आज के साम्राज्यवाद पर लखनऊ में आयोजित छठी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

आज के साम्राज्यवाद पर लखनऊ में आयोजित छठी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

  • आनन्द सिंह

गत 24 से 28 नवम्बर के बीच लखनऊ के अन्तरराष्ट्रीय बौद्ध अध्ययन संस्थान, गोमतीनगर के सभागार में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा ‘आज के समय में साम्राज्यवाद: उद्भव, कार्यप्रणाली और गतिकी’ विषय पर पाँच दिवसीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी में साम्राज्यवाद के क्लासिकीय मार्क्सवादी सिद्धान्तों की आलोचनात्मक पुनर्विवेचना, साम्राज्यवाद के नव-मार्क्सवादी सिद्धान्तों का आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन, लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त और नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर का साम्राज्यवाद, साम्राज्यवाद के उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्त, मौजूदा अन्तर-साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और उसके निहितार्थ, साम्राज्यवाद के संशोधनवादी, सुधारवादी और सामाजिक-जनवादी सिद्धान्त, लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद, साम्राज्यवाद और मौजूदा आर्थिक संकट, साम्राज्यवाद और संस्कृति जैसे विषयों पर विभिन्न शोधात्मक आलेख प्रस्तुत किये गये और उन पर गहन चर्चा और गम्भीर बहस-मुबाहसा हुआ। संगोष्ठी में देश के विभिन्न राज्यों के विद्वानों, लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ ही नेपाल और अमेरिका से आये लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और कार्यकर्ताओं ने भी भागीदारी की।

संगोष्ठी का पहला दिन
पहले दिन 24 नवम्बर को संगोष्ठी के आयोजक ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की मुख्य न्यासी मीनाक्षी ने एक स्वागत वक्तव्य के साथ संगोष्ठी की औपचारिक शुरुआत की जिसमें उन्होंने कहा कि आज साम्राज्यवाद के शोषण से एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों की जनता तबाह है और कर्ज़ों के बोझ से दबी हुई है। एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देश राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हैं, परन्तु इन देशों का बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवाद के ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका अदा करता है और इन देशों के मेहनतकश वर्ग को लूटता है। ख़ासकर मध्य-पूर्व का क्षेत्र अमेरिका की साम्राज्यवादी आक्रामकता का केन्द्र और विभिन्न साम्राज्यवादी शक्तियों की होड़ का अखाड़ा बना हुआ है। इन देशों की जनता पिछले कई दशकों से युद्ध की विभीषिका झेल रही है। दुनिया के कई अन्य देशों में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और दबाव ने वहाँ की अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया है। लगातार जारी वैश्विक आर्थिक संकट ने इस समस्या को और गम्भीर बना दिया है। साम्राज्यवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने तथा इसके प्रतिरोध की रणनीतियों पर आज दुनिया भर में विचार-मन्थन जारी है। उन्होंने उम्मीद जतायी कि संगोष्ठी में पाँच दिनों तक साम्राज्यवाद के विभिन्न पहलुओं पर गहन विचार-विमर्श का सिलसिला जारी रहेगा।
संगोष्ठी का पहला आलेख विश्व भारती विश्वविद्यालय, शान्तिनिकेतन, पश्चिम बंगाल से आये प्रशान्त बनर्जी ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था: ‘साम्राज्यवाद और पूँजीवादी शोषण का विस्तार: एक क्लासिकीय मार्क्सवादी विवेचना’। इस आलेख में श्री बनर्जी ने मार्क्स व एंगेल्स से लेकर लेनिन, काउत्स्की, रोज़ा लग्ज़मबर्ग आदि के साम्राज्यवाद-विषयक विचारों का संक्षिप्त ब्योरा प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि साम्राज्यवाद कोई राजनीतिक या विचारधारात्मक परिघटना नहीं बल्कि उन्नत पूँजीवाद की प्रमुख आवश्यकता है। इसलिए सत्ता संघर्ष और औपनिवेशिक विस्तार के तौर पर साम्राज्यवाद की मार्क्सवादी व्याख्या को अस्तित्व की भौतिक परिस्थितियों में खोजा जाना चाहिए। पूँजीवाद की प्रकृति ही ऐसी है कि मज़दूर वर्ग पर प्रभुत्व क़ायम करके, उन्हें लूटकर और उनका शोषण करके स्वयं को समृद्ध बनाने की आन्तरिक इच्छा उसके भीतर ही मौजूद है। इसलिए साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ क्रान्ति पूँजीवादी शोषण के ख़िलाफ़ क्रान्ति का ही एक पहलू है।
पहले दिन का दूसरा आलेख विश्व भारती के ही मोहम्मद नज़मुल हसन ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘साम्राज्यवाद को पॉपुलिस्ट चुनौतियाँ: एक उत्तर-मार्क्सवादी आलोचनात्मक मूल्यांकन’। इस आलेख में उन्होंने साम्राज्यवाद के प्रतिरोध के लोकरंजकतावादी आन्दोलनों की चर्चा करते हुए एशिया, अफ़्रीका, लातिन अमेरिका में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों और साम्राज्यवाद के उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्तों और उसके ख़िलाफ़ जारी ‘पापुलिस्ट’ संघर्षों पर संक्षेप में बात रखी। उन्होंने कहा कि ‘पॉपुलिज़्म’ कुलीनों को चुनौती देने के लिए किसानों, मज़दूरों और मध्यवर्ग का एक विस्तारित गठबन्धन था। वह सामान्य तौर पर परस्पर विरोधी तत्वों का मिश्रण होता है, मसलन आम लोगों के लिए राजनीतिक अधिकारों और सार्विक भागीदारी की समानता, परन्तु नेतृत्व अक्सर एक करिश्माई व्यक्ति करता है जिसमें एक क़िस्म का निरंकुशता का पुट होता है।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की लता कुमारी ने अपने आलेख में लातिन अमेरिका में साम्राज्यवादी शोषण के लम्बे रक्तरंजित इतिहास पर विस्तार से चर्चा की। अपने आलेख में उन्होंने कहा कि अन्तरराष्ट्रीय श्रम विभाजन में लातिन अमेरिका औपनिवेशिक काल से लेकर अब तक सबसे शोषित क्षेत्र रहा है। लातिन अमेरिका में ही साम्राज्यवादियों ने नवउदारवादी नीतियों के सबसे पहले प्रयोग आज़माये। लता ने अपने आलेख में कोलम्बस के लातिन अमेरिका के तट पर पहुँचने के बाद शुरू हुए औपनिवेशिक काल से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद थोड़े समय तक रहे नव-औपनिवेशिक काल और उसके बाद नवउदारवाद के काल में पूँजी की बर्बर लूट का चित्रण किया। इसके बाद लता ने अपने आलेख में लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोध के आन्दोलनों में प्रभावी विभिन्न सिद्धान्तों, ख़ासकर समूचे ‘डिपेण्डेंसी थियरी स्कूल’ की विवेचना की जिसकी जन्मस्थली लातिन अमेरिका ही रही है। उन्होंने राउल प्रेबिश, आन्द्रे गुण्डर फ्रैंक, एफ़-एच- कार्दोसो, सामिर अमीन और मारिनी जैसे विचारकों के विचारों का आलोचनात्मक विवेचन किया। उन्होंने बताया कि ‘डिपेण्डेंसी थियरी’ उन सिद्धान्तों की प्रजातियों की उप-प्रजाति है जो उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादन के क्षेत्र पर ज़ोर न देकर विनिमय सम्बन्धों व परिचलन के क्षेत्र पर ज़ोर देते हैं।
‘डिपेण्डेंसी थियरी’ विकसित देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों के अधिशेष को निचोड़े जाने को उन देशों के पिछड़ेपन का मुख्य कारण बताती है, परन्तु वह इस बात का उत्तर नहीं देती कि अधिशेष पैदा कैसे होता है। मार्क्सवाद के अनुसार अधिशेष उत्पादन के क्षेत्र में पैदा होता है और वह परिचलन के क्षेत्र में प्रकट होता है। ‘डिपेण्डेंसी थियरी’ देशों के भीतर की उत्पादन पद्धति की अवधारणा के सन्दर्भ में चुप्पी साध लेती है। लता ने यह दलील दी कि पूरी दुनिया में ऐतिहासिक अनुभवों ने ‘डिपेन्डेंसी थियरी’ को ग़लत साबित किया है_ इसके कुछ पैरोकारों के दावों के बावजूद यह एक मार्क्सवादी सिद्धान्त नहीं है। ‘डिपेण्डेंसी परिप्रेक्ष्य’ के विपरीत आलेख में लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद को साम्राज्यवाद के लेनिनवादी सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में विवेचना का प्रयास किया गया।
आलेखों की प्रस्तुति के बाद उनमें उठाये गये मुद्दों पर जीवन्त बहस हुई जिसमें सनी सिंह, अभिनव सिन्हा, शिवानी, मुकेश असीम और सुखविन्दर शामिल हुए। (बहसों के वीडियो जल्द ही अरविन्द स्मृति न्यास के यूट्यूब चैनल पर देखे जा सकेंगे।) पहले दिन के सत्रों की अध्यक्षता न्यूयॉर्क के स्वतन्त्र मार्क्सवादी शोधार्थी व कार्यकर्ता एरिक श्मिट, जागरूक नागरिक मंच, पटना से जुड़े राजनीतिक कार्यकर्ता देवाशीष बराट और कवयित्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने की और संचालन सत्यम ने किया।

संगोष्ठी का दूसरा दिन
संगोष्ठी के दूसरे दिन तीन आलेख प्रस्तुत किये गये। पहले सत्र में गाजियाबाद से आये ट्रेड यूनियन ऐक्टिविस्ट तपीश मैन्दोला ने ‘समकालीन साम्राज्यवादी दुनिया के बुनियादी अन्तरविरोध: कुछ प्रेक्षण’ विषयक अपना आलेख प्रस्तुत किया। इस आलेख में तपीश ने मार्क्स के समय से लेकर अब तक सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल में आये बदलावों का विस्तृत ब्यौरा दिया। इसके अतिरिक्त उन्होंने एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों में औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक सत्ताओं के विघटन की प्रक्रिया का भी विस्तृत ब्यौरा प्रस्तुत किया। इसके बाद पूँजीवाद के विकास की प्रक्रिया की संक्षिप्त रूपरेखा देते हुए उन्होंने कहा कि एशिया, अफ़्रीका और लातिन अमेरिका के देशों में होने वाला पूँजीवादी विकास बेहद जटिल, असमान और उतार-चढ़ाव भरा रहा है। तपीश ने कहा कि समकालीन दुनिया में दो बुनियादी अन्तरविरोध कार्यरत हैं: पहला श्रम और पूँजी के बीच का अन्तरविरोध और दूसरा अन्तरराष्ट्रीय इजारेदारियों के बीच का एवं साम्राज्यवादी देशों के बीच का अन्तरविरोध। इसके अतिरिक्त कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक और भूराजनीतिक कारणों से कुछ सापेक्षतया पिछड़े पूँजीवादी देशों और साम्राज्यवादी देशों के बीच का अन्तरविरोध भी उग्र रूप धारण कर रहा है। नतीजतन बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग के बीच का अन्तरविरोध प्रधान अन्तरविरोध बन गया है। इसलिए 1963 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रस्तावित सामान्य कार्यदिशा से आगे सोचने की ज़रूरत है।
दूसरे दिन का दूसरा आलेख लेखक और ऐक्टिविस्ट आनन्द सिंह ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘भूमण्डलीकरण के दौर का साम्राज्यवाद: परिवर्तन और निरन्तरता के पहलू’। इस आलेख में 1977 में क्रिश्चियन पैलोया द्वारा दिये गये स्कीमा की आलोचनात्मक विवेचना प्रस्तुत की गयी जिसमें उन्होंने मार्क्स द्वारा ‘पूँजी’ खण्ड दो में प्रस्तुत की गयी अवधारणा ‘पूँजी के परिपथ’ के माध्यम से पूँजी के अन्तरराष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया को समझाया था। आनन्द ने कहा कि हालाँकि यह स्कीमा भूमण्डलीकरण की परिघटना को समझने के लिए उपयोगी है, परन्तु इसकी अपनी सीमाएँ भी हैं। इसके बाद उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से हुए प्रमुख घटनाक्रमों की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की। तत्पश्चात उन्होंने नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की प्रमुख अभिलाक्षणिकताओं का वर्णन करते हुए उत्पादन के अन्तरराष्ट्रीयकरण, वित्तीय पूँजी की निर्णायक विजय, मुनाफ़े की गिरती दर के संकट का जारी रहना और राष्ट्रपारीय निगमों का तीव्र विकास परन्तु फिर भी बदले हुए रूप में राष्ट्र-राज्यों की प्रसांगिकता के बरक़रार रहने की चर्चा की। उन्होंने रूस-चीन की साम्राज्यवादी धुरी के उभार के मद्देनज़र अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के वर्तमान स्वरूप पर चर्चा की। भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में साम्राज्यवादी देशों और तीसरी दुनिया के देशों के बीच के सम्बन्धों का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि इन देशों का बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवादी देशों के बुर्जुआ वर्ग का दलाल नहीं बल्कि उनका ‘जूनियर पार्टनर’ है।
दूसरे दिन का तीसरा आलेख भाकपा-माले, रेड स्टार की ओर से विजय कुमार ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘आज के दौर में साम्राज्यवाद’। लेनिन द्वारा प्रस्तुत साम्राज्यवाद की पाँच बुनियादी अभिलाक्षणिकताओं की चर्चा करने के बाद विजय ने 1940 के दशक से शुरू हुई विऔपनिवेशीकरण की प्रक्रिया का वर्णन किया। इस नयी परिस्थिति में अमेरिकी साम्राज्यवाद ने औपनिवेशीकरण को एक नया स्वरूप और अन्तर्वस्तु दी। इस नवऔपनिवेशीकरण के दौर का वर्णन करते हुए उन्होंने कहा कि समूचे साम्राज्यवादी दौर में जहाँ साम्राज्यवाद की गति के नियम बुनियादी तौर पर वही रहते हैं वहीं नवऔपनिवेशीकरण के दौर में कुछ गुणात्मक बदलाव भी हुए हैं जिन्हें चिन्हित करना आवश्यक है। इनमें से एक महत्वपूर्ण बदलाव यह हुआ है कि नवउपनिवेशों में भूमि सम्बन्ध अब सामन्ती नहीं रहे। हालाँकि विजय ने ज़ोर देते हुए कहा कि बुर्जुआ वर्ग का चरित्र अभी भी दलाल का ही है। इसके बाद विजय ने ख्रुश्चेव काल में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा साम्राज्यवाद के प्रति संशोधनवादी पहुँच अपनाये जाने का उल्लेख किया। कीन्सियाई दौर से नवउदारवादी दौर की ओर संक्रमण की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि नवउदारवादी दौर की विशेषता सट्टेबाज़ पूँजी का निर्बाध अन्तरराष्ट्रीय प्रवाह है। उन्होंने पर्यावरण विनाश पर ज़ोर देते हुए कहा कि खाद्य संकट, विस्थापन, जल की कमी आदि उसके लक्षण हैं जो आर्थिक असमानता की वजह से और बढ़ रहे हैं। उन्होंने यह रेखांकित किया कि इस सन्दर्भ में भाकपा-माले, रेड स्टार ने अपने पार्टी दस्तावेज़ में पूँजी और प्रकृति के बीच के अन्तरविरोध को मुख्य अन्तरविरोध के रूप में सम्मिलित किया है।
आलेखों की प्रस्तुति के बाद बहस-मुबाहिसे का दौर शुरू हुआ जिसमें देहरादून से आये अश्विनी त्यागी, लुधियाना से आये बलदेव सिंह, चण्डीगढ़ से आये मानव, बलिया से आये अवधेश सिंह, नेपाल से आयीं सरिता तिवारी, गुरप्रीत, आनन्द सिंह, अभिनव सिन्हा और तपीश मैन्दोला ने हिस्सा लिया। दूसरे दिन के सत्रों की अध्यक्षता सिरसा से आये वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता
डा. सुखदेव हुन्दल, पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर और अरविन्द स्मृति न्यास की अध्यक्ष मीनाक्षी ने की और संचालन शिवानी ने किया।

संगोष्ठी का तीसरा दिन
संगोष्ठी के तीसरे दिन 26 नवम्बर को मज़दूर अख़बार ‘मज़दूर बिगुल’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने अपना आलेख प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था: ‘मार्क्स के समय से लेकर अब तक साम्राज्यवाद के मार्क्सवादी सिद्धान्त: एक समकालीन आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन’। इस आलेख में अभिनव ने मार्क्स के समय से लेकर अब तक के सिद्धान्तकारों, जैसे हार्वी, वुड आदि के साम्राज्यवाद पर मार्क्सवादी चिन्तन का एक सांगोपांग आलोचनात्मक और समकालीन सर्वेक्षण प्रस्तुत किया। इस आलेख की शुरुआत में उन्होंने विश्व पैमाने पर पूँजीवाद के विस्तार, विकसित पूँजीवादी देशों और साथ ही पिछड़े देशों पर उसके प्रभाव के बारे में मार्क्स के प्रेक्षणों का उल्लेख किया जो उनकी विभिन्न कृतियों में बिखरे हुए मिलते हैं। आलेख में इस पर ज़ोर दिया गया कि पूँजीवाद के इस विस्तार और नतीजतन साम्राज्यवाद के उद्भव का कारण मुनाफ़े की गिरती हुई दर का गिरना था न कि वास्तवीकरण की समस्या। उन्होंने कहा कि जब मार्क्स की मृत्यु हुई उस समय पूँजीवाद के इजारेदारी के युग में प्रवेश करने की प्रकिया अभी जारी ही थी। फिर भी मार्क्स के लेखन में साम्राज्यवाद के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टियाँ मिलती हैं। इसके बाद अभिनव ने हिल्फ़र्डिंग की सर्वप्रमुख रचना ‘वित्त पूँजी’ में प्रस्तुत साम्राज्यवाद के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विश्लेषण किया। उन्होंने कहा कि हालाँकि इस पुस्तक ने साम्राज्यवाद के युग में पूँजीवाद की कार्यप्रणाली से सम्बन्धित कई मूल्यवान अन्तर्दृष्टियाँ दीं परन्तु उसमें सामंजस्यवादी और सामाजिक-जनवादी विभ्रम भी मौजूद थे। साम्राज्यवाद के प्रश्न से सम्बन्धित अगली प्रमुख रचना रोज़ा लग्ज़ेम्बर्ग की ‘पूँजी का संचय’ थी। उन्होंने कहा कि लग्ज़ेम्बर्ग का साम्राज्यवाद का सिद्धान्त मूलतः मार्क्सवादी सिद्धान्त नहीं है क्योंकि उसमें अल्पउपभोगवादी अवस्थिति अपनायी गयी है। उसके बाद अभिनव ने बुखारिन की रचना ‘साम्राज्यवाद और विश्व अर्थव्यवस्था’ का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए कहा कि वह साम्राज्यवाद के प्रश्न पर पहली व्यवस्थित मार्क्सवादी रचना थी। इस रचना की त्रुटियों की आलोचना भी की गयी, मसलन बुखारिन की इस त्रुटिपूर्ण अवधारणा की कि राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा समाप्त होकर विश्व स्तर पर पुनरुत्पादित होती है। इसके बाद उन्होंने साम्राज्यवाद के लेनिन के सिद्धान्त की विवेचना की। उन्होंने कहा कि लेनिन का सिद्धान्त साम्राज्यवाद का अब तक का सबसे पूर्ण सिद्धान्त है जिसमें उच्च स्तर के सामान्यीकरण और द्वन्द्वात्मक पद्धति का उपयोग किया गया है। अभिनव ने 1940 के दशक से लेकर 1970 के दशक के बीच के नव-मार्क्सवादी सिद्धान्तों जैसे स्वीज़ी-बरान के ‘मोनोपोली कैपिटल स्कूल’, आन्द्रे गुण्डर फ्रैंक की ‘डिपेण्डेंसी थियरी’, इमैनुएल वालरस्टीन की ‘वर्ल्ड सिस्टम थियरी’, सामिर अमीन का ‘अल्पविकास’ का सिद्धान्त और अरगिरी एमैनुएल के ‘असमान विनिमय’ का सिद्धान्त आदि का आलोचनात्मक विश्लेषण किया। उन्होंने एलेन मीक्सिन्स वुड, डेविड हार्वी और एलेक्स कैलिनिकोस जैसे तथाकथित ‘नया साम्राज्यवाद’ के नये सिद्धान्तों की भी आलोचना प्रस्तुत की।
अभिनव ने अपने आलेख में इस बात पर ज़ोर दिया कि ख़ास तौर पर 1970 के दशक के बाद से साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली में आये बदलावों की रोशनी में साम्राज्यवाद के एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त के विकास का कार्य अभी पूरा किया जाना बाकी है। मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य से कई सारी चीज़ों का विश्लेषण करने की ज़रूरत है, जिनमें से कुछ परिमाणात्मक बदलाव हैं जबकि कुछ अन्य गुणात्मक बदलावों से सम्बन्धित हैं। पोस्ट-फ़ोर्डिज़्म के उभार से लेकर वैश्विक असेम्बली लाइन के उभरने, साम्राज्यवादी दुनिया में बहु-ध्रुवीयता के नये आयाम, उच्च स्तर का अनौपचारिकीकरण, विनियमीकरण, अति-वित्तीयकरण, सट्टेबाज़ पूँजी का प्रभुत्व और किसी समाजवादी खेमे की ग़ैर-मौजूदगी, अमेरिका के वर्चस्व में होता ह्रास, चीन-रूस धुरी का उभार, अब पूँजीवादी देश बन चुके पूर्व उपनिवेशों में सर्वहारा क्रान्ति की नयी रणनीति और आम रणकौशल – इन सभी बदलावों का विश्लेषण करने और समझने की ज़रूरत है।
आलेख की प्रस्तुति के बाद एक जीवन्त बहस-मुबाहसे का दौर चला जिसमें लखविन्दर, प्रेमप्रकाश, शिरीष मेढ़ी, हरजिन्दर सिंह, अभिनव सिन्हा और विजय कुमार ने हिस्सा लिया। तीसरे दिन के सत्रों की अध्यक्षता नेपाल के वरिष्ठ वामपन्थी नेता एवं लेखक निनू चपागाईं, पंजाब के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. सुखदेव सिंह और दिल्ली से आयी ट्रेड यूनियन कर्मी और बिगुल मज़दूर दस्ता की सदस्य शिवानी ने की जबकि संचालन आनन्द सिंह ने किया।

संगोष्ठी का चौथा दिन
संगोष्ठी के चौथे दिन का पहला आलेख पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर ने प्रस्तुत किया। आलेख का शीर्षक था ‘अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा, बदलता शक्ति सन्तुलन और भविष्य की सम्भावनाएँ’। आलेख में सुखविन्दर ने कहा कि सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय विश्व, साम्राज्यवाद का अन्त, साम्राज्यवाद के लेनिन के सिद्धान्त की अप्रासंगिकता की बातें करने वाले तमाम सिद्धान्त लोकप्रिय होने लगे। काउत्स्की के सिद्धान्त की लेनिन की आलोचना से प्रेरणा लेते हुए सुखविन्दर ने प्रभात पटनायक और एजाज़ अहमद जैसे अकादमीशियनों द्वारा प्रस्तावित समकालीन नव-काउत्स्कीवादी सिद्धान्तों की आलोचना प्रस्तुत की। इन सिद्धान्तों की आलोचना करने के बाद उन्होंने पतनशील अमेरिकी साम्राज्यवाद के परिप्रेक्ष्य में वैश्विक वर्चस्व के लिए होड़ कर रही नयी साम्राज्यवादी धुरियों का ब्यौरा दिया। उन्होंने कहा कि किस प्रकार यूरोपीय संघ अमेरिकी साम्राज्यवाद को चुनौती देने वाली एक धुरी हो सकता है। उन्होंने अमेरिकी साम्राज्यवाद को सबसे बड़ी चुनौती देने वाले रूस के पुनरुत्थान का ब्यौरा पेश किया। चीन के उभार और उसके साम्राज्यवादी शक्ति बनने की सम्भावना एवं रूस के साथ उसके गठबन्धन ने एक चीन-रूस साम्राज्यवादी धुरी का निर्माण किया है। इसके बाद उन्होंने लातिन अमेरिका और मध्य-पूर्व जैसे क्षेत्रों में चल रहे तनावों और सीरिया, यूक्रेन आदि में चल रहे साम्राज्यवादी तनावों के बारे में बात रखी। अन्त में उन्होंने कहा कि सभी घटनाक्रम ये सन्देश दे रहे हैं कि भविष्य में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने वाली है जो भविष्य में और ज़्यादा अस्थिरता को बढ़ायेगी।
इसके बाद केरल से आये बिपिन बालाराम ने एक प्रस्तुतीकरण दिया जिसमें उन्होंने शुरुआत एजाज़ अहमद, सी.पी. चन्द्रशेखर, इरफ़ान हबीब, जयति घोष जैसे प्रमुख वाम अकादमिशियनों के विचारों पर आलोचनात्मक टिप्पणियों से की। इसके बाद वे प्रभात और उत्सा पटनायक की पुस्तक ‘साम्राज्यवाद का एक सिद्धान्त’ की आलोचना की ओर बढ़े। उन्होंने इस पुस्तक में दिये गये सिद्धान्त को ‘निम्न बुर्जुआ के लिए/का शोकगीत’ क़रार दिया। उन्होंने कहा कि पटनायक द्वय के सिद्धान्त का सबसे मुख्य पहलू विश्व की भौगोलिक असममिति है जिसमें चाय, कॉफी, गन्ना और कपास जैसे बुनियादी मालों का उत्पादन उष्णकटिबन्धीय देशों में ही होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार उष्णकटिबन्धीय देशों के छोटे उत्पादकों की आय में कमी पैदा करने के लिए मेट्रोपॉलिटन पूँजी द्वारा आज़माये जाने वाले सभी तरीक़े साम्राज्यवाद की परिधि में आते हैं। बिपिन ने कहा कि डेविड हार्वी ने इस सिद्धान्त की असंगतता, उष्णकटिबन्धीय देश जैसी अवधारणाओं को ढीले-ढाले ढंग से परिभाषित करने और भौगोलिक नियतत्ववाद के लिए उचित ही इसकी आलोचना की है, हालाँकि उन्होंने स्वयं भी साम्राज्यवाद का अपना सामाजिक-जनवादी और काउत्स्कीपन्थी सिद्धान्त प्रस्तुत किया है। उन्होंने कहा कि इस सिद्धान्त से यह हास्यास्पद नतीजा भी निकाला जा सकता है कि कोई उष्णकटिबन्धीय देश कभी साम्राज्यवादी हो ही नहीं सकता और ऐसा नतीजा वर्तमान साम्राज्यवादी दुनिया के कई घटनाक्रमों की व्याख्या नहीं कर पायेगा।
बिपिन के प्रस्तुतीकरण के बाद न्यूयार्क से आये विद्वान और मार्क्सवादी कार्यकर्ता एरिक श्मिट ने अपना आलेख प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था फ्विश्व की परिस्थिति और विश्व क्रान्तिय्। आलेख की शुरुआत में एरिक ने कहा कि विश्व क्रान्ति के लिए आन्तरिक कारणों को जि़म्मेदार ठहराना चाहिए जोकि ऐतिहासिक रूप से निर्धारित होते हैं और विभिन्न वर्गीय परिस्थितियों के अनुरूप होते हैं। साथ ही अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन को एक सामान्य दिशा प्रस्तुत करनी चाहिए जिससे हर सर्वहारा विश्व क्रान्ति को आगे बढ़ाने के लिए कार्यभार निर्धारित कर सके। इसके बाद उन्होंने मौजूदा विश्व परिस्थिति की एक विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की। समकालीन विश्व परिस्थिति की व्याख्या करते हुए उन्होंने कुछ विशेषताओं जैसे कि आर्थिक संकट, बुर्जुआ वर्ग का राजनीतिक बिखराव, बुर्जुआ विचारधारा का संकट और राजनीतिक रूप से एक वर्ग के रूप में सर्वहारा की कमज़ोरियों की वजह से क्रान्तिकारी खेमे की विफलता आदि का वर्णन किया। वास्तव में अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की कमज़ोरी आज साम्राज्यवादी खेमे की कमज़ोरियों से कहीं अधिक है। इसके बाद उन्होंने वर्तमान राजनीतिक सन्धि-बिन्दु का कालक्रम प्रस्तुत करते हुए कहा कि आज की विश्व परिस्थिति में साम्राज्यवाद और उत्पीडि़त देशों के बीच का अन्तरविरोध प्रधान अन्तरविरोध है जो यह माँग करता है कि हम अपनी मनोगत ताक़तों को एक स्वायत्त संगठन और कार्यक्रम के निर्माण की दिशा में विकसित करें। आज क्रान्तिकारी सर्वहारा को वर्ग संश्रय बनाने के लिए राष्ट्रीय आन्दोलनों के साथ संयुक्त मोर्चे बनाने चाहिए ताकि वे अपना जनाधार सुदृढ़ कर सकें।
चौथे दिन की बहस में कर्नाटक से रवीन्द्र डी. हालिंगली, लुधियाना से लखविन्दर, महाराष्ट्र से शिरीष मेढ़ी ने हिस्सा लिया। उसके बाद एरिक के आलेख पर एक लम्बी और जीवन्त बहस हुई जिसमें अभिनव और एरिक ने हिस्सा लिया। सत्रों की अध्यक्षता कविता कृष्णपल्लवी, अभिनव सिन्हा और आनन्द सिंह ने की और संचालन नमिता ने किया।

पाँचवाँ और अन्तिम दिन
28 नवम्बर को संगोष्ठी के पाँचवें और अन्तिम दिन तीन आलेख प्रस्तुत किये गये और साम्राज्यवाद पर प्रभात पटनायक की अवस्थिति की आलोचना पर केन्द्रित पीआरसी, सीपीआई (एमएल) पटना के अजय कुमार सिन्हा का आलेख सदन में वितरित किया गया। पाँचवें दिन पहला आलेख विश्व भारती, शान्तिनिकेतन के डॉ. एम.पी. टेरेंस सैमुएल ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘संस्कृति और साम्राज्यवाद’। इस आलेख में उन्होंने उल्लेख किया कि क्लासिकीय मार्क्सवादी समझ के अनुसार संस्कृति को अस्तित्वमान सामाजिक-आर्थिक संरचना और परिस्थितियों की अधिरचना के रूप में समझा गया। इसलिए यूरोपीय भूदेशों से ग़ैर-यूरोपीय क्षेत्रों में पूँजीवाद के साम्राज्यवादी विस्तार ने औपनिवेशीकृत देशों के लोगों के सांस्कृतिक पहलुओं को प्रभावित किया, हालाँकि यह पूँजीवादी विस्तार मुख्यतया आर्थिक ही था। हालाँकि मार्क्स यह समझते थे कि किस प्रकार सामाजिक-आर्थिक आधार अधिरचना के तत्वों को द्वन्द्वात्मक ढंग से प्रभावित करता है, परन्तु उन्होंने संस्कृति और साम्राज्यवाद/पूँजीवाद के द्वन्द्वात्मक सम्बन्धों के बारे में बहुत विस्तार से नहीं लिखा। सामाजिक-आर्थिक आधार और अधिरचना के बीच यह सम्बन्ध एकतरफ़ा नहीं होता। होर्खाइमर और अदोर्नो की रचनाओं की चर्चा करते हुए डॉ. सैमुएल ने कहा कि उनके अनुसार आधुनिक काल में ‘संस्कृति उद्योग’ द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली तकनीकी प्रगति प्रभुत्व का साधन बनती है।
इसके बाद नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन के वरिष्ठ कम्युनिस्ट नेता और जाने-माने साहित्यिक आलोचक निनू चापागाईं ने नेपाल में भारत के साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और उसके दबंग और साम्राज्यवादी आचरण की चर्चा की। उन्होंने कहा कि उनके देश में संसदीय राजनीति अब विभिन्न प्रकार की विकृतियों का शिकार है जिसको लेकर कार्यकर्ताओं में निराशा व्याप्त है। सत्ता के लालच में वहाँ की पार्टी ने उन सिद्धान्तों की तिलांजलि दे दी है जिनके लिए उसने एक लम्बा संघर्ष छेड़ा था। इसके बाद मुम्बई से आये हर्ष ठाकोर ने साम्राज्यवाद के प्रतिरोध से सम्बन्धित वक्तव्य रखा।
अन्तिम दिन का दूसरा आलेख ट्रेड यूनियन एक्टिविस्ट और बिगुल मज़दूर दस्ता से जुड़ी शिवानी कौल ने प्रस्तुत किया। उनके आलेख का शीर्षक था ‘एम्पायर के उत्तर-मार्क्सवादी सिद्धान्त और साम्राज्यवाद का लेनिनवादी सिद्धान्त’। इस आलेख में उन्होंने मुख्यतया माइकल हार्ट और अन्तोनियो नेग्री की चर्चित पुस्तक ‘एम्पायर’ की आलोचना प्रस्तुत की। ‘एम्पायर’ के सिद्धान्त के दार्शनिक मूल की बात करते हुए उन्होंने कहा कि हार्ट और नेग्री उत्तर-मार्क्सवाद की सैद्धान्तिक परम्परा से आते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि हार्ट और नेग्री के सैद्धान्तीकरण में मज़दूरवाद (ऑपराइज़्मो) के इतालवी संस्करण का भी असर साफ़ देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि जिसे ‘एम्पायर’ का नाम दिया गया है वो और कुछ नहीं बल्कि भूमण्डलीकरण ही है, परन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि ‘साम्राज्यवाद की मृत्यु’ का दावा करने वाली पुस्तक साम्राज्यवाद के क्लासिकीय सिद्धान्तों के बारे में बिल्कुल मौन है। यह सिद्धान्त साम्राज्यवाद के मौजूदा यथार्थ को नहीं पकड़ पाता है। मार्क्सवाद की पूरी ठोस विश्लेषणात्मक श्रेणियों की जगह अमूर्त अटकलपच्चू श्रेणियों ने ले ली और नतीजा एक बिखरे हुए सैद्धान्तीकरण के रूप में सामने है। शिवानी ने दलील दी कि हार्ट-नेग्री के इस सैद्धान्तीकरण में सबकुछ अवैयक्तिक हो जाता है; सत्ता और संघर्ष दोनों, साम्राज्यवाद का स्थान साम्राज्य ले लेता है; वर्ग का स्थान ‘मल्टीट्यूूड’ ले लेता है। उन्होंने ‘एम्पायर’ के सैद्धान्तीकरण की कुछ अन्तर्निहित समस्याओं को चिह्नित किया और उनकी तुलना लेनिन के साम्राज्यवाद के सिद्धान्त से करते हुए कहा कि मौजूदा साम्राज्यवाद को समझने के लिए लेनिन का सिद्धान्त अभी भी सबसे बेहतरीन परिप्रेक्ष्य प्रदान करता है।
संगोष्ठी का अन्तिम आलेख अभिनव सिन्हा ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था, ‘मौजूदा साम्राज्यवादी संकट: एक नयी महामन्दी’। पूँजीवाद के मौजूदा संकट के बारे में बात करते हुए अभिनव ने कहा कि यह संकट इस मायने में अतीत के संकट से अलग है कि यह कहीं ज़्यादा दीर्घकालिक और संरचनागत है, भले ही 1930 की महामन्दी जितना प्रलयंकारी न दिखे। यही वजह है कि इसे ‘लॉन्ग डिप्रेशन’ की संज्ञा भी दी जा रही है। इसके बाद उन्होंने माइकल हाइनरिख़ द्वारा किये गये पूँजी के पाठ और उनके द्वारा उठाये गये कुछ विवादित मुद्दों, ख़ासकर मुनाफ़े की दर के गिरने की प्रवृत्ति के मार्क्स के बुनियादी नियम जैसे मुद्दों पर हाइनरिख़ की अवस्थिति, का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। उन्होंने एण्ड्रू क्लिमैन, माइकल रॉबर्ट्स, गुग्लिएल्मो कारचेदी, एलन फ्रीमैन, फ्रेड मोस्ले आदि के दृष्टिकोणों का भी उल्लेख किया। उसके बाद उन्होंने एण्ड्रू क्लिमैन और माइकल रॉबर्ट्स का हवाला देते हुए संकट पर डुमेनिल और लेवी के दृष्टिकोण की आलोचना प्रस्तुत की। इसके पश्चात उन्होंने सैम गिण्डिन और लियो पैनिच, डेविड हार्वी और एलेक्स कैलिनिकोस व अन्य के दृष्टिकोण की भी आलोचना पेश की। उन्होंने संकट पर अनवर शेख के दृष्टिकोण को सही बताया। उन्होंने दलील दी कि हार्वी और हाइनरिख़ के दावों के विपरीत मार्क्स ने संकट का एक सिद्धान्त दिया था और वह सिद्धान्त था मुनाफ़े की दर के गिरने की प्रवृत्ति का नियम। इसे आनुभविक रूप से सिद्ध किया जा सकता है कि यह साम्राज्यवाद के आवर्ती संकटों की अब तक की सबसे वैज्ञानिक और तार्किक व्याख्या है और यह उसके बुनियादी अन्तरविरोध अर्थात उत्पादन के समाजीकरण और विनियोजन के निजीकरण का पर्दाफ़ाश करता है। इसके बाद अभिनव ने विशेष रूप से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से विश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफ़े की दर से सम्बन्धित आँकड़े और ग्राफ़ प्रस्तुत करते हुए दिखाया कि किस तरह से सभी अर्थव्यवस्थाओं में मुनाफ़े की गिरती दर की प्रवृत्ति रही है। अन्त में उन्होंने कहा कि सवाल यह साबित करने का नहीं है कि मुनाफ़े की दर गिरती है या नहीं, बल्कि यह है कि यह दर क्यों गिरती है, और मार्क्स ने ठीक इसी सवाल का जवाब दिया था।
अन्तिम दिन चर्चा में फ़रीदाबाद से आये सत्यवीर सिंह, सुखविन्दर, अभिनव और सत्यम आदि ने प्रमुख रूप से भाग लिया। सत्रों की अध्यक्षता गाजि़याबाद से आये तपीश मैन्दोला, दिल्ली से आये प्रेम प्रकाश तथा लुधियाना से आये लखविन्दर ने की जबकि संचालन लता कुमारी ने किया।
संगोष्ठी के अन्त में शाम को नवगठित क्रान्तिकारी रॉक बैण्ड ‘अनुष्टुप’ ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों के साम्राज्यवाद-विरोधी क्रान्तिकारी गीतों का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। बैण्ड में अनहद, सृजन, अभिनव और शिप्रा शामिल हैं।
‘दायित्वबोध’ पत्रिका के सम्पादक तथा प्रखर वामपन्थी कार्यकर्ता एवं बुद्धिजीवी दिवंगत कॉमरेड अरविन्द सिंह की स्मृति में अरविन्द स्मृति न्यास की ओर से सामाजिक बदलाव के आन्दोलन से जुड़े किसी अहम सवाल पर संगोष्ठी का आयोजन किया जाता है। पहली दो संगोष्ठियाँ दिल्ली व गोरखपुर में मज़दूर आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं पर हुई थीं जबकि तीसरी संगोष्ठी भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन के सवाल पर लखनऊ में आयोजित की गयी थी। चौथी संगोष्ठी ‘जाति प्रश्न एवं मार्क्सवाद’ विषय पर चण्डीगढ़ में तथा पाँचवीं संगोष्ठी ‘समाजवाद की समस्याएँ’ विषय पर इलाहाबाद में आयोजित हुई थी। सातवीं वृहत् संगोष्ठी 2019 में भूमि सम्बन्धों के सवाल पर होना प्रस्तावित है।

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

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