भारत में नवउदारवाद के दो दशक
- सुखविन्दर
भारतीय हुक़्मरानों द्वारा 1991 में ‘नयी आर्थिक नीति’ के नाम पर अपनायी गयी नवउदारवादी नीतियों को लागू हुए दो दशक पूरे हो चुके हैं। 1991 में नवउदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत के समय भारतीय हुक़्मरानों द्वारा किये गये दावों की पड़ताल और इन नीतियों के भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़े प्रभावों को देखने के लिए दो दशकों का समय पर्याप्त से अधिक है।
1991 में जब भारतीय हुक़्मरानों ने नवउदारवादी आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी तो उन्होंने दावा किया था कि इन सुधारों की बदौलत भारत एक आर्थिक महाशक्ति या एक और ‘एशियाई बाघ’ बनकर दुनिया के नक़्शे पर उभरेगा। गुज़रे दो दशकों के दौरान इन आर्थिक सुधारों पर अमल ने दिखला दिया है कि भारतीय हुक़्मरानों के उक्त दावे कितने खोखले थे। कुछ वामपन्थी ग्रुपों को 1991 के आर्थिक सुधारों के रूप में उपनिवेशवाद की वापसी नज़र आयी, कुछ ग्रुपों ने दावा किया कि इन आर्थिक सुधारों ने उनके इस दावे की पुष्टि की है कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवाद का दलाल है। ऐसे दावे करते हुए वे भारतीय बुर्जुआ वर्ग के साम्राज्यवाद के साथ सम्बन्धों की अपने ग़लत थीसिस के पक्ष में पहले से भी अधिक कुतर्क करने लगे। ये ग्रुप भारतीय बुर्जुआ वर्ग द्वारा अपनायी गयी नवउदारवादी नीतियों के पीछे सिर्फ साम्राज्यवाद की साज़िश या साम्राज्यवादी निर्देशों को ही देखते हैं। वे भारतीय बुर्जुआ वर्ग की राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हैसियत को मानने से इन्कार करते हैं। बिना शक भारतीय बुर्जुआ वर्ग द्वारा अपनायी गयी इन आर्थिक नीतियों के पीछे साम्राज्यवादी देशों के दबाव से इन्कार नहीं किया जा सकता, लेकिन ये नीतियाँ भारतीय बुर्जुआ वर्ग की भी ज़रूरत थीं। नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी और भारतीय बुर्जुआ वर्ग की ज़रूरतों (किसी न किसी रूप में तीसरी दुनिया के देशों के बुर्जुआ वर्ग के बारे में भी यही सच है, क्योंकि लगभग इन सभी देशों के बुर्जुआ वर्ग ने थोड़ा आगे-पीछे यही नीतियाँ अपनायी हैं) के विचित्र तालमेल की पैदावार हैं। भारत की सामाजिक जनवादी पार्टियाँ (भाकपा, माकपा, आदि) और उनसे जुड़े बुद्धिजीवी इन नवउदारवादी नीतियों का ‘विरोध’ करते हुए नेहरू के दौर की आर्थिक नीतियों की ओर वापसी की दुहाई देने लगे। ये पार्टियाँ यह समझने में अक्षम हैं या समझते हुए भी समझने से इन्कार करती हैं कि नेहरू के दौर की आर्थिक नीतियों का तार्किक नतीजा ही नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ हैं। पिछले दो दशकों के व्यवहार और भारतीय अर्थव्यवस्था के वर्तमान संकट के प्रति भारतीय हुक़्मरानों के रवैये ने दिखलाया है कि नवउदारवादी नीतियों के व्यवहार पर आगे बढ़ना ही भारतीय बुर्जुआ वर्ग के पास एकमात्र राह थी और इससे पीछे की ओर लौटना न तो इसके लिए मुमकिन था और न ही इसकी चाहत थी। नयी आर्थिक नीतियों का इन संशोधनवादी पार्टियों का विरोध नकली था, और जिन राज्यों में इन तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियों की सरकारें थीं वहाँ इन्होंने नयी आर्थिक नीतियों को ज़ोर-शोर से लागू किया। इन नीतियों का विरोध कर रही जनता (ख़ासकर बंगाल में) का निर्मम दमन किया गया और भारतीय बुर्जुआ वर्ग से इन संशोधनवादी पार्टियों को ख़ूब प्रशंसा हासिल हुई।
कार्ल मार्क्स ने लिखा था: “हेगेल ने किसी स्थान पर कहा है कि विश्व में बड़े महत्त्व वाले तथ्य एक तरह से दो बार घटित होते हैं। वह इसके साथ यह जोड़ना भूल गये, पहली बार त्रासदी के रूप में, दूसरी बार प्रहसन के रूप में।” (लूई बोनापार्ट की अठारहवीं ब्रूमेर)
हाँ, इतिहास ख़ुद को दोहराता है, लेकिन हू-ब-हू नहीं। भारत की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संकटों के रूप में भी इतिहास ख़ुद को दोहरा रहा है। 1991 में ज़िस आर्थिक संकट पर काबू पाने के लिए भारतीय हुक़्मरानों ने साम्राज्यवादी संस्थाओं – अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के दिशा-निर्देशों के तहत आर्थिक सुधारों की शुरुआत की थी, उसी तरह का संकट, बल्कि उससे भी गहरा और व्यापक आर्थिक संकट दो दशकों के बाद फिर से भारतीय अर्थव्यवस्था के दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है। वित्तीय वर्ष 2011-12 की आख़िरी तिमाही में भारत के सकल घरेलू उत्पादन में भारी गिरावट आयी। भारतीय बजट, व्यापार व चालू खाते घाटे में भारी वृद्धि दर्ज़ हुई। डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा लगातार लड़खड़ा रही है। आने वाले दिनों में भारतीय अर्थव्यवस्था के संकट के और अधिक गहरे होने के अन्दाज़े लगाये जा रहे हैं। दरअसल 2007 से अमेरिकी सबप्राइम कर्ज़ संकट से शुरू हुआ विश्व पूँजीवाद का वर्तमान संकट अब भारत जैसी उभर रही अर्थव्यवस्थाओं (जो अभी तक न सिर्फ विश्व पूँजीवादी आर्थिक संकट की चपेट में आने से सापेक्षिक रूप से बची हुई थीं, बल्कि संकटग्रस्त विकसित पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को भी राहत पहुँचा रही थीं) को भी अपनी चपेट में ले रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान परिस्थिति ने कई बुर्जुआ अख़बारों (इकोनॉमिक टाइम्स) को मोटी सुर्खिर्यों में यह छापने के लिए मज़बूर कर दिया कि ‘अलविदा 2020, स्वागतम 1991’। भारतीय हुक़्मरानों का दावा था कि 2020 तक भारत एक आर्थिक महाशक्ति बनकर उभरेगा। यह आर्थिक महाशक्ति तो नहीं बन पाया, लेकिन 1991 जैसी संकटग्रस्त हालत में ज़रूर पहुँच गया है। बीते दिनों, रसोई गैस और डीज़ल पर सब्सिडी पर कटौती, परचून सहित अनेकों क्षेत्रों में साम्राज्यवादी पूँजी को छूटें देने के फैसले की हिफ़ाज़त करने के लिए प्रधानमन्त्री ने इलेक्ट्रॉनिक प्रचार माध्यमों के ज़रिये ‘राष्ट्र’ के नाम अपना सन्देश दिया। इस सन्देश में भी उन्होंने माना कि देश 1991 जैसी परिस्थिति से गुज़र रहा है। प्रधानमन्त्री के इस स्वीकार में हम इतनी बढ़ोत्तरी ज़रूर करना चाहेंगे कि भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा रोग 1991 से अधिक भयानक है। इसकी विस्तृत चर्चा हम इस लेख में आगे चलकर करेंगे।
इस लेख का मकसद गुज़रे दो दशकों के भारत का आर्थिक इतिहास लिखना या कोई अकादमिक कसरत नहीं है। हमारा मकसद गुज़रे दो दशकों के दौरान नवउदारवादी आर्थिक सुधारों के भारतीय समाज और भारतीय अर्थव्यवस्था के चुनिन्दा क्षेत्रों पर पड़े प्रभावों की पड़ताल करना है और यह जानना है कि इसका भारत की समाजवादी क्रान्ति को सम्पन्न करने के लिए बनने वाले वर्गों के मोर्चे पर क्या असर पड़ेगा।
हमारी कोशिश है कि जल्द से जल्द इस लेख को यूनिकोड में उपलब्ध करवा दिया जाये। तब तक ये पूरा लेख पीडीएफ फॉर्मेट में यहां पढ़ सकते हैं –