मराठा मूक मोर्चों के पीछे मौजूद सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिकी : एक मूल्यांकन
- शिवार्थ
13 जुलाई 2016 को महाराष्ट्र के अहमदनगर जि़ले के कोपर्डी गाँव में मराठा जाति की एक 14 वर्षीय बालिका के साथ सामूहिक बलात्कार एवं उसके पश्चात बेहद निर्ममता से उसकी हत्या किये जाने का मामला सामने आया। ग़ौरतलब है कि इसके तीनों पुरुष अभियुक्त दलित जातियों से आते हैं। घटना के तात्कालिक प्रभाव के तौर पर मराठा आबादी के साथ व्यापक जनता का इस घटना को लेकर रोष मुखर तौर पर सामने आया। दलित आबादी ने भी आरोपियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देने की माँग उठायी। कई जगहों पर बड़े-बड़े प्रदर्शन हुए जिनकी प्रमुख माँग थी, इन दोषियों की फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के अन्तर्गत सुनवाई करवाना और इन्हें मृत्युदण्ड दिलवाना। जल्द ही मराठा जातिगत राजनीति करने वालों ने इसे जातिगत मसला भी बना दिया। इसी के साथ ही कई जगह पर इस घटना की प्रतिक्रिया स्वरूप दलित आबादी पर हमले किये गये। जातिगत आधार पर संगठित मराठा आबादी के इन प्रदर्शनों की एक और अहम माँग जो सामने आयी वह यह थी कि दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून, 1989 में संशोधन किया जाये ताकि दलित इसका ‘दुरूपयोग’ न कर सके। एक तात्कालिक घटना की प्रतिक्रियास्वरुप और जातिगत वर्चस्ववादी मराठा राजनीति करने वालों के सहयोग से संगठित इन तात्कालिक प्रदर्शनों ने अगस्त और सितम्बर आते-आते प्रदेशव्यापी स्तर पर गाँवों, क़स्बों से लकर राजधानी मुम्बई तक मराठा आबादी के व्यापक प्रदर्शनों का स्वरुप ग्रहण कर लिया। इन प्रदर्शनों में हज़ारों की संख्या में लोगों की भागीदारी नज़र आयी। रूप के धरातल पर इनका नेतृत्व करने वाली या उन्हें आयोजित करने वाली कोई चुनावी पार्टी या किसी एन.जी.ओ. इत्यादि के लोग नज़र नहीं आये। यह भी देखने में आया कि नौजवान लड़के-लड़कियों से लेकर बुजुर्गों और महिलाओं तक ने बड़ी संख्या में इनमें भागीदारी की और इनका आयोजन शुरुआती घटनाओं को छोड़कर शान्तिपूर्ण ही रहा है। यहाँ तक कि इन्हें ‘मूक प्रदर्शनों’ की संज्ञा भी दी गयी, क्योंकि आम प्रदर्शनों के मुक़ाबले इनमें नारे इत्यादि कम ही देखने को मिले। माँगें भी बदलती गयीं और उन्होंने अधिक से अधिक राजनीतिक स्वरुप ग्रहण करना शुरू कर दिया। अब सिर्फ़ अभियुक्तों को जल्द से जल्द सज़ा दिलाने के इतर जो तीन प्रमुख माँगें उभरकर सामने आईं, वे थीं – दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून में संशोधन कराया जाये, अन्य पिछड़ा वर्ग के अन्तर्गत मराठा आबादी के लिए सरकारी नौकरी एवं शिक्षा में आरक्षण दिया जाये एवं राज्य द्वारा किसानों से अनाज ख़रीदने के मूल्य, यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) में बढ़ोतरी की जाये।
इन प्रदर्शनों की व्यापकता देखकर, दो मत उभरकर सामने आ रहे हैं जिनकी पड़ताल करना ज़रूरी है। दलित चिन्तकों से लेकर कई चुनावी दलों तक का यह मत है कि इनके आयोजन के लिए होने वाले ख़र्च से लेकर इनको अप्रत्यक्ष तौर पर नेतृत्व प्रदान करने का काम प्रदेश की मराठा आबादी के बीच सबसे लोकप्रिय और विगत लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बुरी तरह असफल रहने वाली एन.सी.पी. यानी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी कर रही है। तथ्य के तौर पर यह बात भी है कि पार्टी के अध्यक्ष और महाराष्ट्र के सबसे विख्यात (कुख्यात भी पढ़ सकते हैं) नेताओं में से एक शरद पवार और एन.सी.पी. के लगभग हर छोटे-बड़े नेता ने बिना किसी गाजे-बाजे के इन प्रदर्शनों में अपनी उपस्थिति दर्ज करायी है। अन्य चुनावी पार्टियों का भी रुख़ अपने वोट-बैंक के मूल्यांकन के आधार पर कमोबेश इसी प्रकार रहा है और भाजपा व शिवसेना में भी हावी मराठा लॉबी ने अपनी तरह से इसका लाभ उठाने का प्रयास किया है। वहीं दूसरी ओर चर्चित अख़बारों-पत्रिकाओं से लेकर बुद्धिजीवियों के एक धड़े का मानना है कि यह स्वतःस्फूर्त आधार पर उभरा एक जनआन्दोलन है जो, बावजूद इसके कि जातिगत आधार पर उभरकर सामने आया है, अपने अन्तर्य में लम्बे समय से मराठा आबादी के बहुलांश के बीच सरकार और चुनावी पार्टियों की नीतियों के विरुद्ध जनता में पनप रहे गुस्से और आक्रोश का परिचायक है। इस आन्दोलन के इस पहलू को, जिसकी हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे, ख़ारिज़ तो नहीं किया जा सकता। लेकिन यह भी ग़ौरतलब है कि तीन-चार महीनों तक चलने वाले आन्दोलन के पीछे कोई चालक शक्ति तो होगी और दूसरे जहाँ तक चुनावी गणित का सवाल है तो इनसे सबसे अधिक फ़ायदा एन.सी.पी. को और एक हद तक भाजपा को ही मिलेगा।
अगर इस आन्दोलन के केन्द्र में उपस्थित माँगों की रोशनी में देश के अन्य कृषि आधारित क्षेत्रों पर नज़र दौडाई जाये, तो दिखाई देता है कि पिछले 2-3 सालों में गुजरात, उत्तर प्रदेश, हरियाणा एवं आन्ध्र प्रदेश में भी इस तरह के आन्दोलन हुए हैं जिसमें उभरती मँझोली किसान जातियों ने आरक्षण की माँग उठायी है और जातिगत गोलबन्दी की है। जुलाई 2015 के दौरान गुजरात में पटीदार आबादी द्वारा पिछड़ा एवं अन्य पिछड़ी जातियों में शामिल होने और शिक्षा एवं सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त करने को लेकर एक आन्दोलन की शुरुआत हुई। भले ही फ़ौरी तौर पर इससे कुछ ख़ास न अर्जित हुआ हो, लेकिन इतना तो ज़रूर हुआ कि मुख्यमन्त्री आनन्दीबेन पटेल को इस्तीफ़ा देना पड़ा और गुजरात की चुनावी राजनीति के जातिगत समीकरणों में परिवर्तन आया। अप्रैल 2016 में हरियाणा में जाट आबादी द्वारा मुख्यतः इसी माँग को लेकर प्रदेश स्तर पर एक बड़ा आन्दोलन देखने में आया, जिसमें कि जल्द ही लूट-पाट, बलात्कार और हत्याओं जैसी घटनाएँ भी सामने आने लगीं। फ़रवरी 2016 में आन्ध्र प्रदेश की कापू आबादी द्वारा आन्दोलन भी इस मुद्दे को लेकर ही संगठित हुआ था, हालाँकि वह पिछले एक दशक से ज़्यादा समय से आरक्षण-सम्बन्धी माँगों को लेकर प्रदर्शन करते रहे हैं।
महाराष्ट्र में पिछले पाँच महीनों से जारी मराठा आबादी के ‘मूक मोर्चों’ से इन सभी आन्दोलनों का बिल्कुल सादृश्य निरूपण तो नहीं किया जा सकता, लेकिन एक बात जो इनमें समान है, वह यह है कि ये सारे आन्दोलन पारम्परिक तौर पर कृषि पर निर्भर मध्य जातियों की बहुलांश आबादी के आन्दोलन हैं। उदारीकरण-निजीकरण के पिछले तीस वर्षों ने जहाँ एक ओर कृषि में लगी हुई आबादी के बीच वर्ग-विभेदीकरण की प्रक्रिया को अप्रत्याशित ढंग से तेज़ किया है और कृषि क्षेत्र से एक अच्छी-ख़ासी आबादी को उजाड़ा है, वहीं गै़र-कृषि क्षेत्रों में रोज़गार के अवसरों में हुई बढ़ोत्तरी बेशी आबादी में हुई बढ़ोत्तरी की तुलना में लगभग न के बराबर है उल्टे बेशी आबादी के सापेक्ष रोज़गार के अवसर घटे हैं। अगर आँकड़ों की बात करें तो 2010-11 में कृषि मन्त्रालय द्वारा जारी कृषि जनगणना के आँकड़ों के अनुसार 2001-02 के मुक़ाबले 2010-11 में 25 एकड़ से अधिक कृषि-योग्य भूमि रखने वाली आबादी 1 प्रतिशत से घटकर 0.7 प्रतिशत तक आ गयी है, वहीं 2.5 एकड़ से कम भूमि रखने वाली आबादी 62.1 प्रतिशत से बढ़कर 67 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। 10 एकड़ से लेकर 25 एकड़ के बीच कृषि-योग्य भूमि रखने वाली किसान आबादी 2001-02 के मुक़ाबले 2010-11 में 5.3 प्रतिशत से सिकुड़कर 4.3 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। वहीं दूसरी ओर धनी किसानों व कुलकों के हाथों में कृषि-योग्य-भूमि का संकेन्द्रण तेज़ी से बढ़ा है। यानी कुल मिलाकर कहा जाये तो देश की कृषि-योग्य भूमि का एक तिहाई से ज़्यादा हिस्सा खेती में लगी 5 प्रतिशत आबादी के पास है, वही 85 प्रतिशत आबादी के पास कुल भूमि का 40 प्रतिशत से भी कम है। कृषि में लगी हुई आबादी के बीच वर्ग-विभेदीकरण की प्रक्रिया 2010-11 से लेकर अब तक और तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ी है। वर्ग विभेदीकरण की इस प्रक्रिया के साथ (या कहें कि इसके फलस्वरूप) ही पिछले दो दशकों के दौरान कृषि संकट भी लगतार गहराता रहा है। इस दौरान पूरे देश में क़रीब तीन लाख से अधिक किसान आत्महत्या करने के लिए मजबूर हुए हैं। सिर्फ़ महाराष्ट्र में ही इसकी संख्या बीस हज़ार से अधिक है। अगर अर्थव्यवस्था में कृषि की भागीदारी की बात की जाये तो सकल घरेलू उत्पाद का 15 प्रतिशत से भी कम कृषि और उससे जुड़ी हुई गतिविधियों से आता है, वहीं आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने जीविकोपार्जन के लिए इस पर निर्भर है, हालाँकि कृषि कार्यों में लगी आबादी का हिस्सा गाँवों तक में पिछले एक दशक में बेहद तेज़ी से कम हुआ है और गैर-कृषि कार्यों में लगी आबादी का हिस्सा बढ़ा है। कृषि से इतर मैन्युफै़क्चरिंग और प्रत्यक्ष उत्पादन के अन्य क्षेत्रों में रोज़गार का सृजन नकारात्मक दरों में है। सरकारी एवं प्राइवेट क्षेत्रों में भी यही हालत है और जो नयी भर्ती हो भी रही है वह अधिकतर ठेका-केजुअल-एडहॉक के अन्तर्गत ही हो रही है।
यही कारण है कि पारम्परिक तौर पर खेती-किसानी में लगे हुए घरों के नौजवान जो कभी नौकरी इत्यादि को हिक़ारत की नज़र से देखते थे, उनके सामने आज अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है। आज से क़रीब बीस साल पहले के मुक़ाबले आज उन्हें इसकी कहीं ज़्यादा ज़रूरत महसूस हो रही है कि डिग्री इत्यादि हासिल कर किसी भी तरह प्राइवेट सेक्टर की या सरकारी नौकरी प्राप्त कर ली जाये। कई प्रदेशों में तो किसान संकटग्रस्त कृषि के मद्देनज़र अपनी ज़मीनें बेचकर चपरासी व खलासी की सरकारी नौकरी के लिए रिश्वत देने को तैयार है। सबसे धनी कृषि प्रदेशों यानी हरियाणा और पंजाब में क़रीब 40 प्रतिशत किसान पहला मौक़ा मिलते कृषि छोड़ कोई अन्य रोज़गार अपना लेना चाहते हैं। महाराष्ट्र में पूँजीवादी कृषि संकट और उसके साथ सूखा के पूँजीवाद-जनित संकट ने भी ऐसी ही स्थिति पैदा कर दी है। इस सामान्य कारक के बावजूद महाराष्ट्र में जारी, लगभग प्रदेशव्यापी स्तर पर मराठा आबादी का जन आक्रोश अपने आप में विशिष्ट पड़ताल की माँग करता है। इसके माध्यम से जहाँ एक ओर हम नवउदारवादी नीतियों के चलते मज़दूरों के बीच पिछले कुछ समय से जारी स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों के बाद अब क़स्बों एवं गाँवों की ग़रीब आबादी को भी सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर होने की प्रक्रिया को देख पायेंगे, तो वहीं दूसरी ओर हम नये सिरे से जातिगत आधार पर संगठित होने वाले आन्दोलनों की सीमाएँ एवं उनके वर्गीय लक्षणों की भी चर्चा कर सकेंगे।
अगर महाराष्ट्र के भीतर, जनसंख्या के आधार पर देखा जाये तो आबादी का क़रीब एक-तिहाई हिस्सा और कुछ आँकड़ों के अनुसार 35-38 फ़ीसदी मराठा आबादी का है। 27 फ़ीसदी अन्य पिछड़ी जातियों जिसमें कुनबी, धनगर जातियाँ आदि हैं और 10-12 फ़ीसदी आबादी दलितों की है। मराठा आबादी की बात की जाये तो अन्य जातियों की अपेक्षा इसमें काफ़ी विविधता है। मुख्यतः हम इन्हें पाँच प्रमुख प्रवर्गों में बाँट सकते हैं, सबसे ऊपर देख सकते हैं उन 200 कुलीन और अतिधनाढ्य मराठा परिवारों को जिनका आज प्रदेश के लगभग सारे मुख्य आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता के केन्द्रों पर कब्ज़ा है। यह मराठा आबादी का सबसे कुलीन वर्ग है, जिसके पास अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक और आर्थिक ताक़त का संकेन्द्रण है। प्रदेश के क़रीब 54 प्रतिशत शिक्षा संस्थानों पर इनका क़ब्ज़ा है, प्रदेश की 105 चीनी मीलों में से क़रीब 86 का मालिकाना इनके पास है, प्रदेश के क़रीब 23 सहकारी बैंकों के यही खाते-पीते मराठा प्रबन्धक हैं, प्रदेश के विश्वविद्यालयों में क़रीब 60-75 प्रतिशत प्रबन्धन इनके क़ब्ज़े में है। क़रीब 71 फ़ीसदी सहकारी समिितयाँ इनके पास हैं। जहाँ तक राजनीतिक ताक़त की बात है तो 1962 से लेकर 2004 तक चुनकर आये 2430 विधायकों में 1336 (यानी 55 फ़ीसदी) मराठा हैं, जिनमें अधिकांश इन्हीं परिवारों से आते हैं। 1960 से लेकर अब तक महाराष्ट्र के 19 मुख्यमन्त्रियों में से 10 इनके बीच से ही हैं।
इनके ठीक नीचे है मराठा आबादी का दूसरा वर्ग – धनी किसान या ‘बागायती’ वर्ग जो नक़दी फ़सलें पैदा करता है और गाँवों का पूँजीपति वर्ग है। महाराष्ट्र में क़रीब 80-90 प्रतिशत कृषि-योग्य भूमि के हिस्से का मालिकाना मराठा जाति के पास है। इनमें से क़रीबी एक-तिहाई से ज़्यादा इसी धनी किसान वर्ग के पास है। यह वर्ग ऊपर के धनी घरानों जैसी आर्थिक शक्तिमत्ता तो नहीं रखता, लेकिन यह महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति का एक प्रमुख राजनीतिक प्रेशर ग्रुप है, जिसका नीति-निर्धारण पर असर है। इनके नीचे आता है मँझोले किसानों का वर्ग जिनके पास 2.5 एकड़ से लेकर 10 एकड़ तक की ज़मीनें हैं। यह न तो पूरी तरह ख़ुशहाल है, न ही बर्बादी के क़गार पर खड़े हैं। ये अनिश्चितता में जीते हैं और अपनी खेती में काफ़ी हद तक मौसम-बारिश जैसे प्राकृतिक कारकों और सरकारी नीतियों पर निर्भर होते हैं। ये धनी किसानों की क़तार में शामिल होने के लगातार सपने सँजोते हैं, और जब ऐसा करने में आर्थिक तौर पर नाकामयाब होते हैं, तो हताशा और रोष का शिकार होते हैं। ये सूदखोरों और बैंकों द्वारा तंग किये जाने पर आत्महत्याएँ कर लेते हैं। मँझोले किसानों के इस वर्ग का अच्छा ख़ासा हिस्सा पिछले दशकों में खेतिहर मज़दूरों की क़तार में भी शामिल हुआ है। इसके नीचे आने वाला चौथा वर्ग है ग़रीब मराठा आबादी का जो कि केवल खेती से जीविकोपार्जन नहीं कर पाते और उनका अच्छा-ख़ासा हिस्सा बड़े किसानों के खेतों पर मज़दूरी भी करता है। इनकी स्थिति काफ़ी हद तक खेतिहर मज़दूरों जैसी होती है। ये अपने बच्चों को स्तरीय शिक्षा नहीं दिला सकते। डिग्री इत्यादि के अभाव में शहरों तक पहुँच रोज़गार प्राप्त कर सकने की इनकी स्थिति नहीं होती। इनमें सांस्कृतिक और शैक्षणिक पिछड़ापन बुरी तरह व्याप्त है। पाँचवाँ वर्ग सबसे ग़रीब मराठा आबादी का यानी खेतिहर मज़दूरों का है, जो दूसरे के खेतों पर मज़दूरी करने या सरकार की रोज़गार गारण्टी योजनाओं पर निर्भर रहने को बाध्य हैं। यह आबादी सबसे भयंकर ग़रीबी में जीवनयापन कर रही है। कुछ नमूना सर्वेक्षणों के अनुसार कुल मराठा आबादी का क़रीब 35-40 हिस्सा खेतिहर मज़दूरों का है।
इसमें नीचे के विशेषकर तीन वर्गों का गुस्सा ग़रीबी, बेरोज़गारी और असमानता के ख़िलाफ़ लम्बे समय से संचित हो रहा है। इस गुस्से का निशाना मराठा जातियों की नुमाइन्दगी करने वाली प्रमुख पार्टियाँ बन सकती हैं, जो कि वास्तव में मराठों के बीच मौजूद अतिधनाढ्य वर्गों की नुमाइन्दगी करता है। यह वर्ग अन्तरविरोध अपने आपको इस रूप में अभिव्यक्त करने की सम्भावना-सम्पन्नता रखता है। लेकिन यह सम्भावना-सम्पन्नता स्वत: एक यथार्थ में तब्दील हो, इसकी गुंजाइश कम है। ग़रीब मेहनतकश मराठा आबादी में भी जातिगत पूर्वाग्रह गहराई से जड़ जमाये हुए हैं। ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद की सोच उनमें भी अलग-अलग मात्रा में मौजूद है। ऐसे में, मराठों के बीच मौजूद जो शासक वर्ग है और उसकी नुमाइन्दगी करने वाली मराठा पहचान की राजनीति करने वाली बुर्जुआ पार्टियाँ मराठा जातियों के व्यापक मेहनतकश वर्ग के वर्गीय गुस्से को एक जातिगत स्वरूप दे सकती हैं और देती रही हैं। इन आबादी को इस बात पर भरमाया जा सकता है कि उसकी ग़रीबी और बेरोज़गारी का मूल कारण दलित हैं जो कि आरक्षण के ज़रिये रोज़गार के मौक़े हड़प जा रहे हैं। इसी के साथ दलित आबादी के बीच जो एक मध्यवर्ग पैदा हुआ है, वह भी अस्मितावादी राजनीति के प्रभाव में होने के चलते जातीय तौर पर अपने आपको एसर्ट कर रहा है, जिससे कि वर्गीय अन्तरविरोधों को जातिगत स्वरूप देने की सम्भावनाएँ प्रबल हो जाती हैं। जब भी वर्गीय अन्तरविरोध सही रूप में तन्तुबद्धीकृत होकर अभिव्यक्त (आर्टिकुलेट) नहीं होते, तो वे किसी न किसी प्रकार की विकृत अभिव्यक्ति पाते हैं। यह विकृत अभिव्यक्ति अलग-अलग ऐतिहासिक सन्दर्भों और परिप्रेक्ष्यों में अलग-अलग रूप धारण कर सकती है। कभी ये नस्लीय स्वरूप ले सकती है, कभी ये प्रवासी-विरोध (ज़ेनोफोबिया) के रूप में सामने आ सकती है, कभी ये साम्प्रदायिक चोला ओढ़कर आ सकती है और भारत में अक्सर ये जातिगत अन्तरविरोध का स्वरूप धारण करती है। चाहे ये जो भी स्वरूप धारण करे, इसके मूल में वर्गीय अन्तरविरोध ही प्रवाहित होते रहते हैं।
ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि, इस पूरे आन्दोलन को अगर महज़ जातिगत फ्रे़मवर्क में देखा जाये तो हम मराठा आबादी के बहुलांश का सत्ता प्रतिष्ठानों आर सरकारी मशीनरी के विरुद्ध लम्बे समय से पनप रहे गुस्से और असन्तोष को नहीं समझ पायेंगे और यह भी नहीं समझ पायेंगे कि ये ”मूक मोर्चे” जिस दौर में हुए उसी दौर में क्यों हुए। इसी रोशनी में यह देखना दिलचस्प और ज़रूरी होगा कि इस आन्दोलन के केन्द्र में उपस्थित माँगों का वर्गीय चरित्र क्या है। जैसे कि हमने पहले ही इंगित किया कि हत्या और बलात्कार के दोषियों को जल्द से जल्द मृत्युदण्ड दिलाने (जिस पर तमाम दलित भी माँग उठा रहे थे) के अलावा जो तीन प्रमुख माँगें उभरकर सामने आयी हैं, वे हैं दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून, 1989 के प्रावधानों को ढीला किया जाये, या इस क़ानून को ही पूरी तरह वापस कराया जाये; शिक्षा संस्थानों व सरकारी एवं प्राइवेट सेक्टर की नौकरियों में आरक्षण दिया जाये; एवं न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) को बढ़ाया जाये।
अगर सिर्फ़ चिन्हित हुई घटनाओं से जुटाये गये आँकड़ों के आधार पर भी बात की जाये तो, पूरे महाराष्ट्र में ही और विशेषकर अहमदनगर जि़ले में दलितों के ख़िलाफ़ सबसे जघन्य अपराध मराठा जाति से आने वाले दबंगों धनी किसानों द्वारा ही होता है। अक्सर ये दलित खेतिहर मज़दूरों के बीच से आते हैं। वैसे तो पूरे देश भर में ही दलित आबादी के विरुद्ध होने वाले अपराधों में पिछड़ी जातियाँ, किसी भी रूप में ब्राह्मणों-क्षत्रियों से पीछे नहीं हैं बल्कि कहना चाहिए कि पिछले कई दशकों से दलितों के विरुद्ध प्रमुख दमनकारी जाति की भूमिका में ये मध्य किसान जातियाँ हैं (जिनसे एकता के आधार पर ‘बहुजन समाज’ निर्मित करने और ब्राह्मणवाद से लड़ने का दिवास्वप्न दिखलाया जाता है)। महाराष्ट्र में तो इस तरह की नब्बे फ़ीसदी उत्पीड़न की घटनाएँ मराठा जाति से आने वाले धनी वर्ग के लोगों द्वारा ही की जाती हैं। अगर कुछ प्रतीक घटनाओं की बात की जाये तो अहमदनगर जि़ले के जवखेड़ तहसील में अक्टूबर 2014 में एक दलित परिवार के तीन लोगों को मार दिया गया था; अप्रैल 2014 में यहीं पर एक सत्रह वर्षीय दलित लड़के को भीड़ द्वारा मार दिया गया; जनवरी 2013 में सोनई गाँव के एक ही दलित परिवार के तीन लोगों को मार दिया गया था। इन सभी घटनाओं में अभियुक्त मराठा जाति से आने वाले लोग ही थे। सवाल तो यह भी उठता है कि इन अपराधों पर व्यापक मराठा आबादी ने उस तरह रोष क्यों नहीं प्रकट किया जैसे वो इस हालिया घटना को लेकर कर रहे हैं। वहीं दूसरी और आँकड़ों के लिहाज़ से देखें तो पिछले पाँच सालों में यानी 2010 से लेकर 2015 के एफ़.आई.आर. या केस जो दलित उत्पीड़न निरोधी क़ानून के अन्तर्गत दर्ज कराये गये थे उनकी संख्या 319 से घटकर 290 तक पहुँच गयी है। इसमें अभियुक्त को सज़ा दिये जाने की दर भी महज़ 7 प्रतिशत है, यानी साल-भर में मुश्किल से 20-22 लोग पूरे महाराष्ट्र में इस क़ानून के अन्तर्गत दण्डित हुए होंगे। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे प्रदेशों के लिहाज़ से भी यह आँकड़ा बहुत कम है। यह बात बिल्कुल साफ़ है कि इस क़ानून का कितना ‘दुरुपयोग’ हो रहा है, और इसको संशोधित किये या वापस लिये जाने से आम मराठा आबादी को क्या मिल जायेगा! वहीं दूसरी तरफ़़ ग़रीब दलितों के लिए इसके परिणाम भयंकर होंगे। एक बड़ा तबक़ा दलितों के विरुद्ध अपनी सीमाओं का उल्लंघन इसलिए नहीं करता कि, दलितों के लिए ऐसा क़ानून है जो कम से कम नाम मात्र के लिए ही सही कुछ संरक्षण मुहैया कराता है। वास्तव में यह कितना प्रभावी है, उसके आँकड़े तो हम देख ही चुके हैं। इस क़ानून के बावजूद अगर देशव्यापी स्तर पर दलितों के ख़िलाफ़ होनेवाले अपराधों की हालत यह है, तो इसके न होने पर स्थिति क्या होगी यह स्वतः ही समझा जा सकता है। अपवादस्वरूप अगर इसके दुरुपयोग के मामले हुए भी होंगे और इसके आधार पर अगर ऐसा कोई निर्णय लिया जाये, तो फिर देश के सभी क़ानूनों को रद्द करना पड़ेगा क्योंकि हमारे देश में किस क़ानून का दुरुपयोग नहीं होता।
अगर इस आन्दोलन में प्रमुखता से उठ रहे दूसरे मुद्दे यानी मराठा आबादी के लिए अन्य पिछड़ा वर्ग से अलग शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण की बात की जाये तो इसके लिए महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमन्त्री फड़नवीस की एक दलील ही स्थिति काफ़ी साफ़ कर देती है। उनके अनुसार मराठा आबादी के लिए आरक्षण लागू करने के बाद कॉलेजों में क़रीब 900 सीटें उपलब्ध हो जायेंगी और सरकारी नौकरियों में क़रीब 7500 लोगों को रोज़गार मिल जायेगा। करोड़ों की संख्या में बेरोज़गार मराठी नौजवानों के लिए इससे क्या हासिल हो जायेगा? हम स्वत: ही समझ सकते हैं। दूसरी बात यह कि इन उपलब्ध हुए अवसरों का इस्तेमाल भी पैसे की ताक़त रखने वाले चन्द ऊपरी तबक़ों के लोग ही कर पायेंगे। इसका एक बड़ा कारण यह है कि अन्य पिछड़ी जातियों की अपेक्षा मराठा आबादी में विशेषकर महिलाओं के बीच शिक्षा का स्तर काफ़ी नीचे है। आरक्षण का यह झुनझुना केवल एक विभ्रम है और इससे व्यापक मेहनतकश मराठा आबादी की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में कोई अन्तर नहीं आने वाला। यह एक उपकरण है जिसका शासक वर्ग मेहनतकश जनता को जातिगत आधार पर बाँटने के लिए करता है और अभी भी कर रहा है।
आज बुनियादी सवाल रोज़गार सृजन का है। उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में अगर सरसरी तौर पर देखा जाये तो लेबर ब्यूरो द्वारा देश स्तर पर जारी हालिया आँकडे स्थिति काफ़ी स्पष्ट कर देते हैं। बेरोज़गारी की दर पिछले पाँच वर्षों के शिखर पर है – जहाँ 2011 में यह 3.8 फ़ीसदी और 2013 में 4.9 फ़ीसदी थी, वहीं 2015 में यह बढ़कर 7.3 फ़ीसदी तक पहुँच गयी है। रोज़गार प्राप्त व्यक्तियों से एक तिहाई के पास पूरे वर्ष काम नहीं रहता जबकि कुल परिवारों में से 68 फ़ीसदी परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम है। ग्रामीण क्षेत्रों में हालत और भी ख़राब है यहाँ 42 फ़ीसदी लोगों के पास पूरे सालभर काम नहीं रहता और 72 फ़ीसदी परिवारों की मासिक आय 10,000 रुपये से कम है। जहाँ तक शिक्षा की बात है तो ज़्यादातर प्राइवेट इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज मराठी धनकुबेरों के पास ही हैं, जहाँ शिक्षा इतनी महँगी है कि ग्रामीण मज़दूर तो दूर निम्न मध्यम वर्ग की और मध्यम वर्ग के घरों से आने वाले नौजवान मुश्किल से ही दाख़िला प्राप्त कर सकता है।
यह भी ग़ौर करने योग्य बात है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय किये गये मानकों के अनुसार नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता। महाराष्ट्र में यह पहले ही 51 फ़ीसदी के क़रीब है। अब बिना किसी संशोधन के इसे बढ़ाना सम्भव नहीं है। वोट बैंक की राजनीति के चलते, 2014 में आम चुनावों से ठीक पहले ऐसी कोशिश की भी गयी थी, जब राज्य सरकार द्वारा एक अधिनियम के अन्तर्गत मराठा आबादी के लिए सरकारी नाैकरियों और शिक्षण संस्थानों में 16 फ़ीसदी आरक्षण दे दिया गया था। लेकिन एक जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान बम्बई उच्च न्यायालय ने इसे स्थगित कर दिया। जहाँ तक रही संवैधानिक संशोधन जैसे किसी भी प्रयास के द्वारा आरक्षण देने की बात तो ऐसा करते ही अन्य पिछड़ी जातियाँ भी आरक्षण के लिए सड़कों पर उतर आयेंगी। कुल मिलाकर चुनावी राजनीति की गोटियाँ ही ऐसी फँसी हुई हैं कि, मराठी नौजवानों पर यह वाक्य ठीक ही जँचता है – ‘तुम आरक्षण पा सको यह हो नहीं सकता और तुम इसे भूल जाओ यह हम होने नहीं देंगे!!’ अगर निगमनात्मक पद्धति से भी उनकी हालत पर नज़र दौडाई जाये, जिन्हें आरक्षण मिला हुआ है उन जातियों से आने वाली क़रीब 90 फ़ीसदी आबादी भयंकर ग़रीबी और बदहाली में जीवन यापन करने के लिए मजबूर है। आज भी शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षित सीटों का एक हिस्सा भरा ही नहीं जाता क्योंकि उसे प्राप्त करने के लिए जिस न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की दरकार है, वह भी एक छोटा तबक़ा ही हासिल कर पाता है और दूसरी ओर इन सभी शिक्षण संस्थानों की नौकरशाही का चरित्र जातिवादी ब्राह्मणवादी है जो कि इन सीटों को भरने में जालसाजी करता है। आज की परिस्थितियों में न सिर्फ़ अन्य पिछड़ी जातियों बल्कि दलित घरों से आने वाले नौजवानों के लिए भी आरक्षण की नीति शासक वर्गों द्वारा जनता के बीच राज्य को लेकर एक विभ्रम कायम करने का पैंतरा मात्र है। यही कारण है कि दलित आबादी के बीच भी इसकाे लेकर झगड़ा पनपाया जाता है। नयी-नयी श्रेणियाँ खड़ी करके (जैसे महादलित, अति-पिछड़ा आदि) आरक्षण के लुकमे उछाले जाते हैं और स्वयं दलित जातियाँ आपस में लड़ पड़ती हैं, कभी आदिवासी और दलितों को आपस में भिड़ा दिया जाता है, कभी आदिवासियों और पिछड़ों को आपस में लड़ा दिया जाता है।
जहाँ तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) की माँग का सम्बन्ध है, तो ग़रीब मराठा शहरी आबादी, ग़रीब किसानों और यहाँ तक की मध्यम किसानों के लिए भी यह एक प्रतिक्रियावादी माँग है। एम.एस.पी. बढ़ने से फ़ायदा उन्हीं किसानों को होगा जो मुख्यतः बाज़ार में बेचने के लिए उत्पादन करते हैं और जो मुख्य रूप से अनाज के ख़रीदार नहीं बल्कि अनाज को बेचने वाले हैं। इससे उन ग़रीब मराठा किसानों को कोई फ़ायदा नहीं मिलेगा जो उत्पादन मुख्यतः अपने भरण-पोषण के लिए एवं एक छोटा हिस्सा बाज़ार में बेचकर अपने जीवन-यापन के लिए ज़रूरी अन्य वस्तुएँ ख़रीदने में करते हैं। जो मराठा किसान मुख्य रूप से अनाज को बेचने वाले नहीं बल्कि मुख्य रूप से अनाज के ख़रीदार हैं, उनको एम.एस.पी. बढ़ने से फ़ायदा नहीं बल्कि नुक़सान होगा। एक मराठा किसान आबादी जो कि अमीर किसान तो नहीं मानी जायेगी, मगर वह अनाज पर्याप्त मात्रा में बेचती है, उसे भी एम.एस.पी. बढ़ने का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि बढ़ोत्तरी का पूरा लाभ बिचौलियों और आढ़तियों को जायेगा जो कि अक्सर स्वयं धनी किसान होते हैं। दूसरी बात यह कि एम.एस.पी. या लाभकारी मूल्य के बढ़ने से अनाज व अन्य वस्तुओं के दाम भी बढ़ जायेंगे जिसकी मार भी ग़रीब जनता पर ही पड़ेगी। इस विषय पर सही अवस्थिति, किसी भी राजनीतिक तौर पर सचेत व्यक्ति के लिए एक हल हुआ मुद्दा है। आज ग़रीब और निम्न मध्यम किसान आबादी भी राजनीतिक चेतना और स्वतन्त्र संगठन के अभाव में धनी किसानों की इस माँग को उठाते हुए उनके पीछे-पीछे चलती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह माँग उनके हक़ में है।
इस आन्दोलन के केन्द्र में प्रमुखता से रही इन तीन माँगों की वर्गीय दृष्टि से समीक्षा करने के पीछे जो हमारा मुख्य मक़सद था, वह यह दर्शाना है कि जातिगत आधार पर संगठित कोई भी आन्दोलन, अपने सार रूप में शासक वर्गों और उनके अलग-अलग धडों के बीच प्रेशर-टैक्टिस का ही काम करता है। आरक्षण से लेकर एम.एस.पी. बढ़ाने तक सभी माँगें मराठा आबादी के कुलीन तबक़े, गाँवों के पूँजीपति वर्ग यानी बड़े किसानों और एक हद तक मँझोले किसानों और शहरी उच्च मध्यम एवं मध्य वर्ग को ही लाभ पहुँचायेगी। इसका मराठा आबादी के ही बीच से आने वाले खेतिहर मज़दूरों से लेकर ग़रीब किसान आबादी और शहरी निम्न मध्यम वर्ग को कोई फ़ायदा नहीं मिलेगा। सारा फ़ायदा ऊपर के एक बेहद छोटे तबक़े तक ही सीमित रह जायेगा लेकिन इसके लिए अर्जी लगाने और सड़कों पर अपनी ताक़त का प्रदर्शन करने के लिए सबसे अधिक ग़रीब आबादी के लोगों का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। हालाँकि दलित आन्दोलन को हूबहू इसी आधार पर सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों में ही मूलभूत फ़र्क़ है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि जातिगत आधार पर संगठित किसी भी दलित आन्दोलन से, दलित आबादी के ग़रीब हिस्सों को जितना फ़ायदा होगा उससे ज़्यादा नुक़सान होगा, क्योंकि सिर्फ़ जातिगत आधार पर खड़ा हुआ कोई भी राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित आन्दोलन, उन्हें अन्य जातियों से आने वाली ग़रीब जनता और उसके नौजवानों से काट देगा और इन जातियों के कुलीनों को मौक़ा देगा कि वे इन जातियों की ग़रीब आबादी को भी दलितों के ख़िलाफ़ खड़ा कर दें। ऐसी सम्भावना-सम्पन्नता ग़ैर-दलित मँझोली और उच्च जातियों की ग़रीब आबादी में है क्योंकि उस पर भी ब्राह्मणवादी जातिवादी वर्चस्ववाद का गहरा असर है और जातिगत पूर्वाग्रह उसके भीतर भी मौजूद हैं। इसलिए अस्मिता के आधार पर संगठित किसी भी जाति का आन्दोलन चाहे वह दलित जातियों का हों या ग़ैर-दलित जातियाें का, अन्तत: मेहनतकश आबादी की वर्ग एकजुटता को स्थापित करने में बाधा खड़ी करेगा। महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति में रामदास अठावले की रिपब्लिकन पार्टी इस तर्क का इस्तेमाल कर लम्बे समय से अपनी चुनावी गोटियाँ लाल कर रही है। इसी का नतीजा है कि फि़लहाल वह मोदी सरकार की गोद में बैठकर दलित हितों की ‘रक्षा’ कर रही है!
वैसे तो औपनिवेशिक काल (और उससे पहले भी ) जातिगत बँटवारे और उसके अन्तर्गत होने वाली किसी भी गोलबन्दी का इस्तेमाल शासक वर्गों ने अपने हित साधन के लिए ही किया है लेकिन आज की परिस्थितियों में जातिगत या किसी भी अन्य अस्मिता पर खड़े किये आन्दोलन अपनी प्रकृति से ही जनविरोधी हैं और व्यापक जनता की वर्गीय एकजुटता पर प्राणान्तक चोट करते हैं। यह सच है कि यह वर्गीय एकजुटता पहले से बनी हुई नहीं है। वह भी एक सम्भावना-सम्पन्नता के तौर पर मौजूद है। जैसा कि आमतौर पर इतिहास में होता है, हमेशा प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी सम्भावना-सम्पन्नताएँ मौजूद होती हैं, प्रश्न यह होता है कि कौन-सा अभिकर्ता किस सम्भावना-सम्पन्नता को अपनी प्रैक्सिस के ज़रिये यथार्थ में रूपान्तरित कर सकता है। यह सच है कि विभिन्न जातियों के बीच एेतिहासिक तौर पर जो अन्तर व्याप्त हैं वे वर्गीय एकजुटता क़ायम करने की राह में एक बाधा का काम करते हैं। हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि मराठा आबादी स्वत: इस बात के लिए तैयार हो जायेगी कि दलित जातियों के ग़रीब घरों से आने वाले नौजवान और ग़रीब मराठा नौजवानों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर अपनी माँगों को लेकर लड़ें। वैसे तो यह एक अत्यन्त पेचीदा विषय है, जिसको सीधे तौर पर सम्बोधित करना इस लेख की सीमा से परे है, लेकिन हम नुक्तेवार कुछ बातें कर सकते हैं।
आज शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों से और विशेषकर ग़रीब घर से आने वाले नौजवानों के लिए जातिगत पार्थक्य पहले के मुक़ाबले टूटा है। मिसाल के तौर पर, आनुवांशिक श्रम विभाजन और साथ खाने-पीने से जुड़े जातिगत पूर्वाग्रह काफ़ी हद तक कमज़ोर हो चुके हैं। जो एक चीज़ बनी हुई है वह है ‘बेटी के रिश्ते’ का सवाल जो कि आज भी बना हुआ है। कारण यह कि पहले दो गुण पूँजीवादी व्यवस्था के संचय के तर्क से मेल नहीं खाते और अन्तरजातीय विवाह का प्रश्न पूँजीवादी संचय के लिए कोई बाधा नहीं पैदा करता, उल्टे वह निजी सम्पत्ति को उससे भी ज़्यादा पवित्र बना देता है, जितना कि पूँजीवाद उसे बनाता है। पूँजी की चतुर्दिक मार ने दलितों और गै़र-दलित जातियों के नौजवानों को काॅल सेण्टरों से लेकर फै़क्टरियों में, खेतिहर मज़दूरों के रूप में बड़े-बड़े भूस्वामियों की ज़मीन पर, एक साथ खड़ा होने और काम करने को बाध्य कर दिया है। इसका यह अर्थ नहीं है कि जातिगत पार्थक्य इससे स्वत: ही टूट गया है। यह स्वत:स्फूर्त ढंग से होना बेहद मुश्किल है। इसके लिए क्रान्तिकारी ‘सब्जेक्टिविटी’ के सचेतन हस्तक्षेप की आवश्यकता है। लेकिन यह भी सही है कि पूँजीवाद द्वारा जाति व्यवस्था की दो बुनियादी चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं और दिक् व काल के आयामों में मौजूद पार्थक्य को तोड़ने या कम कर देने के कारण एक क्रान्तिकारी हस्तक्षेप के ज़रिये जातियों को तोड़ने की ज़्यादा मुफ़ीद ज़मीन ज़रूर पैदा हो गयी है। यह ज़रूर है कि चुनाव इत्यादि में यही लोग विकल्पहीनता और मानसिक संकीर्णता के चलते अपना निर्णय जातिगत आधार पर ही करते हैं, और कई ‘क्रूशियल’ मसलों पर यही पैमाना इनको ज़्यादा सुलभ दिखाई देता है। लेकिन इसका एक प्रमुख कारण किसी क्रान्तिकारी विकल्प और हस्तक्षेप की अनुपस्थिति भी है। फिर भी, स्थितियाँ आज पहले से काफ़ी बदल चुकी हैं, हालाँकि पूरे भारत के बारे में एक सामान्यीकरण प्रस्तुत कर पाना सम्भव नहीं है। जातिगत बन्धनों से मुक्त होकर प्रेम विवाह करने के लिए और इसके अन्तर्गत हर ख़तरे को उठाने के लिए तैयार रहने की घटनाएँ आज अगर प्रचलन में नहीं तो अपवाद भी नहीं है, हालाँकि ऐसी घटनाएँ गाँवों में अपेक्षाकृत कम होती हैं।
राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों को लेकर क्रान्तिकारी नेतृत्व में वर्ग आधारित सशक्त आन्दोलन इन्हें वह ज़मीन मुहैय्या करायेंगे जहाँ इस जातिगत अन्तरविरोध की परिघटना को भेदकर वर्गीय अन्तर्वस्तु तक पहुँचने की सम्भावना तैयार होगी। शासक वर्गों के रूप में विभिन्न जातियों से आने वाले अपने दुश्मनों को साथ खड़ा देखकर, उनकी पुलिस और फ़ौज से एक साथ ही सड़कों पर मुक़ाबला करते हुए उन्हें इस बात का अहसास होने की ज़मीन तैयार हो सकेगी कि उनके असली दोस्त और दुश्मन कौन हैं। ज़ाहिरा तौर पर यह बात करने वाला मैं कोई पहला व्यक्ति नहीं हूँ और न जाने कितनी बार ये सही बातें कही और लिखी गयी होंगी. लेकिन सही बातें कहते रहने में कोई हर्ज़ नहीं है और यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ज़मीन पर उतरकर इस तरह की कोशिशें कम ही हुई हैं। आज भी राजनीतिक दायरों में अस्मितावादी राजनीति का ही बोलबाला है और इसके ख़िलाफ़ पक्ष चुनने वालों को, या जनता के बीच इसकी असलियत उजागर करने वालों को ‘कुलीनतावादी’ का तमगा पहना दिया जाता है। वामपन्थी दायरों में भी अस्मितावाद और अम्बेडकरवाद के साथ मार्क्सवादी विज्ञान का मिश्रण करने या फिर अनजाने में दलितों के प्रति दयाभाव प्रदर्शित कर अस्मितावादी राजनीति के आग्रहों को ‘दलितों की आह’ बताकर सहयोजित करने की प्रवृत्ति मौजूद है।
इस पूरे आन्दोलन के केन्द्र में जो एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू होना चाहिए था और चाहे-अनचाहे जिसे पूरी तरह नज़रअन्दाज किया गया, वह था स्त्री विरोधी अपराधों के विरुद्ध सरकार को कठघरे में खड़ा करना और इनके ख़िलाफ़ राज्य को कड़े क़दम उठाने के लिए बाध्य करना था। लेकिन दोषियों को मृत्युदण्ड दिलाये जाने की माँग से इतर, इस लिहाज़ से और कोई माँग नहीं उठायी गयी। ‘दामिनी काण्ड’ के विरोध में देशभर से लेकर राजधानी दिल्ली में बने जन-दबाव ने सरकार को ‘बैकफुट’ पर ला दिया था और जस्टिस वर्मा समिति गठित करने के लिए बाध्य कर दिया था। न सिर्फ़ इतना, बल्कि पूँजीवाद के अन्तर्गत लगातार खाद-पानी प्राप्त कर रही स्त्री विरोधी पूँजीवादी संस्कृति को आम जनता के बीच एक बहस के मुद्दे के तौर पर स्थापित कर दिया था। एन.सी.आर.बी. द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में महाराष्ट्र उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद तीसरे नम्बर पर आता है। बलात्कार के मामलों में यह मध्य प्रदेश के बाद दूसरे नम्बर पर है। पिछले वर्ष यहाँ पर महिलाओं के विरुद्ध होने वाले अपराध, जो कि पुलिस रिकॉर्ड में दर्ज किये गये उनकी संख्या थी 33,218। ज़ाहिरा तौर पर कुल अपराधों की संख्या इससे कहीं ज़्यादा रही होगी। लेकिन सांस्कृतिक और शैक्षणिक तौर पर अत्यन्त पिछड़ी मराठा आबादी के जातिगत आधार पर उभरे आन्दोलन में ऐसी किसी माँग की अनुगूँज नहीं ही सुनाई देगी।
ग़ौरतलब है कि कोपर्डी में हुए इस बर्बर काण्ड का शिकार हुई लड़की, महज़ 14 साल की थी और हॉकी खेलने दूसरे गाँव जाती थी। उसका इस प्रकार ‘मॉडर्न’ होना कुछ लोगों को खटकने लगा। वे ‘दलित’ थे यह तो दर्ज किया गया लेकिन वे ‘पुरुष’ भी थे जिन्हें पूँजीवादी संस्कृति से प्राप्त खाद-पानी ने मानवद्रोही होने की कगार तक पहुँचा दिया था। इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया। हर अस्मितावादी आन्दोलन तमाम सारी जटिलताओं और अन्तरविरोधों को पृष्ठभूमि में ढकेल देता है, या कहें कि उन्हें ‘लील’ जाता है। स्त्री-विरोधी मानसिकता से लेकर जातिगत उत्पीड़न के केन्द्र में ये पूँजीवादी व्यवस्था और उसकी संस्कृति है, जो हर दिन इन्हें सहयोजित करती है और इनका पोषण करती है। इसकी मिसाल के तौर पर, गिन्नी माही नामक एक दलित गायक के बनाये हुए गीतों, जैसे कि ‘डेंजर चमार’ और ‘फै़न बाबा साहेब दी’ को देखकर आप समझ सकते हैं कि दमित जनता के प्रतिरोध की संस्कृति और संगीत किस प्रकार पूँजीवादी ‘परवर्जन’ का शिकार होता है। इसके म्यूजि़क वीडियो में ही आप पौरुषिकता के पूँजीवादी रूपों को अपने सबसे भौंडे रूपों में देख सकते हैं। ये म्यूजि़क वीडियो और इनका संगीत पंजाब के धनी जट्ट पॉप स्टारों की शैली की पूरी नक़ल करता है और वास्तव में यह संगीत स्वयं पंजाब में दलितों में पैदा हुए एक छोटे-से धनिक वर्ग के ‘एसर्शन’ को दिखलाता है, न कि ग़रीब दलितों के जीवन की तकलीफ़ों और संघर्षों को। लेकिन अस्मितावादी राजनीति के भँवर में फँसे कई वामपन्थी टिप्पणीकार भी गिन्नी माही जैसे गायकों को दलित ‘एसर्शन’ का प्रतीक मानते हैं। इसके बारे में जितना कम कहा जाये उतना बेहतर है। लुब्बेलुबाब यह कि अस्मितावादी ज़मीन पर खड़े होकर आज कोई भी आन्दोलन या सांस्कृतिक उत्पाद केवल शासक वर्गों की सेवा कर सकता है।
दिशा सन्धान – अंक 4 (जनवरी-मार्च 2017) में प्रकाशित