Author Archives: Disha Sandhaan

‘दिशा सन्धान’ क्यों?

‘दिशा सन्धान’ कई मायनों में उसी परियोजना की निरन्तरता में है, जो हमने करीब दो दशक पहले ‘दायित्वबोध’ के साथ शुरू की थी। कुछ वर्ष पहले कुछ बाध्यताओं के कारण ‘दायित्वबोध’ का प्रकाशन रुक गया था। उसके बाद से ही हम गम्भीर सैद्धान्तिक मुद्दों पर केन्द्रित एक नयी पत्रिका के प्रकाशन की आवश्यकता महसूस कर रहे थे और कुछ देर से सही लेकिन हम इस नयी पत्रिका के पहले अंक के साथ प्रस्तुत हैं। read more

दिशा सन्धान, उद्धेश्य और स्वरूप [परिपत्र]

हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। पहले रूस में और पिफर चीन में संशोधनवादियों के सत्ता में आने के साथ ही अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर पूँजी की शकितयाँ निर्णायक तौर पर श्रम की शकितयों पर हावी हो चुकी थीं। प्रतीतिगत धरातल पर जो छदम समाजवादी सत्ताएँ बची हुर्इं थी, 1960 के दशक से पूर्वी यूरोप में उनके बिखरने की जो प्रक्रिया शुरू हुर्इ उसकी पराकाष्ठा 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के विघटन के रूप में सामने आ गयीं। read more

सर्वहारा अधिनायकत्व के बारे में चुने हुए उद्धरण / लेनिन

जो लोग केवल वर्ग संघर्ष को मानते हैं, वे अभी मार्क्सवादी नहीं है, वे सम्भवत: अभी बुर्जुआ चिन्तन और बुर्जुआ राजनीतिक के दायरे में ही चक्कर काट रहे हैं। मार्क्सवाद को वर्ग संघर्ष के सिद्धान्त तक ही सीमित करने के मानी हैं मार्क्सवाद की काट–छाँट करना, उसको तोड़ना–मरोड़ना, उसे एक ऐसी चीज़ बना देना, जो बुर्जुआ वर्ग को मान्य हो। मार्क्सवादी केवल वही है, जो वर्ग संघर्ष की मान्यता को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की मान्यता तक ले जाता है। मार्क्सवादी और एक साधारण छोटे (और बड़े) बुर्जुआ के बीच सबसे गम्भीर अन्तर यही है। यही वह कसौटी है जिस पर मार्क्सवाद की वास्तविक समझ और मान्यता की परीक्षा की जानी चाहिए।

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पूँजीवाद और मज़दूरों का प्रवास

जब मज़दूर आन्दोलन कमज़ोर होता है तो शासक वर्ग मज़दूरों को भाषा, जाति, धर्म, संस्कृति आदि के आधार पर बाँटने में कामयाब रहते हैं, जैसा कि आज के समय में हो रहा है। मगर पूँजीवाद अपने ही तर्क से अपनी ही जरूरतों से दुनिया भर के मज़दूरों को एकजुट भी कर रहा है। यह अपनी कब्र खोदने वालों को पैदा कर रहा है और उन्हें भाषा, नस्ल, राष्ट्रीयता के किसी भेद के बगैर एक ही जैसी जीवन परिस्थितियों में धकेलता है। विश्व पूँजीवाद के केन्द्रों पर इकट्ठा हो रहे ये आधुनिक समय के उजरती गुलाम एक दिन अपनी एकता का वास्तविक आधार पहचानेंगे, और पूँजीवाद को उसकी कब्र में पहुँचा देंगे। आज खुद पूँजीवाद ने ही इसकी पहले किसी भी समय से अधिक पुख्ता ज़मीन तैयार कर दी है।

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