नक्सलबाड़ी का क्रान्तिकारी जन-उभार एक ऐतिहासिक विस्फोट की तरह घटित हुआ ज़िसने भारतीय शासक वर्ग के प्रतिक्रियावादी चरित्र और नीतियों को एक झटके के साथ नंगा करने के साथ ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) सहित संशोधनवाद और संसदमार्गी वामपन्थ के विश्वासघाती जन-विरोधी चरित्र को उजागर करते हुए भारत के श्रमजीवी जनसमुदाय को यह सन्देश दिया कि सर्वहारा क्रान्ति के हरावल दस्ते के निर्माण एवं गठन के काम को नये सिरे से हाथ में लेना होगा। नक्सलबाड़ी के तत्काल बाद, सर्वहारा वर्ग की एक अखिल भारतीय पार्टी के गठन की दिशा में तूफ़ानी सरगर्मियों के साथ एक नयी शुरुआत हुई, लेकिन जल्दी ही यह नयी शुरुआत “वामपन्थी” आतंकवाद के भँवर में जा फँसी। तमाम घोषणाओं और दावों के बावजूद, कड़वा ऐतिहासिक तथ्य यह है कि देश स्तर पर सर्वहारा वर्ग की एक एकीकृत क्रान्तिकारी पार्टी नक्सलबाड़ी के उत्तरवर्ती प्रयासों के परिणामस्वरूप वस्तुतः अस्तित्व में आ ही नहीं सकी। 1969 में ज़िस भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मा-ले) की घोषणा हुई, वह पिछले सैंतीस वर्षों से कई ग्रुपों और संगठनों में बँटी हुई, एकता और फूट के अनवरत सिलसिले से गुजरती रही है। नक्सलबाड़ी की मूल प्रेरणा से गठित जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन भाकपा (मा-ले) में शामिल नहीं हुए थे, उनकी भी यही स्थिति रही है। इन सभी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठनों के जिस समूह को कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शिविर कहा जाता रहा है, उनमें से कुछ आज भी “वामपन्थी” दुस्साहसवादी निम्न-पूँजीवादी लाइन के संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण को अमल में ला रहे हैं, कुछ दक्षिणपन्थी सिरे की ओर विपथगमन की प्रक्रिया में हैं तो कुछ सीधे संसदमार्गी वामपन्थियों की पंगत में जा बैठे है, कुछ का अस्तित्व बस नाम को ही बचा हुआ है तो कुछ बाक़ायदा विसर्जित हो चुके हैं और कुछ ऐसे भी हैं जो नववामपन्थी “मुक्त चिन्तन” की राह पकड़ कर चिन्तन कक्षों में मुक्ति के नये सूत्र ईजाद कर रहे हैं। read more