Author Archives: Disha Sandhaan

फ़ि‍लीपींस में दुतेर्ते परिघटना और उसके निहितार्थ

नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के लिए जिस निरंकुशता की ज़रूरत होती है वह दुतेर्ते में कूट-कूट कर भरी हुई है। उसकी कोशिशों के नतीजे के रूप में फि़लीपींस में भले ही विदेशी पूँजी निवेश को बढ़ावा मिलेगा, लेकिन उसका फ़ायदा वहाँ के रईसों को ही होने वाला है और फि़लीपींस की आम मेहनतकश जनता की ज़िन्दगी की मुश्किलें बरक़रार रहेंगी क्योंकि नवउदारवादी नीतियाँ रोज़गारविहीन विकास ही दे सकती हैं, जिसके फलस्वरूप असमानता की खाई का चौड़ा होना और जारी रहेगा। । हाँ यह ज़रूर है कि फि़लीपींस के इतिहास में पहली बार अमेरिकी साम्राज्यवादियों पर पूर्ण निर्भरता की बजाय फि़लीपींस के भू-सामरिक स्थिति का लाभ उठाकर वह अमेरिका और चीन दोनों से मोलतोल करने की दिशा में आगे बढ़ेगा। देखना यह है कि अमेरिका में ट्रम्प के सत्ता में आने के बाद एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में आए इस बड़े बदलाव और से इस इलाक़े पर क्या प्रभाव पड़ेगा। इतना तो तय है कि दक्षिण चीन सागर में अमेरिकी व चीनी साम्राज्यवादियों के बीच जारी प्रतिस्पर्द्धा और तेज़ होगी जिससे वहाँ तनाव व अस्थिरता का माहौल भी पैदा होगा जिसका दुष्परिणाम फि़लीपींस की आम आबादी को ही झेलना होगा। read more

मोदी सरकार द्वारा नोटबन्दी का राजनीतिक अर्थशास्त्र

नोटबन्दी के बाद से शहरों में मध्यवर्ग का वह हिस्सा जो क्रेडिट कार्ड आदि रखता है, मगर रोज़मर्रा की ज़रूरत की तमाम चीज़ें सामान्य परचून की दुकानों से ख़रीदता था, वह भी अब इन सामानों के लिए बड़ी खुदरा व्यापार कम्पनियों की दुकानों जैसे रिलायंस रीटेल, नाइन-इलेवेन, बिग बाज़ार, फे़यर प्राइस आदि से ख़रीद रहा है। इससे इन कम्पनियों को भारी फ़ायदा पहुँचा है क्योंकि प‍हले भी इनके पास खाते-पीते मध्य वर्ग के ग्राहक ही आते थे, और अब उनका कहीं ज़्यादा बड़ा हिस्सा इन दुकानों से ख़रीदारी कर रहा है जिन पर कार्ड से भुगतान हो सकता है। वहीं दूसरी ओर कार्ड से भुगतान यदि बाध्यता हो तो आप छोटी ख़रीद नहीं कर सकते। ऐसे में, लोग अपनी ज़रूरत से ज़्यादा सामान भी ख़रीद रहे हैं। read more

माकपा के भीतर फ़ासीवाद पर बहस – चुनावी जोड़-जुगाड़ के लिए सामाजिक जनवाद की बेशर्म क़वायद

करात के लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने कोमिण्टर्न के सूत्रीकरण के अतिरिक्त द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले और बाद के तमाम मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों और मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने फ़ासीवाद की सैद्धान्तिकी विकसित करने का जो उत्कृष्ट काम किया है, उसको पढ़ने की जहमत नहीं उठायी है और फ़ासीवाद की पूरी परिघटना को महज़ एक उद्धरण में समेट दिया है। यानी उन्होंने एक कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवी जितनी मेहनत भी नहीं की है, बस परीक्षा में नम्बर पाने वाले रट्टू छात्र की तरह एक उद्धरण रटकर फ़ासीवाद पर बहस करने उतर गये हैं।

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नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशक : एक सिंहावलोकन (तीसरी किस्त)

गाँवों में जहाँ धनी किसान भी भूमिहीनों का उत्पीड़न करते थे, वहाँ उनके ख़िलाफ़ भी ग़रीबों में गहरा आक्रोश था और शत्रुवध को अंजाम देने वाली छापामार टुकड़ियाँ इन्हीं ग़रीबों के बीच संगठित हुई थीं। नतीजतन, छापामार टुकड़ियों की कार्रवाइयों का निशाना धनी किसान भी बनते रहते थे। इस स्थिति के बुनियादी कारण की तलाश उत्पादन-सम्बन्धों में आ रहे बदलावों में करने की जगह सत्यनारायण सिंह ने इसे पार्टी में ”वाम” विचलन के प्रभाव के रूप में देखा। उत्तरवर्ती घटनाक्रम-विकास से ऐसा मानने के पर्याप्त आधार मिलते हैं कि सत्यनारायण सिंह ने इस मसले को अपनी राजनीतिक कैरियरवादी सोच के तहत उठाया था। यही उनका अवसरवाद था जिसके चलते ”वाम” दुस्साहसवाद का धुरन्धर पैरोकार होने की स्थिति से खिसकते हुए और पैंतरापलट करते हुए कालान्तर में वे गम्भीर दक्षिणपन्थी भटकाव की अवस्थिति तक जा पहुँचे। read more

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभव : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (चौथी किस्त)

सही मायनों में अक्टूबर क्रान्ति बोल्शेविक पार्टी और लेनिन की युगान्तरकारी जीत थी। ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी ही इसके युगान्तरकारी महत्व को नहीं समझ पाते और दावा करते हैं कि अतीत की सभी क्रान्तियों की तरह अक्टूबर क्रान्ति में भी एक छोटे-से गुट ने सत्ता पर जनता के नाम पर क़ब्ज़ा किया और फिर उसे हथिया लिया। ईमानदार बुर्जुआ इतिहासकार भी अक्टूबर क्रान्ति को एक युगान्तरकारी घटना मानते हैं, हालाँकि उनकी अपनी आलोचनाएँ हैं, जिन पर हम अभी तक टिप्पणी करते आये हैं और आगे भी उनका आलोचनात्मक मूल्यांकन जारी रखेंगे। सुजीत दास और उनके जैसे तमाम अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, जिन्हें अपनी नैसर्गिक टटपुँजिया भावना से पार्टी और पार्टी अनुशासन जैसे शब्दों से एलर्जी होती है, जनवाद की बुर्जुआ अवधारणाओं से प्रेरित होते हैं। उनके लिए यह समझना मुश्किल है कि सोवियत राज्यसत्ता एक राज्यसत्ता थी और इस तौर पर वह दमन का एक उपकरण ही थी। लेकिन ‘किसके द्वारा किसका दमन’ इस प्रश्न को ही भूल जाना वर्ग विश्लेषण और मार्क्सवादी विश्लेषण का ‘क ख ग’ भूलने के समान है। बोल्शेविक क्रान्ति ने इतिहास में पहली बार एक ऐसी राज्यसत्ता को जन्म दिया जिसकी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता थी, शोषकों की अल्पसंख्या पर शोषितों की बहुसंख्या का अधिनायकत्व। इस अधिनायकत्व के विषय में भी एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी की सोच वास्तविक, मूर्त और ऐतिहासिक होनी चाहिए, न कि आदर्श, अमूर्त और अनैतिहासिक।

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‘रुग्ण लक्षणों’ का यह समय और हमारे कार्यभार

लेनिन ने कहा था, ‘इतिहास कभी स्थिर नहीं खड़ा रहता’, इस दौर में भी इतिहास स्थिर नहीं खड़ा रहेगा। ये सम्भावनाएँ बेकार जा सकती हैं और उस सूरत में इनका वास्तवीकरण प्रतिक्रियावादी और प्रतिक्रान्तिकारी तौर पर होगा। ऐसे में हम किसी और ज़्यादा प्रतिक्रियावादी दौर के साक्षी बनेंगे, जिसमें मज़दूर आन्दोलन पर और भी ज़्यादा बर्बर हमले कर उसका ध्वंस किया जायेेगा, जनवादी और नागरिक अधिकारों का नग्नता से हनन किया जायेेगा, साम्राज्यवादी युद्ध बर्बरता के नये रूपों को जन्म देगा और पूँजीवाद दुनिया को और समूची मानव सभ्यता को बर्बादी की कगार पर ले जायेेगा। हम निश्चित तौर पर इस क्रान्तिकारी आशावाद के हामी हैं कि ऐसी स्थिति के पैदा होने से पहले दुनिया के उन तमाम देशों में क्रान्ति का ज्वार उठेगा जो साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के शोषण, उत्पीड़न, लूट और दमन का सबसे बुरी तरह से शिकार हैं। read more

दिशा सन्धान-3, अक्टूबर-दिसम्बर 2015

  • सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (तीसरी किस्त)
  • नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशकः एक सिंहावलोकन (दूसरी किस्त)
  • ‘वामपन्थी आन्दोलन के समक्ष कुछ विचारणीय प्रश्न’
  • उन समझदारों के लिए सबक जो हमेशा हाशिये पर पड़े रहना चाहते हैं
  • भावुकतावादी क्रान्तिवाद बनाम मार्क्सवादी-लेनिनवादी अप्रोच एवं पद्धति
  • इस्लामिक स्टेट का उभार और मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप का नया दौर
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    सम्पादकीय की एवज में

    माओ ने एक बार कहा था, “आकाश के नीचे सबकुछ भयंकर अराजकता में है। एक शानदार स्थिति!” पिछले करीब 8 वर्षों से अभूतपूर्व आर्थिक मन्दी की मार से कराहता पूँजीवाद हर रोज़ अपनी मरणासन्नता और खोखलेपन के नये लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। जब ‘दिशा सन्धान’ के तीसरे अंक के साथ हम आपसे मुख़ातिब हो रहे हैं, तो दुनिया एक नये संक्रान्तिकाल में प्रवेश करती प्रतीत हो रही है। यह संक्रान्तिकाल तत्काल ही किसी क्रान्तिकारी स्थिति की ओर ले जाये, यह ज़रूरी नहीं है। लेकिन यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जो परिवर्तन आज दुनिया के पैमाने पर हमारे सामने घटित हो रहे हैं, वे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद को और भी ज़्यादा कमज़ोर और खोखला बना रहे हैं। वैसे तो दुनिया भर में इस नये संक्रान्तिकाल के कई प्रातिनिधिक लक्षण हमारे सामने हैं, लेकिन हम दो सबसे प्रमुख लक्षणों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे, जो सम्भवतः सबसे महत्वपूर्ण हैं।

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    उन समझदारों के लिए सबक जो हमेशा हाशिये पर पड़े रहना चाहते हैं

    हाशिये पर खड़े लोगों के अपने दुःख होते हैं तो अपने सुख भी होते हैं। सवाल देखने के नज़रिये और ज़ोर का होता है। हाल ही में, हाशिये पर खड़े वामपन्थी आन्दोलन से लम्बे समय से जुड़े रहे एक बुद्धिजीवी रवि सिन्हा ने हाशिये पर खड़े अपने अन्य बिरादरों के लिए भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के उभार के बरक्स कुछ सबक पेश किये हैं। लेकिन इन सबकों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि ये सबक हमेशा हाशिये पर ही कैसे खड़े रहें, इसका ‘यूज़र मैनुअल’ है। यूँ भी कह सकते हैं कि यह आज के सबसे ज़रूरी कार्यभारों को अनिश्चितकाल तक के लिए स्थगित कर देने का प्रस्ताव है। read more