 1913 में 23,000, 1940 में 1,42,000 और 1958 में 3,62,000 थी। यानी इस अवधि में 15 गुना बढ़ोत्तरी हुई। 1958 में प्रति दस हज़ार निवासियों पर डाक्टरों की संख्या ब्रिटेन में 8.8, अमेरिका में 12 और सोवियत संघ में 17 थी। यह बड़ी संख्या में स्त्रियों के प्रशिक्षण के कारण सम्भव हो सका। क्रान्ति के पहले डाक्टरों में 10 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। 1940 तक वे 60 प्रतिशत और 1958 तक 75 प्रतिशत हो चुकी थीं। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले ही सोवियत संघ से यौन रोगों, कुपोषण और अस्वास्थ्यकर परिस्थिति-जनित रोगों तथा अधिकांश संक्रामक बीमारियों का लगभग खात्मा हो चुका था। स्वास्थ्य क्षेत्र में समाजवाद की महती उपलब्धियों को निम्न आँकड़ों से समझा जा सकता है:
ज़ाहिर है कि समाजवाद का लक्ष्य सिर्फ़ भौतिक प्रगति के नये शिखरों तक पहुँचना नहीं था, बल्कि न्याय, समानता और पूरी आबादी की (भौतिक मुक्ति के साथ ही) आत्मिक मुक्ति के साथ-साथ भौतिक प्रगति हासिल करना था। इसके लिए ज़रूरी था कि निजी स्वामित्व की व्यवस्था के साथ ही वह उसके एक प्रमुखतम स्तम्भ पर, यानी पितृसत्तात्मक पारिवारिक ढाँचे पर भी चोट करे, चूल्हे-चौखट की दमघोंटू नीरस दासता से स्त्रियों को मुक्त करे, उन्हें पुरुषों के साथ वास्तविक बराबरी का दर्जा देते हुए सामाजिक उत्पादक गतिविधियों और राजनीतिक-सामाजिक दायरों में भागीदारी का भौतिक-वैचारिक आधार तैयार करे तथा इसके लिए पुरुष वर्चस्ववादी मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं की जड़ों पर कुठाराघात करे।
अक्टूबर क्रान्ति के बाद स्त्रियों की मुक्ति की जिस लम्बी यात्रा की शुरुआत हुई, उसका अत्यन्त महत्वपूर्ण भौतिक पक्ष था सामाजिक श्रम में उनकी बढ़ती हुई भागीदारी। 1914 में कारखानों में लगी कुल श्रम शक्ति का मात्र 25 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। 1929 में यह संख्या बढ़कर 28 प्रतिशत, 1940 में 41 प्रतिशत और 1950 में 45 प्रतिशत हो गयी। इस उपलब्धि को इस तथ्य की रोशनी में देखा जाना चाहिए कि केवल 1913 से 1937 के बीच उद्योगों में आठ गुना वृद्धि हुई थी और इसके साथ ही, ज़ाहिरा तौर पर कुल औद्योगिक श्रम-शक्ति भी बढ़ गयी थी। संचार सेवाओं, जन भोजनालयों, जन स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में स्त्रियों का अनुपात विशेष रूप से अधिक था, लेकिन धातुकर्म, मशीन निर्माण, खदान और निर्माण उद्योगों में उनका प्रतिशत अनुपात लगातार बढ़ती भागीदारी के बावजूद पुरुषों से कम था। लेकिन जब तक सोवियत संघ में समाजवाद क़ायम था, यह स्थिति लगातार तेजी से बदलती जा रही थी। 1957 में उद्योगों में कार्यरत कुल तकनीशियनों में 59 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं।
सोवियत क्रान्ति ने स्त्रियों को जब मताधिकार दिया, उस समय दुनिया के उन्नत बुर्जुआ जनवादी देशों की स्त्रियों को भी यह हक़ हासिल नहीं था। ब्रिटेन की स्त्रियों को यह हक 1928 में जाकर हासिल हुआ। क्रान्ति के ठीक एक माह बाद सिविल मैरिज की व्यवस्था और तलाक को सुगम बनाने के लिए दो आज्ञप्तियाँ जारी की गयीं। फिर अक्टूबर, 1918 में विवाह, परिवार और बच्चों के अभिभावकत्व जैसे सभी पक्षों को समेटते हुए एक ऐतिहासिक ‘मैरिज कोड‘ की अभिपुष्टि की गयी। इस कोड ने जेण्डर समानता और व्यक्तिगत अधिकारों के नये सिद्धान्त के रूप में पहली बार स्त्रियों को वे अधिकार दिये जो दुनिया का कोई भी बुर्जुआ जनवादी देश आज तक नहीं दे पाया है। विवाह, सहजीवन और तलाक के मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को पूरी तरह समाप्त कर दिया। यौन-सम्बन्धों के मामले में भी राज्य और समाज का कोई हस्तक्षेप नहीं था, जब तक कि किसी को चोट पहुँचाने, ज़ोर-जबर्दस्ती या धोखा देने जैसा कोई मामला न हो। समलैंगिकता और रज़ामन्दी से किये जाने वाले यौन-क्रियाकलापों के विरुद्ध पहले के सभी क़ानूनों को समाप्त कर दिया गया। इसके पीछे यह कम्युनिस्ट सोच थी कि वर्ग समाज के विकृतिकारी सांस्कृतिक-आत्मिक प्रभावों से पैदा होने वाले हर तरह के विचलनशील यौन-व्यवहार को क़ानून के बाह्य दबाव से नहीं बल्कि नये सामाजिक ढाँचे के गठन और वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यों के द्वारा ही समाप्त किया जा सकता है। इसी तरह वेश्यावृत्ति को अपराध मानने वाले क़ानूनों को भी इस कम्युनिस्ट सोच के तहत रद्द कर दिया गया कि स्त्री को समान अधिकार और स्वतंत्र सामाजिक-आर्थिक हैसियत देने के बाद वर्ग समाज की इस प्राचीनतम बुराई का भी समूल नाश हो जायेगा। आने वाले वर्षों ने इस सोच को सही साबित किया। 1930 के दशक के मध्य तक सोवियत संघ से वेश्यावृत्ति, यौन रोगों और यौन अपराधों का पूरी तरह से ख़ात्मा हो चुका था।
क्रान्ति-पश्चात् काल में, यानी साम्राज्यवादी हमले, घेरेबन्दी और गृहयुद्ध के पूरे दौर में स्त्री बोल्शेविकों ने युद्ध, उत्पादन, शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चों पर अहम भूमिका निभाने के साथ-साथ सुदूर रूसी गाँवों और इस्लामी धार्मिक रूढ़ियों में जकड़े पूरब के सोवियत गणराज्यों तक पहुँचकर तमाम ख़तरों और कठिनाइयों का सामना करते हुए स्त्रियों के बीच शिक्षा एवं प्रचार का काम किया। 1920 तक अगर रूढि़यों-वर्जनाओं की सभी बेड़ियों को तोड़ते हुए 80,000 से भी अधिक स्त्रियाँ लाल सेना में भरती हो गयीं, तो इसमें स्त्री बोल्शेविकों के श्रमसाध्य प्रयासों की भी एक महती भूमिका थी। इन वीरांगनाओं की क़ुर्बानी का अनुमान महज इस एक तथ्य से लगाया जा सकता है कि गृहयुद्ध के दौरान और उसके बाद के दो वर्षों के दौरान जब पूरा देश (विशेषकर दक्षिणी और पश्चिमी भाग) अकाल, भुखमरी और बीमारियों से जूझ रहा था तो इस दौरान तेरह प्रतिशत स्त्री बोल्शेविक कार्यकर्ता आम जनता के बीच काम करते हुए कुपोषण और संक्रामक बीमारियों से मौत का शिकार हो गयीं। यही समय था जब देश के दक्षिणी और पश्चिमी इलाक़ों में तीन वर्ष से कम आयु के 90 प्रतिशत बच्चे मौत के ग्रास बन गये। 1922 में देश में अनाथ बच्चों की संख्या 75 लाख थी। सरकार 1918 से 16 वर्ष से कम उम्र के सभी बच्चों के लिए मुफ़्त भोजन और आवास का प्रबन्ध कर रही थी। 1918 के ‘फै़मिली कोड‘ के एक प्रावधान द्वारा अनाथ बच्चों को गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था क्योंकि किसानों के बीच एक घिनौना चलन था कि सस्ते श्रम के स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने के लिए अनाथों और ग़रीब परिवार के बच्चों को गोद ले लिया जाता था। ”सभी बच्चे राज्य के बच्चे हैं, जिनमें अनाथ बच्चे भी शामिल हैं” – 1919 में बचपन संरक्षण के प्रश्न पर हुई अखिल रूसी कांग्रेस ने यह प्रस्ताव पारित किया था।
गृहयुद्ध के दौरान जन समुदाय की लामबन्दी के लिए बोल्शेविकों ने ‘युद्ध कम्युनिज़्म’ की नीतियाँ अपनायीं थीं, जिनमें राजकीय राशनिंग, सार्वजनिक भोजनालय, बच्चों के लिए मुफ़्त भोजन, जिंस के रूप में कर आदि प्रावधान शामिल थे। 1920 में मास्को की 93 प्रतिशत आबादी सार्वजनिक कैफेटेरिया में भोजन करती थी। पेत्रोग्राद में 10 लाख लोग इस सेवा का लाभ उठाते थे। हालाँकि उन्नत स्तर की सामुदायिकता के ये रूप, आपातकालीन स्थितियों में, वक्त से पहले अपनाये गये थे, लेकिन सामाजिक जीवन और स्त्रियों की स्थिति पर इसका ज़बर्दस्त सामाजिक प्रभाव पड़ा। घरेलू कामों और बच्चों के लालन-पालन का समाजीकरण हो जाने से स्त्रियों को घरेलू जेल से मुक्ति मिली और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक गतिविधियों में पुरुषों के साथ बराबरी के हालात में उनकी शिरकत की ज़मीन तैयार हो गयी।
सरकार ने क्रान्ति के तत्काल बाद स्त्री मज़दूरों को सामाजिक-सांस्कृतिक सुविधाएँ और सामुदायिक सेवाएँ देने के साथ-साथ उनके लिए शिक्षा एवं प्रशिक्षण के कार्यक्रमों की शुरुआत कर दी थी। 1918 के ‘लेबर कोड‘ के अन्तर्गत छोटे बच्चों की माँ स्त्री मज़दूरों को हर तीन घण्टे पर बच्चे को दूध पिलाने के लिए 30 मिनट का अवकाश दिया जाता था जिसे काम के घण्टों में ही गिना जाता था। गर्भवती स्त्रियों और छोटे बच्चों की माँओं को रात की पाली में काम नहीं करना होता था। उनको ओवरटाइम करने से भी छूट थी। 1918 में ‘मातृत्व बीमा कार्यक्रम’ लागू हुआ, जिसके अन्तर्गत स्त्री मज़दूरों के लिए पूर्णत: सवैतनिक आठ सप्ताह के मातृत्व अवकाश, फैक्ट्री में काम के दौरान बच्चे की देखरेख और आराम के लिए ब्रेक्स की सुविधा, प्रसव-पूर्व और पश्चात डाक्टरी देखभाल के लिए नि:शुल्क सुविधा और नक़दी भत्तों की व्यवस्था की गयी थी। गृहयुद्ध के कठिन दिनों में ही कार्यस्थलों पर पालनाघरों और नर्सरियों के साथ ही मैटर्निटी क्लीनिकों, परामर्श केन्द्रों, फ़ीडिंग स्टेशनों तथा नवजात केन्द्रों के एक देशव्यापी नेटवर्क के निर्माण का काम शुरू हो गया था। ‘नयी आर्थिक नीति’ के वर्षों के दौरान इस काम की गति थोड़ी मन्थर रही। फिर सामूहिकीकरण और पंचवर्षीय योजना की शुरुआत के बाद यह मुहिम तेज गति से आगे बढ़ी। गृहयुद्ध से तबाह अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने और समाजवादी निर्माण की ज़मीन तैयार करने के लिए 1921 में जब ‘नयी आर्थिक नीति’ को लागू किया गया और कुछ समय के लिए योजनाबद्ध ढंग से पूँजीवाद को कुछ छूटें दी गयीं तो इसका सोवियत स्त्रियों की स्थिति पर कुछ तात्कालिक नकारात्मक प्रभाव पड़ा। सामुदायिक भोजनालयों और शिशुशालाओं आदि की व्यवस्था समाप्त हो गयी। स्त्रियों की बेरोज़गारी बढ़ी और उनकी बड़ी संख्या कपड़ा और छोटे उद्योगों में शोषणकारी परिस्थितियों में काम करने को मजबूर हो गयी। लेकिन इस गतिरोध और उलटाव पर 1927-28 तक पूर्ण नियंत्रण पा लिया गया और स्त्रियों की सामाजिक आज़ादी की मुहिम और तेज गति से आगे बढ़ चली। अब रजोनिवृत्ति के दिनों में स्त्रियों को सवैतनिक छुट्टी दी जाने लगी। सोवियत संघ ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश था।
पहली पंचवर्षीय योजना के दौरान जब पूरे देश में खेती का सामूहिकीकरण हुआ, सामूहिक फार्मों का तेज़ गति से मशीनीकरण हुआ और ग्राम सोवियतों की व्यवस्था पूरे देश में फैल गयी तो कृषि उत्पादन में भारी वृद्धि के साथ ही गाँवों में स्त्रियों की स्थिति में भी क्रान्तिकारी बदलाव आये। ट्रैक्टर और हार्वेस्टर चलाने के साथ ही स्त्रियाँ सोवियतों के कामकाज में भी बराबरी से हिस्सा लेने लगीं। गाँवों की स्त्रियों में शिक्षा तेज़ी से बढ़ी। कारखानों के अतिरिक्त सामुदायिक भोजनालय, पालनाघर, नर्सरी आदि सामूहिक फार्मों में भी खुलने लगे और ग्रामीण स्त्रियाँ भी चूल्हे-चौखट की ग़ुलामी से मुक्त होने लगीं।
स्त्रियों की इस सामाजिक प्रगति को कुछ आँकड़ों के ज़रिए हम आसानी से जान-समझ सकते हैं। 1929 में सोवियत संघ में कुल स्त्री कामगारों की संख्या 30 लाख से कुछ अधिक थी। पाँच वर्षों में यह दोगुनी से भी अधिक बढ़कर 1934 में 70 लाख हो गयी। 1929 में कुल कामगारों में स्त्रियाँ 25 प्रतिशत से कुछ अधिक थीं। 1941 में ये बढ़कर 45 प्रतिशत हो गयीं। 1929 से 1941 के बीच बड़े उद्योगों में स्त्रियों की भागीदारी 30 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत, परिवहन में 10 प्रतिशत से बढ़कर 38 प्रतिशत, शिक्षा में 55 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 72 प्रतिशत और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में 65 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 78 प्रतिशत हो गयी। शिशुशालाएँ 1927 में 550 थीं जो 1938 में बढ़कर 7,23,651 हो गयीं। बाल विहारों की संख्या 1927 में 1,07,500 थी जो 1937-38 में बढ़कर 10,56,800 हो गयीं। 1940 में सोवियत सत्ता ने यह निर्देश जारी किया हर नये सामुदायिक आवास परियोजना में 5 प्रतिशत ज़मीन नर्सरी सुविधाओं के लिए आरक्षित रहेगी।
स्त्रियों की मुक्ति ने दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सोवियत संघ की विजय में अहम भूमिका निभायी। मुख्यत: उन्हीं की बदौलत युद्ध के कठिन दिनों में उत्पादन जारी रहा। 1941 के ठीक पहले उद्योगों में कुल श्रमशक्ति की 45 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं, जो 1942 तक 53 प्रतिशत हो गयीं। 1942 में रेल यातायात में 25 प्रतिशत, शिक्षा में 58 प्रतिशत और चिकित्सा में 83 प्रतिशत श्रमशक्ति स्त्रियों की लगी हुई थी। और सामुदायिक खेती तो मानो उन्हीं के कन्धों पर टिकी थी। युद्ध पूर्व वर्षों के मुक़ाबले युद्धकाल में स्त्री ट्रैक्टर चालकों की संख्या 11 गुना, स्त्री हॉर्वेस्टर ऑपरेटरों की संख्या 7 गुना और मशीन ट्रैक्टर स्टेशनों में कार्यरत स्त्रियों की संख्या 10 गुना बढ़ गयी। उत्पादन के मोर्चे के साथ ही नात्सी-विरोधी छापामार दस्तों में भी युवा स्त्रियों ने बड़े पैमाने पर भागीदारी की। युद्ध में 2 करोड़ 70 लाख लोगों को खोकर और बुरी तरह तबाह होने के बावजूद सोवियत संघ ने अगर फासिज़्म को नेस्तनाबूद कर दिया और अगर युद्ध पश्चात चन्द वर्षों के भीतर तूफ़ानी गति से पुनर्निर्माण करके फिर से उठ खड़ा हुआ तो इसके लिए मुख्यत: तीन चीज़ें जि़म्मेदार थीं : पहला, क्रान्ति द्वारा मुक्त हुए मज़दूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय की सामूहिक पहलकदमी और हर क़ीमत पर समाजवाद को बचाने की आकांक्षा, दूसरा, क्रान्ति के बाद व्यापक जन-भागीदारी से उत्पादन, विज्ञान और तकनोलॉजी का विकास, और तीसरा, समाजवाद द्वारा मुक्त हुईं स्त्रियों की अकूत सामूहिक शक्ति और सर्जनात्मकता का निर्बन्ध होना।
स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बावजूद, समाज में तृणमूल स्तर पर समाजवादी संस्थाएँ और मूल्य लम्बे समय तक बने रहे। ख्रुश्चेव और ब्रेझनेव काल से लेकर 1980 के दशक तक, आर्थिक संकट, राजनीतिक निरंकुश भ्रष्ट तंत्र और सामाजिक-सांस्कृतिक विकृतियों के बावजूद, जनता की पहलक़दमी पर स्थापित सोवियत संस्थाएँ समाज में नीचे के स्तरों तक बनी रहीं तथा स्त्री-उत्पीड़न और स्त्री-पुरुष असमानता के नये रूपों के अस्तित्व में आने के बावजूद, स्त्रियों की वह सामाजिक प्रगति और स्वतंत्रता किसी हद तक सुरक्षित बची रह गयी थी, जो समाजवादी दौर की एक ऐतिहासिक उपलब्धि थी। 1960 और 1970 के दशकों के दौरान विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा-प्राप्त स्त्रियों की संख्या सोवियत संघ में अमेरिका और फ्रांस से अधिक थी। 1971 में पैरामेडिकल क्षेत्र में कुल कार्यरत आबादी में 98 प्रतिशत, मेडिकल और राजकीय स्कूलों में 75 प्रतिशत और पुस्तकालयों में 90 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। स्त्रियों की जीवन-प्रत्याशा 1927 में 30 से बढ़कर 1974 में 74 हो चुकी थी।
क्रुप्सकाया ने एक बार कहा था कि समाजवाद का मतलब केवल विशालकाय कारखानों और सामूहिक फार्मों का निर्माण करना नहीं है, बल्कि सर्वोपरि तौर पर एक नये मनुष्य का निर्माण करना है। समाजवाद के चन्द दशकों ने ही इस धारण को मूर्त रूप में ढाल दिया था। गृहयुद्ध, अकाल और भुखमरी के तीन वर्षों के बीतने के साथ ही रूस और सोवियत संघ के सभी गणराज्यों में सांस्कृतिक संस्थाओं और माध्यमों का अभूतपूर्व स्तर पर विस्तार होने लगा। सिर्फ़ राजधानियों और शहरों में ही नहीं, कारखानों और सामूहिक फार्मों तक में रंगशालाएँ, सिनेमाघर, पुस्तकालय, सभागार, संगीत-नाटक आदि के प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित होने लगे। आम लोगों को इतने बड़े पैमाने पर नि:शुल्क सांस्कृतिक संसाधन कभी नहीं मुहैया कराये गये थे। पुस्तकों और पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन से लेकर फिल्म, संगीत, कला आदि सभी सांस्कृतिक उत्पादन समाजवादी राज्य द्वारा वित्तपोषित होते थे। ज्ञान, कला और संस्कृति तक इस आम पहुँच की बदौलत आम मज़दूरों के बीच से सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों-हजार लेखक और कलाकार उभरकर सामने आये। साहित्य-कला-थियेटर-सिनेमा-संगीत आदि का न सिर्फ़ पूरे समाज में क्षैतिज (हॉरिजेण्टल) विस्तार हुआ, बल्कि इन सभी क्षेत्रों में अतुलनीय ऊर्ध्वाधर (वर्टिकल) प्रगति भी हुई। साहित्य के क्षेत्र में फ़देयेव, फेदिन, शोलोखोव, अलेक्सेई तोल्स्तोय आदि ने गोर्की की परम्परा को आगे विस्तार दिया। साहित्य-सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में लुनाचार्स्की के बाद मिख़ाइल लिफ्शित्ज़, मार्क रोजे़न्थाल, वोरोन्स्की, वोरोव्स्की आदि ने तथा भाषा शास्त्र के क्षेत्र में वोलोशिनोव ने महत्वपूर्ण काम किये और कई ऐतिहासिक वाद-विवाद हुए। रंग-सैद्धान्तिकी के क्षेत्र में स्तानिस्लाव्स्की के साथ ही दूसरे ध्रुवान्त पर खड़े मेयरहोल्ड और वाख्तांगोव ने महत्वपूर्ण काम किये। सिनेमा के क्षेत्र में मोंताज के सिद्धान्त को आइजेंस्ताइन और पुदोवकिन ने अलग-अलग ढंग से विकसित किया। डॉक्युमेण्ट्री सिनेमा के क्षेत्र में द्ज़ीगा वेर्तोव का काम आज भी मील का पत्थर माना जाता है। सोवियत संघ में सर्वहारा संगीत के लोकप्रिय रूपों के साथ ही शास्त्रीय रूपों को विकसित करने में शास्ताकोविच तथा कुछ अन्य ने ऐतिहासिक भूमिका निभाई। इसमें सन्देह नहीं कि 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर 1940 के दशक के अन्त तक सोवियत संघ में साहित्य-कला के क्षेत्र में कुछ ऐसी यांत्रिक भौतिकवादी प्रवृत्तियाँ (जिनका घनीभूत रूप ‘ज़्दानोव डॉक्ट्रिन – 1946‘ था) हावी थीं, जिन्होंने एक दौर में समाजवादी प्रयोगशील सर्जनात्मकता की राह में कुछ अड़चनें भी खड़ी कीं और इस भटकाव ने आइजेंस्ताइन, मेयेरहोल्ड, वाख्तांगोव, शास्ताकोविच आदि के सामने गम्भीर समस्याएँ भी खड़ी कीं। इस तथ्य का इस्तेमाल बुर्जुआ वर्ग के भाड़े के बुद्धिजीवी तरह-तरह से समाजवाद पर कीचड़ उछालने के लिए करते हैं। बेशक यह समाजवाद की बुनियादी समस्या का ही एक पहलू था, पर यह पूरे साहित्यिक-कलात्मक परिदृश्य का मुख्य पहलू कत्तई नहीं, न ही इसके चलते समाजवाद की सांस्कृतिक उपलब्धियों और कलात्मक प्रयोगों की ऐतिहासिक महत्ता किसी तरह से कम होती है।
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अक्टूबर क्रान्ति और उत्तरवर्ती समाजवादी क्रान्ति की युगान्तरकारी, अभूतपूर्व और विस्मयकारी उपलब्धियों की चर्चा के बाद यह यक्ष प्रश्न और विकट होकर किसी सामान्य अध्येता के समक्ष खड़ा हो जाता है कि तब फिर इतनी महान क्रान्ति किन आन्तरिक अन्तरविरोधों के कारण, किन कमजोरियों और ग़लतियों के कारण, किन प्रश्नों का उत्तर न ढूँढ़ पाने के कारण, या यूँ कहें कि किन मनोगत और वस्तुगत कारणों से गतिरोध, विघटन और पराजय का शिकार हुई? जिस समाजवादी सत्ता ने गृहयुद्ध और चौदह साम्राज्यवादी देशों के आक्रमण को भी नाकाम कर दिया था, जिसने अकेले ही पूरे यूरोप को बूटों तले रौंद रहे नात्सियों को धूल में मिला दिया था और चन्द वर्षों के भीतर विनाश की राख से फीनिक्स पक्षी की तरह उठकर फिर से उन्नति के नये सोपानों को चढ़ना शुरू कर दिया था, वह फिर बिना किसी सामरिक हमले के ही कैसे ध्वस्त हो गयी?
इतिहास में क्रान्तियों की सफलता के साथ क्रान्तियों की विफलता या पराजय को भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी पहुँच और पद्धति से ही समझा जा सकता है। पहले हम चर्चा कर चुके हैं कि ऐतिहासिक प्रगति का मार्ग सीधे आगे नहीं जाता। उसका प्रगति-पथ कुण्डलाकार होता है और उसकी गति इतिहास के सापेक्षत: छोटे-छोटे कालखण्डों में आगे-पीछे होते हुए चलती है। क्रान्ति का प्रतिक्रान्ति और विपर्यय के साथ द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध होता है और उसकी निर्णायक विजय के पूर्व प्रतिक्रान्ति और विपर्यय की शक्तियों के विजय के दौर भी प्राय: आते रहे हैं। यह भी गौरतलब है कि समाजवादी क्रान्ति चूँकि सिर्फ़ बुर्जुआ समाज के विरुद्ध न होकर सहस्त्राब्दियों लम्बे समूचे वर्ग-समाज के विरुद्ध लक्षित होती है, इसलिए यह सर्वाधिक आमूलगामी और दीर्घकालिक क्रान्ति होती है। यह वर्ग समाज और वर्ग विहीन समाज के बीच एक लम्बे संक्रमण काल के दौरान जारी रहने वाली विश्व-क्रान्ति होती है। अलग-अलग देशों में जारी सर्वहारा क्रान्तियाँ इसी विश्व क्रान्ति की कड़ी होती हैं। विश्व क्रान्ति की इस यात्रा में व्यतिक्रम और विपर्यय होते ही हैं। वर्ग समाज के सहस्त्राब्दियों लम्बे शोषण-शासन के अनुभव से लैस बुर्जुआ समाज से सर्वहारा क्रान्ति के पहले संस्करणों की पराजय ऐतिहासिक दृष्टि से आश्चर्य की चीज़ नहीं है। लेकिन सिर्फ़ इतनी ही बात करके हम समाजवाद की पराजय के ठोस कारणों को नहीं जान सकते और उन ठोस नतीजों तक नहीं पहुँच सकते कि अब अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण का रास्ता क्या होगा तथा किन ग़लतियों से बचते हुए, किस कार्य दिशा को अपनाकर समाजवाद को कम्युनिज़्म की दिशा में आगे ले जाया जा सकता है। विश्लेषण के मार्क्सवादी उपकरणों की अधकचरी समझ, समाजवादी समाज की प्रकृति एवं राजनीतिक आर्थिकी की नासमझी या ऐतिहासिक तथ्यों की नाजानकारी के चलते इन दिनों तमाम नौबढ़ कम्युनिस्ट संगठन और व्यक्ति तथा भाँति-भाँति के अकादमिक मार्क्सवादी समाजवाद की पराजय पर तरह-तरह की थीसिसें दे रहे हैं और मार्क्सवादी क्लासिक्स की पतवार फेंककर अटकलपच्चू ”मुक्त चिन्तन” करते हुए तरह-तरह के नीमहक़ीमी नुस्खे सुझा रहे हैं। कोई सारी गड़बडि़यों के लिए स्तालिन की ”निरंकुशता” को दोषी ठहराते हुए ख्रुश्चोव और गोर्बाचोव की तरह सोच रहा है और ऐतिहासिक तथ्यों की ऐसी-तैसी कर रहा है। कोई कह रहा है कि लेनिनवादी या बोल्शेविक टाइप पार्टी होनी ही नहीं चाहिए, ऐसी पार्टी वर्ग की जगह पार्टी का अधिनायकत्व लागू कर देती है। कुल मिलाकर, मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ के जिन सिद्धान्तों पर समाजवादी प्रयोग दशकों तक चलते रहे, उन्हें खारिज करते हुए उन लुगदी सिद्धान्तों को इतिहास की कचरा-पेटी से निकालकर प्रस्तुत किया जा रहा है, जो व्यवहार में कहीं लागू ही नहीं हो सके। कोई अक्सेलरोद और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ से लेकर ‘काउन्सिल कम्युनिज़्म तक की अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी खिचड़ी पका रहा है तो कोई सामाजिक जनवाद और संशोधनवाद के दर्जनों नये-पुराने रूपों का घोल-मट्ठा कर रहा है। इसलिए यह और भी ज़रूरी हो जाता है कि समाजवादी समाज की प्रकृति और अन्तरविरोधों को समझते हुए समाजवादी की समस्याओं और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को समझने की कोशिश की जाये। तो आइये, यही करें!
3. समाजवाद की समस्याएँ और सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बुनियादी कारण
सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के बुनियादी कारणों की और वर्तमान विश्व-ऐतिहासिक विपर्यय की सुस्पष्ट और सम्यक समझदारी सिर्फ़ तभी बन सकती है जब हम यह जान लें कि समाजवादी समाज की सामाजिक-आर्थिक संरचना कैसी होती है, इसकी बुनियादी अभिलाक्षणिकताएँ क्या होती हैं और इसके विकास के नियम क्या होते हैं।
पहली बात यह स्पष्ट होनी चाहिए कि समाजवाद एक स्थायी और समेकित सामाजिक-आर्थिक संरचना है ही नहीं। मार्क्स-एंगेल्स, लेनिन और माओ ने बार-बार इस बात को स्पष्ट किया है कि यह पूँजीवाद और वर्ग-विहीन समाज के बीच का एक लम्बा संक्रमण काल है जिस दौरान समाज में वर्ग मौजूद रहते हैं, वर्ग संघर्ष जारी रहता है और लम्बे समय तक इतिहास की धारा के उलट जाने का ख़तरा भी बना रहता है। समाजवादी समाज में भी बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच संघर्ष, विविध रूपों में, निरन्तर जारी रहता है। फ़र्क यह होता है कि बुर्जुआ समाज में यह संघर्ष बुर्जुआ अधिनायकत्व के अन्तर्गत जारी रहता है, जबकि समाजवादी समाज में यह सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत जारी रहता है। मानव इतिहास में सर्वहारा क्रान्तियाँ पहली ऐसी क्रान्तियाँ हैं जिनका लक्ष्य, विलोपीकरण की प्रक्रिया से वर्ग और राज्य को समाप्त करके, वर्गविहीन-शोषणविहीन समाज बनाना है। सर्वहारा वर्ग का संघर्ष सिर्फ़ बुर्जुआ वर्ग और उसकी संस्कृति के विरुद्ध ही नहीं, बल्कि सभी शोषण वर्गों, सभी वर्गीय प्रवृत्तियों और हजारों वर्षों से क़ायम सभी वर्गीय आदतों और संस्कृति से है। समाजवाद का लक्ष्य समाज की वर्गीय संरचना को ही समाप्त करके कम्युनिज़्म की अवस्था में संतरण करना होता है। इस बात को अगर गहराई में उतरकर समझ लिया जाये तो समाजवाद की दीर्घकालिक अवधि के दौरान वर्ग संघर्ष की निरन्तरता, सतत् क्रान्ति की आवश्यकता और हार-जीत के चढ़ावों-उतारों की सम्भावनाओं को आसानी से समझा जा सकता है।
1850 में ही मार्क्स ने अपनी क्लासिकी कृति ‘फ्रांस में वर्ग संघर्ष 1848-50‘ में स्पष्ट कर दिया था कि, ”यह समाजवाद क्रान्ति के स्थायित्व की घोषणा है, यह आम तौर पर वर्ग–विभेदों के उन्मूलन और जिन उत्पादन-सम्बन्धों पर ये वर्ग-विभेद आधारित हैं, उनके उन्मूलन तथा इन उत्पादन-सम्बन्धों के अनुरूप सभी सामाजिक सम्बन्धों के उन्मूलन और इन सामाजिक सम्बन्धों से पैदा हुए सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण के आवश्यक संक्रमण-बिन्दु के रूप में सर्वहारा का वर्ग-अधिनायकत्व है।” पुन: 1875 में ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना‘ में उन्होंने लिखा : ”पूँजीवादी और कम्युनिस्ट समाज के बीच एक के दूसरे में क्रान्तिकारी रूपान्तरण का काल मौजूद रहता है, जिस दौरान राज्य केवल सर्वहारा का क्रान्तिकारी अधिनायकत्व ही हो सकता है।” सर्वहारा अधिनायकत्व की मौजूदगी का मतलब ही है कि शत्रु वर्ग अगर मौजूद है तो ज़ाहिर है कि वह पूँजीवादी पुनर्स्थापना की कोशिशें भी जारी रखेगा। वर्ग संघर्ष यदि जारी है तो उसमें सर्वहारा पक्ष की पराजय की सम्भावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। लेनिन यह स्पष्ट लिखते हैं : ”सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व वर्ग संघर्ष की समाप्ति नहीं, बल्कि इसका नये रूपों में जारी रहना है। सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व एक ऐसे सर्वहारा वर्ग द्वारा चलाया जाने वाला वर्ग-संघर्ष है जो विजयी हुआ है और जिसने ऐसे पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ राजनीतिक सत्ता अपने हाथों में ले ली है जो पराजित हुआ है पर नष्ट नहीं हुआ है, ऐसा पूँजीपति जो विलुप्त नहीं हुआ है, जिसने प्रतिरोध करना बन्द नहीं किया है, बल्कि अपने प्रतिरोध को तीव्र कर दिया है।” (‘स्वतंत्रता और समानता के नारों के द्वारा जनता के साथ धोखाधड़ी‘ नामक प्रकाशित भाषण की भूमिका)। इसी विषय पर अन्यत्र लेनिन ने लिखा है, ”पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण एक पूरे ऐतिहासिक युग का प्रतिनिधित्व करता है। जब तक यह युग समाप्त नहीं हो जाता, तब तक शोषक पुनर्स्थापना की उम्मीद अनिवार्यत: पाले रहते हैं और यही उम्मीद पुनर्स्थापना के प्रयासों में बदल जाती है।” आगे वे लिखते हैं, ”वर्गों का उन्मूलन एक लम्बे, कठिन और अटल वर्ग संघर्ष की माँग करता है जो पूँजी की सत्ता को उखाड़ फेंकने के बाद, बुर्जुआ राज्य के ध्वंस के बाद और सर्वहारा अधिनायकत्व के स्थापित हो जाने के बाद समाप्त नहीं हो जाता (जैसा कि पुराने समाजवाद और पुराने सामाजिक जनवाद के भोंड़े प्रतिनिधि कल्पना करते हैं), बल्कि केवल अपने रूप बदल लेता है और कई मायनों में तो अधिक प्रचण्ड हो जाता है।” लेनिन ने स्पष्ट कहा था कि पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण का काल ”अपरिहार्यत: अभूतपूर्व उग्र रूपों में जारी अभूतपूर्व हिंसात्मक वर्ग संघर्ष का काल है”(‘राज्य और क्रान्ति‘)।
सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों एवं परिस्थितियों के गहन अध्ययन तथा क्रान्ति के बाद चीन में पार्टी और राज्य में मौजूद पूँजीवादी पथगामियों से निरन्तर जारी दो लाइनों के संघर्ष के अनुभवों के आधार पर माओ ने 1962 में समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की मौजूदगी और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों के बारे में स्पष्ट शब्दों में बताया था : ”समाजवादी समाज की काफ़ी लम्बी ऐतिहासिक अवधि होती है। समाजवाद की इस पूरी ऐतिहासिक अवधि में वर्ग, वर्ग-अन्तरविरोध और वर्ग संघर्ष मौजूद रहते हैं, समाजवादी रास्ते और पूँजीवादी रास्ते के बीच वर्ग संघर्ष जारी रहता है और पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा बना रहता है। हमें इस संघर्ष की दीर्घकालिक और जटिल प्रकृति को अवश्य पहचानना चाहिए। हमें अपनी चौकसी को उन्नत करना चाहिए। हमें वर्ग-अन्तरविरोध और वर्ग संघर्ष को सही ढंग से समझना और संचालित करना चाहिए, हमें अपने और दुश्मन के बीच के अन्तरविरोधों और जनता के आपसी अन्तरविरोधों के बीच फ़र्क करना चाहिए और उन्हें सही ढंग से हल करना चाहिए। अन्यथा, हमारे देश जैसा एक समाजवादी देश अपने विपरीत में बदल जायेगा, और पतित हो जायेगा, और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो जायेगी।”
पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के कारणों को गहराई में जाकर समझने के लिए जरूरी है कि समाजवादी समाज के बुनियादी आर्थिक ढाँचे, यानी उत्पादन सम्बन्धों और ऊपरी ढाँचे की आन्तरिक संरचना में मौजूद उन तत्वों और प्रक्रियाओं की हम एक स्पष्ट समझ बनायें जो इस दौर में वर्ग संघर्ष की दीर्घकालिक प्रकृति के कारक होते हैं।
उत्पादन-सम्बन्धों के तीन पहलू होते हैं : पहला, स्वामित्व का स्वरूप; दूसरा, उत्पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्बन्ध; और तीसरा, उत्पाद के वितरण का स्वरूप। सबसे पहले हम स्वामित्व की व्यवस्था को लें। सर्वहारा के हाथ में सत्ता आते ही निजी स्वामित्व का पूरी तरह से खात्मा नहीं हो जाता। समाजवादी सार्वजनिक स्वामित्व की प्रणाली के साथ-साथ लम्बे समय तक निजी स्वामित्व के छोटे-छोटे रूपों का अस्तित्व बना रहता है, श्रमशक्ति की प्रत्यक्ष ख़रीद-फ़रोख़्त पर रोक के बावजूद शोषण का अस्तित्व मौजूद रहता है, उद्योगों और कृषि में छोटी मिल्कियत क़ायम रहती है, सहकारी खेती का भी सारतत्व पूँजीवादी ही होता है तथा सुनिर्धारित बुर्जुआ हितों के उन्मूलन के बाद भी गाँवों और शहरों में व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था के अवशेष क़ायम रहते हैं। इसीलिए लेनिन ने बार-बार बताया था कि पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा केवल अपने खोये हुए ”स्वर्ग” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत पुराने शोषक वर्गों की ओर से, बुर्जुआ वर्ग के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों की ओर से और अन्तरराष्ट्रीय पूँजी की शक्ति की ओर से ही नहीं बल्कि उन बुर्जुआ तत्वों और उस पूँजीवाद की ओर से भी है जो छोटे पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन द्वारा प्रतिदिन, प्रति घण्टा, लगातार और स्वत:स्फूर्त रूप से पैदा होता रहता है (विशेष रूप से, लेनिन : ‘वामपंथी कम्युनिज़्म एक बचकाना मर्ज़‘, ‘सोवियत सरकार के फ़ौरी कार्यभार‘, ‘सर्वहारा अधिनायकत्व के युग में अर्थनीति और राजनीति‘)। लेनिन ने 1921 में सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत एक साथ पाँच सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं की मौजूदगी का उल्लेख किया था। स्वामित्व के प्रश्न पर चर्चा करते समय यह स्पष्टता भी बेहद ज़रूरी है कि सामूहिक स्वामित्व वाली आर्थिक इकाइयाँ (जैसे सामूहिक फॉर्म) समूची जनता की सम्पत्ति नहीं होतीं, वे सिर्फ़ उक्त सामूहिक उपक्रम के सदस्यों की सम्पत्ति होती हैं और वे माल का विनिमय करती हैं, जबकि राजकीय स्वामित्व वाली आर्थिक इकाइयाँ समूची जनता की सम्पत्ति होती हैं और वे वस्तुओं का विनिमय करती हैं। इस तरह, नियंत्रित और सीमित होते हुए भी समाजवाद के दौर में लम्बे समय तक माल का अस्तित्व बना रहता है। समाजवादी संक्रमण के जारी रहने की अनिवार्य शर्त है कि मेहनतकश जनता का छोटे पैमाने का समाजवादी सामूहिक स्वामित्व बड़े पैमाने के समाजवादी सामूहिक स्वामित्व के रूप में और फिर समाजवादी राजकीय स्वामित्व के रूप में रूपान्तरित होने की दिशा में लगातार विकसित हो।
किसी समाजवादी समाज में स्वामित्व का स्वरूप यदि पूरी तरह से राजकीय समाजवादी स्वामित्व का हो जाये, तब भी यदि उत्पादन-सम्बन्ध के शेष दो पहलू (यानी उत्पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्बन्ध तथा उत्पाद के वितरण का स्वरूप) साथ-साथ रूपान्तरित नहीं होते चलते हैं तो पूँजीवाद के फलने-फूलने की ज़मीन मौजूद रहेगी। स्वामित्व के वैधिक रूपों में परिवर्तन मात्र से उत्पादन-सम्बन्ध नहीं बदलते, जब तक कि विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया के रूपों में परिवर्तन न आये, और उन स्थितियों में परिवर्तन न आये जो उत्पादन के अभिकर्ताओं के लिए यह प्रक्रिया तैयार करती है। समाजवादी सार्वजनिक स्वामित्व के निर्णायक रूप से स्थापित होने के बाद भी माल-अर्थव्यवस्था बनी रहती है, अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ और बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं, मूल्य के नियम मौजूद रहते हैं, नये बुर्जुआ तत्वों के पैदा होने की ज़मीन मौजूद रहती है, वर्ग संघर्ष जारी रहता है और इस प्रकार पूँजीवादी पुनर्स्थापना का वस्तुगत आधार मौजूद रहता है। पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों और पूँजीपति और सर्वहारा की शत्रुतापूर्ण मौजूदगी के सफ़ाये के लिए केवल सम्पत्ति का राजकीयकरण या सामूहिकीकरण ही पर्याप्त नहीं हो सकता। इसके बाद भी पूँजीपति वर्ग भिन्न रूपों में मौजूद रह सकता है और विशेष तौर पर राजकीय पूँजीपति वर्ग के रूप में पैदा हो सकता है। सर्वहारा अधिनायकत्व की ऐतिहासिक भूमिका सिर्फ़ सम्पत्ति के रूपों में परिवर्तन लाना नहीं बल्कि विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया का जटिल एवं दीर्घकालिक रूपान्तरण तथा इसके द्वारा पुराने उत्पादन-सम्बन्धों को नष्ट करके नये उत्पादन-सम्बन्ध बनाना और इस प्रकार, पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली से कम्युनिस्ट उत्पादन प्रणाली में संक्रमण को सुनिश्चित बनाना है।
इस बात को भी समझ लेना बेहद ज़रूरी है कि सम्पत्ति के राजकीयकरण का अर्थ सम्पत्ति का समाजीकरण नहीं होता। सम्पत्ति का राजकीयकरण निजी स्वामित्व का निषेध तो होता है लेकिन स्वामित्व की पूरी व्यवस्था का निषेध नहीं होता। राजकीयकरण की प्रक्रिया पूरी होने के बाद भी अन्तरवैयक्तिक असमानता और बुर्जुआ अधिकार बने रहते हैं और उपभोग की सामग्री के वितरण के सन्दर्भ में राज्य की भूमिका बनी रहती है। समाजीकरण इसके आगे की मंज़िल है जब उत्पादन और उपभोक्ता सामग्री के वितरण को विनियमित करने में राज्य की भूमिका समाप्त हो जाती है। समाजीकरण की अवस्था ज़ाहिरा तौर पर उत्पादक शक्तियों के एक सुनिश्चित, उन्नत विकास की माँग करती है और इस विकास में सामाजिक चेतना और संस्कृति का अत्यधिक उन्नत होना भी शामिल है।
समाजवाद के उन्नत अवस्था में संक्रमण तथा सम्पत्ति के ज़्यादा से ज़्यादा समाजीकरण होते जाने के साथ, माल का अस्तित्व सीमित और नियन्त्रित होता हुआ विलोपन की दिशा में आगे बढ़ता जाता है। लेकिन जब तक माल का अस्तित्व बना रहता है, तब तक किसी न किसी रूप में बाज़ार और मूल्य के नियम काम करते रहते हैं। समाजवादी उत्पादन में अन्तरवैयक्तिक सम्बन्धों के सन्दर्भ में, किसान और मज़दूर के बीच, गाँव और शहर के बीच तथा बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच असमानता भी लम्बे समय तक बनी रहती है तथा ये असमानताएँ बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी के रूप में प्रतिबिम्बित होती हैं। समाजवादी समाज में श्रम के अनुसार उपभोक्ता सामग्री का वितरण भी एक बुर्जुआ अधिकार है जो तब तक मौजूद रहता है जब तक उत्पादक शक्तियाँ अति उत्पादन की मंज़िल तक और उत्पादन-सम्बन्ध अत्यधिक उन्नत स्तर तक विकसित न हो जायें। मार्क्स ने ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना‘ में बुर्जुआ अधिकारों को असमानता के अधिकार की संज्ञा दी है। एंगेल्स ने भी ‘ड्यूहरिंग मत खण्डन‘ में इसकी विस्तृत विवेचना की है। लेनिन ने ‘राज्य और क्रान्ति‘ में बताया है कि समाजवादी समाज में उपभोग की सामग्रियों के वितरण के सन्दर्भ में बुर्जुआ अधिकार की मौजूदगी का मतलब बुर्जुआ वर्ग के बगै़र बुर्जुआ राज्य की मौजूदगी है। आगे ‘एक महान शुरुआत‘(1919) नामक अपने सुप्रसिद्ध निबन्ध में लेनिन लिखते हैं : वर्गों को पूरी तरह समाप्त करने के लिए काफी नहीं है कि शोषकों, भूस्वामियों और पूँजीपतियों की सत्ता उखाड़ फेंकी जाये, यही काफी नहीं है कि उनके स्वामित्व के अधिकार छीन लिये जायें, बल्कि यह भी ज़रूरी है कि उत्पादन के साधनों के सभी निजी स्वामित्व को समाप्त कर दिया जाये और यह भी ज़रूरी है कि गाँव और शहर के बीच, तथा शारीरिक और बौद्धिक मज़दूर के बीच के भेद को भी समाप्त कर दिया जाये। यह काफी लम्बे समय की माँग करता है।” चीन में समाजवाद की समस्याओं के बारे में चर्चा करते हुए माओ ने भी लेनिन के बुर्जुआ अधिकार विषयक विचारों का उल्लेख किया है और लिखा है : ”हमने खुद ऐसा एक राज्य खड़ा किया है जो पुराने राज्य से बहुत भिन्न नहीं है। यहाँ रैंक और ग्रेड हैं, वेतन के आठ ग्रेड हैं, काम के अनुसार वितरण है और बराबर मूल्यों का विनिमय है।” ज़ाहिर है कि ये बुर्जुआ अधिकार समाजवादी संक्रमण के दौरान नये बुर्जुआ वर्ग के फलने-फूलने की ज़मीन का काम करते हैं।
उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण की जटिलताओं की चर्चा के बाद अब हम अधिरचना के सवाल पर आते हैं। मार्क्सवाद की यह सुस्पष्ट प्रस्थापना है कि किसी भी समाज की अधिरचना समग्रता में आर्थिक मूलाधार के अनुरूप होती है, लेकिन दोनों में पूर्णत: समरूपता या समानुपातिकता नहीं होती। दोनों में अन्तरविरोध मौजूद रहते हैं और आर्थिक मूलाधार के बदलने के साथ ही पुरानी अधिरचना बदल नहीं जाती। वह लम्बे समय तक नये आर्थिक मूलाधार से टकराती हुई मौजूद रहती है और पुराने आर्थिक मूलाधार की फिर से बहाली में एक महत्वपूर्ण भूमिका भी निभा सकती है। समाजवादी समाज में राजनीति से लेकिर संस्कृति तक विभिन्न धरातलों पर बुर्जुआ विचारधारा मौजूद रहती है, बुर्जुआ संस्कृति और मूल्य-मान्यताएँ-संस्कृति मौजूद रहती हैं, जनता के बीच पुराने वर्ग समाज की आदतें-प्रवृत्तियाँ मौजूद रहती हैं, राज्य के संगठन में बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि मौजूद रहते हैं और नौकरशाहाना कार्यशैलियों के विविध रूप मौजूद रहते हैं। समाज में वर्ग, वर्ग-अन्तरविरोधों और वर्ग-संघर्ष की मौजूदगी सर्वहारा वर्ग की पार्टी को और राज्य को निरन्तर प्रभावित करती रहती है, और पार्टी में तथा समाजवाद की राज्य मशीनरी में बुर्जुआ तत्व, बुर्जुआ विचारधारा और बुर्जुआ लाइनें निरन्तर नाना सूक्ष्म और प्रच्छन्न रूपों में मौजूद रहती हैं, और समय-समय पर निर्णायक संघर्ष की स्थिति पैदा करती रहती हैं। पार्टी के भीतर बुर्जुआ हेडक्वार्टर क़ायम होते रहते हैं और यदि इनके विरुद्ध विचारधारात्मक वर्ग-संघर्ष न चलाया जाये तो सर्वहारा वर्ग की पार्टी के बुर्जुआ वर्ग की पार्टी बन जाने की, तथा सर्वहारा अधिनायकत्व के बुर्जुआ अधिनायकत्व में बदल जाने की प्रबल सम्भावना बनी रहती है। कुल मिलाकर, अपने खोये हुए “स्वर्ग” की प्राप्ति के लिए प्रयासरत पुराने शासक वर्गों को मदद पहुँचाने के साथ ही समाजवादी संक्रमण के दौरान अधिरचना के क्षेत्र में मौजूद बुर्जुआ अवयव पार्टी कार्यकर्ताओं, राज्य के कर्मचारियों और मज़दूर वर्ग के बीच से नये बुर्जुआ वर्ग के पैदा होने की ज़मीन और माहौल तैयार करते रहते हैं तथा इस संक्रमण-अवधि के दौरान मौजूद पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली को बल प्रदान करते रहते हैं। इसीलिए कार्ल मार्क्स ने पूँजीवादी सामाजिक सम्बन्धों के अनुरूप मौजूद सभी विचारों के क्रान्तिकारीकरण को समाजवाद की एक अभिलाक्षणिकता बताया था। लेनिन ने समाजवादी समाज में मज़दूर वर्ग और आम जनता को भ्रष्ट करने वाले सभी विचारों और पुरानी आदतों के विरुद्ध लगातार संघर्ष की बात की थी और माओ ने सर्वहारा वर्ग का सर्वतोमुखी अधिनायकत्व लागू करते हुए उत्पादन-सम्बन्धों को बदलते जाने के साथ ही अधिरचना के क्षेत्र में भी सतत् क्रान्ति चलाते रहने को अनिवार्यतः आवश्यक बताया था। माओ त्से-तुङ ने सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग और फिर संशोधनवादी ख्रुश्चेव के नेतृत्व में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के अध्ययन और समाहार तथा चीन में समाजवादी संक्रमण के अनुभवों के आधार पर यह स्पष्ट सूत्रीकरण पेश किया कि बुर्जुआ समाज से प्रकृति और स्वरूप की भिन्नता के बावजूद, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच का अन्तरविरोध, तथा मूलाधार और अधिरचना के बीच का अन्तरविरोध ही समाजवादी समाज के भी बुनियादी अन्तरविरोध हैं और ये अन्तरविरोध सर्वहारा वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के बीच अन्तरविरोध और संघर्ष के रूप में अभिव्यक्त होते रहते हैं। सर्वहारा अधिनायकत्व बुर्जुआ वर्ग, बुर्जुआ अधिकार और बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्धों को लगातार नियंत्रित और सीमित करता है तथा बुर्जुआ विचारों-मूल्यों-संस्कृति और संस्थाओं के विरुद्ध लगातार संघर्ष चलाता है। समाजवादी समाज में बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधि छद्मवेषी कम्युनिस्ट तत्वों के रूप में लगातार पार्टी के भीतर ‘बुर्जुआ हेडक्वार्टर’ बनाते रहते हैं और समाजवादी संक्रमण को उल्टी दिशा में मोड़ने के लिए सही लाइन के विरुद्ध संघर्ष चलाते रहते हैं। वे समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष की अग्रवर्ती निरन्तरता को रोक देना चाहते हैं, सर्वहारा अधिनायकत्व को बुर्जुआ अधिनायकत्व में बदल देना चाहते हैं और पूँजीवादी की पुनर्स्थापना कर देना चाहते हैं।
समाजवादी समाज की प्रकृति और वर्ग-अन्तरविरोधों की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद इस ऐतिहासिक त्रासदी को आसानी से समझा जा सकता है कि इतिहास की इतनी महान क्रान्ति की इतनी महती उपलब्धियों के बाद भी सोवियत संघ में ऐतिहासिक विपर्यय क्यों हुआ! बेशक, स्तालिन काल में उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व का ख़ात्मा वर्ग समाज के पूरे इतिहास का एक अभूतपूर्व क़दम था। समाजवादी नियोजन का अमली रूप भी इतिहास में पहली बार सोवियत संघ में ही सामने आया। समाजवाद के इन प्रारम्भिक क़दमों ने आम जन समुदाय की अकूत ऊर्जा, पहलक़दमी और सर्जनात्मकता को निर्बन्ध किया और सोवियत संघ की चमत्कारी प्रगति का यही बुनियादी कारण था। लेकिन स्तालिन की सर्वाधिक गम्भीर सैद्धान्तिक ग़लती यह थी कि उन्होंने निजी स्वामित्व के ख़ात्मे को ही निर्णायक तौर पर पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों का ख़ात्मा और समाजवादी उत्पादन-सम्बन्धों की स्थापना मान लिया। ऊपर हम चर्चा कर चुके हैं कि उत्पादन-सम्बन्धों के तीन पहलू होते हैं : स्वामित्व का स्वरूप, उत्पादन में लोगों की भूमिका और उनके आपसी सम्बन्ध तथा उत्पाद के वितरण का स्वरूप। निजी स्वामित्व के ख़ात्मे के बाद भी यदि अन्य दो पहलुओं के सतत् रूपान्तरण पर सर्वहारा सत्ता सचेतन तौर पर ध्यान नहीं देगी तो समाज में बुर्जुआ अधिकार और अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ न केवल बनी रहेंगी, बल्कि विविध रूपों में मज़बूत भी होती रहेंगी। हम ऊपर यह स्पष्ट कर चुके हैं कि स्वामित्व के वैधिक रूपों में परिवर्तन मात्र ही वर्गों व वर्ग संघर्ष की मौजूदगी की परिस्थितियों को समाप्त नहीं कर देता और ये परिस्थितियाँ उत्पादन सम्बन्धों से — विनियोग की सामाजिक प्रक्रिया के रूपों से जुड़ी होती हैं। 1930 के दशक में स्तालिन और सोवियत पार्टी की समझ यह बनी कि निजी स्वामित्व के ख़ात्मे के साथ ही समाजवादी उत्पादन-सम्बन्ध मुख्यतः स्थापित हो चुके हैं और अब उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ-साथ समाजवाद निरन्तर आगे की ओर बढ़ता चला जायेगा। इस तरह की अर्थवादी या “उत्पादकतावादी” सोच दरअसल उन्नीसवीं शताब्दी से ही अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन में मौजूद थी (मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन इसके अपवाद थे) और यह विचलन स्तालिन ने वस्तुतः विरासत में प्राप्त किया था। यह विचलन उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के अन्तर्सम्बन्धों को द्वन्द्वात्मक ढंग से न देखकर अधिभूतवादी ढंग से देखता था। नवम्बर 1936 में सोवियतों की सातवीं कांग्रेस में सोवियत संघ के संविधान के मसौदे पर प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में स्तालिन ने यह सूत्रीकरण प्रस्तुत किया कि 1924-36 के दौरान सोवियत संघ में उद्योग, व्यापार और कृषि के क्षेत्र में वैधिक निजी स्वामित्व की समाप्ति और समाजवादी स्वामित्व के क़ायम होने के बाद वर्गों के बीच के आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोध अब “घट रहे हैं और समाप्त हो रहे हैं,” शत्रुतापूर्ण अन्तरविरोध अब समाप्त हो चुके हैं और जनता के वर्गों के बीच के मित्रतापूर्ण अन्तरविरोध ही अब मौजूद रह गये हैं, तथा उन्नत समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों और पिछड़ी उत्पादक शक्तियों के बीच का अन्तरविरोध अब सोवियत समाज का मुख्य अन्तरविरोध है।
यह एक सच्चाई है कि 1936 के बाद भी स्तालिन ने सर्वहारा अधिनायकत्व का इस्तेमाल केवल बाहरी ख़तरों के विरुद्ध ही नहीं बल्कि समाजवाद-विरोधी भीतरी शक्तियों के विरुद्ध भी किया, यानी व्यावहारिक और आनुभविक धरातल पर उन्होंने वर्ग संघर्ष को जारी रखा, लेकिन समाजवादी संक्रमण की प्रकृति और नियम की सुसंगत समझ के अभाव में वे समाजवाद-विरोधी तत्वों को अतीत का अवशेष या साम्राज्यवाद का एजेण्ट मात्र समझते रहे। वे इस बात को नहीं समझ सके कि ऐसे बुर्जुआ तत्व समाजवाद की सामाजिक आर्थिक संरचना के भीतर से लगातार पैदा होते रहेंगे और सतत् क्रान्ति चलाने की जगह ऐसे तत्वों का दमन या सफ़ाया मात्र तात्कालिक कार्रवाई ही हो सकती है। अपनी पहुँच-पद्धति की अधिभूतवादी विच्युति के कारण ही समाजवादी समाज में मूलाधार-अधिरचना के अन्तर्सम्बन्धों की द्वन्द्वात्मकता को समझने में भी स्तालिन विफल रहे। वे मूलाधार के अतिरिक्त अधिरचना में मौजूद पूँजीवादी पुनर्स्थापना के ख़तरों को नहीं देख सके। हालाँकि सोवियत समाज में समाजवादी मूलाधार ने अपनी स्वतंत्र गति से नयी समाजवादी अधिरचना को जन्म दिया और मूल्यों-मान्यताओं, कला-साहित्य-संस्कृति के स्तर पर पार्टी और सर्वहारा सत्ता ने महत्वपूर्ण काम किये, लेकिन पार्टी और राज्य से लेकर समाज में तृणमूल स्तर पर सभी संस्थाओं के स्तर पर तथा विचारों व मूल्यों के स्तर पर सतत् क्रान्ति चलाते जाने की अनिवार्यता स्तालिन ने नहीं समझी। उत्पादक शक्तियों के विकास पर अतिरिक्त बल देने और उसे समाजवाद की मूल प्रेरक शक्ति मानने की ही एक तार्किक परिणति यह भी थी कि स्तालिन का ज़ोर तकनीक पर आवश्यकता से अधिक और मनुष्य पर कम था। अपनी पहुँच और पद्धति की अधिभूतवादी विच्युति के ही कारण स्तालिन पार्टी की भीतर जारी दो लाइनों के संघर्ष को समाज में जारी वर्ग संघर्ष के ही एक रूप, विस्तार और परावर्तन के रूप में नहीं देख सके, समाजवाद के दौर में पार्टी के सर्वहारा चरित्र की हिफ़ाज़त के लिए जन समुदाय से लगातार उसका जीवन्त सम्पर्क बनाये रखने तथा जनता से पार्टी के सीखने के सुसंगत रूपों को विकसित नहीं कर सके और राज्य व्यवस्था एवं प्रबन्धन के कामों में समाजवादी चेतना के उनन्त होते जाने के साथ ही मज़दूर वर्ग और मेहनतकश अवाम की क्रमशः बढ़ती भागीदारी को सुनिश्चित करने के स्पष्ट तौर-तरीक़े नहीं ढूँढ़ सके जिसका प्रतिकूल प्रभाव पार्टी और राज्य के विभिन्न संस्तरों पर नौकरशाही के मज़बूत होने के रूप में सामने आया। इस नयी नौकरशाही में कुछ लोग यदि पद्धति-दोष के शिकार जेनुइन कम्युनिस्ट थे तो कुछ ‘पूँजीवादी पथगामी’ भी थे। मूलतः और मुख्यतः, यही कारण था कि पार्टी और राज्य मशीनरी से विजातीय तत्वों का सफ़ाया करते समय स्तालिन काल में, मुख्यतः 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध में दुश्मनों का दायरा थोड़ा विस्तारित हो गया और कई ऐसे जेनुइन तत्व भी उसके दायरे में आ गये जो या तो कुछ विभ्रमों या छोटे-मोटे विचलनों के शिकार थे, या पूरी तरह से निर्दोष थे।
स्तालिन की सैद्धान्तिक ग़लतियों की चर्चा करते हुए कुछ बिन्दुओं को रेखांकित करना ज़रूरी है। पहली बात, सोवियत संघ में समाजवाद का निर्माण विश्व इतिहास का पहला ऐसा प्रयोग था। उसके सामने सीखने के लिए अतीत का ऐसा कोई प्रयोग नहीं था। एक नयी ऐतिहासिक राह निकालने वाले ऐसे किसी भी महान प्रयोग में कुछ ग़लतियों, कुछ अधूरेपन और कुछ अनगढ़पन का होना लाज़िमी होता है। दूसरी बात, पहली बार समाजवादी निर्माण का यह काम साम्राज्यवादी घेरेबन्दी के बीच अकेले खड़े पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले एक देश में हो रहा था और 1930 के दशक के मध्य में ही यह भी स्पष्ट हो चुका था कि देर-सबेर फ़ासिज़्म के कहर का मुक़ाबला और समाजवाद की हिफ़ाज़त सोवियत संघ को अकेले अपने बूते पर ही करनी होगी। इस तथ्य को कत्तई नहीं भुलाया जाना चाहिए कि स्तालिन को तात्कालिक संकटों के निरन्तर दबाव के बीच काम करना पड़ा जिसके चलते समाजवाद की बुनियादी और दूरगामी समस्याओं पर गहराई से सोचने का उन्हें पर्याप्त अवसर नहीं मिला। तीसरी बात, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, जब आश्चर्यजनक तेज़ रफ़्तार से सोवियत संघ फिर उठ खड़ा हुआ और समाजवादी निर्माण हर क्षेत्र में तेज़ी से आगे बढ़ा, तो विविध अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय समस्याओं की मौजूदगी के बावजूद, स्तालिन को अतीत के प्रयोगों का समाहार करने और समाजवाद की बुनियादी समस्याओं पर चिन्तन-मन्थन का कुछ अवसर मिला। जीवन के अन्तिम वर्षों के दौरान उन्होंने अपनी मूल सैद्धान्तिक ग़लती पर सोचने और उसे सुधारने की शुरुआत कर दी थी। 1952 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘सोवियत संघ में समाजवाद की आर्थिक समस्याएँ’ में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह उल्लेख किया कि सोवियत संघ में माल-उत्पादन की प्रणाली अभी भी जीवित है और मूल्य के नियम भी विविध रूपों में काम कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि स्तालिन का यह चिन्तन 1936 के उनके सूत्रीकरण के निषेध की दिशा में तथा समाजवादी समाज में वर्ग-संघर्ष की समस्या पर नये सिरे से सोचने की दिशा में आगे बढ़ रहा था। लेकिन इतिहास ने इस प्रक्रिया को आगे बढ़ने का मौक़ा नहीं दिया। 1954 में स्तालिन के निधन के बाद सत्तासीन ख्रुश्चेव ने समाजवादी नीतियों-सिद्धान्तों को तिलांजलि देकर, संशोधनवादी नीतियों-सिद्धान्तों पर अमल की शुरुआत कर दी। 1956 तक पार्टी और राज्य पर अपना निर्णायक नियंत्रण क़ायम कर चुकने के बाद ख्रुश्चेव ने पूँजीवादी पुनर्स्थापना की प्रक्रिया को तेज़ी से आगे बढ़ाया।
यह ख्रुश्चेव-गिरोह उसी नये बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधि था, जिसने समाजवाद के और आगे की मंज़िलों में संक्रमण न कर पाने के कारण पैदा हुए ठहराव का लाभ उठाकर अपने सामाजिक आधार का विस्तार किया था, पार्टी और राज्य तंत्र के भीतर अपनी स्थिति मज़बूत बनाता चला गया था और अनुकूल अवसर मिलते ही पार्टी और राज्य की नियंत्रणकारी चोटियों पर क़ब्ज़ा जमा लिया था। हर संशोधनवादी की तरह ख्रुश्चेव भी कम्युनिस्ट का मुखौटा लगाये हुए एक बुर्जुआ था। सोवियत संघ में ख्रुश्चेव का दौर समाजवादी मुखौटे वाले राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी का प्रारम्भिक दौर था। यह राजकीय इज़ारेदार पूँजीपति वर्ग की एक नयी क़िस्म की निरंकुश तानाशाही का प्रारम्भिक दौर था। ब्रेझनेव काल में इस राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद के ढाँचे और उसके अधिरचना-तंत्र के निर्माण की प्रक्रिया मुकम्मल हो गयी, पूँजीवादी सम्बन्ध समाज में मज़बूती से जम गये, सोवियत संघ एक सामाजिक साम्राज्यवादी अतिमहाशक्ति के रूप में विश्व प्रभुत्व के लिए अमेरिका से होड़ करने लगा और नये सोवियत बुर्जुआ वर्ग की सामाजिक फ़ासीवादी तानाशाही ज़्यादा से ज़्यादा निरंकुश होती चली गयी। लेकिन तीस-पैंतीस वर्षों का समय बीतते-बीतते सोवियत संघ के बुर्जुआ समाज के भीतर मूलाधार और अधिरचना के अन्तरविरोध क्रमशः उग्र होते हुए असमाधेय होने की मंज़िल तक जा पहुँचे। अर्थतंत्र के ठहराव और तज्जन्य सामाजिक-आर्थिक संकटों से निजात पाने के लिए मूलाधार और उसकी पूरी अधिरचनात्मक अट्टालिका का पुनर्गठन ज़रूरी था। नये सोवियत बुर्जुआ वर्ग के ही प्रतिनिधि गोर्बाचोव ने 1980 के दशक में इसी दिशा में कुछ क़दम उठाये। लेकिन राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी ढाँचे में निहित प्रतियोगिता का सापेक्षिक अभाव बुर्जुआ दायरे के भीतर उत्पादक शक्तियों के पैरों की बेड़ी बन चुका था और इस संकट से निजात पाने के लिए, निजीकरण और उदारीकरण का सहारा लेना, या यूँ कहें कि, पूँजीवाद को उसके क्लासिकी रूप में स्थापित करना अनिवार्य बन चुका था। इन्हीं गतियों की तार्किक परिणति के तौर पर 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और रूस सहित उसके सभी घटक गणराज्यों में कमोबेश पश्चिमी ढंग की बुर्जुआ जनवादी संसदीय व्यवस्था स्थापित हुई। यही प्रक्रिया पूर्वी यूरोप के देशों में और अधिक तेज़ी और झटके के साथ पूरी हुई, पर उनकी चर्चा यहाँ हमारे विषय के दायरे में नहीं आती।
सोवियत संघ में इतिहास के पहले समाजवादी प्रयोग की सफलताओं-असफलताओं और उसके सभी सकारात्मक-नकारात्मक अनुभवों के सांगोपांग समाहार के बाद, और इसी परिप्रेक्ष्य में चीन में समाजावादी संक्रमण के प्रयोगों और इस दौरान के संघर्षों के नतीजों के आधार पर माओ त्से-तुङ समाजवादी समाज के वर्ग-अन्तरविरोधों की पहचान करने में तथा उन्हें हल करने का रास्ता निकालने में सफल रहे। उन्होंने पार्टी के भीतर नीचे की इकाइयों से लेकर पोलित ब्यूरो तक में मौजूद पूँजीवादी पथगामियों की, तथा राज्य मशीनरी के भीतर, विविध आर्थिक इकाइयों के भीतर और शिक्षा एवं संस्कृति के क्षेत्र में मौजूद तथा फल-फूल रहे पूँजीवादी तत्वों की पहचान की और उनके विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति चलाने का आह्वान किया। ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ (1966-76) के ज़रिये माओ ने बुर्जुआ वर्ग पर लगातार जीत हासिल करते हुए कम्युनिज़्म की दिशा में संक्रमण सुनिश्चित करने की ‘जनरल लाइन’ से सर्वहारा वर्ग को परिचित कराया। लेकिन अध्ययन, प्रयोग और समाहार करते हुए माओ जबतक इस सुनिश्चित निष्कर्ष तक पहुँचे तबतक चीन में भी सत्रह वर्षों का समय बीत चुका था, पार्टी और राज्य के भीतर ‘पूँजीवादी पथगामी’ अपना आधार काफ़ी मज़बूत बना चुके थे। इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि एक बेहद पिछड़े हुए चीनी समाज में (जहाँ क्रान्ति के समय उद्योग, औद्योगिक सर्वहारा वर्ग, शिक्षा और बौद्धिक समुदाय अत्यन्त सीमित थे और गाँवों में पूँजीवादी सम्बन्ध विकसित ही नहीं हुए थे) जनवादी क्रान्ति के बाद समाजवादी निर्माण की दिशा में आगे बढ़ना वैसे भी काफ़ी दुष्कर और चुनौतीपूर्ण था। पहले से ही साम्राज्यवादी दुनिया की आर्थिक-राजनीतिक घेरेबन्दी का सामना कर रहे माओकालीन चीन के प्रति सोवियत संघ के ख्रुश्चेव और ब्रेझनेवकालीन नेतृत्व के घोर दुश्मनाना रवैये ने भी हालात को और कठिन बनाने का काम किया। 1950 के दशक से ही माओ को लगातार पार्टी के भीतर मौजूद संशोधनवादी गिरोहों के साथ संघर्ष करना पड़ा। इस बात को भी नज़रअन्दाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि चीनी पार्टी की कुछ गम्भीर विचारधारात्मक ग़लतियों (जैसे, ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष खुला करने में सात वर्षों का विलम्ब) और आर्थिक नीतियों की कुछ गम्भीर ग़लतियों (जैसे, समाजवादी संक्रमण की मंज़िल शुरू होने के बाद भी, 1952 से 1966 तक राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग को कुछ विशेष रियायतें देना) का भी परोक्ष तौर पर पूँजीवादी पथगामियों को लाभ मिला और वर्ग शक्ति-सन्तुलन पर गम्भीर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इसके बावजूद, यह बात विश्वासपूर्वक कही जा सकती है कि ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ ने विश्व सर्वहारा को समाजवाद की समस्याओं की प्रकृति और समाधान की आम दिशा से परिचित कराया, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को स्पष्ट करते हुए उसे रोकने की राह बतायी तथा पूरे समाजवादी संक्रमण की सुदीर्घ ऐतिहासिक अवधि के दौरान सतत् वर्ग-संघर्ष चलाने की शिक्षा से विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के विचारधारात्मक शस्त्रागार को समृद्ध किया।
4. आज की दुनिया और भविष्य की सम्भावनाएँ
मज़दूर वर्ग ने पूँजी के दुर्गों पर धावा मारने की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में की थी। तब से लेकर आज तक न जाने कितनी बार मज़दूर संघर्षों को ख़ून के दलदल में डुबो दिया गया, न जाने कितनी क्रान्तियों को कुचल दिया गया, न जाने कितनी बार क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति और विपर्यय की लहर के हावी होने के दौर आये, लेकिन जिस दीर्घकालिक और गहन विश्व ऐतिहासिक विपर्यय, गतिरोध, विभ्रम और बिखराव की स्थिति का सामना आज सर्वहारा वर्ग और उसकी हरावल शक्तियाँ कर रही हैं, वैसा शायद पहले कभी नहीं हुआ था। गत लगभग 180 वर्षों के दौरान, क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर लगातार कभी इतने लम्बे समय तक हावी नहीं बनी रही। विपर्यय और गतिरोध का यह ‘अन्धकार युग’ कमोबेश 1980 के दशक में शुरू हुआ और 1990 के दशक में शिखर पर जा पहुँचा। आज भी इतिहास इसी अँधेरे से गुज़र रहा है।
स्तालिन की मृत्यु के बाद 1956 में सोवियत संघ में ख्रुश्चेव ने जब पूँजीवादी पुनर्स्थापना की नींव डाली, तो चीन में अभी सर्वहारा क्रान्ति महान अग्रवर्ती छलाँगें लगाती हुई आगे बढ़ रही थी। साथ ही पूरी दुनिया में उपनिवेशवाद और नवउपनिवेशवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की उत्ताल तरंगें उठ रही थीं। 1976 में चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की शुरुआत एक बड़ा ऐतिहासिक धक्का था, लेकिन उस समय भी एशिया, अफ़्रीका और दक्षिण अमेरिकी महाद्वीपों के बहुत सारे देशों में राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्षों को एक के बाद एक सफलताएँ हासिल हो रही थीं। इस पूरे दौर में अमेरिका और सोवियत संघ — इन दो अतिमहाशक्तियों के बीच तीखी प्रतिस्पर्द्धा जारी थी, जिसका लाभ किसी हद तक विश्व की मुक्तिकामी शक्तियों को भी मिल रहा था। सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद हालाँकि दुनिया के मुक्ति-संघर्षों में फूट डालने की भी कोशिश करता था, लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद से प्रतिस्पर्द्धा के कारण वह मुक्ति-संघर्षों की और नवस्वाधीन देशों की मदद भी करता था।
1980 के दशक में स्थितियाँ बदलने लगीं। राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का दौर अब समापन की ओर अग्रसर था। एशिया-अफ़्रीका-लातिन अमेरिका के नवस्वाधीन देशों का शासक बुर्जुआ वर्ग इस समय तक विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में व्यवस्थित होने लगा था। यह सोवियत संघ में गोर्बाचोव के ‘ग्लास्नोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ का दौर था जब स्वयं अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों से चरमराता सोवियत राजकीय इज़ारेदार पूँजीवादी तंत्र विघटन की ओर अग्रसर था। अब वह न तो पश्चिमी साम्राज्यवाद को टक्कर देने की स्थिति में था, न ही तीसरी दुनिया के देशों की कोई मदद ही कर सकता था। 1989 से ’91 के दौरान सोवियत संघ के विघटन और उसके घटक गणराज्यों तथा पूर्वी यूरोपीय देशों में समाजवादी मुखौटों वाली राजकीय पूँजीवादी व्यवस्थाओं का पतन हुआ और वहाँ पश्चिमी ढंग की निजी इज़ारेदार पूँजीवादी व्यवस्थाएँ बहाल हुईं। जल्दी ही वियतनाम और कोरिया ने भी चीन जैसे “बाज़ार समाजवाद” की राह पकड़ ली। नयी शताब्दी का दूसरा दशक शुरू होते-होते क्यूबा ने भी “बाज़ार समाजवाद” का झण्डा थाम लिया।
1990 के दशक तक राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों का दौर बीत चुका था और अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा इस तरह पार्श्वभूमि में चली गयी थी कि मार्क्सवादी विज्ञान की अधकचरी समझ वाले बहुतेरे बौद्धिकों और अनुभववादी पर्यवेक्षकों को दुनिया एकध्रुवीय नज़र आने लगी थी। इस दौर में अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने ‘फण्ड-बैंक-गैट’ के नुस्खों के ज़रिये तीसरी दुनिया के सभी देशों और पूर्वी यूरोप के देशों के बुर्जुआ शासकों पर निजीकरण-उदारीकरण की नीतियाँ थोपीं। साम्राज्यवाद के इस नये दौर को “भूमण्डलीकरण” का नाम दिया गया। इस दौर में साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की वैश्विक आवाजाही के रास्ते की सभी बाधाएँ हटा दी गयीं और पूँजी-निर्यात के नये-नये तौर-तरीक़े ईजाद किये गये। यह औद्योगिक पूँजी पर वित्तीय पूँजी की “अन्तिम विजय” और निर्णायक वर्चस्व का दौर था, जब विश्व-अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व अतिवित्तीयकरण हुआ। उत्पादन के तौर-तरीक़ों में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह आया कि ‘फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन’ को कई छोटे-छोटे उपक्रमों से लेकर ठेकाकरण की एक श्रृंखला के ज़रिये घरेलू उद्योगों तक में बाँट दिया गया। श्रम-शक्ति के बड़े हिस्से को अनौपचारिक, कैज़ुअल, ठेका और दिहाड़ी की श्रेणी में लाकर मज़दूरों की मोलतोल की ताक़त छीन ली गयी और उनसे ज़्यादा से ज़्यादा अधिशेष निचोड़ा जाने लगा। संशोधनवादी और बुर्जुआ पार्टियों के नेतृत्व में संगठित औद्योगिक मज़दूर वर्ग इसका कारगर विरोध भी नहीं कर पाया और खण्ड-खण्ड बिखरता चला गया।
भूमण्डलीकरण के इस दौर की एक ख़ासियत यह भी है कि एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के अधिकांश देशों में (अपवादस्वरूप कुछ बेहद पिछड़े देशों को छोड़कर) राष्ट्रीय जनवाद के ऐतिहासिक कार्यभार पूरे हो चुके हैं। इन देशों में सत्तारूढ़ बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में नयी विश्व-व्यवस्था में व्यवस्थित हो चुका है। इन देशों में विकृत, खण्डित और विकलांग ही सही, लेकिन बुर्जुआ जनवाद स्थापित हो चुका है तथा प्राक्-पूँजीवादी भूमि-सम्बन्ध अगर कहीं बचे भी हैं तो अवशेष के रूप में बचे हैं। यानी दो, तीन या चार दशक पहले, जो देश राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में ते, वे अब एक नये प्रकार की समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रविष्ट हो चुके हैं और वहाँ प्रधान अन्तरविरोध है — साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद के साथ जनता के तीन वर्गों (शहरी मध्यवर्ग/मध्यम किसान, शहरी-ग्रामीण अर्द्ध सर्वहारा/ग़रीब किसान और शहरी-ग्रामीण सर्वहारा वर्ग) का अन्तरविरोध। यानी प्रधान अन्तरविरोध अब दुनिया के अधिकांश पिछड़े देशों में भी श्रम और पूँजी के बीच ही है। आज की दुनिया का जो दूसरा बुनियादी अन्तरविरोध है, वह है अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा।
पिछली शताब्दी के अन्तिम दो दशकों के दौरान जब विश्व-ऐतिहासिक विपर्यय का दौर शुरू हो रहा था और क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी हो रही थी, तो बुर्जुआ बौद्धिक जगत में ‘इतिहास के अन्त’, ‘समाजवाद की मृत्यु’ आदि नारों का शोर दिग-दिगन्त तक गूँज रहा था। सभी उत्तर-आधुनिकतावादी, उत्तर-मार्क्सवादी आदि-आदि यह कहते नहीं थक रहे थे कि ‘क्रान्तियों के महाख्यानों का विसर्जन’ हो चुका है। यह बार-बार, तरह-तरह से, कहा जा रहा था कि उदार पूँजीवादी जनवाद ही सर्वोन्नत सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था है, जिसकी आन्तरिक गतिकी ऐसी है कि यह अपनी कमियों-कमज़ोरियों को दुरुस्त करता हुआ सदा के लिए बना रहेगा। लेकिन यह सारा आत्मसन्तोष और विजयोल्लास सदी का अंत आते-आते वैश्विक मन्दी और आर्थिक ध्वंस के भूकम्पों से पैदा हुए संत्रास, चीख़-पुकार और अफरातफरी में खो गया। पूरी पृथ्वी पर निर्बन्ध दौड़ती पूँजी ने जितनी तेज़ी से ज़्यादा से ज़्यादा अधिशेष निचोड़ा, मुनाफ़े की गिरती दर के शाश्वत संकट ने अगले ही दौर में उतना ही अधिक विकट होकर धर दबोचा। अतिउत्पादन और अतिसंचय के प्रेतों ने उतना ही अधिक सताना शुरू कर दिया। पीछे मुड़कर यदि देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पचास और साठ के दशक के सुनहरे वैभवशाली दिनों के बाद, 1970 का दशक शुरू होने के साथ ही विश्व पूँजीवादी अर्थतंत्र जिस दीर्घकालिक मन्दी के भँवर में जा फँसा, उससे वह फिर कभी उबर ही नहीं पाया। कभी हल्की तो कभी गहरी होते हुए, कभी दुश्चक्रीय निराशा तो कभी आर्थिक ध्वंस का रूप लेते हुए, वैश्विक मन्दी लगातार जारी रही। संकट से उबरने की हर कोशिश अगले दौर में और गम्भीर संकट को जन्म देती रही। आज अधिकांश बुर्जुआ अर्थशास्त्री भी विश्व पूँजीवाद के जारी आर्थिक संकट को असाध्य ढाँचागत संकट का नाम दे रहे हैं।
विश्व अर्थतंत्र के अतिवित्तीयकरण और सुदीर्घ आर्थिक मन्दी और बीच-बीच के ध्वंसों के रूप में जारी ढाँचागत संकट का राजनीतिक धरातल पर एक परिणाम यह सामने आया है कि उन्नत से लेकर पिछड़े देशों तक में, पूरब से लेकर पश्चिम तक के सभी समाजों में, बुर्जुआ जनवाद का स्पेस संकुचित हुआ है, बुर्जुआ सत्ताएँ अलग-अलग सीमाओं तक निरंकुश दमनकारी चरित्र अख़्तियार करती चली गयी हैं और उन्नत से लेकर पिछड़े देशों तक के समाजों में एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के रूप में फ़ासिज़्म की लहर ने नये सिरे से ज़ोर पकड़ा है। आज भारत, तुर्की, उक्रेन, फिलिप्पींस आदि कई देशों में फ़ासिस्ट, अर्द्धफ़ासिस्ट या घोर प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ सत्तारूढ़ हैं। रूस में पुतिन के शासन का चरित्र भी निरंकुश दमनकारी है और नये साम्राज्यवादी देश चीन के नकली लाल झण्डा उड़ाने वाले शासकों का व्यापक मेहनतकश आबादी के साथ जितना दमनकारी व्यवहार है, उसके मद्देनज़र उन्हें निस्सन्देह ‘सोशल फ़ासिस्ट’ कहा जा सकता है।
गत शताब्दी के अन्तिम दशक में इस तरह के दावे करने वाले बुर्जुआ और मार्क्सवादी अकादमीशियनों की भरमार हो गयी थी जो भूमण्डीकरण के दौर की दुनिया को ‘एकध्रुवीय’ घोषित कर रहे थे। हालाँकि मुद्रा युद्ध और व्यापार युद्ध आदि विविध रूपों में अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा उस दौर में भी जारी थी। गत क़रीब पन्द्रह वर्षों में रूस ने पुतिन के नेतृत्व में अपने पूँजीवादी अर्थतंत्र को फिर से व्यवस्थित किया है और प्राकृतिक ऊर्जा भण्डार और उन्नत हथियारों के व्यापार को फिर से एक ताक़त के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया है। उधर चीन बहुत तेज़ी से वैश्विक महत्वाकांक्षाओं वाली एक नयी साम्राज्यवादी शक्ति के रूप में सामने आया है। आज चीन-रूस धुरी अफ़्रीका और लातिन अमेरिका से लेकर एशिया तक में अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी खेमे को आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक स्तर पर प्रभावी चुनौती दे रही है। अन्तरविरोधों के कई और स्तर भी हैं। जैसे यूरोपीय संघ के देशों के आंग्ल-अमेरिकी धुरी से गहरे अन्तरविरोध हैं। एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिकी देशों के बुर्जुआ शासक अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठा रहे हैं और सुविधानुसार रूस-चीन धुरी या पश्चिमी साम्राज्यवादी गुट का पक्ष ले रहे हैं। क्यूबा, उत्तर कोरिया, लातिन अमेरिका की पॉपुलिस्ट रैडिकल बुर्जुआ सत्ताओं, सीरिया, ईरान और भूतपूर्व सोवियत संघ के घटक अधिकांश देशों को साथ लेकर रूस और चीन अमेरिकी खेमे को प्रभावी चुनौती देने लगे हैं। लेकिन आज जिस तरह सभी साम्राज्यवादी देशों में भी एक-दूसरे की पूँजी लगी हुई है और पूरी दुनिया के सभी देशों में जिस तरह सभी साम्राज्यवादी देशों की पूँजी लगी हुई है (यानी उपनिवेशों-नवउपनिवेशों की तरह आज साम्राज्यवादियों के अपने-अपने संरक्षित बाज़ार नहीं हैं); उसे देखते हुए इस बात की सम्भावना बहुत कम है कि अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा अपने उग्रतम रूप में किसी विश्वयुद्ध के रूप में भड़क उठे। ज़्यादातर आर्थिक ताक़त के आधार पर ही फ़ैसले होते रहेंगे और समय-समय पर दुनिया के किसी भूभाग में क्षेत्रीय युद्धों के रूप में साम्राज्यवादी गिरोह परस्पर ज़ोर-आज़माइश करते रहेंगे। जैसे, पूरा अरब क्षेत्र आज एक ऐसा भूभाग बन गया है जहाँ अलग-अलग अरब देशों के बुर्जुआ शासकों के आपसी अन्तरविरोध, साम्राज्यवादी देशों के आपसी अन्तरविरोध और शासक वर्गों के साथ व्यापक जन समुदाय के अन्तरविरोध मिलकर एक संधिस्थल या एक गाँठ का निर्माण कर रहे हैं। ऐसी स्थितियाँ विभिन्न रूपों में अन्यत्र भी पैदा हो सकती हैं। हम कह सकते हैं कि ‘साम्राज्यवाद का अर्थ युद्ध है’ — यह सूत्रीकरण आज भी सही है और माओ का यह सूत्रीकरण भी सही है कि ‘या तो युद्ध क्रान्तियों को जन्म देंगे या क्रान्तियाँ युद्धों को रोकेंगी’, लेकिन विश्वयुद्ध की सम्भावना आज की दुनिया में बहुत कम है। हाँ, पूँजीवादी दुनिया के संकट और गलाकाटू प्रतियोगिता ज़रूर युद्धों को तब तक जन्म देते रहेंगे, जब तक पूँजीवाद रहेगा।
समस्या यह है कि पूँजीवाद अपने असाध्य और गहनतम संकटों के विस्फोट से भी अपने-आप ध्वस्त नहीं हो सकता और समाजवादी समाज अपने-आप अस्तित्व में नहीं आ सकता। सर्वहारा क्रान्तियाँ सचेतन तौर पर संगठित होती हैं, वे स्वतःस्फूर्त नहीं होतीं। जब तक सर्वहारा वर्ग क्रान्ति के विज्ञान और कार्यक्रम की समझ से लैस अपने हरावल दस्ते (क्रान्तिकारी पार्टी) के नेतृत्व में संगठित नहीं होगा, तब तक बुर्जुआ राज्यसत्ता का ध्वंस करके सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना की ही नहीं जा सकती, और इसके बिना समाजवाद के निर्माण का और कोई शान्तिपूर्ण संक्रमण जैसा मार्ग हो भी नहीं सकता। जब तक नये सिरे से दुनिया के विभिन्न देशों में सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टियों के निर्माण की प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ेगी और उनके नेतृत्व में वर्ग-संघर्ष का नया चक्र गति नहीं पकड़ेगा, तब तक पूँजीवादी यूँ ही घिसट-घिसटकर चलता रहेगा, जन समुदाय पर बर्बर दमन, युद्धों और फ़ासिस्ट नरसंहारों का कहर बरपा करता रहेगा और मुनाफ़े की अन्धी हवस में प्रकृति को निचोड़कर और तबाह करके पर्यावरण-विनाश का ऐसा संकट तक पैदा कर देगा कि मनुष्यता का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाये। हमारी सदी का जलता हुआ प्रश्न है : या तो समाजवाद, या फिर मानव जाति का विनाश। आज अँधेरा चाहे जितना गहरा हो, लेकिन वर्ग-संघर्ष और क्रान्तियों के सहस्त्राब्दियों के अनुभव से लैस मानव जाति अन्ततोगत्वा पहले विकल्प को ही चुनेगी, यही सम्भावना अधिक है। इतिहास में हमारा विश्वास हमें यही बताता है।
आज हम जिस दुनिया और जिस ऐतिहासिक समय में जी रहे हैं, उसमें विश्व सर्वहारा के पास ने तो रूस और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों जैसी क्रान्तिसिद्ध पार्टियाँ मौजूद हैं, न ही मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ जैसा परीक्षित और प्राधिकार-सम्पन्न नेतृत्व है और न ही ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल’ जैसा कोई अन्तरराष्ट्रीय संगठन मौजूद है। श्रम और पूँजी के बीच विश्व-ऐतिहासिक महासमर का जो पहला चक्र उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में शुरू हुआ, वह पेरिस कम्यून, अक्टूबर क्रान्ति और चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के ऐतिहासिक मील के पत्थरों से गुज़रता हुआ समाप्त हो चुका है। इस पहले चक्र का समापन श्रम के शिविर की पराजय के साथ हुआ है। आज सर्वहारा वर्ग के पास कोई राज्य तो नहीं है, लेकिन यह ऐतिहासिक शिक्षा ज़रूर है कि समाजवादी समाज में वर्ग संघर्ष चलाने की आम दिशा और पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकने का तरीक़ा क्या होगा! श्रम और पूँजी के बीच उन्नततर धरातल पर शुरू होने वाले विश्व-ऐतिहासिक महासमर का दूसरा चक्र अभी भविष्य की बात है। अभी बस यहाँ-वहाँ छिटपुट झड़पें ही हो रही हैं। हम इस विश्व-ऐतिहासिक महासमर के दो चक्रों के बीचे के गहन अन्धकारमय, संक्रमणकालिक कालखण्ड से गुज़र रहे हैं और कोई भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि यह कालखण्ड अभी कितना लम्बा होगा। हम इतना ज़रूर कर सकते हैं कि हठी, कठोर और अनवरत प्रयासों से इस कालखण्ड को अधिकतम सीमा तक सिकोड़कर छोटा करने में जुटे रहें।
इस प्रयास में सिर्फ़ वही सर्वहारा क्रान्तिकारी सफल हो सकते हैं जो सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और बीसवीं शताब्दी की सर्वहारा क्रान्तियों और समाजवादी संक्रमण के प्रयोगों का गहन अध्ययन करें और उनसे भविष्य के लिए ज़रूरी नतीजे निकालें। ऐतिहासिक तथ्यों के अध्ययन के बिना चलताऊ ढंग से समाजवाद की विफलता का कारण नेता विशेष को, या तथाकथित पार्टी नौकरशाही को, या समाजवादी समाज में जनवाद के तथाकथित अभाव को, या “वर्ग की जगह पार्टी के अधिनायकत्व की स्थापना” को बताने जैसी सस्ती, दो कौड़ी की, लोकरंजक फतवेबाज़ियों से कुछ भी नहीं हासिल होने वाला! ये सारे सूत्रीकरण या तो बुर्जुआ प्रचारों से प्रभावित होते हैं या कुर्सीतोड़ “मौलिक” बुद्धिजीवियों की हवाई उड़ानें! जेनुइन कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी इन प्रवृत्तियों से घृणा करते हैं।
दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों की हरावल शक्ति केवल वही पार्टी हो सकती है जो एक सच्चे बोल्शेविक साँचे-खाँचे में ढली हुई पार्टी हो। आज पूरी दुनिया में जो भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन और ग्रुप हैं उनमें से कुछ कठमुल्लावादी ढंग से काम करते हुए अतिवामपंथी संकीर्णतावाद और दुस्साहसवाद के दलदल में धँसे पड़े हैं। दूसरी ओर, कुछ अन्य ऐसे संगठन हैं जो बुर्जुआ संसदीय जनवादी प्रणाली के ‘टैक्टिकल’ इस्तेमाल की बात करते हुए, वस्तुतः उससे आगे बढ़कर दक्षिणपंथी अवसरवादी विचलन का शिकार हो चुके हैं। बहुत सारे ऐसे भी संगठन हैं जो “मुक्त चिन्तन” के भटकाव का शिकार हैं, जन संगठनों के साथ पार्टी संगठन के रिश्ते में पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका की अनदेखी कर रहे हैं तथा अलग-अलग रूपों में अक्सेलरोद, ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ और ‘कौंसिलपंथी कम्युनिस्टों’ की ऐतिहासिक ग़लतियों को ही भौंड़े ढंग से दुहरा रहे हैं। इन सभी विसर्जनवादी प्रवृत्तियों से समझौताहीन संघर्ष करते हुए जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी एक इस्पाती ढाँचे वाली बोल्शेविक पार्टी खड़ी कर सकेंगे, वही इतिहास द्वारा सौंपे गये कार्यभार को पूरा करने के योग्य साबित होंगे। अन्य सभी कठमुल्लावादी, संशोधनवादी और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भटकावों की शिकार प्रवृत्तियाँ कालान्तर में विघटन और विसर्जन का शिकार हो जायेंगी।
अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण की सर्जना के लिए हमें अतीत के सभी क्रान्तिकारी प्रयोगों का गहन अध्ययन तो करना ही होगा, पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बुनियादी कारणों को तो समझना ही होगा और मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की मूल अन्तर्वस्तु को तो आत्मसात करना ही होगा, लेकिन इतना ही काफ़ी नहीं होगा। हम जिस ऐतिहासिक समय में अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निर्माण की तैयारी की बात कर रहे हैं, वह समय अक्टूबर क्रान्ति के समय से काफ़ी भिन्न है। हम आज भी साम्राज्यवाद की अवस्था में ही जी रहे हैं, लेकिन विश्व पूँजीवादी की संरचना और कार्यप्रणाली में लेनिन और अक्टूबर क्रान्ति के समय की तुलना में काफ़ी बदलाव आ चुके हैं। आज की विश्व सर्वहारा क्रान्ति की आम दिशा, रणनीति और रणकौशल पर लाज़िमी तौर पर इसका प्रभाव पड़ेगा। एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका के देश ही अब भी विश्व पूँजीवादी की कमज़ोर कड़ी और क्रान्तियों के तूफ़ानों के केन्द्र हैं। लेकिन ये देश अब उपनिवेश या नवउपनिवेश न होकर पिछड़े पूँजीवादी देश हैं, जहाँ के शासक वर्ग साम्राज्यवादियों के ‘जूनियर पार्टनर’ के रूप में विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में व्यवस्थित हो चुके हैं। अपवादों को छोड़कर, ऐसे सभी देश आज की दुनिया में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति की मंज़िल से आगे समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में प्रविष्ट हो चुके हैं। जो कठमुल्लावादी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में 1917 की अक्टूबर क्रान्ति या 1949 की चीनी नवजनवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को ही थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ लागू करने की बात कर रहे हैं, वे अतीत को दुहराने का प्रहसन करते हुए कालान्तर में अप्रासंगिक और फिर विसर्जित हो जाने के लिए अभिशप्त हैं। जो लोग कुछ तात्कालिक सफलताओं के बाद इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने को व्यग्र होते हैं, उनका हश्र वही होता है जो पेरू और नेपाल की माओवादी पार्टियों के नेतृत्व का हुआ। माओवाद के साथ ‘गोंजालो चिन्तन’ जोड़ने वाली पार्टी विसर्जित हो गयी और नेपाल की माओवादी पार्टी का ‘प्रचण्ड पथ’ संसद में घुसकर निर्वाण को प्राप्त हो गया। ऐसे प्रयोग तुरत कुछ गर्मी और उम्मीद जगाकर अगले ही दौर में जब विसर्जित हो जाते हैं तो क्रान्ति की आकांक्षी आम जनता की निराशा कुछ और गहरी हो जाती है। सच है, मिथ्या आशा तात्कालिक निराशा से भी अधिक ख़तरनाक होती है।
अन्त में, हम एक बार फिर विशेष ज़ोर देकर कहना चाहते हैं कि यह ‘इतिहास का अन्त’ नहीं है। मानवता अन्ततः इस लम्बी अँधेरी सुरंग से बाहर आयेगी और पूँजी और श्रम के शिविरों के बीच विश्व-ऐतिहासिक महासमर का नया चक्र अवश्य शुरू होगा, भले ही इसमें चन्द दशकों का समय और लग जाये। हमारा यह आशावाद नियतिवादी नहीं, बल्कि सकर्मक आशावाद है। हम मानते हैं कि मनोगत शक्तियाँ जितना ही श्रमसाध्य और अनथक उद्यम करेंगी, नयी शुरुआत के समय को खींचकर उतना ही निकट लाया जा सकेगा। हमारी इस क्रान्तिकारी आशावादी स्पिरिट को लेनिन की उस एकमात्र कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ सटीकतम ढंग से अभिव्यक्त करती हैं जो उन्होंने 1905-07 की रूसी क्रान्ति के कुचल दिये जाने के बाद लिखी थी :
पैरों से रौंदे गये आज़ादी के फूल
आज नष्ट हो गये हैं
अँधेरे के स्वामी
रोशनी की दुनिया का ख़ौफ़ देख ख़ुश हैं
मगर उस फूल के फल ने
पनाह ली है जन्म देने वाली मिट्टी में
माँ के गर्भ में
आँखों से ओझल गहरे रहस्य में
विचित्र उस कण ने
अपने को जिला रखा है
मिट्टी उसे ताक़त देगी
मिट्टी उसे गर्मी देगी
उगेगा वह एक नया जन्म लेकर
एक नयी आज़ादी का बीज वह लायेगा
फाड़ डालेगा बर्फ़ की चादर वह विशाल वृक्ष
लाल पत्तों को फैलाकर वह उठेगा
दुनिया को रौशन करेगा
सारी दुनिया को, जनता को
अपनी छाँह में इकट्ठा करेगा।
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— शशि प्रकाश
(अक्टूबर, 2019)