अपनी बात

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  • सम्‍पादक मण्‍डल 

‘दिशा सन्धान’ के प्रवेशांक में हमने पूँजीवाद के गहराते वैश्विक संकट और उससे पैदा होने वाले राजनीतिक संकट की चर्चा की थी। गुज़रे एक वर्ष के दौरान स्थितियाँ और गम्भीर हुई हैं। कई लोग अक्सर यह ख़ुशफ़हमी पाल लेते हैं कि पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकटों के बोझ तले ख़ुद ही ढेर हो जायेगी। मगर यह बस ख़ुशफ़हमी ही है। जबतक कि क्रान्ति का सचेतन हरावल दस्ता संगठित नहीं होगा, पूँजीवाद अपनेआप ध्वस्त नहीं होगा। इतना ही नहीं, पूँजीवादी संकट का यदि क्रान्तिकारी समाधान नहीं होगा तो इसका प्रतिक्रान्तिकारी समाधान फासीवाद के रूप में सामने आयेगा। भारतीय अर्थव्यवस्था का घनघोर संकट देश को इसी समाधान की ओर धकेलता दिखायी दे रहा है। बेशक़, आज की परिस्थितियों  में भारत जैसे देशों में फासीवाद की शक़्ल हिटलर और मुसोलिनी के फासीवाद जैसी नहीं होगी, लेकिन पूँजीपति वर्ग जनता के विरुद्ध जंजीर में बँधे कुत्ते के समान इसका इस्तेमाल करने का विकल्प हमेशा अपने हाथ में रखेगा। यहूदियों के सफ़ाये जैसी परिघटना आज सम्भव नहीं लेकिन अल्पसंख्यकों पर अत्याचार और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने में फासिस्ट कोई कोर-कसर नहीं उठा छोड़ेंगे। मोदी का गुजरात इसका उदाहरण है। इससे भी अहम बात यह है कि फासीवाद का मुख्य हमला मेहनतकश हैं। उनकी यूनियनों और आन्दोलनों को फासिस्ट शासन बर्बरता से कुचलेगा। ‘नमो परिघटना’ यह संकेत है कि दुनिया के कई देशों की तरह भारत में भी फासीवाद की धारा लगातार मज़बूत हो रही है, उसके नये सामाजिक अवलम्ब विकसित हुए हैं और सामाजिक आधार विस्तारित हुआ है। फासीवादी सत्ता में चाहे न भी आयें, उत्पात और आतंक मचाने की उनकी ताक़त बढ़ रही है।

दूसरी ओर, यह भी सच है कि खण्ड-खण्ड में बिखरा हुआ, गतिरुद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन आज विकल्प प्रस्तुत कर पाने की स्थिति में नहीं है। इसके भीतर, एक छोर पर यदि “वामपंथी” दुस्साहसवाद का भटकाव है, तो दूसरे छोर पर तरह-तरह के रूपों में दक्षिणवादी विचलन है। दोनों के ही मूल में है विचारधारात्मक कमज़ोरी और कठमुल्लावाद। आज की दुनिया और भारत में पूँजीवादी संक्रमण की गतिकी को नहीं समझ पाने के चलते अधिकांश संगठन आज भी नयी सच्चाइयों को बीसवीं शताब्दी की लोकजनवादी क्रान्तियों के साँचे-खाँचे में फिट करने की निष्फल कोशिश करते रहे हैं। इस गतिरोध से उबरने के लिए पुरानी निरन्तरता को तोड़कर एक नयी साहसिक शुरुआत की ज़रूरत है। मार्क्सवाद-लेनिनवाद की गम्भीर समझ से लैस, सच्ची बोल्शेविक पार्टी के निर्माण के लिए संकल्पबद्ध  कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी ही इस काम को अंजाम दे सकती है। यह रास्ता लम्बा है मगर कोई दूसरा रास्ता है ही नहीं। परिस्थितियाँ इस एकमात्र विकल्प को साहस के साथ स्वीकार करने के लिए लगातार दबाव बना रही हैं।

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काफ़ी लम्बे अन्तराल के बाद ‘दिशा सन्धान’ का यह दूसरा अंक आपके बीच प्रस्तुत है। सम्पादकीय टीम की कुछ अप्रत्याशित व्यस्तताओं और पहले अंक में प्रकाशित दो धारावाहिक निबन्धों के लेखकों की कुछ आकस्मिक समस्याओं के कारण इसमें देर होती रही। हालाँकि ‘नक्सलबाड़ी और उत्तरवर्ती चार दशक’ की दूसरी किस्त हम इस बार भी नहीं दे पा रहे हैं। इसे जल्द प्रकाशित होने वाले अगले अंक से फिर शुरू किया जायेगा।

पत्रिका के पहले अंक का जिस उत्साह के साथ पाठकों ने स्वागत किया है उससे हमारा विश्वास दृढ़ हुआ है कि संक्रमण के इस दौर में खुलकर सोचने, बहस-मुबाहसा करने, आन्दोलन और विचारधारा के सवालों पर सकर्मक विमर्श करने के एक मंच के तौर इस प्रकार की पत्रिका की आज सख़्त ज़रूरत है। जैसा कि हमने पत्रिका के परिपत्र में कहा था, यह समय है कि ऐसे सभी लोगों के बीच एक सही विचारधारात्मक-राजनीतिक अवस्थिति के निःसरण के लिए खुले विचारधारात्मक-राजनीतिक विनिमय, विमर्श और बहस-मुबाहसे का आयोजन किया जाना चाहिए जो अभी भी संशयवाद के हामी नहीं बने हैं, जो अभी भी किसी क्रान्तिकारी परियोजना के साथ प्रतिबद्ध हैं और उसके प्रति एक वैज्ञानिक आशावाद रखते हैं और जिन्होंने ऐसी क्रान्तिकारी परियोजना के साथ किसी न किसी रूप में खड़े होने के संकल्प को छोड़ा नहीं है। ‘दिशा सन्धान’ विनम्रता के साथ ऐसे सभी साथियों के बीच एक संवाद स्थापित करने के प्रस्ताव के साथ आपके सामने उपस्थित है। हमें यह देखकर ख़ुशी है कि इस प्रस्ताव को नये-पुराने पाठकों से पुरज़ोर समर्थन मिला है।

पत्रिका का यह अंक हम एक बार फिर इस आग्रह के साथ आपके हाथों में दे रहे हैं कि इस पर अपनी बेलाग राय, प्रतिक्रिया और सुझाव हमें दें। अगर आपको यह एक ज़रूरी परियोजना लगती है तो इसके साथ जुड़ें, इसे हर प्रकार से सहयोग दें।

(4 मार्च 2014)

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित

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