‘रुग्ण लक्षणों’ का यह समय और हमारे कार्यभार
- सम्पादक मण्डल
2017 की शुरुआत में हम ‘दिशा सन्धान’ के चौथे अंक के साथ आपके बीच उपस्थित हैं। पिछले तीन अंकों को देश भर में पाठकों से उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया मिली है। लेकिन समय पर पत्रिका उपलब्ध कराने की प्रतिबद्धता पर अभी तक हम अमल नहीं कर पाये हैं और बार-बार इसके लिए क्षमा माँगने की बजाय हम यह प्रतिबद्धता फिर से दोहरायेंगे कि पाँचवाँ अंक आपके पास वक़्त पर पहुँचा सकें। जिस समय हम आपके बीच चौथे अंक को लेकर आये हैं, उसके बारे में अन्तोनियो ग्राम्शी का यह कथन कमोबेश लागू किया जा सकता है, ”संकट ठीक इस बात में अन्तर्निहित है कि जो पुराना है वह मर रहा है लेकिन नया जन्म नहीं ले पा रहा है; इस अन्तर्काल में तमाम किस्म के रुग्ण लक्षण जन्म लेते हैं।” कई मायनों में आज के समय के बारे में यह कथन सही बैठता है। विश्व पूँजीवाद अभूतपूर्व संकट में घिरा हुआ है जो कि पिछले लगभग एक दशक से जाने का नाम नहीं ले रहा है। यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है आज का संकट कई मामलों में पुराने संकटों से भिन्न है। यह कहीं ज़्यादा गहरा संकट है और इस संकट के बाद किसी वास्तविक आर्थिक तेज़ी का दौर नहीं आने वाला है, जैसा कि पिछली सदी के पूर्वार्द्ध के आर्थिक संकटों के बाद हुआ था। यह अन्तकारी संरचनात्मक संकट है। इस संकट के राजनीतिक नतीजे पिछले कुछ वर्षों में ज़्यादा अभिव्यक्त रूप में सामने आने लगे हैं।
विश्व पैमाने पर ब्रेक्जि़ट, अमेरिका में ट्रम्प का चुनाव, यूरोप के तमाम देशों में धुर-दक्षिणपन्थी प्रतिक्रिया और अर्द्ध-फ़ासीवादी राजनीति का उभार, सामाजिक-जनवाद और सुधारवाद की असफलता और उसका बेनकाब होना (मसलन, सिरिज़ा), फि़लिप्पींस में दुतेर्ते का सत्ता में आना, मध्य-पूर्व में, विशेषकर सीरिया में उस बर्बरता की झलकें मिलना, जिसकी बात रोज़ा लक्जे़मबर्ग ने की थी जब उन्होंने कहा था कि मानवता के पास दो ही रास्ते हैं, समाजवाद या बर्बरता, यह दिखला रहा है कि विश्व पूँजीवादी व्यवस्था आज किस स्थिति में है। वहीं भारत में फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा जनता के जीने के हक़ों और नागरिक और जनवादी अधिकारों पर लगातार किये जा रहे हमले, लगातार मज़दूरों के अधिकारों को योजनाबद्ध तरीक़े से छीना जाना, स्वतन्त्र चिन्तन करने वाले रैडिकल व जनपक्षधर बुद्धिजीवियों पर हमले और उनके लिए एक सतत् आतंक का माहौल क़ायम करना, देश में अन्धराष्ट्रवाद का माहौल तैयार करना और हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को राजकीय या ग़ैर-राजकीय तानाशाही द्वारा कुचला जाना वास्तव में व्यवस्था के राजनीतिक व आर्थिक संकट को ही दिखला रहा है। किसी भी सूरत में यह कहा जा सकता है कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने आर्थिक और राजनीतिक संकट में बुरी तरह घिरी हुई है और जनता के अधिकारों पर अपने हमलों को हताशा में बढ़ाती जा रही है।
अभूतपूर्व ढाँचागत आर्थिक संकट के कारण साम्राज्यवादी समीकरणों में परिवर्तन आ रहे हैं। एक ओर सीरिया में अलेप्पो में हार अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उनके द्वारा पाले गये आईएस, अलनुसरा जैसी इस्लामिक कट्टरपन्थी ताक़तों की निर्णायक हार है। अगर द्वितीय इराक़ युद्ध से मध्य-पूर्व में अमेरिकी वर्चस्व की स्थिति को देखें तो दावे से कहा जा सकता है कि यह बहुत अच्छी स्थिति नहीं है। अमेरिका के विकल्प मध्य-पूर्व में लगातार घट रहे हैं। सऊदी अरब और क़तर को छोड़ दें तो अमेरिका के पास इस समय मध्य-पूर्व में ज़्यादा विकल्प नहीं हैं। यह सच है कि तुर्की उसे बीच-बीच में मध्य-पूर्व में मदद पहुँचाता रहा है, लेकिन उसके साथ भी अमेरिका के रिश्ते एर्दोआन के तख्तापलट के प्रयास के बाद से तनावपूर्ण हैं और तुर्की ने विदेश नीति में कहीं ज़्यादा स्वतन्त्र और स्वायत्त बर्ताव करना शुरू कर दिया है। द्वितीय इराक़ युद्ध में अमेरिका का मक़सद ही यही था कि सद्दाम हुसैन का तख्तापलट कर कोई ऐसा शासन लाया जाये जो कि मध्य-पूर्व में सऊदी अरब और क़तर जैसी राजशाहियों पर अमेरिकी निर्भरता को कम कर दे। लेकिन इराक़ युद्ध के अन्त में अमेरिका एक तो बहुत बेआबरू होकर वहाँ से रुख़सत हुआ और वह भी एक ऐसे शासन के सत्ता में आने के साथ जो कि अमेरिकी साम्राज्यवादी हितों की बजाय ईरान, सीरिया और हिज़बुल्ला से क़रीबी रखता था। नतीजतन, अमेरिका ने दूसरा प्रयास सीरिया में किया कि असद की सत्ता को गिराया जा सके। वह प्रयास भी रूस, ईरान और हिज़बुल्ला के साथ आने और साथ ही चीन द्वारा इस युद्ध में रूसी धुरी का पक्ष लिये जाने के कारण बेकार हो चुका है। यह सच है कि असद की सत्ता एक दमनकारी सत्ता थी, लेकिन फिर भी वह कई पुरानी बाथिस्ट नीतियों को लागू करता था जिसमें कि कई कल्याणकारी नीतियाँ थीं। इसके कारण जब अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप और अलनुसरा व आईएस जैसी ताक़तों ने सीरिया में युद्ध की शुरुआत की तो जनता का बड़ा हिस्सा असद शासन के साथ खड़ा हुआ। रूसी हस्तक्षेप के पीछे निश्चित तौर पर रूसी साम्राज्यवाद के अपने हित हैं। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि रूस के प्रभावी हस्तक्षेप के समक्ष अमेरिका ज़्यादा कुछ नहीं कर पाया। सीरिया में ‘नो फ़्लाई ज़ोन’ बनाने, जिसका अर्थ होता रूस से सीधे युद्ध मोल लेना, के तमाम शोर के बावजूद अन्त में अमेरिकी साम्राज्यवाद को सीरिया में मुँह की खानी पड़ी और क़दम पीछे हटाने पड़े।
यह वस्तुगत और ऐतिहासिक तौर पर एक सकारात्मक है। आर्थिक और राजनीतिक संकट के कारण जब विश्व पूँजीवाद के साम्राज्यवादी समीकरणों में कोई बदलाव आता है, उसी समय क्रान्तिकारी हस्तक्षेप की सम्भावनाएँ भी जन्म लेती हैं। इस रूप में अमेरिकी साम्राज्यवाद की मध्यपूर्व में कमज़ोर होती पकड़ और रूसी-चीनी धुरी का मध्य-पूर्व में ज़्यादा ‘एसर्टिव’ होना और सीरिया, र्इरान और हिज़बुल्ला से मिलकर अमेरिकी सऊदी-क़तर गठजोड़ के समक्ष एक चुनौती खड़ा करना आने वाले समय में तमाम सम्भावनाएँ पैदा कर सकता है, जिसके बारे में अभी दावे से कुछ कहा नहीं जा सकता, सिवाय इसके कि यह परिवर्तन वस्तुगत तौर पर सकारात्मक होगा। इसका क़तई यह अर्थ नहीं कि एक साम्राज्यवाद की जगह दूसरे साम्राज्यवाद को चुना जाये। इसका केवल एक अर्थ है कि बढ़ती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा आने वाले समय में किसी क्रान्तिकारी ‘इवेण्ट’ की सुषुप्त सम्भावना-सम्पन्नताओं को जन्म दे सकता है। यह इतिहास में प्रगतिशील हस्तक्षेप के लिए एक ‘स्पेस’ तैयार कर सकता है। ठीक यही बात एक दूसरे सन्दर्भ में ट्रम्प के चुनाव के बारे में कही जा सकती है। सभी जानते हैं कि हिलेरी क्लिण्टन अमेरिकी कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग और साम्राज्यवाद की आम सहमति से चुनी हुई प्रतिनिधि थी। यह भी सभी ने देखा कि पूरा का पूरा कॉरपोरेट मीडिया किस तरह से हिलेरी क्लिण्टन के पक्ष में जनता की राय का निर्माण करने का काम कर रहा था। लेकिन इसके बावजूद क्लिण्टन चुनाव हार गयी। इसको देखकर एक मायने में ख़ुशी ही हुई क्योंकि हिलेरी क्लिण्टन जितनी बेशर्मी, रुग्णता और नग्नता के साथ साम्राज्यवादी हमलों और क़त्ले-आम को सही ठहराती थी, जिस बेशर्मी से झूठ बोलती थी और जिस ढिठाई के साथ अपने इन कुकर्मों के बेनकाब होने के बाद भी अपने ‘नियोकॉन’ एजेण्डे पर काम जारी रखती थी, उसे देखकर किसी भी व्यक्ति को घृणा होगी। यह महान अमेरिकी पूँजीवादी जनवाद का चमत्कार ही कहा जायेेगा कि हिलेरी क्लिण्टन के विकल्प के तौर पर उसने जनता के सामने एक धुर दक्षिणपन्थी, पैथोलॉजिकल तौर पर स्त्री विरोधी, प्रवासी विरोधी और अश्वेत विरोधी, श्वेत श्रेष्ठतावादी अर्द्धजोकर को रखा था, यानी डोनाल्ड ट्रम्प। इसमें कौन ज़्यादा बुरा है, यह बताना वाक़ई मुश्किल होगा। लेकिन इतना ज़रूर है कि अमेरिकी बड़े पूँजीपति वर्ग द्वारा चुना गया उम्मीदवार कॉरपोरेट मीडिया द्वारा उसके पक्ष में सतत् प्रचार के बावजूद हार गया। इसका कारण यह है कि संकट के दौर में पूँजीवादी व्यवस्था की वर्चस्व की मशीनरी और प्रणालियाँ सही तरीक़े से काम नहीं करतीं। ट्रम्प की जीत भी एक ऐसा ‘इवेण्ट’ है, जो कि प्रगतिशील ताक़तों के लिए अमेरिका में कुछ सुषुप्त सम्भावना-सम्पन्नताएँ पैदा करता है। निश्चित तौर पर, ट्रम्प की जीत के बाद अमेरिकी समाज में नस्लवादी शक्तियों की आक्रामकता स्वत:स्फूर्त रूप से बढ़ी है। वे आत्मविश्वास में हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनका उम्मीदवार जीत गया है। लेकिन ट्रम्प की जीत के पीछे मात्र नस्लवाद और पुरुष श्रेष्ठतावाद नहीं खड़ा था, बल्कि उस श्वेत मज़दूर वर्ग का असन्तोष भी खड़ा था जो कि संकट के दौर में उस संरक्षणात्मक आवरण से वंचित होता जा रहा है, जो कि शीर्ष साम्राज्यवादी देश में रहने के कारण उसे मिला हुआ था। आर्थिक संकट के दौर में बुश व विशेषकर ओबामा प्रशासन के दौरान शिक्षा, चिकित्सा और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्र में जो कल्याणकारी नीतियाँ अमेरिकी मज़दूर वर्ग के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से काे मिली हुई थीं, वे सब एक-एक करके छीनी जा रही थीं। एक युवा श्वेत अमेरिकी मज़दूर के लिए यह अभूतपूर्व था और उसे लगता था कि ऐसा कभी नहीं होगा। लेकिन यह सपना अब टूट रहा था। ऐसे में, एक असन्तुष्ट और मोहभंग का शिकार अमेरिकी मज़दूर वर्ग और निम्न मध्य वर्ग प्रकट हो चुका था जो कि डेमोक्रैट्स के बुर्जुआ उदारवादी जुमलों से ऊब चुका था। अमेरिकी वामपन्थी आन्दोलन इस असन्तोष और मोहभंग को प्रगतिशील दिशा देने की स्थिति में ही नहीं था। अमेरिकी वाम का बड़ा हिस्सा वैसे भी डेमोक्रैटिक पार्टी के ”लेफ़्ट विंग” की भूमिका अदा करने से ज़्यादा औकात नहीं रखता है। क्रान्तिकारी वाम अपनी अलग कमज़ोरियों के कारण इस वर्ग में आधार बना पाने की स्थिति में नहीं था। ऐसे में, संकट द्वारा पैदा की गयी इस सम्भावना को एक रोगात्मक (पैथोलॉजिकल) तौर पर धुर दक्षिणपन्थी रिपब्लिकन नेता ने सहयोजित कर लिया, यानी डोनाल्ड ट्रम्प ने। डोनाल्ड ट्रम्प के लिए बहुत से लोग ‘फ़ासीवादी’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, जो कि उसी पुरानी बचकानी प्रवृत्ति का परिचायक है जो कि हर धुर दक्षिणपन्थी बुर्जुआ प्रतिक्रिया को फ़ासीवाद की संज्ञा देता है। ट्रम्प के पीछे कोई प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन, कोई सुनियोजित व सुगठित फ़ासीवादी विचारधारा या कोई फ़ासीवादी काडर आधारित संगठन नहीं है। ट्रम्प एक धुर दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी है जिसने आर्थिक संकट के दौर में पैदा हुए मोहभंग की लहर पर सवारी करते हुए चुनाव में जीत हासिल की है। आगे ट्रम्प को अमेरिकी बुर्जुआ वर्ग के हितों के अनुसार एक हद तक अनुशासित भी होना पड़ेगा, जिसके चिन्ह और लक्षण अभी से ही दिखने लगे हैं। साथ ही, ट्रम्प अपनी घरेलू नीति में ज़्यादा ग़ैर-जनवादी और रूढि़वादी हो सकता है। लेकिन विदेश नीति में ट्रम्प कुछ मायनों में हिलेरी क्लिण्टन से अलग साबित हो सकता है, जिसके संकेत इस बात से मिलने लगे हैं कि वह रूस से कोई सीधा टकराव नहीं मोल लेना चाहता है। लेकिन साथ ही, हिलेरी क्लिण्टन के विपरीत, ट्रम्प ने इराक़ में दोबारा हस्तक्षेप करने की मंशा जताई है। आगे ट्रम्प क्या करेगा यह सही-सही बता पाना मुश्किल है क्योंकि अमेरिका बुर्जुआजी के लिए भी वह एक हद तक अज्ञात चर राशि है। लेकिन कुल मिलाकर यह ज़रूर कहा जा सकता है कि ट्रम्प के सत्ता में आने के साथ साम्राज्यवादी समीकरणों में बदलाव सुनिश्चित है। यह सम्भावित परिवर्तन एक बार फिर इतिहास के मौजूदा दौर में एक सम्भावना, एक ‘स्पेस’ को पैदा करेगा और इस रूप में सकारात्मक है कि यह पुरानी निरन्तरता और यथास्थिति के टूटने का एक लक्षण होगा।
हमारे देश में भी हालात तरल हैं और आने वाले समय की सम्भावनाओं की ओर इशारा कर रहे हैं। क्रान्तिकारी जमातों में हताशा के दौर में यह प्रवृत्ति होती है कि वे शासक वर्ग की ग़लतियों के पीछे भी कोई गहरी युक्तिपूर्ण चाल और ‘ग्रैण्ड ईविल डिज़ाइन’ खोजने की कोशिश करते हैं। मोदी द्वारा नोटबन्दी के मामले में भी यह बात लागू होती है। यह स्पष्ट है कि नोटबन्दी का क़दम मूलत: एक आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक क़दम था जिसमें कि मोदी को यह उम्मीद थी कि इस प्रकार के अचम्भित कर देने वाले और चौंका देने वाले क़दम से वह जनता का ध्यान अपनी नाकामियों से हटाकर अपनी एक मज़बूत नेता की छवि पर ले आयेगा जो साहसिक क़दम उठाने से घबराता नहीं है। 8 नवम्बर के तत्काल बाद मोदी का गुणगान करने वाले कॉरपोरेट मीडिया के अथक प्रयासों से कुछ समय के लिए ऐसा लग रहा था कि मोदी इसमें कामयाब हो सकता है। लेकिन यह पूरा क़दम इतनी मूर्खतापूर्ण तरीक़े से और बिना तैयारी के उठाया गया था कि एक माह बीतते-बीतते मोदी सरकार के प्रति असन्तोष बढ़ने लगा। यह सम्पादकीय टिप्पणी लिखे जाने के समय तक मोदी और भाजपा की प्रतिक्रियाओं में भी एक बदहवासी नज़र आने लगी है, जो कि उनके ‘अनसेटल’ होने को दिखला रही है। व्यापक जनता में यह स्पष्ट हो रहा है कि मोदी का क़दम जनविरोधी और विशेष तौर पर ग़रीब-विरोधी और मज़दूर-विरोधी है। इस स्थिति ने भारत में फ़ासीवाद-विरोधी मुहिम को सशक्त बनाने और मोदी सरकार और कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध जनसमुदायों को जागृत, गोलबन्द और संगठित करने की एक सम्भावना पैदा की है।
अन्य देशों में भी दक्षिणपन्थी सत्ताओं के उभार और सामाजिक-जनवाद और सुधारवाद की असफलता और ग़द्दारी के सामने आने के साथ ऐसी सम्भावनाएँ पैदा हो रही हैं। लेकिन हमारे देश में और अन्य देशों में भी ये सम्भावना-सम्पन्नताएँ सुषुप्त रूप में मौजूद हैं और इनके किसी प्रगतिशील दिशा में वास्तवीकरण के लिए क्रान्तिकारी ‘सब्जेक्टिविटी’ के हस्तक्षेप की आवश्यकता है। क्रान्ति की मनोगत शक्तियों की स्थिति ज़्यादातर स्थानों पर संकटग्रस्त है। इस संकट के कारणों पर हम पहले के अंकों में चर्चा कर चुके हैं लेकिन यहाँ उनका हम संक्षेप में जि़क्र करेंगे। इन कारणों में से प्रमुख हैं मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के क्रान्तिकारी उसूलों की अनुपयुक्त समझदारी, क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट व मज़दूर आन्दोलन में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद और विभिन्न प्रकार के ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद का असर, रैडिकल व जनपक्षधर बौद्धिक हलक़ों के बीच उत्तर-मार्क्सवादी विचार-सरणियों का प्रभाव और क्रान्ति के कार्यक्रम के प्रश्न पर ‘सेमी-फ़्यूडल सेमी-कलोनियल ऑर्थोडॉक्सी’ (अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक सैद्धान्तिकीकरण की कट्टरता और परम्परानिष्ठता) का असर और लेनिनवादी सांगठनिक उसूलों पर समझौता करने की प्रवृत्ति। जहाँ तक हमें जानकारी है, अलग-अलग रूपों में ये सभी या इनमें से कुछ विजातीय प्रवृत्तियाँ लगभग उन सभी देशों के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद हैं जिन्हें आज के दौर में साम्राज्यवाद और पूँजीवाद की ‘कमज़ोर कड़ी’ या ‘हॉट स्पॉट्स टर्निंग इण्टू फ़्लैश पॉइण्ट्स’ कहा जा सकता है। कुछ देशों में इन प्रवृत्तियों के विरुद्ध संघर्ष करने वाली क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट धाराएँ हैं, मगर उनका प्रभाव और विस्तार अभी बेहद सीमित है।
ऐसी स्थिति में इस बात की भी गुंजाइश है कि मौजूदा आर्थिक और राजनीतिक संकट के कारण पैदा हुई सम्भावना-सम्पन्नताओं को प्रगतिशील रूप से वास्तवीकृत कर पाने में ये ताक़तें सफल न हों या वक़्त रहते इसमें सक्षम न बन पायें। उस सूरत में, जैसा कि लेनिन ने कहा था, ‘इतिहास कभी स्थिर नहीं खड़ा रहता’, इस दौर में भी इतिहास स्थिर नहीं खड़ा रहेगा। ये सम्भावनाएँ बेकार जा सकती हैं और उस सूरत में इनका वास्तवीकरण प्रतिक्रियावादी और प्रतिक्रान्तिकारी तौर पर होगा। ऐसे में हम किसी और ज़्यादा प्रतिक्रियावादी दौर के साक्षी बनेंगे, जिसमें मज़दूर आन्दोलन पर और भी ज़्यादा बर्बर हमले कर उसका ध्वंस किया जायेेगा, जनवादी और नागरिक अधिकारों का नग्नता से हनन किया जायेेगा, साम्राज्यवादी युद्ध बर्बरता के नये रूपों को जन्म देगा और पूँजीवाद दुनिया को और समूची मानव सभ्यता को बर्बादी की कगार पर ले जायेेगा। हम निश्चित तौर पर इस क्रान्तिकारी आशावाद के हामी हैं कि ऐसी स्थिति के पैदा होने से पहले दुनिया के उन तमाम देशों में क्रान्ति का ज्वार उठेगा जो साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के शोषण, उत्पीड़न, लूट और दमन का सबसे बुरी तरह से शिकार हैं। ग्राम्शी ने जब कहा था कि ‘मैं बुद्धि से निराशावादी हूँ और इच्छाशक्ति से आशावादी” तो उनका अर्थ था कि दुनिया के विश्लेषण को करते समय हमें पूर्ण रूप से वस्तुपरक, मनोगतता से मुक्त, आवेगहीन होना चाहिए लेकिन इस विश्लेषण के तौर पर निकलने वाले नतीजों के आधार पर हमें मुश्किल और जटिल (असम्भव दिखने वाले) कार्यभारों को साहसिकता से हाथ में लेना चाहिए। आज भी इसकी ज़रूरत है, अन्यथा हम बुद्धि और तर्क के मामले में आशावादी और आज के दौर के मुश्किल और जटिल कार्यभारों का निर्वाह करने के मामले में निराशावादी सिद्ध होंगे।
दिशा सन्धान – अंक 4 (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित
बहुत बढ़िया लेख है। वर्तमान बर्बर होती जा रही मानवीय दशाओं के बीच मानवीय संभावनाओं को प्रस्तुत करता है।