फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें

फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें

  • कात्यायनी

1. ‘फ़ासीवाद सड़ता हुआ पूँजीवाद है’ (लेनिन)। यह एक परिघटना है जो साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीवाद के आम संकट के गहराने के साथ जन्मी थी। अब विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट और उससे निजात पाने के ‘नवउदारवादी’ नुस्खों के दौर में फ़ासीवादी राजनीति सभी पूँजीवादी देशों में विविध रूपों में सिर उठा रही है और विशेषकर भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में धार्मिक कटटरपंथी फ़ासीवाद एक शक्तिशाली उभार के रूप में सामने आ रहा है।

2. पूँजी के इज़ारेदाराना रूप परजीवी पतनशीलता के तत्वों को जन्म देते हैं। इजारेदार पूँजी में उत्पादक शकितयों के विकास को बाधित और मन्द करने की आम प्रवृत्ति होती है। इस सापेक्षिक ठहराव और क्षरण की प्रवृत्ति से समाज में जनवाद-विरोधी, वैज्ञानिक तर्कणा-विरोधी प्रतिगामी शक्तियों के फ़लने-फ़ूलने की ज़मीन तैयार होती है। मुनाफ़े की गिरती दर को रोकने के लिए पूँजीपति और उनकी राज्यसत्ता बड़े पैमाने पर उत्पादक शकितयों का विनाश भी करती है, जो कि क्षयमान पूँजीवाद की एक अभिलाक्षणिकता है।

3. जब परजीवी-परभक्षी वित्तीय पूँजी का सर्वग्रासी वर्चस्व बड़े पैमाने पर अनुत्पादक उद्धेश्यों के लिए पूँजी-निवेश को बढ़ावा देता है, जब “रेण्टियर” और “रेण्टियर स्टेट” का विकास तेज़ हो जाता है, जब वास्तविक अर्थव्यवस्था में निवेश के मुक़ाबले शेयर बाज़ार, मनोरंजन उद्योग, युद्ध उद्योग आदि में अनुत्पादक निवेश बहुत अधिक होने लगता है तो वित्तीय पूँजी का सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी रूप फ़ासीवादी विचारों और राजनीति के रूप में अधिरचना के क्षेत्रा में ज़्यादा से ज़्यादा प्रभावी होता चला जाता है।

4. वित्तीय पूँजी की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीति – फ़ासीवाद का व्यापारिक पूँजीपतियों, दलालों और ठेकेदारों की परजीवी जमातों में सबसे सुस्थिर सामाजिक आधार होता है। पिछड़े पूँजीवादी देशों में एक क्रमिक बदलाव की प्रक्रिया में सामंती भूस्वामी से पूँजीवादी भूस्वामी में रूपान्तरित वर्ग भी विचारों से घोर ग़ैरजनवादी होता है और फ़ासीवाद के सामाजिक आधार का काम करता है। पूँजीवादी क्रमिक विकास की प्रक्रिया में काश्तकारों के बीच से कुलकों (धनी मालिक किसानों) और खुशहाल मध्यवर्गीय मालिक किसानों का जो तबका पैदा होता है, पूँजीवादी व्यवस्था के संकट के गहराने के फ़लस्वरूप उसकी किसान राजनीति का नरोदवादी यूटोपिया जब छिन्न-भिन्न हो जाता है, तो वह धुरप्रतिक्रियावादी राजनीतिक अवस्थिति अपना लेता है और फ़ासीवाद का नया सामाजिक आधार बन जाता है।

5. पूँजीवादी विकास ने विशेषाधिकार-प्राप्त अल्पसंख्यक उपभोक्ता वर्ग के रूप में परजीवी उच्च मध्य वर्ग की सामाजिक परत का जो विस्तार किया है, वह, विशेषकर पूँजीवादी संकट के दौर में फासीवाद के मजबूत सामाजिक आधार का काम करने लगता है। सफेद कॉलर वाले ‘‘कुलीन’’ मजदूरों की पक्षत्यागी जमात का एक बड़ा हिस्सा भी फासीवाद को समर्थन देने लगता है।
6. निराश और अवसादग्रस्त, पीले-बीमार चेहरे वाले, बेरोजगारी या अर्द्धबेरोजगारी के शिकार निम्न-मध्यवर्गीय युवाओं की भारी आबादी अपनी समस्याओं की मूल जड़ को न समझ पाने के कारण और किसी प्रकार के क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव के कारण फासीवादी मिथ्या प्रचार और लोकलुभावन तथा उन्मादी नारों (निराश लोगों को उन्मादी बनाना आसान होता है) के प्रभाव में आसानी से आ जाती है और एक मिथ्याचेतना से ग्रस्त होकर फासीवादी प्रचार से प्रक्षेपित ‘‘काल्पनिक शत्रु’’ को ही अपनी सारी समस्याओं का कारण समझने लगती है। इसके चलते वह फासीवादियों की गुण्डा-वाहिनियों में जाकर शामिल हो जाती है।
7. पूँजीवादी संकट के दौर में, मजदूरों की एक भारी आबादी उत्पादन की संगठित प्रक्रिया से ही पूर्णतः या अंशतः बाहर कर दी जाती है। इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा विमानवीयकरण का शिकार हो जाता है, उसकी सर्वहारा चेतना विघटित हो जाती है और उसका लम्पटीकरण हो जाता है। ऐसी आबादी फासीवादी प्रचार के सहज प्रभाव में आ जाती है और फासीवादी गुण्डा वाहिनियों में बड़े पैमाने पर शामिल हो जाती है।
8. इस तरह, फासीवाद एक ऐसा चरम प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोेलन है, जिसमें कई प्रकार के बेमेल तत्व शामल होते हैं। बुर्जुआ चुनावी राजनीति फासीवाद के लक्ष्यसिद्धि के लिए मात्र एक मोर्चा होता है। सामाजिक लामबन्दीस के लिए फासीवादी नाना प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन बनाकर तृणमूल स्तर पर लगातार काम करते रहते हैं।
9. पिछड़े पूँजीवादी देशों में, जहाँ पूँजीवाद का विकास ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ की प्रक्रिया से न होकर औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के गर्भ से हुआ है और उत्तर-औपनिवेशिक काल में मन्थ‘र क्रमिक विकास की राह से हुआ है, वहाँ की राजनीतिक अधिरचना में और सामाजिक ताने-बाने में जनवाद के तत्व नितान्त् न्यून हैं, वैज्ञानिक तर्कणा का घोर अभाव है। ऐसे देशों में पूँजीवादी जीवन-पद्धति के साथ तमाम निरंकुश स्वेच्छाचारी मध्ययुगीन मूल्य-मान्यताएँ-संस्थाएँ बची हुई हैं। ऐसे देशों में नवउदारवाद के दौर का सापेक्षतः तीव्र पूँजीवादी विकास स्वस्थ बुर्जुआ जनवादी मूल्यों के बजाय रुग्ण निरंकुशता और अलगाव के मूल्य लेकर ही आया है। इन देशों में पूँजीवादी संकट की गहनता से पैदा हुए फासीवादी आन्दो लन को अपना आधार मजबूत करने और तेजी से बढ़ाने में आज अधिक अनुकूल परिस्थिति मिल रही है।
10. पूँजीवादी संकट का क्रान्तिकारी समाधान मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवाद के लिए आगे बढ़ता संघर्ष प्रस्तुत करता है। यदि क्रान्तिकारी समाधान-प्रस्तुति का यह उपक्रम विफल हुआ, पराजित हुआ या बिखर गया और पूँजीवादी संकट जारी रहा तो उसका प्रतिक्रान्तिकारी समाधान लाजिमी तौर पर फासीवाद के रूप में सामने आता है। यूँ कहें कि क्रान्ति न कर पाने का दण्ड मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनसमुदाय को फासीवाद के रूप में चुकाना पड़ता है। क्रान्तिकारी संकट के कठिन दौर में समाजवाद की सम्भावना यदि फलीभूत नहीं होती तो फासीवादी बर्बरता ही एकमात्र विकल्प बचती है।
11. फासीवाद के फलने-फूलने की जमीन तैयार करने में, वस्तुगत तौर पर, सामाजिक-जनवादी और संशोधनवादी पार्टियों की एक महत्वपूर्ण भूमिका बन जाती है। ये पार्टियाँ संगठित मजदूर वर्ग को लगातार आर्थिक संघर्षों और सौदेबाजियों में उलझाये रखती हैं, उसके बीच कोई राजनीतिक काम नहीं करतीं, राजनीतिक संघर्षों को ये संसदीय चौहद्दी और चन्दख रस्मी धरना-प्रदर्शनों तक सीमित कर देती हैं। असंगठित मजदूर आबादी तक इनकी पहुँच न के बराबर होती है। इस तरह ये पार्टियाँ मजदूर वर्ग की राजनीतिक चेतना को कुन्द करने और उनकी जुझारू वर्ग-चेतना को विघटित करने का काम करती हैं। फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष को व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष बनाने की जगह ये पार्टियाँ उसे सिर्फ चुनावी हार-जीत और गठबन्धन का खेल बना देती हैं। नतीजतन, मजदूर वर्ग फासीवाद के विरुद्ध निष्क्रिय और निश्शस्त्र हो जाता है। ये पार्टियाँ बुर्जआ संविधान और लोकतन्त्रि की हिफाजत की दुहाई देते हुए फासीवाद के विरुद्ध कुछ रस्मी बौद्धिक-सांस्कृतिक कवायद करती रहती हैं। इनसे उम्मीद पालने वाला समाज का सेक्युलर, प्रगतिशील बौद्धिक तबका फासीवादी उभार के समय घबराहट और निराशा का शिकार हो जाता है और फासीवादी आतंक के समक्ष आतंकित होकर चुप्पी साध लेता है। जब फासीवाद सत्ता में आता है तो आम मेहनतकश आबादी, धार्मिक-नस्ली अल्पसंख्यकों, आप्रवासियों और क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के साथ ही संशोधनवादी कम्युनिस्टों और सामाजिक जनवादियों को भी अपना निशाना बनाता है। ऐसे में सामाजिक जनवादियों का एक ऐसा पतित हिस्सा भी होता है जो प्रत्यक्षतः-परोक्षतः फासीवाद का समर्थक बन जाता है या सीधे उसकी कतारों में जा खड़ा होता है।
(12) फासीवाद आन्दो्लन एक ‘कैडर-आधारित’ आन्दो लन होता है और इसलिए इसका प्रचार-तन्त्रय अन्य बुर्जुआ जनवादी पार्टियों से अधिक प्रभावी होता है। इसका मुख्य विचारधारात्मक-राजनीतिक केन्द्रक कई प्रकार के अनुषंगी संगठन बनाकर समाज के विभिन्न वर्गों-तबकों के बीच तृणमूल स्तर पर लगातार काम करता रहता है। वे धार्मिक, नस्ली, जातिगत आधारों पर मंच, मोर्चा, संगठन आदि बनाकर काम करने के साथ ही गरीब आबादी के बीच सुधार की तमाम कार्रवाइयाँ चलाते हुए अपनी विचारधारा का लगातार प्रचार करते रहते हैं। फासीवाद प्रायः संस्कृति का खोल पहनकर आता है। संस्कृति को वह हमेशा नस्ली और धार्मिक आधार पर परिभाषित करता है और ‘‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’’ के नारे देता हुआ धार्मिक या नस्ली अल्पसंख्यकों को ‘अन्य’ के रूप में प्रस्तुत करता है, उन्हें ‘‘राष्ट्रीय पराभव’’ का मूल कारण बताता है और बहुसंख्यक धार्मिक आबादी के सामने उनकी ‘शत्रु’ की छवि प्रक्षेपित करता है। फासीवाद राष्ट्रवाद को एक बुर्जुआ परिघटना मानने के बजाय प्राचीन काल से ही अस्तित्व में मानता है। ‘स्वदेशी’ और ‘राष्ट्रीय गौरव’ के नाम पर पिछड़े, उत्तर-औपनिवेशिक समाजों का फासीवाद अतीत का मिथ्या आदर्शीकरण करता है (जैसे भारत के हिन्दुत्ववादी ‘‘स्वर्णिम हिन्दू भारत’’ का एक मिथ्या इतिहास रचते हैं, आर्यों के भारतीय मूल का दावा करते हैं और एक नस्ल न होते हुए भी सभी सवर्ण हिन्दुओं के आर्य नस्ल का होने का दावा करते हैं), इतिहास को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है, धार्मिक मिथकों को इतिहास का तथ्य बताता है, मध्यकालीन आक्रमणों और फिर बसकर समाज में घुल-मिल जाने की परिघटना को उपनिवेशन और राष्ट्रीय गुलामी के रूप में प्रस्तुत करता है। दूसरी ओर इन सभी उत्तर औपेनिवेशिक समाजों के (जैसेकि भारत के) फासीवादियों ने अतीत में उपनिवेशवाद के विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोिलनों में कभी हिस्सा नहीं लिया। वर्तमान में भी उनका ‘स्वदेशी’ का नारा केवल एक धोखा होता है, अपनी आर्थिक नीतियों में साम्राज्यवादी पूँजी के साथ सहकार और नवउदारवाद के दो सुसंगत और कट्टर पक्षधर होते हैं। उनका ‘स्वदेशी’ का प्रतिगामी यूटोपिया केवल पूँजीवादी उद्यमियों, मालिक किसानों और छोटे व्यापारियों को लुभाकर अपने साथ लेने के लिए होता है। संस्कृति और इतिहास की फासीवादी अवधारणा को जनमानस में पैठाने के लिए फासीवादी शक्तियाँ शिक्षा और संस्कृति के प्रतिष्ठान स्थापित करने पर विशेष बल देती हैं और विशेषकर प्राथमिक और माध्यमिक स्तर तक के शिक्षा संस्थानों का व्यापक नेटवर्क व्यापारियों और पूँजीपतियों के वित्तपोषण से ट्रस्ट आदि बनाकर चलाती हैं। इस तरह वे युवा मानस की निर्मिति को ही प्रभावित-अनुकूलित करने का योजनाबद्ध प्रयास करती हैं। अपना मीडिया-तन्त्रस संगठित करने के साथ ही फासीवादी मुख्य धारा की बुर्जुआ मीडिया और संस्कृति के शासकीय तन्त्र में बड़ी कुशलता से अपने दृढ़ प्रतिबद्ध और दक्षिणपन्थीे बुद्धिजीवियों को पैठाते रहते हैं। ऐसा ही वे शिक्षा के तन्त्रय में, विशेषकर उसके नीतिनिर्माता संस्तरों पर भी करते हैं। अपनी यूनियनों, छात्र-युवा संगठनों, विभिन्न सांस्कृतिक-सामाजिक संगठनों के अतिरिक्त फासीवादी कई स्तरों पर, विकेन्द्रित रूप में अपनी गुण्डावाहिनियाँ संगठित करते हैं, उन्हें सैन्य शिक्षा देते हैं और देश-विशेष की परिस्थिति इजाजत दे तो मिलिटरी स्कूल भी खोलते-चलाते हैं। सामान्य दिनों में आतंक पैदा करने, दंगों के समय खून-खराबा करने तथा हड़तालों और आन्दोेलनों को कुचलने में इन गुण्डावाहिनियों की अहम भूमिका होती है। फासीवाद कई बेमेल राजनीतिक विचारों का घालमेल होता है, लेकिन उग्र अन्धमराष्ट्रवाद वह केन्द्री य विचार है जो सभी को जोड़ने का काम करता है। भारतीय फासीवादियों का उग्र अन्धचराष्ट्रवाद विश्वविजय के सपने नहीं देख सकता, क्योंकि साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझीदार भारतीय बुर्जुआ वर्ग विश्व बाजार पर युद्ध द्वारा कब्जा का ख्वाब नहीं देख सकता। यह ज्यादा से ज्यादा अपने कमजोर पड़ोसी देशों पर धौंसपट्टी जमा सकता है और ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ के नाम पर देश के भीतर धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने उन्माद का निशाना बना सकता है। देश-विशेष की मुख्य फासीवादी ताकत अपने अनुषंगी संगठनों के अतिरिक्त अन्य धार्मिक कट्टरपन्थीस संगठनों, बिखरे हुए क्षेत्रीय धार्मिक कट्टरपन्थीे राजनीतिक दलों (जैसे भारत में शिवसेना, अकाली दल आदि), बिखरी हुई क्षेत्रीय गुण्डावाहिनियाँ (जैसे श्रीराम सेने आदि), धार्मिक आन्दो लनों, धार्मिक आयोजनों, धर्माधिकारियों (सन्तोंर-महन्तोंप), धर्म के साथ उग्र राष्ट्रवाद के नारे देने वाले आन्दो लनों या लोगों (जैसे आर्य समाज और बाबा रामदेव) तथा राष्ट्रवादी तेवरों के साथ लोकलुभावन उग्र सुधारवादी नारे देने वाले आन्दोयलनों (जैसे अन्ना-केजरीवाल के आन्दो्लन) का भी सफलतापूर्वक अपने पक्ष में इस्तेमाल करती है।
(13) चूँकि फासीवादी आन्दो लन जनता को उसकी पिछड़ी चेतना के आधार पर संगठित करता है, अतः इतिहास-बोध को कुण्ठित-विरूपित करने के लिए वह आधुनिकता के बुर्जुआ जनवादी ऐतिहासिक प्रोजेक्ट को ही रद्द करता है, वह वैज्ञानिक तर्कणा को सामाजिक जीवन पर लागू नहीं करता और क्रान्तियों को इतिहास-विकास की स्वाभाविक गति नहीं मानता। वित्तीय पूँजी की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक अभिव्यक्ति होने के नाते फासीवाद कम्युनिज्म को अपना घोरतम शत्रु मानता है। ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ की पूरी विरासत और प्रबोधनकालीन आदर्शों को खारिज करते हुए वह न केवल वैज्ञानिक तर्कणा और जनवाद को खारिज करता है, बल्कि उस परम्परा के वारिस – वैज्ञानिक भौतिकवाद और सर्वहारा क्रान्ति की परियोजना को भी खारिज करता है। इसलिए यह आश्चर्य नहीं कि नीत्शे हिटलर का एक वैचारिक प्रेरणा-स्रोत था। आज की नवफासीवादी धाराओं का दार्शनिक आधार उत्तर-आधुनिकतावाद और इसकी सहोदरा उत्तर-विचार सरणियों में आसानी से ढूँढ़ा जा सकता है। असाध्य संकटग्रस्त वयोवृद्ध पूँजीवाद की जो जमीन तरह-तरह की सर्वसत्तावादी निरंकुश प्रवृत्तियों और फासीवाद को जन्म दे रही हैं, वही उत्तर आधुनिकतावाद जैसी नवनीत्शेवादी विचारधाराओं को भी जन्म दे रही हैं।
(14) किसी भी देश में धार्मिक अल्पसंख्यक आबादी केवल सच्चे वास्तविक सेक्युलरिज्म (यानी धर्म का राजनीतिक-सामाजिक स्पेस में कोई दखल न हो ओर केवल निजी विश्वास के रूप में ही धर्म की आजादी हो) के रहते ही सुरक्षित जीवन बिता सकती है। बुर्जुआ जनवादी क्रान्तियों का युग बीतने के बाद, वास्तविक सेक्युलरिज्म की लड़ाई समाजवाद के लिए लड़ाई का अंग बन चुकी है। प्रायः धार्मिक बहुसंख्यक आबादी के धर्म को राष्ट्रीय संस्कृति का अंग बताने वाली धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवादी धारा का विरोध जब धार्मिक अल्पसंख्यकों की धर्मध्वजा को उठाने वाली दूसरी धार्मिक कट्टरपन्थीन फासीवादी धारा करती है तो वह अपनी विरोधी धारा को ही मजबूत बनाने का काम करती है। भारत का उदाहरण लें। हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्था का विरोध करने वाली इस्लामी जेहादी कट्टरपन्थियों के विभिन्न नरम और उग्र संगठन हिन्दुत्ववादियों को यह अवसर देते हैं कि उनके बहाने वे पूरी मुस्लिम आबादी को निशाना बना सकें, उन्हें राष्ट्रद्रोही और आतंकवादी सिद्ध कर सकें और पिछड़ी चेतना की हिन्दू आबादी को साम्प्रदायिक उन्माद के प्रभाव में ले सकें। इसके भयावह दुष्परिणाम पूरी आम मुस्लिम आबादी को झेलने पड़ते हैं। पूरी मुस्लिम आबादी के स्वयंभू नेता बनते हुए मुस्लिम धार्मिक नेता शरिया और फतवे जारी करते हुए उसे मध्ययुगीन जड़ता-बर्बरता के अँधेरे में धकेल देना चाहते हैं। सलाफी और वहाबी विचारों के अनुयायी मुस्लिम कट्टरपन्थी न केवल आम मुस्लिम आबादी को हिन्दुत्ववादियों का निशाना बनाने में मददगार बनते हैं, बल्कि उसे प्रगतिशील मूल्यों से हर कीमत पर दूर करके पूँजीवाद-विरोधी संघर्षों में शामिल होने से रोकते हैं।
(15) भारतीय सन्दकर्भ में जातिगत ध्रुवीकरण की राजनीति ऊपरी तौर पर धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति से प्रतिस्पर्द्धा करती है, पर वास्तव में दोनों ही विभिन्न स्तरों पर एक-दूसरे को बल प्रदान करने का काम करती हैं।
(16) फासीवाद, अपने जन्मकाल से अब तक, सार्वजनिक रूप से चरम पुरुषवर्चस्वादी रहा है। उसके जनवाद-विरोधी विचार पुरुषस्वामित्ववाद की जड़ में होते हैं। यूँ तो पूँजीवाद स्त्रियों की श्रमशक्ति सस्ती से सस्ती दरों पर निचोड़ने के लिए उसे पुरुषों के मुकाबले हमेशा दोयम दर्जे की नागरिक बनाये रखना चाहता है। पर चरम संकटग्रस्त पूँजीवाद उन्हें और अधिक निकृष्ट उजरती गुलाम बनाये रखने के लिए उनकी घरेलू गुलामी की जंजीरों को भी और मजबूत बना देना चाहता है। एक ओर वह पुरुष मजदूरों की मोलतोल की क्षमता घटनाने के लिए स्त्रियों को उत्पादक कार्रवाइयों में लाना चाहता है, दूसरी ओर दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में उनकी श्रमशक्ति को सस्ती से सस्ती दरों पर निचोड़ना चाहता है। पूँजीवाद का यही बुनियादी तर्क फासीवादियों की उग्र स्त्री-विरोधी धारणाओं-मान्यताओं का भौतिक आधार होता है।
(17) अब भारत में धार्मिक कट्टरपन्थज, विशेष तौर पर हिन्दुत्ववादी फासीवाद के उभार के इतिहास और कार्यप्रणाली पर कुछ बातें। भारत में औपनिवेशिक सामाजिक-आर्थिक संरचना के भीतर जिस बुर्जुआ वर्ग, निम्न बुर्जुआ वर्ग और उनकी मरियल राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ, उसमें प्रारम्भ से ही जनवादी मूल्यों की कमी थी। अतीत के महिमामण्डन और पुरातनपन्थीा धार्मिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता बीसवीं सदी के प्रारम्भ के गरम दली कांग्रेसी नेताओं से लेकर गाँधी के दौर के अनुदारवादी कांग्रेसी नेताओं – मालवीय, पी.डी. टण्डन, पटेल, राजेन्द्रे प्रसाद आदि तक की धारा में स्पष्ट दिखती है। कांग्रेस के जो सेक्युलर जनवादी नेता थे, उनका सेक्युलरिज्म भी पुसंत्वहीन था। स्वयं गाँधी ‘सर्वधर्मसद्भाव’ की सीमा से कहीं भी आगे नहीं जाते थे और स्वयं एक सनातनी हिन्दू के पारम्परिक मूल्यों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट शब्दों में रखते रहते थे। भारतीय बुर्जुआ वर्ग की विचारधारात्मक कमजोरी और राष्ट्रीय आन्दो लन में जुझारू भौतिकवादी तर्कणा और क्रान्तिकारी जनवादी मूल्यों के अभाव ने आगे चलकर धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवादी ताकतों को फलने-फूलने की उर्वर जमीन मुहैया करायी। उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष के दौरान ‘‘स्वर्णिम अतीत के गौरव की पुनर्स्थाेपना’’ की अतीतोन्मुखी-पुनरुत्थानवादी दृष्टि की भले ही सकारात्मक भूमिका रही हो, कालान्तगर में यह अपने विपरीत में बदल गया और अपना ‘‘राष्ट्रीय इतिहास’’ गढ़ते हुए फासीवादी ताकतों ने ‘‘प्राचीन आर्य गौरव’’, ‘‘रामराज्य’’, ‘‘गुप्त वंश के स्वर्ण युग’’, राणा प्रताप और शिवाजी की ‘‘राष्ट्रीय नायक’’ की छवि के मिथक गढ़ते हुए फासीवादी ताकतों ने न केवल तिलक, दयानन्दट, विवेकानन्दव, बंकिमचन्द्र आदि को अपनी परम्परा-सरणि में शामिल कर लिया, बल्कि आगे चलकर नेहरू के शुरुआती हवाई ‘‘फेबियन समाजवादी आदर्शों’’ और उनके पब्लिक सेक्टर के राजकीय इजारेदार पूँजीवाद के ‘‘समाजवादी’’ चेहरे को ध्वस्त करने के लिए गाँधी के धार्मिक प्रत्ययवाद, पारम्परिकता और अतीतोन्मुखता के साथ ही सरदार पटेल के दक्षिणपन्थी’ अनुदारवादी राजनीतिक विचारों का भी इस्तेमाल किया। रियासतों के विलय और कश्मीर के विलय के सन्द र्भ में पटेल की भूमिका को विशेष उग्र राष्ट्रवादी रंग में चित्रित करके प्रस्तुत करने से हिन्दुत्ववादी फासीवादियों के उग्र राष्ट्रवाद, ‘‘हिन्दू राष्ट्रवाद’’ और ‘‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’’ के जुनूनी नारों को विशेष बल मिलता है।
यह इतिहास का स्थापित तथ्य है कि 1857 के महा जनविद्रोह के बाद ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने ‘बाँटो और राज करो’’ की सुनियोजित नीति के तहत साम्प्रदायिकता की राजनीति की शुरुआत की थी। 1890 के दशक से हिन्दू और मुस्लिम पुनरुत्थानवादियों के कारण हिन्दू-मुस्लिम तनाव की स्थिति पैदा हुई जो बाद में दशकों में क्रमशः बढ़ती चली गयी। फिर भी असहयोग आन्दो लन के वापस लिये जाने तक हिन्दुओं-मुस्लिमों के बीच सामान्यतः सौहार्द्र की स्थिति थी और वे अपने साझा दुश्मन के तौर पर औपनिवेशिक सत्ता को ही देखते थे। गत शताब्दी के तीसरे दशक में साम्प्रदायिक पार्थक्य और साम्प्रदायिकता की राजनीति ने गति पकड़ी। चौथा दशक मुस्लिम लीग और कांग्रेस की राजनीति में बढ़ते टकराव का और असेम्बली में भागीदारी की राजनीति का दशक था। अंग्रेजों ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बुर्जुआ नेतृत्व की सत्ता-प्राप्ति के लिए उतावली का लाभ उठाने के साथ ही भारतीय समाज में मौजूद धार्मिक मूल्यों-पूर्वाग्रहों का भी भरपूर लाभ उठाया, जिसकी तार्किक परिणति सदी के सबसे बड़े साम्प्रदायिक खून-खराबे, विभाजन, आधुनिक इतिहास के सबसे बड़े पैमाने विस्थापन के साथ ही भारत और पाकिस्तान की राजनीतिक स्वतन्त्रयता के रूप में सामने आयी। मुस्लिम लीग की साम्प्रदायिक राजनीति के पीछे इस्लामी कट्टरपन्थीा फासीवादी संगठन यदि पूरी तरह से खड़े थे, तो कांग्रेस के भीतर का अनुदारवादी धड़ा भी आरएसएस और हिन्दू महासभा के साथ सहयोग-समर्थन का रिश्ता रखता था। इन हालात में कम्युनिस्टों ने साम्प्रदायिकता की राजनीति और साम्प्रदायिक दंगों का डटकर मुकाबला किया। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जहाँ भी मेहनतकश आबादी उनके नेतृत्व में संगठित होकर लड़ रही थी, वहाँ दंगे होने तो दूर, साम्प्रदायिक तनाव भी नहीं पैदा हुआ। लेकिन अपनी विचारधारात्मक कमजोरी के कारण कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति को अंजाम देने में विफल रही और भीषण रक्तपात के साथ विभाजन की त्रासदी को भी नहीं रोक सकी। अपनी इसी कमजोरी के कारण वह फासीवाद के विरुद्ध जमीनी संघर्ष की कोई सुसंगत रणनीति भी नहीं अपना सकी।
भारत में हिन्दुत्ववादी फासीवादियों के संगठित होने का इतिहास 1925 से शुरू होता है जब केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। उनके निकट सहयोगी मुंजे ने 1931 में इटली जाकर मुसोलिनी से मुलाकात की और उसी समय से आरएसएस ने फासीवादी सांगठनिक ढाँचे और तौर-तरीके को अपनाकर काम करना शुरू किया। चौथे दशक के अन्ती तक इन भारतीय फासीवादियों ने बम्बई स्थित इतालवी कौन्सुलेट में मौजूद फासीवादियों से भी निकट सम्पर्क कायम कर लिया था। लगभग इसी समय हिन्दू महासभा से जुड़े एक अन्य धार्मिक कट्टरपन्थीट विनायक दामोदर सावरकर ने जर्मनी के नात्सियों से सम्पर्क स्थापित कर लिया था। सावरकर के बड़े भाई आरएसएस के संस्थापकों में से एक थे। 1939 में हेडगेवार ने गुरु गोलवलकर को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1940 से 1973 तक गोलवलकर आरएसएस के सुप्रीमो रहे। सावरकर, मुंजे और हेडगेवार ने लगातार कई लेख लिखकर मुसोलिनी और हिटलर की अन्ध राष्ट्रवादी नीतियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी और नात्सियों द्वारा यहूदियों के सफाये को सही ठहराते हुए भारत में भी मुसलमानों की ‘‘समस्या’’ के समाधान के लिए यही रास्ता सुझाया। बाद में गोलवलकर ने भी अपनी पुस्तकों ‘वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइण्ड’ और ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में ऐसे ही विचार रखे। आरएसएस ने अंग्रेजों के विरुद्ध किसी भी संघर्ष में कभी भी हिस्सा नहीं लिया। उल्टे इसके नेताओं द्वारा मुखबिरी और माफीनामों का लम्बाग काला इतिहास रहा है। हमेशा इनके निशाने पर मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट ही रहे हैं। मजदूर आन्दोमलन को विघटित करने के लिए आरएसएस हमेशा सक्रिय रहता है। संघी ट्रेड यूनियन ‘भारतीय मजदूर संघ’ मुसोलिनी की ही भाँति औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए कारपोरेटवादी समाधान सुझाता है। संघ का एक अन्य अनुषंगी संगठन ‘सेवा भारती’ मजदूरों की वर्ग चेतना को कुन्दे करने के लिए उनके बीच ‘कमेटी’ डालने जैसी गतिविधियों को बढ़ावा देता है, हिन्दू मजदूरों को अलग से संगठित करके उनमें साम्प्रदायिक जहर फैलाता है और उनके बीच सुधार की कार्रवाइयों के साथ धार्मिक आयोजनों को बढ़ावा देता है। हड़तालों को तोड़ने के लिए शिवसेना के अतिरिक्त विहिप और बजरंग दल जैसे संघ के अनुषंगी संगठनों के गुण्डों की गतिविधियाँ जगजाहिर रही हैं। प्रचार तन्त्रक के सुव्यवस्थित इस्तेमाल में भारतीय फासीवादी भी अपने जर्मन और इतालवी मार्गदर्शकों के तौर-तरीकों का ही इस्तेमाल करते हैं। शाखाओं-शिशुमन्दिरों और धार्मिक त्योहारों का इस्तेमाल करके ये मिथकों को समाज के ‘कॉमन सेंस’ के रूप में स्थापित कर देने की हर चन्दा कोशिश करते हैं तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों, कम्युनिस्टों और नास्तिकों के विरुद्ध जहरीले पूर्वाग्रहों को स्थापित करने के लिए तरह-तरह के झूठ और अफवाहें लगातार फैलाते रहते हैं।
भारत में 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध में हिन्दुत्ववादी फासीवाद के त्वरित व्यापक उभार और फैलाव को देश की पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक के असाध्य ढाँचागत संकट और नवउदारवादी अर्थनीति की शुरुआत से जोड़कर समझा जा सकता है। उदारीकरण और निजीकरण की नीतियाँ एक अधिक निरंकुश बुर्जुआ राज्य की माँग करती हैं। यही कारण है कि भारतीय राज्य का रहा-सहा बुर्जुआ जनवादी चरित्र भी विगत ढाई-दशकों में तेजी से क्षरित हुआ है। साथ ही, समाज में फासीवाद के सामाजिक आधार के विस्तार और फासीवादी तत्वोंक के पैदा होने की उर्वर जमीन तैयार हुई है। गाँवों में चरण सिंह की राजनीति की धारा के बिखरने के बाद धनी और खुशहाल मध्यम किसान प्रायः जातिगत आधार पर संगठित क्षेत्रीय पार्टियों के अतिरिक्त हिन्दुत्वसवादी राजनीति के एक मजबूत सामाजिक अवलम्बर के रूप में तैयार हुए हैं। देश की अधिकांश क्षेत्रीय पार्टियाँ क्षेत्रीय पूँजीपतियों और कुलकों की पार्टियाँ हैं, जो अपनी प्रकृति से अति सीमित बुर्जुआ जनवादी और घोर अवसरवादी हैं। सत्ता में भागीदारी के लिए आज किसी संसदीय ‘‘सेक्युलर’’ फ्रण्ट में शामिल होने और कल भाजपा का दामन थाम लेने में इन्हें जरा भी देर नहीं लगती। धुर प्रतिक्रियावादी दलित बुर्जुआ और निम्न-बुर्जुआ वर्ग की नुमाइन्दमगी करने वाली और दलित आबादी में जातिगत वोट बैंक रखने वाली बसपा भी ऐसी ही पार्टी है। इन सभी क्षेत्रीय बुर्जुआ पार्टियों का समूचा बुर्जुआ वर्ग संसदीय राजनीति के नापजोख के खेल में छोटे बटखरों की तरह इस्तेमाल करता है। इन पार्टियों का हिन्दुत्ववादी फासीवाद अपने खेल में बखूबी इस्तेमाल करता है।
कारपोरेट संस्कृति के मुरीद नवधनाढ्य खुशहाल मध्यवर्ग और व्यापारियों-छोटे पूँजीपतियों और दलालों-शेयर ब्रोकरों के परम्परागत आधार के साथ ही, नवउदारवादी नीतियों के परिणामस्वरूप उजड़े हुए, तबाह-बर्बाद और अनिश्चितता के शिकार मध्यवर्ग और मजदूर वर्ग के एक हिस्से को भी, हिन्दुत्वादी फासीवाद ने अपनी ओर उसी तरह आकृष्ट किया है, जिस प्रकार जर्मनी और इटली में हुआ था। एक संगठित कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दो लन की अनुपस्थिति और संशोधनवादियों द्वारा मजदूरों को फासीवाद के विरुद्ध जुझारू ढंग से लामबन्दक करने के बजाय मात्र चुनावी संयुक्त मोर्चे बनाते रहने की सामाजिक-जनवादी नीति के कारण भी निराश-पस्त मजदूरों, निम्न मध्य वर्ग और अर्द्धसर्वहाराओं के बीच पैठ बनाने में फासिस्टों को मदद मिली है।
वर्तमान स्थिति में, नवउदारवाद की नीतियों को तेज गति से लागू करने और हर सम्भावित जन-प्रतिरोध को कुचल डालने के लिए भारत के इजारेदार पूँजीपति वर्ग का बड़ा हिस्सा हिन्दुत्ववाद के एक मॉडर्न संस्करण के रूप में नरेन्द्रत मोदी को भी विकल्प के रूप में आजमाने को तैयार है। उससे भी अधिक, साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी आज इसके लिए तैयार है। निश्चय ही ढाँचागत संकट के इस दौर में पूँजीपति वर्ग इस प्रश्न पर एकमत नहीं है और यह भी तय है कि कांग्रेस नीति या कांग्रेसी समर्थन वाला कोई गठबन्धन भी इन्हीं नीतियों को निर्द्वन्द्वय भाव से लागू करेगा, पर पूँजीपति वर्ग इस प्रश्न पर आज पूर्ण आश्वस्ति चाहता है। जाहिरा तौर पर, यदि नरेन्द्र मोदी सत्ता में आता है तो यहूदियों के सफाये और ‘गुजरात – 2002 जैसी कोई चीज पूरे देश के स्तर पर दुहराना सम्भव नहीं होगा। पर धार्मिक बहुसंख्यावाद की राजनीति, यहाँ-वहाँ दंगों और आतंक के माहौल में धार्मिक अल्पसंख्यक निश्चय ही दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में जियेंगे। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति भी बदतर हो जायेगी। इससे आबादी के एक बड़े हिस्से की सस्ती से सस्ती श्रमशक्ति को निचोड़ना आसान हो जायेगा और ‘‘कल्याणकारी’’ कार्यों पर राज्य का खर्च भी घटाने में आसानी हो जायेगी। इससे भी अहम बात यह फासीवाद मजदूरों के प्रतिरोध, क्रान्तिकारी वाम आन्दो्लन और प्रगतिशील-जनवादी बौद्धिक स्वरों को बर्बर ढंग से कुचलेगा। पूँजीपतियों को प्राकृतिक सम्पदा की लूट और फैक्ट्रियाँ लगाने का अवसर देने के लिए हाउसिंग प्रोजेक्ट्स और इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए उजाड़े जा रहे करोडों लोगों के प्रतिरोध से निपटने के लिए ‘पुलिस स्टेट’ का रणकौशल अपनाया जायेगा। राष्ट्रीयताओं के जारी संघर्षों के क्षेत्रों में सैनिक शासन की स्थिति मुकम्मल बना दी जायेगी।
भाजपा गठबन्धन की सरकार 2014 में बने या न बने, हिन्दुत्ववादी फासीवाद की प्रबल उपस्थिति आने वाले दिनों में भारतीय सामाजिक-राजनीतिक पटल पर बनी रहेगी। भारतीय पूँजीपति वर्ग जंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह इसे बनाये रखेगा और इस सम्भावना को फिर भी पूरी तरह इंकार नहीं किया जा सकता कि बीच-बीच में स्वयं भी यह कुत्ता जंजीर छुड़ाकर उत्पात मचाता रहे। बुर्जुआ व्यवस्था और राजनीति की गति अपने अन्त रविरोधों के चलते कभी-कभी पूँजीपति वर्ग की इच्छा से स्वतन्त्रम भी हो जाती है।
(18) भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर लगातार खतरनाक सम्भावनाओं के साथ उपस्थित हिन्दुत्ववादी फासीवाद का सामना केवल संगठित मजदूर वर्ग ही कर सकता है। जब मजदूर वर्ग संगठित होगा, तभी वह अन्य मेहनतकश वर्गों और परेशानहाल मध्यवर्ग को साथ लेकर एक व्यापक, जुझारू संयुक्त मोर्चा बना सकता है। साम्राज्यवादी संकट की चर्चा के बिना फासीवाद की चर्चा नहीं की जा सकती – इस मार्क्सावादी प्रस्थापना को विस्तार देते हुए कहा जा सकता है कि साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकशों तथा रैडिकल मध्यवर्ग की जुझारू लामबन्दीज को आगे बढ़ाये बिना फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई की तैयारी भी मंसूबों, नारों और खोखले प्रचार तक ही सिमट कर रह जायेगी।
आज यदि कोई एकीकृत क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी होती तो फासीवाद के विरुद्ध मजदूर वर्ग और अन्य क्रान्तिपक्षीय वर्गों का मोर्चा बनाते हुए संसद के मंच का भी इस्तेमाल करती और संसदीय जड़वामन संशोधनवादियों और सामाजिक जनवादियों पर भी फासीवाद विरोधी संयुक्त मोर्चा में शामिल होने के लिए भारी जन-दबाव बना सकती थी। जब ऐसे तत्व ढुलमुलपन दिखाते तो इनके कथित फासीवाद-विरोधी ‘‘सेक्युलर’’ चरित्र का पर्दाफाश होता और इनकी कतारें मोहभंग के कारण टूटकर अलग होने लगतीं। लेकिन फिलहाल ऐसी कोई स्थिति नहीं है। ऐसे में एकमात्र रास्ता यही बचता है कि जो भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुप और संगठन हैं वे अपनी पहल पर व्यापक मेहनतकश जनता और मध्यवर्गीय बौद्धिक समुदाय के बीच फासीवाद-विरोधी जुझारू संघर्ष की लम्बीह तैयारी के लिए तृणमूल स्तर पर सत्-सघन राजनीतिक काम करें।
जिस स्तर पर भी सम्भव हो, प्रगतिशील, सेक्युलर आम मध्यवर्गीय युवाओं और मजदूरों को (इनमें स्त्री समुदाय भी शामिल है) ऐसे दस्तों में संगठित करने की राह निकालनी होगी, जो तृणमूल स्तर पर लम्पट-असामाजिक-आपराधिक तत्वों और फासीवादी गुण्डों से निपटने को तैयार हों।
बस्तियों-मुहल्लों में पुस्तकालय, क्रान्तिकारी उत्सव आदि विविध सांस्कृतिक उपक्रमों के जरिये राहुल, भगतसिंह आदि की क्रान्तिकारी विरासत के प्रति जागरूकता पैदा करते हुए सेक्युलरिज्म की जुझारू क्रान्तिकारी विचारधारा का सामाजिक आधार व्यापक बनाना होगा।
कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्से ने धार्मिक कट्टरपन्थर-विरोध को ज्ञापनों-प्रतिवेदनों और सभाकक्षों में सीमित वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यक्रमों के रूप में शर्मनाक, ‘पैस्सिव’, कुलीन कर्मकाण्ड बना दिया है। किताबों पर प्रतिबन्धा, आयोजनों में तोड़-फोड़-हंगामे जैसी फासीवादी गुण्डा हरकतों का वामपन्थीह बुद्धिजीवियों को जुझारू प्रतिवाद करना होगा और सड़कों पर उतरना होगा। इतिहास और संस्कृति-विषयक फासीवादी विकृतिकरण और दुष्प्रचार का प्रतिवाद केवल गम्भीोर शोधपत्रों, संगोष्ठियों से ही नहीं किया जा सकता और कायर-कुलीन ‘‘प्रगतिशील’’ इसे कर भी नहीं सकते। हमें व्यापक जन प्रचार के तरीके अपनाने होंगे, वैकल्पिक जन-मीडिया संगठित करना होगा और हर मोर्चे पर उन अतार्किक, अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक विचारों के खिलाफ प्रचार चलाना होगा, जिनका इस्तेमाल करके फासीवादी ताकतें निराश और पिछड़ी चेतना वाले मध्य वर्ग और मजदूरों के बीच अपना सामाजिक आधार बनाने का काम करती हैं।
जो संशोधनवादी पार्टियाँ फासीवाद-विरोध को मात्र चुनावी गँठजोडों तक सीमित कर देती हैं और सिर्फ संसद में गत्ते की तलवारें भाँजती हैं, इनके असली चरित्र को मेहनतकश जनता के सामने लाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्यभार है। यही वे पार्टियाँ हैं जिन्होंने अर्थवाद, सुधारवाद और ट्रेड यूनियनवाद की राजनीति का मजदूर आन्दोरलन पर वर्चस्व स्थापित करके फासीवादी बर्बरता की चुनौती के सामने मजदूर वर्ग को वैचारिक-राजनीतिक रूप से निश्शस्त्र और अरक्षित बना दिया है। मजदूर वर्ग की राजनीतिक तैयारी के बिना फासीवाद के विरुद्ध संघर्ष महज एक खोखला नारा बना रहेगा।
मौजूदा फासीवादी उभार कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के लिए एक चेतावनी है कि हमें साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की तैयारी के लिए मजदूर वर्ग की राजनीतिक तैयारी के काम को तेज, बहुत तेज करना होगा। हमें मजदूर वर्ग की एक एकीकृत पार्टी के पुनर्निर्माण के काम को पूरी ताकत लगाकर आगे बढ़ाना होगा। इस प्रक्रिया के दौरान, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को इस प्रश्न पर भी गम्भी रता से सोचना होगा कि विचारधारा और लाइन के प्रश्नों पर बहस जारी रखते हुए, कम से कम फासीवादी हमलों के कारगर प्रतिरोध के लिए वे किस प्रकार एक साथ खड़े हों।
क्रान्ति की मनोगत शक्तियों के बिखराव और मजदूर वर्ग में उनके आधार के कमजोर होने के कारण हालात कठिन और चुनौतीपूर्ण जरूर हैं। साम्राज्यवाद के असाध्य ढाँचागत संकट के इस दौर में पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष की तैयारी के साथ फासीवाद के कारगर प्रतिरोध का सवाल और अधिक गहराई के साथ जुड़ गया है। यह एक लम्बीी लड़ाई है, जिसमें एक दिन के लिए भी ढीला नहीं पड़ा जा सकता।

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

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