दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड, जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट और सरकार का अपराध कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2013

दिल्ली सामूहिक बलात्कार काण्ड, जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट और सरकार का अपराध कानून (संशोधन) अध्यादेश, 2013

  • कात्यायनी

16 दिसम्बर 2012 की रात दिल्ली में एक चलती चार्टर्ड बस में एक 23 वर्षीय पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए बर्बर सामूहिक बलात्कार और उसके बाद मृत्यु से लम्बे संघर्ष के बाद उस छात्र की मृत्यु ने पूरे देश की अन्तरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। इस घटना के तुरन्त बाद से ही छात्रों-युवाओं, स्त्रियों, मज़दूर संगठनों और न्यायप्रिय नागरिकों ने सड़कों पर उतरकर अपने गुस्से का इज़हार करना शुरू किया, जो आने वाले एक-डेढ़ महीने तक लगातार जारी रहा। जो लोग इस बर्बर घटना के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरे, उनमें से तमाम इस काण्ड के अपराधियों के ख़िलाफ़ मृत्यु दण्ड की माँग कर रहे थे, कुछ अन्य रासायनिक या शल्य-क्रिया द्वारा अपराधियों को बधिया कर देने की माँग कर रहे थे। देश के तमाम क्रान्तिकारी संगठनों और बुद्धिजीवियों ने इस तथ्य की ओर देश का ध्यानाकर्षित किया कि बढ़ते स्त्री-विरोधी अपराधों और विशेष तौर पर बलात्कार की घटनाओं के लिए समूचा पूँजीवादी पितृसत्तात्मक सामाज़िक-आर्थिक और राजनीतिक ढाँचा ज़िम्मेदार है। मौजूद व्यवस्था ने ही समाज और राजनीति में ऐसे तत्वों, ऐसी मानसिकता और संस्कृति को जन्म दिया है जो ऐसे अपराधों को अंजाम दे रहे हैं। 1990 के दशक से पहले और 1990 के दशक के बाद से स्त्री-विरोधी अपराधों की संख्या में एक गुणात्मक परिवर्तन आया है। नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत के बाद से ही देश में एक नवधनाढ्य वर्ग अस्तित्व में आया है, ज़िसमें ठेकेदारों, ट्रांसपोर्टरों, प्रापर्टी डीलर, शेयर मार्केट के दलाल, आई.टी. सेक्टर में काम करने वाला एक लम्पट मध्यम वर्ग, धनी किसान और कुलकों का वर्ग और व्यापारिक पेशों में लगा हुआ एक व्यापारिक टटपुँज़िया वर्ग शामिल है। यही वह वर्ग है जो कि कारपोरेट कम्पनियों के बाद नयी आर्थिक नीतियों का सबसे बड़ा लाभप्राप्तकर्ता है। इस वर्ग के पास अचानक ढेर सारा पैसा आ गया है। वह कार, घर, टी.वी., तमाम इलेक्ट्रॉनिक गैजेटों से लेकर जीवन की हर भौतिक सुख-सुविधा को ख़रीद सकता है। इस वर्ग के अन्दर किसी भी कीमत पर सबकुछ हासिल कर लेने की हवस सबसे ज़्यादा है। इस हवस की ज़द में अब न सिर्फ वस्तुएँ हैं, बल्कि इंसान भी आ गये हैं। चाहे वह कुख्यात निठारी काण्ड हो या फिर 16 दिसम्बर की घटना, ऐसी तमाम घटनाएँ वास्तव में इस वर्ग की आपराधिक हो चुकी हवस को ही प्रतिबिम्बित कर रहीं हैं।

दूसरी तरफ़ पूँजीवादी कारपोरेट मीडिया इस अन्धी हवस की संस्कृति को खाद-पानी देने का काम व्यवस्थित रूप से कर रहा है। हनी सिंह जैसे अपराधी और स्त्री-विरोधी मानसिकता के गायकों से लेकर स्त्री-विरोधी फिल्मों और संगीत का पूरे समाज में अद्वितीय फैलाव हुआ है। सामन्ती युग में स्त्रियाँ भोग की वस्तु थीं, ज़िनका भोग पुरुष अपने दिव्य रूप से प्रदत्त अधिकार के तहत कर सकता था। औरतों की इस गुलामी को पूँजीवादी व्यवस्था और समाज ने अपने हिसाब से सहयोजित किया है। अब औरत महज़ भोग की वस्तु नहीं रह गयी है, बल्कि उपभोग और विनिमय की वस्तु या माल में तब्दील कर दी गयी है। इस पूँजीवादी मालकरण ने औरतों को वस्तुओं में भी निकृष्टतम कोटि की वस्तु बना दिया है। 16 दिसम्बर की घटना से पहले भी हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में बलात्कार और विशेषकर सामूहिक बलात्कार की घटनाओं में ज़बर्दस्त वृद्धि हुई थी और 16 दिसम्बर के बाद भी पूरे देश से ऐसी घटनाओं की ख़बरों में कमी आने की बजाय बढ़ोत्तरी ही दर्ज़ की गयी है। यह दिखला रहा है कि समाज का यह खाता-पीता लम्पट मध्यवर्ग किसी भी प्रकार के नपुंसक विरोध प्रदर्शनों से रुकने वाला नहीं है। न तो कोई नया कानून इसे रोक सकता है और न ही नसीहतें और नैतिकीकरण की मुहिमें।

तीसरी चीज़ जो इस पूरे स्त्री-विरोधी परिवेश और मानसिकता को बढ़ावा दे रही है वह स्वयं इस देश के बुर्जुआ शासक वर्ग के तमाम हिस्सों के दिमाग़ में भरी हुई सड़ाँध, जो कि इस घटना के बाद किसी संक्रमित हो चुके फोड़े से निकल पड़ने वाली पीप के समान फूटकर बाहर आ गयी। चाहे वह प्रणब मुखर्जी के बेटे की ‘डेण्टेड पेण्टेड औरतों’ वाली टिप्पणी हो या फिर अपराधी धार्मिक बाबा आसाराम बापू का यह बयान हो कि उस लड़की को अपने बलात्कारियों से संघर्ष नहीं करना चाहिए था, बल्कि उन्हें ‘भइया’ कहकर रहम की भीख माँगनी चाहिए थी! शरद यादव, ममता बनर्जी समेत लगभग सभी पार्टियों के नेताओं ने औरतों को नैतिकता और संयम की नसीहतें जारी कर दीं और अपने असली रंग दिखला दिये! वहीं ‘तहलका’ पत्रिका के एक स्टिंग ऑपरेशन ने दिखलाया कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की पुलिस और नौकरशाही का यह मानना है कि औरतें स्वयं बलात्कारों की ज़िम्मेदार हैं! किसी का कहना था कि औरतें स्वयं ऐसी स्थितियों को छोटे कपड़े पहनकर और अपने पुरुष मित्रों के साथ बाहर निकलकर आमन्त्रण देती हैं, तो दूसरों का कहना था कि औरतों ने इसे एक व्यवसाय बना लिया है। ज़िन अमानवीकृत अपराधियों को 16 दिसम्बर के बलात्कार काण्ड के सिलसिले में गिरफ्रतार किया गया, उनके बचाव पक्ष के वकील ने यह दलील दी कि उसने आज तक ऐसी किसी भी “इज़्ज़तदार” महिला के बारे में नहीं सुना है, ज़िसका बलात्कार हुआ हो! ऐसे तमाम बयानों से क्या सामने आता है? ऐसे बयानों से इस देश के शासक वर्गों और उनके पिछलग्गुओं की पूरी सड़ी हुई और बदबू मारती हुई मानसिकता सामने आती है। जब देश की संसद में 26 बलात्कार के और दर्जनों अन्य स्त्री-विरोधी अपराधों के आरोपी बैठे हों, जब पुलिस थानों में बलात्कार हो रहा हो, और जब सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम और अशान्त क्षेत्र अधिनियम के तहत आने वाले प्रदेशों में बिना किसी सज़ा के डर के सेना उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की स्त्रियों का बलात्कार कर रही हो, जब हरियाणा, राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश में दबंग उच्च जातियों के अपराधी दलित महिलाओं का बलात्कार कर रहे हों तो फिर आप इस पूरी दमनकारी, उत्पीड़नकारी और शोषक पूँजीवादी व्यवस्था से स्त्री-विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ कोई कदम उठाने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? आप ऐसी कोई नादान आशा कैसे पाल सकते हैं कि यह बुर्जुआ वर्ग और उसकी राज्य मशीनरी स्त्री-विरोधी अपराधों पर कोई निर्णायक कदम उठायेगी?

ज़्यादा से ज़्यादा यह व्यवस्था क्या कर सकती है? जी हाँ, यह कोई समिति या आयोग बिठा सकती है। पिछले कुछ समयों में तमाम सरकारी समितियों और आयोगों ने वैसी ही रपटें और अनुशंसाएँ तैयार की हैं, ज़िनसे कि शासक वर्गों को कोई असुविधा न हो। इस मामले में यह मानना होगा कि जस्टिस वर्मा समिति की रपट कई मायनों में भिन्न है। इसने जो रिपोर्ट तैयार की है वह राज्यसत्ता और सरकार से स्वायत्त रहते हुए की है और इसने कई असुविधाजनक सवाल सरकार के सामने खड़े किये हैं। लेकिन इसके बावजूद इस समिति की रपट आने के बाद सरकार ने 3 फरवरी 2013 को जो अध्यादेश राष्ट्रपति से पास करवाया है, उसने इस रपट की सबसे केन्द्रीय और रैडिकल अनुशंसाओं पर साज़िशाना चुप्पी साध रखी है। वास्तव में, यह अध्यादेश स्त्री-विरोधी है और स्त्री-विरोधी ताक़तों के हाथ मज़बूत करता है।

सरकार ने जनान्दोलनों और व्यापक स्वतःस्फूर्त जन प्रतिरोध के कारण 16 दिसम्बर की घटना के बाद जस्टिस जे.एस. वर्मा के नेतृत्व में एक समिति बनायी ज़िसके सदस्यों में जस्टिस लीला सेठ और वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल सुब्रमन्यम भी शामिल थे। इस समिति ने ठीक एक माह में ही अपनी रिपोर्ट बनाकर सरकार को सौंप दी, जो कि एक रिकॉर्ड है। और यह रिकॉर्ड इस मायने में भी ग़ौरतलब है कि यह रिपोर्ट 631 पेजों की है, ज़िनमें आँकड़ों की तालिकाओं में बिरले ही कुछ पन्ने ख़र्च हुए हैं। कई मामलों में यह रिपोर्ट सरकारी समितियों द्वारा पेश की गयी रिपोर्टों में सबसे रैडिकल रिपोर्टों में गिनी जायेगी। इस रिपोर्ट की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यह सिर्फ इस सवाल तक सीमित नहीं रही है कि स्त्री-विरोधी विभिन्न अपराधों के लिए कैसी और कितनी सज़ा होनी चाहिए। यह रिपोर्ट बढ़ते स्त्री विरोधी अपराधों सामाज़िक मूलों तक जाने का प्रयास करती है और साथ ही कानून व्यवस्था और संविधान के भीतर भी स्त्रियों के प्रति जो इरादतन या ग़ैर-इरादतन पूर्वाग्रह भरे हुए हैं, उनका अतिक्रमण करने का प्रयास करती है। इस मायने में निश्चित तौर पर इस रिपोर्ट का चरित्र प्रगतिशील है। लेकिन साथ ही इस रिपोर्ट का स्वर बुर्जुआ नारीवाद के उदारतावाद के साथ भी मेल खाता है। इस रिपोर्ट ने फाँसी की सज़ा का विरोध किया है और इसे अनुत्पादक और कई मामलों में अन्यायपूर्ण बताया है। इसके पीछे रिपोर्ट में जो प्रमुख तर्क दिये गये हैं, वह इस समिति ने तमाम नारीवादी संगठनों से बातचीत करके अपनाये हैं। और ये तर्क वही हैं जो कि मृत्युदण्ड के सवाल पर वर्ग निरपेक्ष बुर्जुआ मानवतावाद लम्बे समय तक देता रहा है। लेकिन एक तर्क इस रिपोर्ट ने और भी रखा है जो कि विचारणीय है। वह तर्क यह है कि अगर बलात्कार के ऐसे अपराधों के लिए, ज़िसमें कि पीड़िता की मौत हो जाती है, फाँसी की सज़ा निर्धारित की जाती है, तो दोषसिद्धि की दर जो कि पहले ही बहुत दयनीय है, वह और भी ख़राब हो जायेगी। हम कह नहीं सकते कि इस तर्क में कितना दम है, लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि फिलहाल अगर बलात्कार के ‘दुर्लभ में भी दुर्लभतम’ मामलों में फाँसी की सज़ा तय कर भी दी जाये (जो कि निश्चित तौर पर की जा सकती है, बल्कि की जानी चाहिए और इसमें हमारा कोई भी बुर्जुआ मानवतावादी पूर्वाग्रह नहीं है) तो मुख्य सवाल इस बात का है, कि ज़िस राज्य मशीनरी (न्यायिक और कार्यकारी) को यह कानून लागू करना होगा, वह अधिकांश मामलों में क्या दोषसिद्धि कर भी पायेगा? वर्तमान स्थिति यह है कि बलात्कार के मामलों में मात्र 26 प्रतिशत में दोषसिद्धि हो पाती है। इसके लिए हमारी पूरी न्यायिक और विधिक व्यवस्था ज़िम्मेदार है। इस व्यवस्था में स्त्री-विरोधी पूर्वाग्रह गहरे तक जड़ जमाये हुए हैं। जहाँ तक पुलिस, सेना और नौकरशाही की बात है, तो हम जानते हैं कि इसमें बड़ी आबादी भी भयंकर पुरुषवादी मानसिकता वाले लोग भरे हुए हैं, जो पहले से ही हर स्त्री-विरोधी अपराध में औरत को ज़िम्मेदार मानकर चलते हैं। और न्यायपालिका की हालत भी कोई बड़ी अच्छी नहीं है। अगर भँवरी देवी मामले को याद करें तो हम पाते हैं कि न्यायालय ने यह कह कर आरोपियों को बरी कर दिया था कि उच्च जाति के पुरुष निम्न जाति की महिला के साथ बलात्कार कर ही नहीं सकते क्योंकि यह उनकी शुद्धता की अवधारणाओं के ख़िलाफ़ है! वहीं मथुरा केस में न्यायालय ने एक दलित स्त्री का थाने में सामूहिक बलात्कार करने वाले पुलिसवालों को यह कहकर बरी कर दिया था, कि यह दलित महिला पहले से यौन सम्बन्ध स्थापित करने की आदी है और उसका बलात्कार हो ही नहीं सकता है! इसमें यह निहित है कि यदि कोई युवती यौनिक तौर पर सक्रिय है तो उसका बलात्कार नहीं हो सकता। उसका हर यौन सम्बन्ध सहमति से बनाया हुआ यौन सम्बन्ध माना जायेगा। यही बात कानून के इस वाक्यांश में निहित है जो कहता है ‘औरत के सतीत्व (मॉडेस्टी) का हरण करना’! इसके अनुसार, यदि कोई औरत जो कि शादीशुदा नहीं है, और यौनिक तौर पर सक्रिय है, तो उसका कभी बलात्कार नहीं हो सकता! यह सोच सीधे.सीधे पूरी कानून व्यवस्था को स्त्रियों के ख़िलाफ़ खड़ा कर देती है। यह स्त्रियों को अपने शरीर पर हक़ नहीं देती और उसे यह तय करने का अधिकार नहीं देती कि वह किसे अपने साथी के तौर पर चुने या किसके साथ सहवास करे। यह अधिकार सिर्फ पुरुष को दिया जाता है।

जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट इस अन्तर्निहित अवधारणा पर चोट करती है, जब वह कहती है कि खाप पंचायतों और इसी प्रकार की नैतिक पुलिसिंग करने वाली जातिगत व अन्य प्रकार की संस्थाओं को व्यक्तियों द्वारा, चाहे वह स्त्री हों या पुरुष, अपने जीवन.साथी का चुनाव करने के अधिकार में कोई हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। साथ ही समिति की रिपोर्ट कहती है कि यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह व्यक्तियों के इस अधिकार को सुनिश्चित करे और यह सुनिश्चित करे कि कोई भी समुदाय, जाति, धर्म आदि की परम्पराओं का हवाला देकर इन अधिकारों का हनन न करे। लेकिन इस रिपोर्ट के आने के बाद सरकार ने जो अध्यादेश पास किया है, ज़िस पर कि 3 फरवरी को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने हस्ताक्षर किये, उसमें खाप पंचायतों के कुकर्मों पर रोक लगाने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है। उल्टे इस अध्यादेश में एक ऐसी बात कही गयी है, जो कि खाप पंचायतों और तमाम नैतिक पुलिसिंग करने वाली संस्थाओं के हाथ कानूनी तौर पर मज़बूत करती है। इस अध्यादेश में वयस्कों और अवयस्कों के खि़लाफ़ किये जाने वाले यौन अपराधों के बीच का फर्क समाप्त कर दिया गया है। ग़ौरतलब है कि अवयस्कों के साथ बनाया जाने वाला कोई भी यौन सम्बन्ध सहमति से बनाया गया यौन सम्बन्ध नहीं माना जाता है। लेकिन अगर इसी तर्क को वयस्कों के ऊपर लागू कर दिया जाता है तो अगर कोई दो युवा अपनी सहमति से यौन सम्बन्ध बनाते हैं तो उसे भी यौन अपराध के दायरे में लाया जा सकता है, कम-से-कम तकनीकी तौर पर। ऐसे में, यह कानून एक ऐसा गैप छोड़ देता है ज़िसका इस्तेमाल निश्चित तौर पर समाज की प्रतिक्रियावादी ताक़तें करेंगी, और विशेष तौर पर इसका इस्तेमाल युवाओं द्वारा अपने यौन और वैवाहिक साथियों को चुनने के अधिकार पर हमला करने के लिए किया जायेगा।

इस समिति के प्रस्तावों में जो एक अन्य सकारात्मक प्रस्ताव है, वह है कुछ दमनकारी कानूनों को लेकर। विशेष तौर पर समिति की रिपोर्ट सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून, अशान्त क्षेत्र कानून आदि को लेकर अपनी चिन्ता प्रकट करती है। इन कानूनों के अनुसार कश्मीर, छत्तीसगढ़ और उत्तर-पूर्व के राज्यों में सशस्त्र बलों के ख़िलाफ़ दण्डात्मक कार्रवाई नहीं हो पाती है। नतीजतन, सशस्त्र बल के जवान इन इलाकों की जनजातीय और दमित राष्ट्रीयताओं की स्त्रियों के साथ मनचाहा बर्ताव करने को आज़ाद होते हैं, और उन्हें सज़ा का भी कोई डर नहीं होता है। कश्मीर के कुनान पोशपुरा का सामूहिक बलात्कार काण्ड हो या मणिपुर में मनोरमा बलात्कार काण्ड, बार-बार सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून का जनद्रोही, जनविरोधी और दमनकारी चरित्र सामने आ चुका है। इसके बावजूद सरकार ने इस कानून को वापस लेने या रद्द करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। कभी इसके लिए सेना की असहमति का हवाला दिया जाता है तो कभी राष्ट्र की सुरक्षा का वास्ता दिया जाता है। नये अध्यादेश में भी सरकार ने जस्टिस वर्मा समिति द्वारा इन दमनकारी कानूनों को वापस लिये जाने और उन पर पुनर्विचार की सिफ़ारिश के बावजूद सरकार ने उसे पूरी तरह से नज़रअन्दाज़ कर दिया है। जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट सरकार को चेतावनी देती है कि अगर सरकार इन मसलों पर और विशेष तौर पर स्त्री-विरोधी अपराधों के मसले पर राजनीतिक घमण्ड और अहंकार के साथ प्रतिक्रिया देती है, तो आने वाले समय में पूरे राजनीतिक वर्ग से जनता की रही-सही आस्था भी ख़त्म हो जायेगी और इसका ख़ामियाज़ा जल्द ही व्यवस्था को भुगतना पड़ सकता है।

लेकिन कांग्रेस-नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने इस समस्या का अच्छा समाधान ढूँढा है। उसने जस्टिस वर्मा समिति की अहम सिफ़ारिशों पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया है, और अध्यादेश में ऐसे तमाम प्रावधान रखे हैं जो बारीकी में स्त्रियों की स्थिति को और कमज़ोर बनाने का काम करते हैं और साथ ही साथ स्त्री-विरोधी ताक़तों को मज़बूत बनाने का काम करते हैं। लेकिन साथ में सरकार ने 16 दिसम्बर की घटना के बाद आम जनसमुदायों द्वारा बलात्कार के लिए फाँसी की सज़ा निर्धारित किये जाने की माँग के जवाब में अध्यादेश में यह प्रावधान रखा है कि बलात्कार के ज़िन मामलों में पीड़िता की मौत हो जाती है, उनमें अधिकतम सज़ा फाँसी होगी। 16 दिसम्बर की घटना के तुरन्त बाद जस्टिस वर्मा समिति को नियुक्त करने और समिति की रिपोर्ट आने के तुरन्त बाद अध्यादेश को पेश करने के पीछे सरकार का मुख्य सरोकार था 2014 के आम चुनावों के लिए अपने रिकॉर्ड में एक उपलब्धि को जोड़ लेना, कि उसने बलात्कार और हत्या के अपराध के लिए नये अध्यादेश में फाँसी की सज़ा निर्धारित की है। लेकिन, वास्तव में इस सज़ा का कोई विशेष अर्थ नहीं होगा, जब तक कि मौजूद पूँजीवादी पितृसत्तात्मक शासन-व्यवस्था कायम है क्योंकि इस व्यवस्था के तहत दोषसिद्धि की दर कभी भी सन्तोषजनक नहीं हो सकती है। चाहे इसके लिए कितने ही फास्ट ट्रैक कोर्ट क्यों न बना दियें जायें। निश्चित तौर पर, स्त्री विरोधी अपराधों के मसलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का कोई विरोध नहीं करेगा और निस्सन्देह इनकी ज़रूरत है। लेकिन इससे समस्या का स्थायी समाधान सम्भव नहीं है।

जस्टिस वर्मा समिति इस बात की भी सिफ़ारिश करती है कि अगर कहीं पर सेना या पुलिस के जवान स्त्री-विरोधी अपराध करते हैं और वे सज़ा से बच जाते हैं, तो उनके ऊपर मौजूद सिविल अधिकारी उसके लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाय। समिति के इस प्रस्ताव पर भी सरकार का अध्यादेश शान्त है। समिति की रिपोर्ट कहती है कि विभिन्न प्रकार के यौनिक अपराधों में फर्क किया जाना चाहिए, जैसे कि स्त्रियों के ख़िलाफ़ किये जाने वाले यौन अपराध, पुरुषों के ख़िलाफ़ यौन अपराध, किन्नरों और ट्रांसजेण्डरों के ख़िलाफ़ किये जाने वाले यौन अपराध, और बच्चों के ख़िलाफ़ किये जाने वाले यौन अपराध। दूसरी बात यह कि समिति के अनुसार ‘बलात्कार’ शब्द के प्रयोग को छोड़ा नहीं जाना चाहिए, हालाँकि इसकी परिभाषा को और व्यापक बनाया जा सकता है। लेकिन सरकार ने जो अध्यादेश पेश किया है वह इन सभी सरोकारों की उपेक्षा करते हुए एक ओर तो यौन अपराधों में अपराधी को विशिष्ट तौर पर अलग-अलग मामलों में पुरुष या स्त्री के तौर पर चिन्हित नहीं करता और अपराधी को ‘व्यक्ति’ के तौर पर देखता है। सैद्धान्तिक तौर पर यह मानता है कि औरत भी बलात्कार कर सकती है! निश्चित तौर ऐसा हो भी सकता है, लेकिन अगर अलग-अलग मामलों में फर्क नहीं किया जायेगा तो यह एक ऐसी सामान्यता बन जायेगी, ज़िसका इस्तेमाल सभी बलात्कारी करेंगे। क्योंकि फिर जब भी कोई औरत बलात्कार की रपट दर्ज़ करायेगी तो अपराध करने वाला पुरुष उल्टे उस पर बलात्कार का आरोप लगायेगा। यह सामाज़िक यथार्थ को सैद्धान्तिक सम्भावनाओं के नाम पर पलट देने का काम करता है और स्त्री-विरोधी अपराधों के मामलों में स्त्रियों के पक्ष को कमज़ोर करता है। सरकार ने अपने अध्यादेश में ‘बलात्कार’ शब्द की जगह ‘यौनिक हिंसा’ शब्द को अपनाया है, जबकि जस्टिस वर्मा समिति ने इस पक्ष में ठोस तर्क पेश किये थे कि ‘बलात्कार’ शब्द को कानून में बनाये रखने की क्या प्रासंगिकता है।

जस्टिस वर्मा समिति की इस अनुशंसा पर बहस हो सकती है कि फाँसी की सज़ा नहीं दी जानी चाहिए। इसके पक्ष में आम तौर पर तीन तर्क किये जाते हैं। एक, हर मानव जीवन कीमती होता है। इसके जवाब में यह कहा जा सकता है कि ज़िन अपराधियों ने मानव होने की बुनियादी शर्तों को भी खो दिया है, जैसे कि 16 दिसम्बर के अपराधी, उनके बारे में “मानवीय जीवन के मूल्य” की बात करना ही बेकार है। दूसरा तर्क यह है कि कानून का मकसद सुधार करना होना चाहिए, बदला लेना नहीं। लेकिन ऐसे अपवादस्वरूप मामलों में सवाल सुधारने या बदला लेने का नहीं रहता। ऐसे बर्बर अमानवीकृत लोगों की न तो मानव समाज के लिए कोई उपयोगिता रह जाती है, और न ही पशु जगत के लिए। वास्तव में, जो इन अपराधियों ने किया था वह तो पशु भी नहीं करते हैं। तीसरा तर्क यह दिया जाता है कि मौत की सज़ा देने से बलात्कार के मामलों में दोषसिद्धि की दर घट जायेगी। यह तर्क भी किसी ठोस ज़मीन पर नहीं खड़ा है, क्योंकि दोषसिद्धि न हो पाने का रिश्ता सीधे तौर पर इस बात से नहीं है कि सज़ा क्या है। यह एक बहस का मुद्दा है कि बलात्कार के मसले में, और ख़ास तौर पर उन मसलों में ज़िनमें पीड़िता की मौत हो जाती है, या वह जीवन भर के लिए हर प्रकार से निष्क्रिय हो जाती है, मौत की सज़ा दी जाये या नहीं। लेकिन एक बात तय है कि किसी निरपेक्षतावादी परिप्रेक्ष्य से मौत की सज़ा का सैद्धान्तिक विरोध व्यर्थ और हानिकारक है। और निश्चित तौर पर इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि बर्बरता और जघन्यता के ऐसे दुर्लभतम मामलों में मौत की सज़ा के विकल्प को ख़ारिज न किया जाय। जस्टिस वर्मा समिति ने इसे बुर्जुआ मानवतावादी ज़मीन से ख़ारिज कर दिया है।

जस्टिस वर्मा समिति विभिन्न प्रकार के स्त्री-विरोधी अपराधों के लिए अलग-अलग सज़ाओं का निर्धारण करती है जैसे कि पीछा करने और परेशान करने के लिए कम-से-कम एक वर्ष और अधिक से अधिक तीन वर्ष, दर्शनरति के लिए जुर्माने के साथ 1 से 3 वर्ष और बिना जुर्माने के 3 से 7 वर्ष, निर्वस्त्र करने के लिए 3 से 7 वर्ष, तेज़ाब से हमला करने के लिए 5 से 7 वर्ष और पीड़िता को मुआवज़ा देना, आदि। लेकिन सरकार के अध्यादेश में अलग-अलग अपराधों की विशिष्टता और उनके लिए अलग-अलग दण्डों का विस्तृत रूप से प्रावधान नहीं किया है। सही कहें तो सरकार ने अपना अध्यादेश तैयार करने में जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट पर बहुत कम ध्यान दिया है और कुछ मसलों पर तो एक षड्यन्त्रकारी चुप्पी साध रखी है, जैसे कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून। इसी से सरकार के असली इरादों के बारे में काफी.कुछ पता चलता है।

16 दिसम्बर के बाद आनन-फानन में जस्टिस वर्मा समिति का निर्माण और उसकी रिपोर्ट आने के बाद उतनी ही आनन-फानन में नये अध्यादेश को लाने में कांग्रेस का प्रमुख लक्ष्य यह था कि दिल्ली में हुई बर्बर घटना के विरोध में जनता का जो रोष भयंकर तरीके से सड़कों पर फूटा उसे सहयोज़ित कर लिया जाय और यह दिखा दिया जाय कि सरकार जनता की भावनाओं का कितना ख़याल करती है। यही कारण है कि सरकारी अध्यादेश में बलात्कार के उन मामलों के लिए अधिकतम सज़ा के तौर पर फाँसी की सज़ा का प्रावधान किया गया है। ऐसा इसलिए नहीं है कि सरकार बलात्कार के आरोपियों (ज़िनमें आम तौर पर नवधनाढ्य वर्ग के लम्पट, नेता मन्त्री, नौकरशाह, व सेना तथा पुलिस के लोग होते हैं) के प्रति उतनी ही घृणा से भरी हुई है, जि‍तनी कि आम जनता। क्योंकि ऐसा होता तो सरकार को सबसे पहले अपने ही नेताओं-मन्त्रियों और नौकरशाहों को अक्सर उम्रकैद या फाँसी की सज़ा देनी पड़ जायेगी! ऐसा सिर्फ़ इसलिए है कि सरकार को 2014 के आम चुनावों में पेश करने के लिए एक चमकता-दमकता रिपोर्ट कार्ड चाहिए। इस रिपोर्ट कार्ड में दर्ज़ करने के लिए सरकार के पास और तो कुछ है नहीं। इसलिए उसे कुछ लोकरंजक कदम उठाने ही थे। चाहे वह मध्यवर्ग के “राष्ट्रवाद” को तुष्ट करने के लिए अफज़ल गुरू को गोपनीय तरीके से फाँसी दे देने का प्रश्न हो या फिर आनन-फानन में अपराधी कानून (संशोधन) अध्यादेश को पास कराने का मसला हो; कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार का कोई जनसरोकार इसके पीछे नहीं है। यह शुद्ध रूप से चुनावी कवायद है और चुनावी राजनीतिक सरोकारों से उठाये गये कूटनीतिक कदम हैं।

चूँकि यह पूरा अध्यादेश स्त्री-विरोधी अपराधों के प्रश्न पर किसी संवेदनशीलता या राजनीतिक ईमानदारी से बना ही नहीं है, इसलिए इससे यह उम्मीद करना भी व्यर्थ है कि यह समस्याओं का कोई समाधान प्रस्तुत करेगा। वास्तव में, यह पूरी व्यवस्था ही स्त्री-प्रश्न का कोई समाधान पेश नहीं कर सकती है। स्त्री-प्रश्न के समाधान के लिए इस समूची पूँजीवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सीमा का अतिक्रमण करते हुए सोचने की आवश्यकता है। अधिकारों के विमर्श में कैद और सीमित रहने की बजाय इस सीमा का तोड़ कर मुक्ति की परियोजना के बारे में गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है।

दिशा सन्धान – अंक 1  (अप्रैल-जून 2013) में प्रकाशित

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