नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशकः एक सिंहावलोकन (दूसरी किस्त)

नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती दशकः एक सिंहावलोकन (दूसरी किस्त)

  • दीपायन बोस

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श्रीकाकुलम में “वाम” दुस्साहसवादी लाइन की विफलता

निबन्ध में पहले इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि मई 1970 में हुई पार्टी कांग्रेस के पहले ही श्रीकाकुलम में पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों द्वारा घेरेबन्दी और दमन के सतत् अभियान तथा कई अग्रणी संगठनकर्ताओं की वास्तविक या फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में हत्या के बाद “वाम” दुस्साहसवादी लाइन (सफाये की लाइन) पर जारी छापामार संघर्ष गम्भीर संकट और गतिरोध का शिकार हो चुका था। फिर भी, विशेषकर उद्दानम और एजेंसी एरिया में, आन्दोलन अभी भी जारी था। कांग्रेस के तुरन्त बाद, 10 जुलाई 1970 को केन्द्रीय कमेटी के दो सदस्य वेंपटाप्पु सत्यनारायण और आदिभाटला कैलाशम तथा 30 जुलाई को मल्लिकार्जुनुडु, अप्पालास्वामी और मल्लेश्वर राव जैसे अग्रणी संगठनकर्ता फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में शहीद हो गये। केन्द्रीय कमेटी के आन्ध्र के बचे हुए दो सदस्य अप्पाला सूरी और नागभूषण पटनायक उस समय चारु मजुमदार से मिलने कलकत्ता गये हुए थे और इन शहादतों की सूचना उन्हें रेडियो से वहीं मिली। इसके बाद ही वे दोनों भी गिरफ़्तार कर लिये गये।

यहाँ यह उल्लेख ज़रूरी है कि श्रीकाकुलम से सटे ओडीशा के कोरापुट ज़िले में भी 1969 में चारु मजुमदार की लाइन पर कामों की शुरुआत नागभूषण पटनायक और भुवनमोहन पटनायक ने की थी। कुछ समय बाद दोनों गिरफ़्तार हो गये, लेकिन 8 अक्टूबर, 1969 को जेल तोड़कर भाग निकलने के बाद नागभूषण पटनायक ने कोरापुट और श्रीकाकुलम में सफाया अभियान को नया संवेग प्रदान किया और पार्टी कांग्रेस के बाद उन्हें केन्द्रीय नेतृत्व की ओर से श्रीकाकुलम के अतिरिक्त ओडीशा के कोरापुट और आन्ध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम और गंजम के इलाक़े में आन्दोलन चलाने की ज़िम्मेदारी मिली। वेंपटाप्पु और आदिभाटला की हत्या तथा नागभूषण पटनायक और अप्पाला सूरी की गिरफ़्तारी के बाद (ये चारों केन्द्रीय कमेटी के सदस्य थे) लगातार पुलिस की घेरेबन्दी और दमन का सामना कर रहे श्रीकाकुलम के अतिरिक्त कोरापुट, गंजम और विशाखापट्टनम के इलाक़े में भी पार्टी का काम ठहरावग्रस्त होकर बिखरने लगा। श्रीकाकुलम में एकमात्र पैला वासुदेव राव ही ऐसे महत्वपूर्ण नेता थे जो पुलिस की गिरफ़्त में नहीं आ सके थे।

इस नाज़ुक मोड़ पर भी चारु मजुमदार ने सफाये की लाइन पर पुनर्विचार की कोई ज़रूरत नहीं समझी, बल्कि उसी लाइन को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने श्रीकाकुलम के बचे हुए कामरेडों से नेतृत्व अपने हाथ में लेने का आह्वान करते हुए यह दिशा-निर्देश दिया कि वर्ग शत्रुओं और पुलिस का सफाया करते हुए और उनसे राइफ़लें छीनते हुए पूरे श्रीकाकुलम में जनमुक्ति सेना गठित करने के उद्देश्य से प्रत्येक दस्ते का यह अधिकार है कि वह अपनी योजना स्वयं बनाये। हालाँकि बचे हुए कामरेडों में से कुछ ने ऐसी कोशिशें भी कीं, पर वे नाकाम रहे। इसके बाद स्थानीय संगठनकर्ताओं का एक हिस्सा इस नतीजे पर पहुँचा कि वर्ग शत्रुओं के सफाये पर एकतरफ़ा तरीक़े से ज़ोर देना और संघर्ष के अन्य रूपों की उपेक्षा करना ग़लत था (हालाँकि उन्होंने इसे एक रणकौशलात्मक ग़लती ही माना)। ऐसे लोगों ने आंशिक और आर्थिक माँगों को लेकर संघर्ष के अन्य रूपों को अपनाकर ग़लतियों को ठीक करने की कोशिश की, लेकिन राज्यसत्ता के दमन, आतंक और जनता से अलगाव के माहौल में उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। एक दूसरा हिस्सा ऐसा भी था जो सशस्त्र संघर्ष को पूरी तरह छोड़कर आर्थिक संघर्षों से शुरुआत करते हुए जनता को संगठित करने पर बल दे रहा था। एक तीसरा हिस्सा उन कामरेडों का था जो इन समाहारों से सहमत नहीं थे। वे केन्द्रीय नेतृत्व की नीति और रणकौशलों को शब्दशः लागू करने के पक्षधर थे और यह मानते थे कि क़तारों में अभी भी मौजूद संशोधनवाद का प्रभाव ही आन्दोलन के पीछे जाने का मुख्य कारण रहा है। इसी तीसरे हिस्से ने आगे चलकर अपने को आन्ध्र प्रदेश राज्य कमेटी के रूप में पुनर्गठित किया। बहरहाल, 1970 के अन्त तक श्रीकाकुलम का संघर्ष बिखर चुका था, हालाँकि यहाँ-वहाँ कुछ छिटफुट ‘ऐक्शंस’ उसके बाद भी होते रहे। चारु मजुमदार की “वाम” दुस्साहसवादी लाइन श्रीकाकुलम में सबसे व्यवस्थित एवं सांगोपांग रूप में, सबसे लम्बे समय तक लागू हुई, लेकिन अन्ततोगत्वा, भारी नुक़सान उठाने के बाद वह पूरी तरह से विफल सिद्ध हुई।

कलकत्ता में छात्र-युवा विद्रोह

“वाम” दुस्साहसवाद की दूसरी अग्रणी प्रातिनिधिक अभिव्यक्ति पार्टी कांग्रेस के ठीक पहले मार्च 1970 कलकत्ता के छात्रों-युवाओं के व्यापक उभार के रूप में सामने आयी जो तथाकथित सांस्कृतिक क्रान्ति (भंजन-दहन-हनन समारोह) और शहरी सफाया अभियान के चरमोत्कर्ष तक पहुँचने के बाद 1971 के मध्य तक, राज्यसत्ता के अभूतपूर्व बर्बर दमन के बाद बिखर गयी। कलकत्ता के छात्र-युवा आन्दोलन के “वाम” दुस्साहसवादी विपथगमन ने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी क़तारों में भारी तादाद में क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं की भर्ती की सम्भावनाओं का गला घोंटकर पार्टी-निर्माण की प्रक्रिया को जो भारी नुक़सान पहुँचाया, इसका अनुमान लगाने के लिए उस उभार के पहले के राजनीतिक घटना विकासक्रम की संक्षिप्त चर्चा ज़रूरी है।

1960 का दशक बंगाल के छात्रों-युवाओं की चेतना के तेज़ रैडिकलाइज़ेशन का दशक था। 1966 के खाद्यान्न आन्दोलन (जिसका उल्लेख पहले किया जा चुका है) के दौरान आन्दोलनकारी छात्रों-युवाओं का बहुलांश बुर्जुआ व्यवस्था के साथ ही संशोधनवादी नेतृत्व के विरुद्ध भी लामबन्द हो चुका था। 1967-68 में कलकत्ता के छात्रों-युवाओं के बीच नक्सलबाड़ी किसान-उभार के पक्ष में एक व्यापक लहर थी, जिसे “वाम” अतिवाद के प्रभाव के कारण कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन एक सुनिश्चित दिशा नहीं दे सका। चारु मजुमदार ने मई 1968 में ‘देशव्रती’ में प्रकाशित अपने लेख ‘नौजवान और विद्यार्थी समाज के प्रति’ में लिखा, “विद्यार्थियों और नौजवानों का राजनीतिक संगठन अनिवार्य रूप से रेडगार्ड संगठन ही होगा और इनका काम होगा चेयरमैन माओ के उद्धरणों का जितने व्यापक इलाक़े में सम्भव हो, प्रचार करना।” इस तरह चारु मजुमदार ने छात्रों-युवाओं के व्यापक मुद्दा आधारित आन्दोलनों और जनसंगठनों की आवश्यकता को ख़ारिज़ करते हुए उनके कार्यभार को केवल विचारधारात्मक प्रचार तक सीमित कर दिया। लेकिन तालमेल कमेटी के पूरे काल के दौरान कलकत्ता के छात्रों-युवाओं ने खाद्यान्नों की मूल्य-वृद्धि और ट्राम-भाड़ा-वृद्धि जैसे कई मुद्दों को लेकर और अपनी विभिन्न माँगों को लेकर कई आन्दोलन किये। ‘वेस्ट बंगाल स्टेट स्टूडेण्ट्स’ कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ रेवोल्यूशनरीज़’ ने क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन का एक मसौदा राजनीतिक कार्यक्रम तैयार करके उसे बंगाल के क्रान्तिकारी छात्र-युवा कार्यकर्ताओं के बीच विचार-विमर्श के लिए वितरित किया। यह मसौदा ‘लिबरेशन’ के अप्रैल, 1969 अंक में प्रकाशित भी हुआ। चारु मजुमदार के उपरोक्त लेख की आम दिशा के विपरीत इस दस्तावेज़ में छात्र-युवा आन्दोलन की क्रान्तिकारी जनदिशा की हिमायत की गयी थी और कहा गया था कि भूमि क्रान्ति की राजनीति के प्रचारमात्र से छात्रों-युवाओं के केवल उन्नत और सचेत तत्व ही आगे आयेंगे और संघर्ष में हिस्सा लेंगे, इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि आम राजनीतिक कार्यक्रम के आधार पर, आम छात्रों-युवाओं की सापेक्षतः पिछड़ी चेतना वाली व्यापक आबादी को गोलबन्द और संगठित करने के लिए उन्हें प्रभावित करने वाले भोजन, शिक्षा, बेरोज़गारी, संस्कृति आदि से जुड़े मुद्दों को भी उठाया जाये और इसके लिए छात्रों-युवाओं का जन राजनीतिक संगठन बनाना ज़रूरी होगा। लेकिन वाम दुस्साहसवाद का आच्छादनकारी प्रभाव पार्टी गठन के समय तक जनदिशा की इस सोच को पीछे धकेल चुका था। अगस्त, 1969 में चारु मजुमदार ने ‘नौजवानों और छात्रों के प्रति पार्टी का आह्वान’ (‘देशव्रती’) नामक टिप्पणी में इस बात पर फिर बल दिया कि छात्रों-युवाओं को यूनियनों की अर्थवादी, अवसरवादी और भ्रष्टकारी राजनीति को सिरे से ख़ारिज़ करके मज़दूरों और ग़रीब व भूमिहीन किसानों के साथ एकरूप हो जाना होगा। पुनः मार्च 1970 में ‘देशव्रती’ में प्रकाशित अपने लेख ‘क्रान्तिकारी नौजवानों और छात्रों से कुछ बातें’ में चारु मजुमदार ने अपनी लाइन को आगे बढ़ाते हुए यह लिखा कि छात्रों-युवाओं को स्कूल-कॉलेज छोड़कर क्रान्ति के काम में कूद पड़ना होगा, ग़रीब-भूमिहीन किसानों व मज़दूरों से एकरूप होने के लिए गाँवों की ओर जत्थे बनाकर निकल पड़ना होगा, स्क्वाड बनाकर उनके बीच क्रान्तिकारी प्रचार करना होगा, गाँवों से लौटकर शहरों में रेड गार्ड संगठन बनाने होंगे और इन रेडगार्ड संगठनों को मज़दूरों के बीच राजनीतिक प्रचार और क्रान्तिकारी प्रचार करने के साथ ही गुरिल्ला क़ायदे से स्क्वाड बनाकर हमलावर फासिस्ट लठैत सेना पर जवाबी हमले करने होंगे। चारु के इस आह्वान के बाद कलकत्ता से बड़ी तादाद में छात्र गाँवों की ओर गये और वहाँ “वाम” दुस्साहसवादी लाइन को लागू करने की कोशिशों में जुट गये। इस तरह पार्टी कांग्रेस के समय तक चारु लाइन कलकत्ता में एक शक्तिशाली क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन उठ खड़ा होने की सम्भावनाओं का गला घोंट चुकी थी।

डेबरा गोपीवल्लभपुर और अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में राजकीय दमन के घटाटोप और आतंकवादी लाइन की विफलता से जल्दी ही कलकत्ता से गये छात्रों-युवाओं के भीतर निराशा घर करने लगी और उनमें से अधिकांश शहर वापस लौट आये। कलकत्ता में मार्च 1970 से शुरू होकर लगभग 1971 के मध्य तक जारी रहने वाले अतिवामपन्थी छात्र-युवा उभार के पीछे गाँवों से लौटे युवा कार्यकर्ताओं की अहम भूमिका थी। शुरुआत अमेरिकी सहायता से चलने वाले शिक्षा संस्थानों पर हमले से हुई। फिर सभी स्कूलों-कॉलेजों पर धावा बोलकर वहाँ लाल झण्डे लहराये जाने लगे। इसके बाद तथाकथित बंगाल नवजागरण के राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जैसे बुर्जुआ सुधारकों; गाँधी, चित्तरंजन दास, सुभाष चन्द्र बोस आदि बुर्जुआ नेताओं और रवीन्द्रनाथ टैगोर की प्रतिमाएँ तोड़ी जाने लगीं और सड़कों पर गाँधी वाङमय की होली जलायी जाने लगी। नैराश्यपूर्ण वर्तमान से उपजे आक्रोश की लहर पर सवार इस “सांस्कृतिक क्रान्ति” ने इतिहास और विरासत के प्रति एक अतिरेकी, एकांगी और अनैतिहासिक रवैया अपनाया। शुरू में तो भाकपा (मा-ले) नेतृत्व ने इस नये घटना-विकास के प्रति असम्पृक्त रुख़ अपनाया, लेकिन जब यह लहर पूरे कलकत्ता में फैल गयी तो चारु मजुमदार ने देहातों में किसान उभार की एक स्वाभाविक परिणति बताते हुए इसका पुरज़ोर समर्थन किया। गाँधी और अन्य बुर्जुआ नेताओं की मूर्तियाँ तोड़े जाने को “मूर्ति भंजन का उत्सव” घोषित करते हुए उन्होंने लिखा कि छात्रों ने औपनिवेशिक शिक्षा व्यवस्था पर हमला बोल दिया है, क्योंकि वे समझ चुके हैं कि उसे नष्ट किये बिना तथा दलाल पूँजीपति वर्ग द्वारा खड़ी की गयी प्रतिमाओं को ध्वस्त किये बिना क्रान्तिकारी शिक्षा व्यवस्था और संस्कृति का निर्माण सम्भव नहीं (‘फ़ोर्ज क्लोज़र यूनिटी विद पीजेण्ट्स’ आर्म्ड स्ट्रगल’, 14-07-70)। साथ ही अपने इसी लेख में चारु ने यह भी लिखा कि चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की तरह इस संघर्ष का लक्ष्य पूरी सांस्कृतिक अधिरचना को ध्वस्त करना नहीं है, न ही यह इस मंज़िल में (यानी क्रान्ति की विजय के पूर्व) सम्भव है, अतः छात्रों-युवाओं को यह ध्यान में रखना होगा कि केवल मज़दूरों और ग़रीब व भूमिहीन किसानों के साथ एकरूप होकर ही वे अपना क्रान्तिकारी चरित्र बचाये रख सकेंगे। मूर्तिभंजन के प्रश्न से ही चारु लाइन के साथ पश्चिम बंगाल राज्य कमेटी के सचिव और वरिष्ठ नेता सुशीतल राय चौधुरी के मतभेदों की शुरुआत हुई और फिर आगे चलकर उन्होंने “वाम” दुस्साहसवाद की पूरी लाइन की समालोचना प्रस्तुत की। इस मतभेद की चर्चा हम आगे करेंगे। मूर्तिभंजन मुहिम की पुरज़ोर हिमायत करते हुए पोलिट ब्यूरो सदस्य तथा पुराने कवि व पत्रकार सरोज दत्त चारु लाइन के नये सांस्कृतिक सिद्धान्तकार के रूप में सामने आये। उन्होंने गाँधी, सुभाष, टैगोर, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, ताराशंकर बनर्जी आदि के बारे में धुआँधार अग्निवर्षी लेख लिखे। सरोज दत्त के अनुसार “बंगाल नवजागरण” के पुरोधा बंगाली भद्रलोक के समाज सुधारक औपनिवेशिक शिक्षा पद्धति की उपज थे, जो शासकों और शासितों के बीच संवाद के माध्यम और शासन तन्त्र के पुर्ज़े थे। औपनिवेशिक सत्ता-विरोधी जन प्रतिरोधों के वे विरोधी थे और मात्र मध्यवर्गीय दायरे तक सीमित समाज-सुधार की बातें कर रहे थे। गाँधी को वे उपनिवेशवाद का दलाल सिद्ध करते थे और सुभाष बोस को जापानी साम्राज्यवाद की कठपुतली एक फासिस्ट मानते थे। दरअसल भारतीय समाज और भारतीय पूँजीपति वर्ग के चरित्र का (दलाल पूँजीपति वर्ग के रूप में) जो आकलन भाकपा (मा-ले) का कार्यक्रम प्रस्तुत करता था, सरोज दत्त की सांस्कृतिक लाइन उसी का यान्त्रिक, अतिरेकी विस्तार मात्र था। यही दौर था जब बंगाल के बुद्धिजीवियों और संस्कृतिकर्मियों का जो अच्छा-ख़ासा हिस्सा कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी धारा से हमदर्दी रखता था, वह भी चारु मजुमदार की राजनीतिक लाइन की परिणतियों और सरोज दत्त के अतिवामपन्थी सांस्कृतिक चिन्तन को देखने के बाद छिटककर दूर हो गया।

जैसाकि ऊपर बताया जा चुका है, शिक्षा संस्थानों पर हमलों और मूर्तिभंजन की मुहिम स्वतःस्फूर्त ढंग से शुरू हुई थी। इसमें बड़े पैमाने पर मेधावी छात्र तो शामिल थे ही, बहुतेरे लुम्पन तत्व भी घुस गये थे। पार्टी ने आन्दोलन का समर्थन तो किया, पर वस्तुतः उस पर उसका नियन्त्रण नहीं था और वह उसके पीछे घिसट रही थी। अपने उपरोक्त लेख में चारु ने यह भी लिखा था कि पुलिस उत्पीड़न के आगे घुटने टेकने के बजाय छात्र-युवा और मज़दूर पुलिस अफ़सरों का सफाया कर रहे हैं। ऐसी घटनाएँ उस समय तक छिटपुट हो रही थीं, पर चारु के इस लेख के प्रकाशन के बाद पुलिसकर्मियों, नौकरशाहों, व्यापारियों, दलालों और भाड़े के गुण्डों (‘मस्तानों’) के सफाये की मुहिम तेज़ हो गयी। जुलाई में ही कलकत्ता ज़िला कमेटी यह घोषणा कर चुकी थी कि पुलिस, सीआरपी के लोगों, कालाबाज़ारियों और पूँजीपतियों का सफाया करके बंगाल और आन्ध्र के कामरेडों की हत्या का बदला लिया जायेगा। सफाये की इस धुँआधार मुहिम के दौरान जादवपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति, कलकत्ता हाईकोर्ट के एक जज और बंगाल सरकार के एक सचिव जैसे कुछ विशिष्ट लोगों की हत्या हुई, लेकिन ज़्यादातर ट्रैफ़िक कांस्टेबल, कुछ छोटे व्यापारी और कारोबारी ही इसके शिकार हुए। फिर माकपा कार्यकर्ताओं के साथ सड़कों पर भिड़न्त की शुरुआत हुई और अगस्त 1971 तक 368 माकपा कार्यकर्ताओं के साथ 1345 मा-ले कार्यकर्ता भी मारे गये। 1971 के मध्यावधि चुनावों के दौरान चुनावी उम्मीदवारों का भी सफाया होने लगा। फ़ारवर्ड ब्लॉक के वयोवृद्ध नेता हेमन्तकुमार बोस एक संशोधनवादी पार्टी के नेता होने के बावजूद अपने सादे जीवन और सरल प्रकृति के कारण काफ़ी लोकप्रिय थे। उनकी हत्या ने बंगाल में काफ़ी विक्षोभ पैदा किया और भाकपा (मा-ले) के अलगाव को बढ़ाने में एक अहम भूमिका निभायी। सफाया अभियान के इस दौर में पूरे बंगाल में 700 स्क्वाड और सिर्फ़ कलकत्ता में 150 स्क्वाड सक्रिय थे। चारु मजुमदार के निर्देशानुसार, ये दस्ते स्थानीय पार्टी कमेटियों से स्वतन्त्र रहकर, उनकी जानकारी के बग़ैर अपनी कार्रवाइयों को अंजाम देते थे।

नयी जनवादी क्रान्ति कार्यक्रम के अनुरूप भी यदि क्रान्तिकारी जनदिशा अमल में लायी जाती तो गाँवों में वर्ग संघर्ष के विकास के साथ शहरों में कुछ उभारों के बावजूद आम नीति उस दौर में प्रतिरक्षात्मक होनी चाहिए थी और जन संघर्षों को पार्टी की सख़्त देखरेख में विकसित किया जाना चाहिए। लेकिन अपनी आतंकवादी लाइन को श्रीकाकुलम से भी आगे बढ़ाते हुए चारु मजुमदार ने शहरों में भी सफाये की लाइन को आक्रामक ढंग से आगे बढ़ाया, जन संघर्षों और जनसंगठनों के गठन को संशोधनवादी कार्रवाई बताते हुए सिरे से ख़ारिज़ कर दिया, दस्तों को पार्टी कमेटियों के नेतृत्व से आज़ाद करके उनकी अराजकता और स्वतःस्फूर्तता को जमकर बढ़ावा दिया तथा राजनीति को पूरी तरह हथियार के मातहत कर दिया।

कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का राजकीय दमन, जो पहले से ही जारी था, 1971 से सघन और व्यापक हो गया। सीआरपी और पुलिस को देखते ही गोली मारने के आदेश दे दिये गये। फ़र्ज़ी मुठभेड़ें रोज़ की घटनाएँ बन गयीं। जेलों में मा-ले कार्यकर्ताओं को बर्बर यन्त्रणाएँ दी जाती थीं। अकेले कलकत्ता में 1972 के अन्त तक लगभग 20,000 कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी कार्यकर्ता (अधिकांश छात्र और उनके परिवार के लोग) मारे जा चुके थे। नक्सलवाड़ी में 3,000, बंगाल के अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में 4,000, बिहार और असम में 6,000 से अधिक कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त आन्ध्र, उत्तर प्रदेश, पंजाब, केरल और तमिलनाडु में भी हज़ारों कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी थी। बंगाल में फौज़ी ऑपरेशन का अनुमान लेफ्टि‍नेण्ट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के एक वक्तव्य से लगाया जा सकता है। अरोड़ा के अनुसार, सेना की तीन डिवीज़नें (लगभग 50 हज़ार सैनिक) पश्चिम बंगाल गयी थीं और चुनावों के बाद नक्सली हिंसा से निपटने के लिए सैनिक वहीं रुक गये थे। तेलंगाना संघर्ष के दमन के बाद भारतीय राज्यसत्ता ने कम्युनिस्ट आन्दोलन के विरुद्ध सबसे व्यापक और योजनाबद्ध दमन की कार्रवाई 1970-72 के दौरान चलायी थी, हालाँकि यह कार्रवाई आगे आपातकाल के दौर तक किसी न किसी रूप में जारी रही। इस दौर की बर्बरता आज इतिहास का एक ज्ञात तथ्य है और यह सच्चाई भी आज बहुत सारे अध्ययनों में सामने आ चुकी है कि किस प्रकार केन्द्रीय गृह मन्त्रलय, सेना के अधिकारियों, और बुर्जुआ थिंक टैंकों के अतिरिक्त विभिन्न साम्राज्यवादी एजेंसियों के विशेषज्ञ भी उस समय “नक्सलवाद” के दमन की सामरिक नीतियाँ और उससे निपटने की सामाजिक-आर्थिक नीतियाँ बनाने में लगे हुए थे।

बहरहाल, आन्दोलन के ठहराव-बिखराव का मूल कारण राज्यसत्ता का दमन नहीं बल्कि इसकी अपनी विचारधारात्मक लाइन (वाम दुस्साहसवाद) और भारतीय कार्यक्रम की ग़लत समझ (चीनी क्रान्ति के नक़्शेक़दम पर नवजनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम) थी। राज्यसत्ता का दमन किसी देश के क्रान्तिकारी संघर्ष को कुछ समय के लिए पीछे धकेल सकता है, लेकिन चार दशकों से भी अधिक समय तक जारी रहने वाले ठहराव-बिखराव का वह बुनियादी कारण नहीं हो सकता। पश्चदृष्टि से देखते हुए इस बात को आसानी से और पूरी निश्चयात्मकता के साथ कहा जा सकता है। किसी भी क्रान्ति में शहादतें और कुर्बानियाँ तो होती ही हैं, लेकिन चारु मजुमदार की वाम दुस्साहसवादी लाइन 1970 के दशक के प्रारम्भिक दशकों के दौरान अकूत अनावश्यक शहादतों-कुर्बानियों के लिए ज़िम्मेदार थी, यह तय है। शत्रु की शक्ति का सही आकलन न करना या उसे कम करके आँकना, आत्मधर्माभिमान, उतावलापन, जनता की जगह वीर नायकों और राजनीति की जगह हथियार पर भरोसा करना – ये वाम दुस्साहसवाद के बुनियादी गुण होते हैं और चारु मजुमदार (और नेतृत्व में मौजूद उनके समर्थक) भी इन्हीं गुणों से लैस थे। आगे हम देखेंगे कि अतिवामपन्थी लाइन को लागू करने वाले नेतृत्व की सांगठनिक लाइन भी किस प्रकार विचारधारात्मक लाइन के ही अनुरूप नौकरशाही, व्यक्तिवाद, गुटबाज़ी और छल-नियोजन की कार्यशैली को लागू करती थी (इसके उदाहरण एआईसीसीसीआर काल में भी देखे जा चुके हैं), जिसके चलते संगठन में बार-बार बहस और स्वस्थ समाहार का गला घोंटा गया और उसे निर्णायक तौर पर बिखराव की राह पर धकेल दिया गया।

बहरहाल, फ़िलहाल हम 1971 के ऐतिहासिक वर्ष के उत्तरार्द्ध के कलकत्ता की ओर वापस लौटते हैं। 29 जून, 1971 को पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन की घोषणा हुई। केन्द्रीय मन्त्री सिद्धार्थ शंकर राय को राज्य में राष्ट्रपति शासन पर अमल की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। जुलाई से नवम्बर तक का समय पूरे राज्य में और विशेषकर कलकत्ता में फ़र्जी मुठभेड़ों, गिरफ़्तारियों और जेलों में यन्त्रणाओं का बर्बरतम दौर था। इसी दौरान, 4-5 अगस्त की आधी रात को पुलिस ने सरोज दत्त को गिरफ़्तार करने के बाद गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। रोमानी क्रान्तिकारी जोश और कुर्बानी के जज़्बे से भरे कलकत्ता के छात्रों-युवाओं ने असाधारण साहस का परिचय दिया। जेलों में भी संघर्ष की और जेल तोड़ने की कई घटनाएँ घटीं। लेकिन अन्ततोगत्वा राज्यसत्ता के उन्नत सशस्त्र बलों और बेलगाम दमनतन्त्र को विजयी होना ही था। नवम्बर 1971 तक कलकत्ता का छात्र-युवा उभार कुचला जा चुका था।

छात्रों-युवाओं की इस अपरिमित क्रान्तिकारी ऊर्जा के अपव्यय और उभार की असफलता का बुनियादी कारण चारु मजुमदार की “वाम” दुस्साहसवादी लाइन थी। ‘वेस्ट बंगाल स्टेट स्टूडेण्ट्स’ कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ कम्युनिस्ट रेवोल्यूशनरीज़’ द्वारा प्रस्तुत मसौदा राजनीतिक कार्यक्रम में निहित जनदिशा की लाइन का 1970 के शुरू में ही परित्याग किया जा चुका था। नवजनवादी क्रान्ति की माओ की अवधारणा दीर्घकालिक क्रान्तिकारी संघर्ष, गाँवों में भूमि संघर्ष पर मुख्य बल और गाँवों द्वारा शहरों को घेरने पर बल देती थी, लेकिन चारु मजुमदार के पूर्ण समर्थन से कलकत्ता में शहरी छापामार युद्ध के नाम पर दस्तों की कार्रवाई और “सांस्कृतिक क्रान्ति” के अतिरेकपन्थी एजेण्डा को लागू किया गया। 1975 तक कलकत्ता की मुक्ति का हवाई सपना युवाओं के दिलो-दिमाग़ पर 1970-71 में हावी था। इसके विरुद्ध सुशीतल राय चौधुरी के अतिरिक्त दबे स्वर में सुनीति कुमार घोष ने भी आवाज़ उठायी थी, लेकिन चारु मजुमदार, सोरेन बसु और कलकत्ता ज़िला कमेटी ने इन आपत्तियों को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया। यही नहीं दस्तों की कार्रवाइयों को संचालित करने की न तो कोई स्पष्ट नीति थी, न ही कोई सुव्यवस्थित पार्टी-ढाँचा था। युवा कार्यकर्ताओं की विचारधारात्मक-राजनीतिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। उल्टे यदि कोई मार्क्सवादी क्लासिक्स का अध्ययन करता था तो पुस्तक पूजा की प्रवृत्ति का “शिकार” होने के लिए आलोचना और उपहास का पात्र बनता था। देश के विभिन्न हिस्सों में, और पश्चिम बंगाल में, जिस हद तक और जिन रूपों में भी क्रान्तिकारी किसान संघर्ष चल रहे थे, उनसे छात्रों-युवाओं के संघर्ष का कोई भी जुड़ाव या तालमेल नहीं था। कलकत्ता का छात्र-युवा आन्दोलन जब कुचला जा चुका था, उसके बाद चारु मजुमदार ने ‘लिबरेशन’ (जुलाई 1971-जनवरी 1972) में लिखा: “हम कलकत्ता और विभिन्न शहरों को अभी क़ब्ज़ा नहीं कर सकते और यह सम्भव भी नहीं है। इसलिए, शहरी इलाक़ों के पार्टी सदस्य सत्ता क़ब्ज़ा करने के संघर्ष में सीधे भागीदारी नहीं कर सकते” (‘ए नोट ऑन पार्टी’ज़ वर्क इन अर्बन एरियाज़’) ज़ाहिर है कि बिना किसी आलोचनात्मक समाहार के चारु मजुमदार अपनी पूर्व अवस्थिति से पलट रहे थे और छात्र-युवा उभार की विफलता की ज़िम्मेदारी से कतरा रहे थे। इसे अवसरवाद कहा जाये तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी।

यूँ तो 1971 के अन्त तक, “वाम” दुस्साहसवादी लाइन देश में जहाँ कहीं भी संगठित या छिटफुट ऐक्शन के रूप में लागू करने की कोशिश हुई, वह असफल हो गयी। लेकिन श्रीकाकुलम के बाद कलकत्ता के छात्र-युवा उभार के दौरान इसकी विफलता सबसे स्पष्ट और घातक रूप में सामने आयी। यह चारु मजुमदार की लाइन थी, जिसके चलते हज़ारों छात्रों-युवाओं की कुर्बानियाँ व्यर्थ हो गयीं, असीमित सम्भावनाओं से युक्त युवा ऊर्जा बेकार चली गयी और राजकीय दमनतन्त्र ने उसे ख़ून के दलदल में डुबो दिया।

शहरी मज़दूर वर्ग पर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी लहर का प्रभाव

1967 से लेकर 1971 तक पूरे भारत और विशेषकर बंगाल-बिहार के औद्योगिक मज़दूरों के बीच क्रान्तिकारी उभार की लहरें बार-बार उग्र रूप धारण करती रहीं। न केवल भाकपा, बल्कि नवगठित माकपा के संशोधनवादियों के भी बार-बार के नग्न-निर्लज्ज विश्वासघातों ने मज़दूरों के बड़े हिस्से के सामने इस सच्चाई को स्पष्ट कर दिया था कि अपनी तमाम भ्रामक और गरमागरम जुमलेबाज़ियों के बावजूद माकपा भी वस्तुतः संसदीय वामपन्थियों का एक नया ग़द्दार गिरोह ही है। ऐसे में मज़दूरों को एक क्रान्तिकारी लाइन पर लामबन्द करने के लिए परिस्थितियाँ अत्यधिक अनुकूल थीं और उनकी भारी संख्या स्वयं कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी लहर की ओर आकृष्ट हो रही थी, लेकिन “वाम” दुस्साहसवादी लाइन के आच्छादनकारी प्रभाव ने इस सुनहरे ऐतिहासिक अवसर को सहज ही गँवा दिया। मज़दूर संघर्ष स्वतःस्फूर्त हड़तालों और भौगोलिक रूप से सीमित दायरों वाले अल्पकालिक विद्रोहों के बाद विसर्जित हो गये। “वाम” दुस्साहसवाद की विनाशकारी परिणतियों ने बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियों की ट्रेड यूनियनों को यह अवसर दे दिया कि वे औद्योगिक मज़दूरों पर अपना उखड़ता प्रभाव फिर से स्थापित कर लें। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन के बारे में जो भी इतिहास-लेखन हुआ है, उसमें मज़दूर आन्दोलन पर उसके प्रभाव की चर्चा बहुत कम देखने को मिलती है। नक्सलबाड़ी किसान उभार से लेकर 1971 तक की अवधि के औद्योगिक मज़दूरों के जुझारू आन्दोलनों के उभार और विसर्जन का सिलसिला इतिहास का उपेक्षित और विस्मृतप्राय अध्याय है। यहाँ हम उस दौर की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं की सिलसिलेवार संक्षिप्त चर्चा करेंगे, ताकि यह समझा जा सके कि चारु मजुमदार की “वाम” संकीर्णतावादी लाइन ने भारत के मज़दूर आन्दोलन को कितनी क्षति पहुँचायी और किस प्रकार उसकी क्रान्तिकारी सम्भावनाओं का गला घोंटकर ट्रेडयूनियन आन्दोलन पर संशोधनवादियों के एकछत्र प्रभुत्व का रास्ता साफ़ कर दिया।

19 सितम्बर, 1968 को डाक-तार और रेलवे सहित पूरे देश के चालीस लाख केन्द्रीय कर्मचारी हड़ताल पर चले गये। केन्द्र और राज्यों की सरकारों ने हड़ताल को कुचलने के लिए निरंकुश दमनकारी रवैया अपनाया। दस हज़ार से अधिक कर्मचारी और मज़दूर बख़ार्स्त या निलम्बित कर दिये गये, इतने ही लोगों को जेलों में ठूँस दिया गया और दस मज़दूर पुलिस की गोलियों के शिकार हुए। संशोधनवादी नेताओं ने हड़ताल के दौरान तोड़फोड़, भितरघात और आत्मसमर्पण का जो रवैया अपनाया, उससे काफ़ी नुक़सान पहुँचा लेकिन इसका दूसरा नतीजा यह निकला कि मज़दूर आबादी के बीच माकपा के नये संशोधनवादियों की कलई भी काफ़ी हद तक उतर गयी। पश्चिम बंगाल में संशोधनवादियों के विश्वासघात के कारण हड़ताल पर ज़बरदस्त प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। हड़ताल को कुचलने के लिए केन्द्र सरकार द्वारा लागू काले अध्यादेशों की केरल की संयुक्त मोर्चा सरकार के “मार्क्सवादी” मुख्यमन्त्री नम्बूदिरिपाद ने कथनी में तो आलोचना की, लेकिन करनी में उन्हीं अध्यादेशों को लागू करते हुए उनकी सरकार ने हड़तालियों पर 207 मुक़दमे दर्ज किये, 233 लोगों को गिरफ़्तार किया तथा बड़े पैमाने पर उन पर बल प्रयोग भी किया। केन्द्रीय कर्मचारियों की इस हड़ताल के पहले 26 जुलाई 1968 को केरल सचिवालय के 700 कर्मचारियों ने अपनी माँगों को लेकर जब सामूहिक आकस्मिक अवकाश लिया तो नम्बूदिरिपाद की सरकार ने उन्हें कुचलने के लिए न केवल सशस्त्र पुलिस बल का सहारा लिया, बल्कि उनकी वेतन कटौती और ‘सर्विस ब्रेक’ का भी निर्देश जारी कर दिया। इसके भी पहले, मार्च के अन्त और अप्रैल के शुरू में कालीकट में मावुट स्थित बिड़ला के ग्वालियर रेयॉन मिल के मज़दूरों ने जब हड़ताल की थी तो सरकार ने पुलिस भेजकर उन्हें आतंकित करने और मालिकों के पक्ष में समझौते के लिए दबाव बनाने की कोशिश की।

19 सितम्बर 1968 की प्रतीकात्मक हड़ताल के बाद केन्द्रीय कर्मचारियों, मज़दूरों और डाक-तार विभाग के कर्मचारियों ने जब ‘नियमानुसार काम करने’ की रणनीति अपनाकर अपना संघर्ष जारी रखा तो संशोधनवादी पार्टियों के ट्रेडयूनियन नेता केन्द्र सरकार की मदद के लिए आगे आये। हरसम्भव तरीक़े से दबाव और भयादोहन के सहारे उन्होंने मज़दूरों-कर्मचारियों को क़दम पीछे खींचने के लिए मजबूर किया। 1967 में नक्सलबाड़ी किसान उभार को कुचलने में पूरी ताक़त झोंक देने वाली प.बंगाल की संयुक्त मोर्चे की सरकार ने मज़दूरों के प्रति भी खुला दमनकारी रवैया अपनाया। इससे बहुसंख्यक मज़दूर आबादी के सामने उनका चरित्र नंगा होता चला गया। माकपा और भाकपा के संशोधनवादियों को धता बताकर मज़दूर लगातार अपनी पहलक़दमी पर जुझारू आन्दोलन संगठित करने लगे और महत्वपूर्ण बात यही थी कि 1970 के अन्त तक ज़्यादातर आन्दोलनों में उन्होंने जीत हासिल की। पश्चिम बंगाल की संयुक्त मोर्चे की जिस सरकार में भाकपा और माकपा दोनों ही शामिल थे, उसके शासनकाल के दौरान, मार्च से सितम्बर 1967 के बीच राज्य में कुल 1,20,000 मज़दूरों की छँटनी हुई (‘युगान्तर’, 19 नवम्बर, 1967)। उपमुख्यमन्त्री ज्योति बसु ने बेशर्मी से यह बयान दिया कि वे हड़ताल और तालाबन्दी नहीं, बल्कि उचित समझौता चाहते हैं (‘स्टेट्समैन’, 6 अक्टूबर, 1967)। संशोधनवादियों के इन कुकृत्यों के चलते मज़दूरों की भारी आबादी स्वतः उनसे दूर होती जा रही थी। उन्नत चेतना वाले मज़दूर कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी धारा की ओर तेज़ी से आकृष्ट हो रहे थे, लेकिन 1968 के उत्तरार्द्ध तक एआईसीसीसीआर में “वाम” दुस्साहसवादी लाइन हावी हो चुकी थी जो ट्रेड यूनियन कामों को ही संशोधनवाद मानती थी और हर प्रकार की जनकार्रवाई के विरुद्ध थी। नतीजा यह हुआ कि समय रहते एक अनुकूलतम परिस्थिति का भी लाभ नहीं उठाया जा सका और एक ऐतिहासिक अवसर हाथ से निकल गया। उस समय के पूरे परिदृश्य और मज़दूर आन्दोलन के मूड-मिजाज़ को समझने के लिए केवल कुछ और घटनाओं का उल्लेख पर्याप्त होगा।

फ़रवरी, 1970 में दक्षिण-पूर्वी रेलवे में आकस्मिक हड़तालों और तोड़फोड़ की कई घटनाएँ घटीं। इन घटनाओं में सांगठनिक तौर पर माकपा (मा-ले) की कोई भूमिका नहीं थी, फिर भी ‘स्टेट्समैन’ ने अपनी एक रिपोर्ट में यह आशंका प्रकट की थी कि दक्षिण-पूर्वी रेलवे के कर्मियों के बीच कुछ “अतिवादी तत्वों” का प्रभाव बढ़ गया है जो विशेषकर राँची-जमशेदपुर बेल्ट में रेल संचालन को बाधित कर देना चाहते हैं। इन रेल मज़दूरों की संगठित शक्ति देश की अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त करने में कितनी प्रभावी हो सकती थी, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उस समय पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी रेलवे से ही देश का 60 प्रतिशत माल-परिवहन होता था तथा कलकत्ता, दुर्गापुर, आसनसोल, जमशेदपुर आदि अग्रणी औद्योगिक केन्द्रों को यही दोनों रेलवे जोड़ती थीं।

जुलाई, 1970 में उत्तर-पूर्वी सीमान्त रेलवे के मज़दूर और कर्मचारी आकस्मिक हड़ताल पर चले गये। वे सिलीगुड़ी पुलिस स्टेशन के प्रभारी की हत्या के आरोप में गिरफ़्तार लोगों की रिहाई की माँग कर रहे थे। सिलीगुड़ी रेलवे जंक्शन से शुरू हुई यह हड़ताल जल्दी ही दूसरे इलाक़ों में भी फैल गयी और उत्तर-पूर्वी भारत की पूरी रेल-व्यवस्था ठप्प हो गयी। रेल मन्त्री नन्दा द्वारा सेना लगाने की धमकी, सीमा सुरक्षा बल और ईस्टर्न फ़्रण्टियर राइफ़ल्स की मदद से रेलें चलाने की कोशिशों तथा भाकपा-माकपा के ट्रेड यूनियन मठाधीशों की जी-तोड़ कोशिशों के बावजूद हड़ताल जारी रही। डाक-तार विभाग और राज्य बिजली बोर्ड के कर्मचारियों तथा सिलीगुड़ी के छात्रों ने हड़ताल के साथ पूरी एकजुटता दिखायी। ‘स्टेट्समैन’ अख़बार ने 2 अगस्त के अपने सम्पादकीय में यह आशंका ज़ाहिर की कि हड़ताल का नेतृत्व सम्भवतः “भूमिगत अतिवादी” कर रहे हैं। अन्ततोगत्वा, ग्यारह दिनों तक चली यह हड़ताल तभी समाप्त हुई, जब सरकार ने घुटने टेकते हुए हड़ताली मज़दूरों की माँगें मान लीं।

जुलाई, 1970 में ही दक्षिण-पूर्वी रेलवे में भी एक बड़ी हड़ताल हुई। 26 जुलाई को आद्रा रेलवे स्टेशन पर पुलिस द्वारा कुछ रेल मज़दूरों की पिटाई के विरोध में आकस्मिक हड़ताल की शुरुआत हुई। आद्रा डिवीज़न से शुरू हुई इस हड़ताल में चक्रधरपुर और खड़गपुर डिवीज़नों के रेल मज़दूर भी शामिल हो गये और भारत के समूचे दक्षिण-पूर्वी हिस्से का रेल-संचालन अस्त-व्यस्त हो गया। सरकार के झुकने के बाद ही रेल मज़दूर काम पर वापस लौटे। पुनः 1 अगस्त, 1970 को भिलाई मार्शलिंग यार्ड के कुछ मज़दूरों की गिरफ़्तारी के विरोध में दक्षिण-पूर्वी रेलवे के बिलासपुर डिवीज़न के मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। 6-7 अगस्त को चक्रधरपुर, आद्रा, खर्दा रोड और खड़गपुर डिवीज़न के रेल मज़दूर भी हड़ताल में शामिल हो गये। यह हड़ताल भी तभी समाप्त हुई जब सरकार ने गिरफ़्तार मज़दूरों को रिहा करने की माँग मान ली।

मज़दूरों की ये सभी हड़तालें आर्थिक माँगों को लेकर नहीं थीं, बल्कि राजनीतिक प्रकृति की थीं। ये सभी हड़तालें स्थापित यूनियनों के नेतृत्व (जो बुर्जुआ और संशोधनवादी पार्टियों से सम्बद्ध थे) के विरुद्ध विद्रोह करके हुई थीं। इसके जवाब में ट्रेड यूनियनों के संशोधनवादी नेताओं ने बौखलाहट में जो क़दम उठाये, उनसे मज़दूरों की निगाहों के सामने उनका चरित्र और अधिक नंगा हुआ। भाकपा के ट्रेड यूनियन नेता इन्द्रजीत गुप्त ने मज़दूरों की आकस्मिक हड़तालों की बेशर्म आलोचना करते हुए सरकार को यह लिखित अण्डरटेकिंग दी कि वे भविष्य में मज़दूरों की ‘वाइल्डकैट स्ट्राइक्स’ को रोकने की हर मुमकिन कोशिश करेंगे। ज्योति बसु ने यह बयान दिया कि वे हड़ताल नहीं बल्कि सौहार्द्रपूर्ण समझौते के पक्ष में हैं। कलकत्ता के औद्योगिक मज़दूरों में संशोधनवादियों के विरुद्ध घृणा और आक्रोश का उफान तो और अधिक प्रचण्ड था। मज़दूर स्वतःस्फूर्त ढंग से भाकपा (मा-ले), कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी लहर और किसान संघर्षों के प्रति एकजुटता ज़ाहिर कर रहे थे। आवश्यकता बस इस बात की थी कि उन्हें एक सुनिश्चित क्रान्तिकारी जनदिशा के आधार पर संगठित किया जाता और ठोस कार्यभार बताया जाता, जो न हो सका। 1970 में उत्तरी कलकत्ता स्थित राज्य सरकार के उपक्रम सेण्ट्रल डेयरी में भी एक महत्वपूर्ण हड़ताल हुई। उक्त डेयरी के एक मज़दूर पर कलकत्ता से बाहर जाते समय माकपा के गुण्डों ने घातक हमला किया और बुरी तरह घायल करने के बाद उसे पुलिस को सौंप दिया। यह ख़बर मिलते ही डेयरी के सभी मज़दूर हड़ताल पर चले गये। हड़ताल तभी समाप्त हुई जब डेयरी का प्रबन्धन गिरफ़्तार मज़दूर को रिहा कराकर उसके साथियों के बीच ले आया। 1970 से लेकर 1971 के पूर्वार्द्ध तक कलकत्ता और आसपास के औद्योगिक इलाक़ों में, केजी डॉक्स से लेकर स्ट्रैण्ड रोड तक पूरे पोर्ट एरिया में, तारातला-हाइड रोड के क्षेत्र में तथा कलकत्ता ट्राम वे कम्पनी, गार्डेन रीच वर्क्स (भारत सरकार का रक्षा उत्पादन कारख़ाना) और काशीपुर गन एण्ड शेल फ़ैक्टरी (केन्द्र सरकार का उपक्रम) के मुख्यालयों पर – चारों तरफ़ लाल झण्डे लहराते देखे जा सकते थे। पुलिस यदि उन्हें उतारती भी थी तो मज़दूर उन्हें फिर लगा देते थे। पार्टी नेतृत्व से किसी निर्देश की प्रतीक्षा किये बिना मज़दूर स्थानीय भाकपा (मा-ले) कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में इस काम को अंजाम दे रहे थे। संशोधनवादी पार्टियों के ट्रेड यूनियन दफ्तर उजाड़ पड़े रहते थे। पुलिस उनकी चौकीदारी करती रहती थी। माकपा के गुण्डे पुलिस की मदद के साथ विद्रोही मज़दूरों और भाकपा (मा-ले) कार्यकर्ताओं पर अक्सर हमले करते थे और मज़दूर और मा-ले क़तारों द्वारा उनका पुरज़ोर प्रतिकार तथा जवाबी कार्रवाइयाँ भी होती रहती थीं। कलकत्ता के छात्र-युवा आन्दोलन में शहरी छापामार युद्ध के नाम पर सफाये और हथियार छीनने की लाइन के पूरी तरह से हावी हो जाने और राज्यसत्ता के दमन की बर्बरता चरम पर पहुँच जाने के पहले, जब सड़कों पर जनउभार जैसा माहौल था तब मज़दूरों और निम्न पूँजीवादी युवाओं के बीच जुझारू एकजुटता की मिसालें आये दिन देखने को मिलती थीं। उत्तर कलकत्ता स्थित काशीपुर के एसपी इंजीनियरिंग कम्पनी में लम्बे समय से तालाबन्दी थी। 9 अगस्त, 1970 को मालिकों ने पुलिस के साथ साँठगाँठ करके जब कारख़ाने से मशीनों को हटाने की कोशिश की तो भाकपा (मा-ले) कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में आसपास की झुग्गियों में रहने वाले मज़दूरों के साथ ही छात्रों-युवाओं की भारी संख्या मैदान में आ डटी। पुलिस द्वारा कई राउण्ड गोली चलाने के बाद भी मज़दूर और छात्र-युवा पीछे नहीं हटे और मालिकों का प्रयोजन सिद्ध न हो सका। अगस्त, 1970 के प्रारम्भ में जब समीर भट्टाचार्य नामक युवा कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी को पुलिस ने गिरफ़्तार किया और लॉकअप में यन्त्रणा देकर मार डाला तो तीन दिनों तक पूरे कलकत्ता के जनजीवन को ठप्प कर देने और सड़कों पर बहादुराना ढंग से पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों का शौर्यपूर्वक सामना करने में छात्रों-युवाओं के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर मज़दूरों की बहुत बड़ी संख्या डटी रही।

1970-71 के दौरान प-बंगाल और बिहार के राज्य बिजली बोर्डों और दामोदर घाटी निगम में लगातार कई हड़तालें हुईं। इनमें से चार बड़े पैमाने की हड़तालें थीं, जिनमें बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ हुई तथा संयन्त्र एवं पारेषण की व्यवस्था को क्षतिग्रस्त कर दिया गया। पुलिस को सन्देह था कि इन हड़तालों के पीछे “नक्सलवादी” सक्रिय हैं, जबकि सच्चाई यह थी कि इनमें भाकपा (मा-ले) नेतृत्व की कोई भूमिका नहीं थी। 20 जून, 1970 को दुर्गापुर स्थित हिन्दुस्तान स्टील प्लाण्ट के एक ठेकेदार ने जब पाँच मज़दूरों की छँटनी कर दी तो तत्काल ठेकेदार के सभी मज़दूरों ने प्लाण्ट के मैनेजर और एक अन्य अधिकारी का घेराव कर दिया। माकपा और एसयूसीआई के लोगों ने घेराव समाप्त करने की जीतोड़ कोशिशें कीं, लेकिन मज़दूरों ने उन्हें भगा दिया। फिर वे पुलिस लेकर आये, लेकिन पुलिस भी विफल रही। अन्ततः ईस्टर्न फ़्रण्टियर राइफ़ल्स के जवान तीन ट्रकों में भरकर आये और उन्होंने दोनों अधिकारियों को घेराव से बाहर निकाला। मज़दूरों का आन्दोलन फिर भी जारी रहा। आखि़रकार, प्रबन्धन को बिना शर्त सभी बख़ार्स्त मज़दूरों को काम पर वापस लेना पड़ा।

उपरोक्त विवरण के आधार पर 1967 से 1971 के दौरान, विशेषकर बंगाल में, और सामान्य तौर पर केरल, बिहार सहित भारत के अधिकांश औद्योगिक केन्द्रों में मज़दूरों में फैली व्यवस्था-विरोधी चेतना और संशोधनवादियों के ट्रेड यूनियनवाद-अर्थवाद के विरुद्ध विद्रोह की उनकी स्पिरिट का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 1970 तक “देहात आधारित पार्टी” के नेतृत्व में देहातों में छापामार संघर्ष के नाम पर सफाया अभियान पर ही पूरा ज़ोर देने के कारण एआईसीसीसीआर और फिर भाकपा(मा-ले) के नेतृत्व पर हावी चारु मजुमदार के “वाम” अतिरेकपन्थी गुट ने शहरी मज़दूरों के संघर्षों पर कोई ध्यान ही नहीं दिया। जनदिशा के समर्थक और शहरी मज़दूरों के बीच काम कर चुके असित सेन और परिमल दासगुप्त जैसे लोग तो पार्टी कांग्रेस के पहले ही निष्कासित किये जा चुके थे और हर प्रकार के जन संगठन बनाने, जनान्दोलन करने और खुले आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों को संशोधनवाद घोषित किया जा चुका था। कांग्रेस के ठीक पहले, मार्च 1970 में मज़दूर वर्ग के नाम अपने एक सन्देश में चारु मजुमदार ने उसका एकमात्र कार्यभार यह बताया कि उसे क्रान्ति के हरावल के रूप में आगे आकर गाँवों में सशस्त्र किसान संघर्ष का नेतृत्व करना चाहिए और भाकपा (मा-ले) के इर्द-गिर्द लामबन्द हो जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि सभी मज़दूर गाँवों में सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने नहीं जा सकते थे। इस तरह, चारु के हिसाब से, बहुसंख्यक औद्योगिक मज़दूरों की क्रान्ति में कोई भूमिका ही नहीं बनती थी। इसी महीने प्रकाशित औद्योगिक सर्वहारा के बीच काम करने वाले पार्टी कार्यकर्ताओं को सम्बोधित एक अन्य लेख में चारु मजुमदार ने मज़दूरों के बीच गुप्त पार्टी संगठन बनाने पर बल देते हुए लिखा कि पार्टी का काम ट्रेड यूनियनें संगठित करना नहीं है, लेकिन मज़दूरों द्वारा छेड़े गये हर संघर्ष को उसे प्रोत्साहन देना चाहिए। साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि संगठित पूँजीपति वर्ग के तालाबन्दी और छँटनी जैसे हमलों का मुक़ाबला अब हड़ताल जैसे हथियारों से नहीं किया जा सकता, संघर्ष अब बिना रक्तपात के, शान्तिपूर्ण तरीक़ों से विकसित नहीं हो सकता तथा मज़दूरों को अब घेराव, बैरिकेड संघर्षों, पुलिस और पूँजीपतियों के साथ टकराव और वर्ग शत्रुओं एवं उनके एजेण्टों के सफाये के ज़रिये अपने संघर्षों को आगे ले जाना होगा। चारु ने बार-बार इस बात पर ज़ोर दिया कि मज़दूरों को आर्थिक व रोज़मर्रे के संघर्षों में उलझाने के बजाय उनमें अपमानजनक गुलामी के विरुद्ध आत्मसम्मान की भावना जगानी होगी। ऐसा हो जाने पर वे साहसी, जुझारू क्रान्तिकारी बन जायेंगे। 1970 की रेल हड़तालों के काफ़ी समय बाद चारु मजुमदार ने उनका स्वागत करते हुए कहा था कि यह मज़दूर वर्ग पर युवा उभार का प्रभाव है और ये हड़तालें मज़दूर आन्दोलन में एक नये युग का सूत्रपात करती हैं, क्योंकि इनमें मज़दूर वर्ग किसी आर्थिक माँग के लिए नहीं बल्कि आत्मसम्मान के लिए लड़ रहा था।

1970-71 के दौरान, चारु मजुमदार के आह्वान पर अमल करते हुए दुर्गापुर और आसनसोल के कुछ औद्योगिक मज़दूरों ने छापामार दस्ते बनाकर हथियार छीनने, सफाया करने और फ़ैक्टरियों पर लाल झण्डा लगाने जैसी कुछ कार्रवाइयों को अंजाम भी दिया था, लेकिन ये कार्रवाइयाँ व्यापक मज़दूर वर्ग को जागृत या प्रभावित करने में विफल रहीं और ऐसे दस्ते जल्दी ही बिखर गये। 1970 के अन्त में कलकत्ता के छात्र-युवा उभार की सीमाओं को महसूस करते हुए चारु मजुमदार ने एक कामरेड को सम्बोधित एक पत्र में लिखा था कि यह सोचना सही नहीं होगा कि निम्न पूँजीपति वर्ग कभी डरेगा नहीं। जल्दी ही वह समय आयेगा जब केवल मज़दूर वर्ग ही हमारी हिफ़ाज़त कर पायेगा। उन्होंने यह भी लिखा कि केवल ‘ऐक्शंस’ राजनीतिक चेतना के स्तर को ख़ुद-ब-ख़ुद ऊपर नहीं उठा सकते और हमें शहरी मज़दूरों और ग़रीबों के बीच पार्टी इकाइयों के निर्माण को एक महत्वपूर्ण कार्यभार के रूप में हाथ में लेना होगा। ग़ौरतलब है कि यहाँ भी चारु मज़दूरों के बीच केवल पार्टी निर्माण पर बल दे रहे थे, जनकार्रवाइयों और ट्रेड यूनियन कार्यों को संगठित करने का उन्होंने कोई उल्लेख तक नहीं किया। 1971 के अन्त तक कलकत्ता का छात्र-युवा उभार बिखर चुका था और मज़दूर आन्दोलन का ज्वार भी उतार पर था और चारु मजुमदार भी यह स्वीकार कर चुके थे कि फ़िलहाल कलकत्ता को या किसी भी दूसरे शहर को क़ब्ज़ा कर पाना सम्भव नहीं है। उस समय एक बार फिर चारु मजुमदार ने ‘शहरी इलाक़ों में पार्टी के काम के बारे में’ (18 नवम्बर 1971) शीर्षक अपनी टिप्पणी में मज़दूर वर्ग के भीतर ज़्यादा से ज़्यादा पार्टी इकाइयाँ बनाने, उसकी राजनीतिक सचेतनता बढ़ाने और उनके बीच से पार्टी संगठनकर्ता तैयार करने पर बल देते हुए लिखा था: “मज़दूर वर्ग लगातार छोटे-बड़े अनेक संघर्ष कर रहा है। हमारी राजनीतिक शिक्षा उनके संघर्ष की मदद करेगी और मज़दूरों के व्यापक हिस्से को हमारी राजनीति की ओर खींच लायेगी। वर्ग सचेत मज़दूर तब स्वेच्छा से देहाती इलाक़ों में जाकर किसानों के सशस्त्र संघर्ष में भाग लेंगे। इसी तरह मज़दूर-किसानों की दृढ़ एकता स्थापित होगी।” ग़ौरतलब है कि यहाँ भी चारु मजुमदार की सोच में मज़दूर वर्ग के अपनी वर्गीय (आर्थिक और राजनीतिक) माँगों पर जनान्दोलन संगठित करने और ट्रेड यूनियन कार्यों में पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका का कोई स्थान नहीं है। मज़दूरों के संघर्षों में मदद करने के अतिरिक्त राजनीतिक शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य वह मज़दूरों को क्रान्तिकारी राजनीति के प्रभाव में लाना मानते थे, ताकि मज़दूर गाँवों में जाकर किसानों के सशस्त्र संघर्ष में भागीदारी कर सकें। स्पष्ट है कि यह नज़रिया मज़दूर आन्दोलन में पार्टी की भूमिका की लेनिनवादी समझदारी के एकदम उलट था। यह नज़रिया नरोदवादी आतंकवादियों के नज़रिये से काफ़ी हद तक मेल खाता था।

1967-71 के दौरान भारतीय बुर्जुआ व्यवस्था और संशोधनवादियों की घृणित अर्थवादी-ट्रेड यूनियनवादी राजनीति के विरुद्ध भारतीय मज़दूर वर्ग के सामूहिक मानस में विद्रोह की जो प्रलयंकारी भावना उमड़-घुमड़ रही थी और स्वतःस्फूर्त उग्र संघर्षों के रूप में फूटकर सामने आ रही थी, उसे भारत का कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन यदि अपने प्रभाव में न ले सका और एक ऐतिहासिक अवसर का लाभ उठाने से चूक गया तो इसका बुनियादी कारण “वाम” दुस्साहसवादी भटकाव था, जिसके सूत्रधार और नेता चारु मजुमदार थे।

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