Monthly Archives: September 2013

नमो फासीवाद : नवउदारवादी पूँजीवाद की राजनीति और असाध्य संकटग्रस्त पूँजीवादी समाज में उभरा धुरप्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन

इस नवफासीवादी लहर का मुकाबला न तो कुछ पैस्सिव किस्म की बौद्धिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से किया जा सकता है, न ही ‘सर्वधर्मसमभाव’ की अपीलों से। यह केवल संसदीय चुनाव के दायरे में जीत-हार का सवाल भी नहीं है। सत्ता में न रहते हुए भी ये फासीवादी जनता को बाँटने की साजिशें और दंगे भड़काने का खूनी खेल जारी रखेंगे। जो जेनुइन सेक्युलर बुद्धिजीवी हैं, उन्हें अपने आरामगाहों ओर अध्ययन कक्षों से बाहर आकर, प्रतिदिन, लगातार, पूरे समाज में और मेहनतकश तबकों में जाना होगा, तरह-तरह से उपक्रमों से धार्मिक कट्टरपन्‍थ के विरुद्ध प्रचार करना होगा, साथ ही जनता को उसकी जनवादी माँगों पर लड़ना सिखाना होगा, मजदूरों को नये सिरे से जुझारू संगठनों में संगठित होने की शिक्षा देनी होगी, पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष के ऐतिहासिक मिशन से उन्हें परिचित कराना होगा, उन्हें भगतसिंह, राहुल और मजदूर संघर्षों की गौरवशाली विरासत से परिचित कराना होगा। मजदूर वर्ग के अग्रिम तत्वों और क्रान्तिकारी वाम की कतारों को तृणमूल स्तर पर जनता के बीच ये कार्रवाईयाँ चलाते हुए संघ परिवार के जमीनी तैयारी के कामों का प्रतिकार करना होगा। यह लड़ाई सिर्फ 2014 के चुनावों तक की ही नहीं है। यह एक लम्‍बी लड़ाई है।

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उद्धरण : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

जो लोग पूँजीवाद का विरोध किये बिना फ़ासीवाद का विरोध करते हैं, जो उस बर्बरता पर दुखी होते हैं जो बर्बरता के कारण पैदा होती है, वे ऐसे लोगों के समान हैं जो बछड़े को जिबह किये बिना ही मांस खाना चाहते हैं। वे बछड़े को खाने के इच्छुक हैं लेकिन उन्हें ख़ून देखना नापसन्द है। वे आसानी से सन्तुष्ट हो जाते हैं अगर कसाई मांस तौलने से पहले अपने हाथ थो लेता है। वे उन सम्पत्ति सम्बन्धों के ख़िलाफ़ नहीं हैं जो बर्बरता को जन्म देते हैं read more

जाति प्रश्न और उसका समाधान: एक मार्क्सवादी दृष्टिकोण

जाति का प्रश्न सहस्राब्दियों पुराना प्रश्न है। इसे चुटकियों में हल करने का कोई रामबाण नुस्खा नहीं हो सकता। यह एक लम्‍बी, श्रमसाध्य प्रक्रिया की माँग करता है। यह सवाल पूँजीवाद के नाश के साथ जुड़ा हुआ है। आज के समय में जाति उन्मूलन की किसी परियोजना की दिशा में आगे कदम बढ़ाना एक साहसिक काम होगा। लेकिन हर कठिन काम साहसिकता की माँग तो करता ही है। आज जाति उन्मूलन स्वप्न जैसा लग सकता है, लेकिन उस स्वप्न का यदि वैज्ञानिक आधार हो तो उसे यथार्थ में बदला ही जा सकता है। ऐसा सपना तो हर सच्चे क्रान्तिकारी को देखना चाहिए। read more

पाठकों के पत्र : दिशा सन्धान-2, जुलाई-सितम्बर 2013

पहले ‘दायित्वबोध’ के रूप में प्रकाशित होती रही पत्रिका को फ़िर से आगे बढ़ाने के आपके प्रयास का मैं दिल से स्वागत करता हूँ। मैं मार्क्सवाद-लेनिनवाद की हिफाज़त और विचारधारा के अहम सवालों पर पोलेमिक में इसके ज़बर्दस्त योगदान को भूल नहीं सकता। आज सर्वहारा अधिनायकत्व और अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के मूलभूत सिद्धान्तों की हिफाज़त और इस प्रकार मार्क्स, लेनिन और माओ की शिक्षाओं की जीजान से रक्षा करने के लिए ऐसी पत्रिका की अत्यन्त आवश्यकता है। read more

फ़ासीवाद की बुनियादी समझ नुक्तेवार कुछ बातें

‘फ़ासीवाद सड़ता हुआ पूँजीवाद है’ (लेनिन)। यह एक परिघटना है जो साम्राज्यवाद के दौर में पूँजीवाद के आम संकट के गहराने के साथ जन्मी थी। अब विश्व पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट और उससे निजात पाने के ‘नवउदारवादी’ नुस्खों के दौर में फ़ासीवादी राजनीति सभी पूँजीवादी देशों में विविध रूपों में सिर उठा रही है और विशेषकर भारत जैसे पिछड़े पूँजीवादी देशों में धार्मिक कटटरपंथी फ़ासीवाद एक शक्तिशाली उभार के रूप में सामने आ रहा है read more