भूमण्डलीकरण के दौर में तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा
- आनन्द सिंह
पिछली सदी के अन्तिम दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के नामधारी समाजवाद के पतन के बाद से न सिर्फ़ बुर्जुआ सिद्धान्तकारों ने बल्कि बहुतेरे मार्क्सवादी सिद्धान्तकारों ने अमेरिका के एकछत्र साम्राज्य और विश्व-पूँजीवाद की एकध्रुवीयता को एक स्थायी परिघटना मानते हुए भाँति-भाँति के सिद्धान्त गढ़े और भूमण्डलीकरण के दौर में बदली हुई परिस्थितियों का हवाला देते हुए साम्राज्यवाद विषयक लेनिन के सूत्रीकरण को मौजूदा विश्व में अप्रासंगिक बताने की मानो होड़ सी लग गयी। कई सिद्धान्तकारों ने काउत्स्की के अति-साम्राज्यवाद (अल्ट्रा-इम्पीरियलिज़्म) की थीसिस का आधुनिक संस्करण प्रस्तुत करते हुए यह भी कहना शुरू कर दिया कि भूमण्डीकरण के युग में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा स्थायी एवं अनुत्क्रमणीय तौर से ख़त्म हो गई है और विश्व पूँजीवाद अन्तरविरोधों से रहित एक शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता के दौर में प्रविष्ट हो चुका है। लेकिन विश्व पटल पर पिछले कुछ वर्षों के घटनाक्रम इस ओर साफ़ इशारा कर रहे हैं कि सतह पर दिखने वाली अमेरिका के साम्राज्यवादी वर्चस्व की एकध्रुवीयता एवं विश्व-पूँजीवाद का एकाश्मी स्वरूप के पीछे अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के तीखे होने की ज़मीन भी तैयार हो रही है। अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे को कड़ी चुनौती देता हुआ और उससे तगड़ी प्रतिस्पर्धा करता हुआ चीन और रूस के नेतृत्व में नये साम्राज्यवादी खेमे का उभार समय बीतने के साथ ही साथ दिन के उजाले की तरह दिखायी पड़ता जा रहा है। यूक्रेन व मध्य-पूर्व में जारी अस्थिरता व विनाशकारी युद्धोन्मादभी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के तीखे होने एवं विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में पैदा होने वाली दरारों एवं दरकनों की ही निशानी है।
विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व में हृास
अमेरिका की सैन्य शक्तिमत्ता की सर्वोच्चता अक्सर यह भ्रम पैदा करती है कि विश्व-स्तर पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का वर्चस्व बढ़ रहा है। सोवियत संघ के विघटन के बाद से इस भ्रम के फैलने का आधार और भी ज़्यादा मजबूत हुआ है। परन्तु जब हम सतह पर दिखने वाले आभासी यथार्थ को भेदकर वास्तविक यथार्थ तक पहुँचकर किसी परिघटना का विश्लेषण करने वाले मार्क्सवादी विज्ञान की रोशनी में अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व की पड़ताल करते हैं तो पाते हैं कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अस्तित्व में आया अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व 1970 के दशक की शुरुआत में डॉलर-गोल्ड मानक के ढहने के साथ ही ढलान पर बढ़ चुका था और समय बीतने के साथ ही साथ ही विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में उसका वर्चस्व कम होता आया है।
विश्व पूँजीवाद में अमेरिकी वर्चस्व के हृास को चन्द आँकड़ों के ज़रिये आसानी से समझा जा सकता है। विश्व बैंक द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार जहाँ 1960 में दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में अमेरिका का हिस्सा 38.4 था वहीं 2012 में यह घटकर 22.5 प्रतिशत रह गया। ग़ौरतलब है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तुरन्त बाद अमेरिका की हिस्सेदारी 56.4 प्रतिशत थी। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद से दुनिया के जीडीपी में जर्मनी, फ्रांस एवं इटली की हिस्सेदारी बढ़ी, हालाँकि पिछले डेढ़ दशकों में इन साम्राज्यवादी देशों की हिस्सेदारी कम हुई है। हाल के वर्षों में चीन ने विश्व पूँजीवादी उत्पादन में अपनी हिस्सेदारी अभूतपूर्व रूप से बढ़ायी है। यही नहीं अमेरिकी अर्थव्यवस्था में अधिकांश निवेश वित्तीय सेवा क्षेत्र में ही हुआ है जो उसके परजीवी चरित्र की निशानी है। यदि संयुक्त राष्ट्र के आँकड़े के अनुसार मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में पिछले 40 वर्षों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत रह गई। 2007 से जारी महामन्दी ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी है और इस महामन्दी से निकट भविष्य में निजात मिलने के कोई आसार भी नहीं नज़र आ रहे हैं।
इराक़ एवं अफ़गानिस्तान में सैन्य हस्तक्षेपों में भी अमेरिकी साम्राज्यवादियों के मंसूबे पर पानी फिरने से उसकी सैन्य शक्तिमत्ता पर भी सवालिया निशान खड़े हो गये हैं। एक दशक से भी लम्बे समय से जारी तथाकथित आतंक के खिलाफ़ युद्ध ने आतंकवाद को ख़त्म करने की बजाय और अधिक भयावह रूप दिया है। अल क़ायदा को ख़त्म करना तो दूर अमेरिकी साम्राज्यवादी नीतियों ने इस्लामिक स्टेट, बोको हरम जैसे कई भस्मासुरों को पैदा किया है जो अब अपने आका को ही काट खाने को अमादा हैं।
एक साम्राज्यवादी देश के रूप में चीन का उभार
माओ की मृत्यु के पश्चात देंग के नेतृत्व में चीन ने समाजवाद से रिवर्स गियर लगाते हुए पूँजीवाद की ओर रुख़ किया। इतिहास की इस पश्चगति से जहाँ एक ओर आम मेहनतकश आबादी का जीवन दुरूह हो गया वहीं चीन दुनिया के सबसे तेज़ गति से विकसित होने वाले पूँजीवादी देश के रूप में उभरा। यही नहीं, नयी सदी में वह एक साम्राज्यवादी देश के रूप में तेज़ी से उभरा है और अमेरिकी साम्राज्यवाद के वर्चस्व को तगड़ी चुनौती दे रहा है। आज चीन की अर्थव्यवस्था दुनिया में दूसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था है और अमेरिका के थिंक टैंकों के ही आकलन बता रहे हैं कि कुछ ही वर्षों में यह अमेरिका को पछाड़कर दुनिया की सबसे बड़ी पूँजीवादी अर्थव्यवस्था बन जायेगी। पिछले 40 वर्षों में दुनिया के कुल मैन्युफैक्चरिंग मूल्य में चीन की हिस्सेदारी 1 प्रतिशत से बढ़कर 18 प्रतिशत के आसपास पहुँच चुकी है। हालाँकि चीन के राज्य पूँजीवाद में अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का ही दबदबा है, लेकिन 1990 के दशक से वहाँ भी निजीकरण की प्रक्रिया ने गति पकड़ी है और सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों में भी निजी कम्पनियों जैसा ही तानाशाहाना प्रबन्धन काम करता है।
दुनिया के दस सबसे बड़े बैंकों में चार बैंक चीन के हैं। यह तथ्य विश्व वित्तीय बाज़ार में चीन का बढ़ते दबदबे की ओर इशारा करता है। औद्योगिक पूँजी और बैंकिंग पूँजी के विलय से चीन में भी वित्तीय पूँजी का एक विराट साम्राज्य खड़ा हुआ है जिसकी अहमियत चीन की अर्थव्यवस्था में समय बीतने के साथ बढ़ती ही जा रही है। वित्तीय पूँजी के अस्तित्व के अलावा साम्राज्यवाद की अभिलाक्षणिकता के रूप में लेनिन ने पूँजी निर्यात को भी प्रमुखता दी थी। इस पैमाने की कसौटी पर जब हम चीन की अर्थव्यवस्था को परखते हैं तो पाते हैं कि पूँजी के निर्यात के मामले में भी चीन की अर्थव्यवस्था ने पिछले कुछ वर्षों में ज़बरदस्त विकास किया है जो उसके साम्राज्यवादी चरित्र को स्पष्ट करता है। 2007 में शुरू हुई मौजूदा विश्वव्यापी महामन्दी के पहले से ही चीन ने ‘गो ग्लोबल’ (‘दुनिया की ओर जाओ’) नीति के तहत अपनी अर्थव्यवस्था को सस्ते मालों के निर्यात वाली अर्थव्यवस्था से पूँजी निर्यात वाली अर्थव्यवस्था की ओर मोड़ना शुरू कर दिया था। महामन्दी के बाद से तो इस दिशा में वह अभूतपूर्व तेज़ी के साथ आगे बढ़ा है। वर्ष 2011 में चीन ने कुल 4.6 खरब डॉलर की पूँजी निर्यात की थी। यह बात भी सच है कि चीन की अर्थव्यवस्था में विदेशी पूँजी का आयात भी बड़े पैमाने पर होता है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से चीन का पूँजी निर्यात पूँजी आयात के मुकाबले कहीं तेज़ी से बढ़ा है और आज चीन नेट पूँजी निर्यातक देश बन चुका है। चीन के पूँजी निर्यात में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एवं पोर्टफोलियो निवेश दोनों ही शामिल हैं। चीन से निर्यात किये जाने वाले पोर्टफोलियो निवेश का बहुत बड़ा हिस्सा अमेरिका के ट्रेज़री बॉण्ड के रूप में होता है। इस प्रकार के बॉण्ड में चीन के निवेश के ज़रिये अमेरिकी सरकार चीन की कज़र्दार बन गई है जो चीन के बढ़ते प्रभुत्व को ही दर्शाता है।
आज चीन पश्चिमी विकसित मुल्कों से लेकर एशिया, अफ्रीका एवं लातिन अमेरिका के देशों सहित दुनिया के कोने-कोने में अपनी पूँजी लगा रहा है। चीन की कम्पनियाँ बड़े पैमाने पर अमेरिका की कई कम्पनियों में निवेश कर रही हैं और तमाम कम्पनियों को ख़रीद भी रही हैं जिससे अमेरिकी पूँजीपति सकते में आ गए हैं। ऑस्ट्रेलिया में चीन ने खनन, तेल, गैस व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में बड़े पैमाने पर निवेश किया है और हाल के वर्षों में उसने खाद्य, एग्रीबिज़नेस, रियल स्टेट, नवीकरणीय ऊर्जा, हाई टेक एवं वित्तीय सेवाओं में भी निवेश करना शुरू किया है। इसी तरह से कनाडा में भी चीन तेल, गैस व खनन में बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। ब्राजील में चीन का निवेश मुख्य रूप से ऊर्जा एवं धातु उद्योग में हो रहा है। इसी तरह से लातिन अमेरिका के अन्य मुल्कों जैसे पेरू, अर्जेंटीना, इक्वाडोर आदि में चीन ऊर्जा एवं अवरचनागत क्षेत्र में पूँजी लगा रहा है। अपने पड़ोसी मुल्क वियतनाम में चीन लकड़ी, रबर, खाद्य फसलों एवं खनिज सम्पदा के दोहन में बेतहाशा निवेश कर रहा है और वहाँ से मालों की ढोकर चीन लाने के लिए बड़े पैमाने पर सड़कों एवं रेलमार्ग के विकास में निवेश कर रहा है। इसी तरह चीन हिन्द चीन एवं दक्षिण पूर्वी एशिया के मुल्कों में भी बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा है। दक्षिण एशिया में नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में भी चीन पूँजी निवेश कर रहा है। नेपाल में चीन पूँजी निवेश के मामले में भारत को भी पीछे छोड़ चुका है। मोदी की हालिया चीन यात्रा में चीन ने ‘मेक-इन-इण्डिया’ को भारत में पूँजी निर्यात के अवसर के रूप में हाथोंहाथ लिया है।
अफ्रीका में चीन पूँजी निवेश करने पर विशेष ज़ोर दे रहा है। ग़ौरतलब है कि माओकालीन चीन अफ्रीकी मुल्कों में बुनियादी ढाँचे के निर्माण से लेकर खनन आदि में निवेश करके मित्रतापूर्ण मदद करता था। लेकिन आज का चीन इस पुरानी दोस्ती का इस्तेमाल अपनी साम्राज्यवादी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश करके अपनी अर्थव्यवस्था को सरपट रफ़्तार से दौड़ाने के लिए ज़रूरी तेल और खनिज सम्पदा की लूट के लिए कर रहा है। चीन का पूँजी निवेश नाइजीरिया, ज़ाम्बिया, घाना, लिबेरिया, रवाण्डा, सूडान जैसे अफ्रीकी मुल्कों में सबसे ज़्यादा है। इस वक़्त समूचे अफ्रीका में चीन की 800 से भी अधिक कम्पनियाँ काम कर रही हैं और वहाँ रहने वाले चीनी नागरिकों की संख्या 10 लाख से भी अधिक है। ये तथ्य अपने आप में अफ्रीका में चीन की साम्राज्यवादी दख़ल को दिखाने के लिए पर्याप्त हैं।
सामाजिक साम्राज्यवाद के पतन के बाद रूस का नये सिरे से एक साम्राज्यवादी देश के रूप में उभार
स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ में पूँजीवादी पुर्नस्थापना होने के बाद से रूस सोवियत संघ के अन्य देशों के उत्पीड़क के रूप में उभरा। इसके अलावा दुनिया के अन्य देशों में भी उसने साम्राज्यवादी विस्तार की नीतियाँ अमल में लायीं एवं अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे के बरक्स एक सामाजिक साम्राज्यवादी खेमे का नेतृत्व किया। परन्तु 1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस की अर्थव्यवस्था औंधे मुँह गिर पड़ी। लेकिन नयी सदी आते-आते रूस की अर्थव्यवस्था एक बार फिर उठ खड़ी हुई और अब हालात यह है कि रूस एक बार फिर से पश्चिमी साम्राज्यवादी खेमे के बरक्स एक नये साम्राज्यवादी खेमे की नेतृत्वकारी ताकत के रूप में उभर रहा है। आज रूस सिर्फ़ कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिपेंडेंट स्टेट्स (पूर्व सोवियत संघ में शामिल देशों का समूह) में ही नहीं बल्कि बल्कि यूरोप, एशिया, अमेरिका एवं अफ्रीका के देशों में भी अपनी पूँजी का निर्यात कर रहा है। यूरोप के कई देशों में रूस गैस पाइपलाइन के ज़रिये गैस की सप्लाई करता है। आज उसके पास लगभग 60 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भण्डार है दुनिया के तमाम मुल्कों में उसका कुल पूँजी निवेश 200 अरब डॉलर से भी अधिक है। ये सभी तथ्य ये साफ़ इशारा कर रहे हैं कि रूस एक बार फिर से अमेरिकी साम्राज्यवाद से होड़ करने की स्थिति में पहुँच चुका है।
तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा की कुछ अभिव्यक्तियाँ
बढ़ती हुई और लगातार तीखी होती अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का प्रमुख लक्षण ब्राजील, रूस, भारत, चीन व दक्षिण अफ्रीका जैसे मुल्कों के समूह ब्रिक्स के रूप में दिखाई पड़ रहा है। ग़ौरतलब है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के अन्तिम दौर में अस्तित्व में आयी विश्वबैंक एवं आईएमएफ जैसी संस्थाओं में अमेरिका का अत्यधिक दबदबा है और उनमें उसके वोटिंग अधिकार विश्व अर्थव्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी से कहीं ज़्यादा हैं। इसको लेकर चीन व अन्य देश आपत्ति जताते रहे हैं। हाल ही में ब्रिक्स द्वारा विश्वबैंक (एवं आईएमएफ) के विकल्प के रूप में एक अन्तरराष्ट्रीय विकास बैंक की स्थापना की कवायदें की जा रही हैं। 2013 में डर्बन में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स के सदस्य देशों ने ऐसे बैंक की स्थापना पर सहमति जतायी। हालाँकि ब्रिक्स के देशों में आपस में भी तमाम मतभेद हैं लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद के बरक्स एक नयी साम्राज्यवादी धुरी तैयार करने को लेकर उनमें आम सहमति है। यहाँ तक बात चल रही है कि ब्रिक्स के देश विदेशी व्यापार में डॉलर की बजाय एक दूसरे की मुद्रा में व्यापार कर सकते हैं। भविष्य में इंडोनेशिया, थाइलैंड, मैक्सिको जैसे देशों को भी ब्रिक्स समूह में शामिल करने की क़वायदें चल रही हैं। तुर्की भी यूरोपीय संघ में शामिल न होने के परिदृश्य में ब्रिक्स की ओर क़रीबी बढ़ा सकता है। यहाँ तक कि दक्षिण कोरिया जैसा देश भी इस नये समूह से क़रीबी बढ़ाने की सोच रहा है। स्पष्ट है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद के बरक्स एक नया साम्राज्यवादी खेमा न सिर्फ़ अस्तित्व में आ चुका है बल्कि इस नये खेमे का विस्तार भी हो रहा है।
यूरेशिया इन दिनों अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा का मुख्य क्षेत्र बना हुआ है जहाँ साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध युद्ध जैसी परिस्थिति पैदा कर रहे हैं। यूक्रेन में रूस एवं नाटो के बीच हाल के वर्षों में जो तनाव की स्थिति बनी हुई है वह साम्राज्यवाद में आयी दरारों एवं दरकनों की ओर ही इशारा कर रही हैं। ग़ौरतलब है कि नाटो के देशों में आपस में भी अन्तरविरोध काम कर रहे हैं। यूरोपीय देश अमेरिका द्वारा रूस पर लगाये गये प्रतिबन्धों को जारी रखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं क्योंकि रूस यूरोपीय देशों में तेल और गैस की सप्लाई का प्रमुख स्रोत एवं यूरोपीय मालों के लिए एक बड़ा बाज़ार भी है। ग़ौरतलब है कि अमेरिका से शुरू हुई मौजूदा महामन्दी ने यूरोप के मुल्कों में ज़बरदस्त कहर ढाया है और यूरोपीय संघ जो कभी अमेरिका के साम्राज्यवादी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए यूरोपीय साम्राज्यवादी खेमे के उभार का सूचक था आज काफ़ी कमज़ोर हो चुका है। विशेषकर दक्षिण यूरोप के देशों जैसे यूनान, इटली, स्पेन और पुर्तगाल की अर्थव्यवस्थायें ख़स्ताहाल हो चुकी हैं। यूरोपीय मुल्क इस महामन्दी के लिए कहीं न कहीं अमेरिका को ज़िम्मेदार मानते हैं और इसलिए भी नाटो के देशों में आपस में तमाम अन्तरविरोध उभर रहे हैं। अमेरिका यूरोप को अपनी ओर खींचने के लिए ट्रांस अटलांटिक ट्रेड एंड इनवेस्टमेंट पार्टनरशिप डील पर काम कर रह है, लेकिन यूरोपीय देश इस डील को लेकर भी बहुत उत्साहित नहीं दिख रहे हैं।
रूस ने अपने ऊपर लगे प्रतिबन्ध का सामना करने के लिए चीन के साथ व्यापार सम्बन्ध एवं ज्वाइंट वेंचर बनाने की दिशा में क़दम बढ़ाया है। हाल ही में रूस और चीन के बीच एक बड़ा गैस समझौता हुआ है जिसके तहत रूस डॉलर की बजाय चीन की मुद्रा युआन में गैस की क़ीमतें लेने के लिए तैयार हो गया है। चीन से यूरोप तक एक आधुनिक ‘सिल्करोड’ बनाने की क़वायदें भी चल रही हैं जो चीन के साम्राज्यवादी उभार की ओर ही इंगित कर रही हैं।
यूरेशिया के पूर्वी हिस्से यानी प्रशान्त महासागर से लगे हिस्से की बात करें तो वहाँ पूर्वी एवं दक्षिणी चीन सागर में चीन द्वारा तेल और गैस के संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने की वजह से अमेरिका सकते में आ गया है। यही वजह है कि वह इस क्षेत्र में स्थित देशों के साथ जल्द से जल्द ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करवाना चाहता है ताकि वह चीन की बढ़ती आर्थिक ताक़त को काबू में कर सके। लेकिन चीन ट्रांस पैसिफिक के देशों के साथ व्यापारिक संधियों पर काम कर रहा है और अमेरिका की मुसीबतें बढ़ा रहा है। चीन को सैन्य रूप में घेरने के लिए अमेरिका प्रशान्त महासागर से लगे देशों के साथ रिमपैक नामक एक सैन्य समझौते पर भी काम कर रहा है। चीन और रूस का खेमा भी शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइज़ेशन नाम से एक बहुदेशीय सैन्य संगठन पहले ही बना चुके हैं जिसमें मध्य एशिया के कई देशों को शामिल किया गया है। ये सैन्य गुट भी अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के तीखे होने की ओर ही इिंगत कर रहे हैं।
मध्य-पूर्व भी हाल के वर्षों में दुनिया का सबसे अधिक हिंसाग्रस्त हिस्सा बना हुआ है। गाज़ा में इज़राइली बर्बर हमला, लीबिया व सीरिया में जारी गृहयुद्ध, इस्लामिक स्टेट का उभार, अरब देशों द्वारा यमन पर हमला ये सभी साम्राज्यवाद के अन्तरविरोधों के तीखे होने की निशानी हैं। दरअसल मध्य-पूर्व के देशों के शासकों एवं वहाँ की जनता के बीच अन्तरविरोध, विभिन्न देशों के शासकों के बीच के अन्तरविरोध एवं साम्राज्यवादी खेमों के बीच के अन्तरविरोध, ये तीनों एक साथ काम कर रहे हैं। अरब के मुल्कों में आम बग़ावतों पर काबू पाने की कोशिश में लगा अमेरिकी साम्राज्यवाद अपने ही बुने जाल में फँसता जा रहा है। सीरिया में रूस की सरपरस्ती वाली असद सरकार का तख़्तापलट करने के मक़सद से अमेरिका ने इस्लामिक स्टेट के आतंकियों का सहारा लिया था, लेकिन अब ये जिहादी आतंकवादी खुद अपने आका को काट खाने पर अमादा हैं। अरब के देशों में ईरान, चीन व रूस की पैठ बढ़ने से अमेरिका खौ़फज़दा है। चीन ने अरब के देशों में तेल व गैस की खोज के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी लगायी है जो अमेरिका के लिए चिन्ता का सबब है। इसी तरीके से चीन ने अफ्रीका एवं लातिन अमेरिका के देशों में तेल, गैस, लकड़ी, धातु एवं अन्य खनिज संसाधनों का दोहन करने के लिए एवं अपने मालों के लिए बाज़ार का विस्तार करने के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी लगायी है जो अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व की कड़ी चुनौती दे रहा है।
लेनिन ने कहा था कि तीखी होती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा युद्धों को जन्म देती है। भूमण्डलीकरण के दौर में राष्ट्रपारीय निगमों के अस्तित्व में आने की वजह से दुनिया के साम्राज्यवादी देशों की पूँजी चूँकि दुनिया भर में लगी हुई है और दुनिया के कई मुल्क इस समय परमाणु अस्त्र से लैस हैं इसलिए विश्वयुद्ध होने की सम्भावना तो बहुत क्षीण हो चुकी है, परन्तु हाल के वर्षों के घटनाक्रम इस बात की ओर साफ़ इशारा कर रहे हैं कि तीखी होती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा क्षेत्रीय स्तर पर पहले से कहीं विनाशकारी युद्धों को जन्म देगी। इसके कुछ नमूने हमें गाज़ा, सीरिया, यमन आदि में दिख रहे हैं। साम्राज्यवाद के इस दौर में आज पूँजीवाद ने मानवता को जिस क़दर तबाही के कगार पर ला खड़ा किया है उससे निजात सिर्फ़ सर्वहारा क्रान्ति ही दिला सकती है। इसलिए साम्राज्यवाद के बढ़ते अन्तरविरोधों के मद्देनज़र दुनिया भर में सर्वहारा क्रान्ति की पक्षधर ताक़तों को अपना पूरा ज़ोर अपनी मनोगत कमज़ोरियों को दूर करके युद्धों के सिलसिले को क्रान्ति के बैरियर से तोड़ देने के लिए जीजान से जुट जाना चाहिए।