लेनिन, क्या करें?, ‘कठमुल्लावाद और ‘आलोचना की स्वतन्त्रता’’ (1901)
“हम एक छोटे-से समूह में एक ढलान भरे और मुश्किल रास्ते पर मार्च कर रहे हैं, एक दूसरे का हाथ मज़बूती से पकड़े हुए। हम हर तरफ़ से शत्रुओं से घिरे हैं और हमें लगभग लगातार उनकी गोलाबारी के बीच आगे बढ़ना है। हम शत्रु से लड़ने के मकसद से एक मुक्त रूप से अपनाये गये निर्णय से साथ आये हैं, न कि आस-पास के उस दलदल में जाने के लिए जिसके निवासी शुरू से ही हमें एक अलग समूह में अलग हो जाने के लिए और मेल-मिलाप की बजाय संघर्ष का रास्ता चुनने के लिए धिक्कारते रहे हैं। और अब हममें से ही कुछ लोग चीख-चिल्लाहट मचा रहे हैं: चलो दलदल में चलें! और जब हम उन्हें शर्मसार करना शुरू करते हैं, तो वे कठोरता से प्रत्युत्तर देते हैं: कैसे पिछड़े लोग हो तुम! क्या तुम्हें हमारी इस आज़ादी को छीनने पर शर्म नहीं आती कि हम तुम्हें एक बेहतर रास्ते पर ले जाने का आमन्त्रण दे रहे हैं! ओह, हाँ, भद्रजनो! आप हमें आमन्त्रण देने के लिए ही नहीं बल्कि जहाँ भी आपको जाना है, वहाँ जाने के लिए स्वतन्त्र हैं, यानी दलदल में। दरअसल, हमें लगता है कि दलदल ही आपकी सही जगह है, और हम वहाँ पहुँचने आपको हर मदद देने को तैयार हैं। बस हमारा हाथ छोड़ दीजिये, हमें पकड़ कर मत रखिये और महान शब्द आज़ादी को मैला मत करिये, क्योंकि हम भी जहाँ चाहें जाने को “आज़ाद” हैं, न सिर्फ़ दलदल के विरुद्ध लड़ने के लिए बल्कि उनके ख़िलाफ़ लड़ने के लिए भी जो दलदल की ओर मुड़ रहे हैं!”
लेनिन (“वामपन्थी” कम्युनिज़्म: एक बचकाना मर्ज़)
जीवन का तकाज़ा पूरा होकर रहेगा। बुर्जुआ वर्ग को भागदौड़ करने दो, पागलपन की हद तक क्रुद्ध होने दो, हद पार करने दो, मूर्खताएँ करने दो, कम्युनिस्टों से पेशगी में ही प्रतिशोध लेने दो, गुज़रे कल के और आने वाले कल के सैकड़ों, हज़ारों, लाखों कम्युनिस्टों को (हिन्दुस्तान में, हंगरी में, जर्मनी में, आदि) कत्ल करने का प्रयत्न करने दो। ऐसा करके, बुर्जुआ वर्ग उन्हीं वर्गों की तरह पेश आ रहा है जिनके लिए इतिहास मौत का हुक़्म सुना चुका है। कम्युनिस्टों को जानना चाहिए कि भविष्य हर हाल में उनका है, इसलिए हम महान क्रान्तिकारी संघर्ष में उग्रतम उत्साह के साथ-साथ बहुत शान्ति और बहुत धीरज से बुर्जुआ वर्ग की पागलपनभरी भागदौड़ का मूल्यांकन कर सकते हैं, और हमें करना ही चाहिए।
रजनी पाम दत्त
“चीखते-चिल्लाते महत्वोन्मादियों, गुण्डों, शैतानों और स्वेच्छाचारियों की यह फ़ौज जो फासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, उसके पीछे वित्तीय पूँजीवाद के अगुवा बैठे हैं, जो बहुत ही शान्त भाव, सा़फ़ सोच और बुद्धिमानी के साथ इस फ़ौज का संचालन करते हैं और इनका ख़र्चा उठाते हैं। फासीवाद के शोर-शराबे और काल्पनिक विचारधारा की जगह उसके पीछे काम करने वाली यही प्रणाली हमारी चिन्ता का विषय है। और इसकी विचारधारा को लेकर जो भारी-भरकम बातें कही जा रही हैं उनका महत्व पहली बात, यानी घनघोर संकट की स्थितियों में कमज़ोर होते पूँजीवाद को टिकाये रहने की असली कार्यप्रणाली के सन्दर्भ में ही है।”
पियेर माशेरी (‘ए थियरी ऑफ़ लिटररी प्रोडक्शन’)
“इसलिए, पुस्तक की चुप्पी कोई कमी नहीं है जिसे दुरुस्त किया जाना है, कोई अनुपयुक्तता जिसका मुआवज़ा भरा जाना हो। यह कोई अस्थायी चुप्पी नहीं है जिसका अन्त में उन्मूलन हो सकता है। हमें इस चुप्पी की ज़रूरत को अलग करके देखना चाहिए। मिसाल के तौर पर, यह दिखलाया जा सकता है कई अर्थों को एक-दूसरे के बरक्स खड़ा किया जाना और उनके बीच का टकराव वह चीज़ है जो एक आमूलगामी अन्यता पैदा करती है, जो कि रचना को एक रूप-आकार प्रदान करती हैः यह इस टकराव को हल नहीं करती है और न ही सोख लेती है, यह बस उसे प्रदर्शित कर देती है।”
अन्तोनियो ग्राम्शी (प्रिज़न नोटबुक्स)
दिशा सन्धान – अंक 3 (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित