महान बहस के 50 वर्ष

महान बहस के 50 वर्ष

  • राजकुमार

आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में खड़े होकर इतिहास पर नज़र डालें तो 20वीं सदी में सम्पन्न दो महान समाजवादी प्रयोगों के अनुभव हमारे सामने मौजूद हैं। हम कह सकते हैं कि कम्युनिस्ट आन्दोलन के विचारधारात्मक विकास और व्यावहारिक प्रयोग के पूरे दौर में नेतृत्व के बीच से संशोधनवादी भितरघाती पैदा होते रहे हैं, जो सर्वहारा क्रान्तियों के सबसे बड़े दु्श्मन सिद्ध हुए हैं। मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन से लेकर स्तालिन तथा माओ तक कम्युनिस्ट आन्दोलन का सैद्धान्तिक विकास संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए हुआ है। विकास के इस पूरे दौर में स्तालिनकालीन सोवियत यूनियन और माओकालीन चीन के महान क्रान्तिकारी समाजवादी प्रयोगों ने इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लागू किया और समाजवादी संक्रमण की विचारधारात्मक समझ को और परिपक्व बनाया।

सर्वहारा क्रान्तियों के विचारधारात्मक विकास की इस कड़ी में 1963-64 में माओ के नेतृत्व में चली महान बहस ने आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष करते हुए समाजवादी संक्रमण के बारे में पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों को एक सुव्यवस्थित मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त से हथियारबन्द किया। इस बहस ने स्तालिनकालीन सोवियत यूनियन के अनुभवों और ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का सैद्धान्तिक निचोड़ प्रस्तुत किया जो समाजवादी संक्रमण को समझने में एक मील का पत्थर है। इन अनुभवों के आधार पर महान बहस में माओ ने चीन में 1966 से 1976 तक चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की।

आज महान बहस की 50वीं वर्षगाँठ पर 2014 में पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों के सामने स्तालिनकालीन सोवियत यूनियन के समाजवादी प्रयोग, ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के जन्म, और माओ के नेतृत्व में हुई चीन की महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के महान अनुभव मौजूद हैं। इन अनुभवों ने आने वाले समय में सर्वहारा वर्ग को समाजवादी क्रान्ति के महान लक्ष्य को पूरा करने और पूँजीवादी समाज से कम्युनिस्ट समाज तक पूरे संक्रमण काल के क्रान्तिकारी नेतृत्व की मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी सैद्धान्तिक समझ को आधुनिक हथियारों से लैस किया है।

1871 में पेरिस कम्यून के बारे में मार्क्स ने कहा था, यदि कम्यून को नष्ट कर दिया जाता है, तब भी संघर्ष सिर्फ़ स्थगित होगा। कम्यून के सिद्धान्त सार्वभौमिक और अनश्वर हैं, ये तब तक बार-बार प्रकट होते रहेंगे जब तक मज़दूर वर्ग स्वतन्त्र नहीं हो जायेगा।

1. महान बहस की पृष्ठभूमि

विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन में आधुनिक संशोधनवादियों के विरुद्ध चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा 1963 से 1964 के बीच चलायी गयी महान बहस ने मार्क्सवाद-लेनिनवाद और आधुनिक संशोधनवाद के बीच एक विभाजन रेखा खीचकर निर्णायक संघर्ष का आरम्भ किया था। 24 फ़रवरी, 1956 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में ख्रुश्चेव द्वारा प्रस्तुत किये गये गुप्त भाषण के साथ ही चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने स्तालिनकाल पर ख्रुश्चेव द्वारा उठाये गये सवालों पर अपनी मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति को स्पष्ट करने के कार्य को तत्काल आरम्भ नहीं किया था। चीनी पार्टी ने “सर्वहारा अधिनायकत्व के ऐतिहासिक अनुभव” (4 अप्रैल, 1956), “सर्वहारा अधिनायकत्व के ऐतिहासिक अनुभव के बारे में कुछ और बातें” (29 दिसम्बर, 1956) नाम से दो लेख प्रकाशित किये जिनमें सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा स्तालिनकाल के बारे में की गयी आलोचना के कई बिन्दुओं पर अपनी सहमति दर्ज़ करायी थी। इसके बाद विश्व सर्वहारा आन्दोलन की आम मार्क्सवादी-लेनिनवादी दिशा के प्रस्ताव के रूप में दुनिया की आठ कम्युनिस्ट-मज़दूर पार्टियों की भागीदारी से 1957 का घोषणापत्र (मास्को घोषणापत्र) और 81 कम्युनिस्ट पार्टियों की भागीदारी से 1960 का वक्तव्य (मास्को वक्तव्य) जारी किया गया।

इस दौर में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी 1957 का घोषणापत्र और 1960 का वक्तव्य के प्रस्तावों के विपरीत “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व”, “शान्तिपूर्ण होड़”, “शान्तिपूर्ण संक्रमण”, “समूची जनता का राज्य” तथा “समूची जनता की पार्टी” जैसे संशोधनवादी सिद्धान्तों को पेश कर अपनी संशोधनवाद नीतियों को एक पूर्ण व्यवस्था के रूप में लागू करने तथा सर्वहारा वर्ग को साम्राज्यवादी शक्तियों के सामने निशस्त्र करने के काम में लगी थी (महान बहस (आगे म.ब.), पृष्ठ 322)। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध 16 अप्रैल, 1960 को “लेनिनवाद ज़िन्दाबाद!” लेख छापा और इसके बाद 15 दिसम्बर, 1962 से 8 मार्च, 1963 के बीच सोवियत यूनियन द्वारा चीनी पार्टी पर किये जा रहे प्रहारों का जवाब देते हुए सात लेख लिखे, जिनमें चीनी पार्टी ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यदिशा को स्पष्ट करने का सैद्धान्तिक कार्य आरम्भ कर दिया था। लेकिन इस समय तब तक इसे खुली बहस के रूप में पूरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के सामने नहीं रखा गया था। (म.ब., पृष्ठ 39)

2. महान बहस, 1963 से 1964

1956 से 1962 के बीच ख्रुश्चेवी संशोधनवादी नीतियों के विरुद्ध खुला संघर्ष न करने के बावजूद, भले देर से ही सही, लेकिन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ के नेतृत्व में आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध शानदार अवस्थिति लेकर पूरे कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास का समाहार प्रस्तुत किया और समाजवादी संक्रमणकाल की समझ को गुणात्मक रूप से विकसित करते हुए मार्क्सवादी-लेनिनवादी आम कार्यदिशा के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभायी और मार्क्सवाद-लेनिनवाद तथा संशोधनवाद के बीच की एक विभाजन रेखा खींचने का काम किया। इस बहस के तहत चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 14 जून, 1963 को “अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम दिशा के बारे में एक सुझाव” में 25 सूत्रीय कार्यक्रम का प्रस्ताव सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी के नाम प्रकाशित किया और इसके बाद 14 जुलाई, 1964 तक इसके 25 सूत्रीय कार्यक्रम की व्याख्या करते हुए एक के बाद एक 9 टिप्पणियाँ प्रकाशित कीं, जिन्हें महान बहस कहा जाता है। 1963-64 की महान बहस के नौ दस्तावेज़ों में आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध खुले संघर्ष में माओ के नेतृत्व में चीनी पार्टी ने जो अवस्थिति अपनायी वह उन संघर्षों से कम नहीं थी जो लेनिन ने काउत्स्की तथा बर्नस्टीन के संशोधनवाद के विरुद्ध और मार्क्स ने बाकुनिनपन्थियों के विरुद्ध अपने-अपने दौर में चलाये थे।

महान बहस से पहले अल्बानिया की कम्युनिस्ट पार्टी भी अनवर होज़ा के नेतृत्व में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की संशोधनादी नीतियों की आलोचना कर रही थी, और 16 नवम्बर, 1960 में मास्को में पूरी दुनिया की 81 कम्युनिस्ट पार्टियों की कॉन्फ़्रेंस में पहली बार खुले रूप में अनवर होज़ा ने आधुनिक संशोधनवाद के वाहक के रूप में ख्रुश्चेव की आलोचना करते हुए अपना भाषण “सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस की संशोधनवादी नीतियों और ख्रुश्चेव गुट की मार्क्सवाद-विरोधी स्थिति का विरोध करो! मार्क्सवाद-लेनिनवाद की रक्षा करो!” दिया था। महान बहस से पहले चीनी पार्टी द्वारा लिखे गये दस्तावेज़ों में ऐसा लगता है कि उस समय तक चीनी पार्टी का यह मानना था कि सोवियत यूनियन के नेता संशोधनवादी भटकावों के शिकार हैं, और उन्हें समझा-बुझाकर सही राह पर लाया जा सकता है। यही कारण था कि 1957 के घोषणापत्र तथा 1960 के वक्तव्य में चीनी पार्टी शान्ति के सवाल पर सोवियत यूनियन को कुछ छूट देती हुई दिखायी देती है। 14 जून, 1963 में “आम दिशा के बारे में एक सुझाव” में चीनी पार्टी ने कहा था, “हमें हार्दिक आशा है कि चीनी और सोवियत पार्टियों की वार्ता के सकारात्मक परिणाम निकलेंगे।” (म.ब., पृष्ठ 41) लेकिन 21 नवम्बर, 1964 के महान बहस के अन्तिम दस्तावेज़ में चीन ने कहा था,

ख्रुश्चेव का पतन हो गया है और उसके द्वारा ज़ोर-शोर से चलायी गयी संशोधनवादी दिशा भी दीवालिया हो गयी है। (म.ब., पृष्ठ 379)

माओ द्वारा ख्रुश्चेवकालीन सोवियत नेतृत्व की इस पृष्ठभूमि के आकलन में सैद्धान्तिक चूक हुई, जिसका कारण संशोधनवाद के प्रति उनकी उदारता बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता, बल्कि उस दौर की अपनी ऐतिहासिक सीमाएँ थीं। आज सोवियत यूनियन के अभिलेखों का जितना खुलासा हो चुका है और जितने सबूत दुनिया के सामने आ चुके हैं, उनके आधार पर यह स्पष्ट हो गया है कि ख्रुश्चेव द्वारा 20वीं पार्टी कांग्रेस में स्तालिन का पूर्ण निषेध और उसके बाद लागू की गयीं संशोधनवादी नीतियाँ विचारधारात्मक भटकाव नहीं, बल्कि सोवियत यूनियन में पैदा हो चुके विशेषाधिकार-भोगी वर्ग द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा थीं (तथ्यों के साथ इसका विश्लेषण हम आगे करेंगे)। लेकिन उस समय मौजूद तथ्यों से यह आकलन करना सम्भव नहीं था और चीन की पार्टी क़तारों में भी क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यदिशा तथा संशोधनवादी कार्यदिशा के बीच दो लाइनों का संघर्ष चल रहा था और पार्टी में पूँजीवादी रोडर मौजूद थे जो ख्रुश्चेव की संशोधनवादी लाइन का समर्थन कर रहे थे।

आज हम पीछे मुड़कर देखें तो कहा जा सकता है कि यदि चीनी पार्टी ने पूरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच 1956-57 में ही इस बहस को खुले रूप में शुरू किया गया होता तो ख्रुश्चेवी सुधारवादियों को स्तालिनकालीन सोवियत यूनियन की महान उपलब्धियों पर कीचड़ उछालने और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बारे में विभ्रम पैदा करने का ज़्यादा मौक़ा नहीं मिला होता और कई देशों में कम्युनिस्ट आन्दोलन को संशोधनवादी विचलनों और भटकावों का शिकार होने से बचाया जा सकता था। चूँकि सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी लेनिन और स्तालिन के नेतृत्‍व में समाजवाद का निर्माण करने वाली तथा सर्वहारा वर्ग की महान कुर्बानियों के दम पर बनी पहली कम्युनिस्ट पार्टी थी, इसलिए पूरी दुनिया में इसकी मान्यता थी जिसके कारण ख्रुश्चेव द्वारा संशोधनवादी लाइन अपनाने के बाद सोवियत यूनियन के भटकाव का असर भी पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलनों पर ज़्यादा गहरा हुआ। यदि ग़लत प्रवृत्तियों के विचारों के प्रचार का खुलकर विरोध न किया जाये और उनकी असलियत सबक़े सामने उजागर न की जाये तो समय के साथ वे ग़लत विचार आम धारणा बन जाते हैं, और तब उनके विरुद्ध संघर्ष करना भी अधिक कठिन हो जाता है।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने संशोधनवाद और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बारे में अपना विश्लेषण रखते हुए कहा था,

मार्क्सवाद-लेनिनवाद एक विज्ञान है और विज्ञान बहस से नहीं कतराता। कोई भी चीज़ जो बहस से कतराती है, वह विज्ञान नहीं है। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में चल रही वर्तमान महान बहस सारे देशों में मौजूद कम्युनिस्टों, क्रान्तिकारियों और क्रान्तिकारी जनता को प्रेरित कर रही है कि वे अपनी बुद्धि पर ज़ोर डालकर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के बुनियादी सिद्धान्तों के अनुसार विश्व क्रान्ति और अपने देश की क्रान्ति से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार करें। इस महान बहस के ज़रिये लोग सही और ग़लत में, और सच्चे व छद्म मार्क्सवाद-लेनिनवाद में अन्तर कर सकेंगे। इस महान बहस के ज़रिये विश्व की तमाम क्रान्तिकारी ताक़तें गोलबन्द हो जायेंगी, सभी मार्क्सवादी-लेनिनवादी विचारधारात्मक रूप से परिपक्व हो जायेंगे और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को ज़्यादा परिपक्व तरीक़े से अपने देशों के ठोस व्यवहार से जोड़ सकेंगे। इस प्रकार मार्क्सवाद-लेनिनवाद निस्सन्देह समृद्ध होगा, विकसित होगा और नयी ऊँचाइयों को छुयेगा। (म.ब., पृष्ठ 274)

महान बहस के दस्तावेज़ों में बहस की अवस्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा गया है,

“अन्तिम विश्लेषण में, अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में चल रही महान बहस के केन्द्रीय मुद्दे ये हैं कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद का अनुसरण किया जाये या संशोधनवाद का, सर्वहारा अन्तरराष्ट्रवाद का अनुसरण किया जाये या महाशक्ति अहंकारवाद का और एकता की इच्छा की जाये या फूट की। (म.ब., पृष्ठ 269)

सोवियत यूनियन और चीन की समाजवादी क्रान्तियों में सर्वहारा वर्ग द्वारा किये गये समाजवादी निर्माण के महान प्रयोगों को करीब से देखने वाली अमेरिकी पत्रकार अन्ना लुईस स्ट्रांग ने महान बहस के बारे में लिखा है, यह सिर्फ़ “झगड़ानहीं है। यह एक संकटपूर्ण दौर में इंसानियत के लिए रास्ता निर्धारित करने की एक कोशिश है। यह उस राह की तलाश है जिसके बारे में कई धर्म और अनेक दार्शनिक सदियों से चिल्लाते रहे हैं। मार्क्स से लेकर आज तक कुछ लोग वर्ग संघर्ष और इतिहास के सबक़ों से सीख लेते हुए इस राह को तलाश रहे हैं। कम्युनिस्ट इसे नीरसता से पार्टी लाइनकहते हैं।और जो क्रान्तिकारी बहिष्कार करने का जोखिम वहन कर लेंगे वे एक नये रूप में संगठित होने के लिए आगे आयेंगे। इससे विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन का कोई नुक़सान नहीं होगा।

3.विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के विकास में संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष का इतिहास

वैज्ञानिक समाजवाद के जनक मार्क्स-एंगेल्स के दौर में 1864 में पहले इण्टरनेशनल की स्थापना की गयी। उस समय मार्क्स और एंगेल्स को छोड़कर पूरी यूरोपीय परम्परा में सुधारवादी अर्थवादी प्रवृत्तियाँ मौजूद थीं और उत्पादन के साधनों के विकास पर ज़ोर दिया जाता था। उस समय के बाकुनिनवादी मार्क्स पर हमला कर रहे थे और अपने संशोधनवादी कठमुल्ला विचारों को इण्टरनेशनल पर आरोपित करने का प्रयास कर रहे थे। मार्क्स-एंगेल्स ने बाकुनिनवाद के खि़लाफ़ संघर्ष किया और उन्हें खुली चुनौती दी, और अन्त में 1872 में बाकुनिनवादियों को पहले इण्टरनेशनल से निकाल बाहर कर दिया गया।

पहले इण्टरनेशनल में मार्क्स और एंगेल्स ने अवसरवाद और फूटपरस्ती के खि़लाफ़ संघर्ष करते हुए अन्तरराष्ट्रीय आन्दोलन में क्रान्तिकारी लाइन का विचारधारात्मक नेतृत्व स्थापित किया। जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के गोथा कार्यक्रम की आलोचना के दौर में 1879 में मार्क्स ने कहा था, “लगभग चालीस वर्षों से हम लोग इस पर विशेष ज़ोर देते आ रहे हैं कि वर्ग संघर्ष इतिहास की प्रत्यक्ष चालक शक्ति है और विशेषकर पूँजीवादियों और सर्वहारा के बीच का वर्ग-संघर्ष आधुनिक सामाजिक क्रान्ति का महान उत्तोलक है; इसलिए हम लोगों के लिए उन लोगों के साथ सहयोग करना असम्भव है जो आन्दोलन से वर्ग-संघर्ष को मिटा देना चाहते हैं।” (म.ब., पृष्ठ 237-238)

1876 में पहले इण्टरनेशनल के अन्त की घोषणा की गयी और कई देशों में सामाजिक-जनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की स्थापना हुई। 1889 में एंगेल्स के प्रभाव में दूसरा इण्टरनेशनल बना जो पूँजीवाद के विकास का एक शान्तिपूर्ण दौर था जिसमें क़ानूनी संघर्ष करते हुए कई पार्टियाँ क़ानूनवादी बन गयीं और अवसरवादी विचलनों की शिकार हुईं। अन्त में 1895 में एंगेल्स की मृत्यु के बाद ये अवसरवादी रुझानें दूसरे इण्टरनेशनल में और प्रभावी हुईं। यूरोपीय परम्परा में काउत्स्की और प्लेख़ानोव जैसे कई बड़े नेताओं पर इन अवसरवादी प्रवृत्तियों की ओर रुझान का असर दिखायी देता है। आन्दोलन में मौजूद इस अर्थवादी अवसरवादी भटकाव का असर उस दौर की कला और साहित्य पर भी पड़ा, जो कई लेखकों की रचनाओं में प्रतिबिम्बित होता है।

मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी कार्यदिशा को आगे बढ़ाते हुए अवसरवादियों के विरुद्ध संघर्ष की महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी लेनिन ने अपने हाथ में ली। लेनिन में रूस में मौजूद अवसरवादी रुझान का नेतृत्व करने वाले मेन्शेविकों के विरुद्ध मार्क्सवाद की रक्षा करते हुए समझौताविहीन संघर्ष किया और मार्क्सवादी सिद्धान्तों के मज़बूत आधार पर बोल्शेविक पार्टी को संगठित किया। 1912 में मेन्शेविकों को पार्टी से बाहर कर दिया गया। इस दौर में सभी अवसरवादियों ने लेनिन को ख़ूब गालियाँ दीं और उन्हें फूटपरस्त घोषित कर दिया। उस दौर में लेनिन ने अवसरवादियों के हमले के जवाब में कहा था, “एकता एक महान चीज़ है और एक महान नारा है। लेकिन मज़दूरों के कार्य को जिसकी ज़रूरत है वह है मार्क्सवादियों की एकता, न कि मार्क्सवादियों और मार्क्सवाद के विरोधियों और उसे विकृत करने वालों के बीच की एकता। (म.ब., पृष्ठ 239)

मेन्शेविज़्म के विरुद्ध संघर्ष करते हुए लेनिन ने दूसरे इण्टरनेशनल में काउत्स्की और बर्नस्टाइन के अवसरवाद के विरुद्ध आमने-सामने संघर्ष का एक सिलसिला चलाया। पहले विश्वयुद्ध में दूसरे इण्टरनेशनल के नेताओं ने मज़दूर वर्ग को खुलेआम धोखा दिया, जिसकी लेनिन ने दृढ़ता के साथ कड़े शब्दों में भर्त्सना की। और अन्त में 1919 में दूसरे इण्टरनेशनल की जगह तीसरे इण्टरनेशनल की स्थापना लेनिन के नेतृत्व में हुई। यह सोवियत यूनियन की महान समाजवादी क्रान्ति का दौर था जिसने कम्युनिस्ट आन्दोलन को मार्क्सवाद-लेनिनवाद की नयी ऊँचाइयों पर पहुँचाया।

जिस समय सोवियत यूनियन में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद उपनी जड़ें जमा रहा था, तब कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल जैसा कोई मंच मौजूद नहीं था। लेकिन महान बहस के माध्यम से माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध एक निर्णायक संघर्ष किया और मार्क्सवाद-लेनिनवाद की हिफ़ाज़त की।

काउत्स्की के संशोधनवाद से जितना नुक़सान लेनिन के समय दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलनों को हुआ, उससे भी अधिक नुक़सान ख्रुश्चेव के संशोधनवादी पतन के दौर में दुनिया के सर्वहारा आन्दोलनों को उठाना पड़ा।

4. दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच सम्बन्धों का सवाल

1943 में पूरी दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों की आम सहमति के आधार पर कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल को भंग कर दिया गया था। महान बहस में इसे भंग करने के प्रस्ताव का ज़िक्र करते हुए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का कहना था कि,

“अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास के एक दौर में कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल ने दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों को केन्द्रीय नेतृत्व दिया। इसने अनेक देशों में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना और विकास को प्रोत्साहित करने में महान ऐतिहासिक भूमिका अदा की। लेकिन जब कम्युनिस्ट पार्टियाँ परिपक्व हो गयीं और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की स्थिति और जटिल हो गयी तब कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल द्वारा केन्द्रीय नेतृत्व देना न तो व्यावहारिक रहा और न ही आवश्यक। (म.ब., पृष्ठ 257)

4 फ़रवरी, 1964 को प्रकाशित महान बहस के सातवें दस्तावेज़ में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर कम्युनिस्ट पार्टियों के सम्बन्ध के बारे में लिखा कि सभी बिरादराना पार्टियाँ, चाहे वे बड़ी हों या छोटी, नयी हों या पुरानी, सत्ता में हों या सत्ता से बाहर, वे सभी स्वतन्त्र और बराबर हैं। बिरादराना पार्टियों की किसी बैठक या एकमत से स्वीकार किये गये किसी समझौते ने उन्हें कभी ऐसी शर्त में नहीं बाँधा है कि उनमें वरिष्ठ और अधीनस्थ पार्टियाँ होती हों, कि एक पार्टी पिता हो और अन्य पार्टियाँ पुत्र हों…। (म.ब., पृष्ठ 256) आगे कहा गया कि, “अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा के क्रान्तिकारी आन्दोलन का इतिहास दिखाता है कि क्रान्ति के असमान विकास के कारण एक ख़ास ऐतिहासिक अवस्था में, कभी एक तो कभी दूसरे देश के सर्वहारा और उसकी पार्टी ने आन्दोलन की अग्रिम पंक्ति में मार्च किया है।(म.ब., पृष्ठ 256) लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि, “अन्तरराष्ट्रीय मज़दूर आन्दोलन की अग्रिम पंक्ति में शामिल कोई भी पार्टी अन्य बिरादराना पार्टियों पर हुकुम चला सकती है, या कि अन्य पार्टियों को उसका पालन करना चाहिए। (म.ब., पृष्ठ 257)

सभी बिरादराना पार्टियों की समानता और उनके बीच सम्बन्धों की व्याख्या करते हुए कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल को भंग करने के प्रस्ताव का समर्थन करने के साथ महान बहस में यह भी कहा गया है कि, बिरादराना पार्टियों को स्वतन्त्र और पूर्णतः समान दर्ज़े का होना चाहिए और साथ ही, उन्हें एकताबद्ध भी होना चाहिए। साझा सरोकार के सवालों पर उन्हें विचार-विमर्श के ज़रिये आम सहमति पर पहुँचना चाहिए और उन्हें साझा लक्ष्य के संघर्ष में अपने क्रिया-कलापों को केन्द्रित करना चाहिए। बिरादराना पार्टियों के बीच सम्बन्धों को निर्देशित करने वाले ये उसूल 1957 के घोषणापत्र और 1960 के वक्तव्य में साफ़-साफ़ दर्ज हैं। (म.ब., पृष्ठ 258)

आगे विश्व की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच सम्बन्धों के बारे में चीनी पार्टी ने कहा था, वास्तविक वर्तमान परिस्थितियों में, जिसमें कॉमिण्टर्न जैसा नेतृत्व न तो अस्तित्व में है न ही अपेक्षित, बिरादराना पार्टियों के बीच सम्बन्धों में बहुमत के समक्ष अल्पमत के झुकने के उसूल को लागू करना बिल्कुल ग़लत है। यह उसूल कि अल्पमत को बहुमत के सामने झुकना चाहिए और निचले स्तर के पार्टी संगठन को उच्च स्तर के पार्टी संगठन के सामने, एक पार्टी के भीतर तो माना जाना चाहिए। लेकिन इसे बिरादराना पार्टियों के बीच के सम्बन्धों पर लागू नहीं किया जा सकता। अपने पारस्परिक सम्बन्धों में प्रत्येक बिरादराना पार्टी अपनी स्वतन्त्रता को बनाये रखती है और उसी समय सभी के साथ एकतारबद्ध भी होती है। यहाँ उन सम्बन्धों का अस्तित्व ही नहीं है जिनमें अल्पमत को बहुमत के सामने झुकना चाहिए और वे सम्बन्ध तो निश्चित ही नहीं हैं जिनमें निचले पार्टी संगठन को ऊपरी पार्टी संगठनों के सामने झुकना चाहिए। विचार-विमर्श के उसूल के अनुसार आम सहमति पर पहुँचना ही वह एकमात्र आधार है जिस पर बिरादराना पार्टियों के साझा हितों के सवालों पर कार्रवाई की जानी चाहिए।तथा, “…एक पार्टी के भीतर अल्पमत बहुमत के मातहत होने के उसूल का पालन संगठनात्मक रूप से होना चाहिए। विचारधारात्मक समझदारी के मामले में यह नहीं कहा जा सकता है कि ग़लती की तुलना में सत्य की पहचान सदैव इस बात के आधार पर की जा सकती है कि कौन सी बहुमत की राय है और कौन सी अल्पमत की (ज़ोर हमारा है) (म.ब., पृष्ठ 260-261)

इन उद्धरणों पर ध्यान दें और मुड़कर सोवियत यूनियन और चीन में समाजवादी संक्रमण और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के इतिहास पर नज़र डालें तो यह एक विचार करने का विषय है कि विचारधारात्मक विचार-विमर्श के माध्यम से एकताबद्ध होने तथा आम सहमति पर पहुँचने के लिए यदि उस दौर में एक वैश्विक मंच मौजूद होता तो चीनी पार्टी को पूरी दुनिया की पार्टियों में ख्रुश्चेवी संशोधनवादियों द्वारा पैदा किये गये विभ्रमों के विरुद्ध संघर्ष चलाने में सहायता मिली होती। जैसाकि 14 जून, 1964 में सोवियत यूनियन को लिखे जवाब “अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम दिशा के बारे में” में 1957 के घोषणापत्र का ज़िक्र करते हुए हर देश में कम्युनिस्ट पार्टी की आवश्यकता तथा उसके सैद्धान्तिक कार्यभार की व्याख्या करते हुए कहा गया,

“अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के अनुभवों का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सबक़ यह है कि किसी भी क्रान्ति का विकास और विजय सर्वहारा वर्ग की पार्टी के अस्तित्व पर निर्भर है। क्रान्तिकारी पार्टी अवश्य होनी चाहिए।

सर्वहारा पार्टियों को, “आम मार्क्सवादी-लेनिनवादी सच्चाई को अपने देश की शान्ति और निर्माण के ठोस अमल के साथ… मिलाने के उसूल का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।आगे कहा गया है, “…यह आवश्यक है कि हमेशा वास्तविकता से प्रारम्भ किया जाये, जनता के साथ घनिष्ठ सम्पर्क क़ायम रखा जाये, जन संघर्षों के अनुभवों का लगातार निचोड़ निकाला जाये तथा अपने देश के अनुकूल नीतियों और कार्यनीतियों को स्वतन्त्र रूप से बनाया जाये। अगर कोई ऐसा करने में असमर्थ रहा, अगर उसने अन्य कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों और कार्यनीतियों का यान्त्रिक रूप से अनुसरण किया, दूसरों की इच्छा को अन्धे होकर मान लिया, अथवा अन्य कम्युनिस्ट पार्टी के प्रोग्राम और प्रस्तावों को बिना विश्लेषण किये ही अपनी दिशा के रूप में स्वीकार कर लिया, तो वह कठमुल्लावादी ग़लतियाँ करेगा।(म.ब., पृष्ठ 36, 37)

अपने देश की परिस्थितियों के आधार पर अपने प्रोगाम को निर्धारित करने की आवश्यकता तथा हर क्रान्तिकारी पार्टी के इस कार्यभार को इंगित करते हुए आगे कहा गया है,

“अगर वह ऐसी पार्टी न हो, जो ख़ुद सोचने के लिए अपना दिमाग़ इस्तेमाल कर सकती हो तथा गम्भीर जाँच-पड़ताल व अध्ययन के ज़रिये अपने देश में अलग-अलग वर्गों के रुझानों की सही जानकारी प्राप्त कर सकती हो तथा जो यह जानती हो कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद की आम सच्चाई को कैसे लागू किया जाये और अपने देश के ठोस अलम के साथ कैसे मिलाया जाये, बल्कि ऐसी पार्टी हो, जो दूसरों के शब्दों को तोते की तरह रट लेती है, विदेशों के अनुभव को बिना विश्लेषण किये नक़ल करती है, विदेशों के कुछ लोगों के निर्देश-दण्ड के मुताबिक़ कभी इधर दौड़ती है तो कभी उधर तथा मार्क्सवाद-लेनिनवाद के उसूलों को छोड़कर संशोधनवाद, कठमुल्लावाद और हर दूसरी चीज़ की खिचड़ी बन गयी है, तो ऐसी पार्टी क्रान्तिकारी संघर्ष में सर्वहारा वर्ग और व्यापक जनता का नेतृत्व करने में बिल्कुल असमर्थ है, क्रान्ति में विजय प्राप्त करने में बिल्कुल असमर्थ है तथा सर्वहारा वर्ग के महान ऐतिहासिक मिशन को पूरा करने में बिल्कुल असमर्थ है। (म.ब., पृष्ठ 37-38)

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए आज हमें 1943 में कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल को भंग किये जाने के सवाल पर एक बार फिर से विचार करना होगा, कि क्या जनवादी-केन्द्रीयता पर आधारित उसके विश्व पार्टी के ढाँचे तथा उत्तरदायित्व को बदल देना चाहिए था और दूसरे देशों में क्रान्ति की आम रणनीति तथा आम रणकौशल की दिशा देने के कार्य से मुक्त कर देना चाहिए था। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि यदि इसकी भूमिका को पूरी दुनिया के देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच आम सैद्धान्तिक दिशा को लेकर बहसें चलाने के एक मंच में रूपान्तरित कर दिया जाता तो महान बहस के दौरान, और वर्तमान समय में भी, पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन में पैदा होने वाले सुधारवादियों और त्रेत्स्कीपन्थियों के विरुद्ध संघर्ष चलाना, और हर पार्टी द्वारा अपनी अवस्थिति को सभी पार्टियों के सामने बहस के लिए रखना अधिक सुगम होता। हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ख्रुश्चेव द्वारा लागू की जा रही संशोधनवादी नीतियों के दौर में तीसरी दुनिया के कई देशों में अपरिपक्व कम्युनिस्ट पार्टियाँ मौजूद थीं जिन्हें परिपक्व दिशा-निर्देश की आवश्यकता भी थी।

आज पूरे वैश्विक परिदृश्य में कम्युनिस्ट आन्दोलन में जो भाँति-भाँति की संशोधनवादी या अतिवामपन्थी प्रवृत्तियाँ आन्दोलन के विकास में बेड़ियाँ बनी हुई हैं, उसके आधार पर सोचने के लिए सारे रास्ते हमारे सामने खुले हैं, कि कम्युनिस्ट पार्टियों के अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों पर जो सिद्धान्त महान बहस के दौरान प्रस्तुत किये गये थे उसके लिए विश्व स्तर पर वाद-विवाद के एक मंच की आवश्यकता है।

5. समाजवादी संक्रमण की मार्क्सवादी-लेनिनवादी कार्यदिशा

स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव ने अपने पूर्वनियोजित लक्ष्य के तहत सोवियत यूनियन में “शान्तिपूर्ण संक्रमण”, “समूची जनता का राज्य”, “शान्तिपूर्ण होड़” और “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व” जैसी संशोधनवादी नीतियाँ लागू करना आरम्भ कर दिया था। महान बहस में चीन ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों के आधार पर यह रेखांकित किया कि ख्रुश्चेव जिस संशोधनवादी लाइन का नेतृत्व कर रहे थे, वह सोवियत यूनियन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना करने की ग़द्दारी भरी नीतियाँ थी। चीनी पार्टी ने महान बहस में स्पष्ट किया कि समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत सतत् वर्ग-संघर्ष जारी रखना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि समाजवाद कम्युनिज़्म की ओर आगे बढ़ने का एक संक्रमण काल है। समाजवाद का लक्ष्य है संक्रमण के दौरान सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के अन्तर्गत कम्युनिस्ट समाज तक वर्ग-संघर्ष को जारी रखना जहाँ,

वर्ग और वर्ग विभेद पूरी तरह मिट जाते हैं, समूची जनता की कम्युनिस्ट चेतना और नैतिकता का स्तर बहुत ऊँचा हो जाता है तथा साथ ही श्रम के प्रति असीम उत्साह और पहलक़दमी पैदा हो जाती है, सामाजिक उत्पादनों की बहुतायत हो जाती है और हरएक से उसकी योग्यता के अनुसार और हरएक को उसकी ज़रूरत के अनुसारके उसूल को लागू किया जाता है जिसमें राज्यसत्ता मुरझा जाती है। (म.ब., पृष्ठ 356)

महान बहस के दौरान यह स्पष्ट किया गया कि किसी एक देश में समाजवाद की स्थापना के बाद उसका उद्देश्य होगा कि,

सभी वर्गों और वर्गभेदों के ख़ात्मे की ओर अभियान करना।…”, “उत्पादन के साधनों पर समूची जनता की मिल्कियत की एकात्मक व्यवस्था की ओर अभियान करना।…”, सामाजिक उत्पादन की भारी बहुतायत की ओर अभियान करना तथा हरएक से उसकी योग्यता के अनुसार और हरएक को उसकी ज़रूरत के अनुसारके उसूल को अमल में लाना।…”, जनता की कम्युनिस्ट चेतना को ऊँचा करने की ओर अभियान करना।…”, राज्‍य के मुरझाने की स्थिति ओर अभियान करना।…और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के अनुसार, समाजवाद के काल में सर्वहारा अधिनायकत्व पर क़ायम रहने का उद्देश्य ठीक यह होता है कि समाज के कम्युनिज़्म की दिशा में विकास करने की गारण्टी की जा सके।(म.ब., पृष्ठ 356, 357, 358)

मार्क्सवाद-लेनिनवाद बताता है कि, चूँकि समाजवादी समाज पूँजीवाद के गर्भ से पैदा होता है जिसमें संक्रमण के लम्बे दौर में शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम करने वालों के बीच, शहरों और देहातों के बीच तथा मज़दूरों और किसानों के बीच अन्तर बने रहते हैं, और पूँजीवादी अधिकारों को अभी पूरी तरह समाप्त नहीं किया जाता है; श्रम अभी भी माल के रूप में मौजूद होता है, और खपत के माल का वितरण अभी भी श्रम की मात्र के अनुरूप ही होता है, न कि आवश्यकता के हिसाब से। इन अन्तरों को एक लम्बे दौर में ही समाप्त किया जा सकता है। सोवियत यूनियन तथा चीन के समाजवादी अनुभवों का निचोड़ यह है कि समाजवादी समाज एक अत्यन्त लम्बी ऐतिहासिक मंज़िल तक मौजूद रहता है। समाजवादी संक्रमण के इस पूरे क्रान्तिकारी रूपान्तरण के दौर में पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग के बीच वर्ग-संघर्ष जारी रहता है तथा पूँजीवादी रास्ते और समाजवादी रास्ते में से कौन विजयी होगा, यह सवाल बना रहता है। इस पूरे दौर में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का ख़तरा बना रहता है। (म.ब., पृष्ठ 324)

माओ ने बताया कि समाजवाद की पूर्ण विजय एक या दो पीढ़ियों में नहीं हो सकती; इस सवाल को पूरी तरह हल करने के लिए पाँच या दस पीढ़ियों की अथवा इससे भी ज़्यादा लम्बे समय की ज़रूरत होती है। (म.ब., पृष्ठ 329) इन अनुभवों के आधार पर चीनी पार्टी ने यह निष्कर्ष दिया कि, सर्वहारा वर्ग के सत्ता प्राप्त करने के बाद काफ़ी लम्बे समय ऐतिहासिक काल में वर्ग-संघर्ष मानव की इच्छा से स्वतन्त्र एक वस्तुगत नियम के रूप में जारी रहता है तथा सत्ता प्राप्त करने के पहले की तुलना में सिर्फ़ उसका रूप बदल जाता है। (म.ब., पृष्ठ 325)

स्तालिन की मृत्यु के पश्चात 1956 में सोवियत यूनियन में ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना किये जाने के बाद उस दौर के अनुभवों के विश्लेषण के आधार पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी इस निष्कर्ष पर पहुँची कि समाजवादी समाज में मौजूद अन्तरों और पुरानी आदतों के प्रभाव के कारण लम्बे समय तक समाज तथा पार्टी नेतृत्व के अन्दर पूँजीवादी पथगामी पैदा होते रहते हैं। यदि इन पूँजीवादी तत्वों के प्रति अधिरचना में सतत् वर्ग संघर्ष न चलाया जाये तो समाज के आर्थिक सम्बन्धों का पूँजीवादी सम्बन्धों और सर्वहारा अधिनायकत्व का पूँजीवादी अधिनायकत्व में रूपान्तरित होने का ख़तरा पैदा हो जाता है। इसलिए यह आवश्यक है कि आर्थिक मूलाधार के रूपान्तरण के साथ-साथ राजनीतिक-सांस्कृतिक वैचारिक अधिरचना में भी एक सतत् क्रान्ति हो, अन्यथा अधिरचना में पैदा होने वाले पूँजीवादी विचार आर्थिक मूलाधार में भी पूँजीवादी सम्बन्धों को बहाल कर पूँजीवाद की पुनर्स्थापना कर सकते हैं, जिसका ख़तरा समाजवाद के पूरे काल में बना रहता है।

“राजनीति अर्थनीति की ही केन्द्रीय अभिव्यक्ति है।… राजनीति का अर्थनीति के मुक़ाबले अनिवार्यतः अधिक महत्वपूर्ण स्थान है। इसके विपरीत दलील देने का मतलब है मार्क्सवाद की प्रारम्भिक जानकारी को भी भूल जाना। (म.ब., पृष्ठ 354)

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने यूगोस्लाविया में टीटो का साम्राज्यवादियों के साथ गठजोड़ तथा ख्रुश्चेवी संशोधवाद के दौर में सोवियत यूनियन में पैदा होने वाले विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी पथगामी तत्वों की ज़मीन की जाँच-पड़ताल की और समाजवादी सोवियत यूनियन के समाज का विश्लेषण करते हुए कई सबूतों और उदाहरणों के माध्यम से यह सिद्ध किया कि समाजावादी निर्माण के दौरान पार्टी क़तारों के बीच, सरकारी संस्थाओं में, सार्वजनिक संगठनों, आर्थिक विभागों तथा सांस्कृतिक और शैक्षणिक प्रतिष्ठानों में लगातार एक विशेषाधिकार प्राप्त तबका पैदा होता रहता है। ये पूँजीवादी तत्व विचारधारा, संस्कृति और शिक्षा के क्षेत्र में सर्वहारा विश्व-दृष्टिकोण के मुक़ाबले पूँजीवादी विश्व-दृष्टिकोण को ला खड़ा करते हैं तथा सर्वहारा और अन्य मेहनतकश जनता को पूँजीवादी विचारधारा से आचरण-भ्रष्ट कर देते हैं। (म.ब., पृष्ठ 325-326)

समाजवाद की समूची मंज़िल में राजनीतिक, आर्थिक, विचारधारात्मक और सांस्कृतिक व शैक्षणिक क्षेत्रों में सर्वहारा वर्ग और पूँजीपति वर्ग के बीच का वर्ग संघर्ष कभी नहीं रुक सकता।तथा समाजवादी समाज का वर्ग-संघर्ष अनिवार्य रूप से कम्युनिस्ट पार्टी में भी प्रतिबिम्बित होता है। पूँजीपति वर्ग और अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद, ये दोनों ही यह समझते हैं कि एक समाजवादी देश को पतित करके पूँजीवादी देश बनाने के लिए पहले कम्युनिस्ट पार्टी को पतित करके संशोधनवादी पार्टी बना देना आवश्यक है। नये-पुराने पूँजीवादी तत्व, नये-पुराने धनी किसान और हर किस्म के पतनशील तत्व संशोधनवाद का सामाजिक आधार हैं तथा वे कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर अपने एजेण्ट खोजने के हरसम्भव उपाय अपनाते हैं। पूँजीवादी प्रभाव का अस्तित्व संशोधनवाद का आन्तरिक स्रोत है और साम्राज्यवादी दबाव के सामने आत्म-समर्पण उसका बाहरी स्रोत है। समाजवाद की समूची मंज़िल में समाजवादी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों में मार्क्सवाद-लेनिनवाद और विभिन्न प्रकार के अवसरवाद – मुख्य रूप से संशोधनवाद – के बीच अनिवार्य रूप से संघर्ष होता है। इस संशोधनवाद की विशेषता यह है कि यह वर्गों और वर्ग-संघर्ष के अस्तित्व से इनकार करता है, सर्वहारा वर्ग पर प्रहार करते समय पूँजीपति वर्ग का पक्ष-पोषण करता है तथा सर्वहारा अधिनायकत्व को पूँजीपति वर्ग के अधिनायकत्व में बदल देता है। (म.ब., पृष्ठ 327)

मार्क्स ने कहा था, वर्ग-संघर्ष अनिवार्य रूप से सर्वहारा अधिनायकत्व की ओर ले जाता है।”, कि “पूँजीवाद और कम्युनिस्ट समाज के बीच एक का दूसरे में क्रान्तिकारी रूपान्तरण होने का काल मौजूद रहता है। इसी के साथ-साथ एक राजनीतिक संक्रमण काल भी चलता है जिसमें राज्य का स्वरूप क्रान्तिकारी सर्वहारा अधिनायकत्व के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। (म.ब., पृष्ठ 328)

यूगोस्लाविया में टीटो की नीतियों की आलोचना करते हुए महान बहस में बताया गया कि, सर्वहारा वर्ग द्वारा सत्ता हथियाये जाने के बाद भी काफ़ी समय तक एक समाजवादी देश की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विभिन्न क्षेत्रों का होना, जिनमें निजी पूँजीवादी क्षेत्र भी शामिल है, आश्चर्य की बात नहीं है। महत्व इस बात का है कि सरकार निजी पूँजीवाद के प्रति किस किस्म का रवैया अपनाती है – उसे इस्तेमाल करने, नियन्त्रित करने, रूपान्तरित करने और मिटाने की नीति अथवा उसे चलने देने, उसका पालन-पोषण करने और उसे प्रोत्साहन देने की नीति। यह इस बात को तय करने का महत्वपूर्ण पैमाना है कि कोई देश समाजवाद की तरफ़ विकास कर रहा है या पूँजीवाद की तरफ़। (म.ब., पृष्ठ 112) इसी विश्लेषण को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है, मार्क्सवाद-लेनिनवाद हमें सिखाता है कि व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था से, छोटी उत्पादक अर्थव्यवस्था से, हर रोज़ और हर घण्टे पूँजीवाद पैदा होता है। (म.ब., पृष्ठ 114)

ख्रुश्चेव के “शान्तिपूर्ण संक्रमण”, “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व” और “समूची जनता के राज” की वास्तविकता यह थी कि इसने सोवियत यूनियन में सर्वहारा अधिनायकत्व को पूँजीवादी अधिनायकत्व में रूपान्तरित कर दिया था, जहाँ पैदा हुआ पूँजीवादी तबका पार्टी सदस्यों से मिलकर भ्रष्टाचार की मदद से विशेष सुविधाएँ हासिल कर रहा था, व्यक्तिगत फ़ायदों के लिए सार्वजनिक उद्योगों से चोरी कर रहा था, और सार्वजनिक उपक्रमों पर अपने व्यक्तिगत अधिकार के लिए ज़मीन तैयार कर चुका था। यह विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी तबका अपने व्यक्तिगत हितों के लिए मज़दूरों का शोषण करने लगा था। पदाधिकारियों और जनता के बीच सम्बन्ध शोषक और शोषित के सम्बन्धों में बदल हो चुके थे और समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध पुनः पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों में रूपान्तरित हो चुके थे। (म.ब., पृष्ठ 333-334, 337-338)।

इन विश्लेषणों को और आगे विकसित करते हुए चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने समाजवादी समाज में पार्टी के अन्दर पैदा होने वाले इन पूँजीवादी तत्वों के विरुद्ध सतत् वर्ग संघर्ष चलाने और व्यापक जन-चौकसी को मज़बूत बनाने की आवश्यकता को रेखांकित किया। इससे पहले सोवियत यूनियन में स्तालिनकाल तक यह माना जा रहा था कि समाजवाद में पूँजीवादी पुनर्स्थापना का मुख्य स्रोत साम्राज्यवादी हस्तक्षेप ही हो सकता है। लेनिन अपने अन्तिम दिनों में सांस्कृतिक क्रान्ति के बारे में चिन्तन कर रहे थे। 1923 में लेनिन ने कहा था, “यदि सारे किसान सहकारों में संगठित हो जाते तो अब तक हमारे दोनों पैर समाजवाद की ज़मीन पर होते। लेकिन सभी किसानों को सहकारी समितियों में संगठित करना उन्हें एक सांस्कृतिक स्तर पर लाने की माँग करता है, और किसानों की बड़ी संख्या के बीच यह काम एक सांस्कृतिक क्रान्ति के बिना पूरा नहीं किया जा सकता।” … “हमारे देश में राजनीतिक और सामाजिक क्रान्ति ने सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की है, और यह सांस्कृतिक क्रान्ति आज हमारे सामने खड़ी है।” … “सांस्कृतिक क्रान्ति की मदद से ही हम अपने देश को एक पूर्ण समाजवादी देश बनाने का काम पूरा कर सकते हैं। लेकिन इसमें हमारे सामने विशुद्ध सांस्कृतिक (जिसमें हम अभी अशिक्षित हैं) तथा भौतिक प्रकृति (जिसमें सुसभ्य होने से पहले हमें भौतिक उत्पादन के साधनों को एक स्तर तक अवश्य विकसित करना होगा, जिसके लिए एक भौतिक आधार होना ज़रूरी है) की वृहद कठिनाइयाँ मौजूद हैं।” (सहकारिता के बारे में, 6 जनवरी, 1923, लेनिन)

सांस्कृतिक क्रान्ति की आवश्यकता के बारे में लेनिन द्वारा छोड़ी गयी इस कड़ी को पकड़ते हुए माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने आर्थिक मूलाधार और अधिरचना में मौजूद पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारक तत्वों की गतिकी को समझा और समाजवाद में वर्ग संघर्ष के संचालन और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के लिए प्रयत्नशील बुर्जुआ तत्वों के आधारों को नष्ट करने तथा कम्युनिज़्म तक संक्रमण की बारे में विचारधारात्मक निष्कर्ष प्रस्तुत किये। जिसके आधार पर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के ऐतिहासिक प्रयोग ने “सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व के अन्तर्गत सतत् क्रान्ति” और “अधिरचना में क्रान्ति” के सिद्धान्तों का विकसित किया।

6. शान्तिपूर्ण संक्रमण का सवाल

आम दिशा के दस्तावेज़ों में कार्यनीति के संसदीय तथा शान्तिपूर्ण संक्रमण के सवाल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि, क्रान्ति के दौरान सर्वहारा वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता का नेतृत्व करने के लिए मार्क्सवादी लेनिनवादी पार्टियों को चाहिए कि वे संघर्ष के सब रूपों में माहिर हो जायें। … सर्वहारा वर्ग का हरावल दस्ता सभी परिस्थितियों में अजेय तभी हो सकता है, यदि वह संघर्ष के सब रूपों में माहिर हो जाये – शान्तिपूर्ण और सशस्त्र संघर्ष में, खुले और गुप्त संघर्ष में, क़ानूनी और ग़ैरक़ानूनी संघर्ष में, संसदीय संघर्ष और जनव्यापी संघर्ष में, इत्यादि। जब संसदीय संघर्ष और संघर्ष के दूसरे क़ानूनी रूपों को अपनाया जा सके और अपनाया जाना चाहिए, उस समय उन्हें अस्वीकार कर देना ग़लत है। लेकिन अगर कोई मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी क़ानूनपरस्ती या संसदीय जड़वामवाद का शिकार हो जाती है और संघर्ष को केवल उसी हद तक सीमित रखती है, जिस हद तक पूँजीपति वर्ग इजाज़त देता है, तो इसका अनिवार्य परिणाम यह होगा कि वह सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व का परित्याग कर देगी। (म.ब., पृष्ठ 13)

आगे कहा गया है कि यदि किसी ख़ास परिस्थिति में कोई कम्युनिस्ट पार्टी संसद में सीटों का बहुमत प्राप्त भी कर ले या चुनाव में जीतने की वजह से सरकार में शामिल भी हो जाये, तो इससे संसद और सरकार का पूँजीवादी स्वरूप नहीं बदल जायेगा, और इसका मतलब पुरानी राज्य-मशीनरी को चकनाचूर करना और नयी राज्य-मशीनरी की स्थापना करना तो बिल्कुल भी नहीं होगा। पूँजीवादी संसदों या सरकारों पर निर्भर रहकर बुनियादी सामाजिक परिवर्तन करना बिलकुल असम्भव है। प्रतिक्रियावादी पूँजीपति वर्ग राज्य-मशीनरी को अपने क़ब्ज़े में रखकर चुनाव को रद्द कर सकता है, संसद को भंग कर सकता है, सरकार में शामिल कम्युनिस्टों को बख़ार्स्त कर सकता है, कम्युनिस्ट पार्टी को ग़ैर-क़ानूनी करार दे सकता है तथा जनता और प्रगतिशील शक्तियों का दमन करने के लिए बर्बर शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है। (म.ब., पृष्ठ 302)

साम्राज्यवादी प्रतिक्रियावादी शक्तियों द्वारा 1973 में साम्राज्यवादियों द्वारा चिली में संसदीय चुनाव के माध्यम से अयेन्दे के नेतृत्व में सत्ता में पहुँची कम्युनिस्ट पार्टी के बर्बर ख़ूनी दमन और 1965 में इण्डोनेशिया में सुकर्णो के नेतृत्व में चुनाव जीतकर सत्ता में आये कम्युनिस्टों का सैनिक तख़्तापलट के बाद बर्बर हत्याओं की घटनाओं – इन दोनों देशों के अनुभवों ने चीनी पार्टी के शान्तिपूर्ण संक्रमण के विश्लेषण को व्यवहार में सही सिद्ध कर दिया है। चिली और इण्डोनेशिया दोनों देशों में कम्युनिस्ट पार्टी चुनाव के माध्यम से सत्ता में आयी थी, लेकिन मौजूदा राज्य मशीनरी को क्रान्तिकारी रूप से ध्वस्त नहीं किया गया था, जिसका अन्त साम्राज्यवादी ताक़तों की सहायता से प्रतिक्रियावादी तख़्तापलट और देश की संघर्षरत जनता के ख़ूनी दमन के रूप में हुआ। (लेख के अन्त में स्रोत देखें)

लेनिन और स्तालिन ने अपने मूल्यांकन में बताया था कि पूँजीवाद से समाजवाद में शान्तिपूर्ण संक्रमण कुछ विशेष परिस्थितियों में हो सकता है, जब भविष्य में कोई ऐसा पूँजीवादी देश होगा जो चारों तरफ़ से समाजवादी देशों से घिरा हो और सर्वहारा वर्ग का चौतरफ़ा दबाव उस पर हो तब वह शान्तिपूर्ण ढंग से सत्ता छोड़ देगा, और किसी भी परिस्थिति में यह सम्भव नहीं है। (‘लेनिनवाद के मूल सिद्धान्त’, स्तालिन)

20वीं सदी तक आते-आते लेनिन ने तीसरी दुनिया के देशों में उपनिवेशवाद का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट किया था कि पूँजीवाद एक खुले दमनकारी तन्त्र के रूप में साम्राज्यवाद की अवस्था तक विकसित हो चुका था। लेनिन ने उस दौर की परिस्थितियों के विश्लेषण के आधार पर बताया था कि साम्राज्यवाद लगातार ख़ुद को हथियारबन्द कर रहा है, और ज़रूरत पड़ने पर पूँजीवादी जनतन्त्र की पूँजीवादी सत्ताएँ भी अपने जनवाद का मुखौटा हटाकर सेना और पुलिस का इस्तेमाल अपने देश के सर्वहारा जनता का खुला दमन करने में कोई संकोच नहीं करेंगी। लेनिन ने कहा था, “बुर्जुआ राज्यसत्ता को बलपूर्वक ध्वस्त करके उसकी जगह पर नयी राज्यसत्ता स्थापित किये बिना सर्वहारा क्रान्ति असम्भव है।” (‘राज्य और क्रान्ति’, लेनिन) कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स-ऐगल्स ने कहा था, “मज़दूर वर्ग पहले से मौजूद राज्यसत्ता को अपने नियन्त्रण में लेकर अपने लक्ष्य हासिल करने के लिए इसे इस्तेमाल नहीं कर सकता।” मार्क्स ने आगे कहा है कि सर्वहारा क्रान्ति का लक्ष्य “अफ़सरशाही की मशीनरी को एक हाथ से दूसरे हाथ में हस्तान्तरित करना नहीं है, बल्कि उसको ध्वस्त करना है… यह सभी सच्ची जन-क्रान्तियों की मूल शर्त है,” (लुडविन कुगेलमान को कार्ल मार्क्स का पत्र, 17 अप्रैल 1871)

आज भी कई संशोधवादी अपने समर्थन में मार्क्स का सन्दर्भ देकर शान्तिपूर्ण संक्रमण की बात सही सिद्ध करने की कोशिश करते हैं, लेकिन मार्क्स ने शान्तिपूर्ण संक्रमण की बात एक विशेष परिस्थिति में पूँजीवाद के विकास के आरम्भिक दौर में ब्रिटेन, अमेरिका और हॉलैण्ड के सन्दर्भ में की थी, जो पूँजीवाद के विकास का शान्तिपूर्ण दौर था। 15 सितम्बर 1872 में एक भाषण में मार्क्स ने शान्तिपूर्ण संक्रमण के साथ यह भी कहा था कि, “ऐसी स्थिति में, हमें ध्यान रखना चाहिए कि महाद्वीप के ज़्यादातर देशों में क्रान्ति का लीवर बल होगा…” (स्वतन्त्रता पर भाषण, 1872, कार्ल मार्क्स)

21वीं सदी में आज वैश्विक स्तर पर हो रही घटनाओं का विश्लेषण करें तो साम्राज्यवाद लगातार दूसरे देशों में हस्तक्षेप के माध्यम से मेहनतकश जनता का बर्बर दमन जारी रखने की कोशिशों में लगा है, और लगातार ज़्यादा हिंसक रूप में सामने आ रहा है। अपने अन्तरविरोधों के कारण जारी पूँजीवादी संकट के इस दौर में पूँजीवादी जनवाद का चरित्र भी लगातार अधिक फ़ासीवादी होता जा रहा है, ऐसी विश्व परिस्थितियों में शान्तिपूर्ण समाजवादी संक्रमण की बात करना किसी भी दृष्टिकोण से सही नहीं है।

चीनी पार्टी ने महान बहस के सातवें दस्तावेज़ में लेनिन को उद्धरित करते हुए सही ही कहा था कि मज़दूर वर्ग के आन्दोलन के सक्रिय लोग, जो अवसरवादी रुझान का अनुसरण करते हैं, वे पूँजीपति वर्ग के स्वयं उसकी अपेक्षा अधिक अच्छे रक्षक होते हैं। (म.ब., पृष्ठ 249-250)

7. स्तालिनकाल का मूल्यांकन

स्‍तालिन के मूल्यांकन का सवाल उसूल का एक ऐसा महत्वपूर्ण सवाल है जिसका सम्बन्ध समूचे अन्तरराष्टीय कम्युनिस्ट आन्दोलन से है। (म.ब., पृष्ठ 90)

महान बहस की तुलना में स्तालिनकाल के बारे में आज जितने खुलासे हो चुके हैं, और जो तथ्य हमारे सामने हैं, उनके आधार पर स्तालिनकाल और आधुनिक संशोधनवाद का मूल्यांकन और भी स्पष्ट रूप में किया जा सकता है। 1956 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में ख्रुश्चेव द्वारा दिये गये गुप्त भाषण में स्तालिन के पूर्ण निषेध की आलोचना करते हुए महान बहस में कहा गया,

“…स्तालिन ने भूलें कीं। इन भूलों की अपनी विचारधारात्मक तथा सामाजिक और ऐतिहासिक जड़ें थीं। यह आवश्यक है कि स्तालिन की उन भूलों की आलोचना की जाये जो उन्होंने सचमुच कीं, न कि उन भूलों को जिन्हें बिना किसी आधार के उन पर मढ़ दिया गया है। और यह आलोचना सही आधार पर और सही तरीक़ों से की जाये। लेकिन हम लोगों ने ग़लत आधार पर और ग़लत तरीक़ों से की गयी स्तालिन की आलोचना का हमेशा विरोध किया है। (म.ब., पृष्ठ 91)

स्तालिनकाल की उपलब्धियों का ज़िक्र करते हुए बहस में आगे कहा गया है,

लेनिन के जीवनकाल में स्तालिन जारशाही से लड़े और मार्क्सवाद का प्रचार किया; अक्टूबर क्रान्ति के बाद पहले समाजवादी राज्य के निर्माण में सर्वहारा क्रान्ति की रक्षा के लिए लड़े।लेनिन की मृत्यु के बाद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत यूनियन ने आन्तरिक और बाहरी दोनों प्रकार के दुश्मनों से दृढ़संकल्प होकर लड़ने में सोवियत जनता का नेतृत्व किया।स्‍तालिन ने समाजवादी औद्योगिकीकरण और कृषि-सामूहिकीकरण की लाइन पर क़ायम रहने में तथा समाजवादी रूपान्तरण और समाजवाद की रचना में महान सफलताएँ प्राप्त करने में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी और सोवियत जनता का नेतृत्व किया।स्‍तालिन ने फ़ासीवाद-विरोधी युद्ध में महान विजय के लिए किये गये कठिन और तीखे संघर्ष में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी, सोवियत जनता और सोवियत सेना का नेतृत्व किया।स्‍तालिन ने विभिन्न प्रकार के अवसरवाद के विरुद्ध, लेनिनवाद के शत्रुओं के विरुद्ध, त्रात्स्कीपन्थियों, जिनोवियेवपन्थियों, बुखारिनपन्थियों तथा अन्य बुर्जुआ एजेण्टों के विरुद्ध संघर्ष में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की रक्षा की और उसे विकसित किया। (म.ब., पृष्ठ 91)

महान बहस में माना गया कि स्तालिन ने कुछ उसूली भूलें कीं और कुछ व्यावहारिक कार्यों के दौरान ग़लतियाँ हुईं, और कुछ ग़लतियों से बचा जा सकता था। विचारधारात्मक ग़लतियों के मामले में स्तालिन द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद से विचलित हुए और कुछ सवालों पर अधिभौतिकवाद और मनोगतवाद के शिकार हुए। पार्टी के अन्दर के तथा पार्टी के बाहर के, दोनों ही प्रकार के संघर्षों में, कुछ मौक़ों और कुछ सवालों पर, हमारे और शत्रु के बीच तथा जनता के अपने अन्दर के, इन दो प्रकार के अन्तरविरोधों से निपटने के अलग-अलग तरीक़ों के बारे में भी वे भ्रान्तियों के शिकार हुए। यह घोषित करना कि सोवियत यूनियन में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं रह गये हैं, स्तालिन की एक विचारधारात्मक ग़लती थी। स्तालिन द्वारा 1936 में आठवीं पार्टी कांग्रेस में कहा था,

सभी शोषक वर्गों का उन्मूलन हो चुका है।पूंजीपति वर्ग को पहले ही समाप्त किया जा चुका है, और उत्पादन के साधन पूँजीपतियों से ज़ब्त कर राज्य को हस्तान्तरित कर दिये गये हैं, जिनका नेतृत्व मज़दूर वर्ग के हाथ में है।… “अब सिर्फ़ मज़दूर वर्ग, किसान वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग बचे हैं। (अनुच्छेद 2, “सोवियत यूनियन के संविधान के मसौदे पर”, स्तालिन द्वारा सोवियत यूनियन की आठवीं कांग्रेस, 25 नवम्बर, 1936 में पढ़ी गयी रिपोर्ट)

चीनी पार्टी द्वारा उस समय के मूल्यांकन के आधार पर कहा था, “1937 तथा 1938 में प्रतिक्रान्तिकारियों के दमन के कार्य को विस्तृत करने की भूल हुई। पार्टी और सरकार के संगठन के विषय में उन्होंने सर्वहारा जनवादी केन्द्रीयता का पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं किया और कुछ हद तक उसका उल्लंघन किया। बिरादराना पार्टियों और देशों के साथ रिश्तों में उन्होंने कुछ ग़लतियाँ कीं। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में उन्होंने कुछ ग़लत सुझाव भी दिये।” आगे कहा गया, “स्‍तालिन के गुण और उनकी ग़लतियाँ दोनों ही ऐतिहासिक, वस्तुगत यथार्थ के अंग हैं। इन दोनों की तुलना यह दर्शाती है कि उनके गुण उनके दोषों से कहीं बढ़कर थे।” ऐसी स्थिति में “स्‍तालिन की भूलों को, जो केवल गौण थीं, यदि ऐतिहासिक सबक़ की तरह लिया जाये ताकि सोवियत यूनियन तथा अन्य देशों के कम्युनिस्ट इससे चेतावनी ले सकें और उन भूलों को दुहराने से बच सकें या कम भूलें करें तो यह लाभदायक होगा।” (म.ब., पृष्ठ 92-93)

महान बहस के दौर की तुलना में सोवियत यूनियन के बारे में आज कई नये तथ्य सामने आ चुके हैं, जो उस दौर में ज्ञात नहीं थे। अमेरिकी रिसर्चर ग्रोवर फ़र और रूसी अनुसन्धानकर्ता यूरी जोख़ोव जैसे कई इतिहासकारों ने स्तालिनकालीन सोवियत यूनियन के परालेखों (आर्काइव) के अध्ययन के आधार पर अनेक सबूतों के साथ खुलासे किये हैं। इन दस्तावेज़ों के आधार पर उस दौर में हुईं व्यावहारिक ग़लतियों की पृष्ठभूमि समझने में मदद मिलती है कि किन परिस्थितियों में पार्टी में मौजूद पूँजीवादी तत्वों के विरुद्ध स्तालिन के नेतृत्व में संघर्ष किया जा रहा था। चूँकि सोवियत यूनियन में पहली बार समाजवादी निर्माण का प्रयोग किया जा रहा था जिसका कोई अनुभव मौजूद नहीं था, ऐसे में उस समय स्तालिन पार्टी में पैदा हो रहे षड्यन्त्रकारियों और पूँजीवादी पथगामियों के पैदा होने की विचारधारात्मक ज़मीन नहीं तलाश सके। ग्रोवर फ़र ने अपनी पुस्तक “जनवाद के लिए स्तालिन का संघर्ष” के दो खण्डों में स्तालिन के दौर में पार्टी के भीतर जो संघर्ष चल रहे थे, सन्दर्भ सहित उनके विवरणों का खुलासा किया है।

  1. 1. 1920 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में हारने के बाद कई विरोधी तत्व उस समय नेतृत्व में मौजूद नेताओं की हत्या करने और तख़्तापलट की षड्यन्त्रकारी कोशिशें कर रहे थे। ख्रुश्चेव ने अपने गुप्त भाषण में सारी ग़लतियों का दोष स्तालिन पर लगाया, लेकिन 1930 से 1938 के बीच सोवियत यूनियन में नेतृत्व को बदनाम करने के लिए जनता के दमन की षड्यन्त्रकारियों की गतिविधियाँ चल रही थीं उनका कहीं ज़िक्र नहीं किया गया। (बिन्दु 47, 57 “जनवाद के लिए स्तालिन का संघर्ष”, खण्ड 2, ग्रोवर फ़र)
  2. 2. दस्तावेज़ों में मिले सबूतों के आधार पर ग्रोवर फ़र ने खुलासा किया है कि द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले 1930 से 1938 के बीच और विश्वयुद्ध के बाद अपनी मृत्यु से पहले तक स्तालिन राज्य पर से पार्टी के प्रत्यक्ष नियन्त्रण को समाप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनका प्रस्ताव था कि नेतृत्व के चुनाव के लिए गुप्त मतदान होना चाहिए, जिससे व्यापक जन-समर्थन वाले नेताओं को नेतृत्व में लाया जा सके। पार्टी में पहले से मौजूद नेतृत्व के उन लोगों के लिए, जो अपने व्यक्तिगत हितों के चलते विशेष-अधिकारों का एक घेरा तैयार कर चुके, स्तालिन का यह क़दम ख़तरनाक होता, यही कारण था कि यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। (बिन्दु 113-119, “जनवाद के लिए स्तालिन का संघर्ष”, खण्ड 1, ग्रोवर फ़र)
  3. 3. विश्वयुद्ध की समाप्ति के दौर में 1947 में स्तालिन और पोलिट ब्यूरो में उनका समर्थन करने वाले सदस्यों ने पार्टी नेतृत्व में मौजूद विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए पार्टी को राज्य के प्रत्यक्ष नियन्त्रण से हटाने और जनवादी चुनावी प्रणाली लागू करने का प्रस्ताव पुनः रखा था जो लागू नहीं हो सका। 1952 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी की 19वीं कांग्रेस में अन्तिम बार स्तालिन ने इसका प्रयास किया, लेकिन इस कांग्रेस की रिपोर्ट का कोई ज़िक्र ख्रुश्चेव ने अपने गुप्त भाषण में नहीं किया और आज तक यह रिपोर्ट तक प्रकाशित नहीं की गयी है। इस कांग्रेस में स्तालिन के भाषण का एक छोटा हिस्सा ही आज तक प्रकाशित किया गया है, जिसके अनुसार स्तालिन पार्टी के पद और संगठनात्मक ढाँचे में बदलाव करना चाहते थे। इन्हीं बदलावों के तहत स्तालिन ने पार्टी के महासचिव का पद समाप्त करने और ख़ुद महासचिव के पद से इस्तीफ़ा देकर 10 पार्टी सचिवों में से एक का हिस्सा बनने का प्रस्ताव रखा था। यदि स्तालिन के प्रस्ताव लागू कर दिये जाते तो उस समय राज्य के नियन्त्रण में मौजूद विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी पथगामियों और षड्यन्त्रकारियों का सत्ता में रहना मुश्किल हो जाता। (बिन्दु 2, 16, 17, 19, 21, “जनवाद के लिए स्तालिन का संघर्ष”, खण्ड 2, ग्रोवर फ़र)
  4. 4. सोवियत यूनियन के उस पूरे ऐतिहासिक दौर में स्तालिन द्वारा चलाये जा रहे संघर्षों की रोशनी में इन घटनाओं का विश्लेषण तथा सबूतों के आधार पर ग्रोवर फ़र ने मार्च 1953 में हुई स्तालिन की मृत्यु के बारे में लिखा है, “दौरा पड़ने के बाद या तो स्तालिन को उनके दफ्तर में मरने के लिए छोड़ दिया गया था या ज़हर देकर उनकी हत्या की गयी थी।” (बिन्दु 43, “जनवाद के लिए स्तालिन का संघर्ष”, खण्ड 2, ग्रोवर फ़र)।
  5. 5. स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत यूनियन का भविष्य पूरी तरह से पार्टी नेतृत्व के हाथों में आ गया। और इसने राज्य और आर्थिक क्षेत्र के सभी पदों पर अपनी इज़ारेदारी सुनिश्चित कर ली और पूरी तरह से किसी भी पूँजीवादी राज्य की तरह परजीवी के रूप में ख़ुद को सत्ता में स्थापित कर लिया। ख्रुश्चेव, गोर्बाचेव, येल्तसिन से लेकर पुतिन तक यही इज़ारेदार नेतृत्व आज तक रूस की सत्ता में मौजूद है जिन्होंने लम्बे समय तक अति-विशिष्ट कार्यकर्ताओं के रूप में सोवियत यूनियन की मेहनतकश जनता को निचोड़ा। (बिन्दु 45, 46, वही)

इस पूरे दौर का घटनाक्रम दर्शाता है कि अक्टूबर 1917 में क्रान्ति होने के बाद सोवियत यूनियन में पार्टी के अन्दर विशेषाधिकार प्राप्त पूँजीवादी पथगामी लगातार पैदा हो रहे थे और पहले समाजवादी राज्य की रक्षा में इन भ्रष्ट तत्वों के विरुद्ध स्तालिन के दौर में लगातार संघर्ष चलाया गया। लेकिन संघर्ष के सही विचारधारात्मक स्वरूप का विस्तार न कर पाने के कारण पूरा भरोसा राज्य के पदाधिकारियों पर किया गया और उनकी मदद से सज़ा देने का काम किया गया जिससे पार्टी में मौजूद षड्यन्त्रकारियों को अतिशय रूप से सज़ा देकर स्तालिन तथा राज्य को बदनाम करने का मौक़ा मिल गया। इन सभी ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर देखें तो पार्टी और दुश्मन तथा जनता के बीच अन्तरविरोधों को हल करने की जो विचारधारात्मक समझ चीनी पार्टी ने महान बहस में प्रस्तुत की, यह सही है कि स्तालिन उस दौर में इन अन्तरविरोधों को हल करने की सही लाइन विकसित नहीं कर सके। यह स्तालिन की ग़लती नहीं, बल्कि उस दौर की एक व्यावहारिक सीमा थी। महान बहस के दौरान चीनी पार्टी ने सोवियत यूनियन के अनुभवों का सार संकलन करते हुए कहा,

“अगर कहा जा सकता है कि अक्तूबर क्रान्ति ने सभी देशों के मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सकारात्मक अनुभव प्रस्तुत किये तथा सर्वहारा वर्ग द्वारा राज्यसत्ता हथियाये जाने का रास्ता खोल दिया, तो यह भी कहा जा सकता है कि ख्रुश्चेव के संशोधनवाद ने उनके लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण नकारात्मक अनुभव भी प्रस्तुत किये हैं, जिससे सभी देशों के मार्क्सवादी-लेनिनवादी, सर्वहारा पार्टी और समाजवादी राज्य के पतन की रोकथाम के लिए उचित सबक़ सीख सकें। (म.ब., पृष्ठ 362)

सोवियत यूनियन के इन अनुभवों के आधार पर ही चीन की पार्टी ने पार्टी में मौजूद इन अन्तरविरोधों को हल करने तथा दो लाइनों के बीच संघर्ष की इस लाइन को महान सर्वहारा क्रान्ति के प्रयोग में सर्वोच्च शिखर तक पहुँचाया तथा सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के स्वरूप को और आगे विकसित किया।

8. सोवियत यूनियन की 20वीं पार्टी कांग्रेस (1956) में ख्रुश्चेव का गुप्त भाषण

स्तालिनकाल का मूल्यांकन और उस दौर के बारे में अब जितने खुलासे हुए हैं, उनके आधार पर हम ख्रुश्चेव के गुप्त भाषण के पीछे छिपे मूल मक़सद को समझ सकते हैं। 1917 में अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत यूनियन में समाजवादी निर्माण के पहले ऐतिहासिक प्रयोग के दौरान लेनिन और फिर स्तालिन के नेतृत्व में सर्वहारा की संगठित शक्ति ने प्रतिक्रान्तिकारियों द्वारा क्रान्ति का तख़्तापलट करने के मंसूबों पर पानी फेरने से लेकर द्वितीय विश्वयुद्ध तक पूरी दुनिया को हिटलर और फ़ासीवाद से मुक्ति दिलाने में अभूतपूर्व सफलता के साथ नेतृत्व किया था। सोवियत यूनियन में जनता के जीवनस्तर में गुणात्मक वृद्धि हुई थी, बेरोज़गारी और ग़रीबी जैसी पूँजीवादी बीमारियों को जड़ से समाप्त कर दिया गया था, महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्ज़ा किसी भी अन्य पूँजीवादी देश से बेहतर रूप में मिला हुआ था, शिक्षा का समान अधिकार हर व्यक्ति को मिल चुका था और नाममात्र की जनसंख्या अशिक्षित बची थी, औद्योगिक-तकनीकी तथा वैज्ञानिक विकास के क्षेत्र में सोवियत यूनियन अनेक सफलताएँ हासिल कर रहा था। सोवियत यूनियन के समाजवादी प्रयोगों ने पूरी दुनिया की मेहनतकश जनता के सामने यह सिद्ध कर दिया था कि सर्वहारा वर्ग की समाजवादी सत्ता, जो एक वर्गहीन समाज के निर्माण के लिए संघर्षरत है, मानव समाज के विकास में सभी पुराने वर्ग समाजों की तुलना में एक लम्बी अग्रवर्ती छलांग है।

स्तालिनकाल की इन महान सफलताओं में स्तालिन के नेतृत्व की मान्यता के रहते ख्रुश्चेव के चारों और संगठित हुए विशेषाधिकार प्राप्त भ्रष्ट गुटों और पूँजीवादी पथगामियों के लिए अपनी संशोधनवादी मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी नीतियाँ लागू करना सम्भव नहीं होता। ऐसी स्थिति में पार्टी के नेतृत्व पर क़ाबिज़ इस संशोधनवादी गुट के लिए ज़रूरी था कि अपनी सर्वहारा विरोधी सुधारवादी नीतियों पर पर्दा डालने के लिए पहले स्तालिन और स्तालिन के पूरे दौर को बदनाम करता। 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव ने 1956 तक सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी के अन्दर इस संशोधनवादी खेमे के समर्थन आधार का विस्तार किया और 1956 की 20वीं पार्टी कांग्रेस में अपना गुप्त भाषण पढ़ा जिसमें व्यक्ति पूजा समाप्त करने के नाम पर स्तालिन पर अनेक झूठे आरोप लगाये और सोवियत यूनियन के समाजवादी संक्रमण के दौरान हुई सभी ग़लतियों के लिए स्तालिन को दोषी ठहराकर उनका पूर्ण निषेध कर दिया। महान बहस में यह स्पष्ट रूप से चिन्हित किया कि,

स्‍तालिन के ऊपर अपने भयानक हमले दुहराने में, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं का उद्देश्य इस महान सर्वहारा क्रान्तिकारी के अमिट प्रभाव को सोवियत संघ की जनता के बीच से और पूरी दुनियाभर से मिटा देना था, और मार्क्सवाद-लेनिनवाद को, जिसकी स्तालिन ने रक्षा की थी और जिसे उन्होंने विकसित किया था, नकारने का रास्ता तैयार करना तथा संशोधनवादी कार्यदिशा को पूरी तरह लागू करना था। उनकी संशोधनवादी कार्यदिशा ठीक बीसवीं कांग्रेस से शुरू हुई और बाईसवीं कांग्रेस में पूरी तरह व्यवस्थित हो गयी। तथ्यों ने निरन्तर अधिक स्पष्टता से यह दिखाया है कि साम्राज्यवाद, युद्ध और शान्ति, सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व, उपनिवेशों और अर्द्ध-उपनिवेशों में क्रान्ति, सर्वहारा की पार्टी इत्यादि के बारे में मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्तों के उनके संशोधन स्तालिन को उनके पूरी तरह नकारने से अविच्छेद्य ढंग से जुड़े हुए हैं। (म.ब., पृष्ठ 101)

अपने भाषण में स्तालिन पर कीचड़ उछालकर ख्रुश्चेव ने सर्वहारा वर्ग के नेता के रूप में स्तालिन को ही नहीं, बल्कि उस पूरे दौर में लागू की गयी नीतियों, सर्वहारा अधिनायकत्व और समाजवादी संक्रमण के मूल मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त को पूरी दुनिया में बदनाम करने की धूर्ततापूर्ण कोशिश की। जिसने पूरे विश्व के कम्युनिस्ट आन्दोलनों में सैद्धान्तिक स्तर पर एक विभ्रम की स्थिति पैदा कर दी थी। इस वक्तव्य के माध्यम से ख्रुश्चेव ने समाजवाद को बदनाम करने का एक और मौक़ा साम्राज्यवादियों की झोली में डाल दिया।

लेनिन ने अपने दौर में आन्दोलन में मौजूद ग़लत प्रवृत्तियों के प्रति बहसों का हवाला देते हुए कहा था कि कभी-कभी गरुड़ मुगिर्यों से नीचे उड़ सकते हैं, लेकिन मुगिर्याँ कभी भी गरुण की ऊँचाई तक नहीं उठ सकतीं। (म.ब., पृष्ठ 93) इस उद्धरण को स्तालिन और ख्रुश्चेव के सन्दर्भ में आसानी से समझा जा सकता है। चीनी पार्टी ने ख्रुश्चेव द्वारा स्तालिन के पूर्ण निषेध के पीछे मूल कारण के बारे में कहा था, स्‍तालिन के प्रति इस गाली-गलौज में, ख्रुश्चेव, दरअसल, सोवियत व्यवस्था और राज्य की अन्धाधुन्ध भर्त्सना कर रहे हैं। इस सन्दर्भ में उनका भाषण काउत्सी, त्रात्स्की, टीटो और जिलास जैसे भगोड़ों की भाषा से किसी भी तरह कमज़ोर नहीं, बल्कि वास्तव में, उनसे भी तीक्ष्ण है। (म.ब., पृष्ठ 97)

ख्रुश्चेव ने अपने गुप्त वक्तव्य में स्तालिन को “हत्यारा”, “निरंकुश शासक”, “इतिहास का सबसे बड़ा तानाशाह” जैसे सम्बोधनों से नवाज़ा था और व्यक्तिपूजा के अनेक आरोप लगाये थे, जो सभी झूठ थे। आज यह पर्दा हट चुका है कि स्तालिन पर ख्रुश्चेव ने अपने गुप्त भाषण में जो भी आरोप लगाये थे, सारे झूठ थे। इसका विस्तृत विवरण तथ्यों के साथ ग्रोवर फ़र की पुस्तक “ख्रुश्चेव के 61 झूठ” में देखा जा सकता है, जो पूरी सोवियत यूनियन के लेखागार के दस्तावेज़ों में मिले तथ्यों के अध्ययन पर आधारित है।

पूरी दुनिया में आज तक आधुनिक संशोधनवादी, त्रात्स्कीपन्थी, अराजकतावादी ख्रुश्चेव द्वारा तैयार किये गये “स्‍तालिन की ग़लतियों” के पर्दे की आड़ लेकर सर्वहारा वर्ग के साथ अपनी ग़द्दारी को छुपाने का काम कर रहे हैं। सर्वहारा वर्ग के प्रति ख्रुश्चेव की इस ग़द्दारी के झण्डे को उठाकर पूरी दुनिया के साम्राज्यवादी-पूँजीवादी आज तक कम्युनिस्ट आन्दोलनों को बदनाम करने और पूँजीवादी समाज में दमन-उत्पीड़न से जूझ रही मेहनतकश जनता के बीच समाजवाद के प्रति सन्देह पैदा करने के लिए हर सम्भव कोशिश में लगे हैं, ताकि आने वाले समय में कम्युनिस्ट आन्दोलनों को दिग्भ्रमित किया जा सके और व्यापक मेहनतकश जनता की लूटमार और शोषण पर खड़े अपने स्वर्ग के टापू को उजड़ने से बचाया जा सके।

9. साम्राज्यवाद के साथ सहअस्तित्व तथा युद्ध और शान्ति का सवाल

साम्राज्यवादियों द्वारा परमाणु बम की गीदड़भभकियों से भयभीत होकर ख्रुश्चेव पूरे समाजवादी खेमे में यह प्रचार कर रहे थे कि साम्राज्यवादी देशों के साथ समाजवादी देशों का शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व सम्भव है। और यदि समाजवादी अपनी तरफ़ से इस “शान्ति” के लिए प्रयास नहीं करेंगे तो आने वाले समय में परमाणु युद्ध से पूरी मानवता का भविष्य नष्ट हो जायेगा। इसी डर के प्रभाव में ख्रुश्चेव ने साम्राज्यवाद के साथ कई समझौते किये, और क्रान्तिकारी सोवियत जनता से साम्राज्यवादियों के सामने अपने हथियार डाल देने के अपने नीचतापूर्ण मंसूबों को अंजाम दिया। यह ख्रुश्चेव का एक बेहद कायरतापूर्ण क़दम था और मेहनतकश जनता की अनेक कुर्बानियों के साथ खुली ग़द्दारी थी। यदि कम्युनिस्ट नेताओं को जनता पर विश्वास न हो तो वे साम्राज्यवादियों की गीदड़-भभकियों से डर जाते हैं, और उनकी यह कायरता उन्हें जनता के साथ ग़द्दारी करने के लिए नये-नये बहाने गढ़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास में ख्रुश्चेव इस ग़द्दारी और कायरता का जीता-जागता उदाहरण थे।

“आम दिशा के बारे में एक सुझाव” में चीनी पार्टी ने मानवीय उपादानों की भूमिका के बारे में कहा था, मार्क्सवादी-लेनिनवादियों का विचार है कि इतिहास का निर्माण जनता करती है। अतीत काल की ही तरह वर्तमान काल में भी मनुष्य निर्णयात्मक तत्व है। तकनोलॉजिकल परिवर्तन की भूमिका को मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवश्य महत्व देते हैं, लेकिन मनुष्य की भूमिका को कम आँकना तथा तकनोलॉजी की भूमिकी को बढ़ा-चढ़ाकर आँकना ग़लत है।

जैसे अतीत काल में नयी तकनोलॉजी का उदय पुरानी व्यवस्थाओं को उनके विनाश से नहीं बचा सका, उसी तरह नाभिकीय शस्त्रें का उदय न तो मानव जाति के इतिहास के विकास को रोक सकता है और न ही व्यवस्था को बचा सकता है। (म.ब., पृष्ठ 22)

महान बहस ने युद्ध और शान्ति के सवाल को स्पष्ट करते हुए बताया कि वैश्विक स्तर पर शान्ति तब तक हासिल नहीं की जा सकती और साम्राज्यवादी युद्धों के ख़तरों को तब तक नहीं टाला जा सकता, जब तक पूरी दुनिया के सभी देशों की सर्वहारा जनता समाजवाद की स्थापना नहीं कर लेती। लेनिन ने पहले ही कहा था कि विदेश नीति का बुनियादी उसूल सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद है जो साम्राज्यवाद के आक्रमण और युद्ध की नीति के विरुद्ध है। उन्होंने कहा था, “…पूँजीपति वर्ग, चाहे कितना ही शिक्षित और जनवादी क्यों न हो, उत्पादन के साधनों की निजी मिल्कियत की रक्षा करने के लिए अब किसी भी किस्म का धोखा देने या अपराध करने में, लाखों मज़दूरों और किसानों की हत्या करने में नहीं हिचकिचाता।” (म.ब., पृष्ठ 206) ऐसे में विश्वशान्ति की रक्षा करने के लिए यह आवश्यक है कि लगातार साम्राज्यवाद का पर्दाफ़ाश किया जाये तथा साम्राज्यवादियों के खि़लाफ़ संघर्ष करने के लिए जनता को जगाया जाये और संगठित किया जाये… (म.ब., पृष्ठ 197)

अनुभवों का सारसंकलन करते हुए महान बहस में कहा गया है कि, समाजवादी देशों की विदेश नीति की आम दिशा की अन्तर्वस्तु यह होनी चाहिए: समाजवादी खेमे के देशों के साथ सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के उसूल के मुताबिक़ मैत्री, आपसी सहायता और सहयोग के सम्बन्धों का विकास करना; भिन्न समाज-व्यवस्था वाले देशों के साथ शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए प्रयत्न करना तथा साम्राज्यवाद की आक्रमण व युद्ध की नीतियों का विरोध करना; तथा सभी उत्पीड़ित जनता और राष्ट्रों के क्रान्तिकारी संघर्षों का समर्थन करना और उनकी सहायता करना। ये तीनों पहलू एक दूसरे के साथ सम्बन्ध रखते हैं तथा इनमें से एक को भी छोड़ा नहीं जा सकता। (म.ब., पृष्ठ 228)

साम्राज्यवाद के साथ शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के रास्ते के बारे में चीनी पार्टी का कहना था कि, यह विश्वशान्ति की रक्षा करने का रास्ता नहीं है, बल्कि युद्ध के अपेक्षाकृत अधिक ख़तरे की ओर ले जाने वाला ख़ुद युद्ध की ओर ले जाने वाला रास्ता है। … दुनिया के कम्युनिस्ट और दुनिया की जनता निश्चित रूप से नया विश्वयुद्ध छेड़ने की साम्राज्यवादी साज़िश को चकनाचूर कर देंगे और विश्वशान्ति की रक्षा कर सकेंगे, बशर्ते कि वे साम्राज्यवादी धोखाधड़ी का पर्दाफ़ाश कर दें, संशोधनवादियों की झूठी बातों को पहचानें और विश्वशान्ति के कार्य को अपने कन्धों पर उठा लें।(म.ब., पृष्ठ 198-199)

ख्रुश्चेव की इन नीतियों से पर्दा उठाते हुए चीनी पार्टी ने महान बहस में स्पष्ट किया कि साम्राज्यवाद के मौजूद रहते विश्व शान्ति हासिल नहीं की जा सकती। हर समाजवादी राज्य का अन्तिम लक्ष्य पूरी दुनिया के स्तर पर एक साम्यवादी समाज की स्थापना करना है, अकेले एक देश में कम्युनिस्ट समाज की स्थापना सम्भव नहीं है और पूरी दुनिया के सभी देशों में एक साथ समाजवादी क्रान्ति भी सम्भव नहीं है, इसलिए एक देश में समाजवादी क्रान्ति होने के बाद उसकी भूमिका होगी कि वह अन्य देशों में संघर्षरत सर्वहारा की मदद करे।

समाजवादी सभी देशों में एक साथ विजयी नहीं हो सकता। वह पहले किसी एक देश में या कुछ देशों में विजयी होगा, जबकि बाक़ी देश कुछ समय तक पूँजीवादी या पूर्व-पूँजीवादी ही रहेंगे। एक देश में समाजवाद की स्थापना का दूरगामी उद्देश्य है कि वह समाजवादी देश पूरी दुनिया के स्तर पर कम्युनिस्ट आन्दोलनों की मदद करने में अपनी भूमिका निभाये। (म.ब., पृष्ठ 201)

लेनिन और स्तालिन ने बताया था कि समाजवादी देश, जिसने सर्वहारा अधिनायकत्व क़ायम कर लिया है, विश्व सर्वहारा क्रान्ति को आगे बढ़ाने वाला एक अड्डा है।फ्किसी देश में विजय प्राप्त करने वाली क्रान्ति को ख़ुद के बारे में यह नहीं समझना चाहिए कि वह अपने आप में पूर्ण इकाई है, बल्कि यह समझना चाहिए कि वह तमाम देशों के सर्वहारा वर्ग की विजय की रफ़्तार बढ़ाने की सहायक और साधन है।… वह इसके (विश्व क्रान्ति के) और अधिक विकास के लिए एक शक्तिशाली अड्डा बन जाती है। (म.ब., पृष्ठ 219)

दस्तावेज़ों में आगे कहा गया है कि,

सर्वहारा वर्ग समूची मानव जाति को मुक्त कराने के बाद ही अन्त में ख़ुद मुक्त हो सकता है। सर्वहारा अधिनायकत्व के ऐतिहासिक कार्य के दो पहलू हैं, एक अन्दरूनी और दूसरा अन्तरराष्ट्रीय। अन्दरूनी कार्य मुख्य रूप से यह है: सभी शोषक वर्गों को पूर्ण रूप से ख़त्म करना, समाजवादी अर्थव्यवस्था को विकास की चरम सीमा पर पहुँचा देना, जनता की कम्युनिस्ट चेतना को ऊँचा उठाना, समूची जनता की मिल्कियत और सामूहिक मिल्कियत के फ़र्क़ को ख़त्म करना, मज़दूरों और किसानों, शहरों और देहातों तथा बौद्धिक और शारीरिक श्रम करने वालों के फ़र्क़ को मिटा देना, तथा हरएक से उसकी योग्यता के अनुसार और हरएक को उसकी ज़रूरत के अनुसारके उसूल पर अमल करने वाले कम्युनिस्ट समाज की स्थापना के लिए स्थितियाँ तैयार करना। अन्तरराष्ट्रीय कार्य मुख्य रूप से यह है: अन्तरराष्ट्रीय साम्राज्यवाद के हमलों की (जिनमें सशस्त्र हस्तक्षेप और शान्तिपूर्ण उपायों से छिन्न-भिन्न करना दोनों शामिल हैं) रोकथाम करना तथा जब तक सभी देशों की जनता साम्राज्यवाद, पूँजीवाद और शोषण-व्यवस्था को अन्तिम रूप से समाप्त नहीं कर लेती, तब तक विश्व क्रान्ति का समर्थन करते रहना। इन दोनों कार्यों की पूर्ति से पहले, तथा कम्युनिस्ट समाज के उदय से पहले, सर्वहारा अधिनायकत्व बिल्कुल अनिवार्य है। (म.ब., पृष्ठ 330)

यूगोस्लाविया में साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ करके पूँजीवाद की पुनर्स्थापना कर चुके टीटोपन्थियों का विश्लेषण कर चीनी पार्टी ने स्पष्ट किया कि, जब तक साम्राज्यवाद मौजूद है, तब तक यह कहने का कोई आधार नहीं है कि समाजवादी देशों में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का ख़तरा मिट चुका है। (म.ब., पृष्ठ 141) इसलिए पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों को अपने दीर्घकालिक लक्ष्य को सदैव ध्यान में रखना चाहिए, पूंजीवादी देशों के कम्युनिस्टों को चाहिए कि वे फ़ौरी संघर्षों का सक्रियता से नेतृत्व करने के साथ-साथ उन्हें दीर्घकालिक और आम हितों के संघर्ष के साथ जोड़ दें, जनता को मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रान्तिकारी भावना से शिक्षित करें, उसकी राजनीतिक चेतना को लगातार ऊँचा उठाते जाये तथा सर्वहारा क्रान्ति का ऐतिहासिक काम पूरा करें। (म.ब., पृष्ठ 13)

सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद के तहत अलग-अलग समाज व्यवस्था वाले देशों के साथ समाजवादी देश के शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व का यह अर्थ नहीं है कि वह उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करे। बहस में स्पष्ट किया गया कि वर्ग-संघर्ष, राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष तथा विभिन्न देशों में पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण… ये सब संघर्ष कटु और जीवन-मरण के संघर्ष हैं, जिनका उद्देश्य समाज-व्यवस्था को बदलना है। शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व जनता के क्रान्तिकारी संघर्षों की जगह नहीं ले सकता। किसी भी देश में पूँजीवाद से समाजवाद में संक्रमण केवल उस देश की सर्वहारा क्रान्ति और सर्वहारा अधिनायकत्व के ज़रिये ही हो सकता है। (म.ब., पृष्ठ 220)

विश्व युद्ध और परमाणु बमों से डरकर युद्ध को नहीं रोका जा सकता, बल्कि उसे क्रान्ति के माध्यम से पूँजीवादी साम्राज्यवादी होड़ को ध्वस्त करने के बाद ही विश्व शान्ति स्थापित की जा सकती है।

10. महान बहस में सोवियत यूनियन के अनुभव का समाहार और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति

1963-64 के दौरान महान बहस में आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए माओ के नेतृत्व में चीनी पार्टी ने आने वाले समय में हुई महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की भूमिका तैयार की और सभी अनुभवों का सार-संकलन करते हुए मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सैद्धान्तिक विकास में एक ऐतिहासिक भूमिका निभायी। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति माओ के नेतृत्व में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा संचालित एक महान राजनीतिक विचारधारात्मक क्रान्ति थी जिसमें व्यापक मेहनतकश जनता की भागीदारी का आह्वान करते हुए बहसों, आलोचना और राजनीतिक लामबन्दी के साथ वर्ग-संघर्ष को संचालित करने के लिए सर्वतोमुखी सर्वहारा अधिनायकत्व लागू करने का पहला महान प्रयोग किया गया।

10 वर्ष तक चली सांस्कृतिक क्रान्ति में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मेहनतकश जनता की अपार शक्ति की मदद से आर्थिक जगत, सामाजिक संस्थाओं, संस्कृति और मूल्यों के साथ-साथ कम्युनिस्ट पार्टी के रूपान्तरण का काम शुरू किया गया था। पूँजीवादी पथगामियों के विरुद्ध संघर्ष की शुरूआत करते हुए माओ ने व्यापक जनसमूह का आह्वान किया और कहा कि बुर्जुआ “मुख्यालयों को तहस-नहस कर दो” और “मुट्ठीभर पूँजीवादी पथगामियों को, जो समाज को वापस पूँजीवाद के चंगुल में धकेलना चाहते हैं, उखाड़ फेंको”।

चीन में सदियों से कलाकार, बुद्धिजीवी और विशेषज्ञ शहरों में संकेन्द्रित हो चुके थे और समाज की आम मेहनतकश जनता से कटे हुए थे। सांस्कृतिक क्रान्ति का एक उद्देश्य चीन में सदियों से मौजूद इस सांस्कृतिक केन्द्रीकरण को तोड़ना था जिसके तहत कलाकारों, डॉक्टरों, तकनीशियनों, वैज्ञानिकों तथा सभी तरह के शिक्षित लोगों को मज़दूरों और किसानों के बीच जाने और क्रान्तिकारी आन्दोलनों में शामिल होने का आह्वान किया गया। समाज में मौजूद मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच, शहरों और देहातों के बीच, उद्योगों और कृषि के बीच और पुरुष और महिलाओं के बीच अन्तर को समाप्त करने के लिए सामाजिक स्तर पर बहसों को प्रोत्साहित किया गया। नये समाजवादी मूल्यों का प्रसार करने और पूँजीवादी व्यक्तिवादी मान्यताओं के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए “जनता की सेवा करो” और देहात की ओर चलो का नारा दिया गया और बड़ी संख्या में नौजवानों और विशेषज्ञों ने इस आह्वान का स्वागत किया। शिक्षा में आमूलगामी परिवर्तन किये गये, पहले शिक्षा और योग्यता को दूसरों से आगे रहने और दूसरों की तुलना में अधिक सुविधा और विशेषाधिकार प्राप्त करने का एक माध्यम माना जाता था, सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान शिक्षा और योग्यता को सामूहिक हितों के लिए प्रोत्साहित किया गया। फ़ैक्टरियों में एक व्यक्ति द्वारा प्रबन्धन को समाप्त कर दिया गया और उसकी जगह मज़दूरों, तकनीशियनों और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों की तीन-पक्षीय समितियों ने दैनिक प्रबन्धन को अपने हाथ में ले लिया।

महान सर्वहारा क्रान्ति के दौरान व्यापक जनसमूह की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए सही विचारों को परखने के लिए सार्वजनिक बहसें आयोजित की जाती थीं, जिससे पूँजीवादी विचारों को जनता के सामने लाकर उन पर वाद-विवाद किया जा सके। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान यह सिद्धान्त अपनाया कि सहयोगियों के साथ एकता को सुदृढ़ करो, ढुलमुल तत्वों को अपने पक्ष में लो, और विरोधी तत्वों को सार्वजनिक वाद-विवाद करते हुए जनता के सामने उजागर करो और अलगाव (आइसोलेशन) में डाल दो। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान विचारधारात्मक संघर्ष के महत्व को रेखांकित करते हुए माओ ने कहा था, “राजनीतिक सत्ता को उखाड़ फेंकने से पहले अनिवार्य रूप से इस बात की कोशिश की जाती है कि ऊपरी ढाँचे और विचारधारा पर अपना प्रभुत्व क़ायम कर लिया जाये, ताकि लोकमत तैयार किया जा सके, तथा यह बात क्रान्तिकारी वर्गों और प्रतिक्रियावादी वर्गों दोनों पर लागू होती है।” इस आधार पर माओ ने आह्वान किया कि “हम सर्वहारा तत्वों का पालन-पोषण करने के लिए और पूँजीवादी तत्वों को नेस्तनाबूद कर देने के लिए विचारधारा के क्षेत्र में वर्ग-संघर्ष चलायें।” (महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति अमर रहे, हुङछी का सम्पादकीय, अंक 8, 1966)

समाज के आर्थिक और वैचारिक रूपान्तरण के लिए व्यापक मेहनतकश जनता की राजनीतिक भागीदारी मानव इतिहास में इससे पहले कभी नहीं देखी गयी थी। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति में आर्थिक सम्बन्धों, राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं, और संस्कृति, आदतों तथा विचारों को बदलने में इतिहास का सबसे मौलिक प्रयोग किया गया।

महान सर्वहारा क्रान्ति ने 10 साल (1966 से 1976) तक चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को रोके रखा और कई सामाजिक तथा संस्थागत बदलावों के साथ “जनता की सेवा करो” के आधार पर समाज को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। [References from & http://www.revcom.us]

1976 में माओ की मृत्यु के बाद देंग-सियाओ-पिङ के नेतृत्व में संशोधनवादी तख़्तापलट करके एक बार फिर सोवियत यूनियन के ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के इतिहास को दोहराया गया और पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के लिए रास्ते खोल दिये गये। वर्तमान संशोधनवादी चीनी पार्टी चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना को पूरी तरह से अंजाम दे चुकी है। चीन में संशोधनवादियों द्वारा तख़्तापलट कर पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के साथ सर्वहारा क्रान्तियों का पहला ऐतिहासिक चक्र पूरा हो चुका है। आज साम्राज्यवादी भूमण्डलीकरण का यह दौर पूरी दुनिया में विभिन्न रूपों में पूँजीवाद की सुरक्षा पंक्ति बनकर पूँजीपतियों और साम्राज्यवादियों की गोद में बैठे सभी संशोधनवादी ग़द्दारों और साम्राज्यवाद द्वारा पाले-पोसे जा रहे अनेक संशोधनवादी सिद्धान्तकारों के विरुद्ध एक खुली बहस चलाने की माँग कर रहा है, ताकि आने वाले समय में सही विचारधारात्मक समझ के साथ क्रान्तियों का नया एक चक्र शुरू हो सके। सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान माओ ने कहा था कि पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग तथा पूँजीवाद और समाजवाद में “दो वर्गों और दो लाइनों के बीच संघर्ष एक, दो, तीन या चार सांस्कृतिक क्रान्तियों से तय नहीं हो पायेगा, बल्कि वर्तमान महान सांस्कृतिक क्रान्ति के परिणामों को कम से कम पन्द्रह वर्षों तक सुदृढ़ करना होगा। हर सौ साल में दो या तीन सांस्कृतिक क्रान्तियाँ पूरी करनी होंगी। इसलिए हमें संशोधनवाद को उखाड़ फेंकने और किसी भी वक्त संशोधनवाद का विरोध करने के लिए अपनी ताक़त मज़बूत करने के काम को याद रखना होगा।” (विदेशी सैनिक प्रतिनिधिमण्डल से अध्यक्ष माओ त्से-तुङ की बातचीत के अंश, 31 अगस्त, 1967)

स्रोत सूची:

1              महान बहस, पीपुल्स पब्लिसिंग हाउस, अन्तरराष्ट्रीय प्रकाशन

2              Documents of Great Debate (3 volumes), International Publication

3              Political Economy (Shanghai Political Textbook)

4              माओ त्से तुङ की संकलित रचनाएँ

5              राज्य और क्रान्ति

6              कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा पत्र

7              Khrushchev Lied by Grover Furr

8              “Stalin and the struggle for democratic reform”, Part 1 & 2 by Grover Furr

9              Documents of Great Proletariat Cultural Revolution and Great Leap Forward on http://www.revcom.us

10           http://thisiscommunism.org

11           “On Cooperation” January 6, 1923, Lenin http://www.marxists.org/archive/lenin/

works/1923/jan/06.htm

12           The Truth About the Cultural Revolution, http://www.revcom.us/a/1251/

communism_socialism_mao_china_facts.htm

13           Documents of marxists.org

14           Reject the Revisionist Theses of the XX Congress of the Communist Party of the

Soviet Union and the Anti-Marxist Stand of Krushchev’s Group! Uphold Marxism-

Leninism!” by Enver Hoxha, Moscow, 16 November, 1960

15           C.I.A. Tie Aserted in Indonesia Purge, The New York Times, July 12, 1990

[http://www.nytimes.com/1990/07/12/world/cia-tie-aserted-in-indonesia-purge.html?pagewanted=all&src=pm]

Commemorating Chile’s Military Coup, September 11, 1973: Chile and Latin

America Forty Years Later, Global Research, September 11, 2013

[http://www.globalresearch.ca/commemorating-chiles-military-coup-september-11-1973-chile-and-latin-america-forty-years-later/5349284]

CIA Admits Involvement in Chile, W A S H I N G T O N, Sept. 20

[http://abcnews.go.com/International/story?id=82588]

Commemorating Chile’s Military Coup, September 11, 1973: Chile and Latin

America Forty Years Later, Global Research, September 11, 2013

[http://www.globalresearch.ca/commemorating-chiles-military-coup-september-11-1973-chile-and-latin-america-forty-years-later/5349284]

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

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