नमो फासीवाद : नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन

नमो फासीवाद
नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन

  • कविता कृष्णपल्लवी

2014 के लोकसभा चुनावों की सरगर्मियाँ तेज होने के साथ ही पैंतरापलट और ध्रुवीकरणों का घृणित नाटकीय खेल तेज हो चुका है। संसदीय दलितवादी राजनीति के पुराने घाघ खिलाड़ी रामविलास पासवान अचानक ‘‘सेक्युलरिज्म’’ का कुर्ता उतारकर फिर एन.डी.ए. में शामिल हो गये। रामदास अठावले पहले ही अपने ‘‘अम्बेडकरवाद’’ को हिन्दुत्ववादी फासीवाद के दरबार में पहुँचा चुके हैं। उदित राज ने तो पार्टी का भाजपा में विलय ही करा दिया। अन्ना द्रमुक जब चुनावी ‘‘सेक्युलर’’ नौटंकी पार्टी में गयीं, तो करुणानिधि ने भाजपा-गठबन्धन से निकटता बढ़ा ली। आगे भाजपा या कांग्रेस किसी से भी मोलतोल की जा सके, इसके लिए मायावती ने हमेशा की तरह इस बार भी अपने विकल्प खुले रखे हैं। शिवसेना, अकाली दल पूर्ववत् भाजपा के साथ हैं और अब चौटाला और कुलदीप विश्नोई की पार्टियाँ भी साथ आ गयी हैं। भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन के पुराने पुरोधा अन्ना हजारे ममता बनर्जी का प्रचार कर रहे हैं। उनके कई पूर्व सहयोगी भाजपा में जा चुके हैं और चुनाव पश्चात के समीकरणों में ममता बनर्जी के भी भाजपा-गठबन्धन के साथ ही खड़ा होने की सम्भावना अधिक है। भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन की उपज ‘आप’ पार्टी खुशहाल मध्यवर्ग के प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ यूटोपिया और निम्न मध्य वर्ग की बुर्जुआ सुधारवादी यूटोपिया को व्यक्त कर रही थी, इसने अब अपने नवउदारवादी आर्थिक एजेण्डे को एकदम खुला कर दिया है। बुर्जुआ वर्ग और उसके पक्ष में खड़े वर्गों के सामने ‘‘कठोर नवउदारवाद’’ के साथ ‘‘साफ-सुथरे नवउदारवाद’’ का एक विकल्प है जो समय आने पर तीसरे मोर्चे के साथ खड़ा होकर उनको आश्वस्त कर सकता है या संसद में एक ‘प्रेशर ब्लॉक की भूमिका निभा सकता है। लेकिन इस पूरी चुनावी नौटंकी के बीच सर्वप्रमुख बात यह है कि भारतीय राजनीतिक-सामाजिक परिदृश्य पर हिन्दुत्ववादी फासीवाद का एक नया आक्रामक उभार सामने आया है। 1992 और गुजरात 2002 के बाद अब एक नया दौर शुरू हो रहा है भाजपा यदि इस बार केन्‍द्र में सत्तासीन नहीं भी हो पाये तो राजनीतिक परिदृश्य पर मजबूती से बनी रहेगी और इससे भी अहम बात यह है कि एक फासीवादी सामाजिक आन्‍दोलन के रूप में इसकी बर्बरताएँ जारी रहेंगी।

हालात इस सच्चाई को दिन के उजाले की तरह साफ कर चुके हैं कि लड़ाई आज महज साम्प्रदायिक राजनीति के खिलाफ नहीं है, बल्कि हिन्दुत्ववादी फासीवाद के खिलाफ है, जिसके साथ निगमवाद पूरी ताकत के साथ खड़ा है। राष्ट्रपारीय निगमों और अन्‍तरराष्ट्रीय वित्तीय महाप्रभुओं की भारी जमात आज नरेन्‍द्र मोदी के पक्ष में दीख रही है। देशी औद्योगिक घरानों का बड़ा हिस्सा तो पहले ही उसके पक्ष में मुखर हो चुका है। स्पष्ट है कि हिन्दुत्‍ववादी फासीवाद के विरुद्ध तभी कारगर ढंग से लड़ी जा सकती है जब वह नवउदारवाद के विरुद्ध भी हो। तभी व्यापक मेहनतकश आबादी को साथ लेकर यह लड़ाई लड़ी जा सकती है। व्यापक परिप्रेक्ष्य में यह लड़ाई देशी-विदेशी पूँजी की निरंकुश होती जा रही उस सत्ता के विरुद्ध है जो ज्यादा से ज्यादा अधिशेष निचोड़ने की गरज से जनता पर फासीवादी भेड़िये को छोड़ देने के लिए उसकी जंजीर ढीली छोड़ देने के लिए तैयार खड़ा है।

इतालवी कम्युनिस्ट नेता तोग्लियाती जब संशोधनवादी नहीं बना था तब उसने फासीवाद का अच्छा विश्लेषण रखा था। उसने कहा था कि साम्राज्यवाद और उसके संकट को समझे बिना फासीवाद को नहीं समझा जा सकता। चरम संकट की स्थिति में बुर्जुआ जनवाद को पूँजीपति वर्ग तिलांजलि दे देता है और फासीवाद के रूप में उसका प्रतिक्रियावाद नग्न निरंकुश होकर सामने आता है। तोग्लियाती के अनुसार, ‘किसी भी समय में मौजूद वर्ग-सम्‍बन्‍धों और अपने मुनाफे की रक्षा के लिए पूँजीपतियों को मजदूरों पर ज्यादा से ज्यादा दबाव डालने के तरीके खोज निकालने पड़ते हैं। इसके अलावा, पूँजीपतियों के आगे बढ़े हुए तबके अर्थात इजारेदार इतने उच्च संकेन्‍द्रण तक पहुँच जाते हैं कि शासन के पुराने रूप उनके प्रसार में बाधा बनने लगते हैं। इसीलिए पूँजीपति वर्ग अपने ही बनाये ढाँचे का विरोध करने लगता है।’

मन्‍दी और मुनाफे की गिरती दर का पुराना पूँजीवादी रोग आज विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट के दौर में अभूतपूर्व रूप से गम्‍भीर हो चुका है। यह अनायास नहीं है कि विकसित पश्चिम में भी आज नवफासीवादी दल और आन्‍दोलन सिर उठा रहे हैं और तीसरी दुनिया के पिछड़े पूँजीवादी देशों में तरह-तरह की धार्मिक कट्टरपन्‍थी, नस्लवादी, कबीलावादी और उग्र जातिवादी ताकतें अपनी उग्र उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। भारतीय पूँजीपति वर्ग के सामने पूँजीवादी विकास के मौजूदा मॉडल से पीछे हटने का विकल्प ही नहीं है। नवउदारवादी नीतियों को कुछ ‘‘मानवीय चेहरे’’ के साथ प्रस्तुत करने का स्कोप भी काफी संकुचित हो चुका है। व्यापक जनअसन्‍तोष के विस्फोट का खतरा और चुनावी राजनीति के लोकरंजक आग्रह उसे कुछ कथित ‘‘कल्याणकारी’’ कदम उठाने की ओर ले जाते हैं, दूसरी ओर पूँजीवादी संकट का वस्तुगत दबाव उसे विवश करता है कि वह बाजार की शक्तियों को निर्बन्‍ध कर दे और मजदूरों की श्रमशक्ति की लूट के लिए श्रम कानूनों को ज्यादा से ज्यादा लचीला बना दे। पूँजीपति वर्ग की यह दुविधा सबसे पुरानी और विश्वस्त बुर्जुआ पार्टी कांग्रेस की नीतियों में दीखती है, हालाँकि उसका झुकाव भी क्रमशः ज्यादा से ज्यादा निरंकुश सर्वसत्तावादी होने की दिशा में ही है।

भाजपा की दृष्टि एकदम साफ है। वह नवउदारवाद की नीतियों की उस समय से पैरोकारी करती रही है, जब इन नीतियों की विश्वव्यापी लहर आयी भी नहीं थी। इसीलिए, मोदी का ‘गुजरात मॉडल’ देशी-विदेशी पूँजीपतियों को लुभा रहा है। नरेन्‍द्र मोदी डीरेग्यूलेशन, टैक्स ब्रेक और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की खुली और पुरजोर वकालत करता है। वह श्रम कानूनों को ताक पर रखकर कारखाना मालिकों को लूटमार की खुली छूट देता है। जहाँ तक इन नीतियों से उपजे जनअसन्‍तोष के विस्फोट से निपटने का सवाल है, भाजपा मजदूरों के आन्‍दोलनों के दमन के लिए एक ‘पुलिस स्टेट’ तक कायम कर देने के लिए तैयार पार्टी है। बस एक बार सत्ता में आने की बात है। जहाँ तक चुनाव जीतने की बात है, हमें भूलना नहीं चाहिए कि हिटलर भी लोकरंजक नारों और नस्ली उन्माद के सहारे चुनाव जीतकर प्रबल बहुमत से सत्ता में आया था। जर्मन इजारेदार पूँजीपतियों की थैली की ताकत उसके साथ थी ही।

अब भारत के परिदृश्य को देखिये। मजदूर आन्‍दोलन असंगठित और टूटी-फूटी अवस्था में है। संशोधनवादी पार्टियों ने केवल ‘चुनाव-चुनाव’ का खेल खेलकर तथा अर्थवादी रस्मी आन्‍दोलन और दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाजी करके मजदूर वर्ग की संगठित वर्ग-चेतना को विसर्जित कर दिया है और उसकी राजनीतिक चेतना को कुन्‍द कर दिया है। 95 प्रतिशत मजदूर आबादी असंगठित है। जो संगठित ‘‘कुलीन’’ मजदूर हैं, उनकी चेतना पतित होकर गैर जनवादी निम्न पूँजीवादी चेतना बन चुकी है। क्रान्तिकारी वाम शक्तियाँ कमजोर और बिखरी हुई हैं। वे मजदूर आन्‍दोलन को प्रभावित कर पाने में फिलहाल अक्षम हैं और मजदूरों को संगठित करने के मामले में उनमें से अधिकांश की दिशा ही स्पष्ट नहीं है। वे या तो मालिक किसानों की लड़ाइयाँ लड़ने में उलझी हैं या जमीनों के पुनर्वितरण का सवाल उठा रही हैं या फिर ‘‘वाम’’ दुस्साहसवादी कार्रवाइयों में मुब्तिला हैं। उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों ने मजदूरों की जिस भारी आबादी को उत्पादन-प्रक्रिया से बाहर धकेलकर बेरोजगार या अर्द्धबेरोजगार बना दिया है, उसके एक हिस्से का विमानवीकरण हो रहा है और उन्मादी फासिस्ट नारों से उसके प्रभावित होने की जमीन तैयार है। किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में बेरोजगारी और परेशानी झेल रही निम्नमध्यवर्गीय आबादी भी फासीवादी उन्माद और लोकरंजक नारों से प्रभावित हो रही है। कारपोरेट कल्चर में रचे-पगे खाते-पीते मध्यवर्गीय युवाओं के लिए मोदी एक ऐसा नायक है, जो देश को चीन जैसी ‘‘प्रगति’’ की रफ्तार देने में सक्षम है। व्यापारियों और रूढ़िवादी सवर्णों (भूस्वामी एवं मध्यवर्गीय आबादी) के बीच भाजपा का पुराना सामाजिक आधार अभी भी कायम है। अब कुलक भी उसके पक्ष में आ रहे हैं और इसके लिए भाजपा शातिराने ढंग से पिछड़ी जाति का कार्ड खेल रही है।

जनता की वर्गीय एकजुटता को छिन्न-भिन्न करने के लिए भारत में कट्टर हिन्दुत्ववाद की राजनीति सबसे प्रभावी है, इसके लिए मन्दिर कार्ड खेला जा रहा है, तालिबानी आतंकवाद का हौवा खड़ा करके पूरी मुस्लिम आबादी को अलगाव में डालने की साजिशें की जा रही हैं, दंगे भड़काये जा रहे हैं और साम्प्रदायिक तनाव का देशव्यापी माहौल पैदा किया जा रहा है। इसके साथ ही, चीन और पाकिस्तान के साथ सीमा-विवाद और कश्मीर के प्रश्न को ज्यादा से ज्यादा तूल देते हुए, उग्र अन्धराष्ट्रवाद को भी खूब हवा दिया जा रहा है और इसमें मीडिया भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। एक धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्‍दोलन के रूप में फासीवाद का चरित्र-चित्रण करते हुए तोग्लियाती ने बताया था कि ‘‘फासीवाद विभिन्न रुझानों का मिश्रण है और सभी जगह फासीवादी-आन्‍दोलनों में एक सामान्य तत्व है उग्र राष्ट्रवादी विचारधारा।’’ उसके अनुसार, ‘‘फासीवादी विचारधारा में कई प्रकार के बेमेल तत्व शामिल हैं। यह विचारधारा मेहनतकशों पर अपनी तानाशाही कायम करने के लिए विभिन्न गुटों को साथ लेकर चलती है। इस काम के लिए यह एक व्यापक आन्‍दोलन निर्मित करती है… विचारधारा का राष्ट्रवादी हिस्सा सीधे पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है और अन्य तत्व आपस में जोड़ने का काम करते हैं। इसके बावजूद फासीवादी विचारधारा को एक समान, ठोस और सम्पूर्ण नहीं मानना चाहिए। यह गिरगिट के समान रंग बदलती है। यह विशेष परिस्थितियों में विशेष उद्देश्य तक पहुँचने का साधन है।’’

भाजपा को लेकर देशी-विदेशी पूँजीपतियों की चिन्‍ता और दुविधा सिर्फ यह है कि साम्प्रदायिक दंगों का विस्फोट यदि पूरे देश में अशान्ति का माहौल पैदा कर देगा तो पूँजी निवेश के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ नहीं रह जायेंगी। मोदी इस मामले में उन्हें अपने ‘गुजरात मॉडल’ से आश्वस्त कर रहा है। उसका तर्क यह है कि दंगों और राज्य-प्रायोजित नरसंहारों से अल्पसंख्यकों को आतंकित करके दोयम दर्जे के नागरिकों जैसी स्थिति में धकेलने के बाद लगातार सामाजिक अशान्ति की स्थिति नहीं बनी रहेगी। वे अपनी सस्ती से सस्ती श्रमशक्ति बेचने को मजबूर होंगे और साथ ही धार्मिक अलगाव पैदा करके गरीबों की वर्गीय एकजुटता भी बनने से रोकी जा सकेगी। उसकी बात पूँजीपतियों के लिए ‘कनविंसिंग’ है। 2002 के बाद गुजरात में दंगे नहीं हुए, पर आम मुस्लिम-हिन्दू आबादी के बीच अलगाव की मजबूत दीवारें हैं, मुस्लिम आबादी वहाँ दोयम दर्जे की नागरिक है (आँकड़े बताते हैं) और शहरों में मुस्लिम आबादी का ‘घेट्टोकरण’ हो रहा है, असुरक्षा-बोध के चलते मुस्लिम आबादी एक साथ रहने के लिए घनी और सुविधाहीन बस्तियों में संकेन्द्रित होती जा रही है।

पिछले दिनों ‘नीलसन-इकोनॉमिक टाइम्स सर्वेक्षण’ के दौरान भारत के सौ कारपोरेट लीडरों से जब बात की गयी तो उनमें से 74 ने मोदी को प्रधानमन्‍त्री के रूप में देखना पसन्‍द किया। ‘सी.एल.एस.ए.’ और ‘गोल्डमैन सॉक्स’ के बाद अब जापानी ब्रोकरेज कम्पनी ‘नोमुरा’ को भी भारत में ‘मोदी लहर’ चलती दिख रही है यानी ज्यादातर विदेशी कारपोरेट महाप्रभु भी फिलवक्त मोदी पर ही दाँव खेलने के पक्ष में हैं। पूँजीपति तो सभी बुर्जुआ दलों को उनकी औकात के हिसाब से पैसे देते हैं, पर इस बार उन्होंने भाजपा के लिए अपनी थैलियों का मुँह कुछ ज्यादा ही खोल दिया है। यह तथ्य सार्वजनिक न हो जाये, इसके लिए इण्डिया इंक. नये कम्पनी कानून के सेक्शन 182 (3) में बदलाव चाहता है और यह माँग कर रहा है कि यह बतलाने के लिए बाध्य न किया जाये कि किस पार्टी को किस घराने ने कितना चंदा दिया।

जाहिर है कि मोदी का फासीवाद हूबहू हिटलर-मुसोलिनी का फासीवाद नहीं हो सकता। भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देश का आज का फासीवाद बीसवीं शताब्दी के जर्मनी और इटली का फासीवाद नहीं हो सकता। भारतीय पूँजीवाद, जो साम्राज्यवादियों का कनिष्ठ साझीदार है, यह युद्ध द्वारा विश्व बाजार पर कब्जे के मंसूबे नहीं पाल सकता, ज्यादा से ज्यादा अपने कमजोर पड़ोसियों को दबाने-डराने का काम कर सकता है। इसका मुख्य निशाना देश की आम मेहनतकश आबादी होगी और धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय होंगे। धार्मिक अल्पसंख्यकों को ये दोयम दर्जे का नागरिक बना देगा। मजदूरों और आम मेहनतकश आबादी को यह लोहे के हाथों से कुचलने का काम करेगा। जम्मू कश्मीर और उत्तर-पूर्व में तथा छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में सेना और पुलिस का और भी दमनकारी शासन चलेगा। रही-सही ट्रेड यूनियन गतिविधियों पर भी अंकुश लग जायेगा। संसदीय जनवाद और अधिक रस्मी हो जायेगा और जनता के रहे-सहे जनवादी अधिकार भी छीन लिये जायेंगे। यदि मोदी की अगुवाई में संघी फासीवादी दिल्ली की गद्दी तक पहुँचने में कामयाब नहीं भी हुए, तो भी एक धुर प्रतिक्रियावादी, मुस्लिम-विरोधी, कम्युनिस्ट-विरोधी सामाजिक आन्‍दोलन के रूप में भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर हिन्दुत्ववादी फासीवादी लहर का वजूद बना रहेगा। पूँजीवाद जंजीर से बँधे कुत्ते की तरह इसे बनाये रखेगा, ताकि आगे कभी भी इसका इस्तेमाल किया जा सके।

इस नवफासीवादी लहर का मुकाबला न तो कुछ पैस्सिव किस्म की बौद्धिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से किया जा सकता है, न ही ‘सर्वधर्मसमभाव’ की अपीलों से। यह केवल संसदीय चुनाव के दायरे में जीत-हार का सवाल भी नहीं है। सत्ता में न रहते हुए भी ये फासीवादी जनता को बाँटने की साजिशें और दंगे भड़काने का खूनी खेल जारी रखेंगे। जो जेनुइन सेक्युलर बुद्धिजीवी हैं, उन्हें अपने आरामगाहों ओर अध्ययन कक्षों से बाहर आकर, प्रतिदिन, लगातार, पूरे समाज में और मेहनतकश तबकों में जाना होगा, तरह-तरह से उपक्रमों से धार्मिक कट्टरपन्‍थ के विरुद्ध प्रचार करना होगा, साथ ही जनता को उसकी जनवादी माँगों पर लड़ना सिखाना होगा, मजदूरों को नये सिरे से जुझारू संगठनों में संगठित होने की शिक्षा देनी होगी, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के ऐतिहासिक मिशन से उन्हें परिचित कराना होगा, उन्हें भगतसिंह, राहुल और मजदूर संघर्षों की गौरवशाली विरासत से परिचित कराना होगा। मजदूर वर्ग के अग्रिम तत्वों और क्रान्तिकारी वाम की कतारों को तृणमूल स्तर पर जनता के बीच ये कार्रवाईयाँ चलाते हुए संघ परिवार के जमीनी तैयारी के कामों का प्रतिकार करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ 2014 के चुनावों तक की ही नहीं है। यह एक लम्‍बी लड़ाई है।

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

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