आपकी बात
सोवियत इतिहास पर जारी लेख की तीसरी किश्त अभी पढ़कर ख़त्म की। पिछले 4 दिनों से इसी में लगा था। पिछले अंक में चार्ल्स बेतेलहाइम पर लिखने का ज़िक्र करके आपने मेरी उत्सुकता और बढ़ा दी थी। हिन्दी में तो बेतेलहाइम पर गम्भीर आलोचनात्मक सामग्री मेरी नज़र में नहीं के बराबर है, अंग्रेज़ी में भी मैंने उनके विचारों का ऐसा विस्तृत और सारगर्भित विवेचन कहीं नहीं देखा है। मेरे लिए बहुत सी बातें आँखें खोलने वाली हैं, या सटीक ढंग से कहूँ तो चीज़ों को देखने की एक नयी दृष्टि देने वाली हैं। आपने बिल्कुल ठीक लिखा है कि बेतेलहाइम की रचनाओं का दुनिया के माओवादी आन्दोलन में व्यापक प्रभाव है। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में मार्क्सवाद के गम्भीर अध्ययन के प्रति एक प्रकार का शत्रु भाव बना रहा है, और जो पढ़ते हैं उनमें से ज़्याादातर पल्लवग्राहिता से आगे नहीं जाते। कुछ लोग हो सकता है वाकई में गम्भीरता से पढ़ते हों लेकिन उनकी स्वान्त:सुखाय पढ़ाई से आन्दोलन या हम जैसे जिज्ञासुओं को तो कोई लाभ नहीं मिलता। अगले अध्यायों की आतुरता से प्रतीक्षा है। कहने की ज़रूरत नहीं कि सोवियत इतिहास की इस व्यापक और गहरी जाँच-पड़ताल से भावी समाजवादी क्रान्तियों के लिए बहुत ज़रूरी सबक़ निकलेंगे जिन पर गहरे सोच-विचार की ज़रूरत है। मुझे लगता है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन की आज की समस्याओं को समझने के लिए भी इतिहास की इन समस्याओं पर गहन चिन्तन-मनन की ज़रूरत है। सम्पादकों से एक अनुरोध यह है कि इस प्रकार के लेखों के साथ यदि स्रोत सामग्री के सन्दर्भ भी उपलब्ध कराये जायें तो बहुत उपयोगी होगा।
शरदेन्दु चौधरी, नई दिल्ली
‘दिशा सन्धान’ का तीसरा अंक मेरे हाथ कुछ दिन पहले लगा। इसके बाद मैंने आपकी वेबसाइट से पिछले अंकों के भी कई लेख पढ़े। बिला शक, ऐसी सीरियस और मौलिक मार्क्सवादी पत्रिका की आज बहुत ज़रूरत है। ‘वामपन्थी आन्दोलन के सामने कुछ विचारणीय प्रश्न’ लेख में मैंने शायद पहली बार प्रो. रणधीर सिंह के विचारों की एक मार्क्सवादी आलोचना पढ़ी। बेशक उनके व्यक्तित्व और उनके काम का हम सब गहरा सम्मान करते हैं, लेकिन उनके बहुत से विचारों, ख़ासकर समाजवादी समाज की समस्याओं के उनके विश्लेषण में भारी समस्याएँ रही हैं। उनके विचारों का काफ़ी प्रभाव भी रहा है, नेपाल में माओवादी पार्टी के नेतृत्व के कुछ लोग तो उनसे बहुत ही ज़्यादा प्रभावित थे। मगर उनके विचारों के साथ कोई पॉलिमिक्स नहीं चली है। सोवियत समाजवाद पर लम्बी लेखमाला और तैयारी के साथ अध्ययन की माँग करती है। मगर तीनों कड़ियों के विषयों को देखकर मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि इसे भारत में वाम बौद्धिक सर्किलों में ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए और इस पर बहस होनी चाहिए। हालाँकि ऐसा होने के प्रति मैं बहुत आशावान नहीं हूँ।
सन्त प्रकाश, मुम्बई
आपकी पत्रिका में नक्सलबाड़ी के इतिहास पर दोनों किश्तें मैं पढ़ चुका हूँ। इस अंक में मोदी की जीत पर रवि सिन्हा के लेख के बहाने फासीवाद विरोधी आन्दोलन पर की गयी विस्तृत चर्चा के अधिकांश बिन्दुओं से मैं सहमत हूँ। सही वैज्ञानिक समझ के बग़ैर फासीवाद से की गयी तमाम लड़ाइयों का हश्र हम पहले देख चुके हैं। आईएस व पश्चिम एशिया के संकट और कश्मीर पर शामिल आलेख भी बहुत तथ्यपूर्ण और विचारोत्तेजक हैं। यूनान में सीरिज़ा का विश्लेषण भी बिल्कुल कन्विंसिंग है, हालाँकि मेरे कई वाम मित्र उसके प्रशंसक हैं।
ज़ेड. बर्नी, मुंगेर
सम्पादक द्वय से मेरा बस इतना निवेदन है कि इतनी महत्वपूर्ण पत्रिका में भाषा और शब्दों के मानकीकरण पर अगर ध्यान दे सकें तो बहुत अच्छा होगा। जैसे, चे ग्वेरा, एलेन बेज्यू, त्रात्स्की आदि नाम अलग-अलग ढंग से लिखे मिलते हैं। हिन्दी में विदेशी नामों, उच्चारणों को लेकर बहुत ढीला-ढाला रवैया रहा है। मार्क्सवादी शब्दावली के प्रति भी ऐसा ही रुख़ रहा है। अगर इधर भी आप लोग ध्यान दे सकें तो अच्छा होगा। आप लोगों से उम्मीद है, इसलिए यह अनुरोध कर रहा हूँ।
केशव सेन
दिशा सन्धान – अंक 4 (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित