Author Archives: Disha Sandhaan

राजसमन्द हत्याकाण्ड और भारतीय फ़ासीवाद का चरित्र

राजसमन्द हत्याकाण्ड फ़ासीवाद द्वारा समाज के पोर-पोर में घिनौने तरीक़ों से फैलाये जा रहे ज़हर की बस एक और ताक़ीद है। खुलेआम हिंसा और आतंक का इस्तेमाल फ़ासीवादी ताक़तों द्वारा हर तरह के प्रतिरोध को शांत कराने और आत्मसमर्पण के लिए मजबूर करने के लिए किया जाता है। फ़ासीवाद सत्ता में हो या सत्ता से बाहर हो, हर-हमेशा ही यह बड़ी पूँजी के लिए ‘अनौपचारिक राज्य-सत्ता’ के तौर पर काम करता रहा है। जो उदारवादी-शान्तिवादी तर्क, संवैधानिक तन्त्र और जनवाद (असल में बुर्जुआ जनवाद) की विफलता पर विधवा-विलाप कर रहा है, और जो मौज़ूदा राजनीतिक-वैचारिक व्यवस्था की बर्बरता से सदमे में है, वह अपने आँसुओं की धारा में इस बर्बरता, यानी कि फ़ासीवाद, के उदय के पीछे के कारणों और सम्बन्धों को देख पाने में असमर्थ है। read more

विज्ञान और मार्क्सवादी दर्शन के सम्बन्धों का एक अवैज्ञानिक और अज्ञानतापूर्ण पाठ : एक आलोचना

यह मार्क्सवादी दर्शन में नवीनतम ‘नकारात्मक योगदान’ है! हमें यह नकारात्मक शिक्षा मिलती है कि इस ‘नवीनतम’ तरीक़े से ग़लती करने से बचा जाना चाहिए! दीपक बख्शी के विचार जगत में इस यान्त्रिक श्रृंखला के क्रम को जरा भी भंग नहीं किया जा सकता है। मौजूदा दौर में इस श्रृंखला का पालन न होने, यानी प्राकृतिक विज्ञान में बदलाव का अध्ययन न होने व मार्क्सवादी दर्शन के द्वारा इसकी विवचना न हाने के कारण, क्रान्तिकारी आन्दोलन में ठहराव आ गया है। पिछली शताब्दी में मार्क्सवादियों ने तथा मार्क्सवादी नेताओं माओ और स्तालिन ने प्राकृतिक विज्ञान में विकास का अध्ययन नहीं किया और न ही मार्क्सवाद पर हाइजे़नबर्ग द्वारा किये ‘सबसे गम्भीर हमले’(!) का जवाब दिया! यह ‘सबसे गम्भीर हमला’ क्वाण्टम भौतिकी का अनिश्चितता का नियम व उसकी नवकाण्टीय विवेचना व विस्तार है। नतीजतन, बख्शी के श्रृंखला नियम के अनुसार, माओ और स्तालिन द्वारा रचित दार्शनिक कृतियों में पेश की गयी द्वन्द्ववाद के नियमों की समझदारी ग़लत सिद्ध हुई और मार्क्सवादी सिद्धान्त में संकट उत्पन्न हुआ है। मार्क्सवादी सिद्धान्त में संकट से दीपक बख्शी का तात्पर्य पार्टी और जनवादी केन्द्रीयता के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों से है।

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उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’ : उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

उत्तर-मार्क्सवाद के अलग-अलग ‘शेड्स’ के ‘सिद्धान्तकारों’ की भाँति-भाँति की सैद्धान्तिकियों का मक़सद मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु पर हमला करना है। सही मायनों में कहें, तो उत्तर-आधुनिकतावाद के प्रत्यक्ष हमलों के चुक जाने के बाद उत्तर-आधुनिकतावाद का विरोध करने की नौटंकी करते हुए, इन तमाम सट्टेबाज़ उत्तर-मार्क्सवादी दार्शनिकों के धुरी-विहीन चिन्तन और दार्शनिक ख़ानाबदोशी का वास्तविक निशाना एक बार फिर मार्क्सवाद ही है। इनके शब्द अलग हैं; उत्तर-आधुनिकतावाद जिस बेशर्मी के साथ पूँजीवाद की अन्तिम विजय, कोई विकल्प न होने, पहचान की राजनीति के समर्थन, आदि की बात करता था, अब वैसा करना असम्भव है और किसी के लिए ऐसा करना अपना मज़ाक उड़वाने जैसा होगा। इसलिए इन नये दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष तौर पर पूँजीवाद-विरोध की भाव-भंगिमा अपनायी है और पूँजीवाद की ये लोग एक ”नये क़ि‍स्म की आलोचना” करते हैं। आज के ज़माने में पूँजीवाद के ख़िलाफ़ आम जनता सड़कों पर उतर रही है। यह 1990 का दौर नहीं है जब दुनिया भर में पस्ती और निराशा छायी हुई थी। उस समय उत्तर-आधुनिकतावाद नंगे तौर पर ‘अन्त’ की घोषणाएँ कर सकता था। अब कोई भी विचारधारा जो ऐसा प्रयास करेगी, उसके हश्र का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए पूँजीवादी बौद्धिक तन्त्र ने अपनी सहज गति से नये क़ि‍स्म के ”दार्शनिकों” को पैदा किया है जिसमें से किसी को ‘मोस्ट एण्टरटेनिंग थिंकर’, ‘ग्रेटेस्ट लिविंग थिंकर’ आदि कहा जा रहा है तो किसी को ‘मोस्ट इनोवेटिव थिंकर ऑफ़ जेनरेशन’ और पता नहीं क्या-क्या कहा जा रहा है। read more

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पाँचवीं किस्त)

बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवादी प्रयोगों के बारे में इतिहास-लेखन को कई श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। एक श्रेणी सोवियत समाजवादी प्रयोगों के जारी रहने के दौरान लिखे गये बोल्शेविक क्रान्ति और सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के तत्कालीन विवरणों की है, जिसमें स्तुलोव जैसे इतिहासकारों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन से लेकर बोल्शेविक क्रान्ति के साक्षी या उसमें हिस्सेदारी करने वाले बोल्शेविकों द्वारा लिखे गये इतिहास व संस्मरण आदि शामिल हैं। दूसरी श्रेणी उन तत्कालीन ग़ैर-बोल्शेविक प्रेक्षकों के इतिहास-लेखन, रिपोर्ताज व संस्मरणों की है, जिनमें मेंशेविकों से लेकर समाजवादी-क्रान्तिकारियों और अराजकतावादियों द्वारा लिखे गये इतिहास-लेखन व संस्मरणों को शामिल किया जा सकता है, जैसे कि सुखानोव, मिल्युकोव आदि द्वारा लिखित विवरण। तीसरी श्रेणी तमाम ऐसे मार्क्सवादी अध्येताओं की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और जो वहाँ पूँजीवादी पुनर्स्थापना के पहले और बाद के दौर के साक्षी रहे, जिनमें मॉरिस डॉब, चार्ल्स बेतेलहाइम, पॉल स्वीज़ी आदि को शामिल किया जा सकता है। और चौथी श्रेणी उन इतिहासकारों की है जो कि सोवियत संघ से बाहर थे और ग़ैर-मार्क्सवादी थे, जिसमें कि चैम्बरलेन, ई.एच. कार, इज़ाक डॉइशर, मार्क फेरो व अलेक्ज़ैण्डर रैबिनोविच जैसे अध्येताओं को शामिल किया जा सकता है।

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फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति का प्रश्न

भारतीय फ़ासीवाद का मौजूदा अस्तित्व रूप यानी मोदी लहर, गिरावट के प्रथम लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। लोग नाराज़ हैं, असन्तुष्ट हैं और क्रान्तिकारी प्रचार और उद्वेलन के लिए तैयार हैं। साथ ही, यह भी याद रखा जाना चाहिए कि क्रान्तिकारी शक्तियों को पूँजीवादी चुनावों में भी रणकौशलात्मक भागीदारी करनी चाहिए और सर्वहारा वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और साथ ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाना चाहिए। लेकिन यह भी नहीं भूला जाना चाहिए कि समूची फ़ासीवाद-विरोधी रणनीति को चुनावी रणनीति पर अपचयित नहीं कर दिया जाना चाहिए। यह न सिर्फ़ नुक़सानदेह होगा, बल्कि आत्मघाती होगा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों के बीच मज़दूर वर्ग का संयुक्त मोर्चा स्थापित करना और जनसमुदायों के बीच मज़बूत सामाजिक आधार का निर्माण आज कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष दो महत्वपूर्ण और तात्कालिक कार्यभार हैं। आगे हम किस हद तक सफल होंगे, यह इस बात पर ही निर्भर करता है कि इन दोनों कार्यभारों को किस हद तक पूरा कर पाते हैं। read more

दिशा सन्धान–4, जनवरी-मार्च 2017

  • ‘रुग्ण लक्षणों’ का यह समय और हमारे कार्यभार
  • सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (चौथी किस्त)
  • नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (तीसरी किस्त)
  • माकपा के भीतर फ़ासीवाद पर बहस – चुनावी जोड़-जुगाड़ के लिए सामाजिक जनवाद की बेशर्म क़वायद
  • फ़ि‍लीपींस में दुतेर्ते परिघटना और उसके निहितार्थ
  • मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन
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    पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान – 4, जनवरी-मार्च 2017

    आपकी पत्रिका में नक्सलबाड़ी के इतिहास पर दोनों किश्तें मैं पढ़ चुका हूँ। इस अंक में मोदी की जीत पर रवि सिन्हा के लेख के बहाने फासीवाद विरोधी आन्दोलन पर की गयी विस्तृत चर्चा के अधिकांश बिन्दुओं से मैं सहमत हूँ। सही वैज्ञानिक समझ के बग़ैर फासीवाद से की गयी तमाम लड़ाइयों का हश्र हम पहले देख चुके हैं। आईएस व पश्चिम एशिया के संकट और कश्मीर पर शामिल आलेख भी बहुत तथ्यपूर्ण और विचारोत्तेजक हैं। यूनान में सीरिज़ा का विश्लेषण भी बिल्कुल कन्विंसिंग है, हालाँकि मेरे कई वाम मित्र उसके प्रशंसक हैं। read more

    अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव – डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के निहितार्थ

    ट्रम्प एक ऐसे समय अमेरिका के राष्ट्रपति का पद सँभालने जा रहा है जब विश्व पूँजीवाद अपने अन्तकारी संकट से बिलबिला रहा है। ट्रम्प की नीतियों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इस संकट से छुटकारा दिला सकने में सक्षम हो। उस पर से तुर्रा यह कि अमेरिका में एक नयी मन्दी की भी सम्भावनाएँ जतायी जा रही हैं। ऐेसे में ट्रम्प जैसे धूर-दक्षिणपन्थी व्यक्ति का अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर होने से नस्लीय नफ़रत व मुस्लिम-विरोधी दुष्प्रचार को बढ़ावा दिया जाना तय है। मन्दी की मार झेल रहा अमेरिका का पूँजीपति वर्ग ट्रम्प के ज़रि‍ये दुनिया के विभिन्न हिस्सों को नये युद्धों की ओर झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा ताकि उत्पादक शक्तियों को तबाह कर पूँजी के मुनाफ़़े की नयी सम्भावनाओं के द्वार खुल सकें। read more

    मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन

    नीचे के तीन वर्गों का गुस्सा ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता के ख़ि‍लाफ़ लम्बे समय से संचित हो रहा है। इस गुस्से का निशाना मराठा जातियों की नुमाइन्दगी करने वाली प्रमुख पार्टियाँ बन सकती हैं, जो कि वास्तव में मराठों के बीच मौजूद अतिधनाढ्य वर्गों की नुमाइन्दगी करता है। यह वर्ग अन्तरविरोध अपने आपको इस रूप में अभिव्यक्त करने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता है। लेकिन यह सम्भावना-सम्पन्नता स्वत: एक यथार्थ में तब्दील हो, इसकी गुंजाइश कम है। ग़रीब मेहनतकश मराठा आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद की सोच उनमें भी अलग-अलग मात्रा में मौजूद है। ऐसे में, मराठों के बीच मौजूद जो शासक वर्ग है और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली मराठा पहचान की राजनीति करने वाली बुर्जुआ पार्टियाँ मराठा जातियों के व्यापक मेहनतकश वर्ग के वर्गीय गुस्से को एक जातिगत स्वरूप दे सकती हैं और देती रही हैं। read more