सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पहली किस्त)

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पहली किस्त)

  • अभिनव सिन्हा

I. प्रस्तावना

सोवियत समाजवादी प्रयोगों की नये सिरे से व्याख्या क्यों? बहुत से समकालीन विचारक, जैसे कि नववामपन्थी व उत्तर-मार्क्सवादी चिन्तक, सोवियत समाजवाद को इतिहास को हमेशा के लिए बन्द हो चुका अध्याय मानते हैं; कुछ अन्य सोवियत समाजवाद को एक दुर्गति/विपदा में समाप्त हुए प्रयोग के रूप में ख़ारिज कर देते हैं और 21वीं सदी में नये किस्म के समाजवाद/कम्युनिज़्म की बात कर रहे हैं। उनका मानना है कि सोवियत संघ के समाजवाद का ज़िक्र भर करने से नयी सदी की कम्युनिस्ट परियोजनाएँ दूषित हो जायेंगी! ऐसे सट्टेबाज़, नववामपन्थी और उत्तर-मार्क्सवादी विचारकों व दार्शनिकों को छोड़ भी दिया जाय, तो मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर ही ऐसी प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं, जो सोवियत समाजवाद के आलोचनात्मक विवेचन की ज़रूरत को नहीं मानती हैं, या फिर इसे एक हल हो चुका प्रश्न मानती हैं। जो सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के विश्लेषण को एक हल हो चुका प्रश्न मानते हैं, उनमें दो किस्म के लोग हैं।

एक वे, जो कि मानते हैं सोवियत समाजवाद के दौरान जो ग़लतियाँ हुईं वे आकस्मिक किस्म की थीं, या इसलिए हुईं क्योंकि समाजवादी प्रयोग का कोई उदाहरण पहले से उसके सामने मौजूद नहीं था। वे उन राजनीतिक-विचारधारात्मक त्रुटियों की ओर कोई ध्यान नहीं देते जो पार्टी में मौजूद थीं और जिनके ख़िलाफ़ लेनिन ने अपने समय में संघर्ष चलाया था, और स्तालिन ने भी आनुभविक और लाक्षणिक तौर पर उस संघर्ष को जारी रखा था। वे सभी ग़लतियों को वस्तुगतता के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं और इसलिए किसी गम्भीर आलोचनात्मक विश्लेषण की तरफ़ नहीं जाते। दूसरी ओर, कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर ही कुछ ऐसे लोग भी हैं जो बोल्शेविक पार्टी की आलोचना का काम हाथ में लेने का दावा करते हैं, लेकिन अफसोसनाक तरीके से वे ठीक उन्हीं चीज़ों के लिए बोल्शेविक पार्टी की आलोचना करते हैं, जिनके लिए एक सही सर्वहारा दृष्टिकोण से बोल्शेविक पार्टी की प्रशंसा की जानी चाहिए; कि एक आत्यन्तिक रूप से प्रतिकूल दौर में, भयंकर प्रतिकूल परिस्थितियों में बोल्शेविक पार्टी ने आन्तरिक संकटों और बाह्य दबावों व ख़तरों को झेलते हुए ऐसे शानदार ऐतिहासिक प्रयोग किये, जिनकी पूरे मानव इतिहास में मिसाल नहीं मिलती। इस दूसरे किस्म के लोगों में कुछ ऐसे हैं जो बोल्शेविक पार्टी पर प्रतिस्थापनवाद (सब्स्टिट्यूशनिज़्म) का आरोप लगाते हैं, कुछ अन्य उसके भीतर मौजूद नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्जुआ विरूपताओं के कारण स्तालिन काल में ही उसके एक पतित पार्टी बन जाने की बात करते हैं। कुछ का मानना है कि लेनिन के काल में ही पार्टी एक नौकरशाहाना बुर्जुआ पार्टी में तब्दील हो गयी थी और स्वयं लेनिन इस विचलन के शिकार थे, तो कुछ का मानना है कि यह सब स्तालिन काल में हुआ।

इस दूसरी किस्म में काफ़ी वैविध्य है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे! लेकिन इन दोनों किस्मों में एक बात साझी हैः दोनों के लिए सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों का प्रश्न एक हल (सेटेल्ड) हो चुका प्रश्न है। पहली किस्म के लोग इसे लगभग पूर्णता में अपनाते हुए हल मानते हैं तो दूसरी किस्म के लोग इसे लगभग पूर्णता में ख़ारिज करते हुए हल मानते हैं, हालाँकि इस किस्म में कई ऐसे भी हैं, जो दिखावटी तौर पर सोवियत समाजवादी प्रयोग की महानता के बारे में कुछ कथन अपने सारे गाली-गलौच के अन्त में चस्पाँ कर देते हैं। ऐसे में, सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन की बात करने की क्या प्रासंगिकता है? हम इस सवाल का जवाब देते हुए ही शुरुआत करेंगे, क्योंकि उद्देश्य के कथन और औचित्य-प्रतिपादन के बिना कोई क्रान्तिकारी-वैज्ञानिक विश्लेषण सही तरीके से शुरू नहीं हो सकता।

II. वर्तमान संक्रमणकाल के असमाधित प्रश्न और सोवियत समाजवादी प्रयोग और उसके इतिहास के आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन की जारी प्रासंगिकता

1) संक्रमण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमिः निराशा के दौर का अन्त और आशा के उत्स

हम एक संक्रमणकाल में जी रहे हैं। 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के औपचारिक पतन के साथ पूँजीवादी विजयवाद का जो दौर शुरू हुआ था, वह बहुत पहले ही समाप्त हो चुका है। वास्तव में, यह विजयवाद एक दशक भी नहीं चल सका था। 1997 में एशियाई मौद्रिक संकट के साथ पूँजीवादी संकट का जो दौर शुरू हुआ वह आज तक थम नहीं सका है। लेकिन 1990 के ठीक बाद विचारधारा और राजनीति की दुनिया में पूँजीवादी विचारकों ने ‘पूँजीवाद की अन्तिम विजय’, ‘उदार बुर्जुआ जनवाद की अन्तिम विजय’ और, चूँकि उनके अनुसार अब मानव इतिहास को गुणात्मक रूप से किसी नये चरण में नहीं जाना था, इसलिए ‘इतिहास के अन्त’, ‘विचारधारा के अन्त’, ‘कविता के अन्त’ आदि की घोषणाएँ करनी शुरू कर दी थीं। फ्रांसिस फुकुयामा ने अपनी पुस्तक दि एण्ड ऑफ हिस्ट्री एण्ड दि लास्ट मैन में उदार बुर्जुआ जनवाद को इतिहास का अन्त और तार्किक चयन करने वाले उदार बुर्जुआ नागरिक/व्यक्ति को अन्तिम मनुष्य करार दिया था। दरअसल, पूँजीवादी विचारकों ने अन्त की विचारधारा के कुछ शुरुआती संस्करण 1960 के दशक से ही बनाने शुरू कर दिये थे जो डेनियल बेल, रोस्तोव और आरों के उत्तर-औद्योगिक समाज और ल्योतार के ‘उत्तरआधुनिक स्थिति’ के सिद्धान्त के रूप में सामने आने लगे थे, और यह कोई इत्तेफ़ाक नहीं था। 1956 में सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी की बीसवीं कांग्रेस में ख्रुश्चेव ने स्तालिन पर जमकर कीचड़ उछाला और संशोधनवाद का रास्ता अख्‍त़ियार किया। 1950 के दशक के अन्त तक शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व और शान्तिपूर्ण प्रतिस्पर्द्धा के सिद्धान्त आने लगे थे और सोवियत संघ का समाजवाद के रास्ते से पूँजीवाद के रास्ते पर संक्रमण स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगा था। दुनिया की कई कम्युनिस्ट पार्टियों और कम्युनिस्ट विचारकों को अभी यह यथार्थ शायद नहीं दिख रहा था और वे ‘वास्तव में अस्तित्वमान समाजवाद’ आदि जैसे सिद्धान्त दे रहे थे, लेकिन पूँजीवादी थिंक टैंकों की समझ में यह बात आ रही थी कि यह समाजवादी प्रयोगों की पराजय है। और यही वक्त था जब एक ओर तो कई निराश बुद्धिजीवियों ने अपनी हताशा और संशयवाद में उत्तरआधुनिक सिद्धान्तों की रचना की और साथ ही दूसरी ओर कई सचेतन तौर पर शासक वर्ग की चाकरी में लगे भाड़े के पूँजीवादी बुद्धिजीवियों ने भी ऐसे सिद्धान्तों की रचना की। 1960 के दशक में आये ये सिद्धान्त ही उत्तरआधुनिकतावादी विचारसरणियों की शुरुआत थे। यहाँ हम 1968 के जनउभार की इन तमाम परिवर्तनों में भूमिका और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के इन उत्तरआधुनिकतावादियों द्वारा हस्तगतीकरण (एप्रोप्रियेशन) पर विस्तार में नहीं जा सकते। लेकिन यह स्पष्ट है कि उत्तरआधुनिकतावादी विचारसरणियों के ये तमाम शुरुआती संस्करण 1990 के बाद और ज़्यादा खुले और नंगे रूप में दुनिया के सामने रखे जाने लगे। तमाम किस्म की उत्तरआधुनिक विचार-सरणियों का बाज़ार अचानक गर्म हो गया। इसकी तुलना अखबार के दफ्त़र में पहले से मौजूद प्रसिद्ध लोगों के मृत्युलेखों से की जा सकती है। जैसे ही ये प्रसिद्ध लोग मरते हैं, वैसे ही उनके मृत्यु की तात्कालिक स्थितियों से जुड़ी सूचनाओं को ऊपर जोड़कर अखबार इन मृत्युलेखों को छाप देते हैं! उसी प्रकार समाजवाद और मार्क्सवाद की मृत्यु से जुड़े मृत्युलेख बुर्जुआज़ी के विचारधारात्मक वर्चस्व की मशीनरी ने शीत युद्ध के गति पकड़ने (यानी 1960 के दशक) के साथ ही लिखने शुरू कर दिये थे! 1956 में सोवियत संघ में संशोधनवाद की विजय के बाद उसके पूँजीवादी रास्ते को अख्‍त़ियार करने, सोवियत संघ के राज्य पूँजीवाद के दायरे में पूँजी संचय के संकट के जन्म लेने, गोर्बाचोव के “सुधारों” के शुरू होने के साथ इन मृत्युलेखों में नये-नये विवरण जुड़ते गये और 1990 में औपचारिक तौर पर सोवियत संघ में “लाल झण्डे” के गिरने के साथ, साम्राज्यवादी सूचना तंत्र ने इन मृत्युलेखों की ‘ब्रॉडकास्टिंग’ शुरू कर दी! लेकिन इतिहास स्वयं ही दिखला देता है कि ये मृत्युलेख नकली लाल झण्डे, नकली समाजवाद और संशोधनवाद के मृत्युलेख थे! जो पूँजीवादी विजयवाद सोवियत संघ के विघटन के साथ शुरू हुआ, वह ऐतिहासिक-राजनीतिक तौर पर अनुपयुक्त (मिस्प्लेस्ड) था। लेकिन फिर भी इस पूँजीवादी विजयवाद ने कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से और अकादमिक जगत पर गहरा असर डाला।

राजनीति से लेकर अकादमिक जगत तक में इस तरह की ‘उत्तर-’ विचारसरणियों की फेरियाँ सज गयीं, जो वही दावा ज़्यादा “दार्शनिक” और “विचारधारात्मक” तौर पर सुसूचित व सुसज्जित रूप में कर रही थीं, जो कि ‘रैण्ड कारपोरेशन’ के भाड़े के बुद्धिजीवी फुकुयामा ने भोंड़े शब्दों में किया था। इन ‘उत्तर-’ विचारसरणियों का यह दावा था कि क्रान्ति, परिवर्तन, वर्ग आदि की बात करना महाख्यानों के राज्य में विचरण करना है और महाख्यानों का दौर बीत चुका है; अब छोटे-छोटे आख्यानों का दौर है, खण्डों के जश्न मनाये जाने का दौर है, अलग-अलग अस्मिताओं को परकीकृत कर, उन्हें अनालोचनात्मक तौर पर महिमा-मण्डित करने का दौर है। मिशेल फूको जैसे लोग कहने लगे कि सत्ता का सामूहिक प्रतिरोध व्यर्थ है। क्योंकि हर सामूहिकता (यहाँ विशेष तौर पर निशाना वर्ग पर था) सार्वभौमिकता पर निर्भर करती है, और हर प्रकार का सार्वभौम (यूनीवर्सल) वास्तव में दमनकारी होता है। यदि वर्ग चेतना और वर्ग एकजुटता के आधार पर पूँजीवाद का विरोध किया जाता है, उसके ख़िलाफ़ क्रान्ति की जाती है, तो अन्त में वह भी एक प्रकार की सत्ता को जन्म देगा और यह सत्ता भी दमनकारी होगी! (फूको यह नहीं बताता कि किसका दमन और किसके लिए दमन! क्योंकि निश्चित तौर पर समाजवादी राज्य भी एक राज्यसत्ता ही होगी और इस रूप में निश्चित तौर पर वह एक दमन का उपकरण होगी। लेकिन अगर इस सवाल को ही गोल कर दिया जाय कि किसके लिए दमन, किसका दमन और किसके द्वारा दमन तो किसी बात का कोई अर्थ नहीं रह जाता।) इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था और समाज के शोषण और उत्पीड़न के प्रतिरोध का रास्ता है कि व्यक्ति (इण्डिविजुअल) इसके द्वारा स्थापित हर सार्वभौम, मानक (नॉर्म), सामान्यता के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत तौर पर विद्रोह करे! यह विद्रोह समलैंगिकता के रूप में हो सकता है, ट्रांसवेस्टाइट और ट्रांसजेण्डर बनकर हो सकता है, वगैरह। यही फूको की क्वियर थियरी का मर्म है। इस सारे विश्लेषण से सिर्फ़ यह ग़ायब था कि दमन कौन कर रहा है और कौन उसे झेल रहा है, सत्ता किसकी है और शासित कौन है, यानी कि वर्ग विश्लेषण। जाहिर है, कि यहाँ निशाना मार्क्सवाद था। इसी प्रकार की उत्तरआधुनिक विचारसरणियों (जिनके विकास में देरीदा, स्पिवाक, एडवर्ड सईद आदि जैसे लोगों का योगदान अहम था) का बाज़ार 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में ख़ास तौर पर गर्म हो गया।

भारत में इन बीमार पूँजीवादी विचार-सरणियों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे आशीष नन्दी और सबऑर्ल्टन स्टडीज़ के बुद्धिजीवी जैसे कि पार्थ चटर्जी, दीपेश चक्रवर्ती आदि जैसे लोग। हिन्दी जगत में बिना पढ़े और बिना समझे इन विचार-सरणियों की राह पकड़ने का काम सुधीश पचौरी जैसे लोग कर रहे थे, जो बस इतना जानते थे कि ये विचार-सरणियाँ इस समय चलन में हैं। आजकल हिन्दी जगत में यही काम कुछ बुद्धिजीवी कर रहे हैं जो कि सबऑल्टर्न स्टडीज़ के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहे हैं और अस्मितावादी विमर्श में मगन हैं। अब यह बात अलग है कि सबऑल्टर्न इतिहास लेखन को अब कई सबऑल्टर्न स्टडीज़ के ही सदस्य एक चुकी हुई और असफल परियोजना मानते हैं, जो शुरुआत में मार्क्सवादी इतिहासलेखन में कठमुल्लावाद और अपचयनवाद के ‘करेक्टिव’ के तौर पर शुरू होकर, एडवर्ड सईद के ‘भाषाई मोड़’ पर फिसलकर गिर गयी।

खै़र, 1990 के दशक के पूर्वार्द्ध में ये उत्तरआधुनिकतावादी बुद्धिजीवी यह दावा कर रहे थे कि वे पश्चिम की वैश्विक प्रभुत्व की परियोजना (नाम लेकर कहें तो प्रबोधन की परियोजना जिसे वे पश्चिम का ऐतिहासिक षड्यन्त्र कहते हैं) पर हमला कर रहे थे और ऐसा करते हुए वे ‘प्राच्य मासूमियत’ (आशीष नन्दी का ओरियेण्टल इनोसेंस, हालाँकि इस ओरियेण्टल इनोसेंस का ज़ायका उन्हें हाल ही में जयपुर साहित्यिक उत्सव में मिल गया है!) को बचाने, खण्डित अस्मिताओं (पार्थ चटर्जी) का जश्न मनाने के लिए दीवाने हुए जा रहे थे! इन लोगों का लक्ष्य भी समूची ‘प्रबोधन की परियोजना’, ‘आधुनिकता की परियोजना’ (क्या ऐसी कोई एकाश्मीय परियोजना है?) पर निशाना साधने के नाम पर वास्तव में मार्क्सवाद के विज्ञान पर निशाना साधना था, और ‘प्राच्य मासूमियत’ की रक्षा करने के पागलपन में एक दौर में ये लोग भारत में हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक फासीवादियों तक के पक्ष में जा खड़े हुए थे!

यह समझना ज़रूरी है कि ‘आधुनिकता’ की किसी एकाश्मीय परियोजना की बात करना ही बेमानी है। मार्क्स और एंगेल्स ने प्रबोधन की पूरी परियोजना की द्वैधता को समझा था। इसे समझना न सिर्फ़ उत्तरआधुनिकतावादियों के उथले तर्कों के खण्डन के लिए ज़रूरी है, बल्कि इसलिए भी ज़रूरी है कि आजकल कई कथित मार्क्सवादी इन उत्तरआधुनिकतावादियों का खण्डन करते हुए दूसरे छोर पर जा खड़े हुए हैं, और सर्वहारा क्रान्ति से पहले ही ‘आधुनिकता और प्रबोधन की परियोजना’ को भारत में पूरा करने (या पूरा होने देने!) की बात कर रहे हैं। उनके अनुसार इस परियोजना के पूरा हुए बगै़र भारत में सर्वहारा क्रान्ति के कार्यों को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। जब तक आधुनिकता की परियोजना को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता तब तक ऐसे देशों में जहाँ के जनसमुदाय ‘सर्वसत्तावादी जनसमुदाय’ (टोटैलिटैरियन कम्युनिटीज़) हैं, सर्वहारा क्रान्ति के एजेण्डे पर आगे नहीं बढ़ा जा सकता। वे तब तक के लिए क्रान्ति के कार्यभारों के लिए स्थगन प्रस्ताव पेश कर रहे हैं! लेकिन ऐसे लोग वास्तव में उत्तरआधुनिकतावादियों के ‘ट्रैप’ में गिर रहे हैं क्योंकि उन्होंने ही आधुनिकता और प्रबोधन की परियोजना के बारे में इस तरह की एकाश्मीयतापूर्ण और सजातीयतापूर्ण सोच पेश की थी (मिसाल के तौर पर, भारत में 1986 के बाद का सबऑल्टर्न स्टडीज़), बस फर्क यहाँ यह है कि उनके लिए यह परियोजना दमनकारी और शैतानी थी, और भारत की जनता के पिछड़ेपन से नाराज़ कुलीन वाम बुद्धिजीवियों के लिए यह परियोजना पूर्णतः मुक्तिदायिनी है।

इन उत्तरआधुनिकतावादियों द्वारा प्रबोधन और आधुनिकता की आड़ में मार्क्सवाद को निशाना बनाया जाना कोई संयोग नहीं था। पूरी दुनिया में उत्तरआधुनिक विचारधारा और राजनीति दक्षिणपन्थ के पक्ष में जाकर खड़ी हो रही थी। कहीं यह दक्षिणपन्थ नस्लवादी फासीवाद के तौर पर प्रकट हो रहा था, कहीं प्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ़ अन्धराष्ट्रवादी उन्माद के रूप में प्रकट हो रहा था, कहीं जातीयतावादी (एथनिक) फासीवाद के रूप में प्रकट हो रहा था तो कहीं धार्मिक कट्टरपन्थी फासीवाद के रूप में प्रकट हो रहा था। सुमित सरकार ने अपनी प्रशंसनीय पुस्तकों बियॉण्ड नेशनलिस्ट फ्रेम्स और राइटिंग सोशल हिस्ट्री में स्पष्ट रूप से दिखलाया है कि सबऑल्टर्न स्टडीज़ का पूरा प्रोजेक्ट किस तरह से भारत में दक्षिणपन्थी, धार्मिक कट्टरपन्थी, पितृसत्तावादी, सवर्णवादी और हिन्दुत्ववादी फासीवादी ताक़तों के साथ जाकर खड़ा हो गया है, चाहे मार्क्सवादी इतिहासलेखन की आलोचना करते हुए उसकी शब्दावली कितनी ही आमूलवादी क्यों न रही हो, और मार्क्सवाद से भी ‘ज़्यादा रैडिकल’ किसी विश्लेषण-पद्धति के लिए उसकी चीख़-चिल्लाहट कितनी ही कानफाड़ू क्यों न रही हो! अन्य असहमतियों को छोड़ भी दें, तो मार्क्सवादी चिन्तक फ्रेडरिक जेम्सन ने उत्तरआधुनिकतावाद को ठीक ही नाम दिया है – वृद्ध, बीमार, मरणासन्न, और मानवद्रोही पूँजीवाद का सांस्कृतिक तर्क।

राजनीतिक तौर पर उत्तरआधुनिकतावादी दर्शन की अभिव्यक्ति स्वयंसेवी संगठनों की राजनीति के तौर पर सामने आयी। यहाँ पर भी एक नकली द्वैधता मौजूद थी। जहाँ नवउदारवादी पूँजीवादी चिन्तक, अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ और ‘विश्व आर्थिक मंच’ जैसे उनके संगठन सोवियत संघ के पतन के बाद ‘कोई विकल्प नहीं है’ (टीना-देयर इज़ नो ऑल्टरनेटिव) का नारा नंगे तौर पर दे रहे थे, वहीं पूँजीवादी वर्चस्व को जनता के बीच में स्थापित करने के लिए उन्होंने जो स्वयंसेवी संगठन मैदान में उतारे थे, वे ‘बहुत-से विकल्प हैं’ (टामा-देयर आर मैनी ऑल्टरनेटिव्स) का नारा दे रहे थे। विश्व आर्थिक मंच के समानान्तर उन्होंने विश्व सामाजिक मंच (वर्ल्ड सोशल फोरम) बनाया जो कि पूँजीवाद का नकली विरोध करते हुए अपरिहार्य रूप से पूँजीवाद की रक्षा का काम करने वाली सभी शक्तियों का जमावड़ा बन गया – एन.जी.ओ., सुधारवादी, सामाजिक जनवादी और संशोधनवादी पार्टियाँ आदि। वास्तव में, ‘टीना’ और ‘टामा’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; कहा जा सकता है कि वे छद्म विकल्पों का समुच्चय हैं। ये दो अलग बातें हैं ही नहीं बल्कि एक ही बात हैबहुत-से विकल्प हैंजैसी बातें खण्डों का जश्न मनाने वाली उत्तरआधुनिकतावादी राजनीति ही कर सकती है, क्योंकि इतिहास और विज्ञान दोनों में हमेशा केवल एक ही सही विकल्प होता है। इस बात को ख़ारिज करने की, कि एक ही सही विकल्प है, दो रणनीतियाँ हो सकती हैं – एक यह कि सीधे यह कह दिया जाय कि कोई विकल्प नहीं है (टीना); और दूसरी रणनीति यह हो सकती है कि कहा जाय कि बहुत-से विकल्प हैं (टामा); लेकिन कभी कोई एक भी विकल्प न बताया जाय! नवउदारवादी पूँजीवादी अर्थशास्त्री और चिन्तक पहली रणनीति अपनाते हैं और नवउदारवादी और साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण की फेंकी गयी हड्डियों पर पलने वाले एन.जी.ओ., स्वयंसेवी संगठन और सामाजिक-जनवादी पार्टियाँ दूसरी रणनीति अपनाने का काम करते हैं। पूँजीवादी वर्चस्व की कार्यप्रणाली इसी तरह से काम करती है। आजकल कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो कि एक समाजवादी विकल्प है’ (टियासा-देयर इज़ ए सोशलिस्ट ऑल्टरनेटिव) की बात कर रहे हैं। लेकिन ‘टियासा’ और ‘टामा’ में गुणात्मक तौर पर कोई फर्क नहीं है क्योंकि जिन लोगों ने यह शब्द उछाला है, यदि आप उनकी समाजवाद की परिभाषा और व्याख्या में जाते हैं, तो पाते हैं कि उसमें नाम के सिवा कुछ भी समाजवादी नहीं है! इस शब्द का इस्तेमाल कुछ लोगों ने इसलिए भी शुरू कर दिया है, क्योंकि पूरी दुनिया में मार्क्सवाद और मार्क्स की वापसी की बात की जा रही है; आम जनता के बीच से भी कई संगठन मार्क्सवाद का, पिछले समाजवादी प्रयोगों का और भविष्य की सम्भव परियोजनाओं का अध्ययन कर रहे हैं। इसलिए, ‘टामा’ की बात करने वाले कुछ लोग ‘टियासा’ के कैम्प में चले गये हैं! इसलिए उनके नामधारी समाजवाद पर किसी लम्बी चर्चा की ज़रूरत नहीं है।

2) निराशा के दौर के अन्त और आशाओं के उत्स की ओर

इन सारी वर्चस्वकारी प्रणालियों और कार्यपद्धतियों के बावजूद पूँजीवाद के रक्षकों और शुभचिन्तकों के लिए चिन्ता की बात यह है कि संकट के दौरों में पूँजीवादी वर्चस्व की प्रणालियाँ और मशीनरी ख़राब होने लगती हैं और ठीक से काम नहीं करतीं। यही वह समय होता है जब वर्चस्व के विरुद्ध जनता की ताक़तों के प्रति-वर्चस्व (काउण्टर-हेजेमनी) के जन्म की सम्भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। 1997 में जिस एशियाई मौद्रिक संकट की शुरुआत हुई उसे एक वैश्विक आर्थिक संकट बनने में ज़्यादा देर नहीं लगी। और उस समय से पूँजीवादी विश्व व्यवस्था संकट के एक ऐसे भँवर में फँसी हुई है, जिससे वह आज तक नहीं निकल पायी है। बीच-बीच में सट्टेबाज़ वित्त पूँजी के बुलबुले फुलाकर पूँजीवादी व्यवस्था ने तेज़ी के दौर के कुछ भ्रम पैदा किये। लेकिन चाहे वह डॉट कॉम बुलबुला रहा हो या आवास बाज़ार में पैदा किया गया बुलबुला, कोई भी ज़्यादा देर तक नहीं चल पाया और जल्द ही फट गया। एक मन्द मन्दी का शिकार तो पूँजीवाद 1973 में डॉलर-स्वर्ण मानक के टूटने के बाद से ही है। इस पूरे दौर में विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था ने विकास की जो दर औसतन हासिल की, वह पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों के मानकों के अनुसार ही एक मन्द मन्दी की श्रेणी में आती है और कई पूँजीवादी अर्थशास्त्री अब इस बात को स्वीकारते भी हैं। लेकिन 1997 में ‘एशियाई बाघों’ के धराशायी होने के बाद से यह मन्द मन्दी एक गम्भीर संकट का रूप ले चुकी है। इस संकट के कुछ मील के पत्थर डॉट कॉम बुलबुले के फूटने, ऋण संकट के पैदा होने, आवास बाज़ार में संकट के आने के रूप में पहचाने जा सकते हैं। लेकिन 2007 में अमेरिकी वित्तीय बाज़ार में शुरू हुए सबप्राइम ऋण संकट के बाद से इस संकट ने 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे बड़ी मन्दी का रूप ले लिया है। इसे दूसरी महामन्दी भी कहा जा रहा है। लेकिन उस मन्दी से यह संकट इस मायने में अलग है, कि मौजूदा मन्दी के बाद कोई तेज़ी का दौर नहीं आने वाला है, जैसा कि 1930 के दशक की महामन्दी के बाद आया था। यह संकट पहले से कहीं ज़्यादा ढाँचागत है।

यहाँ हम इस विषय पर लम्बी चर्चा नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना इंगित करना अनिवार्य होगा कि मौजूदा संकट भूमण्डलीकरण का संकट है। इसके बाद साम्राज्यवादी पूँजी के पास कहीं और जाने की जगह नहीं बची है। लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की चरम अवस्था कहा था। आज यह कहा जा सकता है कि भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की चरम अवस्था है। इसके बाद पूँजी के पास कोई और जगह नहीं बची है और वह पूँजी संचय के लिए मंगल ग्रह पर नहीं जा सकती है! पूँजी विश्व के सभी देशों, सभी अवामों की नस-नस से मुनाफ़ा निचोड़ने के लिए पूरे विश्व में फैल चुकी है और अब वह अपनी उत्तरजीविता को कायम रखने के लिए दो ही रणनीतियों को अपना सकती है। एक यह कि अभी भी विश्व के जो कोने उसकी लूट से थोड़े बचे हुए हैं, या जहाँ लूट का दबाव अभी कम है और सन्तृप्ति बिन्दु तक नहीं पहुँचा है वहाँ और बड़े पैमाने पर प्रवेश किया जाय। और दूसरी रणनीति वही रणनीति है जिसे अपनाने के लिए पूँजीवाद मजबूर हैः युद्धों के ज़रिये उत्पादक शक्तियों का विनाश करके अपनी मन्दी से थोड़े समय की राहत पाना। जिन क्षेत्रों में साम्राज्यवादी शिविरों के बीच प्रतिस्पर्द्धा सबसे ज़्यादा है वहीं पर ऐसे युद्ध जनता पर ज़्यादा थोपे जायेंगे और आज के समय में वह क्षेत्र मध्य-पूर्व है। पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों पर, विशेषकर जीवाश्म ईंधन पर पूँजीवादी संचय की निर्भरता आज हमेशा से ज़्यादा है, और मध्यपूर्व इन संसाधनों का भण्डार है। नतीजतन, पिछले लगभग तीन दशकों से साम्राज्यवाद मध्यपूर्व पर अपने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष युद्ध थोप रहा है। लेकिन ये ही युद्ध आने वाले समय में क्रान्ति की परिस्थितियों को जन्म देंगे। अरब जनउभार वस्तुगत तौर पर इन्हीं क्रान्ति की परिस्थितियों के पकने का द्योतक था। यह एक दीगर बात है कि वस्तुगत तौर पर अगर क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ बिल्कुल पक भी जायें तो बिना एक क्रान्तिकारी विचारधारा और क्रान्तिकारी पार्टी के समाज क्रान्ति की ओर आगे नहीं जा सकता है।

लेकिन एक बात तय है-आज का पूँजीवाद लेनिन के समय से कहीं ज़्यादा खोखला, कमज़ोर, बीमार, मरणासन्न और अनुत्पादक वित्तीय पूँजी की कहीं ज़्यादा गिरफ्त में है। यह केवल अपनी जड़ता की शक्ति से टिका हुआ है, और पिछले पाँच-छह वर्षों का जो वैश्विक घटनाक्रम रहा है, वह इसके असमाधेय हो चुके संकट को ही दिखला रहा है। साम्राज्यवाद मौजूदा असमाधेय संकट के दौर में पहले हमेशा से ज़्यादा मानवद्रोही और नरभक्षी हो चुका है। इसका संकट इसे अपनी ही कब्र खोदने के लिए मजबूर कर रहा है। वस्तुगत तौर पर दुनिया एक भयंकर उथल-पुथल की तरफ जा रही है। पूरी दुनिया में पिछले तीन-चार वर्षों के दौरान जो पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन अलग-अलग हिस्सों में स्वतःस्फूर्त रूप से फूट पड़े हैं, वह वास्तव में साम्राज्यवाद के आर्थिक संकट की राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ हैं। चाहे वह अरब का जनउभार हो, अमेरिका का ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन हो, या यूरोप में विशेष तौर पर स्पेन, पुर्तगाल, यूनान और आइसलैण्ड में, चल रहे जनान्दोलन हों, ये सभी साम्राज्यवाद के गहराते संकट की राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ हैं। संकट का केन्द्र अमेरिका से पूर्व की ओर स्थानान्तरित होता हुआ यूरोप तक पहुँच चुका है और वहाँ सार्वभौम ऋण संकट का रूप ले चुका है, और इस बात के बहुतेरे संकेत मिल रहे हैं कि संकट का केन्द्र आने वाले वर्षों में एशिया और लातिन अमेरिका की अर्थव्यवस्थाओं तक पहुँचेगा। संकट के केन्द्र के ‘कमज़ोर कड़ियों’ तक पहुँचने पर स्थितियाँ गम्भीर होंगी। लेकिन आने वाले समय में इन देशों में जनउभारों को क्रान्ति की दिशा में मोड़ा जा सके इसके लिए वर्तमान पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों की सीमाओं और समस्याओं को समझना बेहद ज़रूरी है।

3) वर्तमान पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों की समस्याएँ

आशाओं के उत्स की बात करने का यह अर्थ नहीं है कि दुनिया में कोई बना-बनाया विकल्प मौजूद है और बस उसे लागू कर देना है। आशाओं के उत्स की बात करने का अर्थ महज़ इतना है कि पूँजीवादी-साम्राज्यवादी लूट और दमन के ख़िलाफ़ जनता के खेमे में जो सन्नाटा छाया हुआ था, वह हालिया स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों से टूट रहा है और पूँजीवादी विश्व व्यवस्था का आर्थिक संकट अब अपने आपको राजनीतिक और सामाजिक संकट के रूप में भी अभिव्यक्त करने लगा है। यह निश्चित तौर पर उम्मीद पैदा करने वाली बात है। लेकिन यही चीज़ तमाम सवाल और समस्याएँ भी खड़ी करती है, जिनका हमें जवाब और हल ढूँढना होगा। ये सवाल क्या हैं? ये समस्याएँ क्या हैं?

जहाँ एक ओर पूँजीवाद असमाधेय मन्दी के भँवर में फँसा हुआ है, वहीं जनता की शक्तियों के सामने भी आज कोई सहज उपलब्ध वैज्ञानिक-व्यावहारिक और व्यवस्थागत विकल्प मौजूद नहीं है। एक विकल्पहीनता की स्थिति बनी हुई है। जो विकल्प का संकट अरब जनउभार, ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन और यूरोप के आन्दोलनों के सामने मौजूद रहा वह संकट एशिया की ओर विश्व पूँजीवादी संकट के स्थानान्तरित होने और वहाँ पर मज़दूर आन्दोलनों की लहर शुरू होने पर भी उपस्थित होगा। अरब जनउभार का अन्त एक प्रकार के ‘थर्मिडोर’ (प्रतिक्रियावादी पुनर्स्थापना) में होने और ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन के विसर्जित होने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण था वह यह था कि इन स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों के पास कोई सकारात्मक प्रस्ताव नहीं था; कोई क्रान्तिकारी पार्टी मौजूद नहीं थी, जो कि एक व्यावहारिक-वैज्ञानिक क्रान्तिकारी विकल्प पेश करती। ये आन्दोलन महज़ पूँजीवाद-साम्राज्यवाद-विरोध तक सीमित थे, और इस हद तक इनका एजेण्डा नकारात्मक ही था। ऐसे आन्दोलन ज़्यादा से ज़्यादा सत्ता परिवर्तन कर सकते हैं (जैसा कि ट्यूनीशिया और मिस्र में हुआ, और आज जारी कुछ आन्दोलनों के फलस्वरूप कुछ और देशों में हो सकता है) लेकिन चूँकि उनके पास कोई सकारात्मक विकल्प नहीं होता इसलिए वे एक राजनीतिक निर्वात की स्थिति पैदा करते हैं और उस निर्वात को वही ताक़त भरती है, जो कि विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर सुसंगठित हो। नतीजतन, मिस्र में जनान्दोलन के फलस्वरूप जो सत्ता आयी वह इस्लामिक कट्टरपन्थियों, मुख्य तौर पर सलाफिस्ट और मुस्लिम ब्रदरहुड के एक गठबन्धन, की थी। आर्थिक-राजनीतिक स्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं आया। हालाँकि, मिस्र की मेहनतकश जनता इस बात को समझते हुए एक बार फिर सड़कों पर है। लेकिन चीज़ें तब तक आगे नहीं बढ़ सकतीं जब तक कि ऐसे जनान्दोलनों को एक क्रान्तिकारी विचारधारा और क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी, जो कि उस विचारधारा का मूर्त रूप हो, का नेतृत्व मिले।

संक्षेप में कहा जाय तो साम्राज्यवाद का संकट दुनिया भर में स्वतःस्फूर्त जनान्दोलनों को जन्म दे रहा है, जो दिखला रहा है कि जनता के सब्र का प्याला अब छलक रहा है और वह पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ (चाहे आन्दोलनकारी जनता स्वयं उसे पूँजीवाद-साम्राज्यवाद का नाम दे या न दे!) सड़कों पर उतर रही है। यहाँ बरबस ही माओ की वह बात याद आती है जो उन्होंने मृत्यु से पहले सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर में कही थी। उन्होंने कहा था कि मौजूदा सांस्कृतिक क्रान्ति अपने आप में चीन में समाजवाद की अन्तिम विजय को सुनिश्चित नहीं कर सकती और इसके लिए कई सांस्कृतिक क्रान्तियों की ज़रूरत होगी। अभी भी चीन में और पूरी दुनिया में यह तय नहीं हुआ है कि संघर्ष के इस दौर में पूँजीवाद और समाजवाद में कौन विजयी होगा। लेकिन, आगे माओ कहते हैं, आने वाले 50 से 100 वर्षों का इतिहास दुनिया भर में अभूतपूर्व उथल-पुथल और परिवर्तन का दौर होगा, जो पूरी दुनिया को हिलाकर रख देगा और पूरे मानव इतिहास में इसका कोई सानी नहीं होगा। अभी हम उन 50 से 100 वर्षों की ज़द में ही जी रहे हैं। साम्राज्यवाद का संकट दुनिया भर में क्रान्तिकारी जनान्दोलनों के लिए एक वस्तुगत स्थिति पैदा कर रहा है। वस्तुगत कारक पकने की ओर अग्रसर हैं, लेकिन संकट यहाँ आत्मगत शक्तियों का है।

मौजूदा जनान्दोलन में विकल्पहीनता, क्रान्ति के एक सकारात्मक प्रस्ताव की कमी और मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी हिरावल पार्टी की अनुपस्थिति ने एक बार फिर से बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के सकारात्मकों व नकारात्मकों के आलोचनात्मक विवेचन को प्रासंगिक बना दिया है। इन प्रयोगों को अनालोचनात्मक तरीके से देखने और उनके अन्धपूजन से, और साथ ही, उनके सही आलोचनात्मक विवेचन के बिना उन्हें ख़ारिज कर देने की अनैतिहासिक प्रवृत्ति, दोनों ही आज के समय में भावी क्रान्तिकारी परियोजना के लिए अनुत्पादक और इसलिए नुकसानदेह हैं। इन प्रयोगों के पहले जो आलोचनात्मक विवेचन किये गये हैं उनकी मज़बूतियों और कमज़ोरियों को भी समझने की ज़रूरत है। सोवियत समाजवाद की सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक तौर पर जारी समकालीनता (कण्टेम्पोरेनाइटी) को समझे बग़ैर नयी सदी की समाजवादी परियोजनाओं का निर्माण नहीं किया जा सकता है। यहाँ अतीतग्रस्त कठमुल्ला दृष्टिकोण और “मुक्त-चिन्तक” अस्वीकरणवादी (रिजेक्शनिस्ट) दृष्टिकोण, दोनों ही अवांछित हैं। यह पुनर्मूल्यांकन इसलिए भी ज़रूरी है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर और बाहर ऐसी प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं जो कि अतीत के समाजवादी प्रयोगों, और विशेषकर सोवियत समाजवाद के प्रयोग, के इतिहास का ग़ैर-सर्वहारा प्रस्तुतिकरण (विकृतिकरण) कर रही हैं, जिसका पस्तहिम्मती, कठमुल्लावाद, “मुक्त-चिन्तन”-वाद का शिकार कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों पर गहरा असर पड़ रहा है। इन प्रवृत्तियों के बारे में हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

4) विकल्प का प्रश्न और समाजवादी प्रयोगों के आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता

आज दुनिया भर में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियाँ अधिकांश देशों में और अधिकांश मामलों में कमज़ोर, विभाजित, निराशा या झूठी आशा की शिकार हैं; कहीं पर वे अनैतिहासिक “मुक्त चिन्तन” तो कहीं इतिहासग्रस्त-अतीतग्रस्त कठमुल्लावाद और लकीर की फकीरी करने की प्रवृत्ति का शिकार हैं। हमारे देश में भी आज मार्क्सवादी-लेनिनवादी शिविर विघटन की अवस्था में है। लेकिन कुछ कम्युनिस्ट ग्रुप और संगठन नये सिरे से तमाम गम्भीर और बुनियादी सवालों पर सोच रहे हैं, मज़दूर वर्ग के बीच काम करने, उसे संगठित करने के नये तौर-तरीकों को ईजाद करने का प्रयास कर रहे हैं, आज की दुनिया की ज़्यादा वैज्ञानिक और गतिमान मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्याख्या करने का प्रयास कर रहे हैं। वैसे तो आज कम्युनिस्ट आन्दोलन के पटल पर, दुनिया के पैमाने पर भी और हमारे देश के पैमाने पर भी, विचारधारा, कार्यक्रम और रणनीति व आम रणकौशल से जुड़े बहुत-से मुद्दे हैं। लेकिन इन सब में आज एक बेहद प्रमुख मुद्दा बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के पुनर्मूल्यांकन का है। इनमें भी सोवियत समाजवादी प्रयोग का मुद्दा आज भारी विवाद का विषय बना हुआ है। इसके निश्चित कारण हैं।

एक कारण तो यह है कि सोवियत समाजवाद के पूरे दौर में (1917 से 1953 तक) जो प्रयोग हुए वे भारी और गम्भीर विचारधारात्मक बहसों के बीच में हुए जो कि बोल्शेविक पार्टी के भीतर लगातार जारी थीं। इन बहसों ने मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु से जुड़े हुए अहम मुद्दों को उठाया। इसलिए सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन वास्तव में वर्ग, राज्य, पार्टी, ट्रेड यूनियन और इन सबके आपसी सम्बन्धों आदि के प्रश्नों पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति के निःसरण से जुड़ा हुआ है। इन मूल मुद्दों पर अलग-अलग अवस्थितियों के आधार पर और अलग-अलग समय में बोल्शेविक पार्टी के भीतर दो लाइनों का संघर्ष हुआ। दरअसल, ये मुद्दे पूरे यूरोप के कम्युनिस्ट आन्दोलन और मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में पहले से ही मौजूद रहे थे। अक्टूबर क्रान्ति से पहले तमाम मुद्दों पर बहसें सैद्धान्तिक ही बनी रहीं थीं, क्योंकि बिना ऐतिहासिक अनुभवों की रोशनी के वे महज़ सैद्धान्तिक ही हो सकती थीं। अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में पहली बार एक सर्वहारा सत्ता के निर्माण ने इन बहसों को शुद्ध सिद्धान्त के राज्य से निकाल कर समकालीन इतिहास और राजनीति के राज्य में पहुँचा दिया और भावी सैद्धान्तिक विकास का भी रास्ता खोल दिया। ये सवाल अब सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य और उसे निर्देशित करने वाली पार्टी के सम्मुख उपस्थित जीवन्त प्रश्न बन गये थे। बोल्शेविक पार्टी ने किस प्रकार गम्भीर और तीखे विचारधारात्मक संघर्ष के ज़रिये इन प्रश्नों पर अपनी अवस्थिति को निःसृत किया, वह मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लिए सर्वकालिक ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक और राजनीतिक महत्व रखता है। इस पूरी प्रक्रिया को हम सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और उसमें हिरावल पार्टी की भूमिका के सिद्धान्त के सन्दर्भ में रूसी क्रान्ति के अनुभवों और शिक्षाओं की रोशनी में कदम-दर-कदम हुए विकास में देख सकते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये सवाल आज भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष अहम सवाल बने हुए हैं।

दूसरा कारण यह है कि आज जब दुनिया में स्वतःस्फूर्त पूँजीवादी जनान्दोलनों की ऐतिहासिक-राजनीतिक सीमा अपने आपको स्पष्ट रूप में प्रकट कर रही है और कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के समक्ष एक वैज्ञानिक-व्यावहारिक विकल्प पेश करने का सवाल जीवन्त रूप में खड़ा है, तो निश्चित तौर पर बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों, और विशेष तौर पर सोवियत समाजवादी प्रयोग का एक आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन अपरिहार्य हो गया है। यह पुनर्मूल्यांकन केवल समाजवादी क्रान्ति के बाद समाजवाद के निर्माण की समस्याओं के हल के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि पहली मंजिल से ही सर्वहारा वर्ग को संगठित करने, उसके संगठन के स्वरूप, उसमें पार्टी की भूमिका, ट्रेड यूनियन की भूमिका, वर्ग, पार्टी और ट्रेड यूनियन के बीच आपसी रिश्तों के सवालों के लिए अहमियत रखता है। मज़दूर वर्ग, उसकी विचारधारा, आन्दोलन और संगठन के बारे में सही दृष्टिकोण पहली मंजिल से ही ज़रूरी है। यह दृष्टिकोण ही तय करेगा कि क्रान्ति के बाद किस किस्म की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का निर्माण किया जायेगा, या, कहना चाहिए कि एक सही दृष्टिकोण का होना ही यह तय करेगा कि सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी वर्ग संघर्ष को क्रान्ति और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व तक ले भी जा पायेगी या नहीं। इसलिए सोवियत समाजवाद का आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन महज़ एक सैद्धान्तिक-वैचारिक कवायद नहीं है। सोवियत समाजवाद का इतिहास जो प्रश्न खड़े करता है, वह क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की अन्तर्वस्तु के प्रश्न हैं, और उनकी एक सही समझ सिर्फ़ समाजवादी निर्माण के लिए नहीं बल्कि समाजवादी क्रान्ति के लिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को एक सही नेतृत्व दे पाने के सवाल से भी जुड़ा हुआ है। और हमें ऐसा लगता है कि अव्वलन तो यह सवाल पहले भी हल नहीं था, और हाल में कुछ राजनीतिक नौदौलतियों द्वारा सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के इतिहास के विकृतिकरण और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विनियोग ने (जिनके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे) इस सवाल को और भी ज़्यादा उलझा दिया है। इसलिए नये सिरे से, मार्क्सवादी-लेनिनवादी दृष्टिकोण से इस सवाल पर सैद्धान्तिक स्पष्टता और सफ़ाई की ज़रूरत को हम शिद्दत से महसूस करते हैं।

सोवियत समाजवादी प्रयोग के पुनर्मूल्यांकन के पीछे तीसरा कारण इसी से जुड़ा हुआ है। वह कारण यह है कि पिछले करीब दो दशकों में सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास के पुनर्लेखन के कुछ महत्वपूर्ण मार्क्सवादी प्रयास कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर और प्रमुख तौर पर बाहर हुए हैं। जो मार्क्सवादी प्रयास कम्युनिस्ट आन्दोलन के बाहर हुए हैं उनका भी कम्युनिस्ट आन्दोलन के कुछ हिस्सों पर गहरा प्रभाव है। हमें ऐसा लगता है कि सोवियत समाजवाद के इतिहास लेखन के इन संशोधनवादी (यहाँ हम ‘संशोधनवादी’ शब्द का प्रयोग ‘सामाजिक-जनवादी’ के रूप में नहीं कर रहे हैं, बल्कि इतिहासलेखन के संशोधनवादी प्रयास के रूप में कर रहे हैं, जैसे कि इतिहासलेखन में ‘रिवीज़निस्ट हिस्टोरियोग्राफ़ी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है) प्रयासों की आलोचनात्मक विवेचना की आज बेहद ज़रूरत है; इसलिए नहीं कि वे नया कुछ कह रहे हैं बल्कि इसलिए कि उनका कम्युनिस्ट आन्दोलन के कुछ हिस्सों पर गहरा प्रभाव है, युवा बुद्धिजीवियों और क्रान्ति के प्रति अनुकूल रवैया रखने वाले छात्रों के बीच उन्हें पढ़ा जा रहा है और कम्युनिस्ट आन्दोलन, बुद्धिजीवियों और ऐसे छात्रों के बीच वैचारिक-बौद्धिक कमज़ोरी, इतिहास की कम जानकारी, प्राथमिक स्रोतों तक न जाने की आदत के कारण इतिहासलेखन के इन संशोधनवादी प्रयासों का काफ़ी असर भी हो रहा है। इस असर का एक कारण यह भी है कि क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं और बुद्धिजीवियों को अपने निम्न पूँजीवादी वर्ग पूर्वाग्रहों के कारण सोवियत समाजवादी प्रयोग की ये नयी-नवेली आलोचनाएँ आकर्षक लग रही हैं। जहाँ तक इन नयी आलोचनाओं की अन्तर्वस्तु का प्रश्न है, जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया और हम आगे सिद्ध करेंगे, उनमें कुछ भी नया नहीं है। इनमें से ज़्यादातर अलग-अलग समय पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में पैदा हुए “वामपन्थी” रुझानों, अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भटकावों, दक्षिणपन्थी अवसरवाद, गैर-पार्टी क्रान्तिवाद, पान्नेकोएक और पॉल मात्तिक के काउंसिल कम्युनिज़्म, 1960 के दशक में मज़दूर आन्दोलन में पैदा हुई विजातीय प्रवृत्तियों, जैसे कि मारियो ट्रॉण्टी के मज़दूरवाद (ऑपराइज़्मो), अर्नेस्टो लाक्लाऊ और चैण्टेल माऊफ के नववामपन्थ, एलेन बेज्यू, स्लावोय जिज़ेक, एण्टोनियो नेग्री व माइकल हार्ट, आदि जैसे सट्टेबाज़ उत्तर-मार्क्सवादी वामपन्थी चिन्तकों के “चिन्तनों” और यहाँ तक कि इतिहास की कचरा-पेटी में जा चुकी उत्तरआधुनिक विचारसरणियों के अनर्गल प्रलापों के वैविध्यपूर्ण मिश्रण हैं। जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं, ऐसी व्याख्याएँ करने वालों में केवल मार्क्सविद् अकादमिक लोग शामिल नहीं हैं, बल्कि कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने का दावा करने वाले कम्युनिस्ट संगठन भी शामिल हैं।

इन सभी द्वारा सोवियत समाजवाद के संशोधनवादी लेखन के जो हालिया प्रयास किये गये हैं, उनमें हम हरेक के बारे में अलग-अलग यहाँ नहीं लिख सकते हैं, और न ही ऐसा करने की कोई ज़रूरत है। इसका कारण यह है कि इन सभी की व्याख्याओं में कुछ बुनियादी तत्व हैं जो कि साझा हैं। वे इस प्रकार हैं (1) मार्क्सवादी पहुँच (अप्रोच) और पद्धति (मेथड) में गम्भीर विच्युतियाँ और विचलन, और कई मामलों में उनसे प्रस्थान; (2) इतिहास लेखन के स्रोतों के इस्तेमाल के प्रति गैरद्वन्द्वात्मक और “निष्पक्ष” (यानी कि ग़ैर-पक्षधर, या वास्तव में बुर्जुआज़ी की ओर पक्षधर) रवैया; (3) बुर्जुआ और पेटी-बुर्जुआ विचारधारात्मक-राजनीतिक पूर्वाग्रहों की मौजूदगी जो कि ‘एप्रायोरी’ तौर पर समाजवाद-विरोधी निष्कर्षों पर पहुँचाते हैं; और (4) कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद अराजकतावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद और “वाम” विचलन का प्रभाव।

जैसा कि हमने पहले कहा, हम ऐसी व्याख्याओं के एक-एक उदाहरण को यहाँ नहीं लेंगे। लेकिन हम एक प्रातिनिधिक उदाहरण को लेते हुए और मार्क्सवादी पहुँच और पद्धति के कुछ बुनियादी सवालों को उठाते हुए अपनी बात की शुरुआत करेंगे। अन्य व्याख्याओं के बारे में हम आगे सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास का आलोचनात्मक विवेचन करते हुए बीच-बीच में अपनी आलोचना रखेंगे। यह प्रातिनिधिक उदाहरण एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन की पत्रिका ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के फ़रवरी, 2008 के अंक में आये सुजीत दास द्वारा लिखे गये लेख ‘प्रैक्टिस ऑफ़ सोवियत सोशलिज़्म इन दि थर्टीज़ः सक्सेसेज़ एण्ड फेल्योर्स’ का है। इस लेख में 1930 के दशक में सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों का आलोचनात्मक विवेचन किया गया है। वैसे तो इस लेख में उस पूरे दौर में समाजवादी निर्माण से जुड़े तथ्यों को बुरी तरह से तोड़ा-मरोड़ा गया है और अपने राजनीतिक निष्कर्षों को सही ठहराने के लिए प्राधिकार रखने वाले स्रोतों को बेहद चुनिन्दा तरीके से उद्धृत किया गया है, लेकिन हम शुरुआत इस लेख द्वारा सोवियत समाजवाद के इतिहास के विकृतिकरण के खण्डन से नहीं करेंगे। सुजीत दास ने किस प्रकार से सोवियत समाजवाद के इतिहास को विकृत किया है, इस पर हम आगे आयेंगे जब हम सोवियत समाजवाद के इतिहास के अपने आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन के काम को सकारात्मक तौर पर हाथ में लेंगे। उससे पहले हम एक दूसरे कार्यभार को हाथ में लेना चाहेंगे।

हम शुरुआत समाजवादी निर्माण के दौर में सर्वहारा अधिनायकत्व, सर्वहारा राज्य के स्वरूप, इस दौर में पार्टी की भूमिका, पार्टी और ट्रेड यूनियन के वर्ग से रिश्ते, सर्वहारा राज्य के सर्वहारा वर्ग से रिश्ते और इस दौर में किसान प्रश्न के समाधान से जुड़े कुछ आम सैद्धान्तिक प्रश्नों से करेंगे। इस प्रक्रिया में पहले हम यह प्रदर्शित करेंगे कि सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ का इन सवालों पर दृष्टिकोण मार्क्स, लेनिन और माओ की पहुँच और पद्धति से कोसों दूर है। इनकी पहुँच और पद्धति वास्तव में बोल्शेविक पार्टी में अलग-अलग समय पर पैदा हुई “वामपन्थी” विपक्षी धाराओं (अपोज़ीशंस), अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विचलनों, और काउंसिल कम्युनिज़्म के ज़्यादा करीब पड़ती है। दरअसल, अगर ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की सोवियत समाजवाद, बल्कि पूरे समाजवादी निर्माण पर, समझ की बात करें तो वह पार्टी में लेनिन के दौर में पैदा हुई कुछ “वामपन्थी” और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के विचलनों की शिकार विपक्षी धाराओं जैसे कि ‘डेमोक्रैटिक सेण्ट्रलिज़्म’ ग्रुप (जिसके सदस्य वी.वी. ओसिंस्की, टी.वी. सप्रोनोव, व वी. स्मिर्नोव जैसे लोग थे), और ‘वर्कर्स अपोजिशन’ (जिसका नेतृत्व अलेक्ज़ैण्डर श्ल्यापनिकोव व अलेक्ज़ैण्ड्रा कोलोन्ताई कर रही थीं), की अवस्थितियों का एक दयनीय रूप से दरिद्र और हास्यास्पद मिश्रण है। कहने का मतलब है कि ग़ैर-सर्वहारा व टटपुँजिया प्रवृत्तियों का यह घोल-मट्ठा भी समझदारी से नहीं तैयार किया गया है! इस शोध-प्रबन्ध में हम ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के सुजीत दास की पूरी अवस्थिति में निहित पहुँच और पद्धति की एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी आलोचना से शुरुआत करेंगे, और इस प्रक्रिया में एक हद तक हमारी पहुँच और पद्धति के कुछ तत्व भी स्पष्ट हो जायेंगे। इस दौरान हमारा लक्ष्य एक तरफ़ सोवियत समाजवादी प्रयोगों के इतिहास के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और “वामपन्थी” विनियोग (एप्रोप्रियेशन) के तमाम प्रयासों की मार्क्सवादी-लेनिनवादी आलोचना होगा, और इस प्रक्रिया में मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की क्रान्तिकारी मूल अन्तर्वस्तु पर उनके हमलों का जवाब देना होगा; वहीं दूसरी ओर हमारा लक्ष्य एक आलोचनात्मक मार्क्सवादी दृष्टिकोण से सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों का विवेचन भी होगा, जिस प्रक्रिया में हम चार्ल्स बेतेलहाइम, एडवर्ड हैलेट कार, मॉरिस डॉब आदि जैसे सोवियत संघ के कुछ प्रमुख और प्राधिकार-सम्पन्न इतिहासकारों के इतिहास-लेखन का भी आलोचनात्मक विश्लेषण करेंगे। कहने की ज़रूरत नहीं है कि सोवियत समाजवादी प्रयोगों के इतिहास को रखते हुए उसके कुछ प्रमुख समकालीन आलोचकों की व्याख्याओं पर भी अपना दृष्टिकोण रखेंगे, जैसे कि कार्ल काऊत्स्की, लियोन ट्रॉट्स्की (व उनके अनुयायी), डच “वामपन्थी कम्युनिस्ट” धारा, कार्ल कोर्श, रोज़ा लक्जे़मबर्ग आदि।

  1. मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शनके सुजीत दास द्वारा सोवियत समाजवाद की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी व वामपन्थी” व्याख्याः पहुँच और पद्धति से जुड़े कुछ बुनियादी सवाल

जैसा कि हमने पहले भी कहा है, ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के सुजीत दास द्वारा सोवियत समाजवाद की 1930 के दशक में सफलताओं और असफलताओं के बारे लिखे गये लेख में तथ्यों को विकृत करने, अपने पूर्वाग्रहों के साथ उद्धरणों को सन्दर्भ से काटकर पेश करने और उस दौर के इतिहास का विकृतिकरण करने के जो प्रयास किये गये हैं, उन्हें हम आगे सोवियत समाजवाद के इतिहास पर सकारात्मक तौर से अपना विश्लेषण रखते हुए अनावृत्त करेंगे। सबसे पहले पहुँच और पद्धति से जुड़े कुछ बेहद ज़रूरी सवालों पर हम यह प्रदर्शित करने का प्रयास करेंगे कि सुजीत दास की पूरी पहुँच और पद्धति में नारेबाज़ी और जुमलेबाज़ी को छोड़ दें, तो कुछ भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी नहीं है। इसके लिए हम उनके लेख के उन हिस्सों को यहाँ पहले उद्धृत करेंगे, जिसमें उन्होंने सोवियत संघ के इतिहास से मनमाने तरीके से, सन्दर्भों से काटकर कुछ प्रकरण, तथ्य और आँकड़े रखने के बाद, अपने राजनीतिक निर्णय, मूल्यांकन, निष्कर्ष और मौलिक विचार रखे हैं। एक मार्क्सवादी सबसे पहले पहुँच और पद्धति के प्रश्न को उठाता है और उसके बाद तथ्यात्मक त्रुटियों, भूलों आदि की तरफ़ आगे बढ़ता है। यहाँ हम तथ्यात्मक ग़लतियों का ज़िक्र सिर्फ़ उस हद तक करेंगे, जितना कि सुजीत दास की पहुँच और पद्धति को अनावृत्त करने के लिए ज़रूरी है, और तथ्यात्मक त्रुटियों और अज्ञानवश या इरादतन किये गये विकृतिकरण और सन्दर्भ से तथ्यों और उद्धरणों को काटकर पेश करने की घटनाओं पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे।

1.) पूर्वधारणाएँ, प्रस्थानबिन्दु और उनके पीछे मौजूद इरादे

सुजीत बोस अपने लेख की शुरुआत कुछ पूर्वधारणाओं के साथ करते हैं। मिसाल के तौर पर, उनका मानना है कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर आज के समय तक जो रुझान हावी रही है, वह है समाजवादी प्रयोगों के प्रति एक “सवाल न उठाने वाली वफ़ादारी के जड़त्व” (सुजीत दास, ‘दि प्रैक्टिस ऑफ सोवियत सोशलिज़्म इन दि थर्टीज़ः सक्सेसेज़ एण्ड फेल्योर्स’, ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’, फ़रवरी 2008, पृ. 74) की; उनका मानना है कि इस रुझान को तोड़ने की ज़रूरत है क्योंकि यह रुझान मानती है कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों में जो कुछ भी हुआ वह “दैवीय आकाशवाणी के समान सही” (वही) है। लेकिन कम्युनिस्ट आन्दोलन का यह चित्रण तथ्यात्मक रूप से ग़लत है। आज के समय में तो कम्युनिस्ट आन्दोलन के बारे में, एक सीमित अर्थ में, इसके ठीक उल्टी बात कही जा सकती है। विशेष तौर पर पिछले दो दशकों के दौरान कम्युनिस्ट पार्टियों से लेकर मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों तक में ग़ैर-पक्षधर और अनैतिहासिक ढंग से बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को नकारने की एक रुझान पैदा हुई है। इन प्रयोगों की जटिलताओं से आलोचनात्मक रिश्ता कायम करने के दुरूह कार्य को हाथ में लेने की बजाय, सिरे से उनका अतिसरलीकृत खण्डन कर देने का आसान रास्ता अपनाने का लालच कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टियों और ग्रुपों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। पश्चिम बंगाल में तो विशेषकर इस तरह के खण्डनवादी रुझान ज़्यादा हावी हैं।

फिर आिख़र सुजीत दास यह दावा क्यों कर रहे हैं? यह दावा ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के इस लेख और अन्य लेखों के स्वर में अन्तर्निहित एक प्रवृत्ति का अंग है, जो कि हरेक बात पर ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्लाती है। यह एक राजनीतिक नौदौलतियेपन की प्रवृत्ति है जो कि अपने हर विश्लेषण और आलोचना को ‘इतिहास में प्रथम’ सिद्ध करने का प्रयास करती है। इससे कोई विशेष असुविधा नहीं होती, बशर्ते कि यह विश्लेषण और आलोचना व्यापक अध्ययन और शोध पर आधारित होते और अपनी विषय-वस्तु के बारे में कोई नयी या मौलिक अन्तर्दृष्टि प्रदान करते। लेकिन यहाँ मामला बिल्कुल उल्टा है! मिसाल के तौर पर, सोवियत समाजवाद पर सुजीत बोस के लेख के अध्ययन से एक बात साफ़ तौर पर जाहिर हो जाती है यह लेख बेहद अव्यवस्थित अध्ययन (वह भी पुस्तकों के फ्लैपों, समीक्षाओं और प्रस्तावनाओं के अध्ययन, पूरी पुस्तक के नहीं), अराजकतापूर्ण शोध (अगर इस लेख को सन्देह का लाभ देते हुए ‘पैराफ्रेजिंग’ न कहकर ‘शोध’ कहा जा सके!), और स्रोतों की ठीक से पड़ताल किये बिना (स्रोतों के आलोचनात्मक विवेचन का तो अभी हम ज़िक्र भी नहीं करेंगे) लिखा गया है। यह बात हम आगे तथ्यों और उदाहरणों के साथ प्रदर्शित करेंगे। दूसरी बात, जो लेख को पढ़ते ही स्पष्ट हो जाती है, वह यह है कि सोवियत समाजवाद का अध्ययन शुरू करने के पहले से ही लेखक के कुछ स्पष्ट और निश्चित अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी पूर्वाग्रह हैं और इन पूर्वाग्रहों से प्रस्थान करते हुए उसने किसी भी रचना को (जिसे उसने उद्धृत किया है) पूरा नहीं पढ़ा है। अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार लेखक ने अलग-अलग किताबों से सन्दर्भों से काटकर उद्धरण दे दिये हैं, जिनके आगे अगर लेखक ने खुद पढ़ा होता तो उन उद्धरणों को रखने की वह जुर्रत भी नहीं करता। यह बात भी हम आगे तथ्य और उदाहरण के साथ प्रदर्शित करेंगे।

सुजीत दास की एक अन्य विचित्र पूर्वधारणा यह है कि सोवियत समाजवाद का अध्ययन करने के लिए 1930 का दशक आदर्श कालखण्ड है। इसके कारणों के तौर पर वह कुछ विशिष्ट कारण बताते हैं। एक कारण यह है कि इस दौर में सर्वश्रेष्ठ समाजवादी रूपान्तरण हुए, जैसे कि सामूहिकीकरण, पंचवर्षीय योजनाएँ, आदि (जिन “सर्वश्रेष्ठ रूपान्तरणों” पर बाकी लेख में सुजीत दास ने जमकर कीचड़ उछाला है)। इसके पहले नयी आर्थिक नीतियों (यहाँ से नेप) के उथल-पुथल का दौर था, और इसके बाद द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर शुरू हो जाता है। इसलिए श्री दास के अनुसार, 1930 के दशक में न तो कोई आन्तरिक संकट था और न ही बाह्य दबाव। यह पूर्वधारणा भी तथ्यतः ग़लत थी। जहाँ तक आन्तरिक संकट का सवाल है, इसी दौर में बोल्शेविक पार्टी को अपने सबसे कठिन दौर से गुजरना पड़ा था। यही वह दौर था जिसमें ‘महान शुद्धीकरण’ अभियान चला था; इस दौर में पार्टी में दो-लाइन के संघर्ष ने सबसे भयंकर रूप ग्रहण किया था। प्रतिक्रान्तिकारी गुटों द्वारा तोड़-फोड़ की गतिविधि चरम पर थी; 1934 में स्तालिन के करीबी साथी किरोव की हत्या के बाद बोल्शेविक पार्टी ने प्रतिक्रान्तिकारियों के ख़िलाफ़ सख़्त रुख़ अपनाया था। इस पूरे दौर में पार्टी के भीतर चले दो-लाइन के संघर्ष और सोवियत समाज में जारी सघन वर्ग संघर्ष पर हम आगे विस्तृत चर्चा करेंगे।

जहाँ तक बाहरी दबाव का सवाल है, तो यह सोचना कि द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत के बाद सोवियत संघ ने युद्ध के मुद्दे पर विचार और उसकी तैयारियाँ शुरू कीं थीं, मूर्खतापूर्ण नादानी की श्रेणी में आयेगा। 1933 में सत्ता में आते ही हिटलर के नेतृत्व में नात्सी पार्टी ने सोवियत संघ-विरोधी प्रचार, जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी का दमन, कम्युनिज़्म को यहूदियों के साथ जोड़ने और ‘यहूदी बोल्शेविज़्म’ को अपना निशाना बनाने का काम शुरू कर दिया था। सोवियत संघ के व्यापार मिशनों पर नात्सी जर्मनी में 1933-34 में ही पुलिस हमले शुरू कर दिये गये थे, साथ ही, सोवियत संघ के नागरिकों पर भी ऐसे हमलों और गिरफ्तारियों की घटनाओं की कमी नहीं थी। अपनी जीवनी ‘मेइन कैम्फ’ में हिटलर ने लेबेनड्डॉम (जर्मन राष्ट्र के अस्तित्व के लिए स्थान) की बात करते हुए स्पष्ट कर दिया था कि पूर्व में सोवियत रूस इसमें सबसे बड़ी बाधा है। सोवियत संघ की विदेश नीति 1930 के दशक में शुरुआती दौर में जर्मन आक्रामकता को न भड़काने और जर्मनी से करीबी कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करके टकराव को अधिकतम सम्भव टालने की थी। 1934 आते-आते जर्मनी और सोवियत संघ के सम्बन्ध काफ़ी कटु हो चुके थे और इसका तात्कालिक कारण था द्वितीय पोलिश गणराज्य के साथ हिटलर द्वारा की गयी अनाक्रमण सन्धि। उस समय पोलैण्ड का शासक जोसेफ़ पिल्सुदेस्की था, जो कि सोवियत संघ के प्रति शत्रुतापूर्ण रुख़ रखता था। पिल्सुदेस्की ने फ्रांस और चेकोस्लोवाकिया द्वारा सोवियत संघ को नात्सी-विरोधी मोर्चे में शामिल करने का विरोध तक किया था। बाद में, जर्मनी के रुख़ में आये अचानक बदलाव के कारण जर्मनी का पोलैण्ड पर हमला हुआ और इसी के साथ ही 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध की शुरुआत हुई। इस बदलाव के पीछे विशिष्ट ऐतिहासिक कारण थे, जिन पर हम यहाँ विस्तार में नहीं जा सकते हैं। लेकिन एक बात स्पष्ट है 1935-36 तक सोवियत संघ और बोल्शेविक पार्टी के सामने यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि जर्मन हमला होना अवश्यम्भावी है। यह बस समय की बात थी, कि वह कब होगा। 1935 के बाद भी सोवियत संघ आर्थिक और कूटनीतिक स्तर पर जर्मनी से टकराव को टालने के लिए काम करता रहा, क्योंकि सोवियत सरकार इस बात को समझ रही थी कि अगर टकराव तत्काल होता है, तो जर्मनी की सैन्य शक्तिमत्ता का मुकाबला करना कहीं ज़्यादा मुश्किल होगा। औद्योगिकीकरण और एक शक्तिशाली सैन्य मशीनरी के निर्माण के लिए सोवियत संघ को वक़्त चाहिए था, और वह वक्त उसे रिब्बनट्रॉप-मोलोतोव अनाक्रमण सन्धि से मिला। यह विश्व इतिहास का एक दिलचस्प अध्याय था। लेकिन सुजीत दास इन सारे तथ्यों को नज़रअन्दाज़ करते हुए 1930 के दशक को सोवियत समाजवादी निर्माण का सबसे सुगम और आदर्श दौर मानते हैं, जब बोल्शेविक पार्टी आन्तरिक और बाह्य दबावों से मुक्त थी!

हम मानते हैं कि 1930 के दशक को चुनने के पीछे सुजीत दास के वास्तविक कारण कुछ और हैं। 1920 के दशक को चुनने का अर्थ होता उन प्रक्रियाओं और नीतियों का विश्लेषण जिनकी शुरुआत पूरी तरह तो नहीं लेकिन काफ़ी हद तक लेनिन के समय में हुई थी। सुजीत दास अपने लेख में जिन नतीजों तक पहुँचते हैं, उन नतीजों तक उनका पहुँचना पूर्वनिर्धारित था, जैसा कि हम आगे उनके स्रोतों को उद्धृत करने, तथ्यों का चुनाव करने और ऐतिहासिक रचनाओं के विनियोग (एप्रोप्रियेशन) की विचित्र प्रणाली पर चर्चा करते हुए प्रदर्शित करेंगे। लेकिन सोवियत समाजवाद की आलोचना में लेनिन निश्चित तौर पर एक मुश्किल निशाना होते। इस मामले में स्तालिन पर पार्टी की तानाशाही से लेकर नौकरशाही तक का दोषारोपण कर देना, मज़दूर वर्ग को उत्पादन के साधनों से और ज़्यादा अलगावग्रस्त कर देना, ट्रेड यूनियनों और सोवियतों को पंगु करके एक गिरोह के हाथ में सत्ता संकेन्द्रित कर देना, आदि जैसे आरोप लगाना ज़्यादा आसान है। स्तालिन एक नरम निशाना (सॉफ्रट टारगेट) हैं। और 1930 के दशक को सोवियत समाजवाद के प्रयोगों की आलोचना के लिए चुनना इसीलिए सुजीत दास के लिए ज़्यादा सुविधाजनक है। ऐसे में, मार्क्सवादी-लेनिनवादी खेमे में उनकी और उनके संगठन की स्वीकार्यता ज़्यादा बेहतर तरीके से बनी रहेगी।

लेकिन वास्तव में सुजीत दास जिन अवधारणाओं के लिए बोल्शेविक पार्टी की आलोचना कर रहे हैं, वह वास्तव में लेनिनवादी अवधारणाएँ हैं और उन्हें अपने निशाने के रूप में खुले तौर पर लेनिन को ही रखना चाहिए था। और वस्तुतः उनका मूल हमला है भी लेनिनवाद और बोल्शेविज़्म के बुनियादी उसूलों पर। और चूँकि ऐसा वह अपने आपको लेनिनवादी कहते हुए कर रहे हैं, इसलिए यह और भी ख़तरनाक है। हम आगे दिखलायेंगे कि समाजवाद की पहचान, पार्टी की भूमिका, ट्रेड यूनियन की भूमिका, राज्य और पार्टी के रिश्ते, पार्टी और वर्ग के रिश्ते, पार्टी और ट्रेड यूनियन के रिश्ते और पार्टी और सोवियत के रिश्तों के बारे में सुजीत दास वास्तव में स्तालिन के दौर में पार्टी द्वारा हुई “ग़लतियों” की आड़ में लेनिन पर हमला कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में अपने वास्तविक रंग को प्रच्छन्न रखने का प्रयास कर रहे हैं। यह रंग वास्तव में कम्युनिज़्म का नहीं बल्कि अराजकतावाद, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद और विसर्जनवाद का है। और यही उनका असली इरादा है; स्तालिन के बहाने और लेनिनवाद की आड़ में वास्तव में सोवियत संघ के इतिहास का, पार्टी, वर्ग और राज्यसत्ता के बारे में लेनिनवादी उसूलों का अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, “वामपन्थी” ‘एप्रोप्र्रियेशन’ करना।

अब हम एक-एक करके वे बुनियादी अवधारणात्मक मुद्दे लेंगे जिन पर ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की अवस्थिति सुजीत दास के लेख में पेश की गयी है और उन अवस्थितियों पर क्लासिकीय मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षाओं के नज़रिये से विचार करेंगे।

2) समाजवाद की पहचान, उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष उत्पादकोंके नियन्त्रण और राज्यसत्ता व अलगाव का प्रश्न

सुजीत बोस के तमाम विभ्रमों के स्रोतों में सबसे अहम विचारधारात्मक विभ्रम का स्रोत हमें समाजवादी सामाजिक-आर्थिक संरचना की पहचान की कसौटी को लेकर उनकी सोच में मिलता है। और सुजीत दास इस विभ्रम को मार्क्सवाद के सिद्ध सिद्धान्त के तौर पर बार-बार दुहराते हैं, और इस हद तक दुहराते हैं कि हास्यास्पद दिखने लगते हैं। आइये देखें सुजीत बोस इसके बारे में क्या कहते हैं:

“…बिल्कुल शुरुआत में ही हमें यह प्राथमिक समझदारी बनानी होगी कि समाजवाद की पहचान कैसे करें। हालाँकि, इसके बारे में कई दृष्टिकोण हैं, यद्यपि हर व्यक्ति इस बुनियादी बिन्दु पर सहमत है कि यह प्रत्यक्ष उत्पादक का उत्पादन के साधनों से सम्बन्ध की पुनर्स्थापना है, जो कि प्रत्यक्ष उत्पादक के उत्पादन के साधनों से उस अलगाव को कदम-दर-कदम उन्मूलित करके सम्भव होता है, जो कि पूँजीवाद ने पैदा किया है।”

ऐसी अभिव्यक्तियाँ सुजीत दास ने पूरे लेख में बार-बार पूरे आत्मविश्वास के साथ दी हैं! दरअसल, वह जब भी सोवियत समाजवाद पर कोई तोहमत लगाते हैं तो अन्त यही कहकर करते हैं कि ‘और इसलिए प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव नहीं मिटा’, या ‘इसका कारण यह था कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव था’, या ‘इससे प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव बढ़ गया’, वगैरह! वह इस बात को इतनी बार दुहराते हैं कि आप बुरी तरह से ऊब जाते हैं। इस ऊब का मुख्य कारण यह नहीं है कि एक बात को दुहराया जा रहा है बल्कि इसका मुख्य और मूल कारण यह है कि एक मूर्खतापूर्ण बात को बार-बार आत्मविश्वास के साथ दुहराया जा रहा है। यह बात बार-बार दुहराने में सुजीत दास ने अपनी दो भयंकर रूप से भ्रमित अवधारणाएँ खोलकर रख दी हैं, जिन्हें सम्भवतः वह मार्क्सवादी समझते हैं।

पहली बात, किसी भी सामाजिक-आर्थिक संरचना के चरित्र के निर्धारण की मूल कसौटी के बारे में मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विचारों से सुजीत दास पूर्णतः अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं। सबसे पहली और सबसे ज़रूरी कसौटी है राज्यसत्ता का चरित्र। किसी भी सामाजिक-आर्थिक संरचना के वर्ग चरित्र का निर्धारण सर्वप्रथम राज्यसत्ता के चरित्र से ही किया जा सकता है। इस मुद्दे पर आगे बढ़ने से पहले यहाँ हम एक भ्रम का निवारण करते हुए आगे बढ़ना चाहते हैं, जिसका शिकार तमाम ट्रॉट्स्कीपन्थी संगठन और ‘सोशलिस्ट यूनिटी सेण्टर ऑफ़ इण्डिया’ और उससे समय-समय पर निकले संगठन हैं, जिनकी पूरी पद्धति पर अभी भी ट्रॉट्स्कीपन्थ का प्रभाव है। राज्यसत्ता के चरित्र और उत्पादन सम्बन्धों के चरित्र में परिमाणात्मक अन्तर हो सकता है, लेकिन वे एक-दूसरे के विपरीत नहीं हो सकते। जो भी राज्यसत्ता समाज में जारी वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया में नैसर्गिक तौर पर अस्तित्व में आयी है, वह उस समाज के वर्ग चरित्र के निर्धारण का बुनियादी पैमाना होगी। मिसाल के तौर पर, फ़रवरी क्रान्ति रूसी समाज में जारी वर्ग संघर्ष के नतीजे के तौर पर हुई थी और नतीजतन फ़रवरी क्रान्ति के बाद जो आरज़ी सरकार अस्तित्व में आयी, वह उस समय के रूसी समाज में वर्ग संघर्ष के स्तर को प्रतिबिम्बित करती थी। एस.यू.सी.आई., उससे निकले कई संगठनों और खुले और प्रच्छन्न ट्रॉट्स्कीपन्थी संगठनों का यह मानना है कि भारत में 1947 में चूँकि बुर्जुआ वर्ग सत्ता में आया इसलिए क्रान्ति की मंजिल तत्काल ही समाजवादी हो गयी थी। यह भी एक किस्म की यान्त्रिकता है और निगमनात्मक पद्धति है, जो राज्यसत्ता और समाज में जारी वर्ग संघर्ष के बीच के रिश्ते को बिल्कुल भूल जाती है। भारत में बुर्जुआ सत्ता वर्ग संघर्ष की नैसर्गिक प्रक्रिया के ज़रिये नहीं आयी थी। यह एक समझौते के तहत आयी थी, जिसमें देश छोड़ कर जा रहे उपनिवेशवादियों ने उस वर्ग के हाथ में सत्ता सौंपी जिससे बाद में भी वे अपने साम्राज्यवादी आर्थिक हितों को बढ़ावा देने के लिए ज़्यादा सरलता और सुगमता के साथ सौदेबाज़ी कर सकें। बुर्जुआ वर्ग अभी भारत में स्वयं ऐसी स्थिति में नहीं था कि अपने बूते वह सत्ता में आ पाता। वर्ग शक्ति सन्तुलन में उसका पलड़ा भारी हो चुका था, लेकिन सामन्ती शक्तियों की तुलना में उसकी शक्ति इतनी भी नहीं थी कि वह उनसे सीधे टकरा पाता। नतीजतन, इस नवसत्तासीन बुर्जुआ वर्ग ने भूमि सुधार के ज़रिये कृषि में पूँजीवादी विकास का क्रान्तिकारी रास्ता अख्‍त़ियार नहीं किया, बल्कि एक क्रमिक प्रक्रिया में आधे-अधूरे तरीके से होने वाले भूमि सुधारों का रास्ता चुना जिसकी प्रक्रिया आने वाले करीब दो दशकों तक जारी रही। नतीजतन, 1947 में गाँवों में जो स्थिति थी, उसमें समाजवादी क्रान्ति की मंजिल के अनुसार वर्ग मोर्चा बनना सम्भव नहीं था। जब तक गाँवों में उत्पादन सम्बन्ध प्रमुख रूप से पूँजीवादी नहीं बन जाते, तब तक ऐसा सम्भव नहीं था। रूस की स्थिति फ़रवरी क्रान्ति के पहले से ही काफ़ी भिन्न थी। रूसी कृषि मुख्य और मूल तौर पर प्रशियाई पथ के भूमि सुधारों द्वारा पूँजीवादी बन चुकी थी, जबकि भारत में यह प्रक्रिया बुर्जुआ वर्ग के सत्तासीन होने के बाद शुरू हुई थी। रूस में किसान आबादी फ़रवरी 1917 के पहले के दौर में, अभी भी ज़मीन की भूख का शिकार थी क्योंकि प्रशियाई पथ से होने वाला भूमि सुधार अभी प्रक्रिया में ही था और उसमें युंकरों से ज़मीन छीन कर, उसका राष्ट्रीयकरण करके पुनर्वितरण करने का काम नहीं किया जा रहा था। ऐसे में, किसान आबादी आर्थिक तौर पर मुख्य रूप से पूँजीवादी सम्बन्धों में प्रवेश कर चुकी थी, लेकिन उसके भीतर पूँजीवादी राजनीतिक चेतना अभी पकी नहीं थी। प्रतितथ्यात्मक (काउण्टरफैक्चुअल) इतिहास की पद्धति का अनुसरण करते हुए यह पूछा जा सकता है कि अगर वे अपवादस्वरूप पैदा हुई ऐतिहासिक स्थितियाँ न पैदा होंती, जिनका लेनिन ने ज़िक्र किया था और जिनके कारण बोल्शेविक क्रान्ति 1917 में हुई, और अगर रूसी क्रान्ति तीन या चार दशक बाद होती, जिनके दौरान क्रमिक प्रक्रिया के तहत होने वाला प्रशियाई भूमि सुधार पूर्ण होता, परिपक्व होता और किसानों की आबादी का ध्रुवीकरण और सुदृढ़ होता और पकता तो क्या सोवियत समाजवादी क्रान्ति को किसानों के लिए भूमि के पुनर्वितरण की आज्ञप्ति लागू करनी पड़ती? शायद नहीं! रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग की किसान प्रश्न पर बोल्शेविक पार्टी की नीति की आलोचना और कार्ल काऊत्स्की के इस आरोप का, कि रूसी क्रान्ति केवल एक जनवादी क्रान्ति है, लेनिन ने यही जवाब दिया था। लेकिन हम इस मुद्दे पर आगे वापस लौटेंगे; फिलहाल सुजीत बोस के लेख पर वापस चलते हैं।

मार्क्सवाद-लेनिनवाद के महज़ बुनियादी उसूलों की भी समझ रखने वाला व्यक्ति यह जानता है कि किसी सामाजिक-आर्थिक संरचना की पहचान राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र से होती है। अगर सर्वहारा वर्ग की हिरावल कम्युनिस्ट पार्टी ने सर्वहारा अधिनायकत्व की सत्ता की स्थापना कर दी है, तो आपको यह मानना होगा कि वह सामाजिक संरचना समाजवादी है। कोई भी अन्य कसौटी इसके बाद आती है। लेकिन सुजीत दास इस कसौटी का ज़िक्र तक नहीं करते हैं। यह कहना पर्याप्त नहीं है कि राज्यसत्ता का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है, लेकिन मूल कसौटी उत्पादन के साधनों से उत्पादक वर्ग के अलगाव के ख़त्म होने का है। राज्यसत्ता का प्रश्न केवल महत्वपूर्ण नहीं है, यह मूल और मुख्य है। यह सबसे बड़ा विभ्रम है, जिसके सुजीत दास शिकार हैं। उनका मानना है कि अलगाव का ख़त्म होना समाजवाद की पहचान की मूल कसौटी है। वास्तव में, उन्होंने समाजवाद की पहचान और समाजवाद से कम्युनिज़्म की ओर संक्रमण की प्रक्रिया की पहचान के मानकों को आपस में मिला दिया है और यही उनके इस विभ्रम का सबसे बड़ा स्रोत है। आगे हम इस पर विस्तार से बात रखेंगे। लेकिन इसी मूल विभ्रम से सुजीत दास अपने दूसरे विभ्रम पर आ जाते हैं।

यह विभ्रम है अलगाव की परिघटना के बारे में सिरे से ग़लत समझदारी। अलगाव के पूरे सवाल को हल करने का सुजीत दास एक सीधा और सरल रास्ता बताते हैं जो कि समाजवादी सत्ता सोवियत संघ में कोई कानून या आज्ञप्ति पास करके हासिल कर सकती थी। यह सीधा-सरल रास्ता है कि प्रत्यक्ष उत्पादकों को सीधे उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण दे दिया जाय। यानी कि कारखानों का नियन्त्रण कारखाने के मज़दूरों को सौंप दिया जाय, सामूहिक फार्मों का नियन्त्रण उस पर काम करने वाले किसानों के समूहों को सौंप दिया जाय, और क्या पैदा करना है, कैसे पैदा करना है और उत्पादन के साधनों का उपयोग कैसे करना है, उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया का निर्धारण कैसे करना है, ये सब सीधे प्रत्यक्ष उत्पादक तय करेगा। यानी, अलगाव को ख़त्म करने और उत्पादक के उत्पादन के साधनों के ‘प्रत्यक्ष नियन्त्रण’ के बीच में सुजीत बोस ने ‘इज़ इक्वल टू’ का चिन्ह रख दिया है। पहली बात तो यह है कि यह अलगाव की परिघटना की शर्मनाक रूप से अधकचरी और अधूरी समझदारी है। यह दिखलाती है कि सुजीत बोस को न सिर्फ़ 1917 से 1929 तक के सोवियत समाजवाद और बोल्शेविक पार्टी में चली बहसों के बारे में ठीक से नहीं पता है, बल्कि उन्हें वास्तव में 1930 के दशक के सोवियत समाजवाद और बोल्शेविक पार्टी के भीतर मौजूद दो लाइनों के संघर्ष के बारे में भी बहुत ही सीमित जानकारी है, और ऐसा लगता है कि यह सीमित जानकारी भी उन्हें किताबों की ‘प्रस्तावना’ व फ्लैप पढ़कर और विषय सूची से “अपने काम की सूचना” निकालकर उन्हें प्राप्त हुई है। यह जानकारी जिस अवस्थिति को जन्म देती है वह दरअसल बोल्शेविक पार्टी में अलग-अलग समय पर पैदा हुए “वामपन्थी” विपक्षों की अवस्थितियों और काउंसिल कम्युनिज़्म की अवस्थितियों का एक बेहद मज़ाकिया मिश्रण है। अब अलगाव के सवाल पर मार्क्स और लेनिन के दृष्टिकोण की कसौटी पर इस अवस्थिति को रखते हैं।

मार्क्स ‘1844 की आर्थिक व दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ’ में लिखते हैं:

“स्वयं राजनीतिक अर्थशास्त्र के ही आधार पर, उसी की भाषा में, हमने दिखलाया है कि मज़दूर एक माल के स्तर पर पहुँच जाता है और वास्तव में मालों में भी सबसे अभागा माल बन जाता है; कि प्रतिस्पर्द्धा का अनिवार्य परिणाम है कुछ हाथों में पूँजी का संचय, और इस प्रकार सबसे भयंकर रूप में एकाधिकार की स्थापना; और कि अन्त में…पूरे समाज का दो वर्गों में बँट जाना सम्पति के स्वामी और सम्पत्तिहीन मज़दूर।

“राजनीतिक अर्थशास्त्र निजी सम्पत्ति से ही शुरुआत करता है; यह उसकी व्याख्या नहीं करता…राजनीतिक अर्थशास्त्र श्रम और पूँजी के बीच विभाजन, और पूँजी और भूमि के बीच विभाजन पर कोई रोशनी नहीं डालता…अब, इसीलिए, हमें निजी सम्पत्ति, लालच, श्रम, पूँजी और भूमि के विभाजन; विनिमय और प्रतिस्पर्द्धा के बीच, मूल्य और मनुष्य के अवमूल्यन के बीच, एकाधिकार और प्रतिस्पर्द्धा आदि के बीच आन्तरिक सम्बन्ध को समझना है हमें मुद्रा की व्यवस्था के साथ जुड़े हुए सम्पूर्ण अलगाव को समझना है।…हम एक वास्तविक आर्थिक तथ्य से शुरुआत करते हैं।

“मज़दूर जितनी समृद्धि पैदा करता है, जितना उसका उत्पादन अपनी शक्ति और आकार को बढ़ाता है, वह उतना ही दरिद्र होता जाता है। वह जितने माल पैदा करता है, वह उतना ही सस्ता माल बनता जाता है। मनुष्यों की दुनिया का अवमूल्यन वस्तुओं की दुनिया के बढ़ते मूल्य के साथ प्रत्यक्ष समानुपात में होता है। श्रम न सिर्फ़ माल पैदा करता है, यह स्वयं को और मज़दूर को भी एक माल के रूप में पैदा करता है और यह उसी दर से होता है जिस दर से वह आम तौर पर मालों का उत्पादन करता है।

“यह तथ्य महज़ इतना बताता है कि श्रम जिस वस्तु को पैदा करता है श्रम का उत्पाद वह उसके सामने एक परायी चीज़ के रूप में खड़ा हो जाता है, उत्पादक से स्वतन्त्र एक शक्ति के रूप में खड़ा हो जाता है। श्रम का उत्पाद वह श्रम है जो कि एक वस्तु में मूर्त रूप ग्रहण कर चुका है, जो भौतिक बन चुका हैः यह श्रम का वस्तुकरण है। श्रम की अनुभूति इसका वस्तुकरण है। इन आर्थिक स्थितियों के तहत श्रम की यह अनुभूति मज़दूरों के लिए अनुभूति के खो जाने के रूप में प्रकट होती है; वस्तुकरण वस्तु के खो जाने और उसकी गुलामी के रूप में; हस्तगतीकरण बेगानेपन के रूप में, अलगाव के रूप में।” (मार्क्स, इकोनॉमिक एण्ड फिलोसॉफिकल मैन्युस्क्रिप्ट्स ऑफ 1844, पाँचवाँ संशोधित अंग्रेज़ी संस्करण, 1977, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 66-68, अनुवाद हमारा)

मार्क्स की अलगाव की सोच यहाँ बिल्कुल स्पष्ट है। मार्क्स के अनुसार जो चीज़ अलगाव की पूरी परिघटना के मूल में है वह है एक परायी शक्ति द्वारा श्रम के उत्पाद का हस्तगतीकरण (एप्रोप्रियेशन)। निश्चित तौर पर, इसकी एक अभिव्यक्ति पूँजीवादी समाज में इस रूप में प्रकट होती है कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर कोई नियन्त्रण नहीं रह जाता है। लेकिन अलगाव की पूरी परिघटना को ही नियन्त्रण के सवाल पर अपचयित कर देना वास्तव में रोग के मूल को रोग के लक्षण के साथ गड्ड-मड्ड कर देना है। जाहिर है, कि निजी सम्पत्ति की सम्पूर्ण व्यवस्था में अलगाव अपने पूरे शत्रुतापूर्ण रुख़ के साथ मज़दूर के समूचे अस्तित्व पर हमला कर देता है। मज़दूर जितनी वस्तुएँ अपने श्रम के ज़रिये और प्रकृति का उपयोग करके पैदा करता है, उतना ही वह अपने श्रम के उत्पाद से भी दूर होता जाता है और उतना ही वह प्रकृति से भी बेगाना होता जाता है। यहाँ पर इस पूरी परिघटना का मूल कारण क्या है? पूँजी के स्वामियों द्वारा, यानी पूँजीपतियों द्वारा श्रम के उत्पाद का हस्तगतीकरण; एक शत्रुतापूर्ण शक्ति द्वारा मेहनत के उत्पाद का हस्तगतीकरण; इस उत्पाद के अम्बार के बढ़ने के साथ मज़दूर के अलगाव और दरिद्रता का बढ़ते जाना। यहाँ पर यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है कि जिस प्रकार उत्पाद (माल पूँजी) श्रम का वस्तुकृत रूप है, वैसे ही संचित मौद्रिक पूँजी स्वयं और कुछ नहीं बल्कि भण्डारित श्रम (स्टोर्ड लेबर) है। पूँजी संचय का सीधा रिश्ता इस बात से है कि मज़दूर जो माल पैदा करता है वह उसका नहीं होता। और यहाँ मार्क्स अलग-अलग मज़दूरों, या एक कारखाने के मज़दूरों, या एक उद्योग या सेक्टर के मज़दूरों की बात नहीं कर रहे हैं। वे समूचे मज़दूर वर्ग की बात कर रहे हैं। पूरा मार्क्सवादी अर्थशास्त्र व्यक्ति-आधारित नहीं बल्कि समष्टि-आधारित विश्लेषण पर आधारित है। और इस समष्टि की इकाई मार्क्सवादी विश्लेषण में वर्ग है। संक्षेप में कहें तो मार्क्स के लिए अलगाव की पूरी आर्थिक परिघटना का सबसे बुनियादी पहलू यह है कि पूँजीपति वर्ग मज़दूर वर्ग के श्रम के उत्पाद का हस्तगतीकरण करता है। और इसमें श्रमशक्ति का स्वयं एक माल बन जाना सबसे मूल कारक है। यही पूँजीवादी आर्थिक शोषण की कुंजीभूत कड़ी है, जिसे समझे बग़ैर पूँजीवादी शोषण को समझा नहीं जा सकता है।

इसके बाद मार्क्स अलगाव के दूसरे पहलू पर आते हैं। आइये देखें वह इसे किस रूप में व्याख्यायित करते हैं।

“अभी तक हमने मज़दूर के बेगानेपन, उसके अलगाव के केवल एक पहलू पर विचार किया है, यानी, मज़दूर के उसके श्रम के उत्पाद के साथ सम्बन्ध के पहलू पर। लेकिन यह अलगाव केवल परिणाम में अभिव्यक्त नहीं होता बल्कि उत्पादन की कार्रवाई में, स्वयं उत्पादक गतिविधि में भी अभिव्यक्त होता है। मज़दूर अपनी गतिविधि के उत्पाद से एक अजनबी की तरह टकराये ऐसा कैसे सम्भव होगा, अगर वह उत्पादन की कार्रवाई के दौरान ही अपने आपको खुद से अलग नहीं कर रहा होगा? उत्पाद आखिर उसकी, उत्पादन की गतिविधि का ही तो निचोड़ है। अगर फिर श्रम का उत्पाद अलगाव है, तो उत्पादन को भी सक्रिय अलगाव, गतिविधि का अलगाव और अलगाव की गतिविधि होना चाहिए। श्रम की वस्तु के अलगाव में श्रम की गतिविधि में मौजूद बेगानेपन, अलगाव का ही सार प्रस्तुत होता है।

“फ़िर आखिर अलगाव कैसे पैदा होता है?

“पहली बात, यह तथ्य कि श्रम मज़दूर के लिए बाह्य है, यानी कि वह उससे आन्तरिक प्रकृति से नहीं जुड़ा है; कि वह अपने काम में इसीलिए, अपनी पुष्टि नहीं करता बल्कि अपना नकार करता है, सन्तुष्ट महसूस नहीं करता, बल्कि नाखुश रहता है, अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का मुक्त विकास नहीं करता बल्कि अपने शरीर को मृत बनाता जाता है और अपने मस्तिष्क को बरबाद कर देता है। इसलिए मज़दूर अपने आपको तभी महसूस कर पाता है जब वह काम के बाहर होता है।…इसलिए उसका श्रम स्वैच्छिक नहीं बल्कि ज़बरिया श्रम है। इसलिए यह किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं है; यह उसके लिए बाह्य आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए एक माध्यम मात्र है। इसका अलगावपूर्ण चरित्र उसी समय जाहिर हो जाता है कि जब कोई शारीरिक या अन्य बाध्यता नहीं होती, तो श्रम से वह वैसे ही दूर भागता है जैसे कि प्लेग से।…श्रम की यह बाह्य प्रकृति इस तथ्य में दिखती है कि यह उसका श्रम नहीं है, बल्कि किसी और का है, कि वह उसका मालिक नहीं है, और श्रम करते समय इसीलिए वह स्वयं का मालिक नहीं होता, बल्कि उसका मालिक कोई और होता है।” (वही, पृ. 70-71)

मार्क्स इस बात को यहाँ आईने की तरह साफ़ कर देते हैं कि अलगाव की परिघटना का दूसरा पहलू स्वयं उत्पादन की गतिविधि में है। इस उत्पादन की गतिविधि में वह किसी और के लिए श्रम कर रहा होता है, और जाहिर-सी बात है ऐसा श्रम वह स्वेच्छा से नहीं कर सकता है, बल्कि ज़बरिया तौर पर ही कर सकता है। यह ज़बर्दस्ती प्रत्यक्ष हो सकती है या भौतिक आवश्यकताओं द्वारा थोपी हुई हो सकती है। किसी भी सूरत में वह यह बात जानता है कि उसे इस श्रम का मोल नहीं मिलने वाला; उसे उसकी श्रम शक्ति, जो कि स्वयं माल है, उसकी कीमत मिलने वाली है। और बुनियादी मार्क्सवाद समझने वाला व्यक्ति जानता है किसी माल का मूल्य और दाम कैसे तय होते हैं। हम यहाँ इसके विस्तार में नहीं जाएँगे। मार्क्स आगे इस पूरी बात का सारांश रखते हुए कहते हैं:

“हमने व्यावहारिक मानवीय गतिविधि, यानी श्रम के अलगाव की कार्रवाई को इसके दो पहलुओं में समझा है। (1) मज़दूर का अपने श्रम के उत्पाद से एक परायी वस्तु के तौर पर रिश्ता जो कि उस पर शासन कर रही है।…(2) श्रम का श्रम प्रक्रिया के भीतर उत्पादन की कार्रवाई से एक परायी गतिविधि के तौर पर रिश्ता, जो कि उसके लिए नहीं है।” (वही, पृ. 71-72)

मार्क्स ने इसके बाद अलगाव की प्रक्रिया और पूँजीवादी निजी सम्पत्ति के बीच सम्बन्ध स्थापित करते हुए बताया है कि बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों के लिए अलगाव निजी सम्पत्ति का नतीजा था; लेकिन वास्तव में इसका उल्टा होता है। निजी सम्पत्ति अलगाव का नतीजा होती है क्योंकि निजी सम्पत्ति और कुछ नहीं संचित पूँजी है और हम पहले ही देख आये हैं कि पूँजी और कुछ नहीं बल्कि परकीकृत भण्डारित श्रम (रीइफाइड स्टोर्ड लेबर) है। यहीं से हम अपनी मूल चर्चा पर वापस आ सकते हैं।

मार्क्स ने अलगाव की पूरी प्रक्रिया के जिन दो पहलुओं की बात की है, जो वास्तव में एक दूसरे से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं, उसी के आधार पर अलगाव को दूर करने की पूरी कम्युनिस्ट परियोजना के दो पहलुओं की बात की जा सकती है। इस प्रक्रिया की शुरुआत का पहला चरण सर्वहारा वर्ग द्वारा अपना अधिनायकत्व और अपना राज्य स्थापित करने और उसके साथ निजी सम्पत्ति के कानूनी तौर पर उन्मूलन के साथ ही शुरू हो सकता है। अक्टूबर 1917 में जो हुआ वह इसी चरण की शुरुआत थी। और यह चरण सामूहिकीकरण की प्रक्रिया समाप्त होने के साथ पूरा हुआ जब उद्योग से लेकर कृषि के क्षेत्र तक निजी सम्पत्ति के तमाम रूपों का उन्मूलन हुआ। जाहिर है, निजी सम्पत्ति के कानूनी तौर पर उन्मूलन के साथ पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध पूर्णतः समाप्त नहीं हो जाते। लेकिन इस चरण को पूरा किये बग़ैर आगे बढ़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती है। सभी कारखानों, खानों-खदानों, भूमि और बैंकों के सामूहिक सम्पत्ति बने बग़ैर उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया में निहित अलगाव के स्रोतों को ख़त्म नहीं किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा मज़दूर वर्ग के अलगाव को समाप्त करने की दिशा में एक महान ऐतिहासिक कदम होता है, और सोवियत संघ में स्तालिन के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग ने इस काम को अंजाम दिया।

इससे पहले कि हम अलगाव को ख़त्म करने की कम्युनिस्ट परियोजना के दूसरे चरण की बात करें एक बात को स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। समाजवाद के पूरे ऐतिहासिक संक्रमण काल के दौरान उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया में निहित अलगाव पूरी तरह ख़त्म नहीं हो सकता है। क्योंकि समाजवादी संक्रमण के दौरान भी उत्पादों के हस्तगतीकरण का एक पहलू मौजूद होता है। अभी भी उजरती श्रम मौजूद होता है; अभी हर किसी को उसके श्रम के अनुसार वेतन मिलता है; अभी ‘सभी से उनकी क्षमता के अनुसार, और सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार’ का कम्युनिस्ट सिद्धान्त लागू नहीं होता है। ऐसा तभी हो सकता है जब माओ के शब्दों में ‘क्रान्ति पर पकड़ बनाये रखते हुए उत्पादन को बढ़ाते जाने’ की प्रक्रिया को निरन्तर आगे बढ़ाया जाय और इस प्रक्रिया में अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति करते हुए, एक ओर शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम, कृषि और उद्योग व शहर और गाँव का फ़र्क मिटाया जाय और वहीं दूसरी ओर उत्पादन को बढ़ाते हुए प्रचुरता की मंजिल तक पहुँचाया जाय। केवल इसी प्रक्रिया के अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने के साथ अलगाव का ख़ात्मा हो सकता है। सुजीत दास का यह कहना कि सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के दौर में उत्पादक वर्ग का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण नहीं था और इसलिए उसका अलगाव बना हुआ था, और इसीलिए सोवियत समाजवाद इस दौर में महज़ ‘कागज़ी समाजवाद’ था, यह दिखलाता है कि वह समाजवादी संक्रमण के दौर की आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक गतिकी को नहीं समझते हैं। उन्हें लगता है कि अगर पार्टी ने ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ का उत्पादन के साधनों पर तत्काल नियन्त्रण स्थापित कर दिया होता, तो अलगाव का ख़ात्मा हो गया होता। इससे पता चलता है कि न तो वह अलगाव की पूरी परिघटना को समझते हैं, और न ही समाजवादी संक्रमण को। हर चीज़ को अपचयित करके ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ के नियन्त्रण पर ला दिया जाता है।

यहाँ एक और बात सुजीत दास नहीं समझते कि समाजवादी राज्यसत्ता के स्थापित होने और निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे के चरण के समाप्त होने के बाद समाजवादी समाज में जिन रूपों में उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया में अलगाव मौजूद होता है, उसकी पूँजीवादी समाज में मौजूद मज़दूर वर्ग के अलगाव से कोई तुलना नहीं की जा सकती है, जैसा कि उन्होंने बार-बार करने का प्रयास किया है। ऐसा वह इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनके पूरे लेख में जो एक चीज़ ग़ायब है वह है वर्ग विश्लेषण। यह सच है जब तक मज़दूर वर्ग एक वर्ग के तौर पर उत्पादन-सम्बन्धी, श्रम प्रक्रिया-सम्बन्धी और शासन-सम्बन्धी सभी निर्णय स्वयं लेना नहीं सीखता है, तब तक अलगाव का एक तत्व आर्थिक तौर मौजूद रहता है। इस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन जब तक मज़दूर वर्ग का हिरावल उसे संस्थाबद्ध नेतृत्व देते हुए निर्णय लेना सिखाता है और स्वयं निर्णय लेता है, जब तक मज़दूर वर्ग के श्रम के उत्पादों का राजकीय एजेंसियों द्वारा परकीकरण होता है, तब तक यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि यहाँ हस्तगतीकरण करने वाली शक्ति कौन-सी है? निश्चित तौर पर राज्यसत्ता और उसके निकाय। और इस राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र क्या है? इसकी चारित्रिक आभिलाक्षणिकता है सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व। सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का, लेनिन के शब्दों में, प्रमुख उपकरण क्या है? सर्वहारा वर्ग की पार्टी। पार्टी का सर्वहारा चरित्र किस बात से तय होता है? उसके नेतृत्व, नीतियों और काडर शक्ति के (इसी क्रम से) चरित्र से। लेनिन के इस कथन पर ग़ौर करें: “…कोई पार्टी वास्तव में मज़दूरों की राजनीतिक पार्टी है या नहीं, यह बात पूरी तरह मज़दूरों की सदस्यता होने पर निर्भर नहीं करती है, बल्कि उन लोगों पर भी निर्भर करती है जो उसका नेतृत्व करते हैं, इसकी कार्रवाइयों की अन्तर्वस्तु और इसके राजनीतिक रणकौशल पर भी निर्भर करती है।” (लेनिन, ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की दूसरी कांग्रेसः ब्रिटिश लेबर पार्टी से सम्बन्ध पर भाषण’, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-31, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1966, पृ. 257-58) अब इन अन्तर्दृष्टियों की रोशनी में अगर हम पूछें कि 1917 से 1953 तक के सोवियत संघ में मौजूद राज्यसत्ता और पार्टी का चरित्र क्या था तो जवाब क्या होगा? इस पर सुजीत दास को जब अलग से एक सामान्य बात कहनी होती है, तो वह मानते हैं कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी सत्ता में थे, पार्टी क्रान्तिकारी थी और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व था। लेकिन जब वे अपने विवरणों में जाते हैं, तो अन्त में अन्तरविरोधी नतीजे पर पहुँच जाते हैं और ऐसे अर्थहीन दावे करने लगते हैं कि ‘वर्ग का अधिनायकत्व नहीं था, पार्टी का अधिनायकत्व था’; ‘सर्वहारा अधिनायकत्व तो महज़ कागज़ों पर था’; ‘मज़दूर वर्ग निष्क्रिय हो गया था, उसकी ट्रेड यूनियनें और सोवियतें पार्टी की नौकर बन गयी थीं’, वगैरह। इन मुद्दों पर हम आगे आयेंगे क्योंकि सोवियतों की भूमिका, पार्टी की भूमिका, ट्रेड यूनियनों की भूमिका और सर्वहारा वर्ग की भूमिका के आपसी सम्बन्धों के बारे में सुजीत दास की पूरी सोच वही है जो ‘वर्कर्स अपोजिशन’, ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ ग्रुप, काउंसिल कम्युनिस्टों और मारियो ट्रॉण्टी के ‘मज़दूरवाद’ आदि जैसी अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी रुझानों की थी। और उसका जवाब देने के लिए हमें लेनिन, स्तालिन और माओ को उद्धृत करने से ज़्यादा कुछ करने की ज़रूरत नहीं होगी; इस काम को हम आगे एजेण्डे पर लेंगे।

लेकिन अभी हम सुजीत दास के इस विरोधाभास को उनकी नादानी मान लेते हैं और उनके मूल्य-आधारित निर्णयों (वैल्यू जजमेण्ट) को उनका ईमानदार कथन मानते हैं। यह सन्देह का लाभ देने पर देखें तो ऊपरी तौर पर वे मानते हैं कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व था और पार्टी अभी भी क्रान्तिकारी थी। अब इस सर्वहारा राज्य और उसके निकाय द्वारा मज़दूर वर्ग के उत्पादों का हस्तगतीकरण हो रहा है, तो इस रूप में तो अभी भी अलगाव मौजूद है कि अभी उत्पादन और शासन-सम्बन्धी सभी निर्णय स्वयं कम्यूनों में संगठित समूचा मज़दूर वर्ग नहीं ले रहा है, लेकिन यह भी सच है कि समाजवादी संक्रमण से गुज़र रहे एक समाज में मौजूद इस अलगाव और पूँजीवादी समाज में मज़दूर वर्ग जिस अलगाव का शिकार होता है, उसमें बहुत फर्क है। यह फर्क क्या है? यह फर्क यह है कि पूँजीवादी समाज में हस्तगतीकरण किया गया अधिशेष पूँजीपति वर्ग के हाथों में संचित होता हुआ मज़दूर वर्ग के लिए एक विशाल शत्रुतापूर्ण शक्ति बन जाता है, जो उसे बाद में सड़कों पर खदेड़ देता है और उसके जीवन की बुनियादी शर्तों से भी उसे महरूम कर देता है। लेकिन समाजवादी संक्रमण काल में ऐसा नहीं होता। समाजवादी संक्रमण काल में हस्तगतीकृत अधिशेष संचित होकर वापस मज़दूर वर्ग के ही जीवन के स्तरोन्नयन और बेहतरी के लिए वापस लौटता है। 1917 से 1956 के बीच में सोवियत संघ ने समूची मेहनतकश आबादी के जीवन को अभूतपूर्व रूप से स्तरीय और उत्कृष्ट बनाया था, जिसे कि ग़ैर-मार्क्सवादी ईमानदार प्रेक्षक भी मानने को मजबूर थे। निश्चित तौर पर, अभी इस पूरी प्रक्रिया को स्वयं मज़दूर वर्ग नहीं संचालित कर रहा है बल्कि उसके उन्नत तत्व उसकी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में संचालित कर रहे हैं। लेकिन मज़दूर वर्ग जानता है कि समाज के सभी संसाधन उसकी साझा सम्पत्ति हैं और वह एक वर्ग के तौर पर उनका मालिक है और यह भी कि अपनी हिरावल पार्टी के ज़रिये वह ही शासन कर रहा है। उसके अलगाव के सामाजिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रूप काफ़ी हद तक दब जाते हैं। एक आर्थिक परिघटना के तौर पर भी अलगाव के ख़ात्मे का पहला चरण पूरा हो चुका होता है।

दूसरा चरण तब तक पूरा नहीं हो सकता है जब तक कि शासन-सम्बन्धी और उत्पादन-सम्बन्धी सभी कार्यों को मज़दूर वर्ग धीरे-धीरे स्वयं अपने हाथ में लेने की स्थिति में नहीं पहुँच जाता है। यह एक अहम सवाल है कि सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी इस काम को अंजाम दे पायी या नहीं। इस पूरे मुद्दे पर हम आगे चर्चा करेंगे, जब हम समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी के कार्यभारों पर बात करेंगे। लेकिन एक बात तय है कि मज़दूर वर्ग सोवियत समाजवादी समाज में अलगाव से एक हद तक मुक्त हुआ था, न कि उसका अलगाव बढ़ा था। सर्वहारा अधिनायकत्व और सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना और निजी सम्पत्ति के समाज के हर क्षेत्र से ख़ात्मे के साथ अलगाव को दूर करने की ऐतिहासिक परियोजना का एक चरण पूरा हुआ था। इसके साथ मज़दूर वर्ग के भीतर सर्वहारा राज्यसत्ता, पार्टी और समाज पर अपने नियन्त्रण पर भरोसा पैदा हुआ था। इसके बिना न तो स्ताखानोवाइट आन्दोलन, शॉक वर्क टीम, पब्लिक टगबोट आन्दोलन, कम्युनिस्ट सुब्बोतनिक आदि जैसी शानदार सर्वहारा पहलें होतीं और न ही सोवियत संघ के सवा दो करोड़ मेहनतकश अपनी मज़दूर सत्ता की हिफ़ाज़त के लिए नात्सी जर्मनी के ख़िलाफ़ युद्ध में कुर्बानी देते। लेकिन सुजीत दास को शक़ है कि यह सारे काम आन्तरिक विचारधारात्मक-राजनीतिक प्रेरणा से कम और पार्टी की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से ज़्यादा हुआ था! अब कोई पहले से तय करके बैठा हो कि उसे क्या साबित करना है, तो ऐतिहासिक तथ्य और सच्चाइयाँ भी उसके सामने से हताश होकर लौट जाती हैं!

यहाँ एक आर्थिक परिघटना के तौर पर अलगाव के समाजवादी संक्रमण में मौजूद रहने को गहराई से समझना ज़रूरी है। जैसा कि माओ ने बताया था, समाजवादी समाज में अभी तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ यानी मानसिक और शारीरिक श्रम, उद्योग और कृषि और गाँव और शहर में अन्तर मौजूद होता है। जब तक यह अन्तर मौजूद होता है तब तक पूँजीवादी श्रम विभाजन भी मौजूद होता है; कुशल और अकुशल के बीच का अन्तर मौजूद होता है; बुर्जुआ अधिकार भी तब तक मौजूद रहते हैं। जाहिर है कि जब तक श्रम विभाजन मौजूद रहेगा तब तक विनिमय सम्बन्ध और विनिमय मूल्य बने रहेंगे। माल का अस्तित्व बना रहेगा क्योंकि अभी भी वस्तुओं का उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य दोनों बने रहेंगे। लिहाज़ा, अभी भी माल उत्पादन बना रहेगा और उजरती श्रम का अस्तित्व भी बरकरार रहेगा क्योंकि लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार प्राप्त नहीं करेंगे बल्कि अपने श्रम के उत्पाद का मोल हासिल करेंगे। जब तक विनिमय सम्बन्ध बने रहेंगे तब तक श्रम के उत्पाद के हस्तगतीकरण का तत्व मौजूद रहेगा। और हम मार्क्स से इस बात को जानते हैं कि अलगाव की आर्थिक परिघटना का मूल और कुछ नहीं बल्कि श्रम के उत्पाद का हस्तगतीकरण है। यह पूरी स्थिति, जैसा कि हमने पहले बताया है, समूचे समाजवादी संक्रमण काल में मौजूद रहती है। यह एक घटता हुआ रुझान हो सकता है या एक बढ़ता हुआ रुझान। इस पर हम आगे चर्चा करेंगे कि सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों में, विशेषकर स्तालिन के दौर में यह रुझान घट रहा था या बढ़ रहा था, और जो भी घटित हो रहा था उसका कारण क्या है।

लेकिन अभी हम सुजीत दास के लेख पर वापस चलेंगे। हम बता चुके हैं कि प्रचुरता की मंजिल आये बग़ैर और तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति, उत्पादन सम्बन्धों के सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बग़ैर समाजवादी संक्रमण को कम्युनिस्ट समाज की मंजिल तक नहीं पहुँचाया जा सकता है, और तब तक अलगाव को पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है। लेकिन सुजीत दास अलगाव को ख़त्म करने का एक सीधा-सरल रास्ता सुझाते हैं। वह मानते हैं कि समाजवादी संक्रमण के दौरान यदि सोवियत संघ में मज़दूरों और किसानों को उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण दे दिया गया होता तो यह अलगाव समाप्त हो गया होता! वह यह नहीं बताते कि ऐसा करने के लिए बोल्शेविक पार्टी और सोवियत राज्य को क्या करना चाहिए था; मसलन, क्या उन्हें कोई कानून पास करके सभी कारखाने उनमें काम करने वाले मज़दूरों के नियन्त्रण में सौंप देने चाहिए थे? क्या उन्हें कोई आज्ञप्ति जारी करके सभी सामूहिक व सहकारी फार्मों और यहाँ तक कि निजी फार्मों को उसमें काम करने वाले किसानों के नियन्त्रण में सौंप देना चाहिए था? उसी प्रकार बैंकों को बैंक के कर्मचारियों के नियन्त्रण में, खानों.खदानों को उनमें काम करने वाले मज़दूरों के हाथ में, रेलवे को रेल मज़दूरों के हाथ में……वगैरह?

इसमें दो बातें हैं। एक तो सुजीत दास को पता नहीं है कि क्रान्ति के बाद तुरन्त यह प्रयोग हुआ था जिसके भयंकर नतीजे सामने आये थे। इन पर हम आगे बात रखेंगे। और दूसरी बात यह कि अगर अलगाव की पूरी परिघटना को प्रत्यक्ष उत्पादक के नियन्त्रण के बारे में कोई कानून पास करके, आज्ञप्ति या कार्यकारी आदेश जारी करके ख़त्म करना सम्भव होता तो समाजवादी संक्रमण की अवधि एक दिन की होती, जिसमें कि सर्वहारा राज्यसत्ता ये सारी आज्ञप्तियाँ बनाकर आत्म-विलोपन कर लेती और समाज कम्युनिज़्म की मंजिल में प्रवेश कर जाता! अगर कम्युनिस्ट समाज (यानी कि अलगावरहित समाज) तक पहुँचने का रास्ता इतना सीधा और सुगम था और रूसी क्रान्तिकारियों को इतनी मामूली-सी बात और इतना आसान सा रास्ता समझ में नहीं आया तो दो ही सम्भावनाएँ हो सकती हैं: या तो बोल्शेविक पार्टी बेहद नौसिखुआ और नादान थी, या फिर सुजीत दास मूर्खतापूर्ण बात कर रहे हैं! इनमें से कौन-सी सम्भावना सही है, यह फैसला हम आप पर छोड़ते हैं!

अब हम एक बार अपनी अभी तक की बात को समेटना चाहेंगे। पहली बात, समाजवाद के पहचान की पहली कसौटी राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र है। अगर अलगाव के ख़ात्मे को समाजवाद की पहचान का पैमाना बना दिया जाय तो सुजीत दास को मानना पड़ेगा कि दुनिया में कभी कहीं समाजवाद नहीं था! तब फिर सोवियत संघ को 1917 से 1929 और फिर 1929 से 1953 के बीच समाजवादी क्यों माना जाय? इसके अलावा, अगर इन सबके बाद भी राज्यसत्ता के सवाल को नज़रअन्दाज़ करते हुए आप सोवियत संघ को किसी तरह समाजवादी मानते भी हैं, तो आपको यह मानना पड़ेगा कि 1956 में सोवियत संघ में ख्रुश्चेव के सत्ता में आने के बाद भी एक अपूर्ण (इम्पर्फेक्ट) समाजवाद ही था। अगर राज्यसत्ता और पार्टी के वर्ग चरित्र के सवाल को गोल कर दिया जाय, तो सबकुल गोलमगोल हो जाता है! और यही हालत सुजीत दास की इस लेख में हो गयी है। अगर अलगाव का होना या न होना समाजवाद के होने या न होने का पैमाना है और स्तालिन काल में और विशेषकर 1930 के दशक में मज़दूर वर्ग अलगाव का शिकार था, तो फिर सोवियत संघ में कभी समाजवाद नहीं था। बल्कि कहना चाहिए कि दुनिया में कभी भी कहीं समाजवाद नहीं था। सुजीत दास को फिर यह भी कहना चाहिए कि 1953 के पहले के और 1953 के बाद के सोवियत संघ में कोई फर्क नहीं था। स्पष्ट है कि सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षा को भूल गये हैं। किसी भी समाज और व्यवस्था के चरित्र का निर्धारण राजनीतिक तौर पर होता है और इसीलिए राज्यसत्ता का सवाल प्रमुख बन जाता है।

दूसरी अहम बात यह है कि सुजीत दास अलगाव की पूरी परिघटना को नहीं समझते हैं। वह अलगाव की पूरी परिघटना को प्रत्यक्ष उत्पादकों के प्रत्यक्ष नियन्त्रण पर लाकर ख़त्म कर देते हैं। यह एक किस्म का अर्थवादी निर्धारणवाद ही है, कह सकते हैं कि एक किस्म का “वामपन्थी” आर्थिक निर्धारणवाद। हम आगे देखेंगे कि लेनिन इस ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों के प्रत्यक्ष नियन्त्रण’ की अवधारणा को क्यों टटपुँजिया मानसिकता का प्रतीक मानते थे। लेकिन अभी यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि अलगाव की समस्या को प्रत्यक्ष उत्पादकों के नियन्त्रण से समानुपातिक वस्तु के रूप में जोड़ देना, मार्क्सवाद-लेनिनवाद का विकृतिकरण है। यह बताता है कि श्री दास ने मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों का अध्ययन किये बिना ही अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों, ट्रेडयूनियनवादियों और विसर्जनवादियों द्वारा लिखी गयी सोवियत संघ की आलोचनाएँ पढ़ ली हैं और उन्हें कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से ले लिया है!

यहीं से हम सुजीत दास के विश्लेषण प्रणाली के एक अन्य अहम नुक्ते पर आते हैं वर्ग, पार्टी, राज्यसत्ता और ट्रेड यूनियन के आपसी रिश्तों का सवाल।

3) वर्ग, पार्टी, सर्वहारा अधिनायकत्व, राज्यसत्ता, फैक्टरी कमेटियाँ और ट्रेड यूनियनें

क) सोवियत संघ में ट्रेड यूनियन और फैक्टरी कमेटियों के प्रश्न पर बहसें, उस पर लेनिनवादी अवस्थिति और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ का अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद

पूरे सामूहिकीकरण की प्रक्रिया और उसमें पार्टी और राज्य की भूमिका के बारे में सुजीत बोस की जो अवस्थिति है, उसमें सोवियत संघ का राज्य और बोल्शेविक पार्टी एक निरंकुश तानाशाह और अत्याचारी के रूप में प्रकट होते हैं। चूँकि ऐसा सिद्ध करने के अपने प्रयास में सुजीत दास द्वारा तथ्यों और उद्धरणों का मनमाने ढंग से और सन्दर्भ से काटकर चुनाव किया गया है और अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार उन्होंने अपनी बात साबित करने की कोशिश की है, इसलिए इन तथ्यों, उद्धरणों आदि की सच्चाई की पड़ताल भी हम आगे करेंगे, जब सोवियत संघ के इतिहास का अपना सकारात्मक मूल्यांकन हम रखेंगे और उस दौर की बात करेंगे, जिसकी सुजीत दास कर रहे हैं। फिलहाल हम ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ द्वारा उत्पादन के साधनों के प्रत्यक्ष नियन्त्रण की उनकी अन्धपूजा, और इसके द्वारा वर्ग, पार्टी, राज्यसत्ता और ट्रेड यूनियनों के बारे में उनकी समझ के बारे में कुछ बातें कहना चाहेंगे जो मार्क्सवादी पहुँच और पद्धति के सन्दर्भ में महत्व रखती हैं।

देखिये कि सुजीत दास क्या कहते हैं:

“…अगर वर्ग संगठन, यानी, उत्पादक वर्ग/वर्गों का अपना संगठन हर दिन बढ़ता नहीं जा रहा है, तो प्रत्यक्ष उत्पादक का उत्पादन के सम्बन्धों से अलगाव घट नहीं सकता है। लेकिन अगर इस वर्ग की राजनीतिक शक्ति विकसित नहीं हो रही है, तो यह शक्ति किसी छोटी सी मण्डली के हाथों में केन्द्रित हो जायेगी – चाहे इसके विपरीत कुछ भी कहा जाय। फिर, प्रत्यक्ष उत्पादक के इस अलगाव को कैसे दूर किया जा सकता है? सोवियतें सोवियत संघ में वह संस्था हो सकती थीं जिनके ज़रिये प्रत्यक्ष उत्पादकों की राजनीतिक शक्ति मूर्त रूप ले सकती थी। लेकिन सामूहिकीकरण आन्दोलन के पूरे कालखण्ड के दौरान यह देखा गया कि किसानों की सोवियतों की भूमिका परिधिगत थी। वे संस्थाएँ क्रमिक प्रक्रिया में मज़बूत नहीं बल्कि, कमज़ोर बनती गयीं; राज्य और पार्टी सापेक्षिक तौर पर मज़बूत बनते गये। सामूहिकीकरण आन्दोलन के पूरे कालखण्ड के दौरान, किसान समितियों को बस ऊपर से, यानी पार्टी से आने वाले निर्णयों पर सिर हिलाकर सहमति देने की भूमिका में धकेल दिया गया था।” (‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’, फ़रवरी 2008, पृ. 82-83)

किसान सोवियतों और किसान समितियों (इसके बारे में सुजीत दास कोई बात नहीं कहते, हालाँकि क्रान्ति की पूरी प्रक्रिया के दौरान और उसके बाद भी इनकी भूमिका कई मायनों में किसान सोवियतों से ज़्यादा महत्वपूर्ण थी) की भूमिका के साथ वास्तव में क्या हुआ था और क्यों हुआ था इसके बारे में हम बाद में बात करेंगे। अभी हम इस पूरे बयान में निहित विचारधारात्मक और राजनीतिक अवस्थिति की पहचान करके उसका विश्लेषण करेंगे। लेकिन पहले ऐसे कुछ और पाण्डित्यपूर्ण उद्गारों को देखें! एक जगह पर सुजीत दास बताते हैं कि समाजवाद के विकास की एक अन्य महत्वपूर्ण शर्त है कि गाँवों और शहरों के बीच की दूरी घटे, लेकिन सोवियत संघ में सामूहिकीकरण के दौरान गाँव और ग्रामीण अर्थव्यवस्था लगातार बुरी हालत में पहुँचते गये; भूमि लगान बढ़ा दिया गया, मनमाने तरीके से अधिशेष का विनियोजन किया गया, और किसानों पर ज़बरिया श्रम थोप दिया गया और कई बार उन्हें ज़बरन खानों-खदानों और कारखानों में काम करने के लिए भेज दिया गया। इसके बाद दास कहते हैं: “इन कदमों ने बिरले ही समाजवाद का विकास किया, उन्होंने उल्टे पूँजीवाद की स्थापना की।” (‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’, फ़रवरी 2008, पृ. 83) अभी हम यहाँ सुजीत दास द्वारा तथ्यों के साथ तोड़-मरोड़ और ज़ोर-ज़बर्दस्ती के पहलू को छोड़ भी दें (जिसे हम बाद में अनावृत्त करेंगे) तो भी उनकी यह टटपुँजिया लोकरंजक सोच खुलकर सामने आ जाती है कि समाजवादी संक्रमण के दौरान किसानों के एक हिस्से के साथ समाजवादी राज्य को ज़बर्दस्ती नहीं करनी पड़ेगी। कम-से-कम मार्क्स और लेनिन की यह सोच नहीं थी। लेनिन ने बार-बार, अलग-अलग समय में और कई जगहों पर यह स्पष्ट किया है कि ग्रामीण क्षेत्र में समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों का आधार तैयार करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी किसान आबादी के जिस हिस्से पर निर्भर रह सकती है वह है ग़रीब किसान (अर्द्धसर्वहारा) और ग्रामीण सर्वहारा आबादी; किसान आबादी का जो हिस्सा ढुलमुल-यकीन मित्र है, वह है मँझोले किसान; और ग्रामीण पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ समाजवादी रूपान्तरण की यह पूरी प्रक्रिया चलायी जायेगी। स्वयं देखें कि लेनिन क्या कहते हैं: “बुर्जुआ वर्ग माल उत्पादन से पैदा होता है; जिस किसान के पास सैकड़ों पूड अनाज का अधिशेष है जिसकी उसे अपने और अपने परिवार के लिए ज़रूरत नहीं है और जिसे वह मज़दूरों के राज्य को भूखे मज़दूरों की सहायता के लिए ऋण के तौर पर नहीं देता, और माल उत्पादन की प्रभावी परिस्थितियों में उसके बूते पर मुनाफ़ा कमाता है वह क्या है? क्या वह बुर्जुआ नहीं है? क्या बुर्जुआ वर्ग इसी तरीके से पैदा नहीं होता है?” (लेनिन, सातवीं अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस)

लेनिन ने कई जगहों पर यह भी स्पष्ट किया था कि मँझोले किसान का चरित्र दोहरा है। एक तरफ़ वह अपने खून-पसीने के बूते उत्पादन करता है, वहीं दूसरी ओर वह कई बार छोटे पैमाने पर उजरती श्रम का शोषण करता है और अधिशेष विनियोजन करता है। उसके सपने कुलकों और धनी किसानों जैसा बन जाने के होते हैं। इसीलिए वह समाजवादी एजेण्डे के साथ सघन और सचेतन राजनीतिक प्रचार के साथ ही आयेगा और हमें इस मुगालते में भी नहीं रहना चाहिए कि पूरी की पूरी मँझोली किसानी समाजवाद के पक्ष में आ जायेगी, जैसा कि चार्ल्स बेतेलहाइम ने अपनी पुस्तक ‘सोवियत संघ में वर्ग संघर्ष’ के पहले खण्ड में यक़ीन दिलाने की कोशिश की है। लेनिन स्पष्ट थे कि मँझोले किसानों का एक हिस्सा कुलकों के पक्ष में जाकर खड़ा होगा और एक हिस्सा सक्रिय तौर पर कुलकों के पक्ष में न जाकर भी एक ‘पैस्सिव’ असहयोग की नीति पर काम करेगा। इन हिस्सों के साथ समाजवादी राज्य को समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया में कभी न कभी ज़ोर-ज़बर्दस्ती करनी ही होगी, और इसमें सुजीत दास के अचम्भित, चकित और सन्न रह जाने का कोई कारण नहीं समझ में आता है कि सामूहिकीकरण के दौरान ज़ोर-ज़बर्दस्ती भी हुई थी (हालाँकि मुख्य पहलू ज़ोर-ज़बर्दस्ती का नहीं बल्कि राजनीतिक प्रेरण का था, जिसे सुजीत दास एक कृत्रिम कारक मानते हैं)! स्तालिन ने इसी सोच के तहत यह सवाल पूछा था कि जिन मज़दूरों ने हाड़ गलाकर किसानों को ट्रैक्टर और मशीनें दीं, क्या अब उन्हें किसानों के व्यक्तिगत हितों को देखने की टटपुँजिया आदत के कारण भूखा मरने के लिए छोड़ दिया जाय? लेनिन ने पहले ही इस विषय में अपनी सोच स्पष्ट कर दी थी। सातवीं अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में ही लेनिन ने कहा था कि जब देश के मेहनतकश भूख से तड़प रहे हों, तो धनी या खाते-पीते मँझोले किसानों की मुनाफ़ाखोरी और निजी पूँजी संचय की प्रवृत्ति से सर्वहारा राज्य सख़्ती से निपटेगा। लेनिन ने इसी कांग्रेस में किसानों द्वारा मुनाफ़ाखोरी और सट्टेबाज़ी के बारे में कहा थाः “हम इसके ख़िलाफ़ खून की आख़िरी बूँद तक लड़ेंगे। इस मामले में कोई छूट नहीं दी जा सकती है।” लेनिन की इस सोच का क्या अर्थ है? लेनिन ने स्वयं ही स्पष्ट किया है कि इस सोच का यह अर्थ है कि मँझोले किसानों की आबादी के प्रति पार्टी पहले उदाहरण पेश करके नेतृत्व करने, उन्हें धैर्यपूर्वक सहमत करने और साथ लेने का अप्रोच अपनायेगी; लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी की पूरी मँझोले किसानों की आबादी को सहमत करके समाजवादी एजेण्डे पर लाया जा सकता है; इसलिए लेनिन यह बताते हैं कि जो हिस्सा सहमत नहीं होता, उसके प्रति पहले उसे तटस्थ करने (न्यूट्रलाइज़ करने) की रणनीति को अपनाया जाना चाहिए जिसका अर्थ होगा कि अगर वे समाजवादी निर्माण के कार्य में साथ नहीं आते, तो वे उसे नुकसान भी न पहुँचाएँ और कुलकों का पक्ष न चुनें। और मँझोले किसानों की जो आबादी फिर भी कुलकों और धनी फार्मरों के राजनीतिक प्रभाव में प्रतिक्रान्ति के पक्ष में जाकर खड़ी होगी, समाजवादी राज्य निश्चित तौर पर उसके प्रति दमन की नीति अपनायेगा। लेनिन को इस सम्बन्ध में कोई भ्रम नहीं था कि राज्यसत्ता का क्षेत्र दमन का क्षेत्र है। हम इन मुद्दों पर लेनिन की पूरी सोच को कुछ आगे उद्धरणों समेत आपके सामने रखेंगे। लेकिन अभी सुजीत दास के “बौद्धिक” वटवृक्ष से “कम्युनिस्ट” बोधि-ज्ञान की थोड़ी और प्राप्ति कर ली जाय! सुजीत दास लिखते हैं:

“इस जटिल परिदृश्य को कैसे देखा जाय, इसकी व्याख्या कैसे की जाय, यह आज एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। पश्चिमी विचारकों ने, जिन्होंने इस पूरे दौर को पार्टी के नेतृत्व में पूँजीवाद के आदिम संचय के दौर के तौर पर चित्रित किया है, वे श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार की अनुपस्थिति को नहीं समझा पाते, जो कि पूँजीवाद के दो बुनियादी गुण हैं। दूसरी तरफ़, रूढ़िवादी मार्क्सवादी जो यह कहना पसन्द करते हैं कि यह पूरा दौर शुद्ध ‘समाजवाद’ का था, इस बात की व्याख्या नहीं कर पाते कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव क्रमिक प्रक्रिया में बढ़ क्यों रहा था। वास्तव में, यह पूरा दौर एक ‘मिश्रित’ दौर था। इसे पूँजीवादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो लोग सत्ता में थे, वे न तो पूँजीवादी थे और न ही पूँजीवादी पथगामी। उनका राजनीतिक लक्ष्य था समाजवाद का निर्माण करना, सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना करना। हम इस दौर को उसी रूप में समाजवादी कह सकते हैं जिस तौर पर लेनिन ने 1918 या 1921 के सोवियत गणराज्य को समाजवादी कहा था।” (वही, पृ. 8-84)

देखिये कि इसमें सुजीत दास अपनी ही बात में कैसे उलझ गये हैं। साथ ही सुजीत दास ने यह भी बिल्कुल स्पष्ट कर दिया है कि दक्षिणपन्थी अवसरवादी संशोधनवादियों, “वामपन्थी” कम्युनिस्टों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों में एक चीज़ साझा होती हैः अर्थवाद! पहली बात, सुजीत दास मार्क्स और लेनिन के इस विचार को नहीं समझते हैं कि पूँजीवाद की मौजूदगी श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार की औपचारिक मौजूदगी के बग़ैर भी हो सकती है। लेनिन ने कहा था कि पूँजी एक सामाजिक सम्बन्ध है। यह सामाजिक सम्बन्ध उत्पादन और उसके उत्पादों के हस्तगतीकरण की सामाजिक प्रक्रिया से तय होता है। इस पूरी प्रक्रिया का वर्ग चरित्र इस बात से तय होता है कि जो हस्तगतीकरण कर रहा है उसकी वर्ग पहचान क्या है। जहाँ तक श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार का प्रश्न है, वह सोवियत संघ में 1956 के बाद भी तत्काल नहीं पैदा हो गया था और उसमें दशकों लगे थे। तो क्या 1956 के बाद के सोवियत संघ को समाजवादी माना जाय? इसके अलावा, पूँजीवाद बिना औपचारिक निजी सम्पत्ति, पूँजी बाज़ार और श्रम बाज़ार के अस्तित्वमान रह सकता है, इसकी ताईद तो एंगेल्स ने ही कर दी थी। इस मामले में सुजीत दास फिर से राजनीति को कमान में रखने की बजाय अर्थशास्त्र को कमान में रख रहे हैं, वह भी दयनीय रूप से दरिद्र रूप में। यहाँ यह भी पता चलता है कि सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण और पूँजीवादी पुनर्स्थापना को लेकर 1960, 1970 और 1980 के दशकों में मार्क्सवादियों के विभिन्न खेमों के बीच चली बहसों बारे में भी सुजीत दास को कोई जानकारी नहीं है। वास्तव में, सुजीत दास पूँजी और श्रम बाज़ार की मौजूदगी को पूँजीवाद की उपस्थिति या अनुपस्थिति का पैमाना मान रहे हैं, उसी प्रकार कीन्सीय मार्क्सवाद के हामी पॉल स्वीज़ी ने भी “बाज़ार” और “योजना” के ‘बाइनरी’ को पेश किया था और सोवियत संघ में 1956 हुई पूँजीवादी पुनर्स्थापना को लेकर विभ्रमित थे। पॉल स्वीज़ी ने यही ग़लती की थी; उन्होंने भी बाज़ार की मौजूदगी को पूँजीवाद का पैमाना माना था और नियोजन की मौजूदगी को समाजवाद का पैमाना माना था। चार्ल्स बेतेलहाइम ने इस बहस में अपेक्षाकृत सन्तुलित तर्क रखते हुए स्वीज़ी का खण्डन किया था। इस बहस में दिलचस्पी रखने वाले लोग ‘ऑन दि ट्रांजिशन टू सोशलिज़्म’ पुस्तक देख सकते हैं, जो कि ‘मन्थली रिव्यू प्रेस’ ने 1971 में प्रकाशित की थी। सुजीत दास का पूँजीवाद की पहचान के लिए श्रम और पूँजी बाज़ार की मौजूदगी का तर्क वस्तुतः अर्थवादी, कीन्सवादी तर्क है जिसका मार्क्सवाद-लेनिनवाद की अवस्थिति से बार-बार खण्डन किया जा चुका है। वास्तव में, रेमण्ड लोटा, ऐल शिमैंस्की आदि के बीच भी समाजवादी संक्रमण को लेकर एक बहस चली थी और उसमें भी यह मुद्दा उठा था और कमोबेश मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति से रेमण्ड लोटा ने अर्थवादी संशोधनवादी अवस्थिति का खण्डन किया था। इन सभी ग़ैर-मार्क्सवादी अवस्थितियों में जो बात सामान्य है वह है भोंड़े किस्म का अर्थवाद और राज्य के प्रश्न को न समझना। सुजीत दास इसी अवस्थिति को और भी ज़्यादा बचकाने और भोंड़े तौर पर आपके सामने रखते हैं।

सुजीत दास आगे बताते हैं कि इस दौर को समाजवादी सिर्फ़ इस रूप में कहा जा सकता है कि जो लोग सत्ता में हैं उनका इरादा समाजवादी निर्माण करना और सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना करना है, जैसा कि लेनिन ने 1918 या 1921 के दौर के सोवियत गणराज्य के बारे में कहा था। मतलब कि सुजीत दास को मई-जून 1918 (यानी कि “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर के शुरू होने के पहले) तक और मार्च, 1921 के बाद अस्तित्वमान स्थिति (यानी “युद्ध कम्युनिज़्म” के समाप्त होने के बाद), यानी, सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत “राजकीय पूँजीवाद” के दौर और 1930 के दशक के सोवियत संघ के बीच कोई फर्क नहीं नज़र आता! यह विचित्र बात है क्योंकि सामूहिकीकरण के बाद कृषि के क्षेत्र में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना के साथ ही नेप के दौर से एक गुणात्मक परिवर्तन आ चुका था। अब स्थिति यह नहीं थी कि राज्यसत्ता का चरित्र सर्वहारा अधिनायकत्व का है और कृषि क्षेत्र में, जो कि पूरी अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा क्षेत्र था, निजी पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्ध बने हुए हैं। सामूहिकीकरण के आन्दोलन के बाद पहली बार सोवियत संघ में सम्पत्ति सम्बन्धों के धरातल पर पूँजीवाद का ख़ात्मा हो चुका था। यहाँ दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि सम्पत्ति सम्बन्ध ही सम्पूर्ण उत्पादन सम्बन्ध नहीं होते। लेकिन निश्चित तौर पर उत्पादन सम्बन्धों के रूपान्तरण की शुरुआत सम्पत्ति सम्बन्धों से ही होती है। 1918 से 1921 के बीच सर्वहारा अधिनायकत्व के स्थापित होने और कुछ चुनिन्दा बड़े उद्योगों के राजकीयकरण के अलावा सम्पत्ति सम्बन्धों के रूपान्तरण का काम भी नहीं हुआ था। यह काम स्तालिन के नेतृत्व में 1930 के दशक में ही पूरा हुआ। लेकिन सुजीत दास को इन दोनों दौरों के बीच कोई फर्क नहीं नज़र आता है। समूची अर्थव्यवस्था में सामूहिक सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना जैसे महान ऐतिहासिक परिवर्तन को नज़रअन्दाज़ वही कर सकता है, जो पहले से तय किसी नतीजे पर पहुँचने की जल्दी में हो और इस जल्दी में वह राजनीतिक रूप से दृष्टिहीन हो चुका हो। निश्चित तौर पर, समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना के बाद भी उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण का काम जारी रहता है और अगली मंजिल में प्रवेश करता है। सोवियत संघ में अगली मंजिल का काम कहाँ तक हो पाया और कहाँ तक नहीं, यह एक अलग चर्चा का विषय है, और इस पर हम आगे विस्तार से अपनी बात रखेंगे, जब हम सोवियत समाजवाद और विशेष तौर पर स्तालिन के दौर में हुई ग़लतियों और समाजवादी निर्माण को लेकर बोल्शेविक पार्टी की असन्तुलित समझदारी का आलोचनात्मक विश्लेषण करेंगे। लेकिन अभी हम सुजीत दास की विचित्र तर्क-पद्धति और विचारधारात्मक-राजनीतिक नेत्रहीनता पर ही अपनी बात को केन्द्रित करेंगे।

आगे सुजीत दास यहाँ कहते हैं कि कुछ रूढ़िवादी मार्क्सवादी सोवियत समाजवाद के पूरे दौर को “शुद्ध ‘समाजवाद’” का दौर मानते हैं। अब यह “शुद्ध ‘समाजवाद’” क्या होता है, यह तो दास ही बता सकते हैं; और हमारी जिज्ञासा इस बात में भी है कि इस “शुद्ध ‘समाजवाद’” में धार्मिक आस्था रखने वाले “रूढ़िवादी मार्क्सवादी” कहाँ पाये जाते हैं! दूसरी बात, सुजीत दास के इस कथन से यह भी पता लगता है कि वह खुद भी एक प्रकार के “शुद्ध समाजवाद” के अनुयायी हैं। उनके लिए समाजवाद की शुद्धता इस बात में है कि ‘प्रत्यक्ष उत्पादक’ उत्पादन के साधनों का नियन्त्रण कर रहा है या नहीं। लेकिन चूँकि सुजीत दास को अपने वाला “शुद्ध समाजवाद” सोवियत संघ में नहीं दिखता, और चूँकि वे स्तालिन और उनके दौर की पार्टी को संशोधनवादी या पूँजीवादी पथगामी भी नहीं कहना चाहते, इसलिए यहाँ सुजीत दास ने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के क्षेत्र में एक नया, आँखें चुँधिया देने वाला, चकित-अचम्भित कर देने वाला आविष्कार किया है! वे इस दौर को न तो पूँजीवादी मानते हैं, और न ही समाजवादी! वह इसको एक ‘मिश्रित’ दौर बोलते हैं क्योंकि सर्वहारा अधिनायकत्व के साथ-साथ उत्पादन सम्बन्ध मूलतः पूँजीवादी बने हुए थे (हालाँकि ऐसा नहीं था; अगर मूल और मुख्य पहलू की बात की जाय तो उत्पादन सम्बन्ध समाजवादी थे) और इस दौर की तुलना उन्होंने राजकीय पूँजीवाद के दौर से की है। पहली बात तो यह कि राजकीय पूँजीवाद के दौर और सामूहिकीकरण के दौर की उत्पादन सम्बन्धों के धरातल पर मुश्किल से ही तुलना हो सकती है। कह सकते हैं कि ये दौर गुणात्मक तौर पर भिन्न थे क्योंकि उत्पादन सम्बन्धों के रूपान्तरण की पहली मंजिल, यानी कि पूँजीवादी निजी सम्पत्ति का अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों से ख़ात्मे, का काम पूरा हो चुका था। यहाँ पर निरन्तरता का पहलू प्रधान नहीं है बल्कि परिवर्तन का पहलू प्रधान है। सुजीत दास के इस कथन से एक बार फिर यह बात प्रतीत हो रही है कि उन्होंने सोवियत इतिहास पर कोई भी विश्वस्नीय ब्यौरा, शोध या पुस्तक शुरू से अन्त तक नहीं पढ़ी है; उन्होंने पहले से तय कर रखा था कि उन्हें क्या साबित करना है, और फिर उसे साबित करने के लिए विषय-तालिका की मदद से उन्होंने अपने मनपसन्द तथ्य और उद्धरण छाँट लिये हैं। उन्हें न तो 1930 के दशक के पहले सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण के बारे में कुछ ठीक से पता है, और न ही 1930 के दशक के बारे में। यहाँ सकारात्मक तौर पर समाजवादी संक्रमण के बारे में हम कुछ बातें कहना चाहेंगे।

एक, अगर सुजीत दास समाजवादी और पूँजीवादी दोनों तत्व की मौजूदगी के कारण इस दौर को न तो समाजवादी कहना चाहते हैं और न ही पूँजीवादी, तो फिर पता नहीं वह किस चीज़ को क्या कहना चाहते हैं! क्योंकि समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर की यह ख़ासियत रहेगी ही कि इसमें पूँजीवादी और समाजवादी तत्वों का मिश्रण होगा और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व कायम होगा। समाजवादी संक्रमण के दौर की ख़ासियत ही यही है कि इस दौर में राज्यसत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में होती है और साथ में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण का कार्य जारी रहता है। इस मायने में समाजवादी क्रान्तियाँ बुर्जुआ क्रान्तियों से भिन्न होती हैं। इस बारे में ग्यॉर्गी लूकाच ने लेनिन की अवस्थिति को बहुत सटीक तरीके से संक्षेप में रखा है। लूकाच कहते हैं:

“क्योंकि समाजवाद कभी ‘अपने से’ नहीं आ सकता है, और न ही किसी अपरिहार्य प्राकृतिक आर्थिक विकास के तौर पर आ सकता है। पूँजीवाद के प्राकृतिक नियम निश्चित तौर पर उसे उसके अन्तिम संकट की तरफ़ ले जाते हैं, लेकिन इसकी राह के अन्त में समस्त सभ्यता का ध्वंस और एक नयी बर्बरता होगी।

“यही वह चीज़ है जो बुर्जुआ और सर्वहारा क्रान्तियों के बीच सबसे गम्भीर अन्तर का कारण है। बुर्जुआ क्रान्तियों की इतनी शानदार जीवन्तता (ब्रिलियण्ट इलान) के साथ आगे बढ़ने की क्षमता के सामाजिक कारण हैं, और वे इस तथ्य में निहित हैं कि वे एक लगभग पूर्ण हो चुकी आर्थिक और सामाजिक प्रक्रिया के परिणामों को एक ऐसे समाज में आगे बढ़ा रहे हैं, जहाँ पूँजीवाद के सशक्त उभार के कारण सामन्ती और निरंकुश ढाँचा राजनीतिक, शासनात्मक, कानूनी, आदि तौर पर पहले ही गहराई से कमज़ोर हो चुका है। वास्तविक क्रान्तिकारी तत्व यहाँ पर सामन्ती उत्पादन व्यवस्था का पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में रूपान्तरण है और इसलिए सैद्धान्तिक तौर पर इस प्रक्रिया का बिना किसी बुर्जुआ क्रान्ति, बिना क्रान्तिकारी बुर्जुआज़ी द्वारा किसी राजनीतिक उथल-पुथल के द्वारा ही पूरा होना सम्भव होगा। उस सूरत में सामन्ती और निरंकुश अधिरचना के वे हिस्से जो ‘ऊपर से हुई क्रान्ति’ के ज़रिये ख़त्म नहीं किये गये हैं, वे पूँजीवाद के पूर्ण रूप से विकसित होने पर स्वयं ही ढह जायेंगे (जर्मन स्थिति इस पैटर्न में बिल्कुल सटीक बैठती है)।

“निस्सन्देह, किसी सर्वहारा क्रान्ति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, अगर उसके आर्थिक आधार और पूर्वशर्तें पूँजीवादी समाज के गर्भ में ही पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के उद्भव के साथ पोषित न हुई हों। लेकिन इन दोनों प्रकार की प्रक्रियाओं के बीच विशाल अन्तर इस तथ्य में निहित है कि पूँजीवाद सामन्तवाद के भीतर पहले ही विकसित हो गया था, जो कि अन्त में इसके विघटन को अवश्यम्भावी बना देता है। इसके विपरीत, यह सोचना एक यूटोपियाई फन्तासी होगा कि समाजवाद की ओर अग्रसर कोई भी चीज़ पूँजीवाद के भीतर पैदा हो सकती है, सिवाय इसके कि इसे एक सम्भावना बनाने वाले वस्तुगत आर्थिक आधार निर्मित हो गये हैं, जो कि समाजवादी उत्पादन व्यवस्था के वास्तविक तत्वों में तभी रूपान्तरित हो सकते हैं, जब पूँजीवाद ढह चुका हो और उसके परिणाम सामने आ चुके हों।” (ग्यार्गी लूकाच, ‘क्रिटिकल ऑब्ज़र्वेशंस ऑन रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग्स “क्रिटीक ऑफ़ दि रशियन रिवोल्यूशन”’, हिस्ट्री एण्ड क्लास कांशसनेस, मर्लिन प्रेस, 1967)।

स्पष्ट है कि समाजवादी क्रान्ति के इस विशिष्ट चरित्र के कारण समाजवादी संक्रमण कोई सुगम-सरल दौर नहीं होता, जो पूँजीवादी संक्रमण जितना छोटा और अबाधित हो। पूँजीवादी संक्रमण दीर्घकालिक नहीं होता और कलम की नोक से पूँजीवादी राज्यसत्ता इसे बहुत छोटे से दौर में पूर्णता पर पहुँचा देती है। लेकिन समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी रूपान्तरण मानव इतिहास की पहली क्रान्ति है जिसमें एक शोषक वर्ग दूसरे शोषक वर्ग की जगह नहीं लेने वाला है, बल्कि इतिहास का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग, यानी सर्वहारा वर्ग अपने हिरावल के नेतृत्व में अपनी राज्यसत्ता स्थापित करने वाला है। समाजवादी निर्माण एक सतत् और सघन संघर्ष की प्रक्रिया है जिसमें सर्वहारा वर्ग को अपने अधिनायकत्व के तहत एक-एक करके बुर्जुआ वर्ग से अर्थजगत और राजनीति के बुर्ज फतह करने होते हैं। यह दौर हमेशा ही एक ऐसा दौर होगा जिसमें आर्थिक आधार और सम्बन्धों में समाजवाद और पूँजीवाद के तत्व मिश्रित होंगे।

अगर इस आधार पर इसे ‘मिश्रित’ कहा जाय, तो दुनिया में किसी भी दौर में किसी भी देश में क्या कभी समाजवाद था? असल चीज़ एक बार फिर सुजीत दास की निगाह से ओझल हो गयी है राज्यसत्ता का चरित्र। इसके अलावा, समाजवादी संक्रमण के अलग-अलग चरणों में भी वह फर्क नहीं कर पा रहे हैं। पहला चरण, सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना और सुदृढ़ीकरण के साथ 1921 में गृहयुद्ध की समाप्ति और सोवियत सत्ता के निर्णायक तौर पर स्थापना के साथ पूरा हुआ। दूसरा चरण, नेप के दौर के ख़त्म होने के साथ पूरा हुआ जब सोवियत सत्ता ने टूटते मज़दूर-किसान संश्रय को बचाने के लिए कुछ कदम पीछे हटाये और समाजवादी रूपान्तरण के काम को सीमित और एक हद तक स्थगित किया क्योंकि यही संश्रय सोवियत सत्ता का सामाजिक आधार था; यह दूसरा चरण अपने जीवन से ज़्यादा उत्तरजीवी हो गया जिसके कारण 1927 से 1929 के दौर में सोवियत सत्ता को भयंकर संकट का सामना करना पड़ा; इसे दूर करने के शुरुआती कदम के तौर पर समाजवादी संक्रमण का तीसरा चरण, यानी सामूहिकीकरण शुरू हुआ, जब सम्पत्ति सम्बन्धों के धरातल पर पूँजीवादी सम्पत्ति का अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र से ख़ात्मा किया गया, और समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्ध पूर्ण रूप से स्थापित हुए। ये चरण ही वास्तव में अलगाव की परिघटना को कदम-दर-कदम ख़त्म करने, या समाजवादी निर्माण या समाजवादी संक्रमण (आप जो भी बोलना चाहें!) के कदम थे और यह पूरी प्रक्रिया ऐतिहासिक तौर पर दीर्घकालिक, जटिल, संघर्ष और अन्तरविरोधों से भरी हुई ही हो सकती थी। जो इस बात को नहीं समझता वह मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों को भी नहीं समझता है।

 दूसरी बात, अगर प्रत्यक्ष उत्पादक का उत्पादन के साधनों से अलगाव को ख़त्म हो जाने को वह ‘समाजवाद’ कह रहे हैं तो वह वास्तव में कम्युनिज़्म को समाजवाद कह रहे हैं। तीसरी बात, समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों के पूँजीवादी तत्वों पर हावी होते जाने की प्रक्रिया कोई एकरेखीय प्रक्रिया नहीं है और इसके कई चरण हैं, जिनके ज़रिये समाजवादी समाज का कुण्डलाकार गति में ही विकास हो सकता है। हर सामाजिक प्रक्रिया के समान समाजवादी संक्रमण की प्रक्रिया भी अन्तरविरोधों से भरी होती है और इसका विकास भी कुण्डलाकार गति से ही होता है। इसे एकरेखीय रूप से समझने का हर प्रयास या तो सोवियत समाजवादी प्रयोग की पूजा की तरफ़ ले जायेगा, या सुजीत दास की तरह उसे ख़ारिज करने की तरफ़ ले जायेगा। इसलिए लेनिनवादी दृष्टि से देखा जाय तो यह मानना पड़ेगा कि उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण के कार्यभार की पहली अनिवार्य मंजिल का काम, यानी कि पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के पूर्ण ख़ात्मे का काम स्तालिन के दौर में ही हुआ था। हाँ, यह निश्चित तौर पर एक चर्चा का विषय है कि इसके आगे के चरण के काम, यानी कि उत्पादन सम्बन्धों के अन्य पहलुओं के समाजवादी रूपान्तरण का काम सोवियत संघ में किस हद तक हो पाया, जैसे कि श्रम के पूँजीवादी विभाजन, बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी, वितरण और हस्तगतीकरण की प्रक्रिया के समाजवादी रूपान्तरण आदि के कार्यों को बोल्शेविक पार्टी कहाँ तक सम्पन्न कर पायी। हम एक अलग उपशीर्षक के तहत इस पूरे मुद्दे पर लम्बी चर्चा करेंगे। लेकिन अभी हम सुजीत बोस के “मार्क्सवादी” प्रवचन की ज्ञान वर्षा पर वापस लौटने से अपने आपको रोक नहीं पा रहे हैं! देखें आगे वह क्या कहते हैं:

“प्रधान और ग़ैर-प्रधान अन्तरविरोध के बीच अन्तर्सम्बन्ध के निर्णय में ग़लती सोवियत अर्थव्यवस्था के सन्तुलित विकास में बाधा की तरफ़ ले गयी, सर्वहारा अधिनायकत्व केवल कागज़ पर रह गया, असलियत में सारी राजनीतिक शक्ति पार्टी के हाथ में केन्द्रित हो गयी…” (वही, पृ. 84, ज़ोर हमारा) इस, बांग्ला अर्थों में, ‘भयंकर’ अन्तर्दृष्टि पर हम आगे टिप्पणी करेंगे, फिलहाल, ऐसी सारी अन्तर्दृष्टियों को आपके सामने रखना बेहतर होगा।

“एक तरफ़, समाजवाद के व्यवहार के प्रति महान उत्साह था, जो कि काफ़ी हद तक सच्चा था। दूसरी ओर, प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव था…सत्ता पर कब्ज़े के ठीक बाद के वर्षों में मज़दूर सोवियतें तेज़ी से और स्वतःस्फूर्त रूप से अस्तित्व में आयीं थीं। ये राजनीतिक सत्ता के वास्तविक केन्द्र थे – उनके निर्णय लेने और नीति बनाने की प्रक्रिया में पार्टी हस्तक्षेप नहीं करती थी। इस दौर में, मज़दूर वर्ग ने अपनी पहल पर कारखानों का नियन्त्रण हासिल कर लिया, जिसे बाद में राज्य की आज्ञप्तियों द्वारा कानूनी बना दिया गया था। ‘सुब्बोतनिक’ आन्दोलन ऐसे ही जीवन्त वातावरण में शुरू हुआ।” (वही, पृ. 84) और देखें कि सुब्बोतनिक आन्दोलन के बाद अगले दो दशकों में मज़दूर वर्ग द्वारा शुरू की गयी इसी प्रकार की पहलों के बारे में सुजीत दास क्या नतीजा निकालते हैं: “सोवियत संघ के सरकारी दस्तावेज़ों में, उसके कला व साहित्य में, इस सफलता को समाजवाद की सफलता के रूप में बतलाया गया है। इस दावे में कुछ सच्चाई भी है। ज़ारशाही के निरंकुश शासन के अन्धकारमय दिन अभी भूले नहीं थे। उस अन्धकारमय शासन से मुक्त हुए लोग नैसर्गिक तौर पर उत्पादक कार्यों में लगने के लिए उत्साहित थे, क्योंकि तब तक उन्हें लगता था कि यह उनकी राज्यसत्ता है। वह पार्टी को अपनी पार्टी समझते थे। कृषि में हमने देखा कि इस दिखलायी पड़ रही वास्तविकता के नीचे एक दूसरी ज़्यादा गहरी असलियत थी। उद्योग में भी हम देखेंगे कि इस प्रोत्साहित काम के पीछे एक अन्य प्रक्रिया भी जारी थी जिसने प्रत्यक्ष उत्पादक को उत्पादन के साधनों से अलगावग्रस्त कर दिया। राजनीतिक सत्ता मज़दूर वर्ग के हाथ में केन्द्रित नहीं हो रही थी, बल्कि मज़दूर वर्ग पार्टी और राज्य के प्रति दासवत एक सामाजिक शक्ति बनता जा रहा था। ट्रेड यूनियनें जो कि उनका अपना संगठन थीं, वे या तो विलोपित होती जा रही थीं, या फिर उन्हें पार्टी और राज्य का गुलाम बनाया जा रहा था।….1929 तक सोवियत संघ की ट्रेड यूनियनों की कारखानों के प्रशासन में अहम भूमिका थी। उनके पास कुछ स्वतन्त्रता थी, जो उन्हें मज़दूरों की नियुक्ति और उन्हें हटाने के कदम उठाने, ऐसे निर्णयों का विरोध करने में जो कि मज़दूरों के ख़िलाफ़ जाते थे, मदद करती थी। यह स्थिति 1930 में बदल गयी। राज्य आर्थिक नियोजन के नाम पर ऐसे कदम उठाने लगा जिससे कि मज़दूरों के अधिकार छीन लिये गये – वे राज्य की ज़रूरतों को पूरा करने का उपकरण बन गये। लेकिन चूँकि सोवियत संघ के मज़दूर वर्ग को अपनी शक्ति का स्वयं उपयोग करने की आदत थी, इसलिए उन्होंने इन कदमों को स्वीकार नहीं किया। 1931 से सोवियत राज्य को कुछ और सख़्त कदम उठाने पड़े।” (वही, पृ. 85-87, ज़ोर हमारा)

यहाँ पर सुजीत दास ने सिद्ध कर दिया है कि उन्हें 1930 के पहले के सोवियत इतिहास के बारे में कोई जानकारी नहीं है; वास्तव में, इन महोदय ने 1917 से 1929 तक के इतिहास को पढ़े बग़ैर उसके बारे में ग़ैर-जिम्मेदार टिप्पणियाँ कर दी हैं। इन टिप्पणियों की आधारहीनता को तथ्यों समेत खण्डित करने के पहले सुजीत दास के “मार्क्सवादी” पाण्डित्य की एक और मिसाल देख लेना उचित होगाः

“लेनिन ने सुझाया था कि ट्रेड यूनियनों को एक स्वतन्त्र संगठन के रूप में बनाया जाय ताकि वे राज्य की पिछलग्गू न बनें, उनका मज़दूर वर्ग द्वारा अपने ही राज्य से अपने हितों की रक्षा करने के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया जा सके। लेनिन ने सोचा कि उत्पादन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए भी यह पहली आवश्यकता है। 14वीं पार्टी कांग्रेस में 1925 में इस विचारधारात्मक अवस्थिति को अपनाया गया। लेकिन बाद में जब तीव्र औद्योगिकीकरण के कार्यक्रम को हाथ में लिया गया तो यह अवस्थिति कमज़ोर पड़ गयी थी। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ट्रेड यूनियनों ने स्वयं ही अपने पुराने नेताओं को हटाना शुरू कर दिया। 1930 में 16वीं कांग्रेस में इन अपदस्थीकरणों को मान्यता दी गयी और यह कहा गया कि पुराने नेताओं का अवसरवाद पुनर्निर्माण के काल की आवश्यकताओं से मेल नहीं खाता है। उसके बाद से यूनियनें मज़दूर वर्ग के हितों की रक्षा करने की बजाय योजनाओं को सफल बनाने की उपकरण बन गयीं। साथ ही यूनियनों के ढाँचे को ऊपर से, पार्टी के ज़रिये बदलने की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी। ट्रेड यूनियन की केन्द्रीय परिषद की शक्ति को घटा दिया गया और उसके अध्यक्ष मण्डल में शक्ति केन्द्रित कर दी गयी जो कि पार्टी के पोलित ब्यूरो के नेतृत्व में था।…उत्पादन में वृद्धि को कायम रखने को अपना मुख्य लक्ष्य रखने के कारण यूनियनों को मज़दूरों की समस्याओं को गौण स्थान देने को बाध्य होना पड़ा; कई मामलों में वे मज़दूरों की मज़दूरी में बढ़ोत्तरी को रोकने का उपकरण बन गयीं। मज़दूरों का ट्रेड यूनियनों पर से भरोसा ख़त्म हो गया। कई मामलों में मज़दूरों के स्वतःस्फूर्त आन्दोलन होने लगे। ट्रेड यूनियनों को इन आन्दोलनों के दमन के लिए प्रयोग किया गया। 1932 में 9वीं ट्रेड यूनियन कांग्रेस से ट्रेड यूनियनें औपचारिक तौर पर राज्य का उपकरण बन गयीं। इस प्रकार “ट्रेड यूनियन संकट” की शुरुआत हुई।” (वही, पृ. 89-90)

इस पूरे उद्धरण में लेखक ने जो तथ्य दिये हैं, उनका उन्होंने कोई सन्दर्भ देना ज़रूरी नहीं समझा है। और समझा जा सकता है कि ऐसा क्यों है, क्योंकि इसके लिए लेखक को नये सन्दर्भों और “स्रोतों” का निर्माण करना पड़ेगा! इसमें अधिकांश तथ्य सुजीत दास की “मार्क्सवादी” कल्पनाओं की सुन्दर रचनाएँ हैं। इन सभी तथ्यों को हम यहाँ ख़ारिज करने की बजाय, आगे ख़ारिज करेंगे। यहाँ पर अभी हम उन्हीं तथ्यों को खण्डित करेंगे जिनका महत्व सुजीत दास के विचित्र किन्तु सत्य सैद्धान्तिकीकरणों के लिए केन्द्रीय है। यहाँ सुजीत दास ने ऐसा विराट गड़बड़झाला पैदा कर दिया है कि हम समझ नहीं पा रहे हैं कि शुरुआत कहाँ से करें! लेकिन फिर भी हम प्रयास करते हैं, क्योंकि और कोई चारा नहीं है!

सुजीत दास लिखते हैं कि सर्वहारा अधिनायकत्व केवल कागज़ों पर रह गया था और वास्तव में राजनीतिक सत्ता पार्टी के हाथ में केन्द्रित हो गयी थी। इसके कारण के तौर पर वह बताते हैं कि बोल्शेविक क्रान्ति के शुरुआती वर्षों के बाद से मज़दूर सत्ता के असली स्रोत, यानी, उनके विचार में सोवियतों की भूमिका को सचेतन तौर पर क्रमिक प्रक्रिया में समाप्त कर दिया गया। यही हश्र ट्रेड यूनियनों का भी हुआ जिन्हें राज्य के मातहत और उनके दास के समान बना दिया गया। पहले तो सर्वहारा अधिनायकत्व और इसकी पूरी मशीनरी में सोवियतों और ट्रेड यूनियनों के स्थान के बारे में लेनिन के विचारों को जान लेते हैं। इसके दो कारण हैं। एक तो यह कि सुजीत दास ने जिन-जिन चीज़ों के लिए बोल्शेविक पार्टी की आलोचना की है उन मुद्दों पर बोल्शेविक पार्टी की नीति मूल और मुख्य तौर पर सही है। दूसरा कारण यह कि अगर उन “ग़लतियों” पर सुजीत दास आलोचना करना ही चाहते हैं, तो उन्हें लेनिन की आलोचना करनी चाहिए; स्तालिन के सिर पर वह बिना वजह इन “ग़लतियों” का ठीकरा फोड़ रहे हैं। लेकिन श्री दास की कोई ग़लती नहीं है, क्योंकि, जैसा कि हमने पहले भी इंगित किया है, उन्हें 1929 तक के सोवियत संघ के इतिहास के बारे में अखबारी-टाइप सूचनाओं के अलावा कोई जानकारी नहीं है। इसलिए हम पहले लेनिन के विचारों पर एक निगाह डाल लेते हैं।

यहाँ हम 1919 से 1921 के बीच बोल्शेविक पार्टी में ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर चल रही बहस का ज़िक्र करना चाहेंगे, जिसे सुजीत दास ने अपनी मनमर्जी से 1932 में पहुँचा दिया है। क्योंकि 1932 में कोई ट्रेड यूनियन संकट नहीं पैदा हुआ था, जिसका कि वह दावा कर रहे हैं। ट्रेड यूनियनों की भूमिका पर बोल्शेविक पार्टी के भीतर लगातार ही बहसें और चर्चाएँ होती रहीं थीं; लेकिन जिस चीज़ को ट्रेड यूनियन विवाद या ट्रेड यूनियन संकट के तौर पर जाना जाता है वह मूलतः 1919 से 1921 के दौरान पार्टी के भीतर घटित हुआ था। उसके पहले सुजीत दास ने लेनिन के ट्रेड यूनियन-सम्बन्धी दृष्टिकोण के बारे में जो लिखा है, वह भी लेनिन का पूरा दृष्टिकोण नहीं था, बल्कि ट्रेड यूनियन के सवाल पर मौजूद दक्षिणपन्थी भटकाव का, जिसका प्रतिनिधित्व ट्रॉट्स्की और बुखारिन कर रहे थे, जवाब था। सकारात्मक तौर पर लेनिन की वह अवस्थिति थी ही नहीं, जो सुजीत दास बता रहे हैं। वह अवस्थिति तो वास्तव में पार्टी में मौजूद अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी धड़े की थी।

1919 से 1921 के बीच ट्रेड यूनियनों की भूमिका को लेकर दो छोर की अवस्थितियाँ मौजूद थीं। एक रुझान, जिसका प्रतिनिधित्व मुख्य तौर पर ट्रॉट्स्की और बुखारिन कर रहे थे, उसका मानना था कि ट्रेड यूनियनों का “राजकीयकरण” कर दिया जाना चाहिए। उनका मानना था कि ट्रेड यूनियनों को पूरी तरह राज्य के अधीन कर दिया जाना चाहिए। उन्हें राज्य के अधीन करने के साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और शासन के कार्यों की मुख्य तौर पर जिम्मेदारी सौंप दी जानी चाहिए, लेकिन इस प्रक्रिया में उन्हें पूरी तरह से राज्य और पार्टी के अधीन होना चाहिए। वास्तव में, ट्रॉट्स्की “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर में जो “श्रम के सैन्यकरण” की थीसिस लेकर आये थे, ट्रेड यूनियन पर उनकी थीसिस (देखें ट्रॉट्स्की की रचना ‘ट्रेड यूनियनों के कार्यभार’) उनकी “श्रम के सैन्यकरण” की उस पुरानी थीसिस का ही एक विस्तार थी। इस पर हम थोड़ा आगे वापस लौटेंगे, लेकिन अभी पहले ट्रेड यूनियन विवाद पर वापस आते हैं। ट्रेड यूनियनों को राज्य के अधीन कर दिये जाने की ट्रॉट्स्की व बुखारिन की थीसिस का पार्टी में ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नाम के धड़े ने पुरज़ोर विरोध किया। इस धड़े का प्रतिनिधित्व मुख्य तौर पर अलेक्ज़ैण्डर श्ल्याप्निकोव तथा अलेक्ज़ैण्ड्रा कोलोन्ताई कर रही थीं। कोलोन्ताई ने ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नामक एक पुस्तिका लिखकर अपने धड़े की पूरी अवस्थिति को पार्टी के बीच प्रसारित भी किया। फिर इन दोनों दस्तावेज़ों पर एक बहस शुरू हुई। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का मानना था कि ट्रेड यूनियन का “राजकीयकरण” नहीं किया जाना चाहिए, उल्टे राज्य का “ट्रेड यूनियनीकरण” कर दिया जाना चाहिए। उनका मानना था कि ट्रेड यूनियनें पूर्णतः स्वतन्त्र रहनी चाहिए और उन्हें राज्य के सभी कार्य सौंप दिये जाने चाहिए, मतलब कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन से लेकर शासन-प्रशासन के अन्य कार्य और पार्टी और राज्य को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इसके कारण के तौर पर वे वही बात कह रहे थे जो सुजीत दास कह रहे हैं। उनका कहना था कि ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदायों को समेटती हैं और इसलिए प्रत्यक्ष उत्पादन और शासन के नियन्त्रण को यदि प्रत्यक्ष उत्पादक वर्ग को सौंपना है, सर्वहारा वर्ग को सौंपना है, तो ट्रेड यूनियनों को स्वतन्त्र होना चाहिए और शासन-प्रशासन के काम उनके हाथों में सौंप दिये जाने चाहिए।

पार्टी की दसवीं कांग्रेस, जो कि मार्च 1921 में हुई, इन दोनों अवस्थितियों के बीच बहस-मुबाहसे का केन्द्र बनी। वास्तव में इसके पहले की दो पार्टी कांग्रेसों में भी यह मुद्दा पुरज़ोर तरीके से उठा था। ट्रॉट्स्की और बुखारिन की अवस्थिति की आलोचना तो लेनिन ने 1919 और 1920 में ही की थी, लेकिन ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की अवस्थिति की आलोचना मुख्य तौर पर 1921 में दसवीं पार्टी कांग्रेस में हुई। वास्तव में इस पूरे विवाद का फैसला दसवीं पार्टी कांग्रेस में हुआ। लेनिन ने इन दोनों छोरों की निमर्म आलोचना करते हुए ट्रेड यूनियनों की भूमिका के बारे में जो कुछ कहा, वह आज मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लिए हर मायने में बेहद महत्वपूर्ण बन गया है। यह न सिर्फ़ ट्रेड यूनियन के सवाल पर लेनिनवादी अवस्थिति का स्रोत बना, बल्कि समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की प्रकृति और चरित्र, उसमें पार्टी की भूमिका, पार्टी से सोवियतों और ट्रेड यूनियनों के आपसी रिश्ते और पार्टी और राज्य के रिश्तों पर एक सामान्य मार्क्सवाद-लेनिनवादी अवस्थिति का स्रोत बन गया। इस पर हम थोड़े देर में वापस लौटेंगे।

सबसे पहले हम 1920 के ट्रेड यूनियन सम्मेलन से लेकर 1921 की दसवीं पार्टी कांग्रेस के दौरान जो प्रमुख धड़े (फैक्शन) मौजूद थे, और जो इस पूरी बहस में हिस्सेदारी कर रहे थे, उनके बारे में बता दें। यहाँ हम पूरी बहस के घटना-सम्बन्धी ब्यौरे में नहीं जा रहे हैं, बल्कि उनकी अवस्थितियों के बारे में बात कर रहे हैं। घटनाओं में और ठोस ऐतिहासिक ब्यौरों में हम तब जायेंगे जब हम सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण की पूरी परियोजना के अपने आलोचनात्मक मूल्यांकन की शुरुआत करेंगे। 1918 से ही ट्रेड यूनियनों, फैक्टरी कमेटियों, राज्य, पार्टी और वर्ग के अन्तर्सम्बन्धों पर पार्टी के भीतर तीखी बहस जारी थी, जो वास्तव में सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी संरचना पर बहस थी। इस बहस के अलग-अलग धड़े निम्न प्रकार से थे, जो कि दसवीं कांग्रेस तक मुख्य रूप से तीन धड़ों के रूप में संगठित हो चुके थे।

पहला समूह वह था जिसके नेतृत्व में ओसिंस्की, स्मिर्नोव और साप्रोनोव थे, और इस समूह को ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ धड़े के नाम से जाना जाता था। यह समूह वास्तव में 1919 में आठवीं पार्टी कांग्रेस के समय में ही अस्तित्व में आने लगा था। आइये देखें कि इस धड़े का क्या कहना था। इनका कहना था कि सोवियतों को महज़ “रबर स्टैम्प्स” में बदल दिया गया है, जबकि हमारा पुराना नारा था ‘सारी सत्ता सोवियतों को’; उनका कहना था कि सोवियतों का काम यह हो गया है कि वे पार्टी के निर्णयों को पुष्ट करें; इसके अलावा उनका कहना था कि पार्टी के भीतर पोलित ब्यूरो में शक्ति केन्द्रित हो गयी है; यहाँ ग़ौरतलब है कि इस धड़े के अधिकांश नेता व सदस्य 1917-18 में बुखारिन के नेतृत्व में अस्तित्व में आये “वामपन्थी” कम्युनिस्ट विपक्षी धड़े के साथ रह चुके थे। यह बात अलग थी कि अब बुखारिन स्वयं इस पूरी थीसिस के ठीक विपरीत ट्रॉट्स्की के करीब खड़े थे। लेकिन 1918 में पार्टी की सातवीं कांग्रेस में ओसिंस्की ने कहा था, “हम मज़दूरों की वर्ग रचनात्मकता द्वारा सर्वहारा समाज के निर्माण के पक्षधर हैं, न कि उद्योग के कप्तानों की आज्ञप्तियों के द्वारा…अगर सर्वहारा वर्ग स्वयं नहीं जानता कि श्रम के समाजवादी संगठन की पूर्वशर्तें कैसे पूरी करनी हैं, तो उसकी ओर से कोई और यह काम नहीं कर सकता…समाजवाद और समाजवादी संगठन या तो स्वयं सर्वहारा वर्ग द्वारा स्थापित किया जायेगा, या फिर वह स्थापित ही नहीं किया जायेगा।” (ओसिंस्की, ‘ऑन दि बिल्डिंग ऑफ सोशलिज़्म’, दि कम्युनिस्ट, सं.-2, (अप्रैल, 1918), पृ-5, रूसी संस्करण) लेनिन ने इस पूरी सोच को अपने लेख ‘वामपन्थी बचकानापन और निम्न पूँजीवादी मानसिकता’ में निशाने पर रखा था और कहा था कि यह पूरी सोच स्वतःस्फूर्ततावादी, लोकरंजकतावादी और हिरावल की भूमिका का निषेध करती है। लेनिन की आलोचना पर हम थोड़ी देर में आते हैं। अभी हम 1919 से 1921 के बीच मौजूद प्रमुख समूहों की अवस्थितियों पर आते हैं। तो पहला समूह यह ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ ग्रुप था जिसके प्रमुख नेता ओसिंस्की, स्मिर्नोव और साप्रोनोव थे, जिनकी अवस्थितियों को जानकर पाठक एक कालदोषपूर्ण (एनाक्रॉनिस्टिक) कल्पना कर सकता है कि कहीं उन्होंने ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के फ़रवरी, 2008 के अंक में छपे सुजीत दास के लेख को तो नहीं पढ़ लिया था! लेकिन वह सुजीत दास के लेख से ठीक 90 वर्ष पहले की घटना है! लेकिन अगर हम कालदोष को हटा दें, तो साफ़ तौर पर लगता है कि सुजीत दास ने शायद उनकी अवस्थितियों को पढ़ा है, और अपने मर्म तक ले गये हैं। आगे हम देखेंगे कि सुजीत दास किस तरह से 1918, 1919, 1920 और 1921 के सभी “वामपन्थी” और अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी भटकावग्रस्त अवस्थितियों की खिचड़ी पकाते हैं और उन्हें ज़बरन लेनिन पर थोपने का प्रयास करते हैं।

दूसरा प्रमुख समूह था ट्रॉट्स्की का जिसके समर्थन में मुख्य रूप से राइकोव, क्रेस्टिंस्की, आन्द्रियेव और राडेक थे। ट्रॉट्स्की ने ट्रेड यूनियनों की स्वायत्तता पर हमले की शुरुआत बड़े पैमाने पर 1920 में मास्को में हुए एक अखिल रूसी ट्रेड यूनियन सम्मेलन (कांग्रेस नहीं, सम्मेलन) में की। ट्रॉट्स्की ने ट्रेड यूनियनों के पूरे ढाँचे को अन्दर से “झकझोर देने” की बात की। ट्रॉट्स्की ने कहा कि समूचे मज़दूर वर्ग के अराजकतापूर्ण ढंग से बदलते मिजाज़ों पर सर्वहारा अधिनायकत्व को नहीं छोड़ा जा सकता है। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के बारे में ट्रॉट्स्की ने एक ऐसी समझ रखी, जिसके मुताबिक पार्टी कभी ग़लती नहीं कर सकती है, और अचूक और अमोघ है। इसलिए सर्वहारा वर्ग अपनी पार्टी के द्वारा अपने ऊपर “स्वअनुशासन” लागू करता है। ट्रॉट्स्की इस सोच का समर्थन करते हुए कहाँ तक चले गये यह ट्रॉट्स्की के इस कथन से साफ़ हो जाता हैः “क्या यह सच है कि बाध्यतापूर्ण श्रम हमेशा अनुत्पादक होता है?…यह सबसे निन्दनीय और दयनीय उदारवादी पूर्वाग्रह हैः चैटेल गुलामी भी उत्पादक थी…बाध्यताकारी दास श्रम… अपने समय में एक प्रगतिशील परिघटना थी।” (तृतीय अखिल रूसी ट्रेड यूनियन कांग्रेस, स्टेनोग्राफिक रिपोर्ट, मास्को, 1920, रूसी संस्करण) निश्चित तौर पर, हम यह नहीं कह रहे हैं कि ट्रॉट्स्की की पूरी सोच इसी कथन से स्पष्ट हो जाती है क्योंकि ऐसा दावा करना ट्रॉट्स्की के साथ नाइंसाफ़ी होगी। लेकिन इससे ट्रॉट्स्की की पहुँच और पद्धति के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। यह बात सच है, और ऐसा लेनिन का भी मानना था, कि पार्टी के हिरावल होने के अर्थ में यह शामिल है कि सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदायों की हर राय या मिजाज़ का वह सम्मान नहीं कर सकती। यह भी सच है कि पार्टी को कई बार संकटपूर्ण परिस्थितियों में मज़दूर वर्ग के पिछड़े हुए, निम्नपूँजीवादी चेतना के शिकार हिस्से की इच्छाओं के विपरीत भी कई कार्य करने पड़ते हैं। निश्चित तौर पर, मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से जो चेतना पैदा करता है वह आर्थिक माँगों से आगे नहीं जाती और वह अपने आप में सर्वहारा चेतना नहीं होती। अगर इसी स्वतःस्फूर्ततावाद की सोच को आगे बढ़ा दिया जाय तो वह ट्रेड यूनियनवाद, अराजकतावाद, अर्थवाद और संघाधिपत्यवाद तक चली जाती है। लेनिन स्वयं इन रुझानों के सख़्त आलोचक थे और इसीलिए क्रान्ति से पहले मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में भी और क्रान्ति के बाद मज़दूर वर्ग की तानाशाही में भी वह क्रान्तिकारी पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को अपरिहार्य मानते थे। लेकिन ट्रॉट्स्की और लेनिन की अवस्थितियों में दो बुनियादी फर्क थे। एक, लेनिन पार्टी को हर स्थिति में अचूक और अमोघ नहीं मानते थे, जैसा कि ट्रॉट्स्की की उस समय की अवस्थिति में निहित है। वह मानते थे कि पार्टी को जनसमुदायों के प्रति अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को बनाये रहते हुए, जनसमुदायों से एक जीवन्त रिश्ता भी बनाये रखना होगा और उनसे सीखना भी होगा। यही पार्टी के नेतृत्व और नीतियों के सर्वहारा चरित्र को बनाये रख सकता है। एक दूसरे अर्थ में भी लेनिन की अवस्थिति ट्रॉट्स्की से बिल्कुल भिन्न थी। ट्रॉट्स्की “युद्ध कम्युनिज़्म” की नीतियों, जैसे कि जबरन कृषि अधिशेष वसूली, श्रम के सैन्यकरण, ट्रेड यूनियनों को राज्य के मातहत रखने और श्रम के अनुशासनीकरण, को एक विशेष आपातकालीन और अपवादस्वरूप दौर का बाध्यताकारी उत्पाद नहीं मानते थे। वह मानते थे कि इन नीतियों के ज़रिये “सीधे कम्युनिज़्म में प्रयाण” किया जा सकता है। बुखारिन और प्रियोब्रेज़ेंस्की जब पूरी तरह ट्रॉट्स्की की तरफ़ झुक गये थे, तो उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया था कि तीन वर्षों में पूरी सोवियत अर्थव्यवस्था का कम्युनिस्ट रूपान्तरण इन नीतियों के ज़रिये किया जा सकता है! लेकिन लेनिन की अवस्थिति यह थी कि “युद्ध कम्युनिज़्म” की ये नीतियाँ गृहयुद्ध के दौर में मूल और मुख्य तौर पर सही थीं; इनमें से कुछ नीतियाँ ऐसी थीं जो कि बाद के दौर के लिए भी उपयोगी थीं। लेकिन कुल मिलाकर दो प्रमुख नीतियाँ, यानी कि कृषि अधिशेष की ज़बरन वसूली और दूसरी श्रम के सैन्यकरण और ट्रेड यूनियनों को राज्य और पार्टी के पूरी तरह से अधीन किये जाने की नीतियों को केवल आपातकालीन और अपवादस्वरूप दौर में ही सही ठहराया जा सकता है। चूँकि लेनिन का एक दौर में इन नीतियों को सशर्त समर्थन था और एक दूसरे दौर में सशर्त विरोध इसलिए कई अकादमिकों को यह दृष्टिभ्रम हो जाता है कि लेनिन ट्रॉट्स्की की अवस्थिति पर थे, और जब वे मौखिक तौर पर ट्रॉट्स्की का विरोध कर रहे थे, तब भी व्यवहार में वे ट्रॉट्स्की की ही नीतियों को लागू कर रहे थे। ऐसे अकादमिकों में ख़ास तौर पर ट्रॉट्स्कीपन्थी या ट्रॉट्स्की के प्रति हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवी शामिल हैं, जैसे कि इसाक डॉइशर, एडवर्ड हैलेट कार, हॉल ड्रेपर आदि। लेकिन अगर स्वयं पार्टी, ट्रेड यूनियन और सोवियतों के दस्तावेज़ों में बहस और पिछले कार्यकाल की गतिविधियों की रिपोर्टों को देखें तो लेनिन और ट्रॉट्स्की की अवस्थिति का फर्क साफ़ हो जाता है। बहरहाल, ट्रॉट्स्की की पूरी अवस्थिति को इसी वाक्यांश के ज़रिये सटीकता से अभिव्यक्त किया जा सकता है ट्रेड यूनियनों को राज्य और पार्टी का दासवत उपकरण बना देना, उनका “राजकीयकरण” कर देना।

अब तीसरे समूह पर आते हैं जिसे “बफर ग्रुप” कहा गया, और जो कि 1920 में अस्तित्व में आया। दिसम्बर 1920 में केन्द्रीय कमेटी की एक बैठक में जिनोवियेव ने ट्रॉट्स्की की अवस्थिति का विरोध किया और लेनिन की अवस्थिति के समर्थन में बात रखी। लेकिन यह बात इस तरीके से रखी गयी, जिससे कि केन्द्रीय कमेटी का बड़ा हिस्सा ट्रॉट्स्की और जिनोवियेव, दोनों के ही ख़िलाफ़ हो गया। इस मौके पर बुखारिन ने एक मध्य मार्ग अपनाया और ट्रॉट्स्की और जिनोवियेव दोनों की ही कुछ बातों का समर्थन करते हुए यह तर्क रखा कि फिलहाल दोनों मतों में एक आरज़ी समझौता किया जाय और इस मसले पर 1921 में होने वाली दसवीं पार्टी कांग्रेस में विचार किया जाय। बुखारिन का प्रस्ताव एक वोट से विजयी हुआ। उस समय बुखारिन के साथ मध्यमार्ग अपनाने वाले इस “बफर ग्रुप” में प्रियोब्रेजे़ंस्की, सेरेब्राइकोव, सोकोलनिकोव और लारिन शामिल थे। 1920 के अन्तिम माह से लेकर मार्च 1921 में पार्टी कांग्रेस के शुरू होने तक यह “बफर ग्रुप” ज़्यादा से ज़्यादा ट्रॉट्स्की की तरफ़ झुकता गया और कांग्रेस आते-आते ट्रॉट्स्की और बुखारिन ने ज़र्जेंस्की, आन्द्रियेव, प्रियोब्रेज़ेंस्की, रैकोव्स्की और सेरेब्राइकोव के साथ मिलकर ट्रेडयूनियनों की भूमिका के सवाल पर ट्रॉट्स्की की सोच का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव रखा जिसे ‘प्लेटफॉर्म ऑफ दि एट’ कहा गया।

एक चौथा समूह 1920 के ही उत्तरार्द्ध से अस्तित्व में आने लगा था। यह समूह वास्तव में पुराने ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ धड़े के कुछ लोगों के एक अनौपचारिक ट्रेड यूनियन धड़े के साथ संलयन के साथ अस्तित्व में आया, जिसके प्रमुख सदस्य थे, श्ल्याप्निकोव और कोलोन्ताई। इन दोनों धड़ों के साथ आने के साथ जो ग्रुप अस्तित्व में आया उसे ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के नाम से जाना गया। इसकी ज़्यादातर अवस्थितियाँ ट्रॉट्स्कीपन्थियों के ठीक विपरीत थीं, जैसा कि हम ऊपर बता आये हैं। ये सारी अवस्थितियाँ वास्तव में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों की अवस्थितियाँ थीं। इसका एक कारण यह भी था कि इस समूह के नेतृत्व के लोग अधिकांशतः पुराने ट्रेड यूनियनवादी थे। इस कांग्रेस में श्ल्याप्निकोव ने भाषण दिया। उन्होंने एंगेल्स को उद्धृत करते हुए कहा कि आने वाला समाज “उद्योग को सभी उत्पादकों के स्वतन्त्र और समान साहचर्य के आधार पर संगठित करेगा।” और इसी से श्ल्याप्निकोव ने यह नतीजा निकाला कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए ट्रेड यूनियनों को राज्य और पार्टी से बिल्कुल स्वतन्त्र करके राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन सम्भालने का काम उन्हें दे दिया जाना चाहिए, जैसा कि सुजीत दास सुझा रहे हैं। लेनिन ने श्ल्याप्निकोव को याद दिलाया कि जब एंगेल्स ने ये शब्द लिखे थे तो वह समाजवादी संक्रमण के दौर की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि कम्युनिस्ट समाज की बात कर रहे थे और यह कि उस सिद्धान्त को लागू करने का रिश्ता समाज में वर्ग संघर्ष के स्तर से जुड़ा हुआ है और विशेषकर सर्वहारा वर्ग के व्यापक जन-समुदायों की राजनीतिक चेतना से जुड़ा हुआ है। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का मानना था कि चूँकि ट्रेड यूनियनें सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदायों को अपने भीतर समेटती हैं, इसलिए उनके ऊपर किसी किस्म का कोई प्राधिकार नहीं होना चाहिए। केन्द्रीय स्तर पर एक अखिल रूसी उत्पादक कांग्रेस होनी चाहिए जिसका काम ट्रेड यूनियनों के बीच समन्वय का होना चाहिए। लेनिन ने इस प्रस्ताव की खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि ‘उत्पादक कांग्रेस’ की परिकल्पना वर्ग विश्लेषण का निषेध है। ऐसी किसी भी कांग्रेस को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बागडोर सौंपने का अर्थ होगा, टटपुँजिया उत्पादकों के हाथ में पूरी सोवियत व्यवस्था को सौंप देना, और एक प्रकार से सर्वहारा अधिनायकत्व का बुर्जुआज़ी के सामने समर्पण कर देना। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का यह भी विचार था कि सोवियतों को एक क्रमिक प्रक्रिया में विलोप की तरफ़ ले जाया जाना चाहिए, और शासन-प्रशासन के समस्य कार्य स्वतन्त्र ट्रेड यूनियनों को सौंप दिया जाना चाहिए, जिनमें पार्टी का कोई भी हस्तक्षेप न हो (यहाँ भी पाठकों को सुजीत दास की याद आ सकती है, जो कि पार्टी के हस्तक्षेप से ख़ासे नाराज़ रहते हैं!)। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के नेता किसानों को किसी भी किस्म की रियायत देने के ख़िलाफ़ थे। वे औद्योगिक मज़दूरों के मुद्दों को छोड़ दें तो “युद्ध कम्युनिज़्म” की अधिकांश नीतियों का समर्थन ही कर रहे थे। सोवियत राज्य के सामाजिक आधार के तौर पर मज़दूर-किसान संश्रय (स्मिच्का) के विषय पर उनकी कोई समझदारी नहीं थी, और वे मज़दूरों यानी कि अलग-अलग कारखानों, अलग-अलग उद्योगों, अलग-अलग पेशों के मज़दूरों के विशिष्ट हितों से आगे कुछ भी नहीं सोच पा रहे थे। यहाँ पर ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ धड़े की अवस्थिति से एक ही फर्क था ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ मज़दूर वर्ग की राजनीतिक शक्ति का प्रमुख केन्द्र ट्रेड यूनियन को मान रहा था जबकि ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ ने इसका आधार फैक्टरी कमेटियों को माना था। यानी कि एक के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद की बुनियादी राजनीतिक इकाई कारखाना थी, तो दूसरे की पेशा या उद्योग, क्योंकि ट्रेड यूनियनें पेशों और उद्योगों के आधार पर बँटी हुईं थीं। सुजीत दास की पूरी सोच पर इन दोनों ही ग्रुपों का ज़बर्दस्त असर है। वास्तव में, ये दोनों असर उनमें गड्ड-मड्ड हो गये हैं। एक जगह वह अपने लेख में फैक्टरी कमेटियों और सोवियतों के बीच भ्रमित हो गये हैं। उन्होंने लिखा है कि मज़दूरों की सोवियतें क्रान्ति के तुरन्त बाद राजनीतिक शक्ति का वास्तविक केन्द्र बनीं जिनमें पार्टी का कोई हस्तक्षेप नहीं था, और इसी दौर में मज़दूर वर्ग ने अपनी पहल पर कारखानों पर कब्ज़ा कर लिया जिसे बाद में राज्य की आज्ञप्तियों के ज़रिये मान्यता दे दी गयी। इससे ऐसा ध्वनित होता है कि कारखानों पर कब्ज़े के आन्दोलन में सोवियतों की कोई अहम भूमिका थी, क्योंकि ऐसा नहीं था और यह काम फैक्टरी कमेटियों के ज़रिये हुआ था जिनका श्री दास नाम भी नहीं लेते। अगर वह ऐसा दावा कर रहे हैं, तो निस्सन्देह यह एक और अज्ञानतापूर्ण दावा है। उनका कहना है कि इसी जीवन्त वातावरण में सुब्बोतनिक आन्दोलन शुरू हुआ। सुजीत दास ने अगर 1917 से 1920 तक का इतिहास किसी विश्वविद्यालय की पाठ्यपुस्तक से भी पढ़ा होता तो उन्हें पता होता कि कारखानों पर कब्ज़ा करने का आन्दोलन मज़दूरों की सोवियत ने नहीं किया था, बल्कि वह फैक्टरी कमेटियों ने किया था। शुरुआत में इन्हें राज्य और पार्टी द्वारा मान्यता मिली क्योंकि यह मज़दूरों की क्रान्तिकारी ऊर्जा का परिणाम था। लेकिन यह आन्दोलन बुरी तरह असफल हुआ था। अलग-अलग कारखाने के मज़दूर महज़ अपने हितों के बारे में सोच रहे थे। एक कारखाने ने दूसरे कारखाने से विनिमय करने से कई मौकों पर इंकार कर दिया। कई कारखानों ने सोवियत सत्ता से अपने उत्पादों का विनिमय करने से इंकार कर दिया। अलग-अलग कारखाना कमेटियाँ उस समय काले बाज़ार में अपने उत्पादों को बेचकर अपने निजी हितों के बारे में सोच रही थीं। यहाँ पर स्पष्ट देखा जा सकता है कि सुजीत दास के लेख वाले “प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण” स्थापित हो जाने से पूँजीवादी सम्बन्ध समाप्त नहीं होते। लेनिन को इस विषय में कोई ग़लतफ़हमी नहीं थी। देखिये कि वह क्या कहते हैं: “मज़दूर कभी भी पुराने समाज से किसी चीन की दीवार से अलग नहीं किये गये थे। और उन्होंने पूँजीवादी समाज की पारम्परिक मानसिकता को काफ़ी मात्रा में बचा रखा है। मज़दूर एक नया समाज स्वयं नये लोग बने बग़ैर बना रहे हैं, वे यह निर्माण अपने आपको पुरानी गन्दगी से मुक्त किये बिना कर रहे हैं; वे अभी भी घुटनों तक इस गन्दगी में डूबे हुए हैं।” (लेनिन, दूसरी अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में रिपोर्ट, जनवरी 1919)। माओ ने यही बात इन शब्दों में कही हैः “समाजवादी समाज का निर्माण करने में सभी का पुनःसंस्कार करने की आवश्यकता होती है शोषकों का भी और मेहनतकश जनता का भी। कौन कहता है कि मज़दूर वर्ग को इसकी ज़रूरत नहीं होती? हाँ, शोषकों का पुनःसंस्कार और मेहनतकश जनता का पुनःसंस्कार स्वरूप की दृष्टि से दो अलग-अलग किस्म के पुनःसंस्कार हैं।” (माओ त्से तुंग, ‘जनता के बीच के अन्तरविरोधों को सही ढंग से हल करने के बारे में’, माओ त्से तुंग की प्रतिनिधि रचनाएँ, एक खण्ड में, राहुल फाउण्डेशन, लखनऊ, 2004 पृ. 368) यह लेनिन ठीक उसी समय कह रहे थे, जब फैक्टरी कमेटियाँ संकुचित पेशागत मानसिकता और टटपुँजिया पूँजी संचय की मानसिकता से काम कर रही थीं। फैक्टरी कमेटियों के तहत, यानी ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ के नियन्त्रण के तहत यहाँ क्या हो रहा था? यहाँ पर अभी भी पूँजीवादी उत्पादन ही हो रहा था। अब पूँजीपति की इकाई की जगह फैक्टरी कमेटी ने ले ली थी। लेकिन इन फैक्टरी कमेटियों की निगाह में पूरे मज़दूर वर्ग का हित नहीं था बल्कि अलग-अलग कारखानों के मज़दूरों का हित था। जाहिर है, ऐसी विसर्जित, विखण्डित फैक्टरी कमेटी अर्थव्यवस्था का कोई भविष्य नहीं हो सकता था। नतीजतन, अच्छी-ख़ासी संख्या में वे कारखाने बन्द हो गये जो फैक्टरी कमेटियों के नेतृत्व में थे; कई जगह मज़दूर मशीनों को बेचकर पैसे कमाकर गाँव चले गये; कई मामलों में फैक्टरी कमेटियों ने कारखानों को पुराने पूँजीपतियों के हवाले कर दिया क्योंकि उन्हें पूरी उत्पादन प्रक्रिया का प्रबन्धन नहीं आता था। इन सभी के संख्यात्मक आँकड़े हम आगे देंगे। रूस में 1918-19 में जो आर्थिक विघटन की प्रक्रिया चली, उसमें किसानों द्वारा की गयी तोड़-फोड़ के अलावा मज़दूरों के बीच मौजूद यह अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी रुझान भी जिम्मेदार था। इसके बाद, फैक्टरी कमेटियों को ट्रेड यूनियनों के अन्तर्गत किया गया। यह प्रक्रिया 1918 के दिसम्बर में पूरी हो चुकी थी। और ट्रेड यूनियनें 1918 से 1920 तक पूरी तरह राज्य और पार्टी के मातहत ही थीं, जो कि “युद्ध कम्युनिज़्म” का दौर था। इसलिए सुजीत दास यह बात बिना कहीं पढ़े हुए लिख रहे हैं कि सुब्बोतनिक आन्दोलन उस प्रेरणादायी परिस्थिति में हुआ था जिसमें मज़दूर सोवियतें पार्टी और राज्य के हस्तक्षेप से मुक्त थीं, और मज़दूरों ने कारखानों पर कब्ज़ा कर लिया था! यह हवाई कल्पना है जिसका तथ्यों से कोई रिश्ता नहीं है क्योंकि 1919 में जब सुब्बोतनिक आन्दोलन की पहली शुरुआत हुई तब तक फैक्टरी कमेटियाँ और ट्रेड यूनियन, दोनों पर ही पार्टी का नियन्त्रण मुख्य तौर पर स्थापित हो चुका था। सुजीत दास को सोवियत इतिहास का ठीक से अध्ययन किये बिना ऐसी बातें नहीं लिखनी चाहिए थीं। यह पाठकों को गुमराह करने के समान है।

सच तो यह है कि सुब्बोतनिक आन्दोलन 1919 में शुरू हुआ था और उस समय तक सोवियतें भी पार्टी से स्वतन्त्र नहीं थीं। वे राज्यसत्ता का प्रमुख उपकरण उस समय तक नहीं रह गयी थीं। 1919 में ही लेनिन ने कहा था कि दो वर्ष के सोवियतों के स्वायत्त शासन को देखने के बाद हम इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि अभी सोवियतें शासन के काम को अपने हाथ में नहीं ले सकतीं। ‘राज्य और क्रान्ति’ की अपनी थीसिस को लेनिन ने संशोधित करते हुए कहा था कि ऐतिहासिक अनुभव ने हमें सिखला दिया है कि पेरिस कम्यून मॉडल तुरन्त लागू नहीं किया जा सकता है। सर्वहारा अधिनायकत्व की नेतृत्वकारी शक्ति और प्रधान उपकरण सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी होगी। सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की पूरी संरचना के बारे में 1921 आते-आते लेनिन का नज़रिया काफ़ी हद तक साफ़ हो चुका था। इसके बारे में हम कुछ पैराग्राफ बाद ही आयेंगे। लेकिन एक बात तो तय है सुजीत दास काल्पनिक तथ्यों का आविष्कार करके उन्हें वास्तविक इतिहास पर थोपने की कला में सिद्धहस्त हैं! अब 1919 से 1921 के बीच बोल्शेविक पार्टी के भीतर जिन धड़ों के बीच ट्रेड यूनियन के सवाल को लेकर बहस जारी थी, और जिसकी चरम परिणति दसवीं पार्टी कांग्रेस में हुई बहस में सामने आयी, उन धड़ों की चर्चा पर वापस लौटते हैं।

अब हम बात करेंगे आखि़री प्रमुख धड़े पर जिसका नेतृत्व लेनिन कर रहे थे। ट्रॉट्स्कीपन्थी ‘प्लेटफॉर्म ऑफ एट’ और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस के बरक्स लेनिन ने स्तालिन, जिनोवियेव, टॉम्स्की, रुत्जुताक, कालिनिन, कामेनेव, लोज़ोव्स्की, पेत्रेव्स्की और आर्तेम के साथ मिलकर ‘प्लेटफॉर्म ऑफ दिन टेन’ बनाया और अपना समानान्तर प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव वास्तव में उसी प्रस्ताव का एक विकसित रूप था जो कि रुत्जुताक ने ट्रेड यूनियन सम्मेलन के मंच पर ट्रॉट्स्की के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ रखा था; वह प्रस्ताव भी लेनिन के निर्देशन में ही बना था। उस प्रस्ताव को उस सम्मेलन में विजय मिली थी। और दसवीं कांग्रेस में भी लेनिन का प्रस्ताव भारी मतों से विजयी हुआ। दसवीं कांग्रेस में जो तीन प्रमुख धड़े बन चुके थे (1. ट्राट्स्की$बुखारिन 2. वर्कर्स अपोज़ीशन (डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म$कोलोन्ताई व श्ल्याप्निकोव), तथा, 3. लेनिन व स्तालिन) उसमें से ट्रॉट्स्कीपन्थियों के धड़े को 50 वोट मिले, ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ को मात्र 8 वोट मिले और लेनिन के धड़े को 336 वोट मिले। लेनिन ने ट्रॉट्स्की और बुखारिन की राजनीतिक आलोचना इस कांग्रेस से पहले ही रख दी थी, और इस धड़े के प्रस्ताव का हारना तय था क्योंकि 1920 से 1921 के बीच लेनिन और ट्रॉट्स्की की बार-बार जो तमाम मंचों पर बहस हुई (जिनका ‘प्राव्दा’ में लगातार प्रकाशन हुआ) उसके ज़रिये ट्रॉट्स्की का धड़ा कांग्रेस के शुरू होने से पहले ही वास्तव में परास्त हो चुका था। लेकिन लेनिन ने अभी तक ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की कहीं-कहीं प्रसंगवश आलोचना करने के अलावा, विधिवत आलोचना नहीं की थी। दसवीं कांग्रेस वास्तव में ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी पहुँच और पद्धति पर चोट करने और उसे बेनक़ाब करने का मंच बना, हालाँकि इस कांग्रेस की प्रमुख उपलब्धि था नेप की नीतियों का सूत्रीकरण। लेनिन ने ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के प्रत्यक्ष उत्पादक के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण के लिए अखिल रूसी उत्पादक कांग्रेस बनाने और ट्रेड यूनियनों को पूर्णतः स्वतन्त्र (जैसा कि सुजीत दास चाहते हैं!) बनाकर शासन के कार्य सौंपने के प्रस्ताव का पुरज़ोर विरोध किया। उन्होंने कहा कि ऐसी किसी भी कांग्रेस में आज के दौर में ग़ैर-पार्टी लोगों की बहुतायत होगी और हम जानते हैं कि इस समय समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेंशेविकों का एक प्रमुख मुखौटा गै़र-पार्टी व्यक्ति होना ही है। ऐसे में, ऐसी कोई भी कांग्रेस सर्वहारा दृष्टिकोण से निर्णय लेने या काम करने के कार्यभार को नहीं पूरा कर सकती। इसमें निम्नपूँजीवादी विचारों, पेशावादी संकीर्ण सोच और अर्थवाद का बोलबाला होगा, क्योंकि रूस के मज़दूर वर्ग का भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा लेनिन के शब्दों में, “घुटनों तक टटपुँजिया राजनीतिक चेतना के दलदल में डूबा हुआ है।” लेनिन ने मज़दूरी और वेतन में मौजूद फर्क को ख़त्म करने की ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की माँग को एक दूरगामी लक्ष्य के तौर पर स्वीकार करते हुए कहा कि यह तात्कालिक लक्ष्य नहीं हो सकता है; आगे लेनिन कहते हैं कि ट्रेडयूनियनों को मुद्रा या वस्तु के रूप में मज़दूरी का इस्तेमाल अभी श्रम के अनुशासन को बढ़ाने और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए करना चाहिए। इसके लिए बोनस और पीस वर्क की व्यवस्था को भी अभी लागू करने में कोई हर्ज़ नहीं है। लेनिन ने आगे कहा कि ट्रेड यूनियनों को अनुशासन लागू करना होगा और काम छोड़ कर जाने की और अनुपस्थित रहने की प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए “अनुशासन के कामरेडाना ट्रिब्युनल” बनाने होंगे (इस प्रकार के अनुशासन को मज़दूर वर्ग के उन पिछड़े तत्वों पर मज़दूर वर्ग के उन्नत तत्वों द्वारा लागू किये जाने पर भी सुजीत दास की गहरी आपत्ति है, जो कि काम से अनुपस्थित रहते थे, अराजकता फैलाते थे, और समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया को बाधित कर रहे थे; हालाँकि वह इसके लिए लेनिन पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करते, और स्तालिन को निशाना बनाते हैं)। यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि ऐसे ट्रिब्यूनलों के सदस्यों का चुनाव भी स्वयं मज़दूर ही करते थे। लेकिन सुजीत दास के अनुसार ऐसे कदमों से मज़दूर वर्ग के बीच फूट पड़ गयी, वे विसंगठित हो गये, वगैरह-वगैरह। यह टटपुँजिया और लोकरंजकतावादी अनर्गल प्रलाप नहीं तो और क्या है? आगे लेनिन ने कहा कि वास्तव में ट्रॉट्स्की और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस में बहुत-सी चीज़ें समान हैं और उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों ही सत्ता के प्रश्न को नहीं समझते हैं। एक तरफ़ ट्रॉट्स्की सर्वहारा अधिनायकत्व के सवाल को नौकरशाहाना तरीके से हल करना चाहते हैं, तो दूसरी ओर ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ इसे औपचारिक जनवाद के ज़रिये हल करना चाहता है। यह दोनों ही राजनीति को कमान में रखने की बजाय अर्थवाद को कमान में रखते हैं। ‘एक बार फिर से ट्रेड यूनियनों के प्रश्न परः ट्रॉट्स्की और बुखारिन की ग़लतियाँ’ में लेनिन ने ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ पर चोट करते हुए कहा कि क्रान्तिकारी हित को औपचारिक जनवाद के मातहत नहीं किया जाना चाहिए बल्कि जनवाद के प्रश्न को क्रान्तिकारी हित के मातहत किया जाना चाहिए, अन्यथा वह बुर्जुआ जनवाद की ओर ले जायेगा। लेनिन ने लिखाः “रूसी कम्युनिस्ट पार्टी बिना किसी शर्त अपने केन्द्रीय और स्थानीय संगठनों के ज़रिये ट्रेड यूनियन कार्य के सभी विचारधारात्मक पक्षों का निर्देशन करना जारी रखेगी…ट्रेड यूनियन आन्दोलन के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं का चुनाव पार्टी के मार्गदर्शनात्मक निर्देशन में होना चाहिए।” (दसवीं कांग्रेस द्वारा ट्रेड यूनियनों की भूमिका और कार्यभारों पर अपनाये गये प्रस्ताव का सातवाँ बिन्दु)। यहाँ पर आप सुजीत दास की इस पूरी सोच का खण्डन लेनिन में देख सकते हैं कि ट्रेड यूनियनों को पूरी तरह से स्वायत्त होना चाहिए और उनके नेतृत्व के चुनाव में पार्टी का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, वगैरह। लेकिन यह तो सिर्फ़ एक मुज़ाहिरा है। आगे हम सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की पूरी अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवादी और विसर्जनवादी सोच पर लेनिन की अवस्थिति को उद्धरणों के साथ प्रदर्शित करेंगे और यह भी दिखलायेंगे कि सुजीत दास स्तालिन पर बिना वजह नाराज़ हुए जा रहे हैं!

हम लेनिन के कुछ उद्धरणों को यहाँ पेश कर रहे हैं जिससे ट्रॉट्स्कीपन्थियों के दक्षिणपन्थी भटकाव और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भटकाव के बरक्स लेनिनवादी अवस्थिति स्पष्ट हो जायेगी। ‘ट्रेड यूनियनें, मौजूदा स्थिति और ट्रॉट्स्की की ग़लतियाँ’ में लेनिन लिखते हैं:

“ट्रेड यूनियनें न सिर्फ़ ऐतिहासिक तौर पर ज़रूरी हैं, बल्कि वे औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के संगठन के तौर पर ऐतिहासिक तौर पर अपरिहार्य हैं, और, सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के तहत उन्हें समूचे सर्वहारा वर्ग को अपने में समेटना चाहिए।…एक तरफ़ ट्रेड यूनियनें, जो सभी औद्योगिक मज़दूरों को अपने में समेटती हैं, शासक, प्रभावी, और सरकार चला रहे वर्ग का संगठन हैं, जिस वर्ग ने अपनी तानाशाही कायम की है और राज्यसत्ता के ज़रिये वह ज़ोर-ज़बर्दस्ती का भी इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन यह कोई राजकीय संगठन नहीं है; न ही यह ज़ोर-ज़बर्दस्ती के लिए बनाया गया है, यह तो शिक्षण के लिए बनाया गया है। यह संगठन अपने में वर्ग को शामिल करने और उसे प्रशिक्षित करने के लिए है; वास्तव में, यह एक स्कूल हैः प्रशासन का स्कूल, आर्थिक प्रबन्धन का स्कूल, कम्युनिज़्म का स्कूल। यह एक बहुत ही असामान्य किस्म का स्कूल है, क्योंकि यहाँ कोई शिक्षक और विद्यार्थी नहीं है; यह उन चीज़ों का एक बेहद असामान्य मिश्रण है, जो कि हमें अनिवार्य तौर पर पूँजीवाद से विरासत में मिली हैं, और जो हमें उन्नत क्रान्तिकारी दस्ते की कतारों से मिला है, जिन्हें आप सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी हिरावल कह सकते हैं। इन सच्चाइयों पर ध्यान दिये बग़ैर ट्रेड यूनियनों के बारे में बात करने का अर्थ है सीधे कई ग़लतियों के गड्ढे में जाकर गिरना।” (लेनिन, ‘ऑन ट्रेड यूनियंस’, छठाँ मुद्रण, 1986, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृ. 370-71) यहाँ लेनिन ने ट्रॉट्स्की की ट्रेड यूनियनों के सवाल पर अवस्थिति पर चोट की है और बताया है कि ट्रेड यूनियनों को कभी भी राज्यसत्ता के मातहत नहीं किया जा सकता है। लेकिन पार्टी और ट्रेड यूनियन के रिश्तों का न तो “वामपन्थी” बचकाना सरलीकरण किया जा सकता है, जैसा कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ ने किया है और न ही दक्षिणपन्थी नौकरशाहाना विकृतिकरण किया जा सकता है, जैसा कि ट्रॉट्स्की और बुखारिन ने किया। आगे लेनिन के इस लम्बे उद्धरण से ट्रेड यूनियनों, पार्टी, राज्यसत्ता और वर्ग के बीच के रिश्तों के बारे में एक सही समझदारी को निःसृत करना आसान होगाः

“सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की पूरी व्यवस्था में, ट्रेड यूनियनें पार्टी और सरकार के बीच में खड़ी हैं। समाजवाद की ओर संक्रमण में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही अपरिहार्य है, लेकिन यह किसी ऐसे संगठन के ज़रिये लागू नहीं की जा सकती है, जो कि समूचे औद्योगिक मज़दूरों को अपने में समेटता हो। क्यों नहीं?…दरअसल होता यह है कि पार्टी, हम कह सकते हैं कि, सर्वहारा वर्ग के हिरावल को अपने में आत्मसात करती है, और यह हिरावल सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को लागू करता है। इस तानाशाही को या सरकार के कार्यों को ट्रेड यूनियन जैसे आधार के बिना नहीं लागू किया जा सकता है। लेकिन, इन कार्यों को एक विशेष संस्था के माध्यम से किया जाना होता है, जिसे हम सोवियत कहते हैं। इस विशिष्ट स्थिति से क्या व्यावहारिक नतीजे निकाले जा सकते हैं? एक तरफ़ तो इसका यह अर्थ है कि ट्रेड यूनियनें हिरावल और जनसमुदायों के बीच की कड़ी हैं, और अपने रोज़मर्रा के कामों के ज़रिये वे जनसमुदायों में, यानी उस वर्ग के जनसमुदायों में, जो कि हमें पूँजीवाद से कम्युनिज़्म तक ले जाने में सक्षम एकमात्र वर्ग है, दृढ़ विश्वास पैदा करता है। दूसरी तरफ़, ट्रेड यूनियनें राज्यसत्ता का “संचित भण्डार” होती हैं। पूँजीवाद से कम्युनिज़्म के पूरे संक्रमणकाल में ट्रेड यूनियनें यही तो होती हैं। सामान्य अर्थों में, यह संक्रमण उस वर्ग के नेतृत्व के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है, जो कि पूँजीवाद द्वारा बड़े पैमाने के उद्योगों के लिए प्रशिक्षित एकमात्र वर्ग है और जो अकेला वर्ग है जो कि टटपुँजिया मालिक के हितों से अलग है। लेकिन सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को किसी ऐसे संगठन के द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है जो कि इस पूरे वर्ग को समेटता हो, क्योंकि सभी पूँजीवादी देशों में सर्वहारा वर्ग अभी भी इतना विभाजित, इतना विकृत, और कई हिस्सों में इतना भ्रष्ट (कुछ देशों में साम्राज्यवाद के द्वारा) है कि सम्पूर्ण सर्वहारा वर्ग को समेटने वाला कोई भी संगठन सीधे सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को लागू नहीं कर सकता है। यह केवल एक हिरावल के ज़रिये लागू किया जा सकता है, जिसने कि पूरे वर्ग की क्रान्तिकारी ऊर्जा को आत्मसात किया हो। यह सबकुछ एक दन्त-चक्रों की व्यवस्था के समान है। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की बुनियादी प्रणाली और पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण का बुनियादी आधार ऐसा ही होता है। इतने से ही यह देखा जा सकता है कि कॉमरेड ट्रॉट्स्की जब अपनी पहली थीसिस में यह बताते हैं कि एक “विचारधारात्मक विभ्रम” है और एक संकट की बात करते हैं जो विशेष और विशिष्ट तौर पर ट्रेड यूनियनों में है, तो इस पूरी बात में बुनियादी तौर पर कुछ गड़बड़ है…यह ट्रॉट्स्की हैं जो कि “विचारधारात्मक विभ्रम” के शिकार हैं क्योंकि पूँजीवाद से कम्युनिज़्म तक संक्रमण के दौर में ट्रेड यूनियनों की भूमिका के इस कुंजीभूत प्रश्न में वह इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ कर बैठे हैं कि यहाँ हमारे सामने दन्तचक्रों की एक जटिल व्यवस्था है; क्योंकि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को किसी सर्वहारा जनसंगठन के ज़रिये नहीं लागू किया जा सकता है। यह कई “संचरण पट्टियों” के बिना काम नहीं कर सकती, जो कि हिरावल से उन्नत वर्ग तक, और उन्नत वर्ग से मेहनतकश जनता के जनसमुदायों तक जाती हों। और रूस में यह जनता किसान जनता है…” (वही, पृ. 371-72)

यहाँ पर लेनिन वास्तव में सिर्फ़ ट्रॉट्स्की पर हमला नहीं कर रहे हैं, बल्कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस पर भी हमला कर रहे हैं, और इस मायने में यह हमला ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ जैसे सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों पर है। यहाँ हम यह याद दिलाना चाहेंगे कि ट्रॉट्स्की और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’, दोनों ही ट्रेड यूनियनों को शासन के कार्य सौंपने की वकालत कर रहे थे। बस फर्क यह था कि ट्रॉट्स्की ट्रेड यूनियनों को यह कार्य राज्य के मातहत करके करवाना चाहते थे, और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ यह काम राज्य और पार्टी से स्वतन्त्र तौर पर ट्रेड यूनियनों को देना चाहता था, जिसका अर्थ वास्तव में समाजवादी संक्रमण और सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत वर्ग संघर्ष के दौर में, राज्यसत्ता और पार्टी की ज़रूरत को नकारना है। आगे के उद्धरणों में भी पहले हम लेनिन द्वारा ट्रॉट्स्की की आलोचना-सम्बन्धी उद्धरणों को पेश करेंगे और उसके बाद लेनिन द्वारा ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों की आलोचना पर आयेंगे। लेकिन ट्रॉट्स्की की ग़लतियों के बारे में लेनिन द्वारा कही गयी हर सामान्य बात, जो कि ट्रॉट्स्की की पहुँच और पद्धति की आलोचना करती है, प्रकारान्तर से ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ पर भी लागू होती है। और ऐसा होना लाजिमी है क्योंकि ट्रॉट्स्की और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की अवस्थितियाँ वास्तव में एक-दूसरे की ‘मिरर इमेज’ ही हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कि टटपुँजिया “वामपन्थी” बचकानापन और दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव भी एक-दूसरे की ‘मिरर इमेज’ होते हैं। इन सबका सामान्य आधार होता है राजनीति को कमान में न रखना और अर्थवाद को कमान में रखना। देखें कि आगे लेनिन क्या कहते हैं:

“ऐसा जनसमुदायों के प्रति हमारी (यानी कि लेनिन और ट्रॉट्स्की की – अनु.) भिन्न पहुँच के कारण, उन्हें जीतने और उनसे सम्पर्क कायम रखने के अलग तरीकों के कारण है। यही पूरा मामला है। और यह ट्रेड यूनियनों को एक बेहद ख़ास संस्था बना देता है, जो कि पूँजीवाद के तहत बनीं थीं, जो पूँजीवाद से कम्युनिज़्म तक संक्रमण में अपरिहार्य रूप में बनी रहती हैं, और जिनके पूरे भविष्य पर एक प्रश्न चिन्ह है…अब जिस चीज़ से फर्क पड़ता है वह यह है कि जनता के प्रति किस प्रकार की पहुँच रखें और उन्हें कैसे जीतें, और किस तरह से संचरण की जटिल व्यवस्था को स्थापित करें (यानी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को किस प्रकार संचालित करें)।” (वही, पृ. 373-74) आगे लेनिन इस पूरे विचार को और विस्तार देते हैं, “हमारा पार्टी कार्यक्रम…दिखलाता है कि हमारा राज्य एक मज़दूर राज्य है, लेकिन नौकरशाहाना घुमाव के साथ…. तो, क्या यह कहना सही है कि व्यवहार में इस रूप में आकार ग्रहण करने वाले राज्य के तहत ट्रेड यूनियनों के पास रक्षा करने के लिए कोई चीज़ नहीं है, या कि हम एक बेहद संगठित सर्वहारा वर्ग के भौतिक और आत्मिक हितों की रक्षा करने का काम उनके बिना भी कर सकते हैं? नहीं, यह तर्कप्रणाली सैद्धान्तिक तौर पर ग़लत है…हमारे पास अब एक ऐसी राज्यसत्ता है जिसके तहत अपने आपको सुरक्षित करना एक बेहद संगठित सर्वहारा वर्ग का काम है, जबकि हम, अपनी तरफ़ से, मज़दूरों को उनकी ही राज्यसत्ता से सुरक्षित रखने के काम में, और हमारी राज्यसत्ता को सुरक्षित रखने के काम में, इन मज़दूर संगठनों का इस्तेमाल करेंगे।” (वही, पृ. 375.376) यहाँ लेनिन अपने सर्वश्रेष्ठ द्वन्द्वात्मक रूप में हैं। हम समझ सकते हैं कि सुजीत दास ने सिर्फ़ राज्यसत्ता से मज़दूर वर्ग के हितों की हिफ़ाज़त के काम में ट्रेड यूनियन के उपयोग वाली लेनिन की बात को उद्धृत करने के लिए क्यों चुना, और क्यों ठीक उसके बाद आने वाले हिस्से को छोड़ दिया जिसमें लेनिन राज्यसत्ता को मज़बूत बनाने और सुरक्षित रखने में ट्रेड यूनियनों के उपयोग की बात करते हैं! जाहिर है कोई भी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी इस हिस्से को उद्धृत नहीं करेगा। ट्रॉट्स्की और बुखारिन की आलोचना के अन्त में लेनिन कहते हैं कि वास्तव में उनके पूरे प्रस्ताव को लागू करने का अर्थ होगा ट्रेड यूनियनों को नौकरशाही के हाथों प्रताड़ित करवाना।

अब देखते हैं कि लेनिन ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की पूरी थीसिस के बारे में क्या कहते हैं, साथ ही यह भी ग़ौर करें कि लेनिन जिस-जिस नुक्ते पर उनकी आलोचना कर रहे हैं, क्या ठीक-ठीक उन्हीं नुक्तों पर ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के सुजीत दास की आलोचना नहीं की जा सकती?

“यह कम्युनिज़्म से सीधे तौर पर रिश्ता तोड़ना है और संघाधिपत्यवाद की ओर संक्रमण है। सारतः, यह श्ल्याप्निकोव के उसी नारे “राज्य का यूनियनीकरण कर दो” का दुहराव है, और इसका अर्थ है टुकड़े-टुकड़े में सर्वोच्च आर्थिक परिषद (वेसेंखा) के पूरे ढाँचे को सम्बन्धित ट्रेड यूनियनों के हवाले कर देना…

“कम्युनिज़्म कहता हैः कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की हिरावल है, वह गै़र-पार्टी मज़दूर जनसमुदायों का नेतृत्व करती है, शिक्षित करते, तैयार करते, ज्ञान और प्रशिक्षण देते हुए जनसमुदायों को पहले मज़दूरों और फिर किसानों को नेतृत्व देती है, ताकि वह उन्हें पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रशासन को अपने हाथ में केन्द्रित करने के योग्य बना सके।

“संघाधिपत्यवाद उद्योगों में विखण्डित गैर-पार्टी मज़दूर जनसमुदायों को उनके उद्योगों के प्रबन्धन का काम सौंप देता है, और इस प्रकार पार्टी को गै़र-ज़रूरी बना देता है, और इस प्रक्रिया में वह जनसमुदायों को प्रशिक्षित करने का कोई लम्बा अभियान चला पाने में भी असफल हो जाता है, और वास्तव में उनके हाथों में पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन को केन्द्रित कर पाने में भी असफल हो जाता है।” (लेनिन, दि पार्टी क्राइसिस, ‘ऑन ट्रेड यूनियंस’, छठाँ मुद्रण, 1986, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृ. 399-400) आगे देखें, “अगर औद्योगिक प्रबन्धन के लोगों को ट्रेड यूनियनों के ही द्वारा, जिनके हर दस सदस्यों में से नौ गै़र-पार्टी मज़दूर हैं, नियुक्त करना है (“बाध्यताकारी नामांकन”), तो पार्टी की क्या ज़रूरत है?” (वही, पृ. 400)

यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि सुजीत दास का अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ के संस्करण और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के संस्करण के बीच में शर्मनाक तरीके से दोलन कर रहा है। इनमें से पहले धड़े का कहना था कि फैक्टरी कमेटियों (जिन्हें शायद सुजीत दास अज्ञानवश मज़दूर सोवियतें समझ बैठे हैं) को अलग-अलग कारखानों का प्रबन्धन सौंप दिया जाना चाहिए, और दूसरे धड़े का मानना था कि एक-एक उद्योग के प्रबन्धन का काम अलग-अलग ट्रेड यूनियनों को सौंप दिया जाना चाहिए। अपने पूरे लेख में सुजीत दास कभी पहली वाली बात के पक्ष में खड़े दिखायी पड़ते हैं, तो कभी दूसरी बात के पक्ष में। संक्षेप में, सुजीत दास का अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद बेहद अराजकतावादी ढंग से अनिरन्तरता का शिकार है। कम-से-कम श्री दास को यह तय कर लेना चाहिए कि वह अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के कौन-से संस्करण को मानते हैं! खै़र, इससे लेनिन की अवस्थिति को स्वीकारने वालों पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है कि श्री दास अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के कौन से संस्करण को स्वीकार करेंगे, या इनके मिश्रण से अपना कोई संस्करण बनायेंगे। आगे देखें लेनिन मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता पर अनालोचनात्मक तरीके से जश्न मनाने वाली इस प्रवृत्ति के बारे में क्या कहते हैं:

“इस भटकाव की सैद्धान्तिक रूप से सबसे पूर्ण और स्पष्ट रूप से परिभाषित अभिव्यक्ति तथाकथित ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ ग्रुप की थीसिसें और साहित्यिक उत्पाद हैं। मिसाल के तौर पर, इसको इस ग्रुप द्वारा प्रतिपादित निम्न थीसिस पर्याप्त साफ़ तरीके से चित्रित कर देती हैः “राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन को संगठित करने का काम एक अखिल-रूसी उत्पादक कांग्रेस का है जो कि औद्योगिक यूनियनों में संगठित होगी, जो कि वास्तव में गणराज्य की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिए एक केन्द्रीय निकाय का चुनाव करेंगी।” इस और कई ऐसे ही कथनों की बुनियाद में जो विचार हैं वे सिद्धान्ततः मूल रूप में ग़लत हैं, और वास्तव में वे मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म से एक सम्पूर्ण विच्छेद को दिखलाते हैं…

“मार्क्सवाद बताता है…कि केवल मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी, यानी कम्युनिस्ट पार्टी ही सर्वहारा वर्ग के हिरावल और साथ ही समूची मेहनतकश आबादी को एकजुट करने, प्रशिक्षित करने और संगठित करने में सक्षम है, जो कि एकमात्र शक्ति है जो इस जनसमुदाय के अपरिहार्य टटपुँजिया दोलनों और सर्वहारा वर्ग के भीतर मौजूद संकीर्ण पेशा-केन्द्रित यूनियनवाद या पेशागत पूर्वाग्रहों का प्रतिरोध करने, और साथ ही समूचे सर्वहारा वर्ग की एकजुट गतिविधियों को निर्देशित करने में सक्षम होगी, यानी कि उसे राजनीतिक रूप से नेतृत्व देने, और इसके ज़रिये समूची मेहनतकश आबादी के सभी जनसमुदायों को नेतृत्व देने में सक्षम होगी। इसके बिना सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व असम्भव है।

“ग़ैर-पार्टी सर्वहारा के सम्बन्ध में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका के बारे में, और मेहनतकश आबादी की समस्त जनसमुदायों से इन दोनों कारकों के सम्बन्ध के बारे में यह ग़लत समझदारी, कम्युनिज़्म से एक आमूलगामी सैद्धान्तिक प्रस्थान है और संघाधिपत्यवाद और अराजकतावाद की ओर विचलन है, और यह विचलन वर्कर्स अपोज़ीशन के सभी दृष्टिकोणों के पोर-पोर में समाया हुआ है।” (लेनिन, प्रिलिमिनरी ड्राफ्ट रिज़ोल्यूशन ऑफ दि टेन्थ कांग्रेस ऑफ आर.सी.पी. ऑन दि सिंडिकलिस्ट एण्ड एनार्किस्ट डेवियेशन इन अवर पार्टी, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1986, पृ. 458-59) इसके कुछ ही आगे लेनिन लिखते हैं, “…संघाधिपत्यवादी और अराजकतावादी एक तात्कालिक नारे के तौर पर कहते हैं “उत्पादकों की कांग्रेस या कांग्रेसें” जो कि आर्थिक प्रबन्धन के निकायों का “चुनाव करें”। इस प्रकार, सर्वहारा वर्ग की ट्रेड यूनियनों के सम्बन्ध में, ट्रेड यूनियनों के मेहनतकश जनता के अर्द्ध-टटपुँजिया या यहाँ तक कि पूरी तरह से टटपुँजिया जनसमुदायों से सम्बन्ध में, पार्टी की शिक्षणात्मक और संगठनात्मक भूमिका को पूरी तरह से गोल कर दिया गया है, ख़त्म कर दिया गया है, और अर्थव्यवस्था के नये रूपों के निर्माण के उस व्यावहारिक कार्य को जारी रखने और उसे सही करने की बजाय, जिसे कि सोवियत राज्यसत्ता ने पहले से ही शुरू कर दिया है, हमें इस काम में टटपुँजिया अराजकतावादी विघ्न मिलता है, जो कि केवल बुर्जुआ प्रतिक्रान्ति की तरफ़ ही ले जा सकता है।” (वही, पृ. 460)

इसी मसौदा प्रस्ताव में एक जगह लेनिन लिखते हैं: “पहली बात तो यह कि “उत्पादक” की अवधारणा सर्वहाराओं को अर्द्धसर्वहाराओं और छोटे माल उत्पादकों के साथ मिश्रित कर देती है, जो कि वर्ग संघर्ष की अवधारणा से आमूलगामी प्रस्थान है और साथ ही इस बुनियादी माँग से भी प्रस्थान है कि वर्गों के बीच सटीक तौर पर फर्क किया जाय।

“दूसरी बात यह है कि गैर-पार्टी जनसमुदायों को निमन्त्रण या उसके साथ खिलवाड़, जिसे कि ऊपर उद्धृत थीसिस में अभिव्यक्त किया गया है, वह भी मार्क्सवाद से उतना ही आमूलगामी प्रस्थान है।” (वही, पृ. 458)

यहाँ पर हम देख सकते हैं कि लेनिन की ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण’ के बारे में क्या अवस्थिति थी। सुजीत दास ने अपने पूरे लेख में ‘अलगाव बढ़ गया’, ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण नहीं हुआ’, ‘पार्टी की तानाशाही हो गयी’ जैसे अराजकतावादी पिटे-पिटाये जुमलों का अनगिनत बार इस्तेमाल किया है, यानी कि लगभग हर पेज पर। और इनका जवाब मार्क्सवाद-लेनिनवाद ने समाजवाद के ठोस अनुभवों के आधार पर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही दे दिया था। लेकिन सुजीत दास हर विजातीय प्रवृत्ति का नये सिरे से आविष्कार करने पर आमादा हैं!

नेप के दौर में, यानी कि 1921 से 1929 तक, ट्रेड यूनियनों की स्थिति को लेकर सुजीत दास काफ़ी प्रसन्न दिखलायी देते हैं। ऊपर हमने ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ का जो हिस्सा उद्धृत किया है, उसमें श्री दास ने कहा है कि 1929 में ट्रेड यूनियनें काफ़ी स्वतन्त्र थीं, और उनकी कारखानों के प्रशासन में अहम भूमिका थी! उनके अनुसार यह स्थिति 1930 में बदल गयी जब ट्रेड यूनियनों को राज्य के अधीन करना शुरू कर दिया गया और फिर मज़दूरों पर अनुशासन आदि के नियम थोपे जाने लगे, अनुपस्थिति आदि के लिए उन्हें दण्डित किया जाने लगा! जब-जब हमें लगता है कि सुजीत दास ऐसी मूर्खतापूर्ण बातें संयोगवश कह जाते हैं, और यह महज़ एक ‘स्लिप’ या ‘लैप्स’ होगी, तब-तब श्री दास अपनी तर्जनी उठाकर हमें ऐसा सोचने से रोक देते हैं, और बताते हैं कि ऐसी विचित्र बातें वे संयोग से नहीं बल्कि नियम और आदत से करते हैं! इस कथन से उन्होंने फिर से दिखलाया है कि उन्हें 1917 से 1929 के सोवियत इतिहास के बारे में उतना ही पता है जितना कि अमेरिकी रिपब्लिकन, भूतपूर्व उपराष्ट्रपति पद उम्मीदवार सारा पालिन को अमेरिका की विदेश नीति के बारे में पता है! आइये देखें कि नेप के दौरान लेनिन के नेतृत्व में पार्टी द्वारा ट्रेड यूनियनों के क्या कार्यभार तय किये थे। इस उद्धरण पर ग़ौर करें:

“सर्वहारा राज्य के तहत ट्रेड यूनियन सदस्यों से जिस चीज़ की आवश्यकता है वह यह है कि वे कामरेडाना अनुशासन को और साथ ही मेहनतकश जनता के हितों की रक्षा के उद्देश्य के लिए मज़दूरों की शक्ति को एकजुट करने की ज़रूरत को समझें और साथ ही यह समझें कि वे मेहनतकश जनता की सरकार पर, यानी सोवियत सरकार पर भरोसा करें। सर्वहारा राज्यसत्ता को मज़दूरों को अपने कानूनी व भौतिक कारणों के लिए ट्रेड यूनियनों में संगठित होने के लिए प्रेरित करना चाहिए, लेकिन ट्रेड यूनियनों को समझना चाहिए कि उनके कर्तव्यों के बिना उनके कोई अधिकार भी नहीं हो सकते।” (लेनिन, ‘ड्राफ्ट थीसिस ऑन दि रोल एण्ड फंक्शंस ऑफ दि ट्रेड यूनियंस अण्डर दि न्यू इकोनॉमिक पॉलिसी’, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1986, पृ. 466) इसी मसौदा थीसिस में लेनिन नेप के दौर में ट्रेड यूनियनों की भूमिका के बारे में लिखते हैं, और यह उद्धरण सुजीत दास द्वारा सोवियत संघ के इतिहास के मिथकीकरण को और अच्छी तरह से अनावृत्त कर देता है, “…अभी देश में मौजूद हालात में, यह बिल्कुल अनिवार्य है कि कारखानों में सारा प्राधिकार प्रबन्धन (यानी, एक विशेषज्ञ व्यक्ति के हाथों में प्रबन्धन-अनुवादक) के हाथों में केन्द्रित हो…इन परिस्थितियों में, कारखानों के प्रबन्धन में ट्रेड यूनियनों के सभी प्रत्यक्ष हस्तक्षेपों को निश्चित तौर पर हानिकारक माना जाना चाहिए और यह माना जाना चाहिए कि इसकी कतई आज्ञा नहीं दी जा सकती है।” (वही, पृ. 467) आगे लेनिन ट्रेड यूनियनों के कार्यभार के तौर पर बताते हुए कहते हैं कि ट्रेड यूनियनों को मज़दूरों के बीच से हर प्रकार के संकीर्ण विचारों को हटाना चाहिए और उन्हें समझाना चाहिए कि उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण का अर्थ अलग-अलग कारखानों या अलग-अलग उद्योगों में मज़दूरों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण नहीं, बल्कि पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में मज़दूर वर्ग की राज्यसत्ता और पार्टी के ज़रिये मज़दूर वर्ग का नियन्त्रण है। नेप के दौर में ट्रेड यूनियनों की भूमिका और स्थिति के बारे में कोई भी बात करते समय सुजीत दास को ऐसा ग़ैर-जिम्मेदाराना रुख़ नहीं अपनाना चाहिए था; उन्हें अगर नेप के दौर में ट्रेड यूनियनों के बारे में अपनी बात कहनी थी, तो कम से कम वह दस्तावेज़ तो पढ़ लेना चाहिए था जो ख़ास तौर पर इसी विषय पर केन्द्रित है।

ट्रेड यूनियन और पार्टी के रिश्तों के बारे में, ट्रेड यूनियनों की सर्वहारा अधिनायकत्व के दौर में भूमिका के बारे में और साथ ही पार्टी द्वारा ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व के बारे में लेनिन की रचनाओं से ऐसे दर्जनों और उद्धरण दिये जा सकते हैं। लेकिन हमें लगता है कि उपरोक्त उद्धरणों से अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भटकाव और ट्रॉट्स्की-बुखारिन धड़े के दक्षिणपन्थी भटकावों की इन बुनियादी सवालों पर ग़लतियों के विषय पर लेनिन की अवस्थिति पर्याप्त साफ़ हो चुकी है। अगले अहम सवाल, यानी की पार्टी के चरित्र और प्रकृति के सवाल पर जाने से पहले, हम एक छोटी-सी टिप्पणी से अपनी बात ख़त्म करेंगे। ट्रॉट्स्की की अवस्थिति तार्किक तौर पर निरन्तरतापूर्ण थी और साथ ही सर्वहारा वर्ग दृष्टिकोण से विजातीय थी, इसलिए लेनिन ने शुरुआती दौर में ही उस पर ज़्यादा ध्यान दिया और दो लम्बे लेख लिखे। लेकिन ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की पूरी सोच को, जो कि सुजीत दास की सोच भी है, लेनिन हास्यास्पद मानते थे। इसकी तुलना में ट्रॉट्स्की की अवस्थिति को लेनिन सही अवस्थिति के अपेक्षाकृत ज़्यादा करीब मानते थे। इस उद्धरण से यह बात साफ़ हो जाती हैः

“श्ल्याप्निकोव (वर्कर्स अपोज़ीशन की तरफ़ से) संघाधिपत्यवादी अवस्थिति को पढ़ते हैं जिसे ट्रॉट्स्की ने पहले ही तहस-नहस कर दिया था (ट्रॉट्स्की के मंच की थीसिस संख्या 16) और जिसे (आंशिक तौर पर शायद इसी वजह से) कोई भी गम्भीरता से लेने के लिए तैयार नहीं है।” ((लेनिन, दि पार्टी क्राइसिस, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1986, पृ. 396) वास्तव में स्वयं लेनिन भी गम्भीरता से नहीं लेते थे। पार्टी कांग्रेस में ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस को साप्रोनोव ने पेश किया था। देखिये इसके बारे में लेनिन क्या कहते हैं: “एक ही थीसिस (3) में ये साप्रोनोवाइट लोग ‘एक गहरे संकट’ और ट्रेड यूनियनों के ‘नौकरशाहाना परिगलन’ की बात करते हैं, और साथ ही ‘बिल्कुल’ ज़रूरी कार्यभार के तौर पर, उत्पादन में ट्रेड यूनियनों के अधिकारों के विस्तार’ की बात भी करते हैं…शायद उनके ‘नौकरशाहाना परिगलन’ के कारण? क्या इस ग्रुप को गम्भीरता से लिया जा सकता है?” (लेनिन, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 32, फॉरेन लैंग्वेजेज़ प्रेस, मॉस्को, चौथा अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 51-52) स्पष्ट है कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद को 1921 आते-आते कोई गम्भीरता से भी नहीं लेता था, जिसमें कि स्वयं लेनिन भी शामिल हैं। और इसके कारणों को समझना ज़्यादा कठिन नहीं है।

यहाँ लेनिन का यह दृष्टिकोण बिल्कुल साफ़ है कि ट्रेड यूनियनों की सर्वहारा अधिनायकत्व और समाजवादी संक्रमण के पूरे ऐतिहासिक कालखण्ड में क्या भूमिका होनी चाहिए और उसमें किस प्रकार बदलाव होना चाहिए। उपरोक्त उद्धरणों में लेनिन राज्य और सोवियत, पार्टी और सोवियत, राज्य और ट्रेड यूनियन, पार्टी और ट्रेड यूनियन के आपसी सम्बन्धों बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहते हैं। इससे पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका हर जगह पर स्पष्ट है; चाहे वह सोवियतें हों या ट्रेड यूनियनें। लेकिन सुजीत दास इसी बात पर सवाल उठाते हैं। वह बार-बार अपने लेख में इस किस्म की बातें करते हैं कि शासन वर्ग की बजाय पार्टी के हाथ में था; पार्टी की इच्छा को वर्ग की इच्छा मान लिया गया था; पार्टी ने वर्ग को अपदस्थ कर दिया था, या यह कि पार्टी वर्ग का स्थानापन्न बन गयी थी। ऐसे में यह सवाल उठाना ज़रूरी हो गया है कि पार्टी आखि़र होती क्या है? पार्टी की लेनिनवादी समझदारी क्या है? सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और सर्वहारा वर्ग के राज्य में पार्टी की भूमिका और स्थान क्या है? कुछ बातें ऊपर आयीं हैं जिससे लेनिन का यह विचार हमें पहले ही पता चल चुका है कि सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण सर्वहारा वर्ग की पार्टी होती है और सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने का काम पार्टी करती है। लेकिन इस विषय पर और स्पष्टता की ज़रूरत है। पार्टी के सवाल पर पहले हम सुजीत दास की पूरी समझदारी पर कुछ बातें कहना चाहेंगे और उसके बाद हम लेनिन को उद्धृत करते हुए इस विषय पर लेनिनवादी सोच को स्पष्ट करने का प्रयास करेंगे।

ख) वर्ग, पार्टी और राज्यसत्ता के अन्तर्सम्बन्धों के प्रश्न पर ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ का ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद

बेहतर है कि सुजीत दास के विचारों की व्याख्या शुरू करने से पहले उन्हें ही बोलने दिया जाय। पार्टी और पार्टी की भूमिका के बारे में सुजीत दास की पूरी समझदारी उनके ही तमाम कथनों से स्पष्ट हो जाती है।

“…अगर वर्ग संगठन, यानी, उत्पादक वर्ग/वर्गों का अपना संगठन हर दिन बढ़ता नहीं जा रहा है, तो प्रत्यक्ष उत्पादक का उत्पादन के सम्बन्धों से अलगाव घट नहीं सकता है। लेकिन अगर इस वर्ग की राजनीतिक शक्ति विकसित नहीं हो रही है, तो यह शक्ति किसी छोटी सी मण्डली के हाथों में केन्द्रित हो जायेगी – चाहे इसके विपरीत कुछ भी कहा जाय। फिर, प्रत्यक्ष उत्पादक के इस अलगाव को कैसे दूर किया जा सकता है? सोवियतें सोवियत संघ में वह संस्था हो सकती थीं जिनके ज़रिये प्रत्यक्ष उत्पादकों की राजनीतिक शक्ति मूर्त रूप ले सकती थी। लेकिन सामूहिकीकरण आन्दोलन के पूरे कालखण्ड के दौरान यह देखा गया कि किसानों की सोवियतों की भूमिका परिधिगत थी। वे संस्थाएँ क्रमिक प्रक्रिया में मज़बूत नहीं बल्कि, कमज़ोर बनती गयीं; राज्य और पार्टी सापेक्षिक तौर पर मज़बूत बनते गये। सामूहिकीकरण आन्दोलन के पूरे कालखण्ड के दौरान, किसान समितियों को बस ऊपर से, यानी पार्टी से आने वाले निर्णयों पर सिर हिलाकर सहमति देने की भूमिका में धकेल दिया गया था।” (पृ. 82-83, ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’, फ़रवरी 2008) और देखें: “…सर्वहारा अधिनायकत्व मात्र कागज़ों पर रह गया, वास्तव में सारी राजनीतिक शक्ति पार्टी के हाथ में केन्द्रित हो गयी।” (वही, पृ. 84) यह भी देखें, “…राजनीतिक सत्ता मज़दूर वर्ग के हाथ में केंद्रित नहीं हो रही थी, बल्कि मज़दूर वर्ग पार्टी और राज्य के प्रति दासवत एक सामाजिक शक्ति बनता जा रहा था। ट्रेड यूनियनें जो कि उनका अपना संगठन थीं, वे या तो विलोपित होती जा रही थीं, या फिर उन्हें पार्टी और राज्य का गुलाम बनाया जा रहा था।” (वही, पृ. 86) लेकिन यह तो सिर्फ़ शुरुआत थी! इस लम्बे उद्धरण में सुजीत दास ने अपनी और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की पूरी सोच को एकदम खोल कर रख दिया हैः

“अगर “चेतना” को निर्धारक भूमिका अदा करनी है, तो इसे “हिरावल” की चेतना बनना होगा। मज़दूर वर्ग के एक हिस्से को उसका वाहक बनना होगा और इस चेतना से लैस हिरावल बनना पड़ेगा। यह हिरावल हिस्सा ही “पार्टी” होगा। इसके विपरीत, समाजवादी क्रान्ति पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने के बाद पूरे मज़दूर वर्ग को सम्पूर्ण रूप से सत्ता में पहुँचाती है, स्वयं पार्टी को नहीं। यह हमें एक अन्तरविरोध की तरफ़ ले जाता है। निर्धारक भूमिका हिरावलों, दूसरे शब्दों में पार्टी द्वारा निभाई गयी थी, हालाँकि, कम से कम सैद्धान्तिक तौर पर मज़दूर वर्ग सत्ता में होता है। पार्टी ने यह सोचना शुरू कर दिया कि वर्ग पिछड़ा हुआ है, वर्ग में किसान और निम्न पूँजीवादी तत्व बचे हुए हैं। इसलिए वह सम्पूर्णता को नहीं देख सकता है। इसलिए पार्टी ने अपने नज़रिये को वर्ग पर थोपना शुरू कर दिया। दूसरी तरफ़ वर्ग ने यह सोचना शुरू कर दिया कि उसकी अपनी पार्टी ही उसके वर्ग हितों की उपेक्षा कर रही है। यह अन्तरविरोध सोवियत संघ में नेप के दिनों से ही था। ट्रेड यूनियनें और सोवियतें मज़दूरों के हितों की नुमाइन्दगी कर रही थीं और प्रबन्धक राज्य की आधिकारिक नीतियों को लागू कर रहे थे। ये दोनों एक-दूसरे के ख़िलाफ़ जा रहे थे। संघर्ष अपरिहार्य हो गया। यह समस्या 1930 के दशक में बेहद तीक्ष्ण हो गयी। मज़दूरों के हिरावल ने सोचा कि मज़दूरों के वे पिछड़े हिस्से जो मज़दूर राज्य की आवश्यकता को नहीं समझ सकते, वे बुनियादी तौर पर “निम्न पूँजीवादी” और “किसान” हैं। क्योंकि अगर वे सच्चे मज़दूर होते (यानी, अगर वे हिरावल होते), तो उन्होंने उस पल की अनिवार्यता को समझा होता। इसलिए अगर उन्हें ट्रेड यूनियनों व अन्य माध्यमों के ज़रिये मज़बूत किया जाता, तो वे पूँजीवाद के हितों को आगे बढ़ाते। इस प्रकार ट्रेड यूनियनों की गतिविधियों को रोका गया। इसकी प्रतिक्रिया में वर्ग एक बार फिर पार्टी से अलगावग्रस्त हो गया। इस समस्या को सही तरीके से हल नहीं किया जा सका; इसलिए समाजवाद के इतिहास में एक निहित तरीके से तय किया गया कि “वर्ग” और उसका “हिरावल”, यानी कि “पार्टी” एक ही हैं। इस तरह से पार्टी के हाथ में जो सत्ता थी उसे वर्ग की सत्ता मान लिया गया। और इस कारण के चलते, वर्ग की अपनी सत्ता के केन्द्र यानी सोवियतें गैर-ज़रूरी हो गयीं, वर्ग अपने सभी स्वतन्त्र संगठनों को खो बैठा, पार्टी हर चीज़ की निर्धारक बन गयी।…पार्टी वर्ग से कटी हुई, वर्ग के ऊपर, और वर्ग के दायरों से बाहर का एक संगठन सिद्ध हुई। इसका परिणाम वही हुआ जिसकी अपेक्षा की जा सकती थी। कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारात्मक बुनियाद मज़दूर वर्ग की एक वर्ग के तौर पर बुनियाद डालती है और यह सुनिश्चित करती है इस अवलम्ब को वर्गों के निरन्तर संघर्ष से हासिल करे। इस प्रकार, वर्ग से कटी हुई एक पार्टी अपरिहार्य रूप से बुर्जुआ वर्ग की तरफ़ झुकने के अनुकूल वस्तुगत स्थिति को प्राप्त करती है। यह प्रक्रिया स्तालिन काल में शुरू हुई और बाद के दिनों में ख्रुश्चेव के साथ पूरी हुई। दूसरी बात, चूँकि पार्टी अपने वर्ग से कटी हुई थी, इसलिए राज्य और उत्पादन के साधन जो कि पार्टी के द्वारा संचालित हो रहे थे, वे भी वर्ग से कट गये। पूँजीवादी व्यवस्था में मज़दूर पूँजीपतियों के मालिकाने के उत्पादन के साधनों से अलगावग्रस्त होता है, मज़दूर के पास उत्पादन प्रक्रिया और वितरण के बारे में तय करने का कोई अधिकार नहीं होता; और सोवियत संघ में, मज़दूर राजकीय मालिकाने वाले उत्पादन के साधनों से अलगावग्रस्त हो गये। यह स्थिति मज़दूरों के पार्टी से अलगावग्रस्त हो जाने के कारण पैदा हुई थी।…मज़दूर वर्ग बिखरा हुआ था, मज़दूर सोवियतें तनावयुक्त थीं, यहाँ तक कि ट्रेड यूनियनें भी काम नहीं कर रही थीं, लेकिन ऐसी स्थिति में कहा गया कि मज़दूर वर्ग की राजनीतिक सत्ता का रूप “सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व” है। सोवियत संघ के राजनीतिक साहित्य में, यह कभी ज़िक्र नहीं किया गया था कि “सर्वहारा वर्ग की तानाशाही” “पार्टी की तानाशाही” के ज़रिये व्यवहार में आयेगी। यह कभी नहीं कहा गया था कि मज़दूर वर्ग की तानाशाही और पार्टी की तानाशाही एक ही चीज़ हैं। बल्कि इसके विपरीत पर काफ़ी ज़ोर दिया गया था। अक्टूबर क्रान्ति के शुरुआती कुछ वर्षों को छोड़ दें, जब सोवियतें जीवित थीं, तो मज़दूरों की तानाशाही की बार-बार घोषणाओं के बावजूद हमने कभी इस प्रकार की तानाशाही नहीं देखी थी। और अगर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही ने रूप ग्रहण नहीं किया है, तो बहुसंख्या के लिए जनवाद कैसे स्थापित हो सकता है?…इसी प्रकार राज्य के अस्तित्व और उसके विलोपीकरण के अन्तरविरोध को भी तत्कालीन सोवियत संघ द्वारा हल नहीं किया जा सका। लेनिन ने अपनी पुस्तक “राज्य और क्रान्ति” में दिखलाया था कि राज्य जितना जनवादी बनता जाता है, उसके “विलोपीकरण” के लिए स्थिति उतनी ही अनुकूल बनती जाती है। अगर मज़दूरों की तानाशाही रूप ग्रहण नहीं करती, तो राज्य कभी भी बहुसंख्यक नागरिकों को जनवाद नहीं दे सकता है। चूँकि अगर वर्ग के पास अपनी राजनीतिक सत्ता का केन्द्र नहीं है, तो उस राज्य को बचाने के लिए वह कभी हथियारबन्द नहीं होता, जो बहुसंख्या को जनवाद देता है और उत्पादन और वितरण पर “नियन्त्रण” स्थापित करने और साथ ही श्रम पर और श्रम द्वारा उत्पादित माल का “लेखा-जोखा” रखने का अधिकार देता है।” (वही, पृ. 95-97, ज़ोर हमारा)

इस पूरे उद्धरण में जो बातें आयी हैं, उनमें से कई बातों का तो कोई मतलब ही नहीं है, इसलिए उनका खण्डन करना भी सम्भव नहीं है। मिसाल के तौर पर सुजीत दास का मानना है कि चेतना हिरावल के बाहर कहीं अस्तित्वमान होती है और उसे हिरावल की चेतना बन जाना होता है। यह सर्वहारा चेतना के पैदा होने की पूरी प्रक्रिया को नहीं समझने के समान है। सर्वहारा चेतना पहले से प्रदत्त नहीं होती, बल्कि वर्गों के संघर्षों और उन संघर्षों के अनुभवों के हिरावल द्वारा वैज्ञानिक समाहार के ज़रिये निःसृत होती है। इसलिए हिरावल का संघटन ही सर्वहारा चेतना के आत्मसातीकरण के ज़रिये होता है। लेकिन सुजीत दास के अनुसार यह चेतना पता नहीं कहाँ से समाज में पहले से मौजूद होती है, और बस उसे हिरावल की चेतना “बन” जाना होता है। इसी प्रकार श्री दास कहते हैं कि पार्टी वर्ग को एक वर्ग के तौर पर स्थापित करती है। यहाँ पर भी वर्ग चेतना और राजनीतिक वर्ग चेतना में सुजीत दास उस फर्क को नहीं समझते जो कि लेनिन ने बताया था। वर्ग ‘अपने आप में वर्ग’ (क्लास-इन-इटसेल्फ) से ‘अपने लिए वर्ग’ (क्लास-फॉर-इटसेल्फ) में अपने संघर्षों के साथ ही तब्दील होने लगता है, लेकिन बिना पार्टी के वह राजनीतिक सत्ता के प्रश्न तक नहीं पहुँच सकता। राजनीतिक चेतना मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में बाहर से ही आ सकती है, जैसा कि लेनिन ने ‘क्या करें?’ में बताया था। लेकिन इस मामले में श्री दास लेनिनवादी अवस्थिति को नहीं मानते बल्कि अपनी एक नयी ‘दासवादी’ अवस्थिति पैदा करने में व्यस्त हैं! एक और मिसाल पर ग़ौर करें।

ऊपर के उद्धरणों में आप ‘अलगाव’ और ‘अलगावग्रस्त’ शब्दों का प्रयोग देखें, जिन्हें हमने आपकी सुविधा के लिए अलग से रेखांकित कर दिया है। एक बात स्पष्ट है कि सुजीत दास अलगाव की मार्क्सवादी समझदारी से काफ़ी दूर हैं। वह अलगाव का इस्तेमाल रोज़मर्रा की भाषा में इस शब्द के प्रयोग की तर्ज़ पर करते हैं, जैसे कि ‘फलाँ का फलाँ से अलगाव हो गया’, ‘फलाने अलगाव का शिकार है’, वगैरह! सुजीत दास के ‘प्रत्यक्ष उत्पादक’ भी इन्हीं अर्थों में उत्पादन के साधनों से ‘अलगावग्रस्त’ हो जाते हैं; उसके बाद पार्टी वर्ग से ‘अलगावग्रस्त’ हो जाती है; फिर राज्य भी वर्ग से ‘अलगावग्रस्त’ हो जाता है; फिर ट्रेड यूनियन भी वर्ग से अलगावग्रस्त हो जाती है…अन्त में, ऐसा लगता है कि हर चीज़ बाकी चीज़ों से अलगावग्रस्त हो गयी है! अलगाव की ऐसी अखबारी बचकानी समझदारी से सुजीत दास ने सोवियत संघ में अलगाव के विश्लेषण की जो परियोजना हाथ में ली है, वह और कुछ नहीं करती, तो अन्त में कुछ मनोरंजन तो ज़रूर करती है! अलगाव की पूरी मार्क्सवादी समझदारी क्या है, सोवियत संघ में अलगाव की परिघटना से समाजवादी राज्य कैसे निपटा, इस प्रक्रिया में किस हद तक वह सफल रहा और कहाँ से उसकी असफलता शुरू होती है, इसके बारे में कुछ बातें हम ऊपर कह आये हैं, जिन्हें हम यहाँ दुहरायेंगे नहीं, और कुछ बातें हम आगे कहेंगे।

इन उद्धरणों में कुछ बातें ऐसी हैं जो कि ज़बरन लेनिन और उनके नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी के मुँह में ठूँस दी गयी हैं। इन बातों का खण्डन करने के लिए हम स्वयं लेनिन को ही आगे उद्धृत करेंगे। यहाँ पर भी हम देख सकते हैं कि सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी अवधारणा के इमले के बारे में भी सुजीत दास को कुछ पता नहीं है। अपने इस अज्ञान की भरपाई वह अपनी कल्पनाओं और बचकाने सैद्धान्तिकीकरण से करते हैं। मिसाल के तौर पर, सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी लेनिनवादी सोच को गॉर्टर, रूले, पान्नेकोएक जैसे डच “वामपन्थी” कम्युनिस्टों और पॉल मात्तिक जैसे काउंसिल कम्युनिस्टों के मज़दूर जनवाद की सोच में अपचयित कर दिया गया है। आगे हम इन बचकाने “वामपन्थी” सूत्रीकरणों से सुजीत दास की गहरी मित्रता को भी “वामपन्थी” कम्युनिस्टों, और यहाँ तक कि काऊत्स्की जैसे सामाजिक-जनवादियों, वॉरेल जैसे ट्रॉट्स्कीपन्थियों के उद्धरणों के ज़रिये प्रदर्शित करेंगे और साथ ही यह भी दिखलाएँगे कि लेनिन इन सभी सूत्रीकरणों के प्रति कितनी नफ़रत रखते थे। लेकिन पहले हम सुजीत दास को ही थोड़ा और उद्धृत करके पाठकों को थोड़ी और यातना देने की आज्ञा चाहेंगे, क्योंकि सबसे पहले सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ जैसे राजनीतिक नौदौलतियों की पूरी सोच को सम्पूर्णता में सामने रखना ज़रूरी है। आगे देखें श्री दास के वैचारिक विचरण कहाँ तक जाते हैं:

“चूँकि समाजवादी मालिकाने का शाब्दिक तौर पर यही अर्थ है कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का मालिकाना हो, इसलिए कोई पार्टी या इसका सबसे बड़ा शुभचिन्तक राज्य भी प्रत्यक्ष उत्पादकों के स्थान पर उस मालिकाने को नहीं ले सकता…मज़दूरों की तानाशाही वह राजनीतिक मूर्त रूप है जिसके ज़रिये पार्टी नहीं बल्कि पूरा वर्ग अपने वर्चस्व को स्थापित करता है और इसके बूते पर उत्पादन और वितरण की प्रक्रिया पर नियन्त्रण लागू करता है।…हमने देखा है कि सोवियत संघ में समाजवाद के लिए संघर्ष के सबसे गौरवशाली दौर में, यानी कि तीस के दशक के दौरान, वर्ग उत्पादन प्रक्रिया से अलगावग्रस्त था, वर्ग संगठन कमज़ोर होने लगा था और मज़दूरों की तानाशाही की अवधारणा महज़ शब्दों में ही रह गयी थी” (वही, पृ. 98-99) और इसके बाद सुजीत दास अपने विचारधारात्मक निर्वाण को इस तरह से प्राप्त होते हैं: “पहले की सभी सामाजिक व्यवस्थाओं में, प्रभावी व्यवस्थाओं के साथ निरन्तरता में, सत्ता लगातार केवल ग्रुपों के हाथ में, यानी वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाली पार्टियों के हाथ में सीमित हो गयी थी। उस वर्ग ने वर्ग की ही अवहेलना करते हुए सत्ता हथिया ली थी (फासीवाद ने, प्रभावतः, इस वर्ग को विभाजित कर दिया था)।” (वही, पृ. 99) और अन्त में सुजीत दास कालदोषात्मक रूप में सोवियत समाजवाद और तीस के दशक की पार्टी को अपनी सारगर्भित शिक्षा देते हैं, “इसलिए समाजवाद में “हिरावल” को यह समझना होगा कि उसका हिरावलपन्थ एक तरफ़ तो एक ऐतिहासिक वस्तुगतता है, और वहीं दूसरी तरफ़ हिरावल का यह चेतन कार्यक्रम होना चाहिए कि वह हिरावल और पिछड़े के बीच का फर्क मिटाये। दूसरे शब्दों में हिरावल को अपने ही अस्तित्व को लगातार खत्म करना चाहिए…इस अन्तर को ख़त्म करने की प्रक्रिया को शुरू करने के लिए सचेतन प्रयास और केवल “विचारधारात्मक नेतृत्व” तक सीमित रूप में हिरावल की भूमिका को बिना रुके हुए चलाया जाना चाहिए। इसका संगठनात्मक रूप होगा पार्टी के महत्व को घटाते जाना और वर्ग संगठन की भूमिका के महत्व को बढ़ाते जाना…इसके विपरीत, जिस हद तक हिरावल और पिछड़े का फर्क समाज में बना रहेगा, जिस हद तक हिरावल का “पार्टी” संगठन पिछड़ों के संगठन से ज़्यादा ताक़तवर होगा, जिस हद तक वर्ग द्वारा सत्ता हासिल किये जाने की प्रक्रिया को रोका जायेगा, ठीक उसी हद तक सभी सामाजिक गतिविधियों में पार्टी निर्धारिक स्थिति में आ जायेगी और वर्ग का उत्पादन के साधनों से अलगाव बढ़ जायेगा।” (वही, पृ. 100)। बस अब हम पाठकों के सब्र का और इम्तहान नहीं लेंगे!

आप देख सकते हैं कि सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की पूरी थीसिस क्या है। यह साफ़ तौर पर पार्टी को वर्ग के ख़िलाफ़ खड़ा करना है। इस पूरे बयान में पार्टी एक ऐसी ताक़त के रूप में आती है, जो वर्ग को सत्ता से वंचित कर देती है; जो मज़दूर वर्ग (जिसे बार-बार श्री दास एक व्यापक शब्द ‘प्रत्यक्ष उत्पादक’ से दिखलाते हैं, और जो कि बिल्कुल ग़लत है) के राजनीतिक केन्द्रों और सत्ता के केन्द्रों को निष्प्रभावी बनाती जाती है, यानी कि सोवियतें और ट्रेड यूनियनें; जो ऐसा करते हुए उत्पादन के साधनों पर राजकीय मालिकाना कायम कर लेती है और ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ को इससे अलगावग्रस्त कर देती है; उत्पादन के साधनों के समाजीकरण में पार्टी ऐसा करके बाधा डालती है; सर्वहारा अधिनायकत्व को पार्टी लागू करने लगती है (इस पर सुजीत दास काफ़ी चकित और हक्का-बक्का हैं, और उन्हें लगता कि सोवियत संघ के राजनीतिक साहित्य में तो ऐसा कभी कहा नहीं गया था, और ज़रा देखिये पार्टी ने कैसे मज़दूर वर्ग को कितनी कुशलता से गच्चा दे दिया!); पार्टी एक समूह थी जिसने वर्ग की नुमाइन्दगी का दावा किया और सत्ता निगल गयी! और सुजीत दास के लिए इस मायने में इतिहास के पहले की शोषक राजसत्ताओं और सोवियत राजसत्ता में कोई फर्क नहीं था! श्री दास मानते हैं कि पार्टी ने अपनी इच्छा वर्ग पर थोपनी शुरू कर दी; उसने अपने शासन को वर्ग का शासन बता दिया, वगैरह-वगैरह। ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की इस पूरी समझदारी को रखने के साथ सुजीत दास अलग से कुछ बातें लिख देते हैं, जिससे कि वह पाठक को याद दिलाते हैं (या शायद खुद को भी याद दिलाते हैं) कि वह एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी हैं। जैसे कि तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी मूर्खतापूर्ण बातों को लेनिन और बोल्शेविक पार्टी के मुँह में डालने, स्तालिन काल की पार्टी (वास्तव में दास का निशाना सिर्फ़ स्तालिन काल और 1930 के दशक की पार्टी नहीं बल्कि 1917 से 1953 तक के समूचे कालखण्ड की बोल्शेविक पार्टी पर है, और विशेषकर लेनिन पर है) पर जमकर कीचड़ उछालने के बाद वह बीच-बीच में लिख देते हैं कि ‘पार्टी में क्रान्तिकारी थे’, ‘सामूहिकीकरण का गौरवशाली आन्दोलन’, वगैरह-वगैरह। लेकिन उनका पूरा तर्क और पूरी अवस्थिति वास्तव में बीसवीं सदी के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों से भी कहीं गयी-गुज़री है। इसका एक कारण यह भी है कि उस समय के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी कम-से-कम किसी भी विषय पर थोड़ा पढ़कर लिखते थे। लेकिन सुजीत दास ने तो मारकेस के ‘जादुई यथार्थवाद’ का अनुसरण करते हुए और कल्पना की सारी तार्किक सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए सोवियत संघ के इतिहास का मिथकीयकरण किया है।

सबसे पहले हम आपको यह दिखाना चाहेंगे कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी होने का दावा करने वाले इन लोगों की ज़्यादा करीबी किनसे है। हम इसके लिए सोवियत समाजवाद के कुछ शुरुआती आलोचकों और बोल्शेविक पार्टी के बीच हुई कुछ बेहद अहम सैद्धान्तिक बहसों का संक्षिप्त ब्यौरा देंगे और दिखलायेंगे कि सुजीत दास की अवस्थिति न सिर्फ़ अराजकतावादी संघाधिपत्यवादियों की अवस्थिति है, बल्कि उस पर काऊत्स्की जैसे संशोधनवादियों, ऑस्ट्रेलियाई त्रत्स्कीपन्थी वॉरेल, सिमोन वील और रिज़्ज़ी जैसे मार्क्सवाद के सचेतन विरोधियों आदि जैसे लोगों का भी गहरा प्रभाव है। उसके बाद हम पार्टी और वर्ग व पार्टी और राज्यसत्ता के रिश्तों के बारे में लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों को आपके सामने रखेंगे। लेकिन पहले आपको सुजीत दास के वास्तविक विचारधारात्मक पूर्वजों से परिचित कराते हैं, जिसमें कि तमाम ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद, अराजकतावाद और विसर्जनवाद के पुरोधाओं समेत, काऊत्स्की आदि जैसे संशोधनवादी भी शामिल हैं। आगे तथ्यों, तर्कों और उद्धरणों समेत हम अपनी इस बात को पुष्ट करेंगे।

बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में अक्टूबर क्रान्ति के बाद जो सर्वहारा सत्ता अस्तित्व में आयी उसके प्रमुख आलोचकों में द्वितीय इण्टरनेशनल और जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के नेता कार्ल काऊत्स्की प्रमुख थे। काऊत्स्की अपने पतन से पहले विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक निर्विवाद नेता थे और कृषि प्रश्न समेत कई अहम मुद्दों पर उन्होंने मार्क्सवादी सिद्धान्त में महत्वपूर्ण इज़ाफ़े भी किये। लेकिन साम्राज्यवाद के दौर में पहले बड़े युद्ध, यानी, प्रथम विश्वयुद्ध के साथ, इस पीढ़ी के उन सामाजिक-जनवादियों का पतन उभर कर सतह पर आ गया, जो कि उन्नत देशों में मज़दूर आन्दोलनों के एक हिस्से के पतन को अभिव्यक्त कर रहे थे। इसके बाद से काऊत्स्की ने सतत् लेनिन, बोल्शेविक पार्टी और रूस में समाजवादी प्रयोग को अपना निशाना बनाया।

काऊत्स्की ने दो प्रमुख सवालों पर बोल्शेविक पार्टी और विशेष तौर पर लेनिन की आलोचना की। एक सवाल तो यह था कि बोल्शेविक पार्टी ने एक अपरिपक्व क्रान्ति कर दी है क्योंकि समाजवादी क्रान्ति एक उन्नत पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों वाले देश में ही हो सकती है और काऊत्स्की का मानना है कि बोल्शेविक एक ऐसे घोड़े पर सवार हो गये हैं जिसकी सवारी उन्हें नहीं आती है; और यह कि बोल्शेविक इस क्रान्ति के समाजवादी होने का कितना भी दावा करें, यह क्रान्ति एक बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति ही है। हम इस प्रश्न पर यहाँ चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि यहाँ अभी इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है और इसके सटीक जवाब के लिए हम पाठकों से लेनिन द्वारा लिखित ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काऊत्स्की’ का सन्दर्भ देखने का आग्रह करेंगे। लेकिन काऊत्स्की ने जो दूसरा सवाल उठाया वह हूबहू वही सवाल है जो कि सुजीत दास उठा रहे हैं। यह दूसरा सवाल यह था कि सोवियत संघ में एक प्रबन्धकीय कुलीन वर्ग पैदा हो गया है जिसने सर्वहारा वर्ग को सत्ता से अपदस्थ कर दिया है। यह प्रबन्धकीय कुलीन वर्ग जो कि वास्तव में नौकरशाही ही है, राज्यसत्ता पर आसीन हो गया है तथा पार्टी और राज्यसत्ता वर्ग के नाम पर शासन कर रहा है। (काऊत्स्की, टेररिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म, 1919, पृ. 21) काऊत्स्की भी सुजीत दास की तरह इस नये शासक वर्ग को पूँजीवादी कहने से सफ़ाई से बच निकले थे, क्योंकि उस सूरत में, एक बार फिर सुजीत दास की ही तरह, काऊत्स्की को भी पता था कि वह बेहद असुविधाजनक विरोधाभासों के गड्ढे में गिर जायेंगे। काऊत्स्की यह बात सही कह रहे थे कि रूस का मज़दूर वर्ग बेहद पिछड़ा हुआ है और वह अपने से उद्योगों के प्रबन्धन और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन का कार्य नहीं कर पायेगा। ऐसे में पार्टी और राज्य पर एक प्रबन्धक नौकरशाही का कब्ज़ा हो जायेगा जो मज़दूर वर्ग के नाम पर शासन करेगी। ऐसा नहीं था कि रूस में समाजवादी क्रान्ति और मज़दूर वर्ग की सीमाओं को लेनिन नहीं समझते थे। इस बारे में लेनिन ने स्पष्ट किया कि रूसी क्रान्ति बेहद अपवादस्वरूप स्थितियों में हुई थी। बोल्शेविकों के पास क्रान्ति का वक्त चुनने का सुविधाजनक विशेषाधिकार नहीं था। जाहिर था, कि प्रथम विश्वयुद्ध, गृहयुद्ध, मज़दूरों और किसानों के क्रान्तिकारी आन्दोलन और स्वतःस्फूर्त तरीके से सोवियतों के अस्तित्व में आने के कारण बोल्शेविक पार्टी को 1917 में जनता के आन्दोलनों की बागडोर अपने हाथ में लेकर उसे समाजवादी क्रान्ति की मंजिल तक पहुँचाना पड़ा। लेनिन जानते थे कि रूस का मज़दूर वर्ग काऊत्स्की के शब्दों में घुड़सवारी सीखने से पहले ही घोड़े पर सवार हो गया है।

1920 में, जब अभी ट्रॉट्स्की अपेक्षाकृत सही अवस्थिति पर थे तो उन्होंने काऊत्स्की को अच्छा उत्तर दिया था। 1920 में ट्रॉट्स्की ने काऊत्स्की की पुस्तिका के शीर्षक को अपनाते हुए अपनी पुस्तिका ‘टेररिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म’ निकाली। इसमें ट्रॉट्स्की ने काऊत्स्की को निम्न उत्तर दियाः

“ठीक उतने ही मज़बूत आधार पर आप पूछ सकते हैं, ‘क्या काऊत्स्की जीन पर ढंग से बैठना सीखे बगैर पशु को उसके रास्ते पर संचालित कर सकते हैं? हमारे पास यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि काऊत्स्की ऐसे ख़तरनाक, शुद्ध रूप से बोल्शेविक प्रयोग के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर पायेंगे। दूसरी तरफ़, हमें यह डर है कि काऊत्स्की को घोड़े की पीठ पर चढ़ने का जोखिम उठाये बग़ैर, घुड़सवारी के राज़ जानने में पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि बुनियादी बोल्शेविक पूर्वाग्रह यही है किः आप घोड़े पर बैठकर ही घुड़सवारी सीख सकते हैं।

“इसके अतिरिक्त, रूसी मज़दूर वर्ग को इस घोड़े पर बैठना पड़ा, अन्यथा उसे समूचे युग के ऐतिहासिक मंच से बाहर फेंक दिया जाता। और, एक बार जब इसने सत्ता हासिल कर ली, और अब इसकी बागडोर सम्भाल ली है, तो बाकी चीज़ें अपने आप ही होती जायेंगी…‘जीन पर सवार होने के बाद घुड़सवार घोड़े को निर्देशित करने के लिए बाध्य होता है’ . चाहे उसमें उसकी गर्दन टूट जाने का ख़तरा ही क्यों न हो।” (टेररिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म, ट्रॉट्स्की, 1920 अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 102)

जाहिर है बोल्शेविक पार्टी इस बात को समझ रही थी कि उसे मज़दूर वर्ग को लम्बे समय तक संस्थाबद्ध नेतृत्व देना होगा, सिर्फ़ “विचारधारात्मक मार्गदर्शन” तक सीमित रहते हुए नहीं, जैसा कि सुजीत दास मानते हैं। काऊत्स्की का मानना था कि इसके ज़रिये पार्टी वर्ग को अपदस्थ कर देगी; नौकरशाही वर्ग से सत्ता छीन लेगी और सर्वहारा अधिनायकत्व, जैसा कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ मानता है, केवल कागज़ी यथार्थ रह जायेगा। काऊत्स्की से सुजीत दास की करीबी यहाँ साफ़ तौर पर देखी जा सकती है। लेकिन अभी बोल्शेविक पार्टी की तरफ़ से काऊत्स्की का इस मुद्दे पर सबसे सशक्त जवाब आना था और यह जिम्मेदारी पूरी की निकोलाई बुखारिन ने, जो अभी हाल ही में अपने “वामपन्थी” भटकाव को और उसके बाद ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर दक्षिणपन्थी भटकाव को छोड़कर लेनिनवादी अवस्थिति पर आये थे (बताने की ज़रूरत नहीं है कि बुखारिन का आगे भी भटकावों के इन दोनों छोरों के बीच दोलन जारी रहा था। लेकिन काऊत्स्की का जवाब देने के मुद्दे पर बुखारिन बिल्कुल सही थे।)

काऊत्स्की ने बोल्शेविक पार्टी पर अपना हमला जारी रखते हुए लिखा कि सोवियत सरकार “दुनिया में सर्वहारा वर्ग के आगे बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा है – हंगरी के हॉर्थी शासन या इटली में मुसोलिनी के शासन से भी बुरी बाधा, जबकि मुसोलिनी के शासन ने हर विपक्षी आन्दोलन को सोवियत संघ की तरह पूरी तरह से असम्भव भी नहीं बनाया है।” (काऊत्स्की, डाई इण्टरनेशनाली एण्ड सोवियेतरुसलैण्ड, बर्लिन, 1925, जेएचडब्ल्यू डियेट्ज़ नाख़्ट, पृ. 11) यहाँ भी आपको सुजीत दास की उस बात की ध्वनि सुनायी दे जायेगी कि सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी का शासन पहले के सभी राज्यों जैसा ही था, क्योंकि सभी में एक छोटे से समूह ने वर्ग ने नाम पर सत्ता हथियाकर वर्ग की ही इच्छा की अवहेलना शुरू कर दी थी। आगे काऊत्स्की ने लिखा कि बोल्शेविक “आज ऐसी स्थिति में हैं जिसमें वे सर्वहारा वर्ग पर प्रभुत्व स्थापित करके और उनका शोषण करके अपना अस्तित्व कायम रखते हैं। लेकिन वे एक पूँजीवादी वर्ग की तरह काम नहीं करना चाहते। इसलिए वे सर्वहारा और पूँजी दोनों के ही ऊपर खड़े हैं और उन्हें उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं।” (वही, पृ. 25)

बुखारिन ने अपनी लम्बी पुस्तिका कार्ल काऊत्स्की एण्ड सोवियत रशिया में काऊत्स्की के तर्क को छिन्न-भिन्न कर दिया। बुखारिन ने लिखा और पूछा कि सोवियत राज्यसत्ता का चरित्र क्या है? क्या वह भूस्वामियों की सत्ता है? नहीं, क्योंकि भूस्वामियों का सोवियत सत्ता ने सम्पत्ति-हरण कर लिया था! क्या वह पूँजीपतियों की सत्ता है? नहीं! पूँजीपतियों का भी सोवियत सत्ता ने सम्पत्ति-हरण कर लिया था! फिर आखिर सोवियत राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र क्या था और इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह था कि सोवियत संघ किस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक संरचना थी? या तो काऊत्स्की यह कहें कि बोल्शेविक पार्टी नयी बुर्जुआज़ी का प्रतिनिधित्व करती है, लेकिन काऊत्स्की यह नहीं कह पा रहे थे। नौकरशाही को नया वर्ग कहना मार्क्सवादी दृष्टिकोण से अव्वल दर्जे़ की मूर्खता होती, और काऊत्स्की संशोधनवादी होने के बावजूद मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। इसलिए ऐसा वह कह नहीं सकते थे। नतीजतन, काऊत्स्की निरुत्तर थे। और यहीं पर बुखारिन ने उन्हें पकड़ा, और यहीं पर सुजीत दास भी जनवाद के अपने संशोधनवादी संस्करण के साथ पकड़ में आ जाते हैं:

“शासक वर्ग की पहचान हमेशा इस बात से होती है कि उनके पास उत्पादन के साधनों का एकाधिकार होता है, या कम-से-कम एक निश्चित वर्ग व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है। अगर लोगों का कोई समूह वह वर्ग है, तो इसका अर्थ होगा कि यह समूह सम्पत्ति के तौर पर उत्पादन के ‘राष्ट्रीयकृत’ साधनों का मालिक होगा। दूसरे शब्दों में, काऊत्स्की के नज़रिये से यह नतीजा निकलता है कि पोलित ब्यूरो के सदस्य, जिसमें कि मैं भी कितना अभागा हूँ मैं! शामिल हूँ समूचे बड़े पैमाने के उद्योग के मालिक और शोषक, यानी कि वित्तीय-पूँजीवादी अल्पतन्त्र हैं, जो कि इससे मुनाफ़े का हस्तगतीकरण करते हैं…” (बुखारिन, काऊत्स्की उण्ड सोवियेतलैण्ड, वियेना, वरलैग फुर लिटरेटूर उण्ड पोलेटिक, पृ. 34-35)। लेकिन सुजीत दास की तरह ही काऊत्स्की अपने ही विश्लेषण के नतीजों से डर जाते हैं और उनका ज़िक्र नहीं करते। वह बोल्शेविक पार्टी को अलग शासक वर्ग नहीं मानते। सुजीत दास भी अपने सारे विश्लेषण को अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और संशोधनवादियों से उधार लेते हैं (बहुत ही दयनीय और दरिद्र तरीके से!) लेकिन नतीजे के तौर पर मार्टिन निकोलस जैसे लेखकों के नतीजे को चिपका देते हैं कि इन सबके बाद भी सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोग कितने गौरवशाली थे! आगे देखें कि बुखारिन काऊत्स्की को क्या जवाब देते हैं, और यह सुजीत दास जैसे लोगों पर भी कैसे लागू होता हैः “अगर बोल्शेविक लोग कोई वर्ग नहीं हैं, तो इसका अर्थ है कि वे किसी वर्ग की नुमाइन्दगी करते हैं। यह वर्ग बड़े भूस्वामियों का नहीं है (जैसा कि काऊत्स्की भी मानते हैं, उनका सम्पत्ति-हरण हो चुका है)। यह वर्ग पूँजीपति वर्ग भी नहीं है (यह भी काऊत्स्की मानते हैं)। यह वर्ग किसान या बुद्धिजीवी (जिन्हें तो सही रूप में वर्ग कहा भी नहीं जा सकता है) भी नहीं हैं। तो बचता क्या है? सर्वहारा वर्ग।” (वही, पृ.35)

लेकिन सुजीत दास किसी पार्टी द्वारा वर्ग के प्रतिनिधित्व की पूरी अवधारणा पर ही उत्तरआधुनिक तरीके से सवाल खड़ा कर देते हैं! प्रतिनिधित्व के प्रश्न को वह धोखा-फरेब मानते हैं और सड़क चलते आम व्यक्ति की तरह कहते हैं कि ‘देखो भाई! सब पार्टी जनता को धोखा देती हैं!’ यह एक आम व्यवस्था-विरोधी टटपुँजिया व्यक्ति के लिए सही तर्क है, लेकिन सुजीत बोस तो ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ (मार्क्सवादी चिन्तन) में लिख रहे हैं! इसलिए उनसे यह उम्मीद की जायेगी कि वह बुनियादी मार्क्सवादी वर्ग विश्लेषण का प्रयोग करें। लेकिन यहाँ पर सुजीत दास सत्ता को अपने आप में एक शक्ति बना देते हैं, जिसका वर्ग विश्लेषण ही सम्भव नहीं है। वह कार्ल मार्क्स नहीं बल्कि मिशेल फूको के अनुयायी ज़्यादा नज़र आ रहे हैं। और साथ ही उन लोगों के साथ खड़े नज़र आ रहे हैं जिन्होंने लेनिन पर प्रतिस्थापनवाद (सब्स्टिट्यूशनिज़्म) का आरोप लगाया था। मार्क्सवादी-लेनिनवादी विश्लेषण बताता है कि सुजीत दास जिस शक्ति को ‘सत्ता हथिया लेने वाला समूह’ कहते हैं उसका कोई न कोई वर्ग चरित्र अवश्य होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि वह सभी वर्गों को मूर्ख बनाकर सत्ता में पहुँच गया हो! यह पूरा विश्लेषण ही भयंकर अर्थहीनता की तरफ़ जाता है।

काऊत्स्की के बाद दूसरी धारा जिससे कि सुजीत दास की वैचारिक एकता नज़र आती है, वह है पॉल लेवी और शुरुआती दौर की रोज़ा लक्जे़मबर्ग, क्योंकि बाद में रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने अपनी इन आलोचनाओं को स्वयं ही रद्द कर दिया था, और जिसके बारे में आज भी कम्युनिस्ट आन्दोलन की कतारों में कम ही लोगों की जानकारी है। पॉल लेवी रोज़ा लक्जे़मबर्ग और कार्ल लीब्कनेख़्त की शहादत के बाद जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता थे। बाद में 1921 में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया था, जिसका कारण दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव था। पॉल लेवी ने बोल्शेविक पार्टी की आलोचना रोज़ा लक्जे़मबर्ग की रचनाओं के संकलन की अपनी प्रस्तावना में की और यह भी साबित करने की कोशिश की कि रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग अन्त तक बोल्शेविज़्म की कटु आलोचक थीं, और उसका एक विकल्प पेश करती थीं। हालाँकि बाद में एडोल्फ वाज़ार्व्स्की और क्लारा ज़ेटकिन द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों से पता चला कि जिन तीन प्रश्नों पर रोज़ा लक्जे़मबर्ग बोल्शेविक पार्टी की नीतियों की आलोचना करती थीं, उनमें से एक पर वह लेनिन से पूरी तरह सहमत हो चुकी थीं, दूसरे पर वह मान चुकी थीं कि बोल्शेविक पार्टी ने जो कदम उठाया उसके अलावा कोई और रास्ता नहीं था, और तीसरे सवाल पर उनकी असहमति बनी हुई थी। लेकिन रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग के शुरुआती दृष्टिकोण पर हम बाद में आते हैं, जिसका एक बेहद दयनीय संस्करण सुजीत दास के लेख में देखने को मिलता है; पहले हम पॉल लेवी की आलोचना को देखेंगे, क्योंकि इसका (बुरा) असर सुजीत दास पर और भी ज़्यादा नज़र आता है।

पॉल लेवी ने लिखा कि बोल्शेविक पार्टी सर्वहारा वर्ग के नाम पर शासन कर रही थी और लेनिन की सोच ही ऐसी थी। लेवी यह भी कहते हैं कि लेनिन ‘सरकार के रूप’ और ‘राज्यसत्ता के रूप’ में फर्क नहीं करते थे और इसीलिए एक पार्टी के शासन को वह सर्वहारा शासन से गड्ड-मड्ड कर बैठे हैं, जबकि सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य का रूप बहुपार्टी जनवाद भी हो सकता है! हम पाठकों को बता दें कि सुजीत दास के जिस लेख की हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं, उसमें तो नहीं लेकिन ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के समूह का ऐसा मानना है कि सोवियत संघ में भी अगर बहुपार्टी जनवाद होता तो बुर्जुआ प्रवृत्तियों को अपना स्वायत्त मंच मिल गया होता, और वे बोल्शेविक पार्टी में नहीं प्रवेश करतीं! इस तर्क पर हँसा ही जा सकता है। एक-पार्टी व्यवस्था के सवाल पर लेनिन के दृष्टिकोण की अभी हम चर्चा नहीं कर सकते हैं और हम इस पर अपनी राय आगे रखेंगे। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि बोल्शेविक पार्टी के भीतर बुर्जुआ प्रवृत्तियों के घुसने का कारण यह नहीं था कि उन्हें घुसपैठ के लिए कोई और पार्टी नहीं मिली! बोल्शेविक पार्टी के भीतर जो दो लाइनों का संघर्ष बुर्जुआ और सर्वहारा लाइन के बीच चल रहा था, वह समाज में जारी वर्ग संघर्ष का प्रतिबिम्बन था, न कि अनाथ, बेघर, बेसहारा बुर्जुआ प्रवृत्तियों के बोल्शेविक पार्टी में आसरा ढूँढने का कारण। इस विषय पर हम आगे कभी अवश्य लिखेंगे, लेकिन अभी पॉल लेवी पर लौटते हैं और देखते हैं कि किस तरह उन्हें भी सुजीत दास के तमाम “वामपन्थी”, दक्षिणपन्थी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विचारधारात्मक पुरखों में क्यों गिना जा सकता है! स्वयं देखें पॉल लेवी क्या लिखते हैं: “एक सच्ची माँ की तरह, हिरावल ने सोवियत तन्त्र को बनाने में एक कमीज़ तैयार की है, और अब वह धैर्यपूर्वक या अधैर्यपूर्वक उस समय का इन्तज़ार कर रही है जब बच्चा उस कमीज़ को पहनने लायक हो जायेगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक, माँ माँ ही रहती है, कमीज़ कमीज़ रहती है, हिरावल हिरावल रहता है, और सोवियत तन्त्र सोवियत तन्त्र ही रहता है।” (पॉल लेवी, 1922, ‘आइनलीटंग’, रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग की पुस्तक डाई रुसिश्चे रिवोल्यूशन आइन क्रिटिश वूर्डिगुंग में संकलित, बर्लिनः जेसेलशाफ्रट उण्ड एज़ीर्हुंग, पृ. 29) आगे लेवी कहते हैं कि पार्टी ने वर्ग की जगह शासन करना शुरू कर दिया। सर्वहारा वर्ग को उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण मिलता, तो वह फलता-फूलता और अपने भविष्य पर नियन्त्रण स्थापित करता (वही, पृ. 50-51)। बोल्शेविकों ने अपनी इस नीति के कारण अपने आपको मज़दूर वर्ग से काट लिया और केवल अपनी सांगठनिक शक्ति के बूते सत्ता में बने रहे (वही, पृ. 47) और अन्त में लेवी उसी नतीजे पर पहुँच जाते हैं जिस पर सुजीत दास पहुँचे हैं: “तो “सर्वहारा वर्ग की तानाशाही” का क्या बचा? कुछ भी नहीं। न तो कोई वस्तुपरक क्षण और न ही आत्मपरक।” (वही, पृ. 51) यहाँ पर भी हम देख सकते हैं कि पार्टी के वर्ग चरित्र का सवाल ग़ायब है। यही वह बुनियादी सवाल है जिससे सभी “वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी आलोचक बच निकलते हैं, क्योंकि बोल्शेविक पार्टी के वर्ग चरित्र की बात करना उनके लिए राजनीतिक हाराकीरी के समान होगा। सर्वहारा वर्ग अपने हिरावल के ज़रिये शासन करता है, या फिर वह किसी मैदान में इकट्ठा होकर पहले सर्वहारा अधिनायकत्व के कोरस का रिहर्सल करके बिना पार्टी के वह अधिनायकत्व लागू करता है, इस बहस पर बाद में आयेंगे और इस पर लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों को देखेंगे; क्योंकि सुजीत दास ने बिना पढ़े दावा कर दिया है कि बोल्शेविक पार्टी के राजनीतिक साहित्य में कभी भी इस बात का ज़िक्र नहीं किया गया था कि वर्ग के शासन को लागू करने का काम वर्ग का हिरावल करेगा! लेकिन अभी हम “वामपन्थी” आलोचनाओं की उन अन्य धाराओं की चर्चा पर वापस आते हैं, जिनसे एक-एक चम्मच मसाला उधार लेकर सुजीत दास ने अपना अराजकतावादी पकवान तैयार किया है!

रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने शुरुआत दौर में बोल्शेविक क्रान्ति की तीन प्रश्नों पर आलोचना की। पहला सवाल तो बोल्शेविकों द्वारा क्रान्ति के तुरन्त बाद जारी भूमि-सम्बन्धी आज्ञप्ति पर था। रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने भूमि सुधारों के पूँजीवादी चरित्र पर सवाल खड़ा करते हुए पूछा था कि कोई समाजवादी राज्य छोटे पैमाने का किसानी मालिकाना क्यों पैदा करेगा? लक्ज़ेमबर्ग की दलील थी कि इस कदम के साथ सोवियत सत्ता ने अपना एक भावी शत्रु पैदा कर लिया हैः छोटा और मँझोला किसान। लेनिन इस बात को समझते थे। लेकिन उन्होंने इसका जवाब देते हुए बताया कि आर्थिक रूप से किसानों के बीच वर्ग विभाजन और कृषि क्षेत्र में पूँजीवाद का विकास होने के बावजूद किसान आबादी राजनीतिक तौर पर अभी भी टटपुँजिया ज़मीन पर खड़ी है। इसके दो कारण हैं, एक तो रूस में जो भूमि सुधार क्रान्ति के पहले क्रमिक प्रक्रिया में हुए थे, वे प्रशियाई पथ से हुए थे, अधूरे थे और उन्होंने ज़मीन की भूख को ख़त्म नहीं किया था। और अभी यह किसान आबादी पूँजीवाद के तहत बहुत परिपक्व नहीं हुई थी, इसने पूँजीवादी बाज़ार व्यवस्था में बहुत लम्बा समय नहीं बिताया था कि भू-स्वामित्व को लेकर उसके विभ्रम ख़त्म हो जायें। ऐसे में, उनकी ज़मीन की भूख उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं को तय कर रही थी। दूसरा कारण यह था कि ग्रामीण क्षेत्रों में और विशेष तौर पर मँझोली किसान आबादी में बोल्शेविक पार्टी का विचारधारात्मक और राजनीतिक प्राधिकार नगण्य था। वहाँ पर नरोदवादियों के सच्चे वंशजों, यानी कि समाजवादी क्रान्तिकारियों का राजनीतिक वर्चस्व था, जिन्होंने किसानों को पूँजीवाद की असलयित के प्रति राजनीतिक तौर पर सचेत बनाने और उनकी चेतना का समाजवादी रूपान्तरण करने की बजाय, उनमें ज़मीन की भूख को और बढ़ाया। नतीजतन, पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के प्रशियाई पथ से विकास के बावजूद राजनीतिक आकांक्षा के तौर किसानों की आबादी में, जो कि रूस की कुल आबादी का तीन-चौथाई से भी ज़्यादा थी, राजनीतिक तौर पर पूँजीवादी भूमि सुधारों का एजेण्डा ही जड़ जमाये हुआ था। बोल्शेविकों को 1917 में जारी राजनीतिक संघर्ष में किसानों का समर्थन इसलिए मिला क्योंकि उन्होंने साबित कर दिया कि समाजवादी क्रान्तिकारी स्वयं अपने ही भूमि कार्यक्रम पर अमल नहीं कर सकते और उनका अप्रोच रूसी भूस्वामियों के वर्ग से समझौते का है, और वास्तव में, लेनिन ने समाजवादी क्रान्तिकारियों के पूरे भूमि कार्यक्रम को हूबहू अपनाकर किसानों द्वारा ज़मीनें कब्ज़ा करने के आन्दोलन का समर्थन किया। जुलाई 1917 से अक्टूबर 1917 के बीच किसानों की आबादी का राजनीतिक समर्थन बोल्शेविकों को हासिल हो गया। इस पूरी प्रक्रिया को लेनिन समझ रहे थे। बाद में रोज़ा लक्जे़मबर्ग ने अपनी इस आलोचना को वापस लेते हुए लिखा था कि महानतम क्रान्तियाँ भी इतिहास द्वारा प्रस्तुत सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकतीं। क्रान्तिकारी स्वयं क्रान्ति की परिस्थितियाँ नहीं चुनते। यह सच है कि किसान प्रश्न रूसी क्रान्ति का ‘चोट का बिन्दु’ (वूण्डेड पॉइण्ट) था, लेकिन इसका इलाज यूरोप में क्रान्ति के ज़रिये जल्दी हो सकता था। रोज़ा लक्जे़मबर्ग ने अपनी अवस्थिति को सही करते हुए जो बात कही वह काफ़ी सटीक थी।

रोज़ा लक्जे़मबर्ग की दूसरी आलोचना राष्ट्रीय प्रश्न पर बोल्शेविक पार्टी की आत्मनिर्णय के अधिकार की नीति की थी। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी अन्तरराष्ट्रीयतावादी होती है और राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार देना वास्तव में हर राष्ट्र की बुर्जुआज़ी को आत्मनिर्णय का अधिकार देना होगा। वास्तव में, इस नीति से सोवियत राज्य ने अपना दूसरा भावी शत्रु पैदा कर लिया है, जो कि अलग-अलग राष्ट्रों की बुर्जुआज़ी है। लेनिन ने स्पष्ट किया कि यह एक यान्त्रिक दृष्टिकोण है। वास्तव में, जिन देशों में सर्वहारा वर्ग राजनीतिक चेतना की कमी और किसी अन्य प्रभुत्वशाली राष्ट्र द्वारा राष्ट्रीय शोषण और उत्पीड़न का शिकार होने के कारण अपने देश के रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ के साथ खड़ा है, उस पर आप अन्तरराष्ट्रीयतावादी राजनीतिक सर्वहारा चेतना थोप नहीं सकते; यह तो सर्वहारा वर्ग समेत उस राष्ट्र की पूरी जनता के बीच में कम्युनिज़्म के प्रति अविश्वास को पैदा करेगा। जिन देशों में सर्वहारा वर्ग अपनी राजनीतिक स्वायत्तता को हासिल कर चुका है और कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे तले खड़ा है, वहाँ निश्चित तौर पर आत्मनिर्णय का यह अधिकार उस राष्ट्र की मेहनतकश आबादी को मिलेगा, उस राष्ट्र की बुर्जुआज़ी को नहीं। लेकिन रोज़ा लक्जे़मबर्ग अन्त तक इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हुई थीं।

लेकिन रोज़ा लक्जे़मबर्ग की जो तीसरी आलोचना थी, उसे सुजीत दास ने (हमेशा की तरह) ठीक तरह से पढ़े-समझे बिना उधार ले लिया है। रोज़ा लक्जे़मबर्ग ने जनवाद और अधिनायकत्व के प्रश्न को उठाते हुए बोल्शेविक पार्टी पर प्रतिस्थापनवाद की तरफ़ जाने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि बोल्शेविक पार्टी ने रूसी सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश आबादी के राजनीतिक जीवन और राजनीतिक संगठन को तहस-नहस कर दिया था। इस आलोचना को बाद में रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने स्वयं ही ठुकरा दिया था। लेकिन शुरुआती दौर में रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग की जो अवस्थिति थी, उसे सुजीत दास काफ़ी हद तक अपनाते हुए नज़र आते हैं। देखिये रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने क्या लिखा था, “केवल सरकार के समर्थकों के लिए, केवल एक पार्टी के सदस्यों के लिए आज़ादी – चाहें वे कितने ज़्यादा भी क्यों न हों – वास्तव में कोई आज़ादी नहीं है। आज़ादी हमेशा और विशेष तौर उस व्यक्ति के लिए आज़ादी है जो कि अलग सोचता है। ‘न्याय’ की किसी कट्टरतावादी अवधारणा के कारण नहीं, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि राजनीतिक आज़ादी में जो भी निर्देशात्मक, पूर्ण और शुद्ध करने वाला है वह इसकी मूल चारित्रिक विशेषताओं पर निर्भर करता है, और इसकी प्रभाविता उस समय ख़त्म हो जाती है जब ‘आज़ादी’ एक विशेषाधिकार बन जाती है।” (रोज़ा लक्जे़मबर्ग, ‘दि रशियन रिवोल्यूशन’, रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग स्पीक्स, न्यूयॉर्क, पाथफाइण्डर प्रेस, 1970, पृ. 389-90) यहाँ पर रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग यह नहीं समझ पायी हैं कि सर्वहारा राज्यसत्ता भी वास्तव में एक दमन का उपकरण ही है और समाजवादी संक्रमण के ऐतिहासिक काल में कभी-कभी व्यापक मेहनतकश जनता के कुछ हिस्से भी इसके प्रभाव क्षेत्र में आ सकते हैं। लेनिन ने क्रोंस्टाट विद्रोह के बारे में कहा था कि यह सच है कि इसमें मज़दूर, आम किसान आबादी और आम सैनिक शामिल थे। लेकिन ग़ैर-सर्वहारा चेतना के कारण वे सर्वहारा वर्ग की सत्ता पर ही हमला कर रहे थे। नतीजतन, सवर्हारा राज्यसत्ता उनका दमन ही कर सकती है। यह एक विभ्रम है कि सर्वहारा राज्यसत्ता समाजवादी संक्रमण के दौर में मेहनतकश जनता के उन हिस्सों पर कुछ दमनात्मक कदम नहीं उठा सकती जो कि सचेतन तौर पर सर्वहारा अवस्थिति से प्रस्थान कर प्रतिक्रान्तिकारी अवस्थिति पर जाकर खड़े होते हैं। इस विषय-वस्तु पर हम आगे लौटेंगे। अभी रोज़ा लक्जे़मबर्ग के एक अन्य उद्धरण को देखते हैं, जिससे लगता है कि सुजीत दास ने इसके शब्द बदलकर इसे पैराफ्रेज़ कर दिया हैः “अक्षय ऊर्जा और असीमित आदर्शवाद वाले कुछ दर्ज़न पार्टी नेता निर्देशन करते हैं और शासन करते हैं। उनके बीच, वास्तव में केवल एक दर्ज़न श्रेष्ठतम दिमाग वाले लोग नेतृत्व करते हैं और मज़दूर वर्ग के एक कुलीन हिस्से को वक्त-वक्त पर मीटिंगों में बुलाया जाता है, जहाँ उन्हें नेताओं के भाषणों पर तालियाँ बजानी होती हैं, और प्रस्तावित प्रस्तावों को एकमत से अनुमोदित करना होता है – मूल तौर पर, फिर यह एक गिरोह का मामला बन जाता है – एक तानाशाही, और निश्चित तौर पर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही नहीं, यद्यपि केवल मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों की तानाशाही, यानी बुर्जुआ अर्थों में एक तानाशाही, जैकोबिनों के शासन के अर्थ में एक तानाशाही।” (वही, पृ. 391)। हमें लगता है कि सुजीत दास इसे पढ़कर अपनी अवस्थिति का वैधीकरण महसूस कर रहे होंगे! लेकिन हमें अफ़सोस है कि हम उनकी इस राहत में ख़लल डालने के लिए मजबूर हैं! लेनिन ने रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग के पार्टी, वर्ग, जनवाद और तानाशाही के बारे में विचारों की आलोचना करते हुए कहा था कि इन विचारों पर उदार बुर्जुआ जनवाद के विचारों का ज़बर्दस्त प्रभाव है। इस आलोचना के बाद, जैसा कि अलेक्ज़ैण्डर वाज़ार्व्स्की और क्लारा जे़टकिन ने बताया, रोज़ा लक्जे़मबर्ग अपनी शहादत से पहले इस सवाल पर मोटे तौर पर लेनिन से सहमत हो चुकी थीं। रोज़ा लक्जे़मबर्ग के आरम्भिक तर्कों और सुजीत दास ने जो कुछ लिखा है, उसमें वैचारिक समानता स्पष्ट है। बस एक फर्क है  सुजीत दास ट्रेड यूनियनों और सोवियतों को पूर्ण स्वतन्त्रता न देने और उन्हें निष्प्रभावी बना दिये जाने को लेकर दुखी हैं, जबकि रोज़ा लक्जे़मबर्ग की मुख्य आलोचना संविधान सभा को भंग करने और सोवियतों के कार्य में बोल्शेविक पार्टी की भूमिका के विषय में थी, जैसे कि उनके चुनावों में। लेकिन वास्तव में तर्कों में कोई फर्क नहीं है। पार्टी की भूमिका के सवाल पर शुरुआती दौर की रोज़ा लक्जे़मबर्ग के विचारों और सुजीत दास के विचारों में समानता देखने के लिए किसी अपवादस्वरूप प्रतिभावान अन्तर्दृष्टि की आवश्यकता नहीं है।

रोज़ा लक्जे़मबर्ग के इन शुरुआती तर्कों की सबसे सटीक आलोचना हंगरी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिन्तक ग्यॉर्गी लूकाच ने रखी और उस पर यहाँ विचार करना सुजीत दास की स्वतःस्फूर्तता-अन्धभक्ति (स्पॉण्टेनाइटी फेटिशिज़्म) का पर्दाफाश करने और सही लेनिनवादी अवस्थिति को समझने के लिए काफ़ी उपयोगी होगा। 1923 में लूकाच ने ‘इतिहास और वर्ग चेतना’ नामक अपनी प्रसिद्ध रचना में रोज़ा लक्जे़मबर्ग की भूल के बारे में लिखते हुए कहा कि रोज़ा का रुख़ यहाँ क्रान्ति की स्वतःस्फूर्त तात्विक शक्तियों के, सबसे अधिक उस वर्ग के जिसे इतिहास ने क्रान्ति का नेतृत्व करने का जिम्मा सौंपा था, अतिरेकपूर्ण मूल्यांकन से निर्धारित हुआ था।” (ग्यॉर्गी लूकाच, 1971, हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शसनेस, मर्लिन प्रेस, लन्दन, पृ. 279)। लूकाच के अनुसार, “(लक्जे़मबर्ग) बोल्शेविकों द्वारा मज़दूरों के आन्दोलन में क्रान्ति की स्पिरिट की गारण्टी के तौर पर संगठन के प्रश्न को केन्द्रीय भूमिका प्रदान करने को अतिरंजित समझती हैं। वह इसके उलट विचार रखती हैं कि वास्तविक क्रान्तिकारी स्पिरिट सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता की तात्विक स्वतःस्फूर्तता में खोजी और पायी जा सकती है।” (वही, पृ. 284) लेकिन लूकाच अपना तर्क सबसे पूर्णता में यहाँ रखते हैं: किसी आन्दोलन की स्वतःस्फूर्तता…विशुद्ध आर्थिक नियमों द्वारा इसके निर्धारण की सिर्फ़ एक सचेतन, जन-मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है…ऐसे उभार उतने ही स्वतःस्फूर्त ढंग से ठण्डे भी पड़ जाते हैं, ज्यों ही उनके तात्कालिक लक्ष्य हासिल हो जाते हैं या हासिल होने योग्य महसूस होते हैं, वैसे ही उनका क्षरण हो जाता है।” (वही, पृ. 307) यह बात मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता पर जितनी क्रान्ति के पहले के दौर की लिए लागू होती है, उतनी ही क्रान्ति के बाद के दौर के लिए भी लागू होती है। फैक्टरी कमेटियों के आन्दोलन की असफलता को इसकी रोशनी में विश्लेषित किया जा सकता है। स्वतःस्फूर्त रूप से मज़दूर वर्ग या कम-से-कम उसका एक हिस्सा पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान भी तब तक आर्थिक तर्क (पिक्यूनरी लॉजिक) से ही चलेगा जब तक कि बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ नहीं दिया जाय और सर्वहारा वर्ग की विचारधारा (कम्युनिस्ट पार्टी जिसका मूर्त रूप होती है) के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर स्थापित न कर दिया जाय। चेतना की भूमिका इसी रूप में समाजवादी संक्रमण में प्रभावी होती है, उस रूप में नहीं जिसमें सुजीत दास बात करते हैं! वास्तव में, चेतना की प्रधानता की बात करते हुए सुजीत दास चेतना की भूमिका को कचरापेटी के हवाले कर देते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि इस चेतना का वाहक समूचा सर्वहारा वर्ग होता है। ये सर्वहारा वर्ग के बारे में गुलाबी रोमैण्टिक विचार हैं और इन विचारों के टूटने के लिए ऐसे विचार रखने वालों को मज़दूर वर्ग का जीवन देखने और उनके आन्दोलनों में शिरकत करने की ज़रूरत है। लेकिन अभी हम लूकाच की आलोचना पर वापस लौटते हैं।

आगे लूकाच कहते हैं, “(इसलिए) ज़रूरी है कि… स्वतःस्फूर्तता और सचेत नियन्त्रण के बीच अन्तरक्रिया हो…कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन में जो चीज़ अनूठी थी वह थी स्वतःस्फूर्त कार्रवाई और सचेत, सैद्धान्तिक दूरदर्शिता के बीच नया सम्बन्ध, यह बुर्जुआ वर्ग की सिर्फ़ ‘चिन्तनशील’, कार्यरूप में परकीकृत (रीइफाइड) चेतना की विशुद्ध पोस्ट फेस्टम संरचना पर स्थायी आक्रमण और धीरे-धीरे उसका लुप्त होना था।” (वही, पृ. 317) यहाँ पर लूकाच अपने श्रेष्ठतम लेनिनवादी रूप में हैं जब वह लिखते हैं कि यह अनिवार्य है कि “सर्वहारा वर्ग राज्यसत्ता को सभी परिस्थितियों में अपने हाथ में रखने के लिए अपने पास मौजूद सभी साधनों का इस्तेमाल करे। विजयी सर्वहारा वर्ग को आर्थिक या विचारधारात्मक तौर पर अपनी नीति को पहले से ही कठमुल्ला तरीके से सूत्रबद्ध करने की भूल नहीं करनी चाहिए। वर्गों का जिस रूप में पुनर्स्तरीकरण हुआ है और साथ ही अधिनायकत्व के लिए मज़दूरों के निश्चित समूहों को किस प्रकार अपने पक्ष में करना या कम-से-कम उन्हें अपनी तटस्थता बनाये रखने तक लाना सम्भव और अनिवार्य है, इस पर निर्भर रहते हुए सर्वहारा वर्ग को अपनी आर्थिक नीति (समाजीकरण, छूटें, आदि) में पूरी आज़ादी के साथ दाँव-पेच करने में सक्षम होना चाहिए। उसी प्रकार, उसे स्वतन्त्रता के जटिल मुद्दे पर अपने आपको कभी भी ज़बरन बाध्य किये जाने की आज्ञा नहीं देनी चाहिए…स्वतन्त्रता अपने आपमें (समाजीकरण से ज़्यादा) किसी मूल्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती। स्वतन्त्रता को हर स्थिति में सर्वहारा वर्ग के शासन की सेवा करनी चाहिए, न कि इसका उल्टा।” (वही, पृ. 292) और इस शासन का प्रधान उपकरण सर्वहारा वर्ग की पार्टी होती है, इसके पक्ष में हम अपने तर्क आगे देंगे और साथ ही लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों को भी आपके समक्ष रखेंगे। लेकिन पहले ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के सुजीत दास के कुछ और ज़्यादा करीबी विचारधारात्मक पुरखों के विचारों पर एक निगाह डाल लें! क्योंकि फिलहाल हम यह दिखलाना चाहते हैं कि सुजीत दास की वास्तविक करीबी मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद के साथ नहीं बनती, बल्कि एक ऐसी सोच से बनती है, जिसके ख़िलाफ़ मार्क्स, लेनिन और माओ ने लगातार संघर्ष किया था।

ज़्यादा करीबी पुरखों की यह धारा है डच “वामपन्थी” धारा और जर्मन कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद “वामपन्थी” भटकाव की धारा, जिसके प्रमुख प्रतिनिधि पान्नेकोएक (यह वही हॉर्नर हैं जिनकी लेनिन ने ‘“वामपन्थी” कम्युनिज़्मः एक बचकाना मर्ज़’ में आलोचना की थी), रूले और गॉर्टर थे। इसमें आगे कार्ल कोर्श भी शामिल हुए, जो कि फ्रैंकफर्ट स्कूल के पुरोधाओं के दार्शनिक प्रेरणा-स्रोतों में से एक थे।

इन “वामपन्थी” भटकावग्रस्त बुद्धिजीवियों के वैचारिक विकास की शुरुआत रूस की विशिष्ट परिस्थितियों के कारण वहाँ समाजवादी सत्ता के विकास होने लेकिन समाजवादी व्यवस्था के विकास की क्षीण सम्भावनाओं (गॉर्टर व पान्नेकोएक) या समाजवादी सत्ता स्थापित ही न हो सकने (कार्ल कोर्श व ओटो रूले) के विचार से हुई, लेकिन इन सबका अन्त काउंसिल कम्युनिज़्म के विचार पर हुआ। पान्नेकोएक और गॉर्टर का शुरू में मानना था कि रूस में जो पिछड़ा और अर्द्धविकसित पूँजीवाद था उसके कारण वहाँ बुर्जुआ विचारधारा का प्रभाव सर्वहारा वर्ग पर कम था और उसे कम्युनिज़्म के पक्ष में जीतना आसान था। लेकिन यही पिछड़ापन एक बाधा भी पैदा करता था। चूँकि, पान्नेकोएक और गॉर्टर के अनुसार, समाजवादी व्यवस्था के विकास के लिए एक उन्नत पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों वाली सामाजिक संरचना की ज़रूरत होती है, इसलिए एक पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले देश में समाजवादी व्यवस्था का उत्तरोत्तर विकास सम्भव नहीं है। ऐसे में, पार्टी हिरावलपन्थी हो जायेगी और वर्ग पर अपनी इच्छा को थोपने लगेगी। यही कारण था कि रूसी पार्टी बेहद केन्द्रीकृत थी और यही कारण था कि उसने वर्ग को शासन से अपदस्थ कर सत्ता अपने हाथों मे केन्द्रित कर ली थी। अन्त में गॉर्टर और पान्नेकोएक इस राय पर पहुँच गये कि मज़दूर सत्ता को लागू करने का उपकरण सर्वहारा वर्ग की पार्टी नहीं बल्कि मज़दूर परिषदें होंगी। इसमें अचरज की कोई बात नहीं है कि सुजीत दास भी इसी नतीजे पर पहुँच गये हैं। और इसी नतीजे पर पहुँचे थे जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के “वामपन्थी” भटकाव से ग्रस्त धड़े के सदस्य ओटो रूले और कार्ल कोर्श, हालाँकि वे दोनों अलग-अलग रास्तों से इस नतीजे पर पहुँचे थे। ओटो रूले ने इस धारा के भटकाव को सबसे सक्षम अभिव्यक्ति दी थी, और इस उद्धरण में आपको ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के “तर्कों” की अनुगूँज सुनायी दे सकती हैः “केन्द्रीयतावाद बुर्जुआ-पूँजीवादी युग का संगठनात्मक सिद्धान्त है। यह एक बुर्जुआ राज्य और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण करता है। सर्वहारा राज्य और समाजवादी अर्थव्यवस्था का नहीं। इनके लिए तो काउंसिल व्यवस्था की ज़रूरत होती है।” (ओटो रूले, 1920, ‘बेरिख़्ट उबेर मोस्काऊ’, डाई एक्टियन, एक्स, 39.40) एक अन्य जगह पर एक बार फिर आप उन्हीं विचारों को ओटो रूले में देख सकते हैं, जो कि सुजीत दास ज़्यादा गड्ड-मड्ड तरीके से अभिव्यक्त करते हैं: बिना आर्थिक आधार (यानी ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण’ – अनु.) के राजनीतिक समाजवाद। एक सैद्धान्तिक निर्मिति। एक नौकरशाहाना शासन। कागज़ी आज्ञप्तियों का एक संग्रह। एक उद्वेलनात्मक जुमला। एक भयंकर निराशा।” (ओटो रूले, 1920, ‘मोस्काओ उण्ड वॉर’, डाई एक्टियन, एक्स, 37-38)। 1923-24 तक डच “वामपन्थी” धारा और ओटो रूले एक ही अवस्थिति पर आ चुके थे। गॉर्टर और पान्नेकोएक की मुख्य रचनाएँ जिनमें उन्होंने अपनी अवस्थिति प्रतिपादित की थीं, वे हैं गॉर्टर की ‘दि वर्ल्ड रिवोल्यूशन’ (1920) और पान्नेकोएक की ‘दि वर्ल्ड रिवोल्यूशन एण्ड कम्युनिस्ट टैक्टिक्स’ (1920)। कार्ल कोर्श भी थोड़ी देर से 1927 में इसी नतीजे पर पहुँच गये थे। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। सभी “वामपन्थी” कम्युनिस्ट कुछ बुनियादी धारणाएँ शेयर करते हैं और इसलिए अक्सर देर-सबेर वे मिलते-जुलते नतीजों पर पहुँचते हैं, और वे धारणाएँ अर्थवाद (राजनीति पर आर्थिक कारकों को प्रधानता देना), मज़दूरवाद (सर्वहारा चेतना को हिरावल के अभिकरण द्वारा सचेतन तौर पर निःसृत की जाने वाली चेतना की बजाय मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्त चेतना समझना) और कार्यकारी निर्णयों (एक्ज़ीक्यूटिव डिसीज़ंस) द्वारा अलगाव को समाप्त करने की सोच रखना है (मिसाल के तौर पर, नौकरशाही ख़त्म करने के लिए सोवियत राज्य और पार्टी को फलाँ-फलाँ कदम उठा देने चाहिए थे, वगैरह)। बस सुजीत दास के लिए एक मज़ाकिया अफ़सोस की बात यह है कि वे इस नतीजे पर 90 वर्ष देर से पहुँचे हैं! और इससे भी मज़ेदार बात यह है कि उन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें कुछ ज़्यादा देर हो गयी है! और सबसे मज़ेदार बात यह है कि वह तर्जनी उठाकर बार-बार देश और दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन को अपनी “नयी-नवेली” वैचारिक खोजों के बारे में बता रहे हैं।

लेकिन पाठक देख सकते हैं कि इनमें कुछ भी नया नहीं है। सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की समाजवादी संक्रमण और उसमें पार्टी की भूमिका के बारे में पूरी सोच वास्तव में पिछली एक सदी या उससे कुछ ज़्यादा समय में अलग-अलग समय पर पैदा हुई अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी, “वामपन्थी”, संशोधनवादी प्रवृत्तियों की अवस्थितियों का बहुत ही दयनीय और दरिद्र मिश्रण है। इसके कारण हम पहले भी बता चुके हैं। वह यह है कि पहले की प्रवृत्तियों के प्रतिनिधियों के विचारों से कोई लेनिनवादी निश्चित तौर पर असहमति रखेगा, लेकिन यह भी सच है कि पुराने अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और विसर्जनवादी कम से कम पढ़कर लिखते थे! लेकिन सुजीत दास ने तथ्यों और ऐतिहासिक विवरणों के प्रति जो अवहेलना का रुख़ अपनाया है, उसके कारण उनका लेख सोवियत समाजवाद के आलोचनात्मक विश्लेषण की श्रेणी में नहीं आता, बल्कि उसके बारे में कुत्साप्रचार की श्रेणी में आता है। और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सारा कीचड़ उछालने के बाद अन्त में श्री दास स्तालिन और सोवियत समाजवाद के गौरव के बारे में कुछ वाक्य अलग से चेंप देते हैं। अब हम आपको दिखाना चाहेंगे कि सुजीत दास ने जो खिचड़ी तैयार की है, उसमें न सिर्फ़ उन्होंने उपरोक्त प्रवृत्तियों से उधार लिया है, बल्कि ट्रॉट्स्कीपन्थ की सबसे निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी और पतित धाराओं और यहाँ तक कि कुछ कुख्यात मार्क्सवाद-विरोधी और प्रतिक्रान्तिकारी प्रवृत्तियों के विचारों की भी छौंक लगायी है। आइये देखें यह उपलब्धि सुजीत दास ने किस तरह से हासिल की है।

इन लोगों में से जो व्यक्ति सुजीत दास के सबसे करीब दिखलायी पड़ता है वह है गावरिल मियास्निकोव जो कि एक मज़दूर था और शुरुआती दौर में ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ जैसे “वामपन्थी” भटकावों से सहमति रखता था। 1928 में मियास्निकोव सोवियत संघ से भागकर फ्रांस चला गया था। उसकी 1931 में एक पुस्तिका ‘दि करेण्ट डिसेप्शन’ प्रकाशित हुई, जिसे डच “वामपन्थियों” ने अपनी पत्रिका में छापा भी था। मियास्निकोव हूबहू वही बात करता है, जो कि सुजीत दास कर रहे हैं। मियास्निकोव कहता है कि सोवियत संघ में प्रतिक्रान्ति की प्रक्रिया तभी शुरू हो गयी थी जब मज़दूर फैक्टरी काउंसिलों के हाथ से उत्पादन के साधनों का प्रत्यक्ष नियन्त्रण ले लिया गया था। लेकिन सुजीत दास की तरह मियास्निकोव इस प्रक्रिया की तिथि ग़लत नहीं बताता, और इसे स्तालिन के दौर की परिघटना नहीं मानता है, बल्कि उसे लेनिन के दौर से ही जारी प्रक्रिया मानता है। मियास्निकोव का मानना है कि “उद्योग अश्मीभूत हो गया था, मज़दूर विसंगठित हो गये थे और इसलिए मज़दूर परिषदें नष्ट हो गयी थीं। सवर्हारा अब शासक वर्ग नहीं रह गया था, जिसके पास राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व हो…।” (मियास्निकोव, 1931, ‘डे ग्राण्डस्लैगेन वॉन डेन रुसिस्चेन सोवजेट-स्टाट’, डे न्यूवे वेग, संख्या.7, पेरिस) देखिये कि मियास्निकोव, सुजीत दास की ही तरह ठीक उन्हीं चीज़ों की आलोचना कर रहे हैं, जिन्हें लेनिन और स्तालिन दोनों ने ही समाजवादी संक्रमण के दौर की ज़रूरत बताया था, यानी कि श्रम अनुशासन और हिरावल व ट्रेड यूनियन द्वारा मज़दूर वर्ग पर इस व्यवस्था को लागू करने और उसमें उन्हें शिक्षित-प्रशिक्षित करने की ज़रूरत। मियास्निकोव कहता है, “सोवियत संघ की पूरी राजकीय अर्थव्यवस्था ऐसी है जैसे कि एक विशाल कारखाना, जिसमें अलग-अलग कार्यस्थलों के बीच एक व्यवस्थित सहकार और श्रम विभाजन है।” (वही) यह तथ्य कि मियास्निकोव धातु उद्योग में काम करने वाला एक मज़दूर था, बताता है कि मज़दूर वर्ग की चेतना हर-हमेशा और स्वतःस्फूर्त रूप से सर्वहारा नहीं होती। वह अराजकतावादी भी हो सकती है।

सुजीत दास की बात जिस एक अन्य आलोचक से काफ़ी मिलती है, वह हैं हेल्मुट वैग्नर जो कि एक “वामपन्थी” भटकाव का शिकार एक सामाजिक जनवादी पत्रकार थे। 1934 में उन्होंने ‘थीसीज़ ऑन बोल्शेविज़्म’ प्रकाशित की। उनकी यह थीसिस वास्तव में ‘रोटे कैम्फर’ नामक एक काउंसिल कम्युनिस्ट ग्रुप से हुई उनकी बातचीत से प्रभावित थी। सुजीत दास की तरह वैग्नर भी सोवियत राज्यसत्ता को इतिहास की पहले की राज्यसत्ताओं से गुणात्मक तौर पर अलग नहीं मानते हैं। उनका भी मानना था कि सोवियत राज्यसत्ता भी एक समूह द्वारा वर्ग के नाम पर हथिया ली गयी सत्ता थी, और इस मामले में वह ज़ारशाही की सत्ता या आरज़ी सरकार की सत्ता से भिन्न नहीं थी। वैग्नर कहते हैं कि ज़ार का राज्य सामन्ती और पूँजीपति वर्ग के बीच सन्तुलन कायम रखने की प्रक्रिया में अपने वर्ग मूल से स्वायत्त हो गया था, और यह इसीलिए एक निरंकुश राज्य था (हालाँकि निरंकुश राज्यसत्ता का यह सिद्धान्त की उसका वर्ग मूल या वर्ग चरित्र नहीं होता है, प्रभावी तरीके से एंगेल्स द्वारा और आधुनिक युग में पेरी एण्डरसन द्वारा ख़ारिज किया जा चुका है); इसी तरीके से वैग्नर सोवियत राज्यसत्ता को किसान वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच सन्तुलन कायम रखने वाली राज्यसत्ता मानते हैं, और मानते हैं कि इसीलिए वह मज़दूर वर्ग से स्वायत्त हो गयी और एक निरंकुश सत्ता बन गयी। यह निरंकुश राज्यसत्ता मज़दूर वर्ग के नाम पर वास्तव में पूँजीवाद को संगठित कर रही थी। यानी कि पूँजीपति वर्ग के बिना ही पूँजीवाद। सुजीत दास के नतीजे भी कम तीखे शब्दों में कुछ ऐसे ही हैं। यहाँ हम वैग्नर का एक छोटा-सा उद्धरण देकर आगे बढ़ेंगे, “रूसी राज्यसत्ता निश्चित रूप से किसी वर्ग के लोगों को प्रदर्शित नहीं करती, जो कि व्यक्तिगत तौर पर या प्रत्यक्ष रूप से अधिशेष के उत्पादन के लाभार्थी हों, बल्कि यह राज्यसत्ता अपने नौकरशाहाना, परजीवी उपकरण द्वारा इस अधिशेष को अपनी जेब में डालती है।” (हेल्मुट वैग्नर, 1934, ‘थीसिस ऑन बोल्शेविज़्म’, इण्टरनेशनल काउंसिल करेस्पॉण्डेंस, 1, 3 (दिसम्बर 1934): 1-18)। सुजीत दास सोवियत राज्यसत्ता द्वारा फसल वसूली के सवाल पर यही अवस्थिति अपनाते हैं।

कुछ ऐसी ही अवस्थिति अपनाते हैं ऑस्ट्रेलायाई ट्रॉट्स्कीपन्थी रायन वॉरेल जिन्होंने 1939 में एक अमेरिकी पत्रिका ‘मॉडर्न क्वार्टरली’ में एक लेख लिखा थाः ‘सोवियत संघः सर्वहारा राज्य या पूँजीवादी राज्य’। इसमें उन्होंने लिखा कि मार्क्स के अनुसार उत्पादन के साधनों पर एक अल्पसंख्या का नियन्त्रण पूँजीवादी उत्पादन की एक ख़ासियत है। सुजीत दास की ही तरह वॉरेल ने इस बात का अर्थ समझे बग़ैर यह नतीजा निकाल लिया था कि चूँकि सोवियत संघ में प्रत्यक्ष उत्पादक का उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं है, इसलिए वह ज़्यादा से ज़्यादा राजकीय पूँजीवाद है। जो बात वॉरेल भी नहीं समझ पाये थे और सुजीत दास से तो हम ऐसी उम्मीद करने की नादानी बिल्कुल नहीं करते, वह यह थी कि मार्क्स यहाँ जिस अल्पसंख्या की बात कर रहे हैं, वह कुछ लोगों का समूह नहीं बल्कि एक वर्ग है पूँजीपति वर्ग। समूचा पूँजीपति वर्ग भी उत्पादन के साधनों का प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं करता है। उसका अच्छा-ख़ासा हिस्सा अधिशेष विनियोजन में हिस्सेदार होता है, और अक्सर वह उत्पादन, उत्पादन के साधन आदि से बहुत दूर होता है और उसके बारे में अक्सर कुछ भी नहीं जानता। पूँजीपति वर्ग को जो चीज़ पूँजीवाद के तहत शासक वर्ग बनाती है वह उस पूरे के पूरे वर्ग का उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं, बल्कि सबसे पहले अधिशेष विनियोजन, यानी कि अधिशेष हस्तगत करने का उसका अधिकार होता है। यही बात मार्क्स ने भी अलगाव का ज़िक्र करते हुए कही थी, जिसे हम ऊपर उद्धृत कर चुके हैं। वॉरेल, एक बार फिर बिल्कुल सुजीत दास की तरह, यह हवाला देते हैं कि अधिकांश देशों में रेलवे राजकीय सम्पत्ति है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं वहाँ समाजवाद है। निश्चित तौर पर! लेकिन यहाँ वॉरेल और सुजीत दास, दोनों ही यह बात भूल गये कि राजकीय सम्पत्ति का चरित्र इससे निर्धारित होता है कि राज्य पर कौन काबिज़ है। यह तो एंगेल्स ने बहुत पहले ही बता दिया था कि पूँजीवाद के तहत राजकीय सम्पत्ति पूँजीपति वर्ग की ‘सामूहिक पूँजी’ से ज़्यादा कुछ नहीं होती। इस मामले में वॉरेल और सुजीत दास कोई नया आविष्कार नहीं कर रहे हैं। मूल प्रश्न राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र, यानी राज्यसत्ता का प्रमुख उपकरण कौन-सी पार्टी है, इससे तय होता है। क्योंकि कोई भी वर्ग अपने सभी सदस्यों के साथ कोरस में अभ्यास करके राज्यसत्ता पर अपना वर्चस्व कायम नहीं करता है, बल्कि अपने हिरावल के ज़रिये राज्यसत्ता पर अपना नियन्त्रण स्थापित करता है। न तो बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही इस नियम का अपवाद है और न ही सर्वहारा वर्ग की तानाशाही। वॉरेल एक और बात करते हैं, जो सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की याद दिला देती है। उनका मानना है कि सोवियत नौकरशाही पूँजीपति वर्ग नहीं है, लेकिन यह उसकी तरह से बर्ताव कर रही है। अगर यह नौकरशाही मज़दूर वर्ग के मातहत होती तो यह समाजवादी होती, लेकिन चूँकि ऐसा नहीं था इसलिए सोवियत राज्यसत्ता का चरित्र बुर्जुआ हो जाता है।

एक अन्य धारा जिससे सुजीत बोस और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की करीबी बनती है वह है फ्रैंकफर्ट स्कूल की धारा। फ्रैंकफर्ट स्कूल के अर्थशास्त्री फ्रेडरिक पोलक ने सोवियत संघ की आलोचना ‘स्टेट कैपिटलिज़्मः इट्स पॉसिबिलिटीज़ एण्ड लिमिटेशंस’ नामक लेख में की थी, जो कि 1941 में प्रकाशित हुआ था। पोलक अपनी सोच में पूरी तरह से मैक्स होर्कहाइमर (फ्रैंकफर्ट स्कूल के संस्थापकों में से एक) का अनुसरण करते है। और फ्रैंकफर्ट स्कूल की पूरी सोच इस उद्धरण से साफ़ हो जाती हैः “निजी पूँजीपति समाप्त हो चुके हैं। इसके बाद, लाभांश सरकारी बॉण्ड के रूप में संग्रहित होते हैं। शासन के क्रान्तिकारी अतीत के कारण अधिकारियों और विभागों के बीच निम्न स्तर के संघर्ष नौकरशाहाना स्टाफ के सामाजिक मूल और सम्बन्धों के कारण जटिल नहीं बनते, जैसा कि फासीवाद के साथ होता है। इस चीज़ ने फासीवादी राज्यों के भीतर काफ़ी घर्षण पैदा किया है। समेकित राज्यवाद कदम पीछे हटाना नहीं बल्कि सत्ता का विकास है। यह बिना नस्लवाद के भी मौजूद रह सकता है। लेकिन, उत्पादक जिनका कानूनी तौर पर पूँजी पर मालिकाना है, वह ‘उजरती मज़दूर – सर्वहारा’ ही बना रहता है, चाहें उसके लिए कितना कुछ भी क्यों न किया जाता हो। कारखाने के रेजिमेण्टेशन को पूरे समाज तक विस्तारित कर दिया जाता है।” (मैक्स होर्कहाइमर, 1942, ‘दि अथॉरिटैरियन स्टेट’, दि एसेंशियल फ्रैंकफर्ट स्कूल रीडर, न्यूयॉर्क, उरिज़ेन बुक्स, 1978, पृ. 102)। यहाँ भी सुजीत दास की इस स्कूल के विचारों से करीबी साफ़ है और उसकी व्याख्या करने की कोई ज़रूरत नहीं है।

अब हम उस आखि़री प्रभाव स्रोत पर आते हैं जिनके विचारों की छाया सुजीत दास पर स्पष्ट तौर पर नज़र आती है। इस धारा को अक्सर ब्रूनो रिज़ी और सिमोन वील के चिन्तन का नतीजा माना जाता है, लेकिन वास्तव में इसके मूल भूतपूर्व ऑस्ट्रियाई-जर्मन कम्युनिस्ट लूसियेन लॉरेट में ही खोजे जा सकते हैं। लूसियेन लॉरेट ने 1927 में मार्क्सवाद का परित्याग कर दिया था। 1931 में उनकी एक पुस्तक आयी थी जिसका नाम था ‘दि सोवियत इकॉनमी’। लॉरेट का मानना था कि सोवियत संघ न तो पूँजीवादी है और न समाजवादी (सुजीत दास के ‘मिश्रित’ संरचना वाली बात का यहाँ पर स्मरण हो आना स्वाभाविक है)। उनका मानना था कि यह एक नयी सामाजिक-आर्थिक संरचना है और इसमें एक नया नौकरशाह शासक वर्ग पैदा हुआ है। लॉरेट कहते हैं कि सोवियत संघ में कानूनी तौर पर उत्पादन के साधनों का सामूहिक मालिकाना था, लेकिन वास्तव में इन साधनों का निर्देशन एक परजीवी नौकरशाह वर्ग या जाति (कास्ट) करती थी। मज़दूर वर्ग अधिशेष का उत्पादन करता था और यह नौकरशाही मज़दूर वर्ग के ही नाम पर उसका उपभोग और संचय करती थी। और यह संचय वास्तव में उद्योग के लिए पूँजी का संचित भण्डार था। आर्थिक नियोजन को सोवियत संघ और नात्सी जर्मनी, दोनों ने ही इस्तेमाल किया। एक जगह इस नियोजन के शीर्ष पर नौकरशाह-तकनोशाह (ब्यूरो-टेक्नोक्रेसी) वर्ग था (सोवियत संघ) जबकि दूसरी जगह इसके शीर्ष पर एक अल्पसंख्यक-तकनोशाह (प्लूटो-टेक्नोक्रेसी) वर्ग था (यानी जर्मनी और एक हद तक इटली)। पहले मामले में एक समाजवादी ‘करेक्टिव’ की ज़रूरत थी, यानी कि राज्यसत्ता और अर्थव्यवस्था पर प्रत्यक्ष उत्पादकों के प्रत्यक्ष नियन्त्रण को स्थापित करने की, और दूसरे मामले में एक पूँजीवादी ‘करेक्टिव’ की ज़रूरत थी, यानी कि मुक्त बाज़ार अर्थव्यवस्था की। और चूँकि दोनों मामलों में यह करेक्टिव अनुपस्थित था, इसलिए दोनों जगह नौकरशाही का शासन था। लॉरेट बिल्कुल सुजीत दास की ही तरह यह बताने की कोई ज़रूरत नहीं समझते कि इस नौकरशाही का क्या वर्ग चरित्र था। लॉरेट इस चीज़ का वैधीकरण अपनी इस मान्यता के आधार पर दे सकते हैं, कि नौकरशाही को ही वह नया शासक वर्ग मानते हैं, हालाँकि मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के अनुसार यह मूर्खतापूर्ण बात है, क्योंकि वर्ग होने की पूर्वशर्तों को यह समूह, यानी कि नौकरशाही, पूरा नहीं करती। लेकिन सुजीत दास इसके लिए कोई वैधीकरण नहीं दे सकते क्योंकि वह कम-से-कम इस लेख में ऐसा नहीं लिखते कि नौकरशाही एक वर्ग है।

सिमोन वील भी 1933 में आई अपनी रचना ‘आर वी गोइंग टुवर्ड्स ए प्रोलेतारियन रिवोल्यूशन’ में यही विचार रखती हैं कि अगर पूँजीवाद समाप्त भी हो जाये तो मानसिक मज़दूरों और शारीरिक मज़दूरों के बीच का अन्तर अनिवार्य रूप से नौकरशाही को जन्म देगा जो कि एक नया शासक वर्ग बन जायेगी। यहाँ हम सिमोन वील की व्यापक आलोचना में नहीं जायेंगे, क्योंकि वह जो कह रही हैं, उसके अवधारणात्मक मूल लूसियन लॉरेट में पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं। इसलिए हम लॉरेट के एक उद्धरण के साथ यह बात ख़त्म करेंगेः “(नौकरशाही) सर्वहारा जनसमुदायों के साथ अपने सम्बन्धों को लगातार खोती गयी। इसने अपने आपको सम्पत्तिहीन बना दी गयी बुर्जुआज़ी की सम्पत्ति के निरीक्षक, और उन मज़दूरों के शिक्षक के रूप में खड़ा कर दिया जो अभी भी अपने प्रबन्धन में पर्याप्त रूप से सक्षम नहीं थे। तानाशाही को वर्ग पर पार्टी के शासन के बोल्शेविक सिद्धान्त के ज़रिये परिवर्तित कर दिया गया और एक ऐतिहासिक रूप से अपवादस्वरूप परिस्थिति में आकस्मिक सर्वशक्ति से लैस होकर नौकरशाही ने अपने आपको चिरकाल के लिए एक शिक्षक के रूप में खड़ा कर लिया।।” (लूसियन लॉरेट, 1931, ‘ला इकोनोमी सोवियेतीक, सा डाईनेमीक, सोन मेकानिस्मे, पेरिसः लाइब्रेरी वालोआ, पृ. 162)।

इन सभी सिद्धान्तों का बहुत करीबी से विश्लेषण करने का यहाँ हमारे पास स्थान नहीं है। वास्तव में इसकी ज़रूरत भी नहीं है। यहाँ हम इन संशोधनवादी, नवमार्क्सवादी, मार्क्सवाद-विरोधी, “वामपन्थी” कम्युनिस्ट, अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और ट्रॉट्स्कीपन्थी व्याख्याओं की चर्चा सिर्फ़ दो कारणों से कर रहे थे। पहला कारण यह कि आप इन सभी व्याख्याओं में बिल्कुल साफ़ तौर पर एक साझा थीम देख सकते हैं। वह साझा थीम है परिघटना (फेनॉमेना) के स्तर पर विकासों और परिवर्तनों की सूची तैयार करने और उनके सारतत्व (एसेंस) का विश्लेषण नहीं करने की। लेनिन और स्तालिन ने बार-बार बताया था कि सोवियत संघ का समाजवादी राज्य कोई अमोघ-अचूक समाजवादी राज्य नहीं है और उसमें नौकरशाहाना विकृतियाँ और बुर्जुआ विरूपताएँ मौजूद हैं और सच तो यह है कि कोई समाजवादी राज्यसत्ता अचूक और अमोघ हो ही नहीं सकती। जो यह बुनियादी बात नहीं समझता वह यह भूल जाता है कि समूचा समाजवादी संक्रमण बेहद तीव्र और जटिल वर्ग संघर्ष की एक प्रक्रिया है; अभी समाज में पूँजीवाद के तत्व मौजूद हैं और बुर्जुआ वर्ग परास्त हुआ है, किन्तु ख़त्म नहीं। ऐसे में, समाज में उत्पादन, विचारधारा, संस्कृति, शिक्षा, राजनीति और मनोविज्ञान के धरातलों पर जो वर्ग संघर्ष चलेगा उसका प्रतिबिम्बन कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर दो लाइनों के संघर्ष के रूप में, नौकरशाही के ख़िलाफ़ और अन्य विजातीय गैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष के रूप में दिखलायी पड़ेगा और इस वर्ग संघर्ष का प्रतिबिम्बन राज्यसत्ता में मौजूद संघर्ष के रूप में भी दिखलायी पड़ेगा। लेकिन उपरोक्त सभी धाराएँ एक बुनियादी मार्क्सवादी सबक को भूलने के चलते सोवियत समाजवाद के अध्ययन में मतिभ्रम और दृष्टिभ्रम का शिकार हो गयी हैं यानी, वर्ग विश्लेषण। किसी सामाजिक संरचना का वर्ग विश्लेषण, किसी राज्यसत्ता का वर्ग विश्लेषण, पार्टी का वर्ग विश्लेषण और किसी भी राजनीतिक निकाय का वर्ग विश्लेषण। अगर इन बुनियादी चीज़ों को भूल जायें तो यह मानना होगा कि दुनिया में कभी कहीं समाजवादी व्यवस्था (संक्रमण के तौर पर भी) मौजूद नहीं थी। इस नतीजे तक सुजीत दास नहीं पहुँचते, लेकिन उन्हीं के शब्दों का इस्तेमाल करें, यह सुजीत दास के विश्लेषण में “सचेतनता” की भूमिका है (पता नहीं अधिकांश जगहों पर सुजीत दास पार्टी, हिरावल, वर्ग, और चेतना जैसे शब्दों को उद्धरण चिन्हों के बीच क्यों रखते हैं, क्योंकि वह ट्रेड यूनियन या सोवियत को तो वह कभी भी उद्धरण चिन्ह में नहीं रखते; कहीं ऐसा वह उसी तरह से तो नहीं करते जैसे लेनिन ने वामपन्थी शब्द को “वामपन्थी” कम्युनिज़्म की आलोचना करते हुए उद्धरण चिन्ह में रखते हुए किया था? अगर यह काम “अचेतनता” या “अवचेतनता” के कारण सुजीत दास कर बैठे हैं, तो भी उनको सोचना चाहिए!)! जहाँ पर भी सुजीत दास “नैसर्गिक स्वतःस्फूर्तता” (जिसके कि सुजीत दास दीवाने हैं!) से चलते हैं, वहाँ उनके सारे विश्लेषण में क्या दिखलायी देता है? यहीं से हम अपने दूसरे कारण पर आते हैं।

हमने उपरोक्त तमाम धाराओं का यहाँ ज़िक्र और संक्षिप्त विश्लेषण इसलिए किया है, क्योंकि 1917 से लेकर 1953 तक सोवियत समाजवाद के जो भी आलोचक इन धाराओं से आये थे, उनकी आलोचनाओं का पूरा प्रभाव सुजीत दास के विश्लेषण में नज़र आता है। कहा जा सकता है कि सुजीत दास ने अपनी “नैसर्गिक वर्ग स्वतःस्फूर्तता” से इन तमाम अधकचरी गैरमार्क्सवादी आलोचनाओं का एक ऐसा मिश्रण तैयार किया है, जो इन सभी आलोचनाओं से ज़्यादा अधकचरा और दरिद्र साबित हुआ है। इन सभी धाराओं से सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की गहरी मित्रता को दिखलाने के बाद अब हम लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों से इन गै़र-सर्वहारा विजातीय प्रवृत्तियों की एक तुलना कर सकते हैं और अपना विश्लेषण पाठकों के सम्मुख रख सकते हैं।

अब पहले हम सुजीत दास की पूरी अवस्थिति पर अपना विश्लेषण रखेंगे, और उसके बाद पार्टी और वर्ग के सम्बन्धों के बारे में लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों को देखेंगे। हम अपना विश्लेषण टुकड़ों में उपरोक्त धाराओं के आलोचनात्मक विवेचन में रखते हुए आये हैं, लेकिन हम यहाँ एक बार उसके मूल बिन्दुओं को रेखांकित करना चाहेंगे।

हमने ऊपर बोल्शेविक पार्टी में 1919 से लेकर 1921 तक ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर हुए विवाद पर लम्बी चर्चा की थी। हमने यह भी दिखलाने का प्रयास किया था कि विभिन्न धड़ों के बीच जो बहस चली उसका आलोचनात्मक समाहार करते हुए लेनिन ने कहा था कि यह बहस वास्तव में सिर्फ़ ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर नहीं थी बल्कि सर्वहारा अधिनायकत्व की समूची मशीनरी, उसमें पार्टी की प्राथमिक और प्रधान भूमिका, ट्रेड यूनियनों और सोवियतों की भूमिका, और पार्टी के साथ राज्य, सोवियत और ट्रेड यूनियनों के रिश्ते, और साथ ही पार्टी और वर्ग के रिश्तों पर केन्द्रित थी। लेनिन ने यह भी दिखलाया था कि ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर ट्रॉट्स्की-बुखारिन धड़े और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ दोनों की ही अवस्थिति की समस्या यह थी कि वे अर्थवाद के अलग-अलग संस्करण थे। एक अर्थवाद का दक्षिणपन्थी भटकाव था, तो दूसरा उसका “वामपन्थी” भटकाव। और इसी के बरक्स लेनिन ने सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी संरचना के बाबत अपनी वैकल्पिक समझदारी पेश की। हम इसी समझदारी से अपनी बात की शुरुआत करेंगे और इस चर्चा से ही कुछ बुनियादी नतीजे निकालेंगे।

हम जानते हैं कि लेनिन ने ट्रॉट्स्की के इस प्रस्ताव की सख़्त आलोचना 1919-20 के दौरान की थी कि ट्रेड यूनियनों को पूरी तरह राज्य का उपकरण बना दिया जाना चाहिए, उनकी किसी भी प्रकार की सापेक्षिक स्वायत्तता भी नहीं रहने दी जानी चाहिए, और उन्हें शासन के कार्य सौंप दिये जाने चाहिए। लेनिन का मानना था कि मज़दूर वर्ग को सजातीय या एकाश्मीय श्रेणी नहीं माना जा सकता है। यह विभाजित है, इसके व्यापक हिस्से टटपुँजिया चेतना से भ्रष्ट हैं। ट्रेड यूनियनें इस समूची आबादी को समेटती हैं, और इसलिए अगर उनका राजकीयकरण किया गया तो यह सर्वहारा राज्य को भी भ्रष्ट कर देगा और ट्रेड यूनियनों को भी। लेनिन का विचार था कि ट्रेड यूनियनों को हिरावल और मज़दूर वर्ग को जोड़ने वाली कड़ी का काम करना चाहिए। ट्रेड यूनियनों को सापेक्षिक स्वायत्ता दी जानी चाहिए, ताकि वे मज़दूर वर्ग के हितों की उन सूरतों में हिफ़ाज़त कर सकें, जब बुर्जुआ और नौकरशाह विकृतियों और विरूपताओं से प्रभावित सर्वहारा राज्यसत्ता उसके हितों के विपरीत कदम उठाये, और साथ ही तभी वे सर्वहारा राज्यसत्ता की भी रक्षा कर पायेंगी, जब वे राज्यसत्ता से सापेक्षिक तौर पर स्वायत्त होंगी। लेनिन ने यहीं से अपने हमले का निशाना दूसरे छोर, यानी कि “वामपन्थी” और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी छोर के भटकाव पर केन्द्रित किया। लेनिन का मानना था कि अगर ट्रेड यूनियनों का राजकीयकरण नहीं किया जा सकता तो राज्य का भी ट्रेड यूनियनीकरण नहीं किया जा सकता, जैसा कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का मानना था। इस धड़े का भी यही मानना था कि ट्रेड यूनियनों को सरकार चलाने के कार्य दे दिये जाने चाहिए। लेकिन वे इसमें पार्टी की कोई भूमिका नहीं चाहते थे। वे पार्टी को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के प्रधान उपकरण के रूप में स्वीकार नहीं करते थे और मानते थे कि ट्रेड यूनियनों में पार्टी का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। लेनिन का मानना था कि यह पूरी थीसिस पार्टी को वर्ग के विपरीत खड़ा कर देती है, मानो कि दोनों शत्रुतापूर्ण शक्तियाँ हों। यह वास्तव में पार्टी की ज़रूरत को नकारने के समान था, और इसीलिए लेनिन ने इस धड़े को अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद का शिकार करार दिया। इसके नेता कोलोन्ताई और श्ल्याप्निकोव पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को नहीं समझते थे। ट्रेड यूनियनों को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र बनाकर सरकार के काम सौंपने का अर्थ होगा मज़दूर वर्ग के राजनीतिक हितों और सत्ता के ऊपर उसके आर्थिक हितों को प्रधानता देना। ऐसे में मज़दूर वर्ग समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में अपने सामाजिक आधार, यानी कि अपने मित्र वर्गों से रिश्ता तोड़ बैठेगा, और यह सर्वहारा अधिनायकत्व के पतन की ओर ले जायेगा। यह क्रान्ति में हिरावल वर्ग के तौर पर सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व को खण्डित कर देगा क्योंकि ट्रेड यूनियनें नैसर्गिक तौर पर मज़दूर वर्ग के हितों को ही प्रधानता देंगी। वास्तव में, ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नेप का और किसानों को रियायतें दिये जाने की मजबूरी को नहीं समझ रहा था और उसका विरोध कर रहा था और लेनिन “युद्ध कम्युनिज़्म” के बाध्यताकारी कदमों से मज़दूर-किसान संश्रय के बेहद कमज़ोर हो जाने के ख़तरे को समझ रहे थे और यह भी समझ रहे थे कि अभी पूँजीवादी तत्वों को छूट देकर रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाये बग़ैर सर्वहारा सत्ता को बचाया नहीं जा सकेगा। लेकिन ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ सर्वहारा वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका को बनाये रखने की इस मजबूरी को नहीं समझता था। अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी यह नहीं समझते हैं कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के पूरे ऐतिहासिक दौर में सर्वहारा वर्ग को कई बार अपने मित्र वर्गों के हितों के आगे अपने तात्कालिक हितों को त्यागना पड़ता है, ताकि सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक सत्ता को कायम रखा जा सके। लेनिन ने बताया कि ट्रेड यूनियनें पूँजीवाद के दौर में अस्तित्व में आती हैं। पूँजीवाद के दौरान उनका प्रमुख काम होता है पूँजी के हमलों के समक्ष मज़दूर वर्ग के हितों की हिफ़ाज़त करना। जाहिर है, समाजवादी संक्रमण के दौरान यह उनका कार्य नहीं हो सकता। क्योंकि राज्यसत्ता मज़दूर वर्ग के हाथ में आ चुकी है, और जो भी अधिशेष विनियोजित होता है वह राज्य के ज़रिये लौटकर सर्वहारा वर्ग के कल्याण में ही लगता है। इस रूप में मार्क्स के अलगाव के पहले अर्थ का उन्मूलन हो जाता है। समाजवाद के दौरान मज़दूर वर्ग ने अपनी जो पहलकदमी और नायकत्वपूर्ण प्रयास दिखाये वे इसी कारक के चलते सम्भव हुए थे, किसी ज़ोर-ज़बर्दस्ती से नहीं, जैसा कि सुजीत दास पूर्वाग्रहपूर्ण चयन प्रणाली से उद्धरण छाँटकर अपने लेख में दिखलाना चाहते हैं, जिनका खण्डन हम आगे तथ्यों और प्रमाणों के साथ करेंगे।

तो फिर समाजवाद के दौर में ट्रेड यूनियनों का मुख्य कार्य क्या होता है? लेनिन इसके बारे में स्पष्ट हैं और उनके सम्बन्धित उद्धरणों को हम ऊपर पेश कर चुके हैं। उनका मानना है कि समाजवाद के अन्तर्गत ट्रेड यूनियनें ‘कम्युनिज़्म का स्कूल’ और ‘प्रबन्धन का स्कूल’ होंगी। इसका अर्थ यह है कि यह सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य की मशीनरी के लिए कम्युनिज़्म की स्पिरिट और विश्व दृष्टिकोण को आत्मसात कर चुके मज़दूर कार्यकर्ताओं, प्रबन्धकों और कमिसारों को तैयार करेगी। इसीलिए लेनिन ने आगे इसे सर्वहारा वर्ग की ‘राज्यसत्ता का आरक्षित संचित भण्डार’ कहा। और इसीलिए लेनिन ने कहा कि ट्रेड यूनियनें सर्वहारा वर्ग को उसके उन्नत दस्ते, उसके हिरावल यानी कि पार्टी से जोड़ने वाली कड़ी है और समाजवादी संक्रमण के दौर में उसकी यह भूमिका प्रमुख है, और यह भूमिका समाजवादी संक्रमण की मंजिल के अनुसार अलग-अलग रूप धारण कर सकती है। अगर ट्रेड यूनियनों को पूर्णतः स्वतन्त्र और स्वायत्त बनाकर जनवाद की किसी बुर्जुआ अवधारणा को हम सर्वहारा जनवाद समझ बैठते हैं, तो इसका अर्थ होगा ट्रेड यूनियनों को समस्त मज़दूर आबादी की अचेत सामूहिक स्वतःस्फूर्तता पर छोड़ देना। यह एक तरह से अपने हाथों से पहल को टटपुँजिया वर्ग के हाथों में सौंपने के समान होगा, और चूँकि टटपुँजिया वर्ग की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती, और वह बुर्जुआ विचारधारा का ही पुच्छल तारा होता है, इसलिए इसका अर्थ असल में समूची पहल को बुर्जुआजी के हाथ में सौंपना होगा। सर्वहारा वर्ग पूँजीवाद के पूरे दौर में टटपुँजिया विचारों का बुरी तरह से शिकार होता है। किसी भी देश में क्रान्ति से पहले हिरावल पार्टी सर्वहारा वर्ग के बेहद छोटे, सबसे उन्नत और सबसे जुझारू हिस्से को ही समेट सकती है। वास्तव में, समाजवादी क्रान्ति से पहले उन्नत से उन्नत देश में ट्रेड यूनियनें तक कुल सर्वहारा आबादी के महज 15 से 30 प्रतिशत आबादी को समेट पाती हैं। रूस में तो यह आँकड़ा और भी कम था। सर्वहारा वर्ग की आबादी में ज़्यादातर आबादी ऐसी थी जो अभी पिछली पीढ़ी तक ही, या शायद कुछ समय पहले तक ही किसान थी। उसके अन्दर छोटे मालिक, दस्तकार और किसान की मानसिकता गहरे से जड़ जमाये हुए थी। ऐसे में रूस में ट्रेड यूनियनों ने सर्वहारा आबादी के एक छोटे हिस्से को अपने में समेटा था, और पार्टी ने तो और भी छोटे हिस्से को। ऐसे में, समूची सर्वहारा आबादी की स्वतःस्फूर्तता स्वयं में सर्वहारा होगी, यह सोचना नादानी है। आगे हम लेनिन के कुछ ज़रूरी उद्धरणों को आपके सामने पेश करेंगे। लेकिन अभी मूल चर्चा पर आते हैं।

चूँकि ट्रेड यूनियनों को स्वायत्त और स्वतन्त्र तरीके से राज्यसत्ता के काम नहीं दिये जा सकते हैं, इसलिए वे सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने की प्रमुख उपकरण नहीं हो सकतीं। लेनिन ने ज़ोर देकर कहा कि सर्वहारा अधिनायकत्व को केवल सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी ही लागू कर सकती है (आश्चर्य है कि सुजीत दास यह दावा करते हैं कि सोवियत राजनीतिक साहित्य में कहीं ऐसा नहीं लिखा गया है, क्योंकि ऐसा बार-बार कहा गया है और स्पष्ट किया गया है कि सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी ही सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को लागू करेगी।)। मज़दूर वर्ग समूचे वर्ग के तौर पर नहीं जानता है कि शासन करने का क्या अर्थ है। यह मज़दूर वर्ग का उन्नत दस्ता जानता है, जिसने सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण और विचारधारा को लम्बे वर्ग संघर्षों में जुझारू हिस्सेदारी करते हुए निःसृत और आत्मसात किया है। और लेनिन आगे किसी भी भ्रम की सम्भावना को ख़त्म करते हुए कहते हैं कि पार्टी की यह नेतृत्वकारी भूमिका केवल “विचारधारात्मक मार्गदर्शक” की नहीं होगी, जैसा कि सुजीत दास समझते हैं। ऐसा सोचना पार्टी को प्रवचन देने वाले बुद्धिजीवियों का गिरोह बना देगा, जिसकी आँखों के सामने और प्रवचनों के दौरान सर्वहारा सत्ता विखण्डित हो जायेगी। इसीलिए लेनिन ने कहा कि पार्टी को प्रबन्धन, शासन और उत्पादन के कार्यों में ‘उदाहरण पेश करके नेतृत्व देना होगा’; उन्होंने स्पष्ट कहा कि पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ही नहीं होगी, बल्कि यह आर्थिक प्रबन्धन, तकनीकी कार्यों और उत्पादन सम्बन्धी अन्य सभी कार्यों में ‘संस्थाबद्ध नेतृत्व’ के रूप में सामने आयेगी। और यही कारण था कि लेनिन के जीवन काल में ही सोवियत संघ में सरकार की भूमिका को ‘सोवनार्कोम’ (जन कमिसार परिषद) निभाने लगी, जिसके सदस्यों को मुख्य तौर पर पार्टी नियुक्त करती थी; यही कारण था कि अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस के कार्यों को पहले सोवियतों की केन्द्रीय कार्यकारी परिषद (वी.टी.एस.आई.के.) के हाथों में सौंपा और फिर उसके अधिकांश कार्यों को ‘सोवनार्कोम’ के हाथों में। यह प्रक्रिया 1918 का अन्त होते-होते पूरी हो चुकी थी। अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन का काम पूरी तरह से सर्वोच्च आर्थिक परिषद (वेसेंखा) के हाथों में केन्द्रित हो चुका था, जिसके कार्यों को अंजाम देने में ट्रेड यूनियनों का सहकार होता था। लेकिन सुजीत दास के पूरे लेख को पढ़ने के बाद हम उनसे यह उम्मीद नहीं कर सकते हैं कि वह अपने पाठकों को इस पूरी तस्वीर और इसके पीछे की राजनीतिक समझदारी से अवगत करायें। इसका कारण यह है कि पहले खुद इस तस्वीर से अवगत होना ज़रूरी है!

खै़र, आगे बढ़ते हैं। लेनिन ने इन भटकावों के बरक्स अपनी वैकल्पिक समझदारी पेश की और वह समझदारी आज भी प्रासंगिक है। इस वैकल्पिक तस्वीर में ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग और मज़दूर वर्ग के उन्नत दस्ते के बीच की कड़ी हैं। पार्टी के सक्रिय और संस्थाबद्ध नेतृत्व के तहत वे सर्वहारा अधिनायकत्व के कार्यभारों को पूरा करती हैं, लेकिन सरकार के कार्य ट्रेड यूनियनों को नहीं सौंपे जा सकते हैं, और इसके लिए एक विशेष संस्था, यानी कि सोवियतों की ज़रूरत होगी। इसका कारण यह है कि सोवियतें सिर्फ़ मज़दूर वर्ग के जनसमुदायों को नहीं समेटती हैं, बल्कि समूचे मेहनतकश जनसमुदायों को समेटती हैं। लेकिन सोवियतें भी यह कार्य पार्टी के संस्थागत नेतृत्व के तहत ही कर सकती हैं। 1917 से 1919 तक के दो वर्षों के सोवियतों के शासन के अनुभव का समाहार करते हुए लेनिन ने इण्टरनेशनल में कहा कि ‘राज्य और क्रान्ति’ की थीसिस में परिवर्तन की ज़रूरत है; पेरिस कम्यून मॉडल तुरन्त लागू नहीं किया जा सकता है। लेनिन ने बताया कि रूस में पार्टी ने दो वर्षों के सोवियतों के शासन का समाहार करते हुए पाया है कि सोवियतों को स्वायत्त रूप से शासन के कार्य आने वाले लम्बे समय तक नहीं सौंपे जा सकते हैं। यह काम पार्टी के ज़रिये ही हो सकता है और पार्टी को लम्बे समय तक सोवियतों के भीतर सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व को कायम करने और बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ने के लिए राजनीतिक कार्य करना होगा। इस पार्टी कार्य की सफलता या असफलता पर ही यह निर्भर करेगा कि सोवियतें मेहनतकश जनता की सच्ची सत्ता की संस्था के रूप में सर्वहारा अधिनायकत्व के शासनात्मक कार्यों को अंजाम देने की स्थिति में कब पहुँचती हैं। इसलिए सुजीत दास को सोवियतों को तत्काल सत्ता देने और ट्रेड यूनियनों को तत्काल उत्पादन व्यवस्था का नियन्त्रण देने की अपनी सोच के बारे में पुनर्विचार करना चाहिए। वे इसके लिए ‘राज्य और क्रान्ति’ और एंगेल्स के ‘अराज्य’ वाले उद्धरणों पर काफ़ी ज़ोर देते हैं। लेकिन वह यह नहीं समझ पाते कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की पूरी प्रणाली के बारे में क्रान्ति और क्रान्तिकारी सर्वहारा सत्ता के अनुभवों के बग़ैर सामान्य दूरगामी लक्ष्यों के अनुसार कुछ आधे-अधूरे प्रेक्षण ही किये जा सकते थे। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है कि लेनिन ने इस बारे में अपनी थीसिस को दुरुस्त कर लिया और यह लेनिन की अद्वितीय प्रतिभा का ही द्योतक था कि कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल में उन्होंने इस सैद्धान्तिक परिवर्तन के बारे में बताया। लेनिन ने बताया कि समाजवादी संक्रमण के दौरान यदि ट्रेड यूनियन का काम सर्वहारा वर्ग और सर्वहारा वर्ग के उन्नत दस्ते, यानी पार्टी, के बीच कड़ी का काम करना है, तो सोवियतों का काम है सर्वहारा अधिनायकत्व को तृणमूल धरातल तक ले जाना। यानी कि सोवियतों का कार्य है सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को समूची मेहनतकश जनता के जनसमुदायों तक ले जाना। लेकिन सोवियतें यह कार्य पार्टी के सक्रिय और संस्थागत नेतृत्व के तहत ही कर सकती हैं।

यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि लेनिन ट्रेड यूनियनों और सोवियतों को कोई आद्यरूपीय (आर्किटाइपल) संगठन नहीं मानते थे जो एक बार बन जाने के बाद तय भूमिकाओं को निभाते चले जाते हैं। वह इन निकायों को निरन्तर बेहद तीव्र और जटिल वर्ग संघर्ष का मंच मानते हैं। समाजवादी संक्रमण के दौर में इन मंचों पर जारी तीखे वर्ग संघर्ष को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के तहत संचालित करना होगा। और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण पार्टी है। सुजीत दास की आलोचना के ठीक विपरीत यह दावा किया जा सकता है कि पार्टी अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को स्तालिन काल में उस तरीके से नहीं निभा पायी जिस तरीके से उसे निभाया जाना था। इसके पीछे कौन-से कारक थे, इसके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे, जब हम स्तालिन के तहत बोल्शेविक पार्टी का एक आलोचनात्मक मूल्यांकन रखेंगे। लेकिन इतना तय है कि सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की सोवियतों और ट्रेड यूनियनों को लेकर जो अवधारणा है वह इन निकायों का एक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक आदर्शीकरण करती है। सुजीत दास के लेख में वास्तव में मार्क्सवादी दर्शन, राजनीतिक अर्थशास्त्र और सिद्धान्त की सभी श्रेणियों का यही हश्र होता है मूर्खतापूर्ण आदर्शीकरण। मिसाल के तौर पर, हमने अलगाव के प्रश्न, मज़दूर नियन्त्रण के प्रश्न और ट्रेड यूनियन व सोवियतों के प्रश्न को अभी तक पाठकों के समक्ष रखा है। सुजीत दास की यह समझदारी है कि अगर सोवियत सत्ता तत्काल कोई कानून या आज्ञप्ति पास करके तत्काल सारी शासन-सत्ता सोवियतों को और समस्त उत्पादन तन्त्र का नियन्त्रण ट्रेड यूनियनों को सौंप देती तो प्रत्यक्ष उत्पादक का उत्पादन के साधनों से अलगाव दूर हो जाता। यहाँ पर श्री दास हरेक चीज़ का अहमकाना ढंग से आदर्शीकरण कर रहे हैं। मार्क्सवाद हर परिघटना और उसके सारतत्व का अध्ययन उसकी गति में करता है। यही द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का मूल सिद्धान्त है।

लेकिन ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ के इस लेख को उठाते ही आप स्थैतिक श्रेणियों के ढेर में जा गिरते हैं और फिर श्री दास आपके गिरते ही अपनी नसीहत शुरू कर देते हैं कि किस श्रेणी के साथ क्या करना है; ट्रेड यूनियन के साथ क्या करना है, सोवियतों के साथ क्या करना है, वगैरह। बस पार्टी के साथ क्या करना है यह वह नहीं बताते! इसका कारण यह है कि उनके सरीखे विसर्जनवादी पार्टी की ज़रूरत को ही नहीं समझ पाते हैं। इसे एक दूसरे रूपक से ज़्यादा बेहतर तरीके से समझा जा सकता है। सुजीत दास के ब्लॉक वाले खिलौने के सेट में ट्रेड यूनियन और सोवियत आदि के ब्लॉक तो हैं, और वह खिलौने के डिब्बे पर दिये हुए मैनुअल (जिसे कि हॉर्नर, गॉर्टर, मात्तिक, रूले, कोर्श, श्ल्याप्निकोव, आदि जैसे लोगों ने लिखा है!) में पढ़-पढ़कर सही ब्लॉक को सही जगह पर लगाना शुरू कर देते हैं, लेकिन अन्त में जो बनता है वह किसी म्युनिसिपैलिटी के कूड़ेदान जैसी आकारहीन, आकृतिहीन संरचना होती है। इसका कारण यह है कि उनके ब्लॉक के डिब्बे में पार्टी वाला ब्लॉक ग़ायब है। खै़र, जब सुजीत दास सारे ब्लॉक जोड़कर यह आकारहीन, आकृतिहीन संरचना बना लेते हैं तो हम उनसे पूछते हैं यह क्या बना है? तो हमें किलकारियों के साथ बताया जाता है कि यह मज़दूर जनवाद है! सुजीत दास के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद और अराजकतावाद के लिए इससे उपयुक्त रूपक हमें नहीं मिला।

ख़ैर, लेनिन यह स्पष्ट तौर पर समझते थे कि सर्वहारा अधिनायकत्व की संरचना कोई ब्लॉकों का सेट नहीं है, जिसे एक बार सही ढंग से जोड़कर अलगाव की समस्या का हल किया जा सकता है और सीधे कम्युनिज़्म में संक्रमण किया जा सकता है। लेनिन इस पूरी प्रक्रिया की जटिलता, सतत् तरलता को पूरी तरह समझते थे क्योंकि वह इसे लगातार जारी वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया के तौर पर देखते थे, जिसमें सर्वहारा वर्ग की विजय सुनिश्चित करने के लिए जहाँ एक ओर सर्वहारा अधिनायकत्व को कायम रखना सबसे बड़ी चुनौती थी, तो वहीं समाज में हर मोर्चे पर बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ना भी पार्टी के समक्ष राजनीतिक कार्य और विचारधारात्मक प्रचार का एक दीर्घकालिक कार्यक्रम को रखता था।

लेनिन ने कहा कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का प्राथमिक और प्रधान उपकरण सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी है और वर्ग अपनी हिरावल पार्टी के ज़रिये ही शासन करता है। पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी ही सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख उपकरण बनी रहेगी, और अगर यह क्रान्ति रूस जैसे पिछड़े पूँजीवादी समाज में हुई है तब तो यह अवधि और भी ज़्यादा लम्बी होगी। इस लम्बी अवधि के दौरान सोवियतों को शासन की जिम्मेदारी पार्टी धीरे-धीरे स्वायत्त तौर पर सौंपेगी। इस पूरे दौर में पार्टी सोवियतों में जारी वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की विचारधारा के वर्चस्व को स्थापित करेगी और बुर्जुआ विचारों के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर ध्वस्त करेगी। जिस हद तक कम्युनिस्ट विचारधारा सोवियतों में संगठित मेहनतकश आबादी के लिए प्राधिकार बनती जायेगी, उस हद तक पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व की भूमिका कम होती जायेगी, जिसे सुजीत दास “हस्तक्षेप” कहते हैं। मज़दूर वर्ग के जनवाद को किसी कानून और निर्णय को पास करके नहीं लागू किया जा सकता है। यह पूरे वर्ग के राजनीतिक तौर पर एक वर्ग के रूप में संगठित होने, उसके द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा अवस्थिति को अपनाने पर निर्भर करता है, और यह सारी चीज़ें वर्ग संघर्ष का मसला हैं, पार्टी द्वारा पास किये जाने वाले प्रस्तावों और निर्णयों का नहीं। इसीलिए लेनिन ने कहा कि अगर सोवियतों को पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व के बिना आर्थिक नियोजन और शासन-सम्बन्धी निर्णय लेने की जिम्मेदारी दे दी गयी तो जनता की सोवियतों के बुर्जुआ सोवियतों में तब्दील होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा। बुर्जुआ वर्ग मेहनतकश जनता के बीच मौजूद अपने विचारधारात्मक प्रभाव के बूते अपने पक्ष में राय तैयार करने में सफल हो जायेगा। और इसके लिए बुर्जुआज़ी को किसी पार्टी की आवश्यकता नहीं है। इसका कारण यह है कि बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा, मूल्यों-मान्यताओं, आदतों और यहाँ तक कि चार हज़ार वर्षों के समूचे वर्ग समाज के इतिहास में पैदा हुई आदतों, मूल्यों और मान्यताओं का असर लम्बे समय तक समाजवादी संक्रमण के दौरान जनता के मस्तिष्क पर बना रहता है। क्रान्ति हो जाने के बाद भी जनता के बीच मौजूद इस विचारधारात्मक प्रभाव का बुर्जुआज़ी को फायदा मिलता है और उसके आवाहनों की अनुगूँज जन-मनोविज्ञान में तत्काल ही और आसानी से सुनायी पड़ती है। इसलिए विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष में अभी भी सर्वहारा वर्ग का पलड़ा हल्का होता है और बुर्जुआजी का पलड़ा भारी। इस स्थिति को एक ही सूरत में बदला जा सकता है, और वह है सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व को बुर्जुआज़ी पर लागू करके और अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति करके। और इस ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करने का काम समूचा सर्वहारा वर्ग एक साथ नहीं करता, बल्कि अपने उन्नत तत्वों के दस्ते के ज़रिये करता है। और यही कारण है कि जब तक यह कार्यभार पूरा नहीं हो जाता, यानी कि बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर ध्वस्त नहीं कर दिया जाता, तब तक सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को लागू करने में पार्टी को संस्थाबद्ध नेतृत्व की भूमिका निभानी ही होगी। मेहनतकश जनता की स्वतःस्फूर्तता सर्वहारा होती, तो फिर इतिहास में क्रान्ति के पहले या क्रान्ति के बाद भी पार्टी की ज़रूरत ही क्यों होती? लेनिन ने लगातार इस स्वतःस्फूर्ततवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष किया जिसकी छूत ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ जैसे सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों को लगी होती है।

इसीलिए लेनिन की अवस्थिति यह थी कि मेहनतकश जनसमुदायों को अधिक से अधिक राजनीतिक तौर पर सचेत बनाना कम्युनिस्ट पार्टी के तत्वों द्वारा सतत्, अविरत राजनीतिक कार्य की माँग करता है और हर जगह यह माँग करता है, चाहे वे सोवियतें हों या ट्रेड यूनियनें। और यह राजनीतिक कार्य केवल प्रचार का रूप नहीं लेता बल्कि ठोस कार्यों में नेतृत्व का रूप लेता है। सर्वहारा अधिनायकत्व को इस तरीके से ही लागू किया जा सकता है। एक लम्बे कालखण्ड में जब कई सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा आन्दोलनों के ज़रिये पार्टी इस वर्ग संघर्ष को सचेतन तौर पर सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में चलाती है, और साथ ही उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण और उत्पादक शक्तियों के तीव्र विकास के काम को जारी रखती है, केवल तभी बुर्जुआ वर्ग के विचारधारात्मक वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ा जा सकता है, केवल तभी उत्पादक वर्ग के उत्पादन के साधनों से अलगाव, और साथ ही आम तौर पर उसके अलगाव का क्रमिक प्रक्रिया में विलोपन (एलिमिनेशन) हो सकता है। अलगाव का किसी निर्णय या कानून के ज़रिये नाश या अन्त (एबॉलिशन) नहीं किया जा सकता है, जैसा कि सुजीत दास सोचते हैं।

सुजीत दास का यह सोचना भी उनके भ्रम को दिखलाता है कि सोवियतों और ट्रेड यूनियनों के “निष्क्रिय” होने के कारण मज़दूर वर्ग के अपने सत्ता के केन्द्र और राजनीतिक शक्ति के केन्द्र समाप्त हो गये, उनके अपने वर्ग संगठन समाप्त हो गये। सुजीत दास के वर्ग संगठन, वर्ग के राजनीतिक शक्ति केन्द्र, वर्ग के सत्ता के केन्द्र में पार्टी कहीं भी नहीं आती। सुजीत दास के लिए सर्वहारा वर्ग के शुद्ध मंच या संस्थाएँ सोवियतें और ट्रेड यूनियनें हैं; पार्टी तो ऊपर से थोपी गयी एक परायी चीज़ है! इससे पता चलता है कि सुजीत दास पार्टी की लेनिनवादी अवधारणा के बारे में क्या समझदारी रखते हैं। वास्तव में, सुजीत दास यहाँ वही ग़लती कर रहे हैं जो एक समय में रूसी पार्टी में एक्सेलरोद ने की थी, जब उन्होंने मज़दूर कांग्रेस के रूप में मज़दूर वर्ग के ‘जनराजनीतिक केन्द्र’ के निर्माण की बात की थी। इसका लेनिन ने पुरज़ोर विरोध करते हुए कहा था कि मज़दूर वर्ग का राजनीतिक केन्द्र केवल पार्टी ही हो सकती है, और उसका चरित्र कभी जनसंगठन जैसा नहीं हो सकता है। अगर ऐसा कोई भी संगठन बनाया जाता है तो वह पार्टी की सौत में तब्दील हो जायेगा। वास्तव में, ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ इसी सोच पर खड़ा है यानी कि जनराजनीतिक केन्द्र की सोच पर। लेकिन अभी हम उनकी आम राजनीतिक अवस्थिति पर नहीं लिखेंगे, यह काम कभी भविष्य के लिए सुरक्षित रखते हैं। लेकिन अभी इतना समझ लेना पर्याप्त है कि वर्ग के कमज़ोर, विसंगठित हो जाने के पीछे सुजीत दास जो भी तर्क दे रहे हैं, उसके आधार में वही विसर्जनवादी सोच मौजूद है जो कि एक्सेलरोद की थी। जहाँ तक वर्ग के राजनीतिक केन्द्र की बात है, तो वह हिरावल पार्टी ही हो सकती है, सोवियतें या ट्रेड यूनियनें नहीं। दूसरी बात, ट्रेड यूनियनें वर्ग की व्यापक आबादी को समटने वाले जनसंगठन हैं, जबकि पार्टी वर्ग के उन्नत तत्वों को आत्मसात करने वाला संगठन है। दोनों ही सर्वहारा वर्ग के विशिष्ट किस्म के संगठन हैं, और दोनों की ही भूमिकाएँ अलग और विशिष्ट हैं। यह कहना कि ट्रेड यूनियनें वर्ग का संगठन हैं, और पार्टी नहीं, एक मूर्खतापूर्ण बात है जो न तो ट्रेड यूनियन की ही भूमिका को समझती है और न ही पार्टी की।

अभी तक की हमारी अवस्थिति का एक सार-संक्षेप करके आगे बढ़ना उपयोगी होगा। हमारा मानना है कि सर्वहारा अधिनायकत्व की शुरुआती मंजिलों में सोवियतों और ट्रेड यूनियनों की पूर्ण स्वतन्त्रता की बात करना या उन्हें सर्वहारा सत्ता का शुद्ध उपकरण मानना सम्भव नहीं है। ये निकाय सर्वहारा सत्ता का उपकरण केवल पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व के तहत ही बन सकते हैं। इस पूरे दौर में लेनिन के शब्दों में सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी मशीनरी की तुलना दन्तचक्रों और संरचरण पट्टियों के एक जटिल ताने-बाने से की जा सकती है, जो कि पार्टी से मेहनतकश जनसमुदाय तक जाती हैं। सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक केन्द्र और सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण पार्टी है, और पार्टी के नेतृत्व में ही सोवियतें और ट्रेड यूनियनें इस मशीनरी में कोई भूमिका निभाती हैं। इस पूरे संक्रमण के शुरू होते ही अगर कोई पार्टी की भूमिका को कम या कमज़ोर करने की बात करता है, तो वह अराजकतावाद, विसर्जनवाद, संघाधिपत्यवाद और “वामपन्थी” बचकानेपन के पक्ष में खड़ा है, मार्क्सवाद के पक्ष में नहीं। शुरुआती लम्बे दौर तक ‘अराज्य’ का पहलू मज़बूत नहीं होता और न ही पार्टी की भूमिका कमज़ोर होती है, जैसा कि लेनिन और एंगेल्स के ‘अराज्य’ वाले उद्धरण को सन्दर्भ से काटकर सुजीत दास सिद्ध करना चाहते हैं। वह यह भी नहीं बताते कि इस समझदारी को लेनिन ने सोवियत सत्ता के दो वर्षों के अनुभव के बाद संशोधित और उन्नत बनाया। लेनिन ने स्पष्ट किया कि सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना के बाद एक लम्बे ऐतिहासिक कालखण्ड में सर्वहारा वर्ग के राज्य में ‘अराज्य’ का पहलू हावी नहीं होता, बल्कि सर्वहारा राज्य और ज़्यादा मज़बूत बनाया जाता है और पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व को और ज़्यादा मज़बूत बनाया जाता है। जब तक बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के समाज में वर्चस्व को निर्णायक तौर पर ध्वस्त नहीं किया जाता, जब तक जनता की स्वतःस्फूर्त चेतना और पहलकदमी का सर्वहाराकरण एक मुकम्मिल मंजिल तक नहीं पहुँचता, तब तक पार्टी और राज्य की भूमिका कम या कमज़ोर नहीं होती, बल्कि बढ़ती और मज़बूत होती है। जिस हद तक यह सर्वहाराकरण उन्नत होता है, उसी हद तक पार्टी और राज्य की भूमिका कम हो सकती है। इसके अलावा किसी भी चीज़ की कल्पना करना “वामपन्थी” कल्पनालोक में विचरण करना है।

ग) पार्टी का प्रश्न और सर्वहारा अधिनायकत्व की मशीनरी में उसकी भूमिका

यहीं पर यह सवाल भी आता है कि क्या पार्टी अचूक और अमोघ होती है, जैसा कि ट्रॉट्स्की का मानना था? क्या पार्टी भ्रष्ट होकर पूँजीवादी पथगामी नहीं बन सकती? बिल्कुल बन सकती है और लेनिन ने इसके बारे में भी कुछ ज़रूरी बातें कहीं हैं, और माओ ने उन सिरों को पकड़कर आगे एक सांगोपांग सिद्धान्त के रूप में विकसित किया है। लेकिन उस पर हम आगे आयेंगे। पहले यह सवाल की पार्टी की समाजवादी संक्रमण में ऐसी भूमिका क्यों होती है?

यह समझने के लिए विचारधारा की भूमिका को समझना ज़रूरी है, जिसे सुजीत दास “चेतना” का नाम देते हैं और उसे दैवीय रूप से प्रदत्त कोई चीज़ समझते हैं। लेनिन ने पूछा कि पार्टी क्या है? और इसका जवाब उन्होंने इस प्रकार दियाः पार्टी सर्वहारा वर्ग के विश्व-दृष्टिकोण और विचारधारा का मूर्त रूप है; पार्टी सर्वहारा वर्ग का अगुआ दस्ता है। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि पार्टी ने सर्वहारा वर्ग के सबसे उन्नत और जुझारू तत्वों को आत्मसात किया है। वर्ग और वर्ग के उन्नत हिस्से के बीच के फर्क को सुजीत दास समझ नहीं पाते हैं। सर्वहारा वर्ग के उन्नत दस्ते और सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदाय तथा पूरे सर्वहारा वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के जनसमुदायों के बीच एक अन्तर मौजूद रहता है। यह अन्तर भी किसी कानून या आज्ञप्ति से नहीं ख़त्म हो सकता, बल्कि उत्पादन सम्बन्धों के सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण (यानी कि तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को मिटाने) और उत्पादक शक्तियों के द्रुत विकास के साथ ही ख़त्म हो सकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह पूरी प्रक्रिया भी अविरत वर्ग संघर्ष और राजनीतिक-विचारधारात्मक संघर्ष की प्रक्रिया होती है। सोवियतों, ट्रेड यूनियनों, कम्यूनों या क्रान्तिकारी कमेटियों में जारी वर्ग संघर्ष पर सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व को स्थापित करने का उपकरण पार्टी ही हो सकती है। इन सभी निकायों में पार्टी के राजनीतिक और आर्थिक कार्यभार और कुछ नहीं बल्कि क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करना है। सोवियतें या कम्यून जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा के फलस्वरूप अस्तित्व में आये निकाय थे और उनका चरित्र विचारधारात्मक तौर पर क्षणभंगुर और अस्थिर होता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के लिए एक सचेतन, विशिष्ट रूप से सर्वहारा विचारधारात्मक और राजनीतिक संरचना की ज़रूरत होती है। यही भूमिका पार्टी अदा करती है। पार्टी की इस भूमिका को नकारना वास्तव में पार्टी की ज़रूरत को नकारना है। इसका अर्थ होगा जनता की स्वतःस्फूर्तता की अनालोचनात्मक पूजा या अन्धभक्ति (फेटिश), लोकरंजकतावाद, मज़दूरवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद। वास्तव में, ऐसी बात करने वाले सभी लोग यह समझते हैं कि क्रान्ति के अगले दिन से ही पेरिस कम्यून मॉडल लागू किया जा सकता है, या कम्युनिज़्म में सीधे छलाँग लगायी जा सकती है। अगर ऐसा सम्भव होता तो न तो समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि की, और न ही इस अवधि में पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व की अनिवार्यता की बात लेनिन, स्तालिन और माओ ने की होती। पार्टी सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख और प्राथमिक उपकरण होती है और सर्वहारा वर्ग अपने हिरावल के ज़रिये अपना अधिनायकत्व लागू करता है और शासन करता है; इसका अर्थ यह नहीं है कि सर्वहारा वर्ग नहीं बल्कि पार्टी शासन कर रही है। इसको समझने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि समाजवादी संक्रमण के दौर में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में आम मेहनतकश जनता का शासन वास्तविक होता है, लेकिन निरपेक्ष नहीं। यह सापेक्षिक होता है, और इसके भीतर अन्तरविरोध मौजूद होते हैं। यह शासन सर्वप्रथम पार्टी और राज्य द्वारा मीडियेट होता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह पार्टी का शासन है। इसका अर्थ सिर्फ़ इतना होता है कि वर्ग अपने शासन को अपने हिरावल के नेतृत्व में ही लागू करता है। वास्तव में इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता है। यह संघाधिपत्यवादी रुझान है जो कि पार्टी के नेतृत्व और वर्ग की तानाशाही के बीच की एकता को नहीं देख पाता है। लेनिन ने कहा था, “पार्टी हिरावल को आत्मसात करती है और यह हिरावल सर्वहारा तानाशाही को लागू करता है।” यह एक शानदार उद्धरण है जो पार्टी और वर्ग के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। स्तालिन ने एक जगह लिखा कि सोवियतें और ट्रेड यूनियनें पार्टी के नेतृत्व के तहत निर्णय लेंगी। स्तालिन ने कुछ यूँ लिखा है मानो वह सुजीत दास जैसे लोगों को ही जवाब दे रहे हैं। स्तालिन कहते हैं कि दिखने में ऐसा लग सकता है कि पार्टी की तानाशाही लागू हो गयी है। लेकिन यह सिर्फ़ आभासी यथार्थ है। स्तालिन चेतावनी देते हैं कि पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को एक ही चीज़ नहीं समझ लिया जाना चाहिए। पार्टी अपने नेतृत्व को स्थापित करने और उसे लागू करने में सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व देती है। स्तालिन कहते हैं कि अगर पार्टी जनता के साथ एक जीवन्त रिश्ता कायम रखती है, तो एक सही लाइन पर बने रहते हुए वह इस काम को अंजाम दे सकती है। माओ ने भी इसी बात को दुहराया है। वे कहते हैं कि सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख और प्रधान उपकरण पार्टी है और यह बात समाजवाद के समूचे संक्रमणकाल पर लागू होती है।

संक्षेप में हम कहना चाहेंगे कि पेरिस कम्यून मॉडल क्रान्ति के अगले दिन से लागू नहीं किया जा सकता है। जिस रूप में सुजीत दास ने सोवितयों, ट्रेड यूनियनों आदि की भूमिका को देखा है, वह लेनिनवादी तरीका नहीं है। उनका यह कहना भी सटीक नहीं है कि 1930 के दशक में सोवियतों और ट्रेड यूनियनों की कोई भूमिका नहीं रह गयी थी। यह ज़रूर है कि ट्रेड यूनियनों और सोवियतों में वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया का जीवन्त राजनीतिक रूप में संचालन करने में इस दौर में बोल्शेविक पार्टी असफल रही। नतीजतन, सर्वहारा वर्ग की विचारधारा के वर्चस्व को इन निकायों में स्थापित नहीं किया जा सका। ज़ाहिर है, कि अगर ऐसा होगा तो पार्टी भी अपना समुचित राजनीतिक विकास सर्वहारा तरीके से नहीं कर पायेगी। राज्य और पार्टी दोनों में ही सोवियतों और ट्रेड यूनियनों में जनसमुदायों से सही रिश्ता कायम न कर पाने के कारण नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्जुआ विरूपताओं का विकास होगा। लेकिन ऐसा नहीं है कि पार्टी ने स्तालिन के नेतृत्व में ट्रेड यूनियनों और सोवियतों को इरादतन अपना गुलाम बना दिया था।

ऐसा क्यों हुआ इसके कारणों पर हम आगे विस्तृत चर्चा करेंगे। लेकिन स्तालिन काल की ग़लतियों और समस्याओं के बारे में सुजीत दास की तरह कोई सरलीकृत व्याख्या हमारे पास नहीं है। यह कह देना कि वर्ग की तानाशाही की जगह पार्टी की तानाशाही ने ले ली थी, व्यर्थ और नुकसानदेह है। क्योंकि फिर सुजीत दास के सामने ढेर सारे असुविधाजनक प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जैसे कि पार्टी का चरित्र क्या था, वगैरह। संक्षेप में वही सवाल जो प्रतिस्थापनवाद आदि का आरोप लगाने वाले सारे बचकाने “वामपन्थियों” और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के सामने खड़े हो जाते हैं। और यही सवाल उनके सामने अलगाव आदि के मुद्दे पर भी खड़े हो जाते हैं। मिसाल के तौर पर, सुजीत दास ने बार-बार अपने लेख में एक निहायत मूर्खतापूर्ण बात को दुहराया है समाजवाद की पहचान करने का पैमाना यह है कि प्रत्यक्ष उत्पादकों के नियन्त्रण में उत्पादन के साधन हैं या नहीं! यह बुनियादी मार्क्सवादी विश्लेषण को भूलने के समान है। राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र का सवाल सबसे पहला पैमाना होता है; इसके बारे में हम पहले बात रख चुके हैं, इसलिए यहाँ दुहराने की कोई ज़रूरत नहीं है।

पहली बात तो यह है कि राज्यसत्ता किसी भी सामाजिक-आर्थिक संरचना की पहचान करने का पहला पैमाना है। दूसरी बात यह राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र की पहचान इस बात से होती है कि कौन-सी पार्टी उस पर काबिज़ है। कोई भी पार्टी ऐसी नहीं हो सकती जिसका कोई वर्ग चरित्र नहीं हो। इसलिए हमें इस प्रश्न का जवाब देना पड़ेगा कि स्तालिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी का वर्ग चरित्र क्या था? क्या वह पूँजीवादी रास्ते पर चली गयी थी? क्या वह संशोधनवादी हो चुकी थी? अगर नहीं तो सबसे पहले कदम के तौर पर आपको यह मानना होगा कि स्तालिन के तहत सोवियत राज्य एक समाजवादी राज्य था जिसकी चारित्रिक आभिलाक्षणिकता थी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही। लेकिन सुजीत दास यहाँ शर्मनाक विरोधाभास में फँस गये हैं। और इसके लिए वह किसी और को दोष नहीं दे सकते हैं, उन्होंने स्वयं अपने साथ ऐसा किया है पैर पर कुल्हाड़ी मारने की बजाय कुल्हाड़ी पर पैर दे मारा है! एक जगह वह कहते हैं कि स्तालिन के दौर में समाजवाद के लक्ष्य के लिए काम करने वाले क्रान्तिकारी समूह में थे और दूसरी कई जगहों पर उन्होंने लिखा है कि सर्वहारा अधिनायकत्व महज़ कागज़ों पर रह गया था। यह किस किस्म का विश्लेषण है? इसके बाद, सुजीत दास ने सभी प्रकार के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों को पीछे छोड़ते हुए साबित कर दिया है कि वह जितने बेहतरीन तरीके से वर्ग विश्लेषण को भूल सकते हैं, उससे तो काऊत्स्की जैसे संशोधनवादी और पॉल मात्तिक जैसे काउंसिल कम्युनिस्ट भी बगलें झाँकने लगें। सुजीत दास कहते हैं कि इन अर्थों में सोवियत राज्यसत्ता भी इतिहास की पहले की शोषक राज्यसत्ताओं के ही समान थी क्योंकि इसमें एक वर्ग से सहमति लेकर एक गिरोह राज्यसत्ता पर सवार हो गया था और फिर उसने उसी वर्ग की इच्छाओं की अवहेलना शुरू कर दी थी! अब इसका जवाब देना हमारे लिए सम्भव नहीं है, और पाठक इस तर्क प्रणाली की बेहतर समीक्षा कर सकते हैं क्योंकि अगर कोई यह नहीं समझ पा रहा है कि इतिहास में पहली बार सोवियत संघ में बहुसंख्या ने अल्पसंख्या पर (निश्चित तौर पर अपने हिरावल के ज़रिये) तानाशाही स्थापित की थी; कि इसीलिए लेनिन, स्तालिन और माओ ने और तमाम मार्क्सवादी और ग़ैर-मार्क्सवादी अकादमिकों ने भी बोल्शेविक क्रान्ति को मानव इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात माना है; तो हम यही कह सकते हैं कि हम इस पर बहस नहीं कर सकते हैं। मार्क ट्वेन का एक उद्धरण बरबस ही याद आ रहा है। एक बार उन्होंने कहा था, “मूर्खों से कभी बहस मत करो! पहले वे तुम्हें घसीटकर अपने स्तर पर ले जाते हैं, और फिर तुम्हें अपने तजुरबे के बूते पर हरा देते हैं!”

घ) स्तालिन के दौर की समस्याएँ और बोल्शेविक पार्टी की विचारधारात्मक ग़लतियाँ

हमारा मानना है कि तमाम समस्याओं और दिक्कतों के बावजूद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत राज्य एक सर्वहारा राज्य था जिसकी पहचान सर्वहारा वर्ग की तानाशाही से होती है। हमारा यह मानना कतई नहीं है कि इस दौर में कोई समस्या या दिक्कत नहीं थी। उल्टे हमारा मानना है कि इस दौर में कुछ गम्भीर विचारधारात्मक भूलें हुईं और इन तमाम समस्याओं पर भी एक संक्षिप्त चर्चा ज़रूरी है। सुजीत दास ने संयोग से कुछ उधार के जुमले उठाये हैं, जो कि एक सत्यांश को अभिव्यक्त करते हैं। जैसे कि एक जगह वह लिखते हैं कि ख्रुश्चेव जैसे लोग एक दिन में नहीं पैदा होते। 1956 में बीसवीं पार्टी कांग्रेस में जो कुछ हुआ उसके बीज पहले से पार्टी में पड़े हुए थे। स्तालिन काल में बोल्शेविक पार्टी की असफलताएँ क्या रहीं, इस पर हम उस समय विस्तार से चर्चा करेंगे जब हम 1924 से लेकर 1953 तक के इतिहास की सकारात्मक तौर पर समीक्षा करेंगे। लेकिन अभी हम संक्षेप में कुछ बुनियादी अवधारणात्मक बातें कहना चाहेंगे।

लेनिन की मृत्यु के बाद बोल्शेविक पार्टी द्वारा समाजवादी संक्रमण के ऐतिहासिक कालखण्ड में मौजूद अन्तरविरोधों को हल करने में दो बुनियादी ग़लतियाँ रहीं। चार्ल्स बेतेलहाइम ने अपनी पुस्तक ‘सोवियत संघ में वर्ग संघर्ष’ के पहले खण्ड की प्रस्तावना में इन ग़लतियों का आंशिक रूप से सही चित्रण किया है, हालाँकि बाकी किताब लिखते वक्त उन्हें क्या हो गया था, यह अभी भी एक गम्भीर शोध का विषय है! और अगर उस प्रस्तावना में भी बेतेलहाइम ने इस समस्याओं को कमोबेश ठीक ढंग से पकड़ा है, तो इसका कारण यह है कि इस प्रस्तावना में उन्होंने माओ के सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त का करीबी से अनुसरण करने का प्रयास किया है। लेकिन बाकी किताब वह अपने पूरे विश्लेषण को गड्ड-मड्ड कर बैठे हैं। इसका एक कारण सम्भवतः यह था कि बेतेलहाइम माओ से ज़्यादा “माओवादी” बनने के प्रयास में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद और “वामपन्थी” कम्युनिज़्म के खेमे में जा खड़े हुए हैं। इस पूरे शोध में हम आगे बेतेलहाइम की एक सांगोपांग आलोचना के काम को हाथ में लेंगे, क्योंकि कम-से-कम उनकी रचना ‘सोवियत संघ में वर्ग संघर्ष’ के पहले खण्ड को कई लोग माओवादी पहुँच और पद्धति से लिखी गयी रचना मानते हैं, जबकि ऐसा नहीं है। लेकिन अभी हम मूल मुद्दे पर वापस लौटते हैं।

स्तालिन काल में बोल्शेविक पार्टी द्वारा जिन दो प्रमुख ग़लतियों की हम पहचान कर सकते हैं, उनमें से पहली वास्तव में बोल्शेविक पार्टी का आविष्कार या नवोन्मेष नहीं थी, बल्कि यह ग़लती यूरोप के मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन में पहले से मौजूद थी और लेनिन ने काऊत्स्की की आलोचना करते हुए मूलतः इसी ग़लती पर चोट की थी। इस ग़लती के मूल में मार्क्स के ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान’ के एक पैराग्राफ़ की ग़लत व्याख्या मौजूद थी। मार्क्स ने अपनी उक्त रचना में एक जगह लिखा है कि सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ जिसमें सबसे प्रमुख उत्पादन की स्थितियाँ हैं, मनुष्य की चेतना का निर्माण करती हैं; किसी भी समाज में मनुष्य अपनी इच्छा से स्वतन्त्र उत्पादन में सहकार करते हुए कुछ निश्चित उत्पादन सम्बन्ध स्थापित करते हैं; इन उत्पादक सम्बन्धों का कुल योग समाज का आर्थिक आधार होता है; हर आर्थिक आधार अपनी सेवा करने वाली अधिरचना का निर्माण करता है; उत्पादक शक्तियों का विकास जब पुराने आर्थिक आधार में अवरुद्ध होने लगता है तो क्रान्तिकारी स्थिति पैदा होती है। यह एक प्रसिद्ध उद्धरण है, जो अब तक पाठक के दिमाग़ में आ चुका होगा। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से लेकर अकादमिकों के लेखन तक में यह मार्क्स के सबसे ज़्यादा उद्धृत किये जाने वाले कथनों में से एक है। इस कथन की तमाम लोगों ने इस तरह से व्याख्या की है कि मानो मार्क्स का यह मानना था कि आर्थिक कारक अन्य सभी चीज़ों को निर्धारित कर देते हैं; कि उत्पादक शक्तियाँ इतिहास की प्राथमिक ‘प्राइम मूवर’ होती हैं और जब उनका विकास दिये गये उत्पादन सम्बन्धों के ढाँचे में बाधित होने लगता है तो वे उत्पादन सम्बन्धों के उस ढाँचे को तोड़कर नये उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना कर देती हैं जो कि उनके लिए अनुकूल हों; उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच का अन्तरविरोध समाज में वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट होता है, जिसमें कि क्रान्तिकारी वर्ग उन्नत उत्पादन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शासक वर्ग पिछड़े हुए उत्पादन सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह समझदारी ग़लत नहीं है, बल्कि अधूरी है और सत्य के केवल एक पहलू को देखती है। मार्क्स के उक्त उद्धरण का यह पूर्ण अर्थ भी नहीं है। यह बात उनके कथन में अन्तर्निहित है कि उत्पादक शक्तियाँ भी तभी सही ढंग से विकसित हो सकती हैं, जब उत्पादन सम्बन्ध उनके लिए सापेक्षिक रूप से अनुकूल हों। लेकिन इस कथन की आम तौर पर जो व्याख्या की जाती है वह इस बात को भूल जाती है कि उत्पादक शक्तियों का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उसके विकास के अनुकूल उत्पादन सम्बन्ध न मौजूद हों और इसीलिए समाजवादी क्रान्ति के बाद उत्पादन सम्बन्धों के सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण का पहलू प्रमुखता ग्रहण कर लेता है। यह सच है कि जब तक उत्पादक शक्तियों का विकास प्रचुरता की मंजिल तक न हो जाये, तब तक कम्युनिज़्म की कल्पना करना व्यर्थ है, क्योंकि तब तक ‘सभी को उनकी ज़रूरत के अनुसार और सभी से उनकी क्षमता के अनुसार’ का कम्युनिस्ट सिद्धान्त लागू नहीं हो सकता। लेकिन प्रचुरता की मंजिल तक उत्पादक शक्तियों का विकास कोई एकरेखीय प्रक्रिया नहीं है। जब तक कि उत्पादन सम्बन्धों का निरन्तर और सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण नहीं होगा तब तक कम्युनिज़्म की दिशा में उत्पादक शक्तियों का प्रचुरता की मंजिल तक विकास नहीं हो सकता। उत्पादन सम्बन्धों के इस सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बिना अगर उत्पादक शक्तियों के विकास पर एकतरफ़ा तरीके से बल दिया गया तो यह समाज में पूँजीवादी विकास को जन्म देगा और तमाम बुर्जुआ अधिकारों और असमानताओं को जन्म देगा।

निजी सम्पत्ति के उन्मूलन के साथ उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की पहली मंजिल पूरी होती है, यानी सम्पत्ति सम्बन्धों का समाजवादी रूपान्तरण। लेकिन सम्पत्ति सम्बन्ध ही उत्पादन सम्बन्ध नहीं होते हैं। उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का अर्थ है वितरण के सम्बन्धों, पूँजीवादी श्रम विभाजन, उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया का क्रान्तिकारी रूपान्तरण। यह कैसे हो सकता है और इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि जब तक, माओ के शब्दों में, तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ, यानी कि मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम, गाँव और शहर और उद्योग और कृषि के बीच की असमानताएँ नहीं मिटतीं, तब तक पूँजीवादी श्रम विभाजन की ज़मीन मौजूद रहेगी। जब तक पूँजीवादी श्रम विभाजन मौजूद रहेगा, तब तक विनिमय सम्बन्ध बने रहेंगे; जब तक विनिमय सम्बन्ध बने रहेंगे तब तक वस्तु का विनिमय मूल्य बना रहेगा; जब तक वस्तु का विनिमय मूल्य बना रहेगा तब तक उसका माल के रूप में अस्तित्व बना रहेगा; जब तक वस्तु का माल के रूप में अस्तित्व बना रहेगा, तब तक माल उत्पादन भी जारी रहेगा और उजरती श्रम के तत्व भी बने रहेंगे; जब तक उजरती श्रम कायम रहेगा तब तक अधिशेष के हस्तगतीकरण के तत्व भी बने रहेंगे; और जब तक हस्तगतीकरण के तत्व बरकरार रहेंगे तब तक अलगाव की परिघटना के शत्रुतापूर्ण रूप को खत्म करने के बावजूद एक आर्थिक परिघटना के तौर पर उसका अस्तित्व बना रहेगा। और यह शत्रुतापूर्ण अलगाव दोबारा पैदा हो सकता है अगर पार्टी और राज्य का चरित्र बुर्जुआ हो जाता है।

बेतेलहाइम ने ग़ैर-द्वन्द्वात्मक तरीके से इस पूरी सोच को एक दूसरे छोर पर खींच दिया है और उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को महज़ राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रचार का मसला बना दिया है। इस क्रान्तिकारी रूपान्तरण का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अगर पूँजीवादी श्रम विभाजन को ख़त्म करना है तो राजनीतिक, सांस्कृतिक, शिक्षणात्मक और विचारधारात्मक प्रचार के अलावा लगातार उत्पादक शक्तियों का भी गुणात्मक तौर पर विकास करना पड़ेगा। मिसाल के तौर पर, जब तक छोटे पैमाने का माल उत्पादन जारी रहेगा तब तक उसमें लगी हुई मज़दूर आबादी के बीच से पूँजीवादी श्रम विभाजन को महज़ राजनीतिक प्रचार से नहीं ख़त्म किया जा सकता है। यही कारण था कि लेनिन ने भारी उद्योग को समाजवाद की पूर्वशर्तों में से एक बताया था। सिर्फ़ राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रचार पूँजीवादी श्रम विभाजन को ख़त्म नहीं कर सकते हैं। ऐसा दावा करना एक हेगेलवादी प्रत्ययवादी सोच का नतीजा होगा। मार्क्सवाद बताता है कि श्रम विभाजन भी उत्पादन के विकास की एक निश्चित मंजिल में पैदा होता है और इसका विलोप भी उत्पादन के विकास की एक विशिष्ट मंजिल में ही होगा। हाँ, यह ज़रूर है कि उत्पादन के विकास की यह मंजिल केवल उत्पादक शक्तियों का विकास करके नहीं हासिल की जा सकती है। इसीलिए माओ ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान नारा दिया कि “क्रान्ति पर पकड़ बनाये रखो और उत्पादन को आगे बढ़ाओ”। यह एक सटीक द्वन्द्ववादी अवस्थिति है। इसलिए, बेतेलहाइम के जैसा “माओवाद” हमें नहीं चाहिए जो क्रमिक प्रक्रिया में हेगेलवादी प्रत्ययवाद के गड्ढे में गिर जाता है। ऐसा “माओवाद” माओ की युगान्तरकारी शिक्षाओं को माओ के विरोधियों से ज़्यादा नुकसान पहुँचाता है।

श्रम विभाजन को क्रमिक प्रक्रिया में ख़त्म करने का प्रश्न सतत् सांस्कृतिक-विचारधारात्मक संघर्ष और क्रान्ति का प्रश्न भी है, और साथ ही उत्पादक शक्तियों के विकास का प्रश्न भी है। ये दोनों हर मौके पर एक-दूसरे से अन्तर्गुंथित होते हैं। किसी क्षण पर कोई पहलू प्रधान होता है, तो किसी क्षण पर कोई पहलू। लेनिन एक ऐसे सर्वहारा राजनीतिज्ञ थे जो इस द्वन्द्वात्मकता को सबसे अधिक सटीकता के साथ समझते थे। इसीलिए हमें लेनिन यह कहते हुए भी मिलेंगे कि विद्युतीकरण और भारी उद्योग के बिना समाजवादी समाज और अर्थव्यवस्था की कल्पना करना व्यर्थ है और यह भी कहते हुए मिलेंगे कि समाजवादी रूपान्तरण का प्रश्न महज़ उत्पादक शक्तियों के विकास का प्रश्न नहीं बल्कि सांस्कृतिक क्रान्ति का प्रश्न भी है। एक जगह लेनिन लिखते हैं कि नौकरशाही के पैदा होने का एक कारण वास्तव में सर्वहारा वर्ग के बीच उन्नत संस्कृति का अभाव भी है। ऐसे में, सर्वहारा वर्ग की चेतना के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा तन्त्र की आवश्यकता है। अगर ऐसा न किया जाय तो समाज में वर्ग संघर्ष एक ग़लत दिशा में जायेगा और उसका प्रतिबिम्बन पार्टी में भी होगा। अगर इन दोनों पहलुओं पर द्वन्द्वात्मक ज़ोर नहीं दिया जायेगा, तो पार्टी में एक बुर्जुआज़ी पैदा होगी और उस सूरत में, बिना निजी पूँजी, बिना पारम्परिक पूँजीवादी श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार के पूँजीवादी सम्बन्धों की पुनर्स्थापना हो जायेगी, और इन पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के शीर्ष पर निजी पूँजीपति वर्ग नहीं बल्कि राजकीय पूँजीपति वर्ग होगा।

यहाँ पर भी सुजीत दास एक कीन्सीय मार्क्सवादी पैराडाइम में फँसे हुए हैं, जो कि समाजवादी संक्रमण पर चली बहस में पॉल स्वीज़ी ने प्रस्तुत किया था। यह सोच पूँजी को एक सामाजिक सम्बन्ध के रूप में नहीं देखती, जैसा कि मार्क्स और लेनिन ने बताया है, बल्कि उसकी ठोस ऐतिहासिक अभिव्यक्तियों की खोज में लगी रहती है, जैसे कि श्रम बाज़ार, पूँजी बाज़ार, निजी सम्पत्ति आदि। इस पर हम आगे लिखेंगे। अभी हम बोल्शेविक पार्टी की ग़लतियों के सवाल पर लौटते हैं।

उत्पादक शक्तियों की प्रमुखता के पूरे सिद्धान्त का प्रभाव बोल्शेविक पार्टी के भीतर भी शुरू से ही मौजूद था और लेनिन ने इसके ख़िलाफ़ सतत् संघर्ष चलाया था। यही समझदारी बुखारिन और प्रियोब्रेज़ेंस्की ने “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौरान पेश की थी और तब भी लेनिन ने इन दोनों की रचनाओं के कुछ सकारात्मकों की चर्चा के बावजूद, इनकी मूल ग़लतियों की तरफ़ इशारा किया था। यहाँ पर यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है उत्पादक शक्तियों को परिभाषित करने के बारे में भी उस दौर में पार्टी की समझदारी असन्तुलित थी। उत्पादक शक्ति के अंग के तौर पर तकनोलॉजी और यंत्रों पर ज़ोर था लेकिन उसके सबसे केन्द्रीय और कुंजीभूत हिस्से पर ध्यान नहीं था, यानी कि स्वयं मनुष्य। मनुष्य उत्पादक शक्तियों का केन्द्रीय संघटक अंग होता है और यह मनुष्य ही उत्पादन सम्बन्धों में बँधा होता है। ऐसे में, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच एक जटिल द्वन्द्वात्मकता का होना लाजिमी है। लेकिन इस पहलू पर पार्टी की समझदारी कमज़ोर थी, और उत्पादक शक्तियों के अजैविक हिस्सों पर ज़ोर ज़्यादा था।

लेनिन की मृत्यु के बाद अर्थवाद और एक किस्म के ‘उत्पादक शक्ति-वाद’ के ख़िलाफ़ बोल्शेविक पार्टी में जारी संघर्ष एक प्रकार से थम गया। इसका प्रमुख कारण यह था कि उस समय का बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व स्वयं इस अर्थवाद का शिकार था। चूँकि स्तालिन और अन्य नेतृत्व भी इस अर्थवादी सोच के मामले में समान विचार रखते थे, इसलिए समाजवाद से कम्युनिज़्म की तरफ़ संक्रमण के लिए उत्पादक शक्तियों के विकास को ही प्रमुख कारक माना गया। सम्पत्ति सम्बन्धों को उत्पादन सम्बन्धों के साथ गड्ड-मड्ड कर दिया गया। इसीलिए पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के हर रूप के अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र से सामूहिकीकरण के पूरे होने के साथ समाप्ति के बाद 1936 में स्तालिन ने यह घोषणा की कि सोवियत संघ में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं। क्योंकि यह मान लिया गया था कि पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के रूपान्तरण के साथ पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण का कार्यभार पूरा हो चुका है, और अब मज़दूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों को समाजवाद की तरक्की के लिए मिलकर काम करना है। यानी कि उत्पादकता और उत्पादन का विकास करते जाना है; इसी के ज़रिये प्रचुरता की मंजिल आयेगी और इसी के ज़रिये कम्युनिस्ट समाज में संक्रमण की पूर्वशर्तें पूरी होंगी।

ऐसा नहीं था कि बोल्शेविक पार्टी अलगाव की समस्या के ख़ात्मे के प्रति सचेत नहीं थी। लेकिन उसका मानना था कि उत्पादक शक्तियों के लगातार और द्रुत विकास के ज़रिये ही प्रचुरता की मंजिल आयेगी और तभी ‘सभी से सबकी क्षमता के अनुसार, और सभी को उनकी ज़रूरत के अनुसार’ के कम्युनिस्ट सिद्धान्त को लागू किया जा पायेगा, और तभी अलगाव समाप्त होगा। यह बोल्शेविक पार्टी की पहली बड़ी भूल थीः अर्थवाद का प्रभाव। स्तालिन एक क्रमिक प्रक्रिया में इस कमी को समझने की तरफ़ आगे बढ़ रहे थे और उनके आख़िरी लेखनों से ऐसा लगता है, कि वह समस्या के मूल के काफ़ी करीब थे। लेकिन मानवीय जीवन की एक भौतिक-जैविक सीमा होती है। स्तालिन का पूरा दौर सोवियत संघ के लिए निहायत गम्भीर आन्तरिक समस्याओं और बाह्य दबावों का दौर था। उस दौर ने बिरले ही स्तालिन को कभी गम्भीरता से इन सवालों पर सोचने का मौका दिया हो। इसके बावजूद आनुभविक तौर पर इस अर्थवाद के परिणाम के तौर पैदा होने वाले लक्षणों पर स्तालिन हमला करते थे। मिसाल के तौर पर, स्तालिन 1924 से 1953 तक के पूरे दौर में पार्टी के भीतर जो नौकरशाही मौजूद थी उसके ख़िलाफ़ लड़ते रहे। लेकिन चूँकि वह बुनियादी समस्या के मूल तक नहीं पहुँच सके थे, इसलिए इन समस्याओं का उनका उपचार लाक्षणिक ही बना रहा, मूल तक पहुँचकर उसका निवारण नहीं कर सका। इस प्रश्न पर हम आगे और विस्तार से विचार करेंगे। लेकिन अभी फिलहाल दूसरी बुनियादी ग़लती की चर्चा पर वापस लौटते हैं।

उत्पादक शक्तियों के विकास पर ग़ैर-द्वन्द्वात्मक ज़ोर की इसी कमी से ही बोल्शेविक पार्टी की दूसरी बड़ी ग़लती निकलती है। यह ग़लती थी स्तालिन और बोल्शेविक पार्टी द्वारा यह नहीं समझ पाना कि समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में भी वर्ग संघर्ष ही कुंजीभूत कड़ी और सामाजिक विकास का मूल कारक होता है। जैसा कि हमने पहले बताया, यही कारण था कि 1936 में स्तालिन ने सामूहिकीकरण के अभियान के ख़त्म होने के साथ यह एलान किया कि अब सोवियत संघ में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं; केवल मज़दूर, किसान और बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें समाजवाद के विकास के लिए काम करना है। लेकिन अगर शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं थे, तो सोवियत संघ को एक विराट राज्य व्यवस्था के ताने-बाने की ज़रूरत क्यों थी? यह सिर्फ़ विदेशी साम्राज्यवादी षड्यंत्रों का मुकाबला करने के लिए नहीं था। वास्तव में, स्तालिन आनुभविक तौर पर वर्ग संघर्ष को समझ भी रहे थे, और उसमें हिस्सा भी ले रहे थे। वह प्रतिक्रियावादियों और प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियों के ख़िलाफ़ दमन की मुहिम भी चला रहे थे (जिसकी चपेट में पार्टी में मौजूद नौकरशाही के कारण कई बार बेगुनाह भी आ गये), लेकिन अवधारणात्मक धरातल पर वर्ग संघर्ष की कुंजीभूत कड़ी को भूलने का पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। क्योंकि जब आप यह बात कहते हैं कि अब कोई शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं है, और आपका समूची जनता के बीच ज़बर्दस्त प्राधिकार हो, तो फिर पार्टी कतारें और जनता, दोनों ही उस क्रान्तिकारी चौकसी को खो बैठते हैं जिसकी ज़रूरत समूचे समाजवादी संक्रमण के दौरान होती है। क्योंकि समूचे समाजवादी संक्रमण के दौरान पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा मौजूद रहता है, जिसके कारणों की चर्चा हम ऊपर कर आये हैं। ऐसे में, ऐसी कोई भी घोषणा और वह भी मेहनतकश जनता के ऐसे निर्विवाद और प्राधिकार-सम्पन्न नेता की तरफ़ से जनता को राजनीतिक और विचारधारात्मक तौर पर निःशस्त्र कर देती है।

ऐसे में चूँकि पार्टी का पूरा ज़ोर उत्पादक शक्तियों के तीव्रतम सम्भव विकास पर था इसलिए समाजवादी आर्थिक नियोजन को एक विशिष्ट ज़ोर के साथ लागू किया गया, और उसमें समस्याएँ थीं। और ट्रेड यूनियनें और सोवियतें निश्चित तौर पर इसके कारण राजनीतिक रूप से आंशिक तौर पर निष्क्रिय हुईं; वे मृत या राज्य की गुलाम नहीं बनीं, बल्कि वे वर्ग संघर्ष और राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष का वैसा जीवन्त मंच नहीं रह गयीं, जैसा कि विशेष तौर पर उन्हें समाजवादी संक्रमण के दौर में होना चाहिए। यह वर्ग संघर्ष सोवियतों और ट्रेड यूनियनों में ठीक इसी कारण से नहीं चल पाया क्योंकि पार्टी अपने नेतृत्वकारी काम को उस तरीके से करने में असफल रही जिस तरीके से उसे किया जाना चाहिए था, जैसा कि लेनिन ने सुझाया था और बाद में माओ ने भी बताया। पार्टी का नेतृत्व राजनीतिक नेतृत्व से ज़्यादा आर्थिक नियोजन में नेतृत्व में तब्दील हो गया। इससे जो दिक्कतें पैदा हो रही थीं, उनमें विशेष तौर पर राज्य और पार्टी में नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग की गहरी होती जड़ें थीं; स्तालिन की मृत्यु के ठीक पहले भी स्तालिन ने इस नौकरशाही के ख़िलाफ़ एक तीखा संघर्ष छेड़ रखा था। लेकिन यह लाक्षणिक धरातल पर ज़्यादा था, और अवधारणात्मक धरातल पर कम। नतीजतन, पार्टी सोवियतों में और ट्रेड यूनियनों में क्रमिक प्रक्रिया में अपना राजनीतिक और विचारधारात्मक नेतृत्व खोती गयी। इस ख़ाली होती जगह को भरने का काम पार्टी के नाम पर नौकरशाही कर रही थी। इसलिए सोवियतें और ट्रेड यूनियनें बोल्शेविक पार्टी के प्रति दासवत नहीं बनीं, और न ही उनकी उपकरण बनीं; कहना यह चाहिए कि पार्टी और सोवियतों और साथ ही पार्टी और ट्रेड यूनियनों के बीच का सम्बन्ध गतिमान रहने की बजाय स्थैतिक बन गया और पार्टी का राजनीतिक नेतृत्व उसमें कमज़ोर होता गया। राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति की क्षतिपूर्ति नौकरशाहाना फरमानशाही से हुई, जो कि वास्तव में क्षतिपूर्ति नहीं बल्कि स्वयं एक क्षति था।

इन कमज़ोरियों के ही चलते स्तालिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त तक भी नहीं पहुँच सकी। इसके कारण पार्टी कभी भी अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति के दीर्घकालिक कार्यक्रम को नहीं ले सकी; न ही पार्टी तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को समाप्त करने में उत्पादक शक्तियों के विकास को तेज़ करने के साथ-ही-साथ सचेतन राजनीतिक और विचारधारात्मक कार्य की ज़रूरत को समझ पायी। यह मान लिया गया कि उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ जब प्रचुरता की मंजिल आ जायेगी तो ये सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ खुद-ब-खुद मिट जायेंगी। लेकिन ऐसा न तो होना था और न ही हुआ। और ये असमानताएँ बढ़ती गयीं, जिसने समाज में नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ विचारधारा की पकड़ को और मज़बूत किया। चूँकि स्तालिन मृत्यु तक इन तमाम विकृतियों, विरूपताओं और विजातीय प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ अपने सर्वहारा स्वभाव के कारण आनुभविक तरीके से संघर्ष चलाते रहे, और चूँकि पार्टी की कतारें उनके साथ खड़ी थीं, इसलिए पार्टी और राज्य में पैदा हो चुकी बुर्जुआज़ी के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह पार्टी में नेतृत्व का तख़्तापलट कर समाजवादी नीतियों का त्याग कर दे और पूँजीवादी रास्ते को अपना ले। लेकिन पार्टी में मौजूद यह नौकरशाही भी अपनी अवस्थिति बाँधकर पार्टी के भीतर बैठी रही और इन्तज़ार करती रही। स्तालिन उनके लिए एक प्रकार से आखि़री बाधा थे। और स्तालिन की मृत्यु के साथ ही पार्टी के भीतर मौजूद पूँजीवादी पथगामियों ने अपने कुकृत्यों का ठीकरा स्तालिन के सिर फोड़कर, अपने द्वारा पैदा की गयी ग़ैर-जनवादी प्रवृत्तियों की जिम्मेदारी स्तालिन पर डालकर “लोकतान्त्रीकरण”, “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व” आदि जैसी लफ्फाजियाँ करनी शुरू कर दीं। बीसवीं कांग्रेस में यही प्रक्रिया अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची, जब संशोधनवादियों ने अपने सारे कुकर्मों को स्तालिन के सिर मढ़कर, अपने आपको उदार और लोकतान्त्रिक प्रदर्शित किया। चूँकि सोवियतें और ट्रेड यूनियनें उस प्रकार के जीवन्त राजनीतिक निकाय नहीं रह गये थे, जिसकी कल्पना लेनिन ने की थी, इसलिए उनमें संगठित जनता, जो कुछ हो रहा था उसे जल्दी समझ नहीं पायी और इस पूरे प्रतिक्रियावादी परिवर्तन की निष्क्रिय दर्शक बनी रही। और जब तक वह समझ पाती तब तक वह प्रक्रिया इतनी आगे बढ़ चुकी थी, कि अब उसे उल्टी दिशा में नहीं मोड़ा जा सकता था।

स्तालिन के दौर बोल्शेविक पार्टी की ग़लतियों के इस आलोचनात्मक विवेचन के अन्त में पहुँचने से पहले हम दो बातों की ओर पाठकों का ध्यान खींचना चाहेंगे।

पहली बात, सोवियत संघ समाजवादी सत्ता और समाजवादी संक्रमण का पहला प्रयोग था। इसके पास कोई उदाहरण मौजूद नहीं था, जिसका वह अनुसरण करता या जिसकी ग़लतियों और सफलताओं से वह सीख पाता। बोल्शेविक पार्टी पहली बार एक ऐसा प्रयोग कर रही थी, जो कि इतिहास में पैमाने में और गुणवत्ता में अद्वितीय था। और यह प्रयोग भी वह सोवियत संघ जैसे विशाल और वैविध्यपूर्ण देश में कर रही थी। ऐसे में, सोवियत संघ ने 35 वर्षों में जो कुछ हासिल किया, मज़दूर वर्ग के जीवन को जहाँ तक पहुँचा दिया, पूरे देश को मध्ययुगीन बर्बरता से निकालकर जहाँ पहुँचा दिया, वह आज भी अचम्भित कर देता है। यह केवल किसी दमनकारी पार्टी की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से नहीं हो सकता है, न ही उसके द्वारा किये गये सामूहिक सम्मोहन से हो सकता है। यह मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता की रचनात्मक ऊर्जा और पहल पर ही हो सकता है। सुजीत दास का यह दावा कि मज़दूर वर्ग एक वर्ग के रूप में विसंगठित हो गया, पार्टी पर से उसका भरोसा उठ गया, उसकी कोई पहलकदमी नहीं रही, पार्टी की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से ज़्यादा काम हुए और राजनीतिक-विचारधारात्मक प्रेरणा से कम, नेशनल जियोग्राफिक, डिस्कवरी चैनल या हिस्ट्री चैनल और रॉय मेदवेदेव और मार्क फेरो आदि जैसे लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रचार ज़्यादा लगता है और एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी द्वारा सोवियत संघ का विश्लेषण कम। और सोवियत संघ को अन्य शोषणकारी, दमनकारी यहाँ तक कि फासीवादी राज्य के साथ एक लाइन में गिन देना सुजीत दास और ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ जैसे राजनीतिक नौदौलतियों के अहंकारी और खोखले चिन्तन के वर्ग चरित्र को काफ़ी हद तक साफ़ कर देता है।

एक अन्य कारक भी है जिसकी ओर ज़रूर ध्यान दिया जाना चाहिए और वह यह है कि स्तालिन के पूरे जीवनकाल में सोवियत संघ कभी भी आन्तरिक संकटों और बाह्य दबावों से मुक्त नहीं था, जैसा कि सुजीत दास मानते हैं। यह उनकी कल्पना है कि 1930 के दशक में ऐसे दबाव काम नहीं कर रहे थे, क्योंकि उन्हें सोवियत संघ में समाजवाद के इतिहास का कोई ऐसा कालखण्ड चुनना था जिसमें कि लेनिन न हों, और स्तालिन काल में हुए “अतिरेकों” के ज़रिये मूल लेनिनवादी उसूलों पर ही हमला बोला जा सके। इस पूरे दौर में कौन-से दबाव काम कर रहे थे, उनका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। एक बात स्पष्ट है कि स्तालिन काल में हुई ग़लतियों को अलग से नहीं समझा जा सकता है। उन्हें देश-काल के पूरे सन्दर्भ में रखकर ही देखा जा सकता है। और जब हम ऐसा करते हैं, तो तमाम सीमाओं और ग़लतियों के बावजूद स्तालिन की महानता समझ में आती है।

इसलिए हमारा मानना है कि स्तालिन काल और विशेष तौर पर 1930 में हुई जिन-जिन चीज़ों के लिए स्तालिन और बोल्शेविक पार्टी की आलोचना सुजीत दास ने अपने लेख में की है, ठीक उन्हीं चीज़ों के लिए स्तालिन की प्रशंसा की जानी चाहिए और माना जाना चाहिए कि इस मामले में स्तालिन लेनिन की विरासत के सच्चे वाहक थे। वास्तव में, जो वास्तविक कमियाँ थीं, उन्हें समझने और उनके सन्दर्भों को समझने में सुजीत दास बुरी तरह असफल रहे हैं। स्तालिन के दौर में ग़लती यह नहीं थी कि पार्टी का हस्तक्षेप ज़्यादा था। कहना चाहिए कि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। पार्टी का जितना और जैसा हस्तक्षेप होना चाहिए था वैसा स्तालिन काल में पार्टी नहीं कर पायी और इसके कारणों की हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। लेकिन इन सबके बावजूद इतना तय है कि स्तालिन काल तक बोल्शेविक पार्टी एक कम्युनिस्ट पार्टी बनी रही और सोवियत राज्य सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को अभिव्यक्त करता रहा। पार्टी के वर्ग चरित्र का फैसला सर्वप्रथम उसके नेतृत्व और नीतियों से होता है और राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र का फैसला उस पर काबिज़ पार्टी के वर्ग चरित्र से होता है। अगर मार्क्सवाद की इन बुनियादी शिक्षाओं को मानें तो स्तालिन काल में सोवियत समाजवाद की सफलताओं और असफलताओं, दोनों को ही समझा जा सकता है।

लेकिन ऐसा करने की बजाय सुजीत दास ने पार्टी को हर दिक्कत का जिम्मेदार ठहराने का आसान रास्ता चुना है। वे अलगाव को धाँय से ख़त्म नहीं कर देने के लिए पार्टी से रूठ गये हैं और कह रहे हैं कि ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों को उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण’ क्यों नहीं दिया! वह कह रहे हैं कि पार्टी ने ट्रेड यूनियनों और सोवियतों के मामलों में टाँग क्यों अड़ाई? पार्टी सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू क्यों करने लगी? ऐसा तो आपने कभी नहीं कहा था कि आप ऐसा करेंगे! इसी प्रकार की बचकानी शिकायतों और टिप्पणियों से उनका लेख भरा हुआ है। हमने हरेक बचकानेपन का यहाँ खण्डन नहीं किया है, क्योंकि वह सम्भव ही नहीं है। लेकिन उनका मूल तर्क वही है जो अराजकतावाद, संघाधिपत्यवाद, गैर-पार्टी क्रान्तिवाद, विसर्जनवाद, मज़दूरवाद और “वामपन्थी” कम्युनिस्टों का होता है। पार्टी, ट्रेड यूनियन, सोवियतों, राज्यसत्ता और वर्ग के बारे में और साथ ही इन सबके अन्तर्सम्बन्धों के बारे में ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की पूरी समझदारी यही दिखलाती है। हम अब आपके सामने लेनिन, स्तालिन और माओ के कुछ उद्धरण रखेंगे, जैसे कि हमने पहले वायदा किया था, जिससे कि यह साफ़ हो जाये कि सुजीत दास कहाँ खड़े हैं, उनके सच्चे मित्र कौन हैं (जो हम ऊपर देख आये हैं) और उनके तथा उनके मित्रों के बरक्स मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद की अवस्थिति इन सारे कुंजीभूत प्रश्नों पर क्या है।

घ) पार्टी, वर्ग और राज्यसत्ता के प्रश्न पर लेनिन, स्तालिन और माओ के विचार

आगे पार्टी, वर्ग और राज्यसत्ता के आपसी रिश्तों के बारे में लेनिन, स्तालिन और माओ के कुछ उद्धरण रखेंगे और यह काम पाठकों पर छोड़ देंगे कि वे सुजीत दास की अवस्थिति की तुलना लेनिन, स्तालिन और माओ की अवस्थिति से करें। यहाँ हम कुछ उद्धरणों के उन प्रासंगिक हिस्सों को भी रखेंगे, जिन्हें हमने ऊपर भी उद्धृत किया है। शुरुआत में लेनिन का यह कथन सबसे मुफीद होगाः

“सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की पूरी व्यवस्था में, ट्रेड यूनियनें पार्टी और सरकार के बीच में खड़ी हैं। समाजवाद की ओर संक्रमण में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही अपरिहार्य है, लेकिन यह किसी ऐसे संगठन के ज़रिये लागू नहीं की जा सकती है, जो कि समूचे औद्योगिक मज़दूरों को अपने में समेटता हो। क्यों नहीं?…दरअसल होता यह है कि पार्टी, हम कह सकते हैं, सर्वहारा वर्ग के हिरावल को अपने में आत्मसात करती है, और यह हिरावल सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को लागू करता है। यह तानाशाही या सरकार के कार्यों को ट्रेड यूनियन जैसे आधार के बिना नहीं लागू किया जा सकता है। लेकिन, इन कार्यों को एक विशेष संस्था के माध्यम से किया जाना होता है, जिसे हम सोवियत कहते हैं। …सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को किसी ऐसे संगठन के द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है जो कि इस पूरे वर्ग को समेटता हो, क्योंकि सभी पूँजीवादी देशों में सर्वहारा वर्ग अभी भी इतना विभाजित, इतना विकृत, और कई हिस्सों में इतना भ्रष्ट (कुछ देशों में साम्राज्यवाद के द्वारा) है कि सम्पूर्ण सर्वहारा वर्ग को समेटने वाला कोई भी संगठन सीधे सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को लागू नहीं कर सकता है। यह केवल एक हिरावल के ज़रिये लागू किया जा सकता है, जिसने कि पूरे वर्ग की क्रान्तिकारी ऊर्जा को आत्मसात किया हो। यह सबकुछ एक दन्त-चक्रों की व्यवस्था के समान है।” (लेनिन, ‘ट्रेड यूनियनें, मौजूदा स्थिति और ट्रॉट्स्की की ग़लतियाँ’, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, अंग्रेज़ी संस्करण, 1986 प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 371-72) सुजीत दास का दावा है कि पूरे सोवियत राजनीतिक साहित्य में कभी भी यह नहीं लिखा गया था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को पार्टी लागू करेगी। अब हम इस बारे में केवल अटकलबाज़ी कर सकते हैं कि “सोवियत राजनीतिक साहित्य” से श्री दास का क्या अर्थ है, क्योंकि आप उपरोक्त उद्धरण में देख सकते हैं कि लेनिन को इस बारे में कोई दुविधा नहीं है। वह स्पष्ट हैं कि सर्वहारा अधिनायकत्व पार्टी के ज़रिये लागू किया जायेगा और पार्टी ही सर्वहारा अधिनायकत्व की प्रमुख उपकरण होगी; ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदायों और पार्टी के बीच एक कड़ी होंगी; और सोवियतें वे संस्थाएँ होंगी जिससे कि सर्वहारा अधिनायकत्व का शासन व्यापक मेहनतकश जनसमुदायों तक पहुँचेगा। इसी पूरी व्यवस्था को लेनिन “दन्तचक्रों” और “संचरण पट्टियों” की व्यवस्था कहते हैं, जो कि पार्टी और समूची मेहनतकश आबादी के बीच सर्वहारा अधिनायकत्व के अन्तर्गत काम करती है। आगे देखें:

“यह कम्युनिज़्म से सीधे तौर पर रिश्ता तोड़ना है और संघाधिपत्यवाद की ओर संक्रमण है। सारतः, यह श्ल्याप्निकोव के उसी नारे “राज्य का यूनियनीकरण कर दो” का दुहराव है, और इसका अर्थ है टुकड़े-टुकड़े में सर्वोच्च आर्थिक परिषद (वेसेंखा) के पूरे ढाँचे को सम्बन्धित ट्रेड यूनियनों के हवाले कर देना…कम्युनिज़्म कहता हैः कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की हिरावल है, वह गै़र-पार्टी मज़दूर जनसमुदायों का नेतृत्व करती है, शिक्षित करते, तैयार करते, ज्ञान और प्रशिक्षण देते हुए जनसमुदायों को पहले मज़दूरों और फिर किसानों को नेतृत्व देती है, ताकि वह उन्हें पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रशासन को अपने हाथों में केन्द्रित करने के योग्य बना सके।

“संघाधिपत्यवाद उद्योगों में विखण्डित गैर-पार्टी मज़दूर जनसमुदायों को उनके उद्योगों के प्रबन्धन का काम सौंप देता है, और इस प्रकार पार्टी को गै़र-ज़रूरी बना देता है, और इस प्रक्रिया में वह जनसमुदायों को प्रशिक्षित करने का कोई लम्बा अभियान चला पाने में भी असफल हो जाता है, और वास्तव में उनके हाथों में पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन को केन्द्रित कर पाने में भी असफल हो जाता है।….अगर औद्योगिक प्रबन्धन के लोगों को ट्रेड यूनियनों के ही द्वारा, जिनके हर दस सदस्यों में से नौ गै़र-पार्टी मज़दूर हैं, नियुक्त करना है (“बाध्यताकारी नामांकन”), तो पार्टी की क्या ज़रूरत है?” (लेनिन, दि पार्टी क्राइसिस, ‘ऑन ट्रेड यूनियंस’, छठाँ मुद्रण, 1986, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृ. 399-400)

सुजीत दास पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन में नकारते हैं। उनकी यह माँग कि ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों को उत्पादन के साधनों का नियन्त्रण दिया जाय,’ दो स्तरों पर ग़लत है। एक तो यह कि पार्टी के ज़रिये सर्वहारा राज्य का पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर नियन्त्रण सर्वहारा वर्ग द्वारा उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण की शुरुआत है और इसके लिए पार्टी और राज्य के वर्ग चरित्र को समझने की ज़रूरत है। दूसरी बात यह कि अगर प्रत्यक्ष उत्पादकों (इस शब्द पर लेनिन ने आपत्ति करते हुए श्ल्याप्निकोव की सख़्त आलोचना की थी और कहा था कि समस्त प्रत्यक्ष उत्पादकों में टटपुँजिया उत्पादकों की एक बहुत बड़ी आबादी आती है और उनके किसी एक निकाय की रूस जैसे देश में नियन्त्रक और संचालक निकाय के रूप में बात नहीं की जा सकती है, क्योंकि उसमें सर्वहारा वर्ग अल्पसंख्या में होगा) का तत्काल उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण स्थापित किया जाय, तो वह क्या रूप लेगा? जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं, वह बिना सर्वहारा अधिनायकत्व और सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व के स्थापित हुए, कारखानों और खानों-खदानों को अलग-अलग कारखाना समितियों या अलग-अलग ट्रेड यूनियनों को सौंपने के रूप में अस्तित्व में आयेगा। इसी चीज़ का लेनिन ने सख़्त विरोध किया था और इसी के चलते बोल्शेविक पार्टी ने राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए सर्वोच्च आर्थिक परिषद (वेसेंखा) बनायी थी, जो कि पार्टी और सोवनार्कोम (जनकमिसार परिषद) के निर्देशन में काम करती थी। लेनिन ने स्पष्ट किया कि सर्वोच्च आर्थिक परिषद में कारखाना कमेटियों, ट्रेड यूनियनों और सोवियतों के प्रतिनिधियों के अलावा, पार्टी के प्रतिनिधि, प्रबन्धक, तकनीशियन आदि शामिल होंगे। कुल मिलाकर, पार्टी, ट्रेड यूनियनों और कारखाना समितियों के प्रतिनिधि उसमें बहुसंख्या में थे, और पार्टी का नियन्त्रण सर्वोच्च था। समाजवादी निर्माण के पूरे आरम्भिक दौर में, ख़ास तौर पर पिछड़े पूँजीवादी देशों में क्रान्ति के बाद, सर्वहारा अधिनायकत्व इसी रूप में काम कर सकता है। लेनिन इस बात को समझते थे और इसीलिए श्ल्याप्निकोव द्वारा राज्य और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को ट्रेड यूनियनों के हाथों मे सौंप देने के प्रस्ताव को अराजकतावादी और संघाधिपत्यवादी प्रस्ताव मानते थे। लेकिन सुजीत दास सोवियत इतिहास और राजनीतिक लेखन का अध्ययन करने की बजाय उसका आविष्कार करने पर आमादा हैं। उनका दावा है कि सोवियत राजनीतिक लेखन में पार्टी की ऐसी नेतृत्वकारी भूमिका के बारे में कहीं नहीं लिखा गया और यह कहते हुए वह पूरी तरह अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अवस्थिति पर जाकर खड़े हो जाते हैं। और इस अवस्थिति के बारे में लेनिन का ही क्या कहना है, उस पर ग़ौर करें:

“इस भटकाव की सैद्धान्तिक रूप से सबसे पूर्ण और स्पष्ट रूप से परिभाषित अभिव्यक्ति तथाकथित ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ ग्रुप की थीसिसें और साहित्यिक उत्पाद हैं। मिसाल के तौर पर, इसको इस ग्रुप द्वारा प्रतिपादित निम्न थीसिस इसको पर्याप्त साफ़ तरीके से चित्रित कर देती हैः “राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन को संगठित करने का काम एक अखिल-रूसी उत्पादक कांग्रेस का है जो कि औद्योगिक यूनियनों में संगठित होगी, जो कि वास्तव में गणराज्य की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिए एक केन्द्रीय निकाय का चुनाव करेंगी।” इस और कई ऐसे ही कथनों की बुनियाद में जो विचार हैं वे सिद्धान्ततः मूल रूप में ग़लत हैं, और वास्तव में वे मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म से एक सम्पूर्ण विच्छेद को दिखलाते हैं…

“मार्क्सवाद बताता है…कि केवल मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी, यानी कम्युनिस्ट पार्टी ही सर्वहारा वर्ग के हिरावल और साथ ही समूची मेहनतकश आबादी को एकजुट करने, प्रशिक्षित करने और संगठित करने में सक्षम है, जो कि एकमात्र शक्ति है जो इस जनसमुदाय के अपरिहार्य टटपुँजिया दोलनों और सर्वहारा वर्ग के भीतर मौजूद संकीर्ण पेशा-केन्द्रित यूनियनवाद या पेशागत पूर्वाग्रहों का प्रतिरोध करने, और साथ ही समूचे सर्वहारा वर्ग की एकजुट गतिविधियों को निर्देशित करने में सक्षम होगी, यानी कि उसे राजनीतिक रूप से नेतृत्व देने, और इसके ज़रिये समूची मेहनतकश आबादी के सभी जनसमुदायों को नेतृत्व देने में सक्षम होगी। इसके बिना सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व असम्भव है।…संघाधिपत्यवादी और अराजकतावादी एक तात्कालिक नारे के तौर पर कहते हैं “उत्पादकों की कांग्रेस या कांग्रेसें” जो कि आर्थिक प्रबन्धन के निकायों का “चुनाव करें”। इस प्रकार, सर्वहारा वर्ग की ट्रेड यूनियनों के सम्बन्ध में, ट्रेड यूनियनों के मेहनतकश जनता के अर्द्ध-टटपुँजिया या यहाँ तक कि पूरी तरह से टटपुँजिया जनसमुदायों से सम्बन्ध में, पार्टी की शिक्षणात्मक और संगठनात्मक भूमिका को पूरी तरह से गोल कर दिया गया है, ख़त्म कर दिया गया है, और अर्थव्यवस्था के नये रूपों के निर्माण के उस व्यावहारिक कार्य को जारी रखने और उसे सही करने की बजाय, जिसे कि सोवियत राज्यसत्ता ने पहले से ही शुरू कर दिया है, हमें इस काम में टटपुँजिया अराजकतावादी विघ्न मिलता है, जो कि केवल बुर्जुआ प्रतिक्रान्ति की तरफ़ ही ले जा सकता है।” (लेनिन, प्रिलिमिनरी ड्राफ्ट रिज़ोल्यूशन ऑफ दि टेन्थ कांग्रेस ऑफ आर.सी.पी. ऑन दि सिंडिकलिस्ट एण्ड एनार्किस्ट डेवियेशन इन अवर पार्टी, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1986, पृ. 458-60) लेनिन ने स्पष्ट तौर पर यहाँ भी हिरावल पार्टी को ही वह प्रमुख उपकरण बताया है जिसके ज़रिये सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व समाजवादी संक्रमणकाल के दौरान अर्थव्यवस्था और राजनीति में लागू होगा। अगले उद्धरण में लेनिन इस बारे में शक़ की सभी गुंजाइशों को ख़त्म कर देते हैं:

“राज्य एक दमन का उपकरण है। दमन को छोड़ने की बात भी करना पागलपन होगा, ख़ास तौर पर, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के युग में, क्योंकि प्रशासनात्मक पहुँच और “जहाज़ का संचालन” अपरिहार्य हैं। पार्टी सर्वहारा वर्ग की नेता है, उसकी हिरावल है, जो कि प्रत्यक्ष रूप में शासन करती है।…ट्रेड यूनियनें राज्यसत्ता की शक्ति का भण्डार हैं, एक कम्युनिज़्म का स्कूल हैं, प्रबन्धन की कला का स्कूल हैं।” (लेनिन, ‘एक बार फिर से ट्रेड यूनियनों, वर्तमान स्थिति और ट्रॉट्स्की व बुखारिन की ग़लतियों के बारे में’, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, अंग्रेज़ी संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1986, पृ. 447-48)

मार्च 1919 में आठवीं पार्टी कांग्रेस में पार्टी का जो इस बारे में नज़रिया था वह और भी साफ़ थाः

“कम्युनिस्ट पार्टी वह संगठन है जो अपनी कतारों के सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग और निर्धनतम किसान आबादी के हिरावल को एकजुट करता है इन वर्गों के वे हिस्से जो सचेतन तौर पर कम्युनिस्ट कार्यक्रम को व्यवहार में एक असलियत में तब्दील करने के लिए संघर्ष करते हैं।

“कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूरों के सभी संगठनों: ट्रेड यूनियनों, सहकारी संघों में, गाँव के कम्यूनों आदि में, निर्णायक प्रभाव और पूर्ण नेतृत्व स्थापित करने को अपना लक्ष्य बनाती है। कम्युनिस्ट पार्टी विशेष तौर पर अपने कार्यक्रम और पूर्ण नेतृत्व को समकालीन राज्य संगठनों, यानी कि सोवियतों, में स्थापित करने के लिए संघर्ष करती है।

“…रूसी कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियतों में अविभाजित राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करना ही होगा और इसके सभी कार्यों पर व्यावहारिक नियन्त्रण कायम करना ही होगा।” (मार्च, 1919, आठवीं पार्टी कांग्रेस के दस्तावेज, ई.एच. कार द्वारा ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन 1917-1923’ के पहले खण्ड में उद्धृत, पृ. 219) यहाँ देखा जा सकता है कि पार्टी किसी भी रूप में ट्रेड यूनियनों या सोवियतों की स्वतःस्फूर्तता की पूजक नहीं थी। वह जानती थी कि वह स्वयं सर्वहारा वर्ग के उन्नततम और जुझारू तत्वों का दस्ता है, और केवल ऐसा दस्ता ही वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। ऐसे में, व्यापक आबादी को समेटने वाले सभी निकायों में पार्टी को अपना राजनीतिक और विचारधारात्मक वर्चस्व स्थापित करना ही होगा, अन्यथा वह स्वयं सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को नष्ट करने की तरफ़ आगे बढ़ जायेगी। लेकिन सुजीत दास के नज़रिये से यह सब पार्टी नामक शैतानी शक्ति द्वारा सोवियतों और ट्रेड यूनियनों जैसी पवित्र जनसंस्थाओं में कुत्सित हस्तक्षेप है! उनका प्रदूषण है! लेकिन कम-से-कम लेनिन और बोल्शेविक पार्टी का ऐसा नज़रिया नहीं था।

जब कोमिण्टर्न में 1920 में ट्रॉट्स्की बोल्शेविक पार्टी की नुमाइन्दगी कर रहे थे तो उन्होंने एक बयान दिया जो कि उस समय की स्थिति और लेनिनवादी अवस्थिति की ओर इंगित करता है। निश्चित तौर पर, इस बात को अगर लेनिन को कहना होता तो वह इन शब्दों में नहीं कहते, वह इसे अधिक द्वन्द्वात्मक तरीके से रखते। लेकिन ट्रॉट्स्की के अपने पूर्वाग्रह भी इस कथन में आ गये हैं, जो कि वास्तव में जनता और पार्टी के बीच में रिश्तों की उनकी गैर-द्वन्द्वात्मक समझदारी को दिखलाते हैं। लेकिन इन सभी चीज़ों के बावजूद यहाँ ट्रॉट्स्की के अन्दाज़े-बयाँ पर ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया जा सकता है। इसमें मुख्य बात यह है कि पार्टी के नेतृत्वकारी कार्य को किसी भी रूप में कम करके नहीं आँका जा सकता और सर्वहारा राज्य के नीति-निर्धारण के काम को मेहनतकश जनसमुदायों की स्वतःस्फूर्तता पर नहीं छोड़ा जा सकता है। इसलिए, ट्रॉट्स्की ने 1920 में कोमिण्टर्न की दूसरी कांग्रेस को बोल्शेविक पार्टी की तरफ से बतायाः

“आज हमें पोलिश सरकार की ओर से शान्ति समझौता करने के प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं। इस प्रश्न पर कौन फैसला लेगा? हमारे पास सोवनार्कोम है, लेकिन इसे किसी न किसी नियन्त्रण के अधीन होना चाहिए। किस नियन्त्रण के? क्या मज़दूर वर्ग के एक बिना किसी आकृति वाले और अराजकतापूर्ण जनसमुदाय के नियंत्रण के तहत? नहीं। पार्टी की केन्द्रीय कमेटी को इस प्रस्ताव पर विचार करने और इस पर विचार करने कि इसका जवाब दिया जाय या नहीं, के लिए बुलाया गया है।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 220)। नवीं पार्टी कांग्रेस में कामनेव ने भी पार्टी की इस समझदारी को फिर से रेखांकित किया, “रूस में व्यवस्था को हम चलाते हैं, और कम्युनिस्टों के ज़रिये ही हम इस काम को कर सकते हैं।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 222)। लेकिन साथ ही बोल्शेविक पार्टी इस ख़तरे के प्रति भी सचेत थी कि पार्टी सोवियतों का स्थान न ले क्योंकि इससे सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और सर्वहारा वर्ग की राज्यसत्ता के बीच का फर्क ख़त्म हो जायेगा और पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका समाप्त हो जायेगी। आठवीं कांग्रेस में कहा गया कि यह पार्टी का कर्तव्य है कि वह “सोवियतों की गतिविधि की अगुवाई करे, लेकिन यह उनकी जगह नहीं ले सकती।” (वही, पृ. 222-23)। लेनिन ने भी एक अन्य स्थान पर स्पष्ट किया, “शासक पार्टी के तौर पर, हम सोवियत ‘प्राधिकारी संस्थाओं’ को पार्टी ‘प्राधिकारों’ को मिलाने से नहीं बच सकते  वे हमारे साथ संलयित हैं, और ऐसा तो होगा ही।” (वही, पृ. 223)

1919 में लेनिन ने उन सभी लोगों की सख़्त आलोचना की जो रूस में पार्टी की तानाशाही की बात कर रहे थे (जैसा कि आज भारत में सुजीत दास और उनके जैसे तमाम अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी कर रहे हैं)। उन्होंने लिखाः “हाँ, एक पार्टी की तानाशाही! हम इस पर कायम हैं और इससे हट नहीं सकते, क्योंकि यह पार्टी ही है जिसने कई दशकों में समूचे कारखाना और औद्योगिक सर्वहारा के हिरावल की स्थिति को हासिल किया है।” (वही, पृ. 230)। उन्होंने आगे कहा कि “मज़दूर वर्ग की तानाशाही को बोल्शेविकों की पार्टी के ज़रिये प्रभाव में लाया जाता है, जो कि 1905 से या उससे भी पहले से समूचे क्रान्तिकारी सर्वहाराओं के साथ एकजुट हो चुकी है।” (वही, पृ. 230)। इसी विषय में एक अन्य स्थान पर लेनिन मानो सुजीत दास जैसे छद्म बुद्धिजीवियों को ही जवाब देते हुए लिखते हैं: “इस सवाल “पार्टी की तानाशाही या वर्ग की तानाशाही, नेताओं की तानाशाही (पार्टी) या जनसमुदायों की तानाशाही (पार्टी)?”को पेश करना ही सबसे अविश्वस्नीय और हताशापूर्ण दिमाग़ी वहम का सबूत है। लोग साधारण चीज़ों में से ही कुछ आविष्कार करने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देते हैं, और समझदार बनने के प्रयास में वे हास्यास्पद बन जाते हैं। हर कोई जानता है कि जनसमुदाय वर्गों में विभाजित हैं; कि जनसमुदायों का वर्गों से अन्तर आम तौर पर व्यापक बहुसंख्या का, उत्पादन के सामाजिक तन्त्र में उनकी अवस्थिति के अनुसार विभाजित किये बग़ैर, उन श्रेणियों से अन्तर बताकर ही किया जा सकता है, जो कि उत्पादन की सामाजिक व्यवस्था में एक निश्चित अवस्थिति पर काबिज़ होते हैं; कि आम तौर पर, अधिकांश मामलों में, कम-से-कम आधुनिक सभ्य समाजों में, वर्गों का नेतृत्व राजनीतिक पार्टियों द्वारा किया जाता है; कि राजनीतिक पार्टियाँ एक सामान्य नियम के रूप में सबसे प्राधिकार-सम्पन्न, प्रभावशाली और अनुभवी सदस्यों के कमोबेश स्थायी समूहों द्वारा निर्देशित होती हैं, जिनका सबसे जिम्मेदार पदों पर चुनाव होता है और जिन्हें नेता कहा जाता है। यह सब ‘क ख ग’ के समान है। यह सब एकदम सरल और स्पष्ट है।” (लेनिन, लेनिन एण्ड स्तालिन ऑन दि पार्टी में उद्धृत, राहुल फाउण्डेशन, 2008, पृ. 30) इसी बात को स्पष्ट करते हुए लेनिन आगे लिखते हैं: “दूसरी तरफ, हम यहाँ अब “फैशनेबल” शब्दों जैसे “जनता” और “नेता” का बिना सोचे-समझे किया जाने वाला और बेमेल इस्तेमाल देखते हैं। लोगों ने “नेताओं” पर ऐसे हमलों के बारे काफ़ी सुना है और अब वे उसके आदी हो गये हैं, जिसमें उन्हें “जनता” के विरोध में खड़ा कर दिया जाता है; लेकिन ऐसी बातें करने वाले लोग यह सोचने और अपने आपको ही यह समझा पाने में असफल थे कि इस सबका मतलब क्या है।” (वही, पृ. 31)

सुजीत दास जैसे तमाम लोगों के इस भ्रम को लेनिन तोड़ देते हैं कि मज़दूर वर्ग उत्पादन और शासन सम्बन्धी निर्णयों को तुरन्त लेने लगेगा और समाजवादी राज्य शुरू से ही ‘अराज्य’ में तब्दील होने लगेगा। लेनिन का स्पष्ट मानना था कि समाजवादी संक्रमण के पूरे आरम्भिक कालखण्ड में राज्य न सिर्फ़ मौजूद रहेगा, बल्कि यह और ज़्यादा ताक़तवर बनाया जायेगा, ताकि बुर्जुआ वर्ग के प्रतिरोध और उसकी विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक रूप से ध्वस्त किया जा सके। सातवीं पार्टी कांग्रेस में, जो कि 1918 में हुई थी, लेनिन ने कहाः

“वर्तमान रूप में हम बिना शर्त एक राज्यसत्ता के पक्ष में हैं; और जहाँ तक उन्नत रूप में समाजवाद के वर्णन दिये जाने के सवाल है, जिसमें कोई राज्य नहीं होगा उसके बारे में सिवाय इस बात के और कुछ भी कल्पना नहीं की जा सकती कि तब “सभी से उनकी क्षमता के अनुसार और सभी को उनकी आवश्यकता के अनुरूप” का सिद्धान्त एक हक़ीक़त बन चुका होगा। लेकिन अभी हम उस मंजिल से बहुत दूर हैं…उससे पहले राज्य के ख़त्म होते जाने की बात करना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का उल्लंघन होगा।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 246) आगे लेनिन इसी बात को और खोलकर कहते हैं, “क्या हर मज़दूर जानता है कि राज्य का संचालन कैसे करना है? व्यावहारिक लोग जानते हैं कि यह बस एक परिकथा है…ट्रेड यूनियनें कम्युनिज़्म और प्रशासन का स्कूल हैं। जब वे (यानी मज़दूर) इस स्कूल में कई वर्ष बितायेंगे, तो ही वे सीखेंगे, लेकिन यह सब कुछ बहुत धीमे-धीमे होता है…कितने मज़दूर अभी प्रशासन के कामों में लगे हैं? पूरे रूस में कुछ हज़ार, इससे ज़्यादा नहीं।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 247)

लेनिन ने स्पष्ट किया कि इसीलिए सोवियतों को तत्काल राज्य के सारे कार्य नहीं सौंपे जा सकते। यह काम लम्बे समय तक पार्टी को सोवियतों की अगुवाई करते हुए करना होगा। बिना पार्टी के नेतृत्व के अगर सोवियतों को राज्यसत्ता का प्रमुख उपकरण बना दिया गया तो उनके बुर्जुआ सोवियतों में तब्दील होने में ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा। लेनिन के पास भी यह नतीजा बने-बनाये तौर पर मौजूद नहीं था। रूस में समाजवाद के प्रयोग के पहले दो वर्षों में लेनिन इस नतीजे पर पहुँचे कि पेरिस कम्यून के मॉडल को तत्काल नहीं लागू किया जा सकता। 1921 में दसवीं पार्टी कांग्रेस में वह कहते हैं, “सोवियत सत्ता के ढाई वर्षों के बाद हम कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल में आये और हमने दुनिया को बताया कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व पार्टी के ज़रिये न लागू किया जाय तो वह काम ही नहीं करेगा।” (लेनिन, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-32, अंग्रेज़ी संस्करण, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, पृ.199)।

लेनिन ने साथ में यह भी स्पष्ट किया कि इसका अर्थ यह नहीं होगा कि वर्ग शासन नहीं कर रहा है, और पार्टी शासन कर रही है। लेनिन ने कहा कि पार्टी और वर्ग की एकजुटता को देखने की बजाय उन्हें एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा कर देने की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी प्रवृत्ति वास्तव में सर्वहारा अधिनायकत्व और समाजवादी संक्रमण के दीर्घकालिक चरित्र के बारे में कुछ भी नहीं समझती है। अगर पूँजीवादी पुनर्स्थापना को रोकना है तो सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण पार्टी ही हो सकती है और उसकी संस्थाबद्ध नेतृत्वकारी भूमिका के बिना सर्वहारा अधिनायकत्व टिक ही नहीं सकता है। ऐसे में, निश्चित तौर पर कई बार ऐसे मौके आ सकते हैं जब हिरावल पार्टी और व्यापक मेहनतकश आबादी के किसी हिस्से के बीच के सम्बन्ध दमन के सम्बन्ध बन जायें। कुछ मौकों पर इनसे बचा जा सकता है और कुछ मौकों पर नहीं। इस बात का कोई बना-बनाया फार्मुला नहीं हो सकता कि समाजवादी संक्रमण के दौर में ऐसा न हो। क्रोंस्टाट विद्रोह के कुचले जाने पर लेनिन के विचारों को देखा जा सकता है और साथ ही सुजीत दास जैसे सभी अराजकतावादियों को किसान प्रश्न के समाधान के बारे में भी लेनिन के विचारों का अध्ययन करना चाहिए। जो यह मानकर चलता है कि समाजवादी संक्रमण के दौरान ऐसी स्थितियाँ नहीं पैदा हो सकतीं, उसने समाजवाद के बारे में बेहद गुलाबी सपने सजा रखे हैं, जिनका टूटना अवश्यम्भावी है।

लेनिन निश्चित तौर पर पार्टी को अचूक और अमोघ नहीं मानते थे। उनका मानना था कि पार्टी वर्ग की सामूहिक इच्छा के प्रतिनिधित्व का दावा तभी कर सकती है जबकि वह सर्वहारा वर्ग के सबसे उन्नत और जुझारू तत्वों को अपने में शामिल करती हो, जब वह सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण (यानी, मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों) को आत्मसात करती हो, उसका मूर्त रूप हो, और जब वह आम मेहनतकश जनता से एक जीवन्त रिश्ता बरकरार रखती हो। इसीलिए अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पार्टी का शुद्धीकरण’ में वह लिखते हैं, “…पार्टी को उन लोगों से शुद्ध कर दिया जाना चाहिए जो जनसमुदायों से सम्पर्क खो चुके हों…स्वाभाविक है, कि हम हर उस बात को नहीं मानेंगे जोकि जनता कहती है, क्योंकि जनता भी खास तौर पर अपवादस्वरूप थकान और श्रान्ति की अवधियों में, जो कि अत्यधिक कठिनाइयों और तकलीफ़ों से पैदा होती है ऐसी भावनाओं के सामने समर्पण कर देती है, जो कि किसी भी रूप में उन्नत नहीं होतीं।” (लेनिन, ‘पर्जिंग दि पार्टी’, कलेक्टेड वर्क्स, दूसरा अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड-33, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 39-41)। स्तालिन ने इसी सोच के सिरे को आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि सोवियत संघ में ट्रेड यूनियनें और सोवियतें ही निर्णय लेती थीं, लेकिन ऐसा वह पार्टी के नेतृत्व में करती थीं। इस रूप में देखा जाय तो सर्वहारा वर्ग की तानाशाही वास्तव में पार्टी की तानाशाही दिख सकती है। लेकिन यह वास्तव में पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका है और इस नेतृत्वकारी भूमिका के बिना सर्वहारा अधिनायकत्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, हालाँकि दोनों के बीच ‘बराबर’ का चिन्ह कभी नहीं लगाया जा सकता है। स्तालिन कहते हैं कि मूल समस्या यह है कि पार्टी अपने सर्वहारा चरित्र को कायम रखने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये और जनसमुदायों के साथ करीबी रिश्ता बनाये रखे। वास्तव में, स्तालिन ने इसके लिए पार्टी में लगातार नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष किया और कई बार वह सफल नहीं हो पाये। लेकिन स्वयं स्तालिन का दृष्टिकोण इस सवाल पर बिल्कुल साफ़ था। देखिये स्तालिन क्या लिखते हैं:

“…पार्टी को करीबी से जनता की आवाज़ पर ध्यान देना चाहिए; उसे जनसमुदायों के क्रान्तिकारी स्वभाव पर ध्यान देना चाहिए; इसे जनसमुदायों के संघर्ष के व्यवहार का अध्ययन करना चाहिए और इस आधार पर अपनी नीति के सहीपन की जाँच करनी चाहिए; और परिणामतः इसे केवल जनता को सिखाना ही नहीं चाहिए बल्कि उससे सीखना भी चाहिए।” (स्तालिन, ‘लेनिनवाद के सवालों के विषय में’ ‘वर्क्स’ खण्ड-8, फॉरेन लैंग्वेजेज़ प्रेस, मॉस्को, 1954, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 46)। एक अन्य स्थान पर स्तालिन लिखते हैं, “क्या पार्टी के नेतृत्व को वर्ग के ऊपर बलपूर्वक स्थापित किया जा सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। किसी भी सूरत में, ऐसा नेतृत्व टिकाऊ बिल्कुल नहीं हो सकता। अगर पार्टी सर्वहारा वर्ग की पार्टी बने रहना चाहती है, तो इसे यह समझना होगा कि वह प्राथमिक और प्रमुख तौर पर, मज़दूर वर्ग की मार्गदर्शक, नेता, और शिक्षक है…क्या कोई पार्टी को वर्ग का वास्तविक नेता मान सकता है, अगर उसकी नीति ग़लत है, अगर उसकी नीति वर्ग के हितों के साथ टकराती हैं? जाहिरा तौर पर नहीं। किसी भी सूरत में अगर पार्टी को नेता बने रहना है, तो इसे अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए, उसे सही करना चाहिए और अपनी ग़लती मानकर उसे सही करना चाहिए।” (वही, पृ. 52-53)। ‘लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धान्त’ में स्तालिन पार्टी के बारे में लिखते हैं: “पार्टी मज़दूर वर्ग की हिरावल होती है…पार्टी मज़दूर वर्ग का उन्नत संगठित दस्ता होती है। पार्टी सर्वहारा वर्ग के वर्ग संगठन का उन्नततम रूप होती है। पार्टी मज़दूर वर्ग की राजनीतिक नेता है।…(पार्टी) सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को हासिल करने, और (समाजवाद की विजय के बाद) सर्वहारा अधिनायकत्व के सुदृढ़ीकरण और विस्तार करने के लिए सर्वहारा वर्ग का उपकरण है।” (स्तालिन, ‘फाउण्डेशंस ऑफ लेनिनिज़्म’, वर्क्स, खण्ड-6, फॉरेन लैंग्वेजेज़ प्रेस, मॉस्को, 1953, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 177-89)।

पार्टी के चरित्र और प्रकृति को लेकर सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भयंकर विभ्रमों के शिकार होते हैं। उनकी यह आम प्रवृत्ति होती है कि वे पार्टी और वर्ग को एक-दूसरे के खि़लाफ़ खड़ा कर देते हैं। इस विभ्रम बारे में लेनिन ने बार-बार लिखा और ‘क्या करें?’ और ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ उनके इस विषय में विचारों को देखने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्रोत हैं। लेनिन लिखते हैं, “मज़दूर वर्ग के हिरावल के तौर पार्टी को कभी भी समूचे वर्ग के साथ गड्ड-मड्ड नहीं किया जाना चाहिए…ठीक इसलिए चूँकि गतिविधि के स्तरों में फर्क हैं, पार्टी से करीबी के स्तर में एक फर्क किया जाना चाहिए। हम एक वर्ग की पार्टी हैं, और इसलिए लगभग समूचे वर्ग को (और युद्ध के दौर में, गृहयुद्ध के दौर में, पूरे वर्ग को) पार्टी के नेतृत्व के तहत काम करना चाहिए, हमारी पार्टी के साथ निकटतम सम्भव तरीके से जुड़ जाना चाहिए।” (लेनिन, एक कदम आगे, दो कदम पीछे, मॉस्को, 1969, पृ. 122-23)। लेनिन ने कोमिण्टर्न की दूसरी कांग्रेस में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका पर अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भटकाव का खण्डन करते हुए कहा, “टैनर का कहना है कि वह सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के पक्ष में है, लेकिन इस अधिनायकत्व की उसी प्रकार परिकल्पना नहीं की गयी है, जैसे कि हम करते हैं। वह कहते हैं कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व से हमारा मतलब सर्वहारा वर्ग की संगठित और वर्ग सचेत अल्पसंख्या की तानाशाही से है।

“और तथ्यतः पूँजीवाद के युग में जब मज़दूरों की व्यापक आबादी शोषण के निरन्तर अधीन होती है और अपनी मानवीय सम्भावनाओं का विकास नहीं कर पाती, तो मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टियों का सबसे चारित्रिक गुण यह होता है कि वे वर्ग की एक छोटी सी अल्पसंख्या को ही समेटती हैं। एक राजनीतिक पार्टी केवल वर्ग की अल्पसंख्या को ही समेट सकती है, ठीक उसी प्रकार जैसे कि हर पूँजीवादी समाज में वर्ग सचेत मज़दूर कुल मज़दूर आबादी की एक छोटी सी अल्पसंख्या ही हो सकते हैं। इसीलिए हमें मानना ही चाहिए कि केवल यह वर्ग सचेत अल्पसंख्या ही मज़दूरों के व्यापक जनसमुदायों को नेतृत्व दे सकती है और उनका मार्गदर्शन कर सकती है।” (लेनिन, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड 32, अंग्रेज़ी संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 235)। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी सर्वहारा वर्ग के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को अपने में शामिल करती है, सर्वहारा वर्ग के संघर्षों में सतत् भागीदारी करती है, मार्क्सवाद को अपने मार्गदर्शक सिद्धान्त के तौर पर अपनाती है और सर्वहारा वर्ग के विश्व दृष्टिकोण का मूर्त रूप होती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि पार्टी सर्वहारा वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। निश्चित तौर पर, क्रान्ति से पूर्व पार्टी में सर्वहारा वर्ग का एक बेहद छोटा हिस्सा शामिल होता है, जो कि सर्वहारा वर्ग का सबसे वर्ग सचेत, उन्नत और जुझारू हिस्सा है। लेकिन ठीक इसी कारण से यह उन्नत दस्ता सर्वहारा वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसके अलावा आप और किसी भी रूप में क्रान्तिकारी राजनीतिक की कल्पना नहीं कर सकते।

जाहिरा तौर पर, ऐसी सूरत में पार्टी में जो नौकरशाही प्रवृत्तियाँ पैदा होंगी, उनके ख़ात्मे का सवाल पार्टी द्वारा किसी कार्यकारी निर्णय का सवाल नहीं है। पार्टी निर्णय पास करके या प्रस्ताव पास करके इन विकृतियों को दूर नहीं कर सकती है। क्योंकि उसने निर्णय पास करके इन विकृतियों को पालना भी नहीं शुरू किया था। यह समाज में जनता के उन्नत और पिछड़े हिस्सों के बीच मौजूद अन्तर का ही एक प्रतिबिम्बन होता है। यह अन्तर वर्ग समाज के भीतर ख़त्म हो ही नहीं सकता। समाजवादी संक्रमण के दौरान यह तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के दूर होने के साथ ही क्रमिक प्रक्रिया में विलोपित हो सकता है। इसके पूरे विलोपन की मंजिल कम्युनिस्ट समाज में ही आ सकती है। लेकिन तब तक न तो पार्टी की ज़रूरत होगी और न ही राज्य की! इसलिए एक वर्ग समाज (जिसमें कि समाजवादी संक्रमणशील समाज शामिल है) के रहते हुए अगुआ और पिछड़े के बीच का फर्क, आम जनसमुदायों और नेतृत्व के बीच का फर्क और हिरावल और वर्ग के पिछड़े हिस्सों के बीच का फर्क मौजूद रहेगा। और यदि अन्तर मौजूद होगा तो निश्चित तौर पर दोनों के बीच एक सम्बन्ध स्थापित होगा। दोनों के बीच अन्तरविरोध का भी एक तत्व ऐतिहासिक-दार्शनिक तौर पर मौजूद होगा। जाहिरा तौर पर, समूचा वर्ग यदि स्वतःस्फूर्त रूप से सर्वहारा अवस्थिति पर पहुँच जाता तो, क्रान्ति के पहले और बाद में भी पार्टी की कोई आवश्यकता नहीं होती। और चूँकि पार्टी या हिरावल सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण का मूर्त रूप है और सर्वहारा वर्ग का उन्नत दस्ता है, इसलिए सर्वहारा वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करने के कार्य पर उसका दावा ऐतिहासिक और राजनीतिक तौर पर पूर्णतः वैध है। इस दावे पर मज़दूर वर्ग को अपने आपमें कोई असुविधा या आपत्ति नहीं होती है, न कभी हुई है! इस पर दिक्कत होती है ट्रेड यूनियनवादियों, अराजकतावादियों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी टटपुँजिया बुद्धिजीवियों को, जैसे कि श्री सुजीत दास! ऐसे लोग ही मज़दूर वर्ग में यह प्रदूषण फैलाते हैं, और जो ऐतिहासिक तौर पर वैध और नैसर्गिक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है, उसे अवैध और अनैसर्गिक बना देते हैं। निश्चित तौर पर, सर्वहारा वर्ग के हिरावल के लिए अपनी इस विशिष्ट जिम्मेदारी और कार्य के कारण अपने भीतर पैदा होने वाली नौकरशाहाना विकृति से संघर्ष करना एक गम्भीर मुद्दा है, जिसे जनसमुदायों से जीवन्त रिश्ता बनाये रखकर और उसने सीखते हुए उन्हें सिखाने के दृष्टिकोण को अपनाकर ही हल किया जा सकता है। यह एक सतत् विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष का मसला है। जिन्होंने इन्हें आनन-फानन में दूर कर देने का दावा किया उनकी लेनिन ने खूब खिल्ली उड़ाईः

“हमारे 1919 के कार्यक्रम में हमने लिखा था कि नौकरशाहाना प्रथाएँ मौजूद हैं। जो भी आता है और इन नौकरशाहाना प्रवृत्तियों पर रोक लगाने की माँग करता है, वह जनोत्तेजक नेता बन रहा है। जब आपने “नौकरशाही प्रथाओं पर रोक लगाने” का आह्नान किया, तो वास्तव में यह जनोत्तेजक भाषणबाज़ी थी। हम आने वाले कई वर्षों तक नौकरशाही की बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ते रहेंगे, और जो कोई भी कुछ और सोचता है वह जनोत्तेजक नेता बन रहा है और धोखा दे रहा है, क्योंकि नौकरशाही की बुराइयों को दूर करने के लिए सैकड़ों कदमों की आवश्यकता होगी, पूर्ण साक्षरता और संस्कृति और मज़दूर-किसान जाँच की गतिविधियों में भागीदारी की ज़रूरत होगी। श्ल्याप्निकोव उद्योग व व्यापार के जनकमिसार और श्रम के जनकमिसार रहे हैं। क्या उन्होंने नौकरशाहाना प्रथाओं पर रोक लगा दी है?” (लेनिन, ‘दि सेकेण्ड ऑल रशिया कांग्रेस ऑफ माइनर्स’, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, अंग्रेज़ी संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. )। लेनिन ने अन्य जगहों पर स्पष्ट लिखा है कि जब तक व्यापक मेहनतकश जनता का सांस्कृतिक स्तर और राजनीतिक चेतना का स्तर नीचे रहेगा तब तक कानून या आज्ञप्तियों को पास करके नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्जुआ विरूपताओं को दूर कर देने की बात करना कोरी बकवास है। जब तक मानसिक और शारीरिक श्रम, गाँव और शहर और उद्योग और कृषि का विभेद कायम रहेगा, तब तक यह सम्भव ही नहीं है। तब तक पार्टी के ज़रिये ही सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व लागू हो सकता है, और अन्य किसी भी चीज़ की बात करना अनर्गल बकबक है, जो कि सुजीत दास और उनके समान सभी अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी लगातार ही करते रहते हैं। और जब ये विभेद मिट जायेंगे, पूँजीवादी श्रम विभाजन, बुर्जुआ विशेषाधिकार, विनिमय सम्बन्ध आदि ख़त्म हो जायेंगे तो वर्ग विभेद भी ख़त्म हो चुके होंगे, और किसी राज्य या तानाशाही की आवश्कयता नहीं होगी। इसलिए कहा जा सकता है कि पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी के नेतृत्व में ही सोवियतें (या उनके जैसा कोई भी निकाय) सर्वहारा सत्ता का उपकरण बन सकता है और सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख उपकरण पार्टी ही रहेगी। जैसा कि हमने पहले भी लिखा है, जैसे-जैसे सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना उन्नत होगी, जैसे-जैसे व्यापक मेहनतकश जनता के बीच सर्वहारा विचारधारा का वर्चस्व निर्णायक रूप में स्थापित होगा वैसे-वैसे पार्टी की संस्थागत नेतृत्व की भूमिका कम होती जायेगी, और पार्टी अधिक से अधिक विचारधारात्मक मार्गदर्शक की भूमिका में आती जायेगी। लेकिन बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व के निर्णायक रूप से टूटे बगैर जो भी पार्टी की भूमिका के वज़न को कम करने की कोशिश करता है, वह वास्तव में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की जड़ें खोदने का काम कर रहा है।

माओ त्से तुंग ने भी इस सवाल को स्पष्ट दृष्टि से देखा और लेनिन और स्तालिन की पार्टी-विषयक समझदारी को ही आगे बढ़ाया। माओ लिखते हैं: “सोवियत राजनीतिक सत्ता के रूप के बारे में, जैसे ही वह असलियत में आयी, लेनिन प्रफुल्लित हुए और उसे मज़दूरों, किसानों और सैनिकों की एक विलक्षण रचना माना, और साथ ही सर्वहारा अधिनायकत्व का एक नया रूप माना। लेकिन फिर भी लेनिन ने तब इस बात का पूर्वानुमान नहीं लगाया था कि हालाँकि मज़दूर, किसान और सैनिक राजनीतिक सत्ता के इस रूप का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन इसका बुर्जुआज़ी और ख्रुश्चेव जैसे लोगों द्वारा भी इस्तेमाल किया जा सकता है।” (माओ त्से तुंग, माओ मिसलेनी, खण्ड-2, पृ. 452) ‘सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना’ में माओ लिखते हैं, “(सत्ता के) उपकरणों और उद्यमों के नियन्त्रण में कौन लोग हैं इसका जनता के अधिकारों को सुनिश्चित करने पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ता है। अगर मार्क्सवादी-लेनिनवादी इनके नियन्त्रण में हैं, तो व्यापक बहुसंख्या के अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सकता है। अगर दक्षिणपन्थी या दक्षिणपन्थी अवसरवादी नियन्त्रण में हैं, तो ये उपकरण और उद्यम गुणात्मक रूप से बदल सकते हें, और उनके सम्बन्ध में जनता के अधिकारों को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। संक्षेप में, लोगों को अधिकार होना चाहिए कि वे अधिरचना को प्रबन्धित करें।” (माओ, सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना, न्यूयॉर्कः मन्थली रिव्यू प्रेस, 1977, पृ. 61, अंग्रेज़ी संस्करण)। यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है कि माओ जन संस्थाओं जैसे कि सोवियतों के दोनों ही पहलुओं को देख रहे हैं और समझ रहे हैं कि उनकी स्वतःस्फूर्तता का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन उसका जश्न नहीं मनाया जा सकता है। बिना क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व के ऐसी जनसंस्थाओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगती। यह नेतृत्व पार्टी ही दे सकती है और इसलिए राज्यसत्ता और अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण पार्टी के हाथ होना चाहिए, हालाँकि शासन और उत्पादन के निर्णयों को लागू करने का ठोस कार्य पार्टी नहीं करती और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को पार्टी से आम मेहनतकश जनसमुदायों तक पहुँचाने की पूरी व्यवस्था ट्रेड यूनियनों और सोवियतों के ज़रिये ही काम कर सकती है। सत्ता के चरित्र का प्रश्न इस बात से हल होता है कौन लोग उसका नियन्त्रण कर रहे हैं। और यहाँ माओ स्पष्ट हैं कि उनका अर्थ पार्टी से ही है। माओ पार्टी और जनता को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं खड़ा करते, बल्कि पार्टी को मेहनतकश जनसमुदायों की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्ति मानते हैं।

च) स्वतःस्फूर्ततावाद और ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद के ख़िलाफ़ लेनिन

वास्तव में, सुजीत दास जिस तर्क से समाजवादी निर्माण के दौरान पार्टी की भूमिका, वर्ग से उसके रिश्ते और राज्य में उसकी स्थिति पर सवाल खड़ा कर रहे हैं, जिस तर्क से वह ट्रेड यूनियनों को स्वतन्त्र बनाये जाने की वकालत कर रहे हैं, उस तर्क से उन्हें समाजवादी क्रान्ति के पहले भी पार्टी की भूमिका पर सवाल खड़े करने चाहिए। क्योंकि वास्तव में वह हिरावल और वर्ग के रिश्तों के बारे में जो सामान्य सूत्रीकरण दे रहे हैं, वे सूत्रीकरण किसी भी कोण से लेनिनवादी नहीं हैं। उल्टे उनके ज़्यादातर सूत्रीकरण मेंशेविकों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के तर्क हैं। लेनिन ने 1903 से पार्टी की प्रकृति और चरित्र पर जारी बहस में ही कहा था कि मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता का जश्न मनाना कम्युनिस्ट पार्टी का काम नहीं है। कम्युनिस्ट पार्टी का काम है कि वह मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक अनुभवों की समीक्षा और समाहार करे और सर्वहारा वर्ग के ऐतिहासिक वर्ग हितों और उसके ऐतिहासिक लक्ष्य और उत्तरदायित्वों को सूत्रबद्ध करे; ऐसा वह तभी कर सकती है, जब उसने स्वयं को सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण, यानी कि मार्क्सवाद, का मूर्त रूप बना लिया हो और जब उसने सर्वहारा वर्ग के सर्वश्रेष्ठ उन्नत और जुझारू तत्वों को आत्मसात कर लिया हो। इसके साथ ही, कम्युनिस्ट पार्टी निरन्तर वर्ग के साथ एक जीवन्त सम्पर्क बनाये रखती है जो कि उसे एक कमोबेश सही राजनीतिक लाइन पर बने रहने योग्य बनाता है। लेकिन मज़दूर वर्ग, आम तौर पर, स्वयं अपनी स्वतःस्फूर्त चेतना से कम्युनिस्ट नहीं बन सकता, और न ही वह समाजवाद के आदर्श को अपना सकता है। पूँजीवादी समाज में मज़दूर का जीवन ही ऐसा होता है कि वह अपनी मुक्ति के रास्ते को स्वयं नहीं सूत्रबद्ध कर सकता। इसलिए स्वतःस्फूर्त मज़दूर आन्दोलन कभी भी आर्थिक तर्क से आगे नहीं जा सकता। और आर्थिक संघर्ष अपने आप, चाहे वे कितने भी जुझारू क्यों न हों, समाजवाद के लिए राजनीतिक संघर्ष में तब्दील नहीं हो सकते। मज़दूर आन्दोलन को समाजवाद के आदर्श को स्वीकार करने के लिए “बाह्य” हस्तक्षेप की ज़रूरत पड़ती है। उसमें विचारधारा का तत्व हमेशा बाहर से आता है। देखें कि लेनिन के इस बारे में क्या विचार हैं:

“…और अगर हम “स्वतःस्फूर्त तत्व” की बात करें, तो बेशक, सबसे पहले इस हड़ताल के आन्दोलन को ही स्वतःस्फूर्त मानना चाहिए। लेकिन स्वतःस्फूर्तता के कई प्रकार होते हैं। रूस में साठ और सत्तर के दशक में (और यहाँ तक कि उन्नीसवीं सदी के पहले अर्द्धांश में भी) हड़तालें हुईं, और उनमें मशीनों का स्वतःस्फूर्त तरीके से विनाश हुआ, आदि। इन “विद्रोहों” की तुलना में, नब्बे के दशक की हड़तालों को भी “सचेतन” कहा जा सकता है, और वे इस सीमा तक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन द्वारा इस अवधि में हासिल उन्नति को चिन्हित करती हैं। यह दर्शाता है कि “स्वतःस्फूर्त तत्व”, सारतः, भ्रूण रूपी चेतना के अलावा और कुछ नहीं है। यहाँ तक कि आदिम विद्रोह भी एक किस्म की चेतना के एक ख़ास स्तर तक जागृत होने की अभिव्यक्ति थे। उत्पीड़नकारी व्यवस्था के स्थायित्व के सिद्धान्त पर युगों-युगों से चली आ रही मज़दूरों की आस्था कमज़ोर पड़ने लगी थी और उन्होंने सामूहिक प्रतिरोध की ज़रूरत को महसूस करना, मैं यह नहीं कहूँगा कि समझना, शुरू कर दिया था और निश्चित तौर पर अधिकारियों के समक्ष दासवत समर्पण का परित्याग कर दिया था। लेकिन, फिर भी, इसकी प्रकृति संघर्ष की नहीं बल्कि निराशा और प्रतिशोध के फूट पड़ने की ही ज़्यादा थी। नब्बे के दशक की हड़तालों ने सचेतनता के कहीं अधिक चिन्ह दर्शाये; ठोस माँगें पेश की गयीं, हड़तालों का समय सावधानीपूर्वक तय किया गया था, अन्य जगहों के ज्ञात मामलों और घटनाओं पर विचार-विमर्श किया गया, आदि। विद्रोह सिर्फ़ उत्पीड़ित लोगों का प्रतिरोध थे, जबकि व्यवस्थित हड़तालें भ्रूण रूपी वर्ग संघर्ष का प्रतिनिधित्व करती थीं, लेकिन केवल भ्रूण रूप में ही। अपने आप में, ये हड़तालें सिर्फ़ ट्रेड यूनियनों का संघर्ष थीं, और तबतक सामाजिक जनवादी (यानी, कम्युनिस्ट अनुवादक) संघर्ष नहीं बनी थीं। वे मज़दूरों और नियोक्ताओं के बीच उभरते अन्तरविरोधों का संकेत थीं; लेकिन मज़दूर पूरी आधुनिक राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था के साथ अपने हितों के असमाधेय अन्तरविरोध के प्रति सचेत नहीं थे, और न हो सकते थे, अर्थात, उनकी चेतना अभी सामाजिक-जनवादी चेतना नहीं थी। इस रूप में, नब्बे के दशक की हड़तालें, “विद्रोहों” की तुलना में बहुत अधिक उन्नत होते हुए भी, पूरी तरह स्वतःस्फूर्त आन्दोलन ही थीं।” (लेनिन, 1977, ‘क्या करें?’, सेलेक्टेड वर्क्स, खण्ड-1, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ.113-114, अंग्रेज़ी संस्करण, अनुवाद हमारा)

इस मामले में लेनिन उस समय काऊत्स्की को बेहद सटीक मानते थे। वास्तव में, उन्होंने अपनी रचना ‘क्या करें?’ में इस प्रश्न पर काऊत्स्की को बार-बार उद्धृत किया है। काऊत्स्की उस समय दूसरे इण्टरनेशनल के सम्मानित नेता थे और अभी उन्होंने संशोधनवाद का रास्ता नहीं पकड़ा था। उनके ऐसे ही एक उद्धरण को देखते हैं, जिसे लेनिन ने भी अपनी उपरोक्त रचना में दिया हैः

“हमारे कई संशोधनवादी आलोचकों का विश्वास है कि मार्क्स ने दावा किया था कि आर्थिक विकास और वर्ग संघर्ष न सिर्फ़ समाजवादी उत्पादन की स्थितियाँ, बल्कि, प्रत्यक्ष तौर पर, इसकी अपरिहार्यता की चेतना भी निर्मित करते हैं। और इन आलोचकों का दावा है कि इंग्लैण्ड, सबसे उन्नत पूँजीवादी देश, किसी अन्य देश की अपेक्षा इस चेतना से सबसे दूर है। मसौदे के आधार पर, यह माना जा सकता है कि यह कथित परम्परागत मार्क्सवादी दृष्टि, जिसका इस प्रकार स्वतः ही खण्डन हो जाता है, पर उस समिति की साझा सहमति थी जिसने आस्ट्रियाई कार्यक्रम का मसौदा तैयार किया था। मसौदा कार्यक्रम में कहा गया हैः ‘पूँजीवादी विकास सर्वहारा की संख्या में जितनी अधिक वृद्धि करता है, उतना ही अधिक सर्वहारा पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ने को बाध्य होता है और उतना ही योग्य बनता जाता है। सर्वहारा समाजवाद की सम्भावना और उसकी ज़रूरत के प्रति सचेत हो जाता है।’ इस सम्बन्ध में ऐसा लगता है कि समाजवादी चेतना सर्वहारा वर्ग संघर्ष का एक अपरिहार्य और सीधा परिणाम है। लेकिन यह निहायत ग़लत है। बेशक, एक सिद्धान्त के तौर पर समाजवाद की जड़ें आधुनिक आर्थिक सम्बन्धों में हैं जैसे कि सर्वहारा का वर्ग संघर्ष, और उसी की तरह स्वयं सर्वहारा वर्ग, पूँजीवाद-जनित आम ग़रीबी और विपदा के ख़िलाफ़ संघर्ष से उभरता है। लेकिन समाजवाद और वर्ग संघर्ष साथ-साथ विकसित होते हैं न कि एक-दूसरे के कारण जन्म लेते हैं; दोनों अलग-अलग स्थितियों के तहत उत्पन्न होते हैं। आधुनिक समाजवादी चेतना केवल गहन वैज्ञानिक ज्ञान के आधार पर उत्पन्न हो सकती है। वास्तव में, आधुनिक अर्थशास्त्र का विज्ञान समाजवादी उत्पादन की उतनी ही ज़रूरी शर्त है जितनी कि कह लीजिए आधुनिक तकनीक, और सर्वहारा इन दोनों में से किसी का निर्माण नहीं कर सकता, चाहे वह ऐसा करने की उसकी कितनी भी इच्छा क्यों न हो; दोनों आधुनिक सामाजिक प्रक्रिया से उत्पन्न होते हैं। विज्ञान का वाहक सर्वहारा नहीं, बल्कि बुर्जुआ बौद्धिक वर्ग हैः इसी संस्तर के अलग-अलग लोगों के दिमाग़ में आधुनिक समाजवाद उत्पन्न हुआ, और उन्हीं लोगों ने इसे बौद्धिक रूप से अपेक्षाकृत उन्नत सर्वहाराओं तक पहुँचाया जो, जहाँ स्थितियाँ इसके अनुकूल होती हैं, सर्वहारा वर्ग संघर्ष में इसका समावेश करते हैं। इस प्रकार, सर्वहारा के वर्ग संघर्ष में समाजवादी चेतना बाहर से लायी जाती है [von Aussen Hineingetragenes] न कि यह इसके भीतर से स्वतःस्फूर्त ढंग से  [urwüchsig] पैदा होती है। तदनुरूप, पुराना हैनफेल्ड कार्यक्रम काफ़ी सटीक ढंग से कहता है कि सामाजिक-जनवाद का काम सर्वहारा को उसकी स्थिति की चेतना और उसके कार्यभार की चेतना से भरना (शब्दशः सन्तृप्त कर देना) है। इसकी कोई आवश्यकता नहीं होती अगर चेतना वर्ग संघर्ष से स्वतः उत्पन्न हो जाती। नये मसौदे में यह प्रस्ताव पुराने मसौदे से उठा लिया गया है, और इसे उपरोक्त प्रस्ताव में जोड़ दिया गया है। लेकिन इससे विचारों की श्रृंखला पूरी तरह टूट गयी…” (वही, पृ.120-121, लेनिन द्वारा उद्धृत)

‘क्या करें?’ में लेनिन ने काऊत्स्की के इस कथन के साथ एक स्पष्टीकरण जोड़ा हैः

“बेशक, इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसी विचारधारा निर्मित करने में मज़दूरों की कोई भूमिका नहीं है। हालाँकि, वे इसमें मज़दूर के तौर पर नहीं, बल्कि समाजवादी सिद्धान्तकारों के तौर पर, प्रूधों और वाइटलिंगों के रूप में, भागीदारी करते हैं; दूसरे शब्दों में, वे केवल तभी भाग लेते हैं और उसी हद तक भाग लेते हैं जब और जिस हद तक वे अपने युग का ज्ञान हासिल करने और उसे विकसित करने के कमोबेश योग्य हो जाते हैं। लेकिन मज़दूर इस कार्य में और अधिक सफल हों इसके लिए सामान्य तौर पर मज़दूरों की चेतना के स्तर को बढ़ाने के हरसम्भव प्रयास किये जाने चाहिए; यह ज़रूरी है कि मज़दूर खुद को “मज़दूर साहित्य” की कृत्रिम सीमाओं में बाँधकर न रखें बल्कि वे सामान्य साहित्य में उत्तरोत्तर महारत हासिल करते जायें। “खुद को बाँधकर न रखें” की बजाय “उन्हें बाँधकर न रखा जाये” कहना और भी उचित होगा, क्योंकि मज़दूर खुद पढ़ने की चाहत रखते हैं और वह सब पढ़ते हैं जो बौद्धिक तबके के लिए लिखा जाता है, और केवल कुछ (बुरे) बुद्धिजीवी ही ऐसा मानते हैं कि फैक्टरी की दशाओं के बारे में कुछेक चीज़ें बता देना और पहले से ज्ञात चीज़ों का ही बार-बार दुहराते जाना “मज़दूरों के लिए” पर्याप्त है।” (वही, 121, फुटनोट में)

यह मान लेना कि ट्रेड यूनियनें वैचारिक रूप से स्वतः क्रान्तिकारी बन जायेंगी और समाजवादी निर्माण और निर्णय लेने के रास्ते पर चल पड़ेंगी, कल्पनालोक में विचरण करने के समान है। क्रान्ति के पहले जो मज़दूर वर्ग इस समस्या का स्वायत्त और स्वतन्त्र रूप से समाधान नहीं कर सकता, क्या वह समाजवादी निर्माण के कुछ वर्षों में इस मंजिल पर पहुँच जायेगा? नहीं! लेनिन ने यही जवाब 1919 में दिया था। समाजवादी क्रान्ति के बाद भी लम्बे समय तक सर्वहारा वर्ग के हिरावल को समाजवादी निर्माण और सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने में वही संस्थाबद्ध नेतृत्व वाली भूमिका अदा करनी पड़ेगी जो कि क्रान्ति के पहले क्रान्ति के लिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को राजनीतिक नेतृत्व देने में अदा करनी पड़ी थी। जो इस बुनियादी चीज़ को नहीं समझते, वास्तव में वे मार्क्स के अलगाव के सिद्धान्त, लेनिन के हिरावल पार्टी के सिद्धान्त और हिरावलपन्थ और हिरावल पार्टी के लेनिनवादी सिद्धान्त को रत्ती भर भी नहीं समझते। ‘क्या करें?’ में लेनिन लिखते हैं:

“चूँकि स्वतन्त्र, ख़ुद आम मज़दूरों द्वारा अपने आन्दोलन की प्रक्रिया के दौरान विकसित विचारधारा का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता, इसलिए केवल ये रास्ते ही रह जाते हैं  या तो बुर्जुआ विचारधारा को चुना जाये या समाजवादी विचारधारा को। बीच का कोई रास्ता नहीं है (क्योंकि मानवजाति ने कोई “तीसरी” विचारधारा पैदा नहीं की है, और इसके अलावा जो समाज वर्ग विरोधों के कारण बँटा हुआ है, उसमें कोई ग़ैर-वर्गीय या वर्गेतर विचारधारा कभी हो नहीं सकती)। इसलिए, समाजवादी विचारधारा के महत्व को किसी भी तरह कम करके आँकने, उससे ज़रा भी मुँह मोड़ने का मतलब बुर्जुआ विचारधारा को मज़बूत करना होता है। स्वयंस्फूर्तता की बहुत चर्चा हो रही है, लेकिन मज़दूर आन्दोलन के स्वयंस्फूर्त विकास का परिणाम यह होता है कि यह आन्दोलन बुर्जुआ विचारधारा के अधीन हो जाता है, उसका विकास क्रीडो के कार्यक्रम के अनुसार ही होने लगता है, क्योंकि स्वयंस्फूर्त मज़दूर आन्दोलन ट्रेड-यूनियनवाद होता है, जर्मन भाषा में कहें तो वह [Nur-Gewerkschaftlerei] होता है, और ट्रेड-यूनियनवाद का मतलब मज़दूरों को विचारधारा के मामले में बुर्जुआ विचारधारा का दास बनाकर रखना होता है। इसलिए हमारा कार्यभार, सामाजिक-जनवादियों का कार्यभार है स्वयंस्फूर्ततावाद के ख़िलाफ़ लड़ना, मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के उस स्वयंस्फूर्त, ट्रेड-यूनियनवादी रुझान को, जो उसे बुर्जुआ वर्ग के साये में ले जाता है, मोड़ना और और उसे क्रान्तिकारी सामाजिक-जनवाद के नेतृत्व में लाना।” (वही, पृ. 121-122, अनुवाद हमारा)

ऐसे अनगिनत उद्धरण यहाँ प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिनसे यह स्पष्ट किया जा सकता है कि सुजीत दास जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का विवाद केवल सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण में पार्टी की भूमिका के प्रश्न पर नहीं है। वास्तव में, यह विवाद पार्टी की ही ज़रूरत पर है और ऐसे तमाम लोग ही इस समय, वर्तमान मज़दूर आन्दोलन में एक “जनराजनीतिक केन्द्र” खड़ा करने की माँग कर रहे हैं। इन लोगों का यह मानना है कि मज़दूर वर्ग का अपना जनराजनीतिक केन्द्र एक खुला केन्द्र होना चाहिए, जिसमें सभी “पूँजीवाद-विरोधी” मज़दूर शामिल हो सकें, चाहें वे मार्क्सवादी हों या न हों। ऐसे मज़दूर, ट्रेड यूनियन के स्तर से ऊपर उठ चुके होते हैं, लेकिन पार्टी के स्तर से नीचे होते हैं। इसलिए उनके लिए एक जनराजनीतिक केन्द्र बनाया जाना चाहिए! और यह जनराजनीतिक केन्द्र क्या करेगा? वह सर्वहारा वर्ग की विचारधारा के प्राधिकार को आम मेहनतकश जनता में स्थापित करेगा, यानी पार्टी का काम करेगा; वह चुनावों में हिस्सेदारी करेगा, यानी कि द्यूमा धड़े वाला काम करेगा; वह ट्रेड यूनियन वाला काम भी करेगा; और वह सोवियतों का काम भी करेगा! फिर पार्टी क्या करेगी? और फिर आपने अभी तक अपनी पार्टी बना ही क्यों रखी है? उसे भंग क्यों नहीं कर देते? क्योंकि आपके सारे कार्य तो आपका यह जनराजनीतिक केन्द्र ही कर देगा! और जब आप इस जनराजनीतिक केन्द्र का नाम सुनते हैं, तो आपको समझ में आने लगता है कि ये बातें कहाँ से आ रही हैं। इन अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के जनराजनीतिक केन्द्र का नाम भी “मज़दूर परिषद” है, इसमें वे बीच में “क्रान्ति” शब्द जोड़ देते हैं! लेकिन इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता है। अगर नामपद्धति (नोमेनक्लेचर) पर भी ध्यान दें, तो सुजीत दास जैसे लोग पॉल मात्तिक, गॉर्टर, पान्नेकोएक, ओसिंस्की, रूले, स्मिर्नोव जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के ज़्यादा करीब हैं। और कुछ मामलों में तो ऐसे लोग मारियो ट्रॉण्टी जैसे लोगों के “मज़दूरवाद” (ऑपराइज़्मो) और कॉर्नेलियस कास्तोरियादिस के स्वच्छन्दतावादी समाजवाद (लिबर्टैरियन सोशलिज़्म) के करीब पड़ते हैं। उनकी करीबी किसी से भी ज़्यादा हो, एक बात तो तय हैः लेनिन के सिद्धान्तों से इनका दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है, चाहे वे सिद्धान्त समाजवादी संक्रमण सम्बन्धी हों या पार्टी, वर्ग, राज्य और ट्रेड यूनियनों के आपसी रिश्तों के बारे में।

सोवियत समाजवाद के अपने हास्यास्पद विश्लेषण में सुजीत दास आगे ग़लतबयानियों, असत्यों और तथ्यों के साथ दुराचार के स्तर पर कैसे पहुँच गये हैं, यह हम आगे तब दिखलायेंगे जब हम 1930 के दशक के सोवियत समाजवाद के बारे में सकारात्मक तौर पर अपना विवेचन ठोस ऐतिहासिक तथ्यों के साथ रखेंगे, जैसा कि हमने शुरू में ही बताया था। यह काम हम अभी हाथ में नहीं ले सकते थे, क्योंकि यह अलग से एक विस्तृत काम है। इसलिए 1917 से 1953 तक के सोवियत इतिहास पर अपना आलोचनात्मक दृष्टिकोण रखते हुए इस काम को करना ज़्यादा बेहतर होगा। अभी हमारे विश्लेषण का मकसद सिर्फ़ यह था कि हम ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ की अवस्थितियों के राजनीतिक, विचारधारात्मक और दार्शनिक मूल और स्रोतों को पकड़ें; उनकी लेनिनवादी अवस्थितियों से तुलना करें; उनके अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद को बेनक़ाब करें और दिखलायें कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति जुबानी वफ़ादारी रखने के बावजूद उनकी असली राजनीति कहाँ से आ रही है। इस प्रक्रिया में हमें सुजीत दास की जितनी तथ्य-सम्बन्धी तोड़-मरोड़ का खण्डन करना ज़रूरी था, वह हमने किया है। लेकिन उनके द्वारा सोवियत इतिहास का जो मिथकीकरण किया गया है उस पर हम आगे विस्तार से लिखेंगे।

नोटः (1) उपरोक्त सभी उद्धरणों में अंग्रेज़ी स्रोतों से लिये गये उद्धरणों का अनुवाद हमारा है, क्योंकि अधिकांश स्रोतों का पहले से मौजूद हिन्दी अनुवाद सन्तोषजनक नहीं था और कई जगहों पर ग़लत था। (2) यह लेख ‘दिशा सन्धान’ के अगले अंकों में जारी रहेगा, इसलिए इसकी सन्दर्भ सूची हम पूरे शोध निबन्ध के अन्त में देंगे। फिलहाल, हमने उद्धरणों के बाद कोष्ठकों में पूरा सन्दर्भ दे दिया है।

One comment on “सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ (पहली किस्त)

  1. आप द्वारा पेश किया गया यह अंक अति प्रशंसनीय है, बहुत अच्छा लगा। हर अंक पढना पड़ेगा। बहुत बहुत धन्यवाद, बधाई।

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