Author Archives: Disha Sandhaan

‘कम्युनिज़्म’ का विचार या उग्रपरिवर्तनवाद के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

‘‘कम्युनिज्म’’ की अपनी प्राक्कल्‍पना और विचार के नाम पर बेज्यू मार्क्‍सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं और क्रान्तिकारी अन्‍तर्वस्तु को खारिज करने का काम करते हैं। वह अतीत के सभी समाजवादी प्रयोगों पर ‘‘विफलता’’, ‘‘त्रासदी’’ और ‘‘आपदा’’ का लेबल तो चस्पाँ कर देते हैं, जो कि बेज्यू के लिए आकाशवाणी-समान सत्य है, लेकिन न तो उन प्रयोगों का कोई आलोचनात्मक मूल्यांकन पेश करते हैं और न ही सामाजिक परिवर्तन का अपना कोई सकारात्मक मॉडल पेश करते हैं। वह एक ऐसे कम्युनिज्म की बात करते हैं जो मार्क्‍सवादी नहीं होगा। लेकिन, अकेले बेज्यू इस अनैतिहासिक, गैर-द्वन्‍द्वात्मक, प्रत्ययवादी सैद्धान्तिकीकरण का शिकार नहीं हैं, बल्कि उत्तर-मार्क्‍सवादी ‘‘रैडिकल’’ दार्शनिकों की पूरी धारा है जो मार्क्‍सवाद पर हमला बोल रही है। अकर्मण्यता और निष्क्रियता के इन सिद्धान्‍तकारों को हम दुनिया की ‘‘नयी व्याख्या’’ करनेवाले उनके ‘‘विचारों’’ के बीच ही छोड़ देते हैं, क्योंकि दुनिया को बदलने का काम अभी भी बाकी है। read more

नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में

आमतौर पर इतिहास में पहले भी यह देखा गया है कि कोई पार्टी यदि अपने ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव को साहसपूर्ण आत्मालोचना और दोष-निवारण द्वारा दूर नहीं करती है, तो पेण्डुलम फिर दूसरे छोर तक, यानी दक्षिणपन्‍थी भटकाव तक जाता ही है। एनेकपा (माओवादी) के साथ भी ऐसा ही हुआ। प्रचण्ड की लाइन में लोकयुद्ध के पूरे दौर में ‘‘वामपन्‍थी’’ भटकाव एक सैन्यवादी लाइन के रूप में मौजूद था, राजनीति के ऊपर बन्‍दूक की प्रधानता थी, जुझारू कार्यकर्ताओं की राजनीतिक शिक्षा पर और उन्हें बोल्शेविक संस्कृति में ढालने पर जोर बहुत कम था। ऐसी पार्टी जब बुर्जुआ जनवाद के दाँवपेंच में उतरी तो फिर पूरी पार्टी उसी भँवर में उलझकर रह गयी। read more

अपनी बात

‘दिशा सन्धान’ के प्रवेशांक में हमने पूँजीवाद के गहराते वैश्विक संकट और उससे पैदा होने वाले राजनीतिक संकट की चर्चा की थी। गुज़रे एक वर्ष के दौरान स्थितियाँ और गम्भीर हुई हैं। कई लोग अक्सर यह ख़ुशफ़हमी पाल लेते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकटों के बोझ तले ख़ुद ही ढेर हो जायेगी। मगर यह बस ख़ुशफ़हमी ही है। जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्ता संगठित नहीं होगा, पूँजीवाद अपनेआप ध्वस्त नहीं होगा। इतना ही नहीं, पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो इसका प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फासीवाद के रूप में सामने आयेगा। read more

नमो फासीवाद : नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन

इस नवफासीवादी लहर का मुकाबला न तो कुछ पैस्सिव किस्म की बौद्धिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से किया जा सकता है, न ही ‘सर्वधर्मसमभाव’ की अपीलों से। यह केवल संसदीय चुनाव के दायरे में जीत-हार का सवाल भी नहीं है। सत्ता में न रहते हुए भी ये फासीवादी जनता को बाँटने की साजिशें और दंगे भड़काने का खूनी खेल जारी रखेंगे। जो जेनुइन सेक्युलर बुद्धिजीवी हैं, उन्हें अपने आरामगाहों ओर अध्ययन कक्षों से बाहर आकर, प्रतिदिन, लगातार, पूरे समाज में और मेहनतकश तबकों में जाना होगा, तरह-तरह से उपक्रमों से धार्मिक कट्टरपन्‍थ के विरुद्ध प्रचार करना होगा, साथ ही जनता को उसकी जनवादी माँगों पर लड़ना सिखाना होगा, मजदूरों को नये सिरे से जुझारू संगठनों में संगठित होने की शिक्षा देनी होगी, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के ऐतिहासिक मिशन से उन्हें परिचित कराना होगा, उन्हें भगतसिंह, राहुल और मजदूर संघर्षों की गौरवशाली विरासत से परिचित कराना होगा। मजदूर वर्ग के अग्रिम तत्वों और क्रान्तिकारी वाम की कतारों को तृणमूल स्तर पर जनता के बीच ये कार्रवाईयाँ चलाते हुए संघ परिवार के जमीनी तैयारी के कामों का प्रतिकार करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ 2014 के चुनावों तक की ही नहीं है। यह एक लम्‍बी लड़ाई है।

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उद्धरण : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फ़ासीवाद का विरोध करते हैं, जो उस बर्बरता पर दुखी होते हैं जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वे ऐसे लोगों के समान हैं जो बछड़े को जिबह किये बिना ही मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं लेकिन उन्हें ख़ून देखना नापसन्द है। वे आसानी से सन्तुष्ट हो जाते हैं अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ थो लेता है। वे उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ़ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं read more

जाति प्रश्न और उसका समाधान: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण

जाति का प्रश्न सहस्राब्दियों पुराना प्रश्न है। इसे चुटकियों में हल करने का कोई रामबाण नुस्खा नहीं हो सकता। यह एक लम्‍बी, श्रमसाध्य प्रक्रिया की माँग करता है। यह सवाल पूँजीवाद के नाश के साथ जुड़ा हुआ है। आज के समय में जाति उन्मूलन की किसी परियोजना की दिशा में आगे कदम बढ़ाना एक साहसिक काम होगा। लेकिन हर कठिन काम साहसिकता की माँग तो करता ही है। आज जाति उन्मूलन स्वप्न जैसा लग सकता है, लेकिन उस स्वप्न का यदि वैज्ञानिक आधार हो तो उसे यथार्थ में बदला ही जा सकता है। ऐसा सपना तो हर सच्चे क्रान्तिकारी को देखना चाहिए। read more

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

पहले ‘दायित्वबोध’ के रूप में प्रकाशित होती रही पत्रिका को फ़िर से आगे बढ़ाने के आपके प्रयास का मैं दिल से स्वागत करता हूँ। मैं मार्क्सवाद-लेनिनवाद की हिफाज़त और विचारधारा के अहम सवालों पर पोलेमिक में इसके ज़बर्दस्त योगदान को भूल नहीं सकता। आज सर्वहारा अधिनायकत्व और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के मूलभूत सिद्धान्तों की हिफाज़त और इस प्रकार मार्क्स, लेनिन और माओ की शिक्षाओं की जीजान से रक्षा करने के लिए ऐसी पत्रिका की अत्यन्त आवश्यकता है। read more

फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें

‘फ़ासीवाद सड़ता हुआ पूँजीवाद है’ (लेनिन)। यह एक परिघटना है जो साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीवाद के आम संकट के गहराने के साथ जन्मी थी। अब विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट और उससे निजात पाने के ‘नवउदारवादी’ नुस्खों के दौर में फ़ासीवादी राजनीति सभी पूँजीवादी देशों में विविध रूपों में सिर उठा रही है और विशेषकर भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में धार्मिक कटटरपंथी फ़ासीवाद एक शक्तिशाली उभार के रूप में सामने आ रहा है read more

दिशा सन्धान-1, अप्रैल-जून 2013

  • ‘दिशा सन्धान’ क्यों?
  • सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पहली किस्त)
  • नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती चार दशक: एक सिंहावलोकन (पहली किस्त)
  • भारत में नवउदारवाद के दो दशक
  • आधुनिक यूनानी त्रासदी के त्रासद नायक के विरोधाभास
  • स्लावोय ज़िज़ेक की पुस्तक ‘दि इयर ऑफ ड्रीमिंग डेंजरसली’ की आलोचना
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