Author Archives: Disha Sandhaan

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (तीसरी किस्त)

अलग-अलग दौरों में बेतेलहाइम ने सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोग पर जो रचनाएँ लिखी हैं, उन पर अलग-अलग किस्म के विजातीय प्रभाव स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते हैं। त्रात्स्कीपन्थ, ख्रुश्चेवी संशोधनवाद, अल्थूसरवादी उत्तर-संरचनावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद, कीन्सीय “मार्क्सवाद”, बुखारिनपन्थ और साथ ही उनके उत्तरवर्ती दौर की रचनाओं पर एक प्रकार के छद्म-माओवाद का प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन अगर चार्ल्स बेतेलहाइम के पूरे अप्रोच और उनकी पद्धति पर सम्पूर्णता में किसी चीज़ का असर है तो वह है हेगेलीय भाववाद, अधिभूतवाद, यान्त्रिकतावाद और मनोगतवाद का। दार्शनिक धरातल पर बेतेलहाइम पर भाववाद और अधिभूतवाद के असर के कारण ही उन्हें 1930 के दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर 1980 के दशक तक कभी हम त्रात्स्कीपन्थ, ख्रुश्चेवी संशोधनवाद और कीन्सीय “मार्क्सवाद” के छोर पर खड़ा देख सकते हैं तो कभी बुखारिनपन्थ और छद्म-माओवाद के छोर पर। read more

इस्लामिक स्टेट का उभार और मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का नया दौर

इस्लामिक स्टेट (आईएस), जिसको आईएसआईएस के नाम से भी जाना जाता है, अल-कायदा से ही निकला एक आतंकवादी संगठन है जिसने हाल ही में दज़ला और फ़रात नदियों के किनारे स्थित उत्तरी सीरिया एवं उत्तरी और मध्य इराक़ के अनेक महत्वपूर्ण शहरों, तेलशोधक कारखानों और बाँधों पर अपना क़ब्ज़ा जमा लिया है। इस लेख के लिखे जाने तक इराक़ के लगभग एक तिहाई क्षेत्र पर इसका क़ब्ज़ा हो चुका है और सीरिया के कई इलाकों में भी इसने अपनी पैठ बना ली है। इस आतंकवादी संगठन ने इराक़ में 2003 के अमेरिकी हमले (ऑपरेशन शॉक एण्ड ऑ) के बाद वहाँ अपनी जड़ें जमानी शुरू की। ग़ौरतलब है कि इस हमले के पहले तक इराक़ में अल-क़ायदा का नामोनिशान तक नहीं था। सद्दाम हुसैन बेशक एक तानाशाह था जिसने अपने देश की जनता पर अकथनीय जुल्म ढाये, परन्तु उसके शासन में शिया-सुन्नी के अन्तरविरोध दुश्मनाना नहीं थे। उस दौर में इराक़ में शिया-सुन्नी में आपस में विवाह आम बात थी। अमेरिकी हमले में सद्दाम हुसैन के सत्ताच्युत होने के बाद इराक़ में घोर अराजकता, पन्थीय और नृजातीय संकीर्णता और इस्लामिक कट्टरपंथियों के पनपने की ज़मीन तैयार हुई। read more

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015

हम लोग कई वर्षों से आपकी पत्रिका ‘दायित्वबोध’ के पाठक रहे हैं। नेपाल के कम्युनिस्ट आन्दोलन से जुड़े बहुत से लोगों के लिए यह वैचारिक सामग्री का महत्वपूर्ण स्रोत रही है। साथी अरविन्द जी के निधन के बाद से इसका प्रकाशन बन्द रहा लेकिन ‘दिशा सन्धान’ के द्वारा आप लोगों ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया है। यह नयी पत्रिका ज़्यादा गम्भीर है और कुछ लोगों के लिए गरिष्ठ भी हो सकती है। मगर मुझे लगता है कि आज हमारे देश में और आपके भी मुल्क में कम्युनिस्ट आन्दोलन की जो हालत हुई है उसके लिए वैचारिक कमज़ोरी सबसे बड़ा कारण है। इसे दूर करने के लिए पढ़ाई-लिखाई, बहस-मुबाहसे और गहराई में उतरकर चिन्तन की संस्कृति फिर से बहाल करनी होगी। read more

नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशकः एक सिंहावलोकन (दूसरी किस्त)

1967-71 के दौरान भारतीय बुर्जुआ व्यवस्था और संशोधनवादियों की घृणित अर्थवादी-ट्रेड यूनियनवादी राजनीति के विरुद्ध भारतीय मज़दूर वर्ग के सामूहिक मानस में विद्रोह की जो प्रलयंकारी भावना उमड़-घुमड़ रही थी और स्वतःस्फूर्त उग्र संघर्षों के रूप में फूटकर सामने आ रही थी, उसे भारत का कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन यदि अपने प्रभाव में न ले सका और एक ऐतिहासिक अवसर का लाभ उठाने से चूक गया तो इसका बुनियादी कारण “वाम” दुस्साहसवादी भटकाव था, जिसके सूत्रधार और नेता चारु मजुमदार थे। read more

‘वामपन्थी आन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’ – पुस्‍तक समीक्षा

हर क्रान्तिकारी आन्दोलन अपने अतीत के व्यवहार से सीखता है, इसकी ग़लतियों, कमियों, कमज़ोरियों से भी और इसकी उपलब्धियों से भी। भारत के वामपन्थी या क्रान्तिकारी आन्दोलन के बारे में भी यही सच है। इसके लिए उसे आन्दोलन से हमेशा एक सुरक्षित दूरी पर रहने वाले बुद्धिजीवियों की सलाह की कोई ज़रूरत नहीं होती। उनके बिना भी वह ऐसा करता रहा है। कम्युनिस्ट या कम्युनिस्ट आन्दोलन किसी से भी सीखने के लिए तैयार रहता है बशर्ते कि सिखाने वाला वास्तव में इस लायक हो। इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाये तो उपरोक्त पुस्तक के शुरू से अन्त तक कहीं भी न तो हमें कोई विचारधारात्मक अन्तर्दृष्टि मिलती है और न ही सोचने-विचारने लायक कोई प्रश्न। read more

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

सिरिज़ा के इन दोनों धड़ों के बीच का अन्तरविरोध किसी भी रूप में पूँजीवाद के अतिक्रमण और समाजवादी क्रान्ति की बात नहीं कर रहा है। इन दोनों ही धड़ों के रास्ते दो अलग किस्म के पूँजीवादी रास्तों की बात कर रहे हैं जो आज यूनानी मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश समुदायों की समस्या का कोई हल नहीं पेश कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति यही चाहेगा कि 5 जुलाई के जनमत सर्वेक्षण में यूनानी जनता यूरोपीय संघ, आई.एम.एफ़. और ई.सी.बी. की शर्तों वाले बेलआउट के प्रस्ताव को नकार दे क्योंकि इससे यूनान में अन्तरविरोधों का क्रान्तिकारी दिशा में विकास होगा। लेकिन यह क्रान्तिकारी स्थिति स्वयं क्रान्ति में तब्दील नहीं हो सकती है। इसे क्रान्ति में तब्दील करने के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता है। यूनान में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी और कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुप मौजूद हैं। लेकिन उनकी समेकित शक्ति भी अभी काफ़ी कमज़ोर है। ऐसे में यूनान में आने वाले कुछ हफ्तों में क्या होगा यह वाकई दिलचस्प होगा और एक रूप में यह ऐतिहासिक महत्व रखता है। read more

मोदी सरकार के कार्यकाल का एक साल: विकास का विद्रूप प्रहसन

जिस नग्न निरंकुश और परभक्षी वित्तीय पूँजी ने अपने प्रबंधन समिति के रूप में राजकाज चलाने के लिए मोदी सरकार पर दाँव लगाया है उसके अनुरूप परिस्थितियाँ तैयार करने में मोदी की तत्परता पिछले एक वर्ष में देखी जा सकती है। आर्थिक जर्जरता इतनी प्रत्यक्ष है कि उसके बारे में आम लोगों को भ्रम में नहीं रखा जा सकता है। इसलिए फासीवादी चरित्रवाली भाजपा सरकार बौद्धिक सांस्कृतिक शैक्षिक प्रणाली के ज़रिये चीज़ों को सत्ता पक्ष के नज़रिये से समझने के लिए जनता को एक व्याख्यात्मक चौखटा देने की कोशिशों में लगी है। मोदी ने जब भारत में वैदिक और महाभारत काल से ही चिकित्सा विज्ञान के अति विकसित अवस्था में मौजूदगी का प्रमाण गणेश के कटे सिर को प्लास्टिक सर्जरी द्वारा जोड़ने और माँ के गर्भ के बिना कर्ण का जेनेटिक साइंस की मदद से जन्म लेने के उदाहरणों से दिया तो यह उनकी मूर्खता नहीं थी जैसा कि समझा जाता है। या भारतीय विज्ञान कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में जब एक तथाकथित वैज्ञानिक द्वारा भारत में सात हज़ार वर्ष पहले विमान की तकनीक के अत्यन्त विकसित होने का दावा करता पर्चा बिना किसी बाधा के पढ़ा गया था तो यह केवल कूपमण्डूकता और रूढ़िवादिता ही नहीं थी। बल्कि इन जानकारियों को पिछड़ी चेतना वाली जनता के दिमागों में एक सामान्य बोध के रूप में स्थापित करने का सचेतन प्रयास था। read more

महान बहस के 50 वर्ष

सर्वहारा क्रान्तियों के विचारधारात्मक विकास की इस कड़ी में 1963-64 में माओ के नेतृत्व में चली महान बहस ने आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष करते हुए समाजवादी संक्रमण के बारे में पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों को एक सुव्यवस्थित मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त से हथियारबन्द किया। इस बहस ने स्तालिनकालीन सोवियत यूनियन के अनुभवों और ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का सैद्धान्तिक निचोड़ प्रस्तुत किया जो समाजवादी संक्रमण को समझने में एक मील का पत्थर है। इन अनुभवों के आधार पर महान बहस में माओ ने चीन में 1966 से 1976 तक चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की। read more

भूमण्डलीकरण के दौर में तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा

लेनिन ने कहा था कि तीखी होती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा युद्धों को जन्म देती है। भूमण्डलीकरण के दौर में राष्ट्रपारीय निगमों के अस्तित्व में आने की वजह से दुनिया के साम्राज्यवादी देशों की पूँजी चूँकि दुनिया भर में लगी हुई है और दुनिया के कई मुल्क इस समय परमाणु अस्त्र से लैस हैं इसलिए विश्वयुद्ध होने की सम्भावना तो बहुत क्षीण हो चुकी है, परन्तु हाल के वर्षों के घटनाक्रम इस बात की ओर साफ़ इशारा कर रहे हैं कि तीखी होती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा क्षेत्रीय स्तर पर पहले से कहीं विनाशकारी युद्धों को जन्म देगी। इसके कुछ नमूने हमें गाज़ा, सीरिया, यमन आदि में दिख रहे हैं। साम्राज्यवाद के इस दौर में आज पूँजीवाद ने मानवता को जिस क़दर तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है उससे निजात सिर्फ़ सर्वहारा क्रान्ति ही दिला सकती है। इसलिए साम्राज्यवाद के बढ़ते अन्तरविरोधों के मद्देनज़र दुनिया भर में सर्वहारा क्रान्ति की पक्षधर ताक़तों को अपना पूरा ज़ोर अपनी मनोगत कमज़ोरियों को दूर करके युद्धों के सिलसिले को क्रान्ति के बैरियर से तोड़ देने के लिए जीजान से जुट जाना चाहिए। read more