‘ख़तरनाक ढंग से सपने देखने’ और निष्क्रिय, नुकसानदेह और नामुराद सैद्धान्तिकीकरण का वर्ष
स्लावोय ज़िज़ेक की नयी पुस्तक ‘दि इयर ऑफ ड्रीमिंग डेंजरसली’ पर
- अभिनव सिन्हा
स्लावोय ज़िज़ेक को कई लोग आज अन्तरराष्ट्रीय वाम का एल्विस प्रिसले कहते हैं। यह सूत्रीकरण आंशिक तौर पर सत्य है। लेकिन उनकी पिछली तमाम पुस्तकों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि उन्हें अन्तरराष्ट्रीय वाम का पेरिस हिल्टन कहना ज़्यादा उचित होगा! स्लावोय ज़िज़ेक की प्रसिद्धि अपनी रचनाओं की वास्तविक अन्तर्वस्तु के नयेपन के कारण कम है, और उनकी फैशनेबल उत्तरमार्क्सवादी, लकानियन, हेगेलियन अभिव्यक्ति शैली के कारण ज़्यादा है। आप ज़िज़ेक के बारे में कुछ भी कह सकते हैं लेकिन यह नहीं कह सकते हैं, कि वह बोर करते हैं। लेकिन ऐसी बात गोविन्दा के बारे में भी कही जा सकती है! ज़िज़ेक के पास एक सशक्त रूप है, ज़िसका वह कुशलता के साथ इस्तेमाल करते हैं। लेकिन वह इसका इस्तेमाल ऐसी बातें कहने में करते हैं, जो आम तौर पर सैद्धान्तिक तौर पर बेहद दरिद्र, कई बार तथ्यात्मक तौर पर ग़लत, और ख़राब किस्म के सार-संग्रहवाद की मिसालें होती हैं। उनकी नयी पुस्तक की इस समीक्षा में हम उनके कुछ सैद्धान्तिकीकरणों पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालेंगे और उनकी पड़ताल करेंगे। वैसे तो ज़िज़ेक चलते-चलते जो तमाम बातें चुटकुलों और मान्य तथ्यों के तौर पर करते हैं, उनकी विकृतियों और असत्यता के बारे में बहुत-कुछ कहा जा सकता है, लेकिन यहाँ हम अपने आपको एक राजनीतिक समीक्षा तक केन्द्रित रखेंगे। उनकी एक सम्पूर्ण दार्शनिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक समालोचना को हम भविष्य के लिए सुरक्षित रखेंगे। हमारा ध्यान मुख्य तौर पर इस बात पर होगा कि ज़िज़ेक की राजनीति इस पुस्तक में किस तरह से उभरकर सामने आती है और अपने तमाम (मार्क्सवाद से ज़्यादा!) रैडिकल दावों के बाद अन्त में वह क्या सकारात्मक प्रस्ताव हमारे सामने रखते हैं।
उनकी नयी पुस्तक ‘दि इयर ऑफ ड्रीमिंग डेंजरसली’ पिछले वर्ष के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित हुई है और उनकी हर पुस्तक की तरह यह चर्चा का विषय बनी हुई है। यह पुस्तक ज़्यादा मोटी नहीं है और दस अध्यायों में विभाज़ित है। लेकिन इन अध्यायों को ‘अध्याय’ कहना उचित नहीं होगा। इन्हें मिलती-जुलती विषयवस्तु पर लेखों का एक संकलन कहना ज़्यादा उचित होगा। मुख्य तौर पर ये लेख ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ आन्दोलन, लन्दन दंगों और अरब बसन्त पर केन्द्रित हैं, लेकिन साथ ही नॉर्वे में एण्ड्रू ब्रेविक द्वारा किये गये नस्लवादी जनसंहार की भी बात करते हैं। ज़िज़ेक अपनी पसन्दीदा शैली का इस्तेमाल करते हुए इन सारी घटनाओं का विश्लेषण समकालीन सांस्कृतिक परिदृश्य, जैसे कि फिल्मों, टेलीविज़न कार्यक्रमों और संगीत आदि की आलोचनाओं के साथ जोड़ते हुए करते हैं, और ज़िज़ेक के लेखन का यह तत्व हमेशा की तरह उनके लेखन को उबाऊ नहीं होने देता है। लेकिन इस शैली का इस्तेमाल करते हुए वास्तव में वह जो करते हैं, वह मूलतः मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु पर हमला है। अपने विश्लेषण के दौरान वे तमाम अन्य बहेतू और सट्टेबाज़ उत्तर-मार्क्सवादी दार्शनिकों और चिन्तकों के समान बेहद बेतुकी दिखने वाली तुलनाएँ करते हैं और उनमें समानताएँ तलाशने की लॉटरी खेलते हैं। मिसाल के तौर पर, ज़िज़ेक अगर कीर्केगार्द, मार्क्स और हेनरिख़ हाइने की तुलना करें तो आपको अचम्भित नहीं होना चाहिए। वह ऐसी तुलनाओं के ज़रिये जो करते हैं, वह और कुछ नहीं है बल्कि ऐसी सामान्य परिघटनाओं का जटिल प्रस्तुतिकरण है, ज़िन्हें अन्य विचारकों, विशेष तौर पर मार्क्सवादी विचारकों, ने पहले ही सही ढंग से व्याख्यायित किया है। ऐसे प्रस्तुतिकरण के लिए वे हेगेलीय और लकाँवादी दार्शनिक और वैचारिक श्रेणियों का इस्तेमाल करते हैं। इन श्रेणियों के अतिरिक्त ज़िज़ेक सार-संग्रहवादी तरीके से किसी भी प्राचीन, मध्यकालीन, आधुनिक या समकालीन विचारक की अवधारणाओं का इस्तेमाल कर सकते हैंताओ, बुद्ध और प्लेटो से लेकर लॉक और देकार्त तक; काण्ट, कीर्केगार्द, अडोर्नो, वॉल्टर बेंजामिन और हाइडेगर से लेकर देल्यूज़, नेग्री, हार्ट, बेज्यू और जुडित बटलर तक। हालाँकि, इन अवधारणाओं में आम तौर पर कुछ भी सामान्य/साझा नहीं होता, लेकिन किन्हीं भी दो अवधारणाओं, तथ्यों या वस्तुओं में समानताएँ निकाली जा सकती हैं; मसलन, गधे और आदमी, दोनों के ही दो कान और दो आँखें होती हैं! इस प्रकार के तर्क से ज़िज़ेक लगातार अलग-अलग दार्शनिक व्यवस्थाओं में समानान्तर रेखाएँ खींचते रहते हैं और फिर इन समानान्तर रेखाओं का इस्तेमाल समकालीन परिदृश्य की व्याख्या करने के लिए करते हैं। निश्चित तौर पर, कई मामलों में ऐसी समानान्तर रेखाएँ वास्तव में आंशिक तौर पर कारगर सिद्ध होती हैं, और कई बार ये हास्यास्पद होती हैं। बस ज़िज़ेक इस पूरे काम को बेहद मनोरंजक और दिलचस्प ढंग से अंजाम देते हैं, जो कि पाठक को उनके लेखन से बाँधे रहता है। इस तरीके से अलग-अलग जगहों से अलग-अलग तत्वों को अन्दाज़े से जोड़ने और जोड़कर उसे अपनी समकालीनता की व्याख्या में बिठाने को हम सट्टेबाज़ दार्शनिक पद्धति (स्पेक्युलेटिव फिलोसॉफिकल मेथड) कह सकते हैं। साथ ही, चूँकि यह विश्लेषण अन्त में कहीं नहीं ले जाता है, और वास्तव में यह दुनिया बदलने की बात तो बहुत दूर, दुनिया की एक आंशिक तौर पर सही व्याख्या भी नहीं होती है, इसलिए हम ऐसे दार्शनिकों को ‘बहेतू’ (वैगाबॉण्ड) भी कह सकते हैं। कुल मिलाकर, लकाँ के मनोविश्लेषण, लेवी स्ट्रॉस के उत्तरसंरचनावाद, उत्तरआधुनिकतावाद और तमाम अन्य मार्क्सवाद-विरोधी विचार-सरणियों से मिलने वाली जूठन का इस्तेमाल करते हुए इनका दर्शन अपने आपको मार्क्स से ज़्यादा रैडिकल दिखलाने का प्रयास करता है, और लगातार यह दिखाने का प्रयास करता है कि मार्क्स क्या-क्या नहीं समझ पाए और कहाँ-कहाँ वह ग़लत थे।
ज़िज़ेक अपनी किताब की शुरुआत ऐसे ही एक प्रयास से करते हैं। वह दावा करते हैं कि मार्क्स का ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान’ का वह प्रसिद्ध कथन, जिसमें उन्होंने उत्पादक सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों व आर्थिक आधार और अधिरचना के अन्तर्सम्बन्धों के बारे में बताते हैं, वास्तव में इतिहासवाद और उद्भववाद का शिकार है। मार्क्स के उस उद्धरण को अगर आप स्वयं पढ़ें तो उसमें मार्क्स कहीं भी कोई इतिहासग्रस्त या नियतत्ववादी बात नहीं कह रहे हैं। जो वह कह रहे हैं वह सिर्फ इतना हैः समाज में लोग प्रभावी उत्पादन व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी इच्छा से स्वतन्त्र निश्चित उत्पादन सम्बन्धों में बँधते हैं; एक दौर तक प्रभावी उत्पादन सम्बन्ध उत्पादक शक्तियों के विकास को गति देते हैं, लेकिन इतिहास की एक निश्चित मंज़िल पर उत्पादक शक्तियों का विकास मौजूदा उत्पादन सम्बन्धों के तहत सम्भव नहीं रह जाता; यहाँ से सामाजिक क्रान्ति का युग शुरू होता है (इसका यह अर्थ नहीं है, कि किसी पूर्वनिर्धारित मौके पर इस युग में क्रान्ति का सम्पन्न हो जाना तय है); आगे मार्क्स बताते हैं कि कोई भी व्यवस्था उत्पादक शक्तियों के विकास के मौजूदा ढाँचे के भीतर बाधित होने से पहले नष्ट नहीं हो सकती और नये उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना तब तक नहीं हो सकती, जब तक कि उसके लिए आवश्यक शर्तें मौजूदा व्यवस्था के भीतर ही पूरी न हो गयी हों (इसका यह अर्थ नहीं है कि वे उत्पादन सम्बन्ध ही पुरानी व्यवस्था के गर्भ में पूर्णतः पैदा हो चुके हों, यहाँ मार्क्स सिर्फ अनिवार्य पूर्वशर्तों की बात कर रहे हैं); और अन्त में मार्क्स इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि मानवता अपने लिए वही लक्ष्य निर्धारित कर सकती है, जो लक्ष्य वह वास्तव में प्राप्त कर सकती है। इसका सिर्फ इतना ही अर्थ है कि दास समाज या सामन्ती समाज के उत्पीड़ित वर्ग साम्यवादी समाज का सपना नहीं देख सकते थे; इतिहास ने उनके सामने जो सम्भवना का क्षितिज उपस्थित किया था, उनकी कल्पना उसकी सीमा में ही अस्तित्वमान रह सकती थी। निश्चित तौर पर, इस सीमा के भीतर उनकी परिकल्पनाएँ एकाश्मीय या पूर्वनियोत नहीं होंगी, बल्कि वैविध्यपूर्ण होंगी। लेकिन ज़िज़ेक के लिए ऐसी कोई सीमा नहीं है। एक सच्चे प्रत्ययवादी-हेगेलवादी के समान वह कहते हैं कि आज के दौर में भी भावी बेहतर समाज के बारे में कोई परिकल्पना नहीं निर्मित की जानी चाहिए। उसे पूरी तरह से गोपनीयता के राज्य की वस्तु माना जाना चाहिए, जिसे ज़िज़ेक कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस का नाम देते हैं। इसका अर्थ है एक ऐसा कम्युनिज़्म जिसके बारे में पहले से कोई नक्शा तैयार नहीं किया जाना चाहिए। यहाँ पर ज़िज़ेक एलेन बेज्यू के पदचिन्हों पर ही चल रहे हैं। बेज्यू के अनुसार, कम्युनिज़्म एक ऐसा विचार है जो अनादि-अनन्त है। यह मानवता के उद्भव के साथ ही जन्म ले चुका था। उनके लिए प्लेटो का दि रिपब्लिक, रूसो का सोशल कॉण्ट्रैक्ट, फ्रांसीसी क्रान्ति और जैकोबिन आतंक-राज्य, पेरिस कम्यून और मार्क्सवादी कम्युनिज़्म (जो बोल्शेविक क्रान्ति के साथ शुरू होता है और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के साथ ख़त्म होता है) कम्युनिज़्म के दिव्य विचार (इटर्नल आइडिया) की यात्रा के अलग-अलग पड़ाव या मील के पत्थर हैं। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के साथ जो नया युग शुरू हुआ उसमें पार्टी, सर्वहारा तानाशाही आदि जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक हो चुकी हैं। आगे जिस किस्म के कम्युनिस्ट समाज को आना है, उसके बारे में मार्क्सवाद की समझदारी अब पुरानी और अप्रासंगिक पड़ चुकी है और दुनिया उस ‘क्षण’ से आगे बढ़ चुकी है! ज़िज़ेक कहीं सीधे-सीधे यह नहीं कहते कि मार्क्सवाद, पार्टी और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की सोच पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुकी है। लेकिन वास्तव में वह जो करते हैं वह और भी ज़्यादा ख़तरनाक है। बेज्यू अपने इरादों में स्पष्ट हैं और उनकी आलोचना अपेक्षाकृत ज़्यादा आसान है। लेकिन ज़िज़ेक अपनी सभी बातों को स्वयं ही काटते चलते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ज़िज़ेक कुछ नहीं कहते। वह जो कहते हैं उसे समझने के लिए थोड़ी कसरत करनी पड़ती है।
मिसाल के तौर पर, मार्क्स को उद्भववादी इतिहासवाद का शिकार बताते हुए एक अन्य जगह पर ज़िज़ेक कहते हैं कि मार्क्स ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की जो आलोचना की है, उसे आज दुहराने की ज़रूरत है, लेकिन कम्युनिज़्म की उस यूटोपियाई समझदारी के बग़ैर जो कि मार्क्स ने प्रस्तुत की। यहाँ पहली बात तो यह है कि मार्क्स ने पूँजीवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की उसे फिर से दुहराने के लिए मार्क्स की उस आलोचना को समझना होगा; कम-से-कम उनकी बुनियादी आर्थिक रचनाओं का अध्ययन करना होगा। लेकिन आगे हम दिखलायेंगे कि ज़िज़ेक के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझ बेहद कमज़ोर है, इसलिए मार्क्स की जिस आलोचना को दुहराने की वह बात कर रहे हैं, वह उनके बस के बाहर है। इसी से जुड़ी हुई बात यह है कि ज़िज़ेक मार्क्स द्वारा राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना को न समझ पाने के कारण ही ऐसा समझते हैं कि मार्क्स की कम्युनिज़्म की समझदारी यूटोपियाई और फन्तासी के समान थी। कम्युनिज़्म की मार्क्सवादी परियोजना कोई पूर्वकल्पित या पूर्वनिर्धारित यूटोपिया या फन्तासी नहीं थी, बल्कि पूँजीवाद की वैज्ञानिक आलोचना का ही नतीजा थी। मार्क्स ने ‘पूँजी’ के तीन खण्डों में जिस आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को तार-तार करके हमारे सामने रखा है, उसकी आलोचना ही उन्हें कम्युनिस्ट समाज की एक वैज्ञानिक समझदारी तक ले गयी। जैसा कि मार्क्स कहते थे, ‘कम्युनिज्म कोई लक्ष्य नहीं है, जिसे हासिल किया जाना है। यह इतिहास की वास्तविक गति है।’ लेकिन ज़िज़ेक के लिए इतिहास की ऐसी कोई गति नहीं होती। उनका दावा है कि मार्क्स यह कहना ग़लत है कि मानवता अपने लिए वही लक्ष्य निर्धारित करती है, जिसकी प्राप्ति की सम्भावना के बीज रूप में पहले से ही मौजूद होती है। मार्क्स के इस कथन के खण्डन के लिए ज़िज़ेक कहते हैं कि मिसाल के तौर पर आज जो समस्याएँ मानवता के सामने खड़ी हैं, उसके समाधान की सम्भावनाएँ बीज रूप में भी मानवता के सामने मौजूद नहीं हैं। ज़िज़ेक के इस कथन से स्पष्ट है कि उन्होंने मार्क्स के उक्त कथन का अर्थ ही नहीं समझा है, या जानबूझकर अपने पूर्वनियोज़ित नतीजे पर पहुँचने के लिए उसकी मनमानी व्याख्या की है। मार्क्स स्वयं कम्युनिस्ट समाज के एक-एक विवरण को पहले से निर्धारित करने के ख़िलाफ़ थे, और ऐसी किसी भी कवायद को वह अनुत्पादक मानते थे। वह उस बुनियादी आर्थिक-सामाजिक नियम के अलावा, भावी कम्युनिस्ट समाज के हरेक पहलू की व्याख्या नहीं करते थे, जिसके मुताबिक कम्युनिस्ट समाज प्रचुरता की वह मंज़िल होगी जब सभी लोग अपनी क्षमतानुसार कार्य करेंगे और आवश्यकतानुसार प्राप्त करेंगे। लेकिन ज़िज़ेक कम्युनिस्ट समाज के विषय में मार्क्स के कुछ भी कहने को ग़ैर-मुनासिब मानते हैं! इसका वास्तविक कारण यही है कि ज़िज़ेक की मार्क्सवादी आर्थिक सिद्धान्त की पढ़ाई बेहद कमज़ोर है। आगे हम इस बात को ही ज़िज़ेक की नयी पुस्तक में कही गयी कुछ बातों से प्रदर्शित करेंगे।
ज़िज़ेक कहते हैं कि मार्क्स का इतिहासवादी स्कीमा रद्द करने की ज़रूरत है और इसके लिए हमें आज के पूँजीवाद की तीन चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं पर नज़र डालने की ज़रूरत है। ज़िज़ेक के मुताबिक पहली सबसे प्रमुख आभिलाक्षणिकता है आज के पूँजीवादी व्यवस्था में मुनाफ़े से लगान (वास्तव में, यहाँ जिन अर्थों में रेण्ट की बात की जा रही है, वह वास्तव में लगान नहीं है, लेकिन चूँकि अन्य कोई उपयुक्त शब्द इसके लिए मौजूद नहीं है इसलिए हम लगान शब्द का ही प्रयोग कर रहे हैं) की ओर संक्रमण या तब्दीली है। ज़िज़ेक यहाँ लगान के दो अर्थों में बात कर रहे हैं – साझा बौद्धिक सम्पत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर एकाधिकार से मिलने वाला लगान। लेकिन इस परिघटना में नया क्या है और इसकी खोज करने का दावा ज़िज़ेक क्यों कर रहे हैं, यह समझ से परे हैं। वास्तव में, इन दोनों परिघटनाओं को मार्क्स और लेनिन दोनों ने ही अपनी रचनाओं में दर्ज़ किया है। ज़िज़ेक का दावा है कि मार्क्स ने सामान्य बुद्धि (जनरेल इण्टेलेक्ट) के निजीकरण की कल्पना नहीं की थी। यह उनकी समझ से परे था कि यह सामान्य बुद्धि बढ़ने के साथ-साथ अधिक से अधिक निजी सम्पत्ति बनायी जायेगी। यह दावा पूरी तरह ग़लत और निराधार है। मार्क्स की दो अलग-अलग अवधारणाओं को मिलाकर ज़िज़ेक ज़बरन अपने मूर्खतापूर्ण कथन को आविष्कार साबित करने की कोशिश कर रहे हैं। मार्क्स ने कहा था कि उत्पादन के विकास के साथ पूँजीवादी समाज में मज़दूरों की सामान्य बुद्धि और कुशलता बढ़ती जाती है। इसके साथ ही उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में न सिर्फ उत्पादन के ठोस कार्य, यानी कि शारीरिक श्रम से जुड़े कार्य मज़दूर करते हैं, बल्कि प्रबन्धन और नियोजन का कार्य भी धीरे-धीरे मज़दूरों के हाथ में आने लगता है। आज के युग में जब तकनोलॉजी के विकास ने उत्पादन की प्रक्रिया को बेहद छोटी-छोटी कार्रवाइयों में तोड़कर और उनका स्वचालन करके कुशल और अकुशल मज़दूर के बीच के अन्तर को काफ़ी हद तक कम कर दिया है, तो मार्क्स की यह भविष्यवाणी सही साबित हो रही है। इस प्रक्रिया के आगे बढ़ने के साथ पूँजीपति वर्ग (जिसमें कि मालिक और पूँजीवादी प्रबन्धन दोनों शामिल हैं) ग़ैर-ज़रूरी हो जाते हैं। लेकिन इस कुशल श्रमिकों की आबादी और आज के पूँजीवादी उपक्रमों के सी-ई-ओ-, मैनेजरों और निदेशक मण्डलों में बैठने वाले निदेशकों के बीच ज़िज़ेक कोई अन्तर नहीं समझते हैं। वह दावा करते हैं कि यह वर्ग जिसके पास प्रबन्धन, एकाउण्टिंग और तकनीकी ज्ञान केन्द्रित है, यह एक वेतनभोगी बुर्जुआज़ी के तौर पर अस्तित्व में आया है। इसी को ज़िज़ेक समकालीन पूँजीवाद, या उनकी भाषा में उत्तरआधुनिक पूँजीवाद का दूसरा चारित्रिक गुण मानते हैं। इस पर हम आगे आएँगे।
ज़िज़ेक का यह दावा भी ग़लत है कि मार्क्स ने कभी नहीं सोचा था कि सामान्य बुद्धि का इस पैमाने पर निजीकरण होगा। मार्क्स स्पष्ट रूप से कहते हैं कि हर प्रकार के श्रम के सभी उत्पाद सामाजिक सम्पत्ति हैं और ज्ञान भी एक सामाजिक सम्पत्ति है। लेकिन पूँजीवाद श्रम के भौतिक उत्पादों और बौद्धिक उत्पादों दोनों का ही निजीकरण करता है। प्राक्-पूँजीवादी युग में सामान्य बुद्धि के विकास का जो स्तर था, उसमें जाहिरा तौर पर बौद्धिक उत्पादों के निजीकरण की प्रवृत्ति कम ही होगी। इटली में व्यापारिक पूँजीवाद के उदय के साथ पहली बार पेटेण्ट नियम और कानून अस्तित्व में आये। जैसे-जैसे पूँजीवादी उत्पादन पद्धति आगे बढ़ी, उत्पादक शक्तियों का विकास हुआ, उत्पादकों की राजनीतिक और तकनोलॉजिकल चेतना का स्तरोन्नयन हुआ, वैसे-वैसे उत्पादन में सूचना और तकनीकी पद्धति के ज्ञान का महत्व बढ़ता गया। पूँजीपतियों के बीच की प्रतिस्पर्द्धा और मज़दूर वर्ग की स्वायत्त चेतना (जो बुर्जुआ वर्चस्व से सापेक्षिक रूप से मुक्त हो) के उदय के डर ने बौद्धिक सम्पदा के निजीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। नेग्री और हार्ट जिस अभौतिक उत्पादन, अभौतिक श्रम और अभौतिक पूँजीवाद की बात करते हैं, वह बकवास है, जिसके अनुसार आज पूँजीवादी विश्व में सूचना प्रमुख और प्रभावी उत्पाद/माल बन चुकी है, और इसके उत्पादन में लगी श्रमशक्ति प्रमुख श्रम शक्ति बन चुकी है। एक अभौतिक पूँजीवाद के नाश के लिए वह एक आकृतिविहीन, आकारविहीन मल्टीट्यूड की कल्पना करते हैं। यह मल्टीट्यूड एक उतने ही आकारहीन और आकृतिहीन किस्म के शासकों के समूह का तख्तापलट कर, कॉमंस (साझा सम्पदा) को निजी कब्ज़े से मुक्त करायेगा। यहाँ पूँजीवाद एक अवैयक्तिक (इम्पर्सनल) शक्ति बन जाता है, प्रतिरोध एक अमूर्त चीज़ बन जाती है और प्रतिरोध करने वाले भी आकृतिहीन वस्तु बन जाते हैं। यह पूरी अवधारणा बुनियादी मार्क्सवादी सिद्धान्तों पर हमला करने के लिए ही गढ़ी गयी है, जैसे कि वर्ग की अवधारणा, निजी सम्पत्ति और पूँजी की अवधारणा, पार्टी और राज्य की अवधारणा, आदि। ज़िज़ेक इस मामले में ऊपरी तौर पर नेग्री और हार्ट का विरोध करते हुए भी, उन्हीं द्वारा तैयार की गयी सैद्धान्तिक ज़मीन पर खड़े हैं। जहाँ तक बौद्धिक सम्पदा के नयेपन और सूचना के सर्वशक्तिशाली बन जाने का प्रश्न है, तो यह मूर्खतापूर्ण दावा है। एक कुल्हाड़ी या चक्का बनाने में भी प्राचीनकाल में सूचना की आवश्यकता होती थी। यह सच है कि सामान्य बुद्धि के स्तरोन्नयन के साथ सूचना की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण हो गयी है, लेकिन उसका निजीकरण और उसका मालकरण कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिस पर उत्तरमार्क्सवादी चिन्तक हिरनी के समान चकित हैं। यहाँ वास्तव में, नेग्री, हार्ट और ज़िज़ेक जैसे लोग उत्तरऔद्योगिक समाज के सिद्धान्तकारों के पीछे चल रहे हैं। बस फर्क यह है कि सूचना पूँजीवाद के उदय के दोनों के नतीजों में कुछ भिन्नता है।
उत्तरऔद्योगिक समाज के सिद्धान्तकारों का मानना है कि सूचना पूँजीवाद के उदय के साथ सर्वहारा वर्ग ग़ायब हो गया है, और अगर वह है भी तो उसमें प्रतिरोध करने की कोई शक्ति नहीं बची है। उत्तरमार्क्सवादी विचारक यह मानते हैं प्रतिरोध के नये रूप पैदा हो गये हैं, जिनका नये तरीके से सैद्धान्तिकीकरण करने की ज़रूरत है। सामान्य तौर पर इस बात पर कोई आपत्ति नहीं करेगा। लेकिन जब आप देखते हैं कि उत्तरमार्क्सवादियों के इस नये सैद्धान्तिकीकरण में मूल बात क्या है, तो आप पाते हैं कि इसमें वर्ग, राज्य और अधिनायकत्व की अवधारणाओं को छोड़कर और सबकुछ है। पूँजीवाद के अर्थपूर्ण प्रतिरोध का अभिकरण सर्वहारा वर्ग से छीन लिया गया है। सर्वहारा वर्ग इनके लिए अनुपस्थित हो चुका है और टटपुँजिया वर्ग परिवर्तन का नया अगुआ है। ज़िज़ेक भी एक प्रकार से इसी थीम का अनुसरण करते हैं। शारीरिक श्रम करने वालों का उदाहरण देने में भी वह ज़्यादा से ज़्यादा फ्रलाइट अटेण्डेण्ट का उदाहरण दे पाते हैं! औद्योगिक सर्वहारा का कहीं ज़िक्र भी नहीं होता। यहाँ पर भी हम देख सकते हैं कि सूचना के उत्पादन (अभौतिक उत्पादन) की सम्भावनासम्पन्नता के प्रति इन विचारकों में एक प्रकार की फेटिश है। इसके माध्यमों, जैसे कि इण्टरनेट, आदि को लेकर वह अचम्भित हैं। लेकिन एक बुनियादी बात वह भूल जाते हैं: एनक्रिप्शन करने वाले सॉफ्रटवेयर पेशेवर को भी खाने के लिए खाना, पहनने के लिए कपड़ा और रहने के लिए घर चाहिए। चाहे इन चीज़ों के उत्पादन में सूचना का कितना भी महत्व हो जाये (और ऐसा कब नहीं था!), भौतिक उत्पादन का महत्व और उसकी मानवीय जीवन के लिए अनिवार्यता किसी भी सूरत में कम नहीं हो सकती। अभौतिक उत्पादन एक उन्नत दुनिया का प्रतीक है; इसमें कोई शक़ नहीं। लेकिन कई सौ फुट ऊँची इमारत की भी एक बुनियाद होती है। हो सकता है वह बुनियाद ज़्यादा से ज़्यादा कुछ दर्ज़न फुट ही गहरी हो। लेकिन उसके बिना दस फुट की दीवार भी नहीं खड़ी की जा सकती है। यह बात अलग है कि पूँजीवादी व्यवस्था में भौतिक उत्पादन निकृष्ट बन गया है, और अभौतिक उत्पादन उस पर अपना वर्चस्व और प्रभुत्व स्थापित करके बैठा हुआ है। लेकिन पूँजीवाद में सीधा क्या है? जैसा कि मार्क्स ने कहा था, सबकुछ ही अपने सिर के बल खड़ा है! संक्षेप में कहें, तो ज़िज़ेक और उनके जैसे तमाम उत्तरमार्क्सवादियों ने सूचना पूँजीवाद के उदय के साथ आने वाले परिवर्तनों की जो समझदारी प्रस्तुत की है, वह वास्तव में मार्क्सवाद की बुनियादी श्रेणियों को रद्द करने के लिए की गयी है। इसमें तार्किक निरन्तरता की भारी कमी है, और थोड़ी ही पड़ताल पर उसका उथलापन और ओछापन सामने आ जाता है।
अब आते हैं एक नये किस्म की बुर्जुआज़ी के उदय बारे में ज़िज़ेक के दावे पर। इस नयी बुर्जुआज़ी की अवधारणा को वह एक लकानियन विचारक ज्याँ क्लॉड मिल्नर से उधार लेते हैं, और उसे अपने विचारधारात्मक खाँचे में फिट करते हैं। इस बुर्जुआज़ी में न सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर, आदि जैसे पेशे के लोग भी शामिल हैं, बल्कि इस वर्ग के सम्भावित उम्मीदवारों में ज़िज़ेक विश्वविद्यालय छात्रें को भी गिनते हैं। ज़िज़ेक का यह दावा है कि इस नयी बुर्जुआज़ी के ऊपरी हिस्से नियमित स्थायी रोज़गार, बेहद ऊँचे वेतनों और विशेषाधिकारों के स्वामी हैं। जबकि निचले हिस्से वे हैं जिनके सिर पर पूँजीवाद ने अनिश्चितता की तलवार लटका रखी है। ये निचले हिस्से ही हैं, जो कि 2011 में वे “ख़तरनाक सपने” देख रहे थे जिनकी बात ज़िज़ेक अपनी नयी पुस्तक में कर रहे हैं। ज़िज़ेक मानते हैं कि अरब जनउभार, ब्रिटिश छात्र-युवा आन्दोलन और निम्न वर्गों के दंगे, स्पेन और यूनान में चल रहे आन्दोलन और साथ ही ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन इन्हीं वर्गों की आकांक्षाओं की नुमाइन्दगी करते हैं। ज़िज़ेक इन आन्दोलनों को “वामपन्थी” अर्थों में क्रान्तिकारी नहीं मानते। उनका कहना है कि इन आन्दोलनों के पास कोई भविष्य दृष्टि नहीं है। इनका लक्ष्य कम्युनिज़्म नहीं है और वे किसी भी रूप में कम्युनिस्ट समाज की तरफ़ जाने की बात नहीं करते। लेकिन ज़िज़ेक यहाँ एक विरोधाभास में फँस जाते हैं। स्वयं ज़िज़ेक का मानना है कि कम्युनिस्ट समाज की कोई पूर्वकल्पित दृष्टि नहीं होनी चाहिए और वह कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस के रूप में होना चाहिए, यानी ऐसा कम्युनिस्ट समाज जिसके सभी तत्व भविष्य के गर्भ में होंगे। ऐसे में, वह किस ज़मीन पर खड़े होकर इन आन्दोलनों से भविष्य दृष्टि और भावी समाज के सकारात्मक प्रस्ताव की माँग कर रहे हैं? इस विरोधाभास को निपटाने के लिए ज़िज़ेक जो बात कहते हैं, वह उन्हें और भी ज़्यादा गहरे अन्तरविरोध में उलझा देता है। ज़िज़ेक कहते हैं कि इन आन्दोलनों को अलग-अलग विश्लेषित करना पड़ेगा और किसी पूर्वनिर्धारित अवधारणा के आधार पर नहीं बल्कि इनकी अपनी शर्तों पर। और इसी आधार पर विश्लेषण करने पर ज़िज़ेक को इन आन्दोलनों में “भविष्य के चिन्ह” भी दिखलायी देते हैं। अब अगर ज़िज़ेक से पूछा जाय कि इन आन्दोलनों के बारे में उनका दृष्टिकोण क्या है, तो वह क्या बताएँगे? ये आन्दोलन “वेतनभोगी” बुर्जुआज़ी और सम्भावित रूप से भावी “वेतनभोगी” बुर्जुआज़ी के आन्दोलन हैं, जिनके पास कोई सर्वहारा या कम्युनिस्ट विज़न नहीं हैं (जिसको ज़िज़ेक अपनी कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस के सिद्धान्त के आधार पर स्वयं ही नकारते हैं!) लेकिन फिर भी वे “भविष्य के चिन्ह” हैं! इस बात का क्या अर्थ निकलता है? कुछ भी नहीं! शायद हमारी दृष्टि में वह हेगेलीय लकानीय ट्विस्ट नहीं है कि हम इसे समझ सकें!
ज़िज़ेक का यह दावा भी, कि यह वेतनभोगी बुर्जुआज़ी समकालीन पूँजीवाद की पैदावार है, व्यर्थ है। क्योंकि यह वेतनभोगी बुर्जुआज़ी आज की पैदावार नहीं है और यह साम्राज्यवाद के अस्तित्व में आने के साथ ही यह अस्तित्व में आयी। स्वयं लेनिन की रचना ‘साम्राज्यवादः पूँजीवाद की चरम अवस्था’ में लेनिन इस परिघटना को रेखांकित करते हैं। वास्तव में, मार्क्स ने और उससे भी ज़्यादा एंगेल्स ने राजकीय पूँजीवाद और बैंकों की बढ़ती भूमिका के विश्लेषण के दौरान इस विशेष किस्म की बुर्जुआज़ी के उभार को रेखांकित किया था। एंगेल्स ने कहा था कि बैंकों या राज्य की देखरेख और पर्यवेक्षण में जो पूँजीवादी विकास होता है, उसमें एक ऐसी बुर्जुआज़ी अस्तित्व में आती है जो कि पूँजी की रखवाली करने और उसकी देखरेख करने का काम करती है। वह जिस पूँजी की रखवाली करती है, वह वास्तव में अक्सर किसी एक पूँजीपति की पूँजी/सम्पत्ति नहीं रह जाती बल्कि पूरे पूँजीपति वर्ग की “सामूहिक पूँजी” बन चुकी होती है। वास्तव में, न्यायिक-वैधिक सम्पत्ति सम्बन्ध असल उत्पादन सम्बन्ध को छिपाने लगते हैं। लेकिन यहाँ पर यह याद करना ज़रूरी है कि पूँजी वस्तुतः एक सामाजिक सम्बन्ध है। अपने आप में पूँजी और कुछ नहीं है, बल्कि भण्डारित श्रम है। यह श्रम शारीरिक हो सकता है या मानसिक। और इस भण्डारित श्रम को पूँजीपति वर्ग सामूहिक तौर पर हस्तगत कर सकता है, जैसा कि आम तौर पर साम्राज्यवाद के दौर में ट्रस्टों, कार्टेलों, जॉइण्ट स्टॉक कम्पनियों आदि के रूप में होता है, या फिर यह निजी पूँजीपतियों के रूप में कर सकता है, जैसा कि “मुक्त-व्यापार” पूँजीवाद के दौर में होता है। यहाँ पर यह भी याद रखना ज़रूरी है कि “मुक्त-व्यापार” पूँजीवाद में ही वह नैसर्गिक गति निहित होती है जो कि इज़ारेदार पूँजीवाद या साम्राज्यवाद की तरफ़ ले जाती है। ये दोनों ही वैश्विक पूँजीवाद के विकास और उद्भव के अलग-अलग क्षण है। साम्राज्यवाद के चरण में निजी सम्पत्ति के रूपों जो बदलाव आते हैं वे तमाम दृष्टिभ्रम पैदा करते हैं। और इन दृष्टिभ्रमों का शिकार ज़िज़ेक और उनके जैसे तमाम उत्तरमार्क्सवादी बुद्धिजीवी हो गये हैं। इसका प्रमुख कारण वही है जिसका हमने पहले ज़िक्र किया हैः इन तमाम बुद्धिजीवियों में जो बात सामान्य है वह है राजनीतिक अर्थशास्त्र की बेहद अधकचरी और सीमित समझदारी, शायद उतनी ही ज़ितनी इन बुद्धिजीवियों को अपनी विश्वविद्यालय शिक्षा के पाठ्यक्रम के अंग के तौर पर मिली थी। और दूसरी जिस चीज़ की कमी इन बुद्धिजीवियों के सैद्धान्तिकीकरण में नज़र आती है, वह है ऐतिहासिक दृष्टि और इतिहास की जानकारी का अभाव। मिसाल के तौर पर ज़िज़ेक समकालीन दुनिया के बारे में और उसमें हो रही घटनाओं की जानकारी तो रखते हैं, लेकिन बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध और उससे पहले के इतिहास के बारे में उनकी जानकारी ज़्यादा से ज़्यादा अखबारी कही जा सकती है। यहाँ पर बेज्यू की मिसाल दी जा सकती है। बेज्यू यथार्थ (रियल), काल्पनिक (इमैजिनरी) और प्रतीकात्मक (सिम्बॉलिक) की लकानियन त्रयी को लागू करते हुए कहते हैं कि इतिहास प्रतीक का क्षेत्र है, भविष्य की परियोजना (उनके लिए कम्युनिज़्म का विचार) काल्पनिक का क्षेत्र है और राजनीति यथार्थ का क्षेत्र है। यानी कि कम्युनिज़्म की पूरी परियोजना एक आत्मगत कारक बन जाती है। मार्क्स के विचारों के विपरीत यह ‘इतिहास की वास्तविक गति’ नहीं रह जाती है। और हो भी कैसे सकती है! क्योंकि इतिहास तो महज़ एक प्रतीक है और मनोविश्लेषण के नियमों तहत एक समस्या है, बीमारी का लक्षण है। यह वास्तविक नहीं है। यह रचा जाता है, ताकि काल्पनिक को पुष्ट किया जा सके! यानी इतिहास को प्रतीक/लक्षण बना दिया गया, कम्युनिज़्म की परियोजना को काल्पनिक बना दिया गया और बची सिर्फ राजनीति जिसे यथार्थ करार दिया गया! अब यह राजनीति क्या है, इसके विश्लेषण के लिए यहाँ स्थान नहीं है, लेकिन बस इतना कहा जा सकता है कि यह नये रंगरोगन के साथ अराजकतावाद है। लेकिन इतिहास के बारे में उत्तरमार्क्सवादियों की अवस्थिति और उत्तरआधुनिकतावादियों की अवस्थिति में ज़्यादा फ़र्क नहीं रह जाता है, जोकि इतिहास को आत्मगत निर्मिति मानते हैं, भाषा का खेल मानते हैं। इतिहास के बारे में ज़िज़ेक के दृष्टिकोण पर हम थोड़ा आगे आयेंगे। पहले यह देख लिया जाय कि जिस वेतनभोगी बुर्जुआज़ी को ज़िज़ेक आज के पूँजीवाद की पैदावार मानते हैं, या कम-से-कम जिसके उभार को वह आज के पूँजीवादी समाज की परिघटना मानते हैं, उसके बारे में मार्क्स और लेनिन ने क्या लिखा था।
मार्क्स ने बैंकिंग पूँजी और बैंकिंग तन्त्र के उभार के बारे में ‘पूँजी’ के तीसरे खण्ड में लिखा था कि बैंकिंग तन्त्र वास्तव में समूचे पूँजीपति वर्ग का साझा बहीखाता है और उत्पादन के साधनों का “सामाजिक पैमाने पर वितरण” है। मार्क्स ने बताया कि यह सामाजिक वितरण केवल रूप में ही सामाजिक है। धीरे-धीरे सामाजिक पैमाने पर उत्पादन के साधनों के इस पूँजीवादी वितरण में पूँजीपति वर्ग के साथ-साथ निम्न पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्से भी आ जाते हैं, और अक्सर पूँजीपति वर्ग इस वितरण में अपने रूप को मालिक की बजाय, पूँजी के प्रबन्धक के तौर पर पेश करता है। मार्क्स आगे बताते हैं कि वास्तव में यह वितरण निजी होता है और पूँजीपति वर्ग और उसके पिछलग्गुओं के हित में होता है। यह वितरण एक ऐसे समाज की तरफ़ ले जाता है जिसमें आम आबादी अभाव और ग़रीबी में जीने के लिए मजबूर होती है और बैंक एक सामूहिक पूँजीपति की तरह उससे हर रूप में अधिशेष विनियोजन करता है, चाहे वह मुनाफ़ा हो, लगान हो या फिर ब्याज़। लेनिन ने ‘साम्राज्यवादः पूँजीवाद की चरम अवस्था’ में इस पूरे विकास के बारे में विस्तार से बताया है। एक जगह लेनिन लिखते हैं, “तीस वर्ष पहले व्यवसायी एक दूसरे से मुक्त रूप से प्रतिस्पर्द्धा करते हुए, अपने व्यवसाय के शारीरिक श्रम को छोड़कर नब्बे प्रतिशत कार्य किया करते थे। वर्तमान में, यह नब्बे फीसदी “दिमागी काम” भी अधिकारी वर्ग द्वारा किया जाता है। बैंकिंग इस विकास की अग्रिम कतार में है।” आगे लेनिन लिखते हैं, “यह आम तौर पर पूँजीवाद की एक चारित्रिक आभिलाक्षणिकता है कि पूँजी का मालिकाना उत्पादन में पूँजी के लगाये जाने से अलग होता जाता है, कि मुद्रा पूँजी औद्योगिक या उत्पादक पूँजी से अलग होती जाती है और लगानजीवी वर्ग जो पूरी तरह से मुद्रा पूँजी की आमदनी पर जीता है, उद्यमी से और उन सभी लोगों से अलग होता जाता है जो कि पूँजी के प्रबन्धन से प्रत्यक्ष सम्बन्ध रखते हैं। साम्राज्यवाद, या वित्त पूँजी का प्रभुत्व, पूँजीवाद की वह चरम अवस्था है जिसमें यह अलगाव विशाल पैमानों तक पहुँच जाता है। वित्त पूँजी के पूँजी के अन्य सभी रूपों पर प्रभुत्व का अर्थ है लगानजीवी वर्ग और वित्तीय अल्पतन्त्र का शासन—।” यहाँ लेनिन स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि साम्राज्यवाद के उदय के साथ अधिशेष विनियोजन में लगान और ब्याज़ का हिस्सा बढ़ता जायेगा। यह लगान पैदा होगा उत्पादन के साधनों पर एक वित्तीय अल्पतन्त्र की इज़ारेदारी से। वास्तव में, हर प्रकार का लगान सम्पत्ति पर एकाधिकार से ही पैदा होता है (सिवाय डिफरेंशियल रेण्ट के जो भू-लगान की एक किस्म है, जो कि दो अलग-अलग उर्वरता वाली ज़मीनों के बीच के अन्तर से पैदा होता है और जिसे बेशी अधिशेष कहना ज़्यादा उचित है; इस पर हम यहाँ विस्तार से चर्चा नहीं कर सकते)। साम्राज्यवाद के दौर में जब उत्पादन प्रचुरता की मंज़िल में पहुँच रहा होता है, लेकिन अतिरिक्त मूल्य के मुनाफ़े में तब्दील होने का संकट (रियलाइज़ेश क्राइसिस) गम्भीरतम रूपों में होता है, तो पूँजीपति वर्ग अपने मुनाफ़े की दर को बरकरार रखने के लिए अधिशेष के बड़े हिस्से को लगान और ब्याज़ में तब्दील करता है। मार्क्स ने स्पष्ट तौर पर बताया था कि अतिरिक्त मूल्य का पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग हिस्सों में मुनाफ़े, लगान और ब्याज़ के रूप में बँटवारा होता है। मार्क्स और लेनिन दोनों ने दिखलाया था कि एकाधिकारी पूँजीवाद के अस्तित्व में आने के साथ मुनाफ़े की दर का गिरना अधिक तेज़ हो जायेगा, संकट का चक्र छोटा होता जायेगा और ढाँचागत संकट अपने आपको गम्भीरतम रूप में पेश करेगा। साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीपति वर्ग अतिरिक्त मूल्य के मुद्रा पूँजी के रूप में वास्तवीकृत (रियलाइज़) न होने के संकट को दूर करने के लिए ऋण वित्तपोषित उपभोग को बढ़ावा देता है और साथ ही साथ शेयर बाज़ार में सट्टेबाज़ी और ऐसे ही अन्य उपक्रमों के ज़रिये अपनी समृद्धि को कायम रखने और संकट को टालने का प्रयास करता है। ऐसे में, पूँजी का बड़ा हिस्सा वित्तीय पूँजी की सट्टेबाज़ी और उसके बुलबुले फुलाने में ख़र्च होता है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में अधिशेष के तीनों हिस्से में लगान और ब्याज़ का अनुपात बढ़ेगा और मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र कम-से-कम सवा सौ साल से इस सच्चाई से वाक़िफ़ है। ऐसे में, ज़िज़ेक को इसमें नया क्या दिख गया? न तो मुनाफ़े से लगान की तरफ़ संक्रमण में कुछ नया है, और न ही इस तथाकथित नयी वेतनभोगी बुर्जुआज़ी में कुछ नया है। ऐसे में ज़िज़ेक मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र की ही पुरानी सिद्ध अवधारणाओं को नये शब्द देकर अपना आविष्कार सिद्ध कोशिश करने की कोशिश कर रहे हैं। यहाँ ज़िज़ेक ज्याँ पॉल सार्त्र की उस प्रसिद्ध उक्ति को शब्दशः सही सिद्ध कर रहे हैं कि आम तौर पर मार्क्सवाद के खण्डन के तौर पर जो कहा जाता है, वह मार्क्स-पूर्व विचारों को फिर से ज़िन्दा करने की कोशिश होती है (इस मामले में हेगेलीय प्रत्ययवादी) और उनमें जो सही होता है, वह वास्तव में मार्क्सवाद पहले ही कह चुका होता है।
मार्क्सवाद द्वारा पहले ही स्थापित सत्यों के नाम बदलकर उन पर अपना दावा करने के अलावा ज़िज़ेक जो कार्य करते हैं, वह है मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों की मनमानी व्याख्या करके उन्हें विकृत करना। मिसाल के तौर पर, अपनी पुस्तक के दूसरे अध्याय में मार्क्स की शानदार रचना ‘नेपोलियन बोनापार्त की अट्ठारहवीं ब्रुमेयर’ के कुछ अंशों की मनमानी लकानियन व्याख्या करते हैं और दिखलाने की कोशिश करते हैं कि एक राज्यसत्ता कई वर्गों की नुमाइन्दगी कर सकती है। एक जगह तो वह बोनापार्तवाद का यह अर्थ समझ लेते हैं कि इतिहास में ऐसे मौके भी आ सकते हैं जब राज्यसत्ता स्वयं का ही प्रतिनिधित्व करेगी! मिसाल के तौर पर ज़िज़ेक इंग्लैण्ड की कुलीन वर्गीय राज्यसत्ता की, जो कि बुर्जुआ वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी कर रही थी और गृहयुद्ध के बाद के क्रान्तिकारी रूस की बात करते हैं जब कथित रूप से सर्वहारा वर्ग समाप्त हो गया था, लेकिन सर्वहारा राज्यसत्ता बरकरार थी, और खुद का प्रतिनिधित्व कर रही थी। लेकिन इंग्लैण्ड के कुलीन वर्गों की बात केवल इस बात के आधार पर की गयी है कि राज्यसत्ता में बैठे लोगों का जन्म कुलीन परिवारों में हुआ था और रूस के मामले में यह दावा ही ग़लत है सर्वहारा वर्ग समाप्त हो गया था, वह सिर्फ आंशिक रूप से विसंगठित हुआ था। ज़िज़ेक भूल जाते हैं कि मार्क्स ने ही इंग्लैण्ड के इस कुलीन वर्ग के बुर्जुआकरण की ओर ध्यानाकर्षण किया था। इस रूप में राज्यसत्ता वास्तव में सामन्ती कुलीन वर्ग और बुर्जुआ वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी नहीं कर रही थी, बल्कि वास्तव में वह बुर्जुआ वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी कर रही थी। आगे वह मार्क्स के अन्य कथनों का भी इसी प्रकार विकृतिकरण करते हैं, और एक प्रकार से मार्क्स का लकानियन विनियोजन करते हैं। नतीजतन, ज़िज़ेक का पूरा विश्लेषण एक सट्टेबाज़ मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक खेल बन जाता है, जिसका आखि़री मकसद कुछ भी नहीं सिर्फ बौद्धिक विलास है। उनका लेखन आम तौर पर आज के मनोरंजन उद्योग के समान है, जो वास्तव में अनुत्पादक है। ज़िज़ेक के लेखन में आपको लगातार यौनिक और स्कैटोग्राफिकल वक्रोक्तियाँ मिलती हैं। गम्भीर दार्शनिक और राजनीतिक विमर्श की गरिमा को और गम्भीरता को भी ज़िज़ेक देर तक बर्दाश्त नहीं कर पाते और थोड़ी ही देर में ऐसी वक्रोक्तियों के प्रयोग के गड्ढे में गिर पड़ते हैं। यह पाठक को एक ‘कॉमिक रिलीफ’ और एक प्रकार का टिटिलेशन देता है, और इसलिए ऊबने नहीं देता। लेकिन इस क्षणिक सुख के अलावा इसमें समृद्ध करने वाली कोई चीज़ बिरले ही मिलती है। जब कोई उपयोगी बात या अन्तर्दृष्टि मिलती भी है, तो उसमें ज़िज़ेक का कुछ भी मौलिक नहीं होता। यानी, एक तरीके से कहा जा सकता है कि ज़िज़ेक के लेखन में जो कुछ भी काम का है, वह आम तौर पर उनका मौलिक नहीं है, और बाकी जो बचता है वह अक्सर सट्टेबाज़ बहेतू दर्शन का कचरा होता है।
बेज्यू की ही तरह इतिहास के प्रति अवहेलना का दृष्टिकोण ज़िज़ेक का भी है, लेकिन अपने किस्म से। वह इतिहास को पूरी तरह प्रतीकात्मक तो नहीं मानते लेकिन वह बीसवीं सदी में मज़दूर वर्ग द्वारा किये गये समाजवाद के प्रयोगों को बिना किसी विश्लेषण के एक त्रासदी मानते हैं, और इस रूप में उसे लक्षण के रूप में ही देखते हैं, जैसा कि बेज्यू कहते हैं। बेज्यू का भी यही विचार है कि लाक्षणिक (इतिहास) के विरुद्ध यथार्थ (राजनीतिक) और कल्पना (कम्युनिस्ट विचार) की एकता बनानी होगी। ज़िज़ेक के लिए भी बीसवीं सदी के समाजवाद की तरफ़ एक भी दृष्टि डाले हुए ही भावी कम्युनिस्ट समाज का निर्माण हो सकता है। ज़िज़ेक ने अपनी किसी भी रचना में बीसवीं सदी के समाजवाद को, विशेषकर रूस और चीन में समाजवादी प्रयोगों के अनुभवों को एक बुरे अनुभव, त्रासदी या विपदा के तौर पर चित्रित करने के लिए किसी वैज्ञानिक-ऐतिहासिक विश्लेषण का इस्तेमाल नहीं किया है। ज़िज़ेक के लेखन में यह नतीजा आकाशवाणी के समान (एकि्ज़योमैटिक) है। आप अगर ज़िज़ेक को पढ़कर उसका कोई भी अर्थ निकालना चाहते हैं तो आपको भी इस बात को अपने प्रस्थान-बिन्दु के तौर पर चुनना पड़ेगा। ऐसा नहीं है कि ज़िज़ेक लेनिन और स्तालिन के बारे में हूबहू वही बातें कहते हैं, जो कि तमाम पश्चिमी साम्राज्यवादी प्रोपगैण्डा एजेण्ट बोला करते हैं। वह कुछ उनसे भी लेते हैं, और कुछ ऐसे स्रोतों से भी लेते हैं, जो कि लेनिन और स्तालिन की प्रशंसा करते हैं। नतीजतन, वह कभी अपने आपको लेनिनवादी और कभी-कभी तो स्तालिनवादी के तौर पर पेश करते हैं, तो कभी स्तालिन और लेनिन पर कीचड़ उछालने के निकृष्टतम प्रयास करते हैं। लेकिन वह सोवियत समाजवाद की राजनीतिक आलोचना या विश्लेषण का काम कभी हाथ में नहीं लेते हैं। वह बस व्यक्तियों के बारे में अपनी “मनोरंजक” टिप्पणियाँ करते हैं। लेनिन की पूरी तस्वीर जो ज़िज़ेक को पढ़कर उभरती है और जिस चीज़ को ज़िज़ेक लेनिन की अपने द्वारा प्रशंसा का कारण बताते हैं, वह है एक मार्क्सवादी जैकोबिन की जो कि एक तपा-तपाया यथार्थवादी है। एक ऐसा व्यक्ति जो किसी राजनीतिक नीतिशास्त्र या आदर्शवाद से प्रस्थान नहीं करता, बल्कि ठोस राजनीतिक आवश्यकताओं के आधार पर कदम उठाता है। इसके अलावा, जहाँ कहीं भी लेनिन के विचारों का ज़िक्र होता है, वहाँ ज़िज़ेक उसकी अपनी एक मनोरंजक लकानीय व्याख्या करते हैं। लेकिन महान व्यक्तित्वों के कथनों की आधिभौतिक ढंग से अलग-अलग मनोविश्लेषणात्मक और हेगेलीय व्याख्याओं को छोड़ दिया जाय तो ज़िज़ेक कहीं भी लेनिनवादी पद्धति या समझदारी की कोई सुसंगत आलोचना नहीं रखते। लेनिनवाद और स्तालिनवाद जैसे शब्द कैचवर्ड की तरह इस्तेमाल किये जाते हैं। और इनका इस्तेमाल काफ़ी हद तक पूर्वी यूरोप में संशोधनवादी सत्ताओं के कुकर्म के जवाब में पैदा हुए पूर्वी यूरोपीय टटपुँजिया हास्य के आधार पर किया जाता है। और अगर सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की आलोचना की बात करें तो हमें शक़ है कि ज़िज़ेक किस्सों के अलावा उसके बारे में गहराई से कुछ जानते हैं, सिवाय उसी पूर्वी यूरोपीय बुर्जुआ हास्य के जो कि सोवियत संघ और साथ ही पूर्वी यूरोप की संशोधनवादी कम्युनिस्ट सत्ताओं के खि़लाफ़ पैदा हुआ था। लेकिन बिना किसी विश्लेषण के, बिना किसी सुसंगत आलोचना के ज़िज़ेक इस चीज़ को आकाशवाणी के समान स्वयंसिद्ध मानते हैं कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग एक विपदा या त्रासदी में समाप्त हुए। वह तो यहाँ तक कहते हैं कि आज के समय में कम्युनिस्ट तब तक नया कुछ नहीं कर सकते, जब तक कि वह बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की तरफ़ देखना पूरी तरह से बन्द नहीं कर देते और यह मान नहीं लेते की वे पूर्ण असफलता में समाप्त हुए। इस इतिहास-दृष्टि के बारे में ज़ितना कम कहा जाय, उतना बेहतर है। हमने इसीलिए शुरू में कहा था कि मनोविश्लेषण और दर्शन के विद्यार्थी ज़िज़ेक का राजनीतिक अर्थशास्त्र और इतिहास के बारे में ज्ञान बेहद सीमित है, और ज़ितना है वह भी अखबारी है या फिर नेशनल ज़ियोग्राफिक, डिस्कवरी चैनल, हिस्ट्री चैनल आदि देखकर और रॉय मेदवेदेव और मार्क फेरो जैसों की किताबें पढ़कर निर्मित हुआ है। ऐसे में, ज़िज़ेक से और कोई उम्मीद की भी नहीं जा सकती है।
ज़िज़ेक का मानना है कि समकालीन पूँजीवाद में बेरोज़गारी का स्वरूप बदल गया है। अब एक स्थायी क़रारनामे के तहत दीर्घकालिक रूप से शोषित होना एक विशेषाधिकार बन गया है। यानी कि स्थायी नौकरियाँ कम होती जा रही हैं, और एक ऐसा मज़दूर वर्ग पैदा हुआ है जो कि ढाँचागत तौर पर बेरोज़गारी में रहता है। स्पष्ट है कि ज़िज़ेक मज़दूर वर्ग के अनौपचारिकीकरण और एक विशाल असंगठित मज़दूर वर्ग के उदय की परिघटना को समझने में बिल्कुल नाकाम रहे हैं। साथ ही वह यह समझने में भी असफल रहे हैं कि मज़दूर वर्ग के अनौपचारिकीकरण की परिघटना कोई नयी चीज़ नहीं है। केवल फोर्डिस्ट और कल्याणकारी राज्य के दौर के पूँजीवाद में ही मज़दूर वर्ग के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से को स्थायी रोज़गार का अधिकार मिल पाया था। फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन के उदय के पहले का मज़दूर वर्ग भी मूल रूप से ढाँचागत बेरोज़गारी का शिकार था, और अक्सर वह उस प्रकार के पेशों के ज़रिये जीवनयापन करता था जिसे बुर्जुआ अर्थशास्त्री “स्वरोज़गार” की भ्रामक श्रेणी द्वारा व्याख्यायित करते हैं। यह इत्तेफ़ाक नहीं था कि बीसवीं सदी के पहले के अधिकांश प्रमुख मज़दूर आन्दोलनों के केन्द्र में यही अनौपचारिक मज़दूर वर्ग था, जैसे कि 19वीं सदी के मध्य में यूरोप में मज़दूर मिलिटेंसी, पेरिस कम्यून, शिकागो का मज़दूर आन्दोलन वगैरह। इन मज़दूर आन्दोलनों में हिस्सा लेने वाला मज़दूर आम तौर पर स्थायी क़रार के तहत काम करने वाला मज़दूर नहीं था, बल्कि अनौपचारिक अस्थायी करार के तहत काम करने वाला मज़दूर था, या फिर स्वरोज़गार करने वाला मज़दूर था। उत्तर-फोर्डिस्ट दौर में अनौपचारिकीकरण एक नये रूप में और एक नये स्तर पर वापस लौटा है। इतिहास ने कुण्डलाकार गति की है। लेकिन जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं कि जिन बुनियादी वैचारिक तत्वों से ज़िज़ेक दयनीय रूप से महरूम हैं, उनमें एक इतिहासबोध भी है। नतीजतन, मौजूदा दौर में मज़दूर वर्ग के ढाँचे और स्वरूप में आने वाले बदलाव की ऐतिहासिकता (हिस्टॉरिसिटी) और उसकी नवीनता, दोनों को ही समझने में ज़िज़ेक नाकाम हैं। नतीजतन, एक और स्थापित मार्क्सवादी अवधारणा, यानी कि अतिरिक्त मज़दूर आबादी की अवधारणा को नाम बदलकर वह अपना आविष्कार क़रार देने पर आमादा हैं। लेकिन जिन लोगों को भी मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों का ज्ञान है, वह ज़िज़ेक पर हँस ही सकते हैं।
ज़िज़ेक कहते हैं कि आज जो पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलन हो रहे हैं वह बेहद अराजकतापूर्ण हैं और अस्त-व्यस्त (मेसी) हैं। लेकिन उन्हें इसी रूप में स्वीकार करने की ज़रूरत है। अस्त-व्यस्त आन्दोलनों के सैद्धान्तिकीकरण के व्यवस्थित होने का ज़िज़ेक विरोध करते हैं। यह भी एक विचित्र अवस्थिति है। अगर वस्तुगत परिस्थिति में अराजकता, उथल-पुथल और अस्त-व्यस्तता है, तो इसका यह नतीजा कैसे निकाला जा सकता है उसका सैद्धान्तिक विश्लेषण भी अस्त-व्यस्त होना चाहिए? समाज से लेकर प्रकृति तक में तमाम ऐसी परिघटनाएँ हैं जिनकी कारणात्मकता एकरेखीय नहीं है। लेकिन उनका सैद्धान्तिकीकरण व्यवस्थित है। बल्कि यह कहा जाना चाहिए कि जहाँ पर वस्तुगत परिस्थितियों में अराजकता का तत्व हावी है, वहाँ उनके सैद्धान्तिकीकरणों में अधिक व्यवस्था का तत्व होना चाहिए। खै़र, एक तरफ़ तो ज़िज़ेक मौजूदा प्रतिरोध-आन्दोलनों को ज्यों का त्यों स्वीकार करने की हिमायत करते हैं, वहीं दूसरी ओर वह उसकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि वह मौजूदा व्यवस्था का अंग हैं, और चूँकि उनके पास किसी भावी कम्युनिस्ट समाज का प्रस्ताव या विज़न नहीं है, इसलिए वह प्रगतिशील नहीं हैं, बल्कि वह उन वर्गों के आन्दोलन हैं ज़िन्हें अपनी विशेषाधिकार-प्राप्त सामाजिक स्थिति के खोने का भय है। इसके बाद वह यह भी कहते हैं कि भावी कम्युनिज़्म के बारे में कोई विज़न या ठोस प्रस्ताव होना ही नहीं चाहिए, और हमारा प्रस्ताव होना चाहिए कम्युनिज़्म एब्सकॉण्डिटस! अब आप ही बतायें कि ज़िज़ेक आख़िर कहना क्या चाहते हैं? कुछ नहीं! यह सारा सैद्धान्तिक तमाशा एक निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे लकानियन शोरबे और हेगेलीय मसाले के साथ छद्म-मार्क्सवादी अंगीठी पर पकाकर परोसा जा रहा है। इसका कोई ऑपरेटिव पार्ट नहीं है।
ज़िज़ेक जो कहते हैं उसे अगर सारांश में रखा जाय तो वह अन्तरविरोधी बातों का एक जंजाल बन जायेगा। एक —बीसवीं सदी का समाजवाद एक पूर्ण असफलता और विपदा के तौर समाप्त हुआ और आज की किसी भी प्रगतिशील परियोजना को इन प्रयोगों के अध्याय को ही बन्द नहीं करना चाहिए बल्कि उसे उठाकर कचरा-पेटी में फेंक देना चाहिए! दो — फिर आज के दौर में भविष्य के उत्स कहाँ तलाशे जा सकते हैं? आज के प्रतिरोध आन्दोलनों में! और कम्युनिज़्म की किसी भी प्रकार की परिकल्पना नहीं की जानी चाहिए, और उसे नैसर्गिक तरीके से आने देना चाहिए! तीन — लेकिन आज के प्रतिरोध आन्दोलनों के पास कम्युनिज़्म की कोई परिकल्पना नहीं है और यह उनकी कमज़ोरी है; वह किसी प्रगतिशील यूटोपिया से अपनी गति ग्रहण नहीं करते, बल्कि “नयी” वेतनभोगी बुर्जुआज़ी के निचले संस्तरों और सम्भावित वेतनभोगी बुर्जुआज़ी के व्यवस्था से बहिष्कृत किये जाने के खि़लाफ़ किये जाने वाले प्रतिरोध हैं; वे सर्वहारा प्रतिरोध नहीं हैं बल्कि सर्वहाराकरण के डर से पैदा होने वाले प्रतिरोध हैं। चार — आज के पूँजीवाद में लगान मुनाफ़े से ज़्यादा महत्वपूर्ण बन गया है और इस लगान का स्रोत है बौद्धिक सम्पदा (इण्टेलेक्चुअल कॉमंस) और प्राकृतिक सम्पदा (नैचुरल कॉमंस) पर इज़ारेदारी (जैसा कि हम दिखला चुके हैं, इसमें कुछ भी नया नहीं है)। इस पूरे सारांश में तमाम बातें एक-दूसरे को ही काटती हैं, और पाठक अन्त में किसी नतीजे पर नहीं पहुँचता। वास्तव में, ज़िज़ेक किसी नतीजे पर नहीं पहुँचते। लेकिन हम कहेंगे कि यही तो उनका नतीजा है! उन्हें किसी नतीजे पर पहुँचना ही नहीं था। उन्होंने किताब में 2011 को ‘ख़तरनाक ढंग से सपने देखने’ का वर्ष कहा है; हम कहेंगे कि यह ज़िज़ेक के लिए यह निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी और नुकसानदेह रूप से भ्रामक सैद्धान्तिकीकरण करने और दुनिया की एक दयनीय रूप से असफल व्याख्या करने का एक और वर्ष था!
दिशा सन्धान – अंक 1 (अप्रैल-जून 2013) में प्रकाशित