Author Archives: Disha Sandhaan

भावुकतावादी क्रान्तिवाद बनाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी अप्रोच एवं पद्धति

अनुभववादी भावुकतावादी क्रान्तिवादियों और मार्क्सवादियों में एक बुनियादी फर्क होता है। भावुकतावादी क्रान्तिवादी विचारधारा को मार्गदर्शक नहीं बनाते, इसलिए किसी क्रान्तिकारी संघर्ष से वे अति-आशावादी होकर उम्मीदें पाल लेते हैं, उसकी दिशा और विकास की गतिकी को नहीं समझ पाते और उस प्रयोग का विचारधारात्मक विचलन जब विफलता के नतीजे के रूप में सामने आ जाता है, तो फिर वे निराशा में डूब जाते हैं या मिथ्या आशा के किसी और स्रोत की तलाश में जुट जाते हैं। read more

भारत में अन्धराष्ट्रवाद की आँधी और कश्मीरी जनता का बढ़ता अलगाव

पिछले 67 सालों के भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के दमन, उत्पीड़न और वायदाखि़लाफ़ी की वजह से कश्मीरी अवाम का भारत से अलगाव बढ़ा है और उसमें आज़ादी की आकांक्षा कम होने की बजाय बढ़ी ही है। लेकिन यह भी सच है कि निकट भविष्य में इस आकांक्षा के पूरा होने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे। इस समय कश्मीरी अवाम की आज़ादी की आकांक्षा की सबसे मुखर रूप से पैरोकारी ऑल पार्टी हुर्रियत कान्फ्रेंस कर रही है। लेकिन हुर्रियत के सबसे रैडिकल धड़े का नेतृत्व कर रहे सैयद अली शाह गिलानी कश्मीर की आज़ादी के नाम पर उसको मज़हब के नाम पर बने राष्ट्र पाकिस्तान में मिलाना चाहते हैं। गिलानी बड़ी ही चालाकी से कश्मीर को इस्लामिक राज्य बनाने की अपनी योजना को जानबूझकर अस्पष्ट बनाये रखते हैं ताकि कश्मीरी अवाम, जो ऐतिहासिक रूप से इस्लाम की सूफ़ी धारा से प्रभावित है, उनको पाकिस्तानपरस्त नेता की बजाय कश्मीर की आज़ादी का रहनुमा ही समझती रहे। लेकिन उनके सिपाहसलार मसर्रत आलम और आसिया अन्द्राबी की खुले रूप से इस्लामिक कट्टरपन्थी हरकतों से गिलानी की मंशा साफ़ हो जाती है। यदि आज कश्मीरी अवाम का विचारणीय हिस्सा गिलानी को अपने प्रतिरोध का नेता मानता है तो उसकी वजह यह है कि गिलानी ने भारतीय राज्यसत्ता के दमन के खि़लाफ़ सबसे मुखर तरीके से विरोध किया है और अभी तक भारतीय राज्यसत्ता के सामने घुटने नहीं टेके हैं। read more

उद्धरण : दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015

कम्युनिस्टों को जानना चाहिए कि भविष्य हर हाल में उनका है, इसलिए हम महान क्रान्तिकारी संघर्ष में उग्रतम उत्साह के साथ-साथ बहुत शान्ति और बहुत धीरज से बुर्जुआ वर्ग की पागलपनभरी भागदौड़ का मूल्यांकन कर सकते हैं, और हमें करना ही चाहिए। read more

दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

  • भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल
  • सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त)
  • नेपाली क्रान्तिः गतिरोध और विचलन के बाद विपर्यय और विघटन के दौर में
  • ‘कम्युनिज़्म’ का विचार या उग्रपरिवर्तनवाद के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी
  • जाति प्रश्न और उसका समाधान: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण
  • आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ
  • फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें
  • नमो फासीवाद : नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन
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    भारत में पूँजीवादी कृषि का विकास और मौजूदा अर्द्ध-सामन्ती सैद्धान्तिकीकरण की भ्रान्ति के बौद्धिक मूल

    अगर भारतीय मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी आन्‍दोलन को प्रगति करनी है तो उसे अर्द्धसामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरण की बेडि़यों को तोड़ना होगा। हमारे विचार में अधिकांश माले पार्टियों और बुद्धिजीवियों को अर्द्ध-सामन्‍ती अर्द्ध-औपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरणों की वर्तमान भारतीय परिस्थिति और साथ ही भारतीय इतिहास पर भी इसकी प्रयोज्यता पर दोबारा सोचने की जरूरत है। कार्यक्रम के सवाल को विचारधारा के सवाल में नहीं बदल दिया जाना चाहिए, जैसा कि भारत में कठमुल्लावादी वाम ने किया है। अगर कोई पूँजीवादी विकास या समाजवादी क्रान्ति की मंजिल की बात करता है तो उन्हें अक्सर त्रात्स्कीपन्‍थी कह दिया जाता है क्योंकि यह लगभग एक आकाशवाणी या स्वयंसिद्ध तथ्य जैसा बन चुका है कि ऐसा कहना ही लेनिन के दो चरणों में क्रान्ति के सिद्धान्‍त को खारिज करने के समान है! यह एक विडम्बना की, बल्कि त्रासदी की, स्थिति है, जिससे जितनी जल्दी हो सके छुटकारा पा लिया जाना चाहिए। read more

    गहराता वैश्विक पूँजीवादी संकट और जुझारू मज़दूर संघर्षों का तेज़ होता सिलसिला

    वर्ष 2006 से जिस विश्वव्यापी मन्दी ने पूँजीवादी व्यवस्था को अपनी जकड़ में ले रखा है उससे उबरने के अभी कोई आसार नज़र नहीं आ रहे हैं। संकट को टालने के लिए पूँजीवाद के नीम-हकीमों और वैद्दों ने जितने नुस्खे सुझाये हैं उनके कारण संकट की नये रूपों में फिर वापसी ही होती रही है। इन सभी उपायों की एक आम विशेषता यह रही है कि पूँजीपतियों और उच्च वर्गों को राहत देने के लिए संकट का ज़्यादा से ज़्यादा बोझ मेहनतकशों और आम लोगों पर डाल दिया जाये। इसके कारण लगभग सभी देशों में सामाजिक सुरक्षा के व्यय में भारी कटौती, वास्तविक मज़दूरी में गिरावट, व्यापक पैमाने पर छँटनी, तालाबन्दी आदि का कहर read more

    सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (दूसरी किस्त)

    पार्टी निर्माण और गठन के पहले नरोदवाद, ‘‘कानूनी’’ मार्क्‍सवाद और अर्थवाद से चले संघर्ष और पार्टी गठन के बाद मेंशेविकों और त्रात्स्कीपन्थियों से चले संघर्ष वे प्रमुख राजनीतिक संघर्ष थे, जिन्होंने एक ओर शुरुआती दौर में रूस में क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवादी आन्‍दोलन के आकार और आकृति को निर्धारित किया, वहीं पार्टी गठन के बाद पार्टी के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को निर्धारित किया। इस पूरे संघर्ष में लेनिन की भूमिका कम-से-कम 1898-99 से निर्धारक की बन चुकी थी। लेकिन यह कहना अतिशयोक्ति होगा कि करीब दो से ढाई दशक तक चले इस राजनीतिक संघर्ष को महज लेनिन के योगदानों की श्रृंखला के तौर देखा जा सकता है। लेनिन के नेतृत्व में समूचे बोल्शेविक नेतृत्व ने यह संघर्ष चलाया। निश्चित तौर पर, कई मौकों पर इस नेतृत्व में लेनिन स्वयं अकेले पड़ जाते थे, लेकिन अन्‍ततः यह बोल्शेविक नेताओं की कोर कुल मिलाकर लेनिन की अवस्थिति को अपनाती थी और अन्य विजातीय विचारधारात्मक प्रवृत्तियों से संघर्ष में लेनिन के साथ खड़ी होती थी। कोई भी कम्युनिस्ट एकता इसी प्रकार कार्य करती है। वह किसी भी सूरत में एकाश्मी नहीं हो सकती और द्वन्‍द्वात्मक गति से आगे बढ़ती है। लेनिन की महानता इस पूरे राजनीतिक संघर्ष को अपनी विचारधारात्मक व राजनीतिक समझदारी और नेतृत्व में सही दिशा में आगे ले जाने में निहित थी। read more

    आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

    आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाजिमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ न जा सके, इसके लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्‍त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है। देखना यह है कि यह सारी प्रक्रिया अब किसी रूप में घटित होती है। read more

    श्रद्धांजलि – नेल्सन मण्डेला

    निश्चित रूप से नेल्सन मण्डेला का जीवन (विशेष रूप से जेल से रिहाई से पहले तक) रंगभेद के खिलाफ अश्वेतों के संघर्ष का प्रतीक बन गया था। परन्‍तु यदि उनके जीवन के दूसरे पहलू यानी जेल से बाहर निकलने के बाद अश्वेतों की मुक्ति के स्वप्न के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात को नहीं उजागर किया जाता है, तो यह इतिहास के साथ अन्याय होगा। 27 वर्षों तक रंगभेदी हुकूमत की कैद में रहने के बाद एक समझौते के तहत रिहा होने के बाद नेल्सन मण्डेला ने जिस कदर साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके, उससे वह तीसरी दुनिया के देशों के राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नायकों के खण्डित गौरव की त्रासदी का भी प्रतीक बन गये। मण्डेला ने अश्वेतों की मुक्ति के जिस स्वप्न के लिए संघर्ष किया, वक्त आने पर उसी से उन्होंने आश्चर्यजनक तरीके से मुँह मोड़ लिया। read more