सम्पादकीय की एवज में

सम्पादकीय की एवज में

  • सम्‍पादक मण्‍डल 

माओ ने एक बार कहा था, “आकाश के नीचे सबकुछ भयंकर अराजकता में है। एक शानदार स्थिति!” पिछले करीब 8 वर्षों से अभूतपूर्व आर्थिक मन्दी की मार से कराहता पूँजीवाद हर रोज़ अपनी मरणासन्नता और खोखलेपन के नये लक्षण प्रदर्शित कर रहा है। जब ‘दिशा सन्धान’ के तीसरे अंक के साथ हम आपसे मुख़ातिब हो रहे हैं, तो दुनिया एक नये संक्रान्तिकाल में प्रवेश करती प्रतीत हो रही है। यह संक्रान्तिकाल तत्काल ही किसी क्रान्तिकारी स्थिति की ओर ले जाये, यह ज़रूरी नहीं है। लेकिन यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि जो परिवर्तन आज दुनिया के पैमाने पर हमारे सामने घटित हो रहे हैं, वे साम्राज्यवाद और पूँजीवाद को और भी ज़्यादा कमज़ोर और खोखला बना रहे हैं। वैसे तो दुनिया भर में इस नये संक्रान्तिकाल के कई प्रातिनिधिक लक्षण हमारे सामने हैं, लेकिन हम दो सबसे प्रमुख लक्षणों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे, जो सम्भवतः सबसे महत्वपूर्ण हैं।

intifada_omar_pppaपहला अहम परिवर्तन है फलस्तीन में तीसरे इन्तिफ़ादा की शुरुआत के संकेत। वैसे तो फ़लस्तीन की जनता हत्यारे इज़रायली ज़ायनवादी कब्जे, नस्लवादी अपार्थाइड और बार-बार किये जाने वाले बर्बर हत्याकाण्डों के ख़िलाफ़ लगातार ही सुलगती और उबलती रहती है। लेकिन जब हम ये शब्द लिख रहे हैं, ठीक उसी समय यह उबाल एक विस्फोट की शक्ल लेता नज़र आ रहा है। फ़लस्तीन की जनता ने न सिर्फ़ गाज़ा में बल्कि वेस्ट बैंक में एक ज़बर्दस्त विद्रोह की शुरुआत की है। पिछले एक सप्ताह में करीब 8 इज़रायली मारे जा चुके हैं और साथ ही इज़रायली ज़ायनवादी पुलिस व सेटलरों ने करीब तीन दर्जन फ़लस्तीनियों की हत्या की है। मगर दमनकारियों की मौतें हमेशा ज़्यादा भारी होती हैं। यह समझने की ज़रूरत है कि एक औपनिवेशिक दमनकारी सत्ता के लोगों के मारे जाने और एक दमित जनता के लोगों के मारे जाने के अलग निहितार्थ होते हैं। फ़लस्तीन की जनता पिछले सात दशकों से लगातार कुर्बानियाँ और शहादतें देती आ रही है। अमेरिकी साम्राज्यवाद के बल पर मध्य-पूर्व में लठैती करने वाली ज़ायनवादी नात्सी सत्ता तमाम हथियारों के जखीरों, तमाम हत्याकाण्डों और निरन्तर दमन और अपमान थोपने के बावजूद फ़लस्तीन की जनता को झुका पाने में नाकामयाब रही है। अनगिनत कुर्बानियाँ, असीम दुख और तकलीफ़ें झेलने वाले फ़लस्तीनी लोगों का साहस और सहनशक्ति चट्टान के समान मज़बूत हो चुका है। लेकिन वहीं ज़ायनवादी फासीवादी इज़रायल की सत्ता अपनी हिफ़ाज़त के दुनिया भर के साज़ो-सामान के बावजूद बुरी तरह कायर और डरपोक हो चुकी है। इसलिए आठ इज़रायलियों का मारा जाना पूरे इज़रायली समाज में एक भयंकर डर का माहौल पैदा कर रहा है, एक किस्म की स्थायी भयाक्रान्तता। वैसे तो साम्राज्यवादी और फासीवादी फितरत से ही कायर होते हैं, लेकिन जब दबाये गये, कुचले गये लोग बग़ावत करते हैं और हिंस्र तरीके से लड़ने लगते हैं तो उनकी भयाक्रान्तता सारी हदें पार कर जाती हैं। 13 अक्टूबर को जेरूसलम में हुई एक घटना इसी का प्रतीक है। एक ज़ायनवादी ने एक दूसरे ज़ायनवादी को फ़लस्तीनी अरब समझकर मार डाला। उसके अगले दिन ही ठीक ऐसी ही एक और घटना घटी। यह ज़ायनवादियों में व्याप्त भय का माहौल ही है जो ऐसी घटनाओं की तरफ़ ले जा रहा है। नेतनयाहू से लेकर तमाम ज़ायनवादी राजनीतिज्ञ व नेता इज़रायलियों को हमेशा साथ में बन्दूक रखने और शक़ होने पर ही गोली मार देने की सलाहें दे रहे हैं। नतीजा यह है कि सारे साम्राज्यवादी हरबे-हथियारों और सुरक्षा के बावजूद इज़रायली समाज के लोग शान्ति के साथ जीने का केवल सपना ही देख सकते हैं। उनका आयरन डोम मिसाइल सुरक्षा तन्त्र गाज़ा से आने वाले रॉकेटों को एक हद तक रोक सकता है (हालाँकि एक रॉकेट का भी इज़रायल के भीतर गिरना ज़ायनवादियों की रीढ़ की हड्डी तक कंपकंपी पैदा कर जाता है) लेकिन वे लोगों को कैसे रोक सकते हैं? इज़रायल की बसों, दुकानों, सड़कों और सार्वजनिक स्थानों पर हमले हो रहे हैं। आप सम्भावित हमलावरों को पहचान नहीं सकते। कब किस ओर से हमला हो सकता है, कोई नहीं जानता। इस नये फ़लस्तीनी विद्रोह ने, जिसे शायद भविष्य में तीसरे इन्तिफ़ादा का नाम दिया जाने लगे, इज़रायली औपनिवेशिक सेटलर समाज की कमज़ोर नस पर हाथ रख दिया है। यही कारण है कि तीन दिनों पहले ही नेतनयाहू की नीतियों के ख़िलाफ़ जेरूसलम में एक बड़ा प्रदर्शन हुआ। इसके विपरीत इज़रायल में ही एक धुर नात्सी ज़ायनवादी प्रतिक्रिया भी मौजूद है, जो कि फ़लस्तीनी कौम का जातीय सफ़ाया कर ‘अन्तिम समाधान’ कर देने के सपने देखती है। ज़ाहिर है, यह सम्भव नहीं है। इज़रायल, गाज़ा और वेस्ट बैंक की कुल आबादी को मिला दिया जाय तो उसमें इस समय करीब 63 लाख यहूदी आबादी है और अरब फ़लस्तीनी आबादी करीब 61 लाख है। इसके अलावा जॉर्डन में करीब 20 लाख फ़लस्तीनी शरणार्थी हैं, और लेबनॉन में 4.5 लाख, सिरिया में 4.7 लाख फ़लस्तीनी शरणार्थी हैं। इसके अलावा, पूरे अरब विश्व में लाखों फलस्तीनी शरणार्थी मौजूद हैं जिनमें से एक अच्छी-ख़ासी आबादी मज़दूरों की और छोटे-मोटे काम करने वाले लोगों की है। सिर्फ़ ऐतिहासिक फ़लस्तीन, यानी इज़रायल, वेस्ट बैंक और गाज़ा, के भीतर इज़रायली सर्वेक्षण के ही अनुसार फ़लस्तीनी आबादी 2016 तक यहूदियों से ज़्यादा हो जायेगी। ऐसे में, पूर्ण जातीय सफ़ाये के सपने किसी सूरत में सफल होने वाले नहीं हैं और ऐसा करने का कोई प्रयास पूरे अरब जगत में भयंकर विस्फोटक स्थिति पैदा करेगा क्योंकि बहुसंख्यक अरब जनता भावनात्मक तौर पर फ़लस्तीन के साथ जुड़ी हुई है और उसके साथ गहरी हमदर्दी रखती है। फ़लस्तीन के साथ हुई नाइंसाफ़ी अरब विश्व में इज़रायल और अमेरिका के ख़िलाफ़ बेपनाह नफ़रत का एक प्रमुख कारण है और एक अच्छी-ख़ासी आबादी अरब जनता की मुक्ति में फ़लस्तीन के प्रश्न को केन्द्रीय प्रश्न मानती है।

Abdul-Rahman-Al-Mozayen_Intifada-770x1034इन तमाम कारणों से इज़रायल में भी जिनका दिमाग़ सही जगह पर है वह मौजूद फ़लस्तीनी विद्रोह से चिन्तित हैं और नेतनयाहू की नीतियों की एक उदार ज़ायनवादी आलोचना कर रहे हैं। ज़ाहिर है, उदार ज़ायनवादी भी अगर सत्ता में होंगे तो फ़लस्तीनी जनता का वैसा ही दमन करेंगे, जैसा कि नेतनयाहू कर रहा है और इसका कारण यह है कि इज़रायली राज्य मध्य-पूर्व में साम्राज्यवाद द्वारा आयातित एक कृत्रिम वस्तु है और फ़लस्तीनी जनता का लगातार दमन और उत्पीड़न इसके अस्तित्व की एक शर्त है। यह मध्य-पूर्व में साम्राज्यवादी हितों की रखवाली के लिये और एक दौर में साम्राज्यवादी अरब जनउभार को प्रतिसन्तुलित करने के लिए पैदा किया गया एक उपकरण था। आज भी इज़रायल और ज़ायनवाद का औचित्य-प्रतिपादन केवल और केवल इसी तर्क से किया जा सकता है। मौजूद फ़लस्तीनी बग़ावत इज़रायली कब्ज़े को ख़त्म करने के लिए लड़ रही है और यह दिखला रही है कि फ़लस्तीनी मुक्ति संघर्ष दमन की लाख बर्बर हरक़तों के बाद भी ख़त्म नहीं होने वाला है और इज़रायली ज़ायनवादी चैन से बैठने का कभी सपना भी नहीं देख सकते हैं। इतिहास में पहले भी इज़रायल अमेरिकी साम्राज्यवादी मदद और समर्थन के बिना एक सप्ताह भी नहीं कायम रह सकता था और अब भी यह बात उतनी ही सच है। मध्य-पूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व और इज़रायली ज़ायनवादी सत्ता एक-दूसरे के अस्तित्व को बचाये रखने का काम करते हैं।

लेकिन चिन्ता की बात यह है कि आर्थिक मन्दी के कारण तीखी होती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के फलस्वरूप मध्य-पूर्व में जो नये साम्राज्यवादी समीकरण उपस्थित हो रहे हैं, वे मध्य-पूर्व में साम्राज्यवाद की पूरी संरचना में कुछ बुनियादी बदलाव लाने की दिशा में विकसित होने की सम्भावना रखते हैं। यहीं से हम आज की वैश्विक परिस्थिति में एक संक्रान्ति-काल के आरम्भ होने के दूसरे प्रमुख लक्षण पर आ सकते हैं। यह दूसरा लक्षण सीरिया में जारी युद्ध में प्रकट हो रहा है। अब यह सारी दुनिया के सामने साफ़ हो चुका है कि ओबामा सरकार ने बशर अल-असद की सरकार को गिराने और सीरिया में अपने लिए अनुकूल कोई सरकार बिठाने के लिए आईएस (इस्लामिक स्टेट) को खड़ा किया है। आईएस के सरगना बगदादी की अमेरिकी प्रशासन और इज़रायली एजेंसी मोसाद के अधिकारियों के साथ तस्वीरें अब सोशल मीडिया पर सार्वजनिक हो चुकी हैं; आईएस के पास भारी मात्र में टोयोटा ट्रक और अमेरिकी हथियारों की मौजूदगी भी यह बात साफ़ कर चुकी है। अमेरिका के मंसूबे ये थे कि रूस और ईरान के साथ करीबी रखने वाली बशर अल असद का तख़्तापलट करवाया जाय लेकिन यह खेल रूस ने फिलहाल तो बुरी तरह से बिगाड़ दिया है। सीरिया में असद शासन को पलटना अमेरिका के लिए इसलिए भी ज़रूरी हो गया था क्योंकि इराक़ को लेकर उसके सारे मंसूबे धरे के धरे रह गये थे। 2003 में इराक़ पर हमला इस उद्देश्य से किया गया था कि इराक़ में अमेरिकी साम्राज्यवाद के प्रति अनुकूल रवैया रखने वाले किसी शासन को स्थापित किया जाय। मगर इराक़ी प्रतिरोध युद्ध के कारण पहले तो अमेरिकी सेना को इराक़ छोड़कर भागना पड़ा और उसके जाने के बाद जो सरकार वहाँ सत्ता में आयी उसने ईरान से करीबी बढ़ा ली और असद के प्रश्न पर भी वह ईरान के साथ है। नतीजतन, अभी अमेरिका के पास मध्य-पूर्व में अब दो ही समर्थक रह गये हैं-सऊदी अरब और इज़रायल और इन दोनों के ही समर्थन पर अति-निर्भरता अमेरिकी साम्राज्यवाद के लिए मध्य-पूर्व में भारी दिक्कतें पैदा कर रही है। सीरिया में हस्तक्षेप, इराक़ में ही हस्तक्षेप के ही समान, इस कमी को दूर करने के लिए शुरू किया गया था। लेकिन रूस ने अपनी वायु सेना और नौसेना के ज़रिये प्रत्यक्ष हस्तक्षेप कर वाशिंगटन का ‘गेम प्लान’ ही बिगाड़ दिया है। इस हस्तक्षेप के कारण असद की सेनाओं ने आईएस को तमाम इलाकों से पीछे धकेल दिया है और आईएस तमाम अन्य इलाकों से भी भाग रहा है। वहीं उत्तर-पश्चिम में कुर्द लड़ाकों ने ‘कुर्दिश वर्कर्स पार्टी’ और वाई.पी.जी. के नेतृत्व में अपनी लड़ाई को जारी रखा है और आईएस को वापस अपने मुक्त किये गये क्षेत्र में घुसने नहीं दिया है। इसके अलावा, अमेरिका के लिए चिन्ता के और भी कई कारण हैं। चीन ने भी सीरिया में रूस की सहायता के लिए अपने सैन्य विशेषज्ञों को भेजा है और आने वाले समय में उसके प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से भी इंकार नहीं किया जा सकता है। सीरिया के आकाश से इज़रायली जेट ग़ायब हो गये हैं क्योंकि रूस ने स्पष्ट चेतावनी दी थी कि अगर इज़रायली जेट दिखायी पड़ेंगे तो उन्हें गिरा दिया जायेगा। ग़ौरतलब है कि इज़रायल हर रोज़ बार-बार दूसरे देशों के हवाई क्षेत्र में घुसपैठ कर अन्तरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करता है। इसके अलावा, जो सबसे अहम बात है वह यह है कि रूस, इराक़, ईरान और सीरिया ने आईएस के विरुद्ध सूचना साझा करने व अन्य कार्रवाइयों के लिए एक आधिकारिक मोर्चा बना लिया है।

यूरोपीय संघ भी इस मसले पर खुलकर अमेरिका के साथ नहीं आ रहा है। सिवाय ब्रिटेन के, जो कि रूसी हस्तक्षेप के विरुद्ध आक्रामक भाषा में बात कर रहा है, कोई भी रूसी सैन्य अभियान पर ज़्यादा खुलकर नहीं बोल रहा है। यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष ज्याँ-क्लॉड युंकर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि यूरोपीय संघ के पास रूसी सैन्य अभियान का विरोध करने की कोई ज़मीन नहीं है और यूरोपीय संघ को रूस के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाने से पहले सोचना चाहिए। इसका कारण यह भी है यूरोपीय संघ को प्राकृतिक गैस की आपूर्ति प्रमुख तौर पर रूस से होती है और अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं के लिए अधिकांश देश रूस पर निर्भर हैं। नतीजतन, फ्रांस द्वारा सीरिया में कुछ हवाई हमलों को छोड़ दें तो कोई भी यूरोपीय देश सीरिया में सीधे कोई भी कार्रवाई करने से बच रहा है और फ्रांस के हवाई हमलों का निशाना भी असद के सैन्य बल नहीं थे, बल्कि आईएस के ठिकाने थे।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मध्य-पूर्व में अमेरिका के विकल्प लगातार कम होते गये हैं और अब उसके पास दो ऐसी शक्तियों के अलावा मध्य-पूर्व में कोई भी मित्र नहीं बचा है जिनमें से एक फ़लस्तीनी जनता के नात्सियों से भी गये-गुज़रे दमन के लिए कुख्यात है और जिसका दुनिया के कई देश बहिष्कार कर चुके हैं और दूसरा एक राजतन्त्र है जो कि अपनी मध्ययुगीन बर्बरता, मेहनतकशों की गुलामी और अश्लील पूँजीवादी आधुनिकता के लिए कुख्यात है। ऐसे में, दुनिया भर में लोकतन्त्र का निर्यात करने का दावा करने वाले अमेरिका के लिए तमाम राजनीतिक दिक्कतें पैदा होती हैं, विदेशों में भी अपने घर पर भी। अमेरिका के सामने विकल्पों के कम होते जाने की कहानी के साथ जो कहानी जारी है वह यह है कि रूसी-चीनी साम्राज्यवादी धुरी अपनी आर्थिक और सैन्य शक्तिमत्ता में बढ़ोत्तरी के साथ मध्य-पूर्व में अभी तक एक प्रकार से प्रश्नेतर रहे अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दे रही है और वहाँ पर अपने हिस्से को विस्तारित करने के लिए पहले से ज़्यादा खुले तौर पर हस्तक्षेप कर रहा है। अमेरिका इस चुनौती के समक्ष इस समय ज़्यादा कुछ कर भी नहीं पा रहा है और जो कुछ कर रहा है वह उसके साम्राज्यवादी मंसूबों को दुनिया के सामने और ज़्यादा नंगा कर रहा है। मिसाल के तौर पर, 12 अक्टूबर को अमेरिका सेना ने उत्तरी सीरिया में 50 टन हथियार गिराये जो कि कहने के लिए “नरम विद्रोहियों” (गैर-आईएस असद-विरोधी विद्रोहियों के लिए ईजाद किया गया शब्द) के लिए थे, मगर कुछ ही घण्टों में यह स्पष्ट हो गया कि यह दुम दबाकर भाग रहे आईएस आतंकवादियों को पहुँचायी जा रही मदद है।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मध्य-पूर्व में अमेरिकी प्रभुत्व एक गम्भीर चुनौती झेल रहा है और सीरिया युद्ध में उसका ‘बैकफुट’ पर जाना बदलती परिस्थितियों का एक महत्वपूर्ण लक्षण है। निश्चित तौर पर, यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगा कि अमेरिकी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के दिन मध्य-पूर्व में अब गिने हुए हैं क्योंकि पूरी दुनिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद की चौधराहट का एक अहम आधार मध्य-पूर्व पर उसका भू-राजनीतिक प्रभुत्व है। यही कारण है कि मित्र शक्तियों के नये विकल्प न खड़े होने की सूरत में अमेरिकी साम्राज्यवाद सऊदी राजतन्त्र और इज़रायली ज़ायनवादियों के ज़रिये ही अपने प्रभुत्व को बनाये रखने का प्रयास करेगा। लेकिन यह अमेरिकी साम्राज्यवाद की अरब विश्व में मौजूदगी को कम-से-कम विचारधारात्मक बनायेगा और पूरे अरब विश्व में इस अमेरिकी धुरी के लिए तमाम मुश्किलें पैदा करेगा। इराक़ अमेरिकी प्रभाव-क्षेत्र से बाहर जा रहा है (ग़ौरतलब है कि इराक़ी सेना ने 13 अक्टूबर को दावा किया कि उसने आईएस की मदद के लिए जा रहे अमेरिकी हथियार खेप को ज़ब्त किया है और इस विषय में उसने अमेरिकी विदेश विभाग से स्पष्टीकरण माँगा है), ईरान पहले ही अमेरिकी गुट के बाहर था, सीरिया अमेरिका के ख़िलाफ़ है। लेबनॉन में हिज़बुल्ला की सशक्त मौजूदगी (यह भी ग़ौरतलब है 13 अक्टूबर को हिज़बुल्ला के सैन्य दस्ते आईएस के विरुद्ध लड़ने के लिए अलेप्पो समेत सीरिया के दो शहरों में पहुँचे हैं) लेबनॉन की किसी भी सरकार के लिए अमेरिका के किसी भी मुखर समर्थन को असम्भव बना देती है और साथ ही लेबनॉनी जनता में इज़रायल-विरोधी सशक्त भावना के कारण भी यह असम्भव है। जॉर्डन भी अगर मुखर अमेरिका-विरोध के खेमे में नहीं जाता है तो यह भी साफ़ है कि इज़रायली ज़ायनवाद के प्रति वहाँ के लोगों में ज़बर्दस्त नफ़रत के कारण वह अमेरिकी-धुरी के किसी मुखर समर्थन की छोर की ओर कतई नहीं जा सकता है।

मौजूदा स्थिति यह है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद रूस, बल्कि कहना चाहिए कि रूसी-चीनी साम्राज्यवादी धुरी के मध्य-पूर्व में खुले हस्तक्षेप और ताज़ा फ़लस्तीनी बग़ावत के कारण एक मुश्किल हालत में है। इसका यह अर्थ कतई नहीं लगाया जा सकता है कि मध्य-पूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवाद और ज़ायनवाद के दिन पूरे हो गये हैं। यह भी ग़ौर करने लायक बात है कि रूस ने इज़रायल के विरुद्ध कोई खुला आक्रामक रुख़ नहीं अपनाया है और इज़रायल ने हाल ही में रूस के साथ आईएस के विषय में सूचना साझा करने की पेशकश भी की थी, हालाँकि इस पर रूस ने ज़्यादा गर्मजोशी नहीं दिखलायी। लेकिन रूस ने साथ ही यह भी कहा है कि वह एक फ़लस्तीनी राज्य के प्रति प्रतिबद्ध है। कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मौजूदा सीरियाई युद्ध के ख़त्म होने के बाद मध्य-पूर्व में कोई नया साम्राज्यवादी समीकरण उभर सकता है जिसमें कि रूस-चीन धुरी अपने प्रभाव-क्षेत्र और हिस्सेदारी को विस्तारित करे। यूरोपीय संघ अभी इस स्थिति में नहीं है कि वह खुले तौर पर कोई ऐसी आक्रामक अवस्थिति अपनाये जो कि रूस-चीन धुरी के विरुद्ध हो। ऐसे में, अमेरिकी साम्राज्यवादी प्रभुत्व का मध्य-पूर्व में कमज़ोर होना तय है।

पिछले कुछ वर्षों में, विशेष तौर पर दूसरे इराक़ युद्ध के बाद से अमेरिकी साम्राज्यवाद मध्य-पूर्व में सतही तौर पर ज़्यादा आक्रामक, हस्तक्षेपकारी और हत्यारा हुआ है लेकिन अगर सतह से नीचे देखें तो यह मध्य-पूर्व में कमज़ोर हुआ है। इसके विकल्प कम होते गये हैं और इज़रायल और सऊदी अरब को छोड़कर इसके अन्य मित्र इसका साथ छोड़कर या तो इसके विरोध में खड़े हो चुके हैं या फिर एक प्रतिकूल तटस्थता अपना चुके हैं। दूसरी ओर रूस-चीन धुरी ने अपने आपको मध्य-पूर्व में मज़बूत किया है। अगर मध्य-पूर्व में आने वाले कुछेक वर्षों में अमेरिकी साम्राज्यवाद और कमज़ोर होता है और निर्णायक और एकतरफ़ा प्रभुत्व ख़त्म होता है तो इसके प्रभाव मध्य-पूर्व ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में महसूस किये जायेंगे। निश्चित तौर पर, जनपक्षधर और प्रगतिशील परिप्रेक्ष्य से हम एक साम्राज्यवादी धुरी की जगह दूसरी साम्राज्यवादी धुरी का प्रभुत्व नहीं चाहेंगे। मगर यह भी स्पष्ट है कि संकट के फलस्वरूप दुनिया में तीख़ी होती साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ जनता के संघर्षों और क्रान्तिकारी आन्दोलनों को मिलेगा।

मिसाल के तौर पर मध्य-पूर्व में अमेरिकी प्रभुत्व के कमज़ोर होने का एक महत्वपूर्ण उपोत्पाद होगा ज़ायनवादी इज़रायल का कमज़ोर होना। ज़ायनवादी इज़रायल के कमज़ोर होने का अर्थ होगा फ़लस्तीनी मुक्ति संघर्ष का मज़बूत होना। निकट भविष्य में फ़लस्तीन के प्रश्न का कोई समाधान हो जायेगा (जो कि हमारे विचार में केवल एक ही हो सकता है-एक समाजवादी फ़लस्तीनी गणराज्य जिसमें कि मुसलमान, ईसाई और यहूदी साथ रह सकें) ऐसा उम्मीद करने की अभी कोई ठोस वजह हमारे पास नहीं है। लेकिन इतना तय है कि साम्राज्यवाद आम तौर पर मध्य-पूर्व में कमज़ोर होगा और जनसंघर्षों के लिए मिस्र और लिबिया से लेकर फ़लस्तीन और सीरिया तक नयी सम्भावनाएँ पैदा करेगा। हम अभी यह पूर्वानुमान नहीं लगा सकते हैं कि आने वाले समय में पैदा होने वाला राजनीतिक समीकरण ठीक-ठीक किस प्रकार का होगा। लेकिन साम्राज्यवाद जिस स्थिति में है और जिस नाजुक सन्तुलन पर टिका हुआ है, उसके मद्देनज़र इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि किसी भी किस्म का बड़ा बदलाव उसके लिए गम्भीर दिक्कतें पैदा करेगा, न सिर्फ़ मध्य-पूर्व में बल्कि पूरी दुनिया में। इन अर्थों में हम कह सकते हैं कि दुनिया एक संक्रमणकाल में प्रवेश करती दिख रही है। चाहे यह संक्रमणकाल जनक्रान्तियों के किसी नये चक्र का तत्काल उद्घाटन न भी करे तो यह दुनिया भर में साम्राज्यवाद-विरोधी पूँजीवाद-विरोधी संघर्षों के लिए बेहतर सिद्ध होगा। साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा के बढ़ने के साथ विश्व पूँजीवादी व्यवस्था के अन्तरविरोध निश्चय ही और ज़्यादा गहराएँगे और नयी प्रगतिशील सम्भावनाओं को जन्म देंगे।

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

seventeen − 15 =