आधुनिक यूनानी त्रासदी के त्रासद नायक के विरोधाभास

आधुनिक यूनानी त्रासदी के त्रासद नायक के विरोधाभास
समाजवाद के जुमलों के तहत रैडिकल सुधारवाद का उदय

  • सत्यम

आधुनिक यूनानी त्रासदी जारी है। इस त्रासदी के रचयिता अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, यूरोपीय संघ और विश्व बैंक हैं। इस त्रासदी के केन्द्र में जो देश है, उसे सहनशीलता की आख़िरी सीमाओं तक धकेल दिया गया है। विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का यह प्रयोग दिखला रहा है कि लोगों को जीवन के बुनियादी साधनों से वंचित करते हुए अधिक से अधिक पूँजी संचय करने और किसी भी तरीके से अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमा लेने की हवस किस हद तक जा सकती है। यूनान में एक सामाज़िक विस्फोट की स्थिति पैदा हो चुकी है। सड़कों पर आप बेघर और बेरोज़गार लोगों के हुजूम देख सकते हैं; आप कूड़ेदानों पर भोजन की तलाश करते ग़रीब लोगों को देख सकते हैं; आप सार्वजनिक स्थानों पर हो रही आत्महत्याओं के साक्षी बन सकते हैं; और आप जनता के प्रतिरोध के साक्षी भी बन सकते हैं। वैश्विक आर्थिक संकट की शुरुआत के बाद से यूनान में 27 आम हड़तालें हो चुकी हैं; हर रोज़ देश की राजधानी एथेंस और अन्य बड़े शहरों में छोटे-बड़े प्रदर्शन होते रहते हैं। कई जगहों पर ये प्रदर्शन हिंसक रूप ले रहे हैं और पुलिस से टकरा रहे हैं। यूनान आज ज़िस संकट के केन्द्र में है, वह वास्तव में 2007 में अमेरिका में सबप्राइम संकट के रूप में शुरू हुआ था। 2007 से ही पूरी विश्व पूँजीवादी व्यवस्था भयंकर ढाँचागत संकट का शिकार है। इस संकट का केन्द्र पश्चिम से पूर्व की ओर स्थानान्तरित हो रहा है। अमेरिका भी अभी मन्दी की चपेट में ही है, लेकिन संकट के सबसे गम्भीर परिणाम अब यूरोप की परिधिगत अर्थव्यवस्थाओं में देखने में आ रहे हैं जैसे आइसलैण्ड, आयरलैण्ड, पुर्तगाल, यूनान और स्पेन में। इनमें भी यूनान की हालत सबसे बुरी है।

संकट के यूरोप तक आने का अतिसंक्षिप्त ब्यौरा

सभी जानते हैं कि इस संकट का मूल कारण है वित्तीय पूँजी की सट्टेबाज़ी और उसके प्रभुत्व के तहत एक जुआघर अर्थव्यवस्था का निर्माण। द्वितीय विश्वयुद्ध के पहले तक पूँजीवादी संकट मुख्य तौर पर अपने आपको अति-उत्पादन के क्लासिकीय संकट के तौर पर पेश कर रहा था; द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्त से लेकर 1973 में डॉलर-स्वर्ण मानक के पतन तक का दौर ऋण-वित्त पोषित आर्थिक तेज़ी का दौर था, ज़िसमें अति-उत्पादन के संकट से निकलने के लिए वित्तीय पूँजी ने ऋण से उपभोग का वित्त-पोषण किया; इसके ज़रिये कमाई का प्रमुख माध्यम ब्याज़ बन गया। इसके साथ ही, एक और ज़्यादा बड़ा और नये किस्म का वित्तीय बाज़ार अस्तित्व में आया। ऋण भी एक माल बन गया और उसे भी बेचा जाने लगा। हर माल के बाज़ार की तरह इस माल के बाज़ार में भी एक दिन अति-उत्पादन (आधिक्य) का संकट आना ही था। 1990 के दशक के अन्त तक वह संकट प्रकट होने लगा था। लेकिन 2000 के दशक में यह संकट नये वेग और गहराई के साथ प्रकट हुआ। एशियाई मौद्रिक संकट, डॉट कॉम बुलबुले और आवास बाज़ार बुलबुले के फूटने के बाद 2006 के अन्त से सबप्राइम ऋण के बाज़ार में संकट के चिन्ह दिखने लगे थे। सबप्राइम ऋण का आविष्कार वास्तव में ऋण के बाज़ार में अति-उत्पादन के संकट से निपटने के लिए ही किया गया था। पूँजी की प्रचुरता के कारण अब ऋण के पर्याप्त ख़रीदार खाते-पीते उपभोक्ताओं के बीच नहीं रह गये थे। यानी कि मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग का हिस्सा अब ऋण बाज़ार के लिए सन्तृप्ति बिन्दु तक पहुँच रहा था। नतीजतन, बैंकों और वित्तीय एजेंसियों को अपनी पूँजी की प्रचुरता का संकट ख़त्म करने के लिए और साथ ही औद्योगिक जगत के अति-उत्पादन के संकट को ख़त्म करने के लिए नये ऋण लेने वाले लोग चाहिए थे। और अब वे लोग केवल ग़रीब आबादी में मिल सकते थे। इसी आबादी के लिए ज़िस ऋण का आविष्कार किया गया, उसे सबप्राइम ऋण कहा गया, जो कि ऐसे लोगों को दिया जाता था ज़िनका ऋण इतिहास (बैंक बैलेंस) अच्छा नहीं रहा है। इस ऋण पर परिवर्तनशील ब्याज़ लगाया जाता था, ज़िससे कि बैंक मूल धन को शुरुआती कुछ किश्तों में ही ब्याज़ समेत वसूल ले। कई बार इस ऋण पर 30 प्रतिशत तक ब्याज़ भी वसूला जाता था। नवउदारवादी अर्थशास्त्र के कठमुल्लों के अनुसार सबप्राइम ऋण का सिद्धान्त बिल्कुल सही था, ज़िसे कि बैंक और वित्तीय संस्थाएँ सही ढंग से लागू नहीं कर पायीं। लेकिन वास्तविकता यह है कि एक व्यापक वित्तीय बाज़ार द्वारा जब यह रणनीति अपनायी जायेगी तो निश्चित तौर पर सभी आम ग़रीब वर्गों के लोग सबप्राइम ऋण की किश्तों का भुगतान नहीं कर पायेंगे। यही हुआ भी। शुरुआती दौर में यह रणनीति सही ढंग से काम करती रही। लेकिन जैसे ही सबप्राइम ऋण लेकर मकान, गाड़ी आदि ख़रीदने वाले लोगों ने डिफॉल्ट करना शुरू किया वैसे ही उनकी सम्पत्तियों को बैंकों ने नीलामी के ज़ब्त करना शुरू किया। लेकिन दिक्कत यह थी कि अब बाज़ार में ख़रीदार ही नहीं बचे थे, जो कि इन घरों, कारों आदि को ख़रीदते। नतीजतन, बैंकों की पूँजी बाज़ार में फँस गयी और वित्तीय बाज़ार में तरलता का संकट पैदा हो गया। बैंक अपने खाताधारकों को पैसा देने में असफल होने लगे और इसी के साथ सबप्राइम ऋण संकट की शुरुआत हुई।

चूँकि द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले ही वित्तीय बाज़ार मोटे तौर पर वैश्विक हो चुके थे, इसलिए यह लाज़िमी था कि अमेरिकी वित्त बाज़ार में पैदा यह संकट देखते ही देखते पूरी दुनिया में फैल जायेगा। इसका कारण यह था कि सबप्राइम ऋण देने वाले तमाम बैंकों ने जो ऋण दिये थे, उन्हें अन्य अच्छी श्रेणी के ऋणों के साथ मिश्रित करके कोलैटरल डेट ऑब्लिगेशन नामक विशेष वित्तीय उपकरण के तौर पर दुनिया के अन्य बैंकों को भी बेच दिया। फिर उन बैंकों ने उन्हें अपने देश के सबप्राइम और अच्छी श्रेणी के ऋणों के साथ मिश्रित करके वित्तीय पैकेज के तौर पर अन्य देशों के बैंकों को बेच दिया। ज़िस ऋण पर मूलधन की भी वापसी नहीं हो पा रही थी, वह एक प्रकार से जहरीला वित्तीय कचरा था। बैंकों द्वारा वित्तीय सट्टेबाज़ियों के ज़रिये यह ज़हरीला वित्तीय कचरा पूरी दुनिया में फैल गया। ऐसे में, सबसे पहले उन देशों को ही तबाह होना था ज़िनकी अर्थव्यवस्थाएँ अपेक्षाकृत कमज़ोर थीं, या ज़िनके वित्तीय बाज़ार अभी वैश्विक पूँजी बाज़ारों के साथ पर्याप्त रूप से समेकित नहीं हुए थे। 2007 में संकट का केन्द्र अमेरिका था। अमेरिका के लिए भी यह संकट महामन्दी के बाद सबसे भयंकर संकट था, और अभी तक अमेरिका उससे उबर नहीं पाया है। लेकिन अपने वैश्विक साम्राज्यवादी वर्चस्व के कारण इस संकट के प्रभावों को वह कुछ हद तक यूरोपीय देशों की ओर स्थानान्तरित करने में सफल रहा है। पूँजी की प्रचुरता के बूते पर अमेरिका ने संकट को किसी तरीके से ख़तरनाक हदों के पार जाने से रोका हुआ है, हालाँकि अमेरिका में इस समय बेघर लोगों की समस्या और बेरोज़गार 1930 के दशक के बाद सबसे ज़्यादा है। जैसे ही यूरोप के बैंक ध्वस्त होने शुरू हुए, वैसे ही सबसे पहले वे अर्थव्यवस्थाएँ संकट की चपेट में आयीं जो कि सबसे कमज़ोर थीं। इन्हीं अर्थव्यवस्थाओं को अभी ‘पिग्स’ (पुर्तगाल, आइसलैण्ड, आयरलैण्ड, ग्रीस, स्पेन) कहा जा रहा है। यहाँ पर यह संकट सार्वभौम ऋण संकट के रूप में प्रकट हुआ है। यानी कि यूरोप के इन अपेक्षाकृत कमज़ोर आर्थिक ढाँचे वाले देशों की सरकारों पर अमेरिका और यूरोपीय संघ का ज़बर्दस्त दबाव है कि वे अपने बैंकों को ‘बेल आउट’ पैकेज देकर बचाएँ। इसका सीधा अर्थ यह है कि इन देशों के बैंक साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों और उन्नत साम्राज्यवादी देशों के बैंकों से लिये गये ऋणों (वित्तीय कचरे) का भुगतान करें। इन देशों की सरकारों के पास मौजूद विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के भीतर रहते हुए, इसके अलावा कोई चारा भी नहीं है। नतीजतन, ये सरकारें सार्वजनिक मदों में कटौती करके इन बैंकों को ‘बेलआउट’ पैकेज देने को मजबूर हैं। इसके लिए उन्हें ‘किफ़ायतशारी’ (ऑस्टिेरिटी) की नीतियों को लागू करना पड़ रहा है। जाहिर है, कि यह किफ़ायतशारी जनता के लिए होने वाले ख़र्चों में कटौती करके की जा रही है। ज़िन देशों की अर्थव्यवस्थाएँ सबसे कमज़ोर हैं, वहाँ पर सरकारों को सार्वजनिक मदों में इतनी कटौती करनी पड़ रही है कि उनके पास अगले वित्तीय वर्ष में सरकारी कर्मचारियों को वेतन देने, शिक्षा, चिकित्सा और आवास जैसे सार्वजनिक मदों में खर्च करने के लिए भी पैसे नहीं हैं। यही स्थिति यूनान में है। हाल ही में यूरोपीय संघ और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में यूनान में पासोक और न्यू डेमोक्रेसी पार्टी की गठबन्धन सरकार ने नयी किफ़ायतसशारी की नीतियों को लागू करने का निर्णय लिया है, और यूनानी संसद को भंग न करवाकर रैडिकल वामपन्थी पार्टी सिरिज़ा ने भी एक तरह से इसका मौन समर्थन किया है, क्योंकि अगर सिरिज़ा के सांसदों ने इस प्रस्ताव के ख़िलाफ़ संसद सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया होता तो यूनानी संसद को भंग करना पड़ता और नये चुनाव कराने पड़ते। लेकिन सिरिज़ा के मौन समर्थन के चलते यूनानी जनता के लिए आने वाले वर्ष में और अधिक तकलीफ़ों का इन्तज़ाम कर दिया गया है।

इस समय पूँजीवादी विश्व व्यवस्था का संकट सान्द्र रूप में प्रकट हो रहा है। विश्व साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों की जो तमाम गाँठें इस समय दुनिया में पैदा हो रही हैं, उनमें से एक यूरोप और विशेषकर यूनान का सार्वभौम ऋण संकट है। इसका कारण यह है कि यह पूँजीवादी आर्थिक संकट अब एक सामाज़िक और आर्थिक विस्फोट की तरफ़ जा रहा है और अभी कोई भी विकल्प यूनान की जनता के सामने नहीं है। फिलहाल, यूनान की जनता का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा एलेक्सिस सिप्रास के नेतृत्व वाली सिरिज़ा पार्टी को एक उम्मीद की किरण के तौर पर देख रहा है क्योंकि इस पार्टी ने अपने कार्यक्रम में जो प्रस्ताव रखे हैं, उसमें किफ़ायतशारी की नीतियों को सीमित करने, बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने, कल्याणकारी नीतियों (जैसे कि आबादी के एक हिस्से के लिए मुफ्त या सब्सिडाइज़्ड शिक्षा, चिकित्सा और आवास, नाटो से अलग होने, साम्राज्यवादी युद्धों में सहायता न करने आदि जैसी नीतियों की बात की गयी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या सिरिज़ा पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश करने की बात कर रही है? या फिर वह पूँजीवादी व्यवस्था को ही जनता के पक्ष में कल्याणकारी नीतियों के ज़रिये प्रबन्धित करने की बात कर रही है? कहने के लिए वह सामाज़िक जनवाद की विरासत और नीतियों को ठुकरा रही है। लेकिन साथ ही वह ‘शीत प्रासाद पर धावे’ की रणनीति को भी दुस्साहसवाद मानती है। क्रान्तिकारी रास्ते से पूँजीवादी राज्यसत्ता के ध्वंस और समाजवादी राज्यसत्ता की स्थापना की बजाय वह अभी बुर्जुआ संसदवाद, रैडिकल सुधारवाद और साम्राज्यवाद से मोलभाव की नीतियों को ही तरजीह दे रही है। लेकिन साथ ही वह ऐसे जुमलों का इस्तेमाल भी कर रही है जो समाजवाद, कम्युनिज़्म और मज़दूर सत्ता का ज़िक्र कर रहे हैं। नतीजतन, सिरिज़ा की पूरी राजनीतिक अवस्थिति दुनिया में मार्क्सवादी-लेनिनवादी हलकों में एक भ्रम की स्थिति पैदा कर रहे हैं। इसके कारण समझने के लिए हमें सिरिज़ा की राजनीति, वर्ग आधार और इतिहास की थोड़ा करीबी से पड़ताल करनी होगी।

सिरिज़ा की राजनीति की दुविधाः रैडिकल सुधारवाद या समाजवादी क्रान्ति?

सिरिज़ा का अर्थ है ‘रैडिकल वामपन्थी गठबन्धन’। इसकी शुरुआत औपचारिक तौर पर तो 2004 के चुनावों के पहले हुई थी। लेकिन ज़िन धाराओं के एक साथ आने पर यह पार्टी बनी थी, उन धाराओं का इतिहास जाने बग़ैर सिरिज़ा की वर्तमान राजनीति को समझना मुश्किल है। इसकी शुरुआत यूनानी कम्युनिस्ट पार्टी में 1968 में हुई फूट में देखी जा सकती है। यूनान की कम्युनिस्ट पार्टी में दो धड़ों के बीच 1968 में फूट हुई। यह फूट, यूरोप की अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों में 1960 के दशक में हुई फूटों के समान ही, सोवियत संघ-समर्थक धड़े और सोवियत संघ के सामाज़िक साम्राज्यवाद का विरोध करने वाले धड़ों के बीच हुई। यूनान में सोवियत सामाज़िक साम्राज्यवाद का विरोध यूरोकम्युनिस्ट कर रहे थे। वे यूनान की कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हो गये। यहाँ पर भी हम यूरोप की अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों से एक समानता देख सकते हैं। यहाँ पर जो लोग यूनान की कम्युनिस्ट पार्टी से अलग हुए वे सोवियत सामाज़िक साम्राज्यवाद को बोल्शेविज़्म की नैसर्गिक परिणति के रूप में देख रहे थे और सोवियत साम्राज्यवाद के पूर्वी यूरोप में किये गये कुकर्मों की जड़ पार्टी, सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और लेनिन के कथित “हिरावलवाद” में देख रहे थे। कई देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में यह अवस्थिति यूरोप में पैदा हुए “माओवाद” ने अपनाई ज़िसके लिए “माओवाद” का अर्थ था पार्टी और राज्य के विरुद्ध क्रान्ति। ऐसे तमाम यूरोपीय “माओवादी” महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को पार्टी में मौजूद बुर्जुआ हेडक्वार्टर के खि़लाफ़ क्रान्ति की बजाय, पार्टी के ही ख़िलाफ़ क्रान्ति समझते थे! कुछ अन्य देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों में सोवियत सामाज़िक साम्राज्यवाद के मुद्दे पर जो फूट हुई उसमें यह अवस्थिति अपनाने वाले “माओवादी” न होकर नवट्रॉट्स्कीपन्थी, यूरोकम्युनिस्ट, “वामपन्थी” सामाज़िक जनवादी आदि थे। 1980 के दशक में ये दोनों धड़े एक बार फिर से साथ आये और उन्होंने वामपन्थी प्रगतिशील गठबन्धन (सिनास्पिमोस) का निर्माण किया। 1989 में पासोक (यूनान की सामाज़िक जनवादी पार्टी) की सरकार में हुए घपलों-घोटालों के चलते उन्होंने ‘न्यू डेमोक्रेसी’ नामक पार्टी के साथ गठबन्धन सरकार बनायी। कुछ माह बाद ही इस गठबन्धन में पासोक फिर से शामिल हो गयी। इसके कारण सिनास्पिमोस के अधिकांश युवा रैडिकल लोगों ने पार्टी छोड़कर एक नया संगठन ‘न्यू लेफ्ट करेण्ट’ बना लिया, जो कि वर्तमान समय में एक अन्य वामपन्थी संगठन ‘अन्तार्स्या’ के अंग हैं। अन्तार्स्या का अर्थ है पूँजीवाद-विरोधी वामपन्थी गठबन्धन। इसमें भी विभिन्न किस्म के वामपन्थी हैं, लेकिन सबसे प्रभावी ट्रॉट्स्कीपन्थी हैं। इसके बाद सिनास्पिमोस में एक फूट पड़ी, ज़िसका एक धड़ा आगे चलकर ग्रीक कम्युनिस्ट पार्टी (के.के.ई.) बना और दूसरा हिस्सा जो कि यूरोपीय संघ का पक्षधर रहा, उसने सिनास्पिस्मोस नाम बरकरार रखा। 1992 में सिनास्पिस्मोस ने मास्ट्रिख़्ट सन्धि के पक्ष में वोट डाला। अगले चुनावों उसे ज़बर्दस्त नुकसान उठाना पड़ा। 2000 के दशक के आरम्भ में सिनास्पिस्मोस ने भूमण्डलीकरण-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों में भाग लिया, लेकिन ये प्रतिरोध आन्दोलन वैसे ही भूमण्डलीकरण का विरोध कर रहे थे, जैसे कि विश्व सामाज़िक मंच करता है! यानी, पूँजीवाद का विरोध नहीं करके, सिर्फ भूमण्डलीकरण और नवउदारवाद का विरोध करना, मानो वे पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक परिणति न हों। दूसरे शब्दों में कहें तो अनकहे तौर पर एक ‘मानवीय चेहरे वाले पूँजीवाद’ की कल्पना करना। 2004 में सिनास्पिस्मोस ने कुछ अन्य छोटे वाम संगठनों के साथ एकता की, और इस नयी एकता को ही ‘सिरिज़ा’ नाम दिया गया। सिरिज़ा में अभी सिनास्पिस्मोस का धड़ा ही सबसे बड़ा है। अन्य छोटे धड़ों में ट्रॉट्स्कीपन्थी, “माओवादी”, यूरोकम्युनिस्ट, पर्यावरणवादी मार्क्सवादी, “वामपन्थी” सामाज़िक जनवादी शामिल हैं। सिरिज़ा के प्रमुख लोगों में 1989 की गठबन्धन सरकार के कुछ मन्त्री भी मौजूद हैं। साथ ही, कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मज़दूर आन्दोलन से लम्बे समय से जुड़े रहे हैं। कुछ का कहना है कि यूनान को यूरोपीय संघ से बाहर हो जाना चाहिए। सिरिज़ा में दक्षिणपन्थी सामाज़िक जनवादी अवसरवाद की ओर रुझान रखने वाला धड़ा ज्यादा शक्तिशाली है, और जो धड़ा अपने को “वामपन्थी” कहने का हक़दार है, वह भी ज़्यादा से ज़्यादा रैडिकल वाम सुधारवादी ही है। सिरिज़ा का पब्लिक सेक्टर की कुछ ट्रेड यूनियनों पर कुछ प्रभाव है। लेकिन ज़्यादातर ट्रेड यूनियनें के.के.ई. के प्रभाव में हैं।

इस इतिहास से स्पष्ट है कि सिरिज़ा में जो “वाम” शक्तियाँ शामिल हैं, वे किसी भी रूप में मार्क्सवादी-लेनिनवादी नहीं हैं, और उनमें जो “माओवादी” हैं, उनके माओवाद के संस्करण से माओ के विचारों का कोई लेना-देना नहीं हैं, और वह एक विशेष किस्म का अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद ही है। जो धड़ा सिरिज़ा में सबसे शक्तिशाली है, यानी सिनास्पिस्मोस का धड़ा, वह यूरोकम्युनिज़्म की धारा से सबसे ज़्यादा प्रभावित है, जो कि और कुछ नहीं बल्कि सामाज़िक-जनवाद का एक नया संस्करण है। सामाज़िक-जनवाद कम-से-कम औपचारिक तौर पर राज्यसत्ता और सर्वहारा अधिनायकत्व की ज़रूरत से इंकार नहीं करता, या कम-से-कम उसमें महज़ परिवर्तन की बात करता है। लेकिन यूरोकम्युनिज़्म औपचारिक तौर पर भी मार्क्सवाद के इन कोर सिद्धान्तों को तिलांजलि देता है। सिरिज़ा ने अपना जो 40-बिन्दु वाला कार्यक्रम घोषित किया है, वह भी किसी भी रूप में एक कम्युनिस्ट कार्यक्रम नहीं है। उसे आप ज़्यादा से ज़्यादा एक सामाज़िक-जनवादी और सुधारवादी कार्यक्रम कह सकते हैं, जो कि कल्याणकारी नीतियों को शुरू करने और यूरोपीय संघ से अलग हुए बग़ैर किफायतसारी की नीतियों को समाप्त करने की बात करता है। जाहिर है, यह एक यूटोपियाई योजना है। लेकिन ज़िन चीज़ों का प्रस्ताव इस कार्यक्रम में रखा गया है, उसमें यूरोपीय संघ से बाहर जाने और यूरो का परित्याग करने का कोई ज़िक्र नहीं है। वास्तव में, उसमें यह बात कही गयी है कि यूनान पर साम्राज्यवादी देशों और एजेंसियों द्वारा जो देनदारियाँ थोपी जा रही हैं, उनका फिर से ऑडिट कराया जाय। यानी कि साम्राज्यवादी ऋणों को (जो कि बिल्कुल अन्यायपूर्ण हैं और पश्चिम के वित्तीय सरदारों के जुए का ख़र्च यूनानी जनता पर थोपने के समान है) रद्द करने की कोई बात नहीं की गयी है, बस यह कहा गया है कि इन ऋणों की फिर से “सही” तरीके से गणना होनी चाहिए। साथ ही, हाल ही में सिरिज़ा के नेता एलेक्सिस सिप्रास ने जी20 के नेताओं से बातचीत करते हुए इस बात का आश्वासन दिया कि उन्हें सिरिज़ा से डरने की कोई ज़रूरत नहीं है। सिरिज़ा सिर्फ़ यूरोपीय संघ, अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से रिश्तों की शर्तों में कुछ संशोधन की बात कर रहा है; उसे इतना रैडिकल न समझा जाय कि वह आज की विश्व व्यवस्था में कहीं समायोज़ित नहीं हो पाये। सिरिज़ा के नेताओं का विचार है कि यूनान में कल्याणकारी नीतियों को लागू करने में एक और कारक उनकी सहायता करेगा और वह कारक है फ्रांस में फ्रांस्वा ओलान्दे की सरकार का आना! यह भी एक भ्रम है। ओलान्दे को आप ज़्यादा से ज़्यादा एक ‘मानवीय चेहरे वाला साम्राज्यवादी’ कह सकते हैं। अभी माली में फ्रांस ने ज़िस तरीके से साम्राज्यवादी हस्तक्षेप किया, उससे कम-से-कम सिरिज़ा जैसी पार्टियों की ग़फ़लत दूर हो जानी चाहिए। लेकिन फिर भी अभी तक सिरिज़ा ने ओलान्दे से उम्मीद बाँध रखी है, कि जर्मन दबाव के समक्ष वह उनकी मदद करेंगे। सिरिज़ा ने अपने कार्यक्रम में कहा है कि वह नाटो की कार्रवाइयों में भाग नहीं लेगा, यूनानी सैनिकों को यूनान की सीमा से बाहर कहीं नहीं भेजेगा, और 1967 की सीमाओं के अनुसार एक फिलिस्तीनी राज्य का समर्थन करेगा। लेकिन इसमें एक भी ऐसी बात नहीं है जो तमाम सामाज़िक-जनवादी और सुधारवादी पार्टियाँ न कहती हों। यह अभी सामाज़िक-जनवाद की सीमा का अतिक्रमण और एक समाजवादी कार्यक्रम की सीमा में प्रवेश किसी भी मानक से नहीं माना जायेगा।

सिरिज़ा को पिछले तीन चुनावों में ज़बर्दस्त फ़ायदा हुआ है और उसके वोटों का हिस्सा 4.6 प्रतिशत से 17 प्रतिशत और फिर हालिया चुनावों में 27 प्रतिशत हो गया है। सिरिज़ा इस समय दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और प्रमुख विपक्षी दल है। लेकिन इसके साथ ही ज़िस अन्य पार्टी के वोट प्रतिशत बढ़े हैं वह है ‘गोल्डेन डॉन’ जो कि यूनान के नवनात्सियों की पार्टी है। यह पार्टी प्रवासी मज़दूरों के ख़िलाफ लगातार नवनात्सी हरक़तें कर रही है; इसने अपनी ब्रिगेडें बना रखी हैं, जो प्रवासी मज़दूरों, और हर प्रकार के प्रतिरोध समूहों पर हमला करती है। अगर सिरिज़ा यूनान की समस्याओं का हल करने में असफल होती है, तो फिर गोल्डेन डॉन का तेज़ी से उभार तय है। और सिरिज़ा फिलहाल ज़िस राजनीति पर चल रही है, उसमें इस बात की पूरी गुंजाइश है कि अगले चुनावों में उसकी सरकार बनने के बाद, वह भी आर्थिक और राजनीतिक मोर्चे पर बुरी तरह से असफल होगी।

सिरिज़ा की राजनीति यह है कि वह संसद की राजनीति को सामाज़िक आन्दोलनों के साथ चलायेगी। यानी एक ओर वह प्रतिनिधि बुर्जुआ जनवाद की संस्थाओं, यानी कि संसद व अन्य प्रातिनिधिक संस्थाओं में हिस्सेदारी करेगी, वहीं दूसरी ओर वह पार्टी को सरकार से अलग रखते हुए तमाम नये सामाज़िक आन्दोलनों में हिस्सेदारी करेगी। नये सामाज़िक आन्दोलनों से सिरिज़ा के नेताओं का क्या अर्थ है? बिल्कुल वही अर्थ है जो विश्व सामाज़िक मंच के नेताओं का है! इन आन्दोलनों के “सामाज़िक” पहलू पर यूँ ही ज़ोर नहीं डाला गया है; इसका मकसद है इसके राजनीतिक पहलू का दमन करना। यानी जनता सड़कों पर उतरे ज़रूर, आन्दोलन भी करे, वह आन्दोलन जुझारू और रैडिकल तेवर के साथ भी करे तो कोई दिक्कत नहीं है! लेकिन अन्त में, वह माँग करे! खुद पूँजीवादी सत्ता को उखाड़ फेंकने के चक्कर में न पड़े। यानी, सत्ता के प्रश्न को, जो कि मूल राजनीतिक प्रश्न है, न उठाये। दूसरे शब्दों में कहें, तो आन्दोलन को सामाज़िक होना चाहिए, राजनीतिक नहीं। राजनीति का प्रश्न, या सत्ता का प्रश्न बुर्जुआ संसद के द्वारा ही हल होगा। साथ में, तृणमूल धरातल पर कुछ ऐसी चीज़ें होनी चाहिए जो कि पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के झटकों के असर को आंशिक तौर पर सोख लें, और जनता को विद्रोह की तरफ़ जाने से रोकें! मिसाल के तौर पर, सिरिज़ा ने अभी से ही ज़मीनी धरातल पर ‘सॉलिडैरिटी नेटवर्क’ नामक संस्थाएँ बना रखी हैं, जो कि सरकार और बाज़ार की प्रणाली से अलग, जनता के अलग-अलग हिस्सों के बीच वस्तुओं और सेवाओं के विनिमय में सहायता करती हैं, उनमें मध्यस्थ का काम करती हैं। इन्हें “वामपन्थी बाज़ार” कहा जा सकता है! ऐसे “वामपन्थी बाज़ारों” के ज़रिये और इसी प्रकार की अन्य सहकारी संस्थाओं के ज़रिये सिरिज़ा के लोग पूँजीवादी बाज़ार की आँच से जनता की रक्षा करना चाहते हैं! वे पूँजीवादी बाज़ार व्यवस्था को ख़त्म करने की बात कहीं नहीं करते। वे सिर्फ इतना कहते हैं कि ‘अक्टूबर’ बीते हुए ज़माने की बात है; अब शीत प्रासाद पर धावे की रणनीति काम नहीं आने वाली; अगर ऐसी रणनीति के ज़रिये कोई मज़दूर सत्ता अस्तित्व में आती है तो उसके सर्वसत्तावादी हो जाने की पूरी गुंजाइश होगी; और फिर वे कहते हैं कि ‘देखिये सोवियत संघ का क्या हश्र हुआ!’ इसलिए सिरिज़ा जो रास्ता सुझा रही है, ज़िसे वह इक्कीसवीं सदी का समाजवाद कह रही है, वह यह है कि बुर्जुआ संसदवाद के ज़रिये पहले एक प्रगतिशील सरकार बनायी जाये; उसके बाद सबसे पहले एक कल्याणकारी राज्य का निर्माण किया जाये; और उसके बाद एक विशेष किस्म के समाजवाद की तरफ़ क्रमिक संक्रमण किया जाय, ज़िसे हम ‘इक्कीसवीं सदी का समाजवाद’ कह सकते हैं। यह पूरी सोच इस बात को एक आकाशवाणी-सरीखा सत्य मानती है कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग पूर्ण असफलता में समाप्त हुए और उनके आलोचनात्मक विवेचन की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इस मायने में उस पर उत्तरमार्क्सवादी चिन्तकों का, जैसे कि ज़िज़ेक, बेज्यू, आदि, सिरिज़ा पर गहरा प्रभाव है। यह इत्तेफाक नहीं है। वास्तव में, सिरिज़ा के भीतर ज़िज़ेक के भी कई अनुयायी हैं। हालाँकि, ज़िज़ेक का सिरिज़ा से कुछ मुद्दों पर मतभेद है (ज़िनका हमारे लिए कोई विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि ज़िज़ेक भी एक ‘अज्ञात कम्युनिज़्म’ की बात करते हैं ज़िसके बारे में कोई भी परिकल्पना पहले से दिये जाने के वह एकदम ख़िलाफ़ हैं), जैसे कि एक मज़बूत राज्यसत्ता की ज़रूरत, तृणमूल जनवाद (ग्रासरूट डेमोक्रेसी), सामाज़िक आन्दोलन, आदि। लेकिन चूँकि ज़िज़ेक के पास स्वयं कोई प्रस्ताव नहीं है, और चूँकि वह कोई भी क्रान्तिकारी प्रस्ताव रखने के ही ख़िलाफ़ हैं, इसलिए उनके सिरिज़ा से मतभेदों की कोई अहमियत नहीं है। वह सिर्फ सवाल उठा सकते हैं। अगर कोई प्रस्ताव रखा जाता है, तो भी ज़िज़ेक को खुजली उठती है कि कोई भी प्रस्ताव क्यों रखा गया; और अगर कोई प्रस्ताव नहीं रखा जाता है, तो भी उन्हें पेटदर्द होता है कि कोई प्रस्ताव क्यों नहीं रखा गया! लेकिन ज़िज़ेक को उनके ‘कुर्सीतोड़ क्रान्तिकारी दर्शन’ के साथ छोड़कर सिरिज़ा पर वापस आते हैं।

सिरिज़ा का मानना है कि संसद में सरकार बनाने और सामाज़िक आन्दोलनों में शिरकत के साथ वह प्रातिनिधिक जनवाद और तृणमूल जनवाद का एक मिश्रण तैयार करेगी, जो कि पूँजीवादी जनवाद की समस्याओं का भी समाधान करेगा और समाजवादी राज्यसत्ता की समस्याओं का भी समाधान करेगा। लेकिन कुल मिलाकर यह खिचड़ी इसलिए पकायी गयी है, कि सामाज़िक-जनवाद की समस्याओं का समाधान किया जाय। यूरोप में सामाज़िक जनवाद की ग़द्दारी के करीब 100 वर्षों ने उस पर से जनता के भरोसे को काफ़ी हद तक ख़त्म कर दिया है। यूरोप में सामाज़िक जनवादी ताक़तें जो राजनीतिक अवस्थितियाँ अपना रही हैं, उनके कारण उनमें और नवउदारवादी ताक़तों में फर्क करना मुश्किल हो गया है। ऐसे में, सामाज़िक जनवाद को सिरिज़ा जैसी ताक़त की ज़रूरत थी, ज़िसमें कि तमाम नवट्रॉट्स्कीपन्थी, एनजीओ, नारीवादी, “माओवादी”, यूरोकम्युनिस्ट, पर्यावरणवादी और तमाम किस्म के सुधारवादी शामिल हों। यह सिरिज़ा के सामाज़िक जनवाद को एक रैडिकल सुधारवादी तेवर देता है। एक राजनीतिक शक्ति के तौर पर वामपन्थी रैडिकल सुधारवाद अभी एक ख़र्च ताक़त नहीं बना है और उसका सन्तृप्ति बिन्दु अभी नहीं आया है।

अगर अगले चुनावों में सिरिज़ा जीतती है और सरकार बनाती है, तो इस बात की पूरी उम्मीद की जा सकती है कि वह यूनान की नयी पासोक (सामाज़िक जनवादी पार्टी) बन जायेगी। सिरिज़ा का नेतृत्व यह देख रहा है कि यूनानी समाज किस ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है। एक ओर व्यापक निम्न मध्यवर्गीय आबादी का सर्वहाराकरण हो रहा है, सर्वहारा वर्ग की जीवन स्थितियाँ लगातार बद से बदतर होती जा रही हैं, और दूसरी तरफ एक नवधनाढ्य बुर्जुआज़ी पैदा हुई है जो पुराने कुलीन बुर्जुआ वर्ग के साथ मिलकर गोल्डेन डॉन जैसी नवनात्सी ताक़तों को प्रश्रय दे रही है। आबादी में बहुत छोटा हिस्सा अब ऐसा रह गया है, जो किसी ‘सेण्ट्रिस्ट पोज़ीशन’ पर खड़ा हो। आबादी का राजनीतिक गैल्वनीकरण आश्चर्यजनक तेज़ी के साथ हो रहा है और ज़्यादा से ज़्यादा लोग या तो वाम पक्ष की तरफ़ जा रहे हैं, या फिर ‘यूनान की समस्याओं के समाधान के लिए’ गोल्डेन डॉन के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। सिरिज़ा इस स्थिति में एक रैडिकल दिखने वाला विकल्प पेश कर रही है, जो कि अब पासोक में नहीं दिखायी देता है।

सिरिज़ा ने सिद्धान्ततः अपने आपको एक मास पार्टी घोषित किया है। सिरिज़ा की मीटिंगों में हिस्सेदारी कोई भी कर सकता है, यहाँ तक कि वह भी जो सदस्य नहीं है। ऐसे में, सिरिज़ा में ज़मीनी धरातल पर तरह-तरह के लोग घुस चुके हैं। एक पूरी तरह खुली हुई पार्टी के साथ जो कुछ होने की उम्मीद की जा सकती है, वह सबकुछ सिरिज़ा के साथ हो रहा है। सिरिज़ा का मानना है कि पुरानी सुधार बनाम क्रान्ति की बहस अब बेकार हो चुकी है। लेकिन वास्तव में सिरिज़ा यह कह रही है कि इस बहस में अब सुधारवाद का पक्ष विजयी हो चुका है। बस सिरिज़ा उसे ‘नया क्रान्तिकारी रास्ता’ करार दे रही है। सिरिज़ा ने ‘यूनानी सामाज़िक मंच’ में भी हिस्सेदारी की थी। यह विश्व सामाज़िक मंच का ही यूनानी अध्याय है। उसकी पूरी शब्दावली में वर्ग कहीं नहीं आता। सिरिज़ा की प्रिय सामाज़िक श्रेणी है ‘समुदाय’! इससे आप सिरिज़ा की राजनीति के एक और स्रोत को भी पकड़ सकते हैं, जो और कुछ नहीं बल्कि अस्मितावादी राजनीति है। वर्ग को एक आकृतिहीन निकाय यानी कि ‘समुदाय’ से प्रतिस्थापित कर दिया गया है। यह सिरिज़ा को यह घोषित करने में सहायता करता है कि वह ‘पूरी जनता की पार्टी’ है।

यूनान में ज़िन कम्युनिस्टों ने अभी भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद का झण्डा बुलन्द कर रखा है, उनका मानना है कि सिरिज़ा समझौतापरस्त है और उसमें ज़बर्दस्त दक्षिणपन्थी अवसरवादी रुझान है। वह राज्य के सवाल को उठाती ही नहीं है और पूरी तरह से संशोधनवाद के रास्ते पर चल रही है। वैसे तो सिरिज़ा के 40-बिन्दु कार्यक्रम में कोई सर्वहारा क्रान्तिकारी तत्व नहीं है, बस पूँजीवादी कल्याणवाद है, लेकिन अगर सिरिज़ा सरकार बनाती है, तो वह उतना भी लागू नहीं कर पायेगी। इसका कारण यह है कि यूनान की पूरी राज्यसत्ता बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी और फ़ासीवादी है। यूनान में सेना का बड़ा हिस्सा बुर्जुआ प्रतिक्रियावादी ताक़तों के साथ खड़ा है। पुलिस के आधे लोगों ने पिछले चुनावों में गोल्डेन डॉन को वोट दिया था। ऐसे में, हालाँकि सिरिज़ा पुलिस, फौज और नौकरशाही के लोगों से बातचीत करके उन्हें अपने पक्ष में लाने का प्रयास कर रही है, लेकिन स्पष्ट है कि सिरिज़ा का जो कार्यक्रम है, विशेष तौर पर प्रवासी मज़दूरों के प्रश्न पर, उसके कारण पुलिस और फौज का बड़ा हिस्सा उसके समर्थन में नहीं आयेगा। दूसरी बात यह है कि अगर बुर्जुआ वर्ग की राज्यसत्ता का ध्वंस नहीं किया जाता है, बुर्जुआ वर्ग की आर्थिक शक्ति का ध्वंस नहीं किया जाता है, सर्वहारा राज्यसत्ता और सामूहिक सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना नहीं की जाती है, तो आने वाले समय में बुर्जुआ वर्ग साम्राज्यवाद की सहायता से देश के सशस्त्र बलों, सेना, पुलिस और नौकरशाही को ख़रीद कर सिरिज़ा की भावी सरकार का तख्तापलट करेगा, जैसा कि चिली में सल्वादोर अयेन्दे की सरकार के साथ हुआ था। वह सरकार अभी समाजवादी व्यवस्था का निर्माण नहीं कर रही थी। उसने बस राष्ट्रीयकरण की कुछ नीतियों को लागू किया था, जो कि बुर्जुआ वर्ग भी कई देशों में करता है। लेकिन वह भी चिली की बुर्जुआज़ी को नागवाँर गुज़रा और अमेरिकी साम्राज्यवाद और चिली के प्रतिक्रियावादी सेना जनरलों और सेना की सहायता से चिली के बुर्जुआ वर्ग ने खू़नी तख़्तापलट करवाया। जनता सशस्त्र नहीं थी, इसलिए उसका कत्लेआम किया गया और कई जगहों पर वह अयेन्दे के तख़्तापलट की निष्क्रिय तमाशबीन बनी रही। अगर सिरिज़ा खुले तौर पर नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीतियों को नहीं भी अपनाती है, और अगर वह कल्याणकारी राज्य की नीतियों को भी अपनाती है, तो ज़्यादा सम्भावना यही होगी कि साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की सहायता से यूनान की बुर्जुआज़ी उसके खि़लाफ़ तख़्तापलट करेगी।

अगर सिरिज़ा की सरकार अगले चुनावों में बनती है, तो राज्यसत्ता के सवाल की समझ न होने की कीमत सिरिज़ा को चुकानी पड़ेगी। इतिहास का यही सबक है। सिरिज़ा के पास दो ही रास्ते हैं: या तो वह भी पासोक की तरह खुले पूँजीवाद और ग़द्दार किस्म के सामाज़िक जनवाद का रास्ता अख्त़ियार करे, या फिर देशी बुर्जुआज़ी और साम्राज्यवाद के गठजोड़ के हाथों तख़्तापलट का इन्तज़ार करे। सिरिज़ा के बारे में सकारात्मक यह है कि इसका ढाँचा, इसकी कतारें और एक हद तक नेतृत्व बेहद बहुरंगी है। इसमें कई किस्म के लोग हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो राज्यसत्ता की समस्या और एक शत्रुतापूर्ण अन्तरराष्ट्रीय परिवेश में समाजवादी यूनान के अस्तित्व की समस्याओं के बारे में सोच रहे हैं। ऐसे लोगों को एक धड़े के तौर पर संगठित होकर सिप्रास के समझौतापरस्त और सामाज़िक-जनवादी नेतृत्व के ख़िलाफ़ संघर्ष करना चाहिए और नये राजनीतिक विकल्प के निर्माण के बारे में सोचना चाहिए। उन्हें सिरिज़ा द्वारा पेश किये गये कार्यक्रम पर सवाल उठाना चाहिए। मिसाल के तौर पर बैंकों के राष्ट्रीयकरण से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है, क्योंकि बैंक पहले से ही दीवालिया हैं। कायदे से एक सही क्रान्तिकारी माँग यह बनती है कि बैंकों के ‘बेल आउट’ को फौरन रोका जाय; किफायतसारी की नीतियों को फौरन बन्द किया जाय; बैंकों की समस्त सम्पत्ति को ज़ब्त करके एक केन्द्रीकृत सार्वजनिक राष्ट्रीय बैंक के तहत लाया जाय; यूरोपीय संघ और यूरो से बाहर आया जाये ताकि यूनान की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को मौद्रिक लचीलापन मिल सके। इसके बिना न तो वेतन, मज़दूरी और पेंशनों का भुगतान शुरू हो सकता है, और न ही अन्य जनपक्षधर नीतियों की शुरुआत की जा सकती है, जैसे कि निःशुल्क शिक्षा, चिकित्सा और आवास आदि। पूर्ण रोज़गार की बात पूरे कार्यक्रम में कहीं नहीं की गयी है, जबकि समस्त उत्पादक गतिविधियों में सभी नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करके पूर्ण रोज़गार का वायदा किया जाना चाहिए। लेकिन सिरिज़ा के कार्यक्रम में इसके बारे में कुछ नहीं कहा गया है।

वैसे सवाल यह भी नहीं है सिरिज़ा की सारी माँगें सही हैं, या ग़लत। अगर करीबी निगाह डाली जाय तो उनके चार्टर में कई ऐसी माँगें हैं, जो कि किसी मज़दूर सत्ता द्वारा भी पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण के दौर में अपनायी जा सकती हैं। मिसाल के तौर पर, सोवियत रूस में क्रान्ति के बाद के शुरुआती आठ माह में सोवियत सरकार ने कुछ ऐसे ही कदमों को उठाया था, ज़िनकी बात एक हद तक सिरिज़ा के कार्यक्रम में की गयी है; मार्क्सवादी-लेनिनवादी भी क्रान्ति के तुरन्त बाद एक झटके में समाजवाद को स्थापित कर देने की बात नहीं करते हैं। सबसे पहला काम सर्वहारा अधिनायकत्व का सुदृढ़ीकरण और जनता के मेहनतकश हिस्सों की सबसे गम्भीर और तकलीफ़देह दिक्कतों का फौरी समाधान होता है। लेकिन यह काम भी बुर्जुआ संसदवाद के ज़रिये बनी किसी कल्याणकारी सुधारवादी सरकार के बूते की बात नहीं है। यह 1917 में भी असम्भव था, और आज के भूमण्डलीकृत दुनिया में किसी एक देश में बिना समाजवादी क्रान्ति के किसी भी प्रगतिशील कल्याणकारी सरकार के लिए यह और भी ज़्यादा असम्भव और कल्पना से परे है।

निष्कर्षः समाजवाद या बर्बरता! तीसरा कोई रास्ता नहीं है!

हम साफ़ तौर पर देख सकते हैं कि सिरिज़ा कुल मिलाकर अन्ततः एक रैडिकल सुधारवादी पार्टी है, ज़िसके जुमलों पर मार्क्सवाद की छाया है। एक तरीके से वह एक नव-सामाज़िक जनवाद का प्रतिनिधित्व कर रही है। यह सच है कि सिरिज़ा की कतारों में कई गम्भीर कम्युनिस्ट भी खड़े हैं। लेकिन वे भी समझ रहे हैं कि सिरिज़ा के अन्दर दक्षिणपन्थी रुझान मौजूद है, जो भविष्य में इसे यूनान का नया पासोक बना सकती है। अभी से ही इस ख़तरे के कुछ लक्षण दिखलायी पड़ने लगे हैं, जैसे कि सिप्रास द्वारा विश्व पूँजीवाद के चौधरियों के दिये गये आश्वासन। कुल मिलाकर, सिरिज़ा यूनान में किसी कम्युनिस्ट सत्ता और समाजवाद की स्थापना नहीं करने वाली है। उसकी कतारों का एक हिस्सा रैडिकल सुधारवाद और समाजवाद के बीच झूल ज़रूर रहा है। लेकिन बड़ा हिस्सा एक सुधारवादी कल्याणवाद के कार्यक्रम पर सहमत है और अगर सिरिज़ा चुनाव जीतती है तो वह इसी यूटोपियाई सामाज़िक जनवाद के कार्यक्रम पर अमल करने का असफल प्रयास करेगी, ज़िस पर इतिहास अपने दरवाज़े बन्द कर चुका है। इसका नतीजा या तो तख़्तापलट, सिरिज़ा का दमन और फिर नवनात्सियों के यूनान में उभार के तौर पर सामने आयेगा, या फिर सिरिज़ा स्वयं खुले सामाज़िक जनवाद के पदचिन्हों पर चलते हुए अन्ततः प्रकारान्तर से नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की नीतियों को अपना लेगी और विश्व पूँजीवाद की ऐसी सेवक बन जायेगी, जो कि यूरोप के अन्य सामाज़िक जनवादियों से ज़्यादा भरोसेमन्द होगी।

लेकिन उस सूरत में यूनान ज़िस संकट के भँवर में फँसा हुआ है, उसमें और गहराई से फँसता जायेगा। अभी के हालात ही बता रहे हैं कि जनता का असन्तोष पहले से ही फूट पड़ने के बिन्दु की तरफ़ बढ़ रहा है। ऐसे में, अगर कोई क्रान्तिकारी विकल्प नहीं खड़ा होता है, जो कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूलों को अपनाते हुए मज़दूर क्रान्ति की तरफ़ जाने के लिए जनता को तैयार करे और उसे नेतृत्व दे, तो फिर क्रान्ति की घड़ी बीत जायेगी। क्रान्तिकारी स्थिति हमेशा क्रान्तिकारी नेतृत्व और संगठन के खड़े होने का इन्तज़ार नहीं करेगी। हर पूँजीवादी संकट हमेशा की तरह यूनान में भी प्रतिक्रियावादी और क्रान्तिकारी, दोनों ही सम्भावनाओं को जन्म दे रहा है। अगर क्रान्तिकारी ताक़तें अपनी सम्भावना को हक़ीकत में तब्दील करने में नाकाम रहीं, तो यह काम प्रतिक्रियावादी ताक़तें करेंगी और यूनान की जनता को फ़ासीवाद की सज़ा भुगतनी पड़ेगी। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की राज्यसत्ता और क्रान्ति के सम्बन्ध में स्थापित और सिद्ध शिक्षा पर अमल न करने की सज़ा इतिहास में पहले भी यूरोपीय जनता भोग चुकी है, और एक बार फिर इस बात की सम्भावना पैदा हो रही है। सिरिज़ा की असफलता यूनान के इतिहास में वही भूमिका निभायेगी, जो कि जर्मन सामाज़िक जनवादियों की असफलता ने 1920 और 1930 के दशक में जर्मनी में निभायी थी। इसलिए यूनान में मौजूद मार्क्सवादी लेनिनवादी ताक़तों को संगठित होना होगा और अपने आपको विकल्प के तौर पर जनता के सामने पेश करना होगा।

दिशा सन्धान – अंक 1  (अप्रैल-जून 2013) में प्रकाशित

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