उन समझदारों के लिए सबक जो हमेशा हाशिये पर पड़े रहना चाहते हैं

उन समझदारों के लिए सबक जो हमेशा हाशिये पर पड़े रहना चाहते हैं

  • अभिनव सिन्हा

समझदारों का गीत

हवा का रुख़ कैसा है, हम समझते हैं

हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं

हम समझते हैं ख़ून का मतलब

पैसे की क़ीमत हम समझते हैं

क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं

हम इतना समझते हैं

कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं

 

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं

बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम

हम बोलने की आज़ादी का

मतलब समझते हैं

टुटपुँजिया नौकरी के लिए

आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं

मगर हम क्या कर सकते हैं

अगर बेरोज़गारी अन्याय से

तेज़ दर से बढ़ रही है

हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के

ख़तरे समझते हैं

हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं

हम समझते हैं

हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं।

————

हम सरकार से दुखी रहते हैं

कि समझती क्यों नहीं

हम जनता से दुखी रहते हैं

कि भेड़ियाधँसान होती है

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं

हम समझते हैं

मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी

हम समझते हैं

यहाँ विरोध ही वाजिब कदम है

हम समझते हैं

हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं

हम समझते हैं

हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं

हर तर्क गोल-मटोल भाषा में

पेश करते हैं, हम समझते हैं

हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी

समझते हैं

वैसे हम अपने को किसी से कम

नहीं समझते हैं

हर स्याह को सफ़ेद और

सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं

हम चाय की प्यालियों में

तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं

करने को तो हम क्रान्ति भी कर सकते हैं

अगर सरकार कमज़ोर हो

और जनता समझदार

लेकिन हम समझते हैं

कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं

हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं

यह भी हम समझते हैं।

गोरख पाण्डेय

हाशिये पर खड़े लोगों के अपने दुःख होते हैं तो अपने सुख भी होते हैं। सवाल देखने के नज़रिये और ज़ोर का होता है। हाल ही में, हाशिये पर खड़े वामपन्थी आन्दोलन से लम्बे समय से जुड़े रहे एक बुद्धिजीवी रवि सिन्हा ने हाशिये पर खड़े अपने अन्य बिरादरों के लिए भारत में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के उभार के बरक्स कुछ सबक पेश किये हैं (http://nsi-delhi.blogspot.in/2014/05/lesson-for-saner-segments-of-margins.html व हिन्दी अनुवाद ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के जून, 2014 के अंक में प्रकाशित)। लेकिन इन सबकों को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि ये सबक हमेशा हाशिये पर ही कैसे खड़े रहें, इसका ‘यूज़र मैनुअल’ है। यूँ भी कह सकते हैं कि यह आज के सबसे ज़रूरी कार्यभारों को अनिश्चितकाल तक के लिए स्थगित कर देने का प्रस्ताव है।

इस लेख की एक विस्तृत आलोचना पेश करना हम कई कारणों से ज़रूरी समझते हैं, हालाँकि इस लेख में हाशिये पर खड़े (पड़े!?) लोगों का आवाहन किया गया है!

पहला कारण यह है कि यह लेख ‘हाशिये’ को काफ़ी आकर्षक बना देता है; नतीजतन, जो अभी हाशिये पर नहीं है और राजनीतिक मुख्य भूमि की ओर जा सकते हैं, या फिर जो हाशिये पर अपनी इच्छा या चुनाव से नहीं हैं या सम्भवतः हाशिये पर अपनी अवस्थिति के बारे में सचेत भी नहीं हैं; ऐसे सभी लोगों के लिए यह लेख ‘हाशिये’ को एक वांछनीय स्थान बना देता है। दूसरा कारण यह है कि ‘हाशिये’ को मनमोहक बनाने की प्रक्रिया में यह लेख इतिहास और विचारधारा दोनों के ही साथ बदसलूकी करता है। फ़ासीवाद के इतिहास और विचारधारा की इस ‘समझदारों के पाठ’ में जो समझदारी पेश की गयी है, उसे अधिकतम सम्भव उदारता के साथ लचर और बचकाना कहा जा सकता है। इसलिए कुछ अहम विचारधारात्मक और इतिहास-सम्बन्धी मुद्दों पर साफ़-नज़र होने के लिए भी हम इस लेख की आलोचना को ज़रूरी समझते हैं।

लेख में जो बातें कहीं गयीं हैं, उनकी क्रमानुसार या महत्वानुसार आलोचना की जा सकती है। चूँकि लेख में शैली और अन्तर्वस्तु की निरन्तरता कमोबेश बनी रही है, इसलिए क्रम का निर्धारण महत्व से ही हुआ है। और पाठकों की सुविधा के लिए लेख में पेश मुद्दों के क्रम के अनुसार अपनी आलोचना रखना ही उचित होगा। चूँकि प्रकाशित हिन्दी अनुवाद में कुछ स्थानों पर हमें शुद्धता का अभाव महसूस हुआ इसलिए हम मूल अंग्रेज़ी लेख को ही अपने स्रोत के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। जहाँ कहीं भी हमने लेखक को उद्धृत किया है, वह हमारा अनुवाद है।

सबकों की पृष्ठभूमि की तैयारीः भाषा में अन्तर्निहित भूगोल और स्थलाकृति

जब बदलाव करना सम्भव था

मैं आया नहीं: जब यह ज़रूरी था

कि मैं, एक मामूली सा शख़्स, मदद करूँ,

तो मैं हाशिये पर रहा।’

                (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, ‘सेण्ट जोन ऑफ दिन स्टॉकयार्ड्स’)

लेखक मानता है कि उनका सरोकार उस हाशिये से नहीं है जो कि राजनीतिक मुख्यभूमि के दक्षिण में पड़ता है, बल्कि उस हाशिये से है जो कि इस मुख्यभूमि के वाम पक्ष में पड़ता है। लेखक चिन्तामग्न है कि पूरा का पूरा वाम अब इस हाशिये पर ही चला गया है। यद्यपि परम्परागत वाम इस बात को अभी स्वीकार नहीं कर सका है। लेखक यह भी मानता है कि स्वयं उसके जीवन का बहुलांश इस हाशिये पर बीता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस हाशिये पर नये वामपन्थी आगन्तुकों का वह एक बहुआयामी विडम्बना-बोध के साथ स्वागत कर रहा है। इस विडम्बना-बोध का एक आयाम तो यह है कि इसके नवागन्तुकों का एक बड़ा हिस्सा अब तक राजनीतिक मुख्यभूमि में था और अब दक्षिणपन्थ के उभार ने उसे हाशिये पर धकेल दिया है! और इसका दूसरा आयाम यह है कि लेखक इन नवागन्तुकों का स्वागत करते हुए भी यह जानता है कि हाशिये पर रहने के लम्बे अनुभव से लैस एक समझदार व्यक्ति (wiseman) द्वारा दिये जा रहे सबकों पर ये नवागन्तुक कान नहीं देंगे! इससे पहले कि लेखक द्वारा प्रयोग में लायी गयी शब्दावली की राजनीति पर अपनी बात रखते हुए हम अपनी आलोचना की विधिवत् शुरुआत करें, पहले इस शब्दावली में अन्तर्निहित भूगोल (geography) और स्थलाकृति-विज्ञान (topography) को भी समझ लिया जाय, विशेष तौर पर, राजनीतिक मुख्यभूमि और हाशिये को।

यहाँ राजनीतिक मुख्यभूमि संसद व विधानसभा प्रतीत होते हैं, हालाँकि लेखक ने सम्भवतः इरादतन इसके बारे में अस्पष्टता बनाये रखी है। समाज विज्ञान और आलोचनात्मक सिद्धान्त बहुत पहले ही बता चुका है कि चुप्पियों (silences) के भी अर्थ होते हैं, और अकसर वे ‘टेक्स्ट’ से भी अहम होते हैं। वस्तुतः, सामाजिक सिद्धान्त की किसी भी शाखा का असल मकसद शब्दों से ज़्यादा इन चुप्पियों को विकूटीकृत (decipher) करना होता है! बहरहाल, यहाँ राजनीतिक मुख्यभूमि का अर्थ संसद-विधानसभा ही प्रतीत होता है। क्योंकि संसदीय वाम के अतिरिक्त जो वाम है, वह तो पहले से ही हाशिये पर है! ऐसे में, जिन नवागन्तुकों के हाशिये में आगमन की बात की जा रही है, वह निश्चित तौर पर संसदीय वाम ही है, यानी भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन इत्यादि।

लेकिन हाशिये का अर्थ यहाँ केवल गै़र-संसदीय वाम नहीं प्रतीत होता। बल्कि यह भूभाग उन शक्तियों का है जिनका समाज में कोई विशेष आधार या पकड़ नहीं है। पहले तो हाशिये पर वह वाम ही था जिसे आम तौर पर चलताऊ राजनीतिक शब्दावली में ‘लेफ्ट ऑफ सीपीएम’ कहा जाता है। लेकिन अब दक्षिणपन्थी फ़ासीवाद के इस नये उभार ने उस वाम को भी हाशिये पर पहुँचा दिया है जो ‘सीपीएम या राइट ऑफ सीपीएम’ हैं! ऐसे में, लेखक चिन्तित है। वह खुद के लम्बे समय से हाशिये पर ही रहने से उतना चिन्तित नहीं है, जितना कि इस बात से कि जो संसदीय वामपन्थी हाशिये पर नहीं थे वे भी हाशिये पर आ गये हैं और हाशिया ‘ओवरक्राउडेड’ हो गया है! फिर भी, वह भारी मन और भरे दिल से इन संसदीय वामपंथियों का हाशिये पर खुली बाहों के साथ स्वागत भी कर रहे हैं! कम-से-कम लेखक के शब्दों के प्रयोग-व्यवहार या प्रयोग-धर्म से तो उनके राजनीतिक भूविज्ञान के यही अर्थ सम्प्रेषित होते हैं। क्योंकि उन्होंने राजनीतिक मुख्यभूमि और हाशिये की कोई विवादित सीमा-रेखा भी स्पष्ट नहीं की है। बहरहाल, यहाँ से हम अपनी आलोचना के पहले प्रमुख बिन्दु पर आ सकते हैं।

शब्दावली में निहित इस भूविज्ञान से एक बात स्पष्ट हैः लेखक ‘वाम’ या ‘वामपन्थ’ को एक ‘जेनेरिक’ शब्द के रूप में इस्तेमाल करते हैं और इसका उग्रता के साथ तर्कपोषण करते हैं। ‘समझदार लोगों’ से लेखक का क्या तात्पर्य है, यह उन्होंने यह कहकर बताने से इंकार कर दिया है कि ऐसी कसौटियाँ निर्धारित करने का पाण्डित्य-प्रदर्शन उन्हें नहीं करना है! लेकिन बाद में वह अपने आपको ऐसे पाण्डित्य-प्रदर्शन से रोक नहीं पाये हैं और एक बेहद व्यापक पैमाना उन्होंने पेश कर ही दिया है! इसमें वे सभी लोग हैं, जो कि उन “पागलों से भरी परिधि” में नहीं हैं जो कि संशोधनवादी वामपन्थ और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद में फर्क करते हैं! इस बात को लेखक ने प्रहसनात्मक ढंग से कहा हैः “जो बाकी सभी दूसरे लोगों पर संशोधनवाद, ग़द्दारी और इससे भी बुरे आरोप लगाकर ही ज़िन्दा रहते हैं!” स्पष्ट है कि अगर लेनिन या माओ ज़िन्दा होते तो वह भी लेखक के अनुसार इसी पागलपन की परिधि में आते! हम स्पष्ट कर दें कि सवाल यहाँ यह नहीं है कि कोई क्रान्तिकारी मार्क्सवादी संशोधनवादियों के सैद्धान्तिकीकरणों से विचारधारात्मक तौर पर इंगेज’ करेगा या नहीं! सवाल यह है कि वह उनसे कोई बहस या संवाद इसलिए नहीं चलाता है कि वह उन्हें क्रान्तिकारी वाम का अंग मानता है या उनसे कोई उम्मीद रखता है! लेनिन या बाद में माओ ने अगर संशोधनवादियों से विचारधारात्मक संघर्ष चलाया तो इसका मक़सद क्रान्तिकारी मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों की हिफ़ाज़त और क्रान्तिकारी कतारों की शिक्षा थी। लेकिन यहाँ सभी क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को जानबूझकर एक श्रेणी में रख दिया गया हैः वे बचकाने लोग जो अपने सिवा बाकी सभी लोगों को संशोधनवादी, ग़द्दार आदि की संज्ञा देकर ज़िन्दा रहते हैं; वे बचकाने लोग जो मार्क्सवाद और संशोधनवाद के बीच के पुराने पड़ चुके फर्क की माला जपते रहते हैं, जबकि दूसरी ओर साम्प्रदायिक फ़ासीवादी उभार सिर पर खड़ा है! निश्चित तौर पर, यह स्वर पराजयबोध और निराशा के गर्त में पड़े लोगों को वाकई ‘वाइज़ मैन’ का स्वर प्रतीत हो सकता है! लेकिन सच्चाई यह है कि ‘वाइज़ मैन’ के पास न तो फ़ासीवाद की कोई ऐतिहासिक समझदारी है और न ही उसके प्रतिरोध को संगठित करने की रणनीतियों के बारे में। वह इस बात से भी नावाकिफ़ है कि इतिहास में फ़ासीवादी उभार में योगदान करने वाले कारकों में एक अहम कारक रहा है सामाजिक-जनवादियों की ग़द्दारी और मज़दूर आन्दोलन को बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों और वैधिकता (legality) का कैदी बनाये रखना।

बहरहाल, रवि सिन्हा ‘वामपन्थ’ और ‘वाम’ जैसे शब्दों के अपने इस प्रयोग-धर्म और उसके तर्क-पोषण के ज़रिये शेष लेख का स्वर और इसमें सिखाये गये “पाठों” की अन्तर्वस्तु निर्धारित कर देते हैं। लेखक कहता है कि किसी को अच्छा लगे या न लगे, उन्हें तो इन परिधिगत वामपन्थी पागलों को भी वाम में शामिल करना ही पड़ेगा और अफसोस की बात यह है कि उससे सरोकार रखे बिना, उसके विषय में चिन्तित हुए बिना भी नहीं रहा जा सकता है! लेकिन लेखक इस बात को लेकर आश्वस्त है कि ये पागल लोग उनके इस लेख में सिखाये गये पाठों को नहीं सीखेंगे और अन्त में इसे लेकर आपस में झोंटा-झुटव्वल करेंगे! इस कथन के पीछे का सन्देश यह है, ‘अगर तुमने मेरे द्वारा दिये गये सबक की आलोचना की तो मैं तुम्हें संकीर्ण हितवादी, स्वार्थी, झगड़ालू और बन्द-दिमाग़ बुलाऊँगा!’ बहरहाल, इस ख़तरे को उठाते हुए भी हम आलोचना के कार्यभार को पूरा करने के लिए आगे बढ़ते हैं।

16 मई को नरेन्द्र मोदी की लोकसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजय के बारे में अपनी समझदारी को सामने रखते हुए लेखक शुरुआत करते हैं। बुर्जुआ चुनावों की जीत-हार का यहाँ जो विश्लेषण पेश किया गया है, वह प्रतीतिगत यथार्थ को ही सारभूत यथार्थ के तौर पर देखता है। लेखक की यह दलील निश्चित तौर पर कुछ वज़न रखती है कि मोदी की जीत के बाद वामपन्थी खेमे (यहाँ हम भी ‘वामपन्थी’ शब्द का इस्तेमाल सिर्फ़ तात्कालिक स्पष्टता के लिए ‘जेनेरिक’ विशेषण के तौर पर कर रहे हैं!) में तमाम लोग ‘डिनायल मोड’ में चले गये थे। इससे मोदी की विजय से उनमें पैदा हुए मानसिक सदमे का अनुमान लगाया जा सकता है। इन लोगों की लेखक ने एक सही आलोचना पेश की है और कहा है कि यह मानना चाहिए कि इन चुनावों में धुर दक्षिणपन्थ को स्पष्ट तौर पर ज़बरदस्त जनादेश मिला है। लेकिन इसके बाद लेखक इस जनादेश के लिए जनता से थोड़ा नाराज़ से नज़र आते हैं! इस नाराज़गी को वह अभी थोड़ा छिपा रहे हैं। लेकिन लेख में आगे बढ़ते-बढ़ते उनका संयम जवाब दे जाता है। लेकिन बाद की बातों पर बाद में। यहाँ लेखक यह बताने की कोशिश करते हैं कि बुर्जुआ चुनावों में जनता ने नरेन्द्र मोदी को जो जनादेश दिया है वह जनता द्वारा अपनी इच्छा और विवेक का प्रकटीकरण था, हालाँकि उसमें कारपोरेट मीडिया व धनबल का भी हाथ है। इस बात से रवि सिन्हा वामपंथियों (जो कि जनता पर अनालोचनात्मक भरोसा करते हैं!) के लिए यह सबक निकालते हैं: उन्हें जनता के विवेक पर अपनी अनालोचनात्मक आस्था के साथ इस बात का सामंजस्य बिठाना पड़ेगा कि आखिर उनकी महान जनता ने नरेन्द्र मोदी को जनादेश कैसे दे दिया!

बुर्जुआ चुनावों में विजय और पराजय का यह विश्लेषण, बहुत छूट देकर कहें तो, एक पस्तहिम्मत उदार निम्न-पूँजीवादी बुद्धिजीवी के हारे हुए दिल की कराह है। कोई भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी व्यक्ति यह जानता है कि बुर्जुआ चुनावों में पूँजीपति वर्ग जनता से शासन करने की सहमति लेता है; इस मायने में यह वर्ग समाज का पहला शासक वर्ग है जो कि सहमति लेकर शासन करता है और इसीलिए उसके शासन का मूल आधार वर्चस्व है, महज़ प्रभुत्व नहीं; उसका शासन दिव्य रूप से प्रदत्त (divinely-ordained) नहीं होता। लेकिन हम यह भी जानते हैं कि बुर्जुआ समाज में यह ‘सहमति’ निर्मित होती है, ‘मैन्युफैक्चर’ की जाती है। इसलिए सीधे यह कहना कि जनता ने अपने विवेक से’ नरेन्द्र मोदी और संघ परिवार को जनादेश दिया है, कम-से-कम एक गम्भीर रूप से अधूरी बात तो मानी ही जायेगी। जनता अपने स्वतःस्फूर्त विवेक से इतिहास में पहले भी बर्बरों का साथ दे चुकी है, चाहे वह उन समाजों की जनता ही क्यों न हो जिन्हें लेखक आधुनिक समाज मानता है! जनता की स्वतःस्फूर्त चेतना ही यदि सर्वहारा चेतना होती तो सर्वहारा वर्ग के हिरावलों की आवश्यकता शायद ही पड़ती! बहरहाल, पहली बात तो यह है कि जनता ‘अपने विवेक से’ कभी प्रतिक्रियावाद के पक्ष में नहीं खड़ी होती है, ऐसा किसी विवेकवान वामपन्थी का मानना नहीं है। लेनिन ने कहीं लिखा था कि जनता अत्यधिक श्रान्ति की स्थिति में प्रतिक्रिया के पक्ष में जाकर खड़ी हो जाती है और इसके लिए मूल तौर पर स्वयं जन समुदायों को नहीं बल्कि उनके बीच क्रान्तिकारी शक्तियों की अनुपस्थिति को ज़िम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। सर्वहारा विश्व-दृष्टिकोण, या मज़दूर वर्ग की राजनीतिक वर्ग चेतना मज़दूर वर्ग के ऐतिहासिक अनुभवों के समाहार से निःसृत होती है, जो समाहार मज़दूर वर्ग के सदस्य बिरले ही करते हैं। आम तौर पर, ऐसे लोग मध्य वर्गीय बौद्धिक जमातों से आते हैं। हम यहाँ कोई भी नयी बात नहीं कह रहे हैं। लेकिन चूँकि रवि सिन्हा भी यहाँ कोई नयी बात नहीं कह रहे हैं, बल्कि पुराने अवसादग्रस्त उदार बुर्जुआ ‘ऑर्थोडॉक्सी’ को ही नये पाण्डित्यपूर्ण शब्दों में पुनर्जीवित कर रहे हैं, इसलिए हम भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान द्वारा दिये गये जवाबों को ही प्रस्तुत करने को बाध्य हैं। यहाँ तमाम प्रयासों के बावजूद भारत की नालायक जनता से रवि सिन्हा की नाराज़गी टपक ही जाती है; लेकिन यह तो सिर्फ़ ट्रेलर है! कुल मिलाकर, इस पूरे हिस्से में बुर्जुआ चुनावों का एक बेहद सतही विश्लेषण है और जनता द्वारा नरेन्द्र मोदी को दिये गये जनादेश की भी एक अनालोचनात्मक समझदारी सामने आती है। इसके अलावा, जनता को कोई एक एकाश्मीय, सजातीय प्रवर्ग के तौर पर पेश किया गया है। दूसरे शब्दों में, रवि सिन्हा के विश्लेषण से वर्ग दृष्टि पूर्ण रूप से अनुपस्थित है। इस पर हम आगे थोड़ा विस्तार से आयेंगे। साथ ही, इस पूरे विश्लेषण में जनता के राजनीतिक निर्णयों और कार्रवाइयों में अगुआ क्रान्तिकारी शक्तियों की उपस्थिति/अनुपस्थिति/अपर्याप्त उपस्थिति की भूमिका को एक चर राशि (variable) के तौर पर शामिल ही नहीं किया गया है। यह एक उदार बुर्जुआ रूपवादी (formalist) व प्रत्यक्षवादी (positivist) विश्लेषण है, जो विशेष तौर पर फ़ासीवादी उभार का विश्लेषण करते हुए अक्सर हताशा और अवसाद अथवा अवसरवाद में ही समाप्त होता है।

नरेन्द्र मोदी की विजय के बाद लेखक हर बात को लेकर दुःखी भी नहीं है! उनकी यह दलील दुरुस्त है कि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा व संघ परिवार अपनी निर्णायक विजय के बाद खुले और व्यापक दंगों की रणनीति नहीं अपनायेगा। हमारा भी मानना है कि अब गुजरात-2002 जैसे नरसंहार कराने की आवश्यता नहीं है। न तो यह पूँजी के हितों के लिए बेहतर है और न ही बुर्जुआ जनवाद के विभ्रम को बरक़रार रखने के लिए अच्छा है। बस मुसलमानों का घेट्टोकरण करके और एक प्रकार की अघोषित ‘अपार्थाइड’ की नीति के ज़रिये उनका हिन्दुओं से पार्थक्य स्थापित करना पर्याप्त होगा। लेखक का यह प्रेक्षण भी कमोबेश ठीक लगता है। लेकिन इसके बाद वह अपने पहले सबक पर जाते हैं और यह बताते हैं कि भारत में भगवा साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों की कार्यपद्धति में सत्ता में आने के बाद यह बदलाव क्यों होगा, और यहीं से भयंकर दिक्कतें शुरू होती हैं। आइये, रवि सिन्हा के विश्लेषण और उनके तर्कों पर एक निगाह डालते हैं।

पहला सबकः आओ चलें संसद, विधानसभाओं और अदालतों की ओर!

जो काम बल-प्रयोग से किया जाता है वह अच्छा नहीं होता। मैं उनमें से नहीं हूँ। अगर भूख और दरिद्रता के हालात ने बचपन में ही मुझे हिंसा सिखायी होती तो मैं भी उनमें से एक होता और कोई प्रश्न नहीं पूछता। लेकिन जैसा है वैसा है। इसलिए मुझे जाना चाहिए।

                (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, ‘दि रेज़िस्टिबल राइज़ ऑफ आर्तुरो उई)

रवि सिन्हा का मानना है कि फ़ासीवादियों के सत्ता में आने के बाद वे देश के सामाजिक ताने-बाने के साथ क्या करते हैं यह उतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना कि यह कि वे “राज्‍य और उसकी संरचना के साथ क्या कर सकते हैं और क्या नहीं।” उनके अनुसार जो बात यहाँ वामपंथियों के लिए आकाशवाणी के समान या सहज उपलब्ध तथ्य के समान नहीं है, काउण्टर-इण्ट्यूटिव (counter-intuitive) है, वह समझना ज़्यादा अहम है। बकौल रवि सिन्हा फ़ासीवादियों की बर्बर शक्ति का स्रोत समाज में है, लेकिन अपनी इस शक्ति के बूते वे राज्य की संरचनाओं को अपनी सामाजिक विचारधारा के अनुसार नहीं बदल सकते हैं। लेखक मानता है कि यह तर्क सामान्य बोध से समझा जा सकता है कि एक बार सत्ता में आने के बाद फ़ासीवादियों को पूँजीवादी राज्य सत्ता में अहम बदलाव करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि यह राज्यसत्ता कारपोरेट हितों की सेवा करने के लिए पर्याप्त है। लेकिन सिर्फ़ इतना समझना लेखक के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह एक अहम नुक्ते को पकड़ने से चूक जाना होगा। उनके अनुसार यह नुक़्ता उस फ़र्क में अन्तर्निहित है जो कि एक प्रबुद्ध बुर्जुआ-जनवादी कल्याणकारी राज्य और एक हिटलर जैसी फ़ासीवादी तानाशाही के बीच होता है। रवि सिन्हा पूछते हैं कि क्या इस अन्तर के एक वामपन्थी के लिए कोई मायने नहीं हैं? उनके अनुसार “भारतीय राज्यसत्ता एक ऐसे समाज की गोद में बैठी है जो कई बार ऐसे लोगों को सत्ता में बिठा सकता है जो कि एक फ़ासीवादी-तानाशाहाना रास्ते को अख्‍त़ियार करना पसन्द करेंगे।” लेकिन भारतीय संवैधानिक बुर्जुआ जनवादी राज्यसत्ता का धन्यवाद ज्ञापन करते हुए, बल्कि शुक्र मनाते हुए, वह इस बात पर राहत का अहसास करते हैं कि भारत में फ़ासीवादी सत्ता में काबिज़ होने के बावजूद अपनी चाहतों और विचारधाराओं के अनुसार यह सब नहीं कर पायेंगे! उनके अनुसार, इस पूरे विश्लेषण से वामपंथियों के लिए जो पहला सबक निकलता है वह है भारतीय राज्यसत्ता और भारतीय समाज के बीच के पहेलीनुमा रिश्तों को समझना। उनके अनुसार, “आपको इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि समाज बर्बर शक्तियों को पैदा करता है और उन्हें राज्यसत्ता की ज़िम्मेदारी सौंपता है लेकिन राज्यसत्ता बर्बरों को सभ्य बनने के लिए और संवैधानिक ढाँचे के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य करती है। इतिहास ने एक अभी-तक-आधुनिक-नहीं-हुए-समाज के बीच से एक आधुनिक राजनीति को ढाला है। इस समाज का निर्माण करने वाली तमाम संस्कृतियाँ और प्रथाएँ आधुनिक राजनीतिक संरचना के साथ असुविधाजनक रूप से अस्तित्वमान हैं। और फिर भी राजनीतिक संरचना काफ़ी हद तक सुरक्षित है। बच्चा एक ऐसी माता के गोद में बैठा है जो बच्चे को कई बार अजनबी और यहाँ तक कि शत्रुतापूर्ण पाती है, लेकिन वह फिर भी बच्चे को अपनी गोद में लिए रहती है।”

यहाँ रवि सिन्हा ने भारत में राज्य और समाज के सम्बन्धों की एक समझदारी पेश करते हुए इससे अपना पहला सबक निकाला है। अगर मौजूदा हालात में नये फ़ासीवादी शासक वामपंथियों के विरुद्ध अपना अभियान जारी करते हैं तो हमें क्या करना चाहिए? वह कहते हैं कि वामपन्थी कहेंगे कि हम जनता के बीच जायेंगे और उनकी शक्ति के बूते फ़ासीवादियों से लड़ेंगे; यह उनके अनुसार पूरी तरह से ग़लत नहीं होगा। लेकिन वह हिदायत देते हैं कि फिर फ़ासीवादी शक्तियाँ आप से भी ज़्यादा लोगों तक पहुँचेंगी! फिर आप क्या करेंगे? फिर वह एक ग़ज़ब का उदाहरण देते हैं। वह कहते हैं कि अगर वामपन्थी पश्चिम बंगाल की सड़कों और खेतों पर तृणमूल कांग्रेस से नहीं लड़ पाये तो फिर अगर सारे वामपन्थी साथ भी आ जायें, जिसकी उम्मीद कम है, तो भी अन्धकार के इस नये राजकुमार से वे शहरों, बस्तियों, गाँवों और जंगलों में कैसे लड़ेंगे? वह भी तब जबकि नये राजकुमार को यूनानी देवताओं के समान जनसमुदायों की सराहना, डरों और प्रार्थनाओं से जीवन शक्ति मिलती है? इसलिए रवि सिन्हा के मुताबिक नये फ़ासीवादी शासकों को जनता के बीच राजनीतिक संघर्ष करने के लिए न्यौता देने से पहले अच्छी तरह से सोच लेना चाहिए! रवि सिन्हा के अनुसार ज़्यादा बेहतर तरीका होगा कि वामपन्थी अपने आपको पहले से अस्तित्वमान राजनीतिक ढाँचे में यानी कि संसद, विधानसभाओं, अदालतों आदि में बचाने का प्रयास करें जिसमें कि वे संविधान और कानून की पूरी मदद ले सकते हैं। यहाँ पर वह मुकुल सिन्हा और तीस्ता सेतलवाड़ के साहसिक संघर्षों का उदाहरण देते हैं, जो कि अहमदाबाद की सड़कों पर नहीं हुआ बल्कि अदालतों में हुआ। बाद में वह एक कैविएट जोड़ते हैं, जिसे एक बेशर्म दलील पेश करने के बाद इज़्ज़त बचाने का प्रयास कहना ज़्यादा उचित होगा। वह कहते हैं कि हमें आधुनिक राज्यसत्ता और राजनीति व उनकी संरचनाओं से ज़्यादा उम्मीदें भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जब बर्बर शक्तियाँ सत्ता में आती हैं तो वे इन संरचनाओं को भी अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के अनुसार एक हद तक तोड़ती-मरोड़ती हैं, लेकिन फिर भी, उनके अनुसार, उनकी उपरोक्त दलील मूलतः और मुख्यतः सही ठहरती है।

अब आइये लेखक के पहले सबक में अन्तर्निहित इस पूरी तर्क पद्धति के गुणों और अवगुणों के आधार पर इसका मूल्यांकन करते हैं। हम यहाँ शुरुआत अपने नतीजों से नहीं करेंगे क्योंकि फिर इस बात की पूरी गुंजाइश होगी हमारी बात सुनने से पहले ही हाशिये पर खड़े या पड़े समझदार लोग हमें ‘वाम की पागल परिधि’ की संज्ञा दे दें! इसलिए हम लेखक द्वारा पेश की गयी दलीलों की एक क्रमबद्ध पड़ताल करेंगे और उससे उनकी तर्क पद्धति और विचारधारात्मक-राजनीतिक अवस्थिति को निःसृत करने का प्रयास करेंगे और देखने की कोशिश करेंगे कि यह तर्कपद्धति फ़ासीवाद के इतिहास और विचारधारा की समस्याओं और उससे लड़ने की रणनीति और रणकौशलों के विषय में इतिहास के सबकों को किस हद तक समझ पाती है।

रवि सिन्हा ने भारत में राज्य और समाज के चरित्र के बीच एक विरोधाभास पेश किया है। उनके अनुसार भारतीय समाज अभी आधुनिक नहीं बना है, जबकि कुछ विशिष्ट ऐतिहासिक कारणों से उसे एक आधुनिक बुर्जुआ उदार जनवादी संवैधानिक राज्य प्राप्त हुआ है। इसके लिए उन्होंने ऊपर बतायी गये माँ और बच्चे वाले रूपक को पेश किया है (हालाँकि यह रूपक सटीकता के पैमाने पर दुरुस्त नहीं ठहरता है)। उनके अनुसार फ़ासीवादियों की बर्बर शक्ति का स्रोत समाज में है क्योंकि समाज पुनर्जागरण, धर्म-सुधार आन्दोलन व प्रबोधन जैसे आन्दोलनों की अनुपस्थिति में प्राक्-आधुनिक रह गया है, जबकि राज्य और उसकी संरचनाएँ बुर्जुआ उदार जनवादी हैं व संवैधानिक नियम-कायदों से बँधी हुई हैं। इसी बुनियादी तर्क पर उन्होंने अपने सबक निकाले हैं। लेखक के अनुसार भारत में समाज ऐसा है जो अपनी अन्तर्निहित प्रकृति से फ़ासीवादी, धुर दक्षिणपन्थी और तानाशाहाना ताक़तों को सत्ता में लाता है; लेकिन भला हो भारत के जनवादी राज्य का जिसके कारण सत्ता में आने के बाद फ़ासीवादी ताक़तों को अपने हाथ बाँधने पड़ते हैं, क्योंकि वे इस बुर्जुआ जनवादी राज्य संरचना को या संविधान को बदल नहीं सकते हैं; वास्तव में, ये राज्य, राजनीति और उसकी संरचनाएँ एक प्रकार से फ़ासीवादी बर्बर ताक़तों को सभ्य बनने पर मजबूर करती हैं, उन्हें अपने अनुकूल अनुशासित करती हैं! यह पूरी समझदारी कई बल्कि लगभग हर स्तर पर ग़लत, अनैतिहासिक, समाजशास्त्रीयतावादी (sociologist) है और बुर्जुआ विभ्रमों का भयंकर तरीके से शिकार है।

पहली बात तो यह है कि भारतीय समाज और राज्यसत्ता का यहाँ क्रमशः प्राक्-आधुनिक व आधुनिक के तौर पर सारभूतीकरण (essentialization) किया गया है, जो कि वास्तविकता से बहुत दूर है। दूसरी बात यह कि फ़ासीवादी आन्दोलन और विचारधारा का भी यहाँ एक प्राक्-आधुनिक परिघटना या प्राक्-आधुनिक स्रोतों से पैदा हुई परिघटना के तौर पर सारभूतीकरण किया गया है, जो कि न सिर्फ़ हमारे देश के सन्दर्भ में बल्कि फ़ासीवाद के पूरे वैश्विक इतिहास के सन्दर्भ में ग़लत है। तीसरी बात यह कि फ़ासीवादी उभार का राजनीतिक अर्थशास्त्रीय और ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण इस लेख से पूरी तरह अनुपस्थित है। यह एक बुर्जुआ समाजशास्त्रीयतावादी विश्लेषण है और वह भी ख़राब गुणवत्ता का; यदि किसी को फ़ासीवादी उभार का उदार बुर्जुआ और समाजशास्त्रीय विश्लेषण ही पढ़ना होगा तो इससे बेहतर विकल्प मौजूद हैं। और चौथी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज और राज्यसत्ता के बीच के सम्बन्धों का जो विश्लेषण पेश किया गया है वह न सिर्फ़ अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक और भोंड़ा प्रत्यक्षवादी विश्लेषण है, बल्कि वह वास्तव में अमेरिकी ड्यूईवादी व्यवहारवाद से काफ़ी कुछ उधार लेता है। इस विश्लेषण का क्रान्तिकारी वामपन्थी या मार्क्सवादी विश्लेषण से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। इसे ज़्यादा से ज़्यादा एक उदार बुर्जुआ फेबियनवादी व व्यवहारवादी विश्लेषण कहा जा सकता है। इसके अलावा, रवि सिन्हा चलते-चलते भारतीय वामपन्थ पर ऐसी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ करते हैं, जो उन पर लागू नहीं होती। मिसाल के तौर पर, उनका प्रश्न है कि क्या वामपन्थी उदार बुर्जुआ जनवादी राज्य और एक तानाशाहाना फ़ासीवादी बुर्जुआ राज्य में फर्क नहीं करते हैं या फिर पर्याप्त रूप से फ़र्क करते हैं? कहने की आवश्यकता नहीं है कि यह प्रश्न मूल्यरहित नहीं है और इसमें एक आक्षेप अन्तर्निहित है। लेकिन हमें ताज्जुब होता है कि लेखक इस बात से वाक़िफ़ नहीं है कि दुनिया भर में मार्क्सवादी क्रान्तिकारियों के बीच यह स्थापित तथ्य है कि एक उदार बुर्जुआ राज्य और एक फ़ासीवादी बुर्जुआ राज्य के बीच फर्क किया जाना चाहिए; इस फर्क को मार्क्सवादियों ने राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से और पूँजीवाद के ऐतिहासिक विश्लेषण से स्पष्ट किया है और इस फर्क के मुताबिक रणनीतिक और रणकौशलात्मक नतीजे भी निकाले हैं। हम जानते हैं कि ऐसा कहना कतई ग़लत होगा कि फ़ासीवादी और विशेष तौर पर वर्तमान फ़ासीवादी उभार के बारे में कम्युनिस्टों ने सारा विश्लेषण पहले ही कर रखा है! लेकिन रवि सिन्हा का यह इशारा कि कम्युनिस्टों को उदार बुर्जुआ राज्य और फ़ासीवादी बुर्जुआ राज्य में फर्क करने का सबक भी हाशिये से प्रसारित होते उनके सबकों से लेना होगा, अनुचित लगता है।

बहरहाल, अब रवि सिन्हा द्वारा भारत में राज्य और समाज के रिश्तों की जो अवधारणा पेश की गयी है, उस पर आते हैं। भारतीय समाज को एक प्राक्-आधुनिक समाज के रूप में पेश किया गया है, जिसमें नैसर्गिक तौर पर सर्वसत्तावादी प्रवृत्तियाँ मौजूद है और इन प्रवृत्तियों के चलते ही वह स्वतःस्फूर्त तौर पर कई बार फ़ासीवादियों और तानाशाहों को सत्ता सौंप देता है! यह भारतीय समाज का एक अनैतिहासिक सारभूतीकरण (ahistorical essentialization) है। निश्चित तौर पर, भारतीय समाज पश्चिम के समान पुनर्जागरण, धर्म सुधार आन्दोलन और प्रबोधन की प्रक्रिया से नहीं गुज़रा और जिस समय यहाँ पुनर्जागरण और प्रबोधन के अलग किस्म के संस्करणों की ज़मीन तैयार हो रही थी, उसी समय उपनिवेशीकरण की प्रक्रिया ने भारतीय समाज में बुर्जुआ आधुनिकता के तत्वों के प्रकट होने और पूँजीवादी विकास की सम्भावनाओं को कुचल दिया। अंग्रेज़ी औपनिवेशिक राज्य ने अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए एक शिक्षा व्यवस्था, कानून के समक्ष समानता आदि की स्थापना की तो दूसरी ओर भारतीय समाज के पुनरुत्थानवादी, प्राक्-आधुनिक तत्वों को प्रश्रय भी दिया। औपनिवेशिक राज्यसत्ता की नीति का द्वन्द्व बार-बार प्रकट होता रहता था, जैसा कि ‘सहमति की आयु’ विवाद, कानून के समक्ष समानता को लेकर हुए विवाद, और भूमि व्यवस्था (land settlement) को लेकर फ़ि‍ज़ि‍योक्रैट्स और यूटिलिटैरियन फरके में चली बहस आदि में देखा जा सकता है। एक ओर सामन्ती शासक वर्ग और प्रतिक्रियावादी तत्वों के साथ संश्रय बनाने की आर्थिक और राजनीतिक ज़रूरत थी, तो दूसरी ओर औपनिवेशिक राज्य की अन्य प्रशासनिक व राजनीतिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए मैकाले की शिक्षा व्यवस्था और एक कानूनी, संवैधानिक व्यवस्था की स्थापना भी वांछनीय थी। औपनिवेशिक राज्यसत्ता की इस दोहरी और परस्पर अन्तरविरोधी ज़रूरतों और उसके नतीजे के तौर पर सामने आने वाली दोहरी और एक हद तक अन्तरविरोधी नीतियों के कारण राष्ट्रवादी आन्दोलन के उदय में हमें दो धाराएँ देखने को मिलती हैं: पुनरुत्थानवादी धारा और पश्चिमी प्रबोधन व तर्कणा से प्रभावित आधुनिकतावादी धारा। ये दोनों धाराएँ कुछ अर्थों में 1916 के बाद के राष्ट्रवादी आन्दोलन में आकर संलयित हुईं और इस प्रक्रिया के प्रतीक पुरुष गाँधी थे। गाँधी में जहाँ पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया के स्पष्ट तत्व मौजूद हैं तो वहीं उनमें बुर्जुआ आधुनिकता, मानवतावाद और उदारतावाद के तत्व भी दिखायी पड़ते हैं। लेकिन कुल मिलाकर कहा जाय तो राष्ट्रवादी आन्दोलन मुख्य तौर पर एक आधुनिकतावादी आन्दोलन था (यहाँ हम सबऑल्टर्न इतिहासकारों की तरह राष्ट्रवादी आन्दोलन को आधुनिक नहीं कह रहे हैं)। यह महज़ एक देशभक्तिपूर्ण (patriotic) आन्दोलन नहीं था बल्कि एक राष्ट्रवादी आन्दोलन था; ‘राष्ट्र’ की अवधारणा अपनी प्रकृति से ही एक बुर्जुआ आधुनिक अवधारणा या परिकल्पना है। कोई राष्ट्रीय आन्दोलन मूलतः और मुख्यतः प्राक्-आधुनिक हो ही नहीं सकता है। इस आन्दोलन में अलग-अलग ऐतिहासिक परिस्थितियों में पुनरुत्थानवादी और प्राक्-आधुनिक तत्व हो सकते हैं, जिन्हें आधुनिक बुर्जुआ राष्ट्रवाद ने अपनी ज़रूरतों के मुताबिक सहयोजित किया हो, जैसा कि भारत में मामले में कहा जा सकता है। ख़ैर, सवाल यह है कि आज़ादी के बाद जो भारतीय समाज सामने आया और आज़ादी के बाद से लेकर अभी तक भारतीय समाज में जो विकास हुए उसके फलस्वरूप आज जो भारतीय समाज हमारे सामने है, क्या आज हम उसे एक प्राक्-आधुनिक समाज कह सकते हैं? हमारा विचार है कि यह सूत्रीकरण सिरे से ग़लत है।

हमारे सामने जो समाज है वह एक उत्तर-औपनिवेशिक (उत्तरऔपनिवेशिक नहीं) आधुनिक समाज है; भारत में इस उत्तर-औपनिवेशिक आधुनिकता में पर्याप्त मात्र में प्राक्-आधुनिक, आदिम (primordial) तत्व मौजूद हैं और ये तत्व इस विशिष्ट किस्म की आधुनिकता के द्वारा सहयोजित, समायोजित और आर्टिकुलेटेड (articulated) हैं। इसके अलावा हम और कोई अपेक्षा भी नहीं कर सकते हैं। और इस समाज ने जिस राज्यसत्ता, राजनीतिक परम्पराओं और संरचनाओं को जन्म दिया वह इसी सामाजिक ढाँचे की हिफ़ाज़त के लिए है। यह कहना एक बात है कि सामाजिक-आर्थिक ढाँचे और राजकीय व राजनीतिक अधिरचना के बीच ‘बराबर’ का चिन्ह नहीं लगाया जा सकता है और उनके बीच अन्तरविरोध होने के कारण एक संगति (correspondence) का सम्बन्ध होता है; कोई भी मार्क्सवादी समाज विज्ञानी इस बात से सहमति ज़ाहिर करेगा; लेकिन समाज और राज्य के बीच जिस प्रकार के द्विभाजन (dichotomy) और विरोधाभास (paradox) रवि सिन्हा पेश करते हैं, वह कतई बुर्जुआ समाजशास्त्रीयतावादी विश्लेषण है जो कि अपने ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव से पहचाना जा सकता है। ऐसे विरोधाभासी सम्बन्ध के साथ कोई राज्य और समाज दीर्घकालिक अवधि के लिए अस्तित्व में रह ही नहीं सकते हैं। वास्तव में, भारतीय राज्य और समाज के बीच के सम्बन्ध को समझने में रवि सिन्हा ठीक इसलिए असफल रहते हैं क्योंकि वे भारतीय समाज के चरित्र और भारतीय राज्य के चरित्र को समझने और उसे एक विशिष्ट किस्म के उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी विकास के आख्यान में अवस्थित कर पाने में नाकाम रहते हैं। राज्य और समाज के चरित्र और उनके बीच के सम्बन्धों का एक आधिभौतिक दृष्टिकोण हमारे सामने पेश किया जाता है जो कि उनके सम्बन्धों को समझने का दावा करने के बावजूद उनके अन्तर्सम्बन्धों का अध्ययन नहीं करता है, बल्कि उन्हें अलग-थलग करके (in isolation) विश्लेषित करता है और अन्ततः उनके रिश्तों का एक गतिक (dynamic) दृष्टि पर नहीं बल्कि एक स्थैतिक (static) दृष्टि पर पहुँचता है।

रवि सिन्हा भारतीय संवैधानिक उदार बुर्जुआ राज्य को और उसकी राजनीतिक संरचनाओं को आधुनिक क़रार देते हैं; लेकिन क्या यहाँ की राजनीतिक और राजकीय संरचनाओं व परम्पराओं को क्लासिकीय अर्थों में और अनालोचनात्मक तौर पर आधुनिक कहा जा सकता है? हमें नहीं लगता। क्या धार्मिक कानूनों का व्यक्तिगत मामलों में लागू किया जाना एक सेक्युलर आधुनिक राज्य या संविधान की निशानी है? क्या हम राजनीतिक व राजकीय अधिरचना को यहाँ धर्म से पूर्ण रूप से अलग तौर पर देख सकते हैं? पाश्चात्य आधुनिकता राजनीतिक संस्थाओं में धर्म या धार्मिक संस्थाओं में राजकीय/राजनीतिक संस्थाओं की मौजूदगी का पूर्ण रूप से निषेध करती है, जिसे फ्रांसीसी भाषा में लाईसाईट (laïcité) की अवधारणा के द्वारा व्याख्यायित किया जाता है, और जिसे बुर्जुआ आधुनिकता का एक बुनियादी संघटक तत्व माना जाता है। क्या भारत में हम इसका दावा कर सकते हैं? भारत राज्यसत्ता और धर्म के पूर्ण अलगाव की बात नहीं करती बल्कि सभी धर्मों को बराबर मानने की बात करती है और इसी आधार पर धार्मिक आधार पर ‘पर्सनल लॉ’ की व्यवस्था की गयी है। इसलिए भारतीय राज्य और संविधान को अनालोचनात्मक तौर पर और क्लासिकीय अर्थों में एक आधुनिक संस्था मानना भी एक भूल है।

वास्तव में, भारत में जिस प्रकार की उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी समाज और अर्थव्यवस्था आयी उन्होंने उसी प्रकार के उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी राज्य और संविधान को भी जन्म दिया। समाज और राज्य दोनों में ही आधुनिकता और पुनरुत्थानवादी प्रतिक्रिया के तत्व मौजूद हैं और शासक वर्गों के लिए अपने शासन को जारी रखने की ख़ातिर इन तत्वों का मिश्रण काफ़ी उपयोगी भी हैं। रवि सिन्हा के पूरे सैद्धान्तिकीकरण में भारतीय पूँजीवाद के विशिष्ट चरित्र की कोई द्वन्द्वात्मक समझदारी नहीं है। वह अपनी उदार बुर्जुआ व्यवहारवादी (pragmatist) दृष्टि से प्रस्थान करते हैं और राज्य और समाज के बीच लगभग वैसा ही द्विभाजन पेश करते हैं, जो कि ड्यूई और रॉल्स जैसे व्यवहारवादियों और उनका अनुसरण करते हुए अम्बेडकर ने किया था। उनकी नज़र में उदार बुर्जुआ संवैधानिक कल्याणकारी राज्य सबसे तार्किक अभिकर्ता होता है; समाज की अव्यवस्था, अनियमितता और असंगतियों को वह प्रति-सन्तुलित करता है! और भारत में तो रवि सिन्हा के मुताबिक इसकी बेइन्तहाँ ज़रूरत है क्योंकि भारतीय समाज की बात तो छोड़ दें, पाश्चात्य समाजों में भी (जो कि रवि सिन्हा के मुताबिक सर्वसत्तावादी, आदिम और प्राक्-आधुनिक नहीं हैं) कुछ असंगतियाँ, असमानताएँ आदि होती हैं जिन्हें कि राज्य अपनी सकारात्मक कार्रवाई के ज़रिये प्रति-सन्तुलित करता है। रवि सिन्हा का सैद्धान्तिकीकरण पूरी तरह ड्यूई या रॉल्स का अनुसरण तो नहीं करता, लेकिन यह कहना होगा कि उस पर ड्यूई और रॉल्स की छाया बराबर बनी रहती है। रवि सिन्हा के विश्लेषण में भारतीय संवैधानिक उदार बुर्जुआ राज्य का ढाँचा पूर्वप्रदत्त नियतांक (given constant) है। भारतीय समाज मुख्यतः और मूलतः प्रतिक्रियावादी, सर्वसत्तावादी और प्राक्-आधुनिक है और समय-समय पर बर्बरों को सत्ता में पहुँचा देता है; लेकिन सत्ता में पहुँचने के बाद बेचारे बर्बरों को भारतीय राज्यसत्ता और संविधान सभ्य बनने पर मजबूर करने लगते हैं! यह हास्यास्पद है और भारतीय इतिहास के तथ्यों का मखौल बनाना है। भारतीय राज्य और संविधान ने इतिहास ने बार-बार दिखलाया है कि धुर दक्षिणपन्थी ताक़तें और प्रतिक्रियावादी ताक़तें बिना संवैधानिक ढाँचे और राज्य की संरचनाओं से खिलवाड़ किये, अपने राजनीतिक ‘डिज़ाइन’ पर अमल कर सकती हैं। बल्कि कहना चाहिए कि भारतीय राज्य और संविधान में शुरू से ही इस बात की सुषुप्त सम्भावना मौजूद थी कि उसके बुनियादी ढाँचे में कोई परिवर्तन किये बिना या फिर किसी मामूली परिवर्तन के ज़रिये उससे फ़ासीवादी और दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियावादी हितों की सेवा करवायी जा सकती है। इसके बावजूद, रवि सिन्हा का यह प्रेक्षण कि भारतीय राज्य और संवैधानिक ढाँचा बर्बरों को सत्ता में आने के बाद सभ्य बनने के लिए बाध्य करेगा, यह दिखलाता है कि भारतीय इतिहास की उनकी समझदारी बेहद दरिद्र है और साथ ही यथार्थवादी होने के नाम पर वास्तव में बुर्जुआ समाजशास्त्र की पाठ्यपुस्तकों में पेश आद्यरूपीय श्रेणियों (archetypal categories) को वास्तविक इतिहास में ढूँढने का असफल प्रयास करती रहती है।

यहाँ हम रवि सिन्हा के विश्लेषण में एक और अजीबो-ग़रीब सूत्रीकरण को देख सकते हैं। उनके अनुसार, फ़ासीवादी ताक़तों के चरित्र और उनकी शक्ति के स्रोतों को प्राक्-आधुनिक क़रार दिया गया है। यह वास्तव में उदारवादी बुर्जुआ विश्लेषण से भी पीछे जाने के समान है। ज़ाहिर है, फ़ासीवाद क्या है और उसके उभार के ऐतिहासिक कारण क्या हैं, इसकी जो व्याख्या रवि सिन्हा पेश करते हैं उसमें राजनीतिक अर्थशास्त्रीय और ऐतिहासिक भौतिकवादी विश्लेषण ग़ायब है। फ़ासीवाद का उभार बुर्जुआ उदारवादी राज्य और व्यवस्था के आख्यान (narrative) में किसी विच्छेद (rupture) को प्रदर्शित नहीं करता है, बल्कि उसकी निरन्तरता (continuity) को भी प्रदर्शित करता है। अगर विच्छेद का कोई तत्व है भी तो वह रूप के धरातल पर ज़्यादा है। पूँजीवादी राज्य के लिए ऐतिहासिक तौर पर और आम तौर पर ज़्यादा मुफ़ीद अस्तित्व-रूप (modus vivendi) निश्चित तौर पर बुर्जुआ जनवादी राज्य है (चाहे वह कल्याणकारी हो या न हो)। लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था का असमाधेय संकट द्वैध सुषुप्त सम्भावनाओं को जन्म देता है। यह संकट मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के राजनीतिक तौर पर तैयार होने और उसकी हिरावल शक्तियों के तैयार होने की सूरत में इतिहास को क्रान्तिकारी परिवर्तनों की दिशा में ले जा सकता है, और ऐसा न होने की सूरत में संकट प्रतिक्रियावादी समाधान (फ़ासीवाद या किसी अन्य प्रकार के प्रतिक्रियावादी दक्षिणपन्थी उभार) की ओर ले सकता है। फ़ासीवाद पूँजीवाद के महाख्यान में कोई विच्छेद नहीं बल्कि उसी का एक हिस्सा है। फ़ासीवाद वास्तव में एक आधुनिक परिघटना है जिसे हम मोटे तौर पर बड़ी पूँजी की बर्बर और नग्न तानाशाही और साथ ही टटपुँजिया वर्गों के रूमानी उभार के रूप में व्याख्यायित कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, यह समाज में मौजूद पुनरुत्थानवाद और प्राक्-आधुनिक तत्वों का इस्तेमाल करता है लेकिन वह इससे स्वयं कोई प्राक्-आधुनिक राजनीतिक परिघटना नहीं बन जाता है। फ़ासीवाद कोई भी दक्षिणपन्थी प्रतिक्रियावादी उभार नहीं है बल्कि यह एक सामाजिक आन्दोलन है। लेकिन इसे सिर्फ़ एक सामाजिक आन्दोलन कहना पर्याप्त नहीं होगा; साथ ही, इस राजनीतिक सामाजिक आन्दोलन का वर्ग विश्लेषण करना भी यहाँ अपरिहार्य होगा, अन्यथा उसे रवि सिन्हा के समान पूरे समाज और पूरी जनता पर यह कहकर थोपा जा सकता है कि ‘जनता ने अपने विवेक’ से फ़ासीवादियों को सत्ता में पहुँचाया।

फ़ासीवाद पूँजीवादी संकट का एक प्रतिक्रियावादी और बर्बर समाधान पेश करता है, जिसका कतई यह अर्थ नहीं है कि वह राजनीतिक तौर पर आधुनिक नहीं है। बुर्जुआ आधुनिकता का अनालोचनात्मक तौर पर जश्न नहीं मनाया जा सकता है, जैसा कि रवि सिन्हा करते हैं; न ही उसे पूरा का पूरा कचरा-पेटी में फेंका जा सकता है जैसा कि तमाम उत्तरआधुनिकतावादी, उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्तकार और सबऑल्टर्न सिद्धान्तकार करते हैं (हालाँकि, ये सारे के सारे स्वयं बुर्जुआ आधुनिकता के दायरे का अतिक्रमण नहीं करते हैं, बल्कि उसके दक्षिणपन्थी, प्रतिक्रियावादी और जनविरोधी हिस्से में वास करते हैं)। एंगेल्स ‘समाजवादः काल्पनिक और वैज्ञानिक’ में बुर्जुआ आधुनिकता का एक द्वन्द्वात्मक विश्लेषण पेश करते हैं और उसके एक दौर में ऐतिहासिक रूप से प्रगतिशील चरित्र की बात करते हुए, उसे बुर्जुआ वर्ग के शासन के नैसर्गिकीकरण के तौर पर भी देखते हैं। आज के दौर में जब पूँजीवादी व्यवस्था अपने सबसे पतनशील और मानवद्रोही दौर में प्रवेश कर चुकी है और पूरी मानवता के भविष्य पर उसने एक सवालिया निशान लगा दिया है, तो फिर बुर्जुआ आधुनिकता अपने आपको तमाम मानवद्रोही, जनविरोधी, बर्बर और प्रतिक्रियावादी रूप में पेश करेगी और कर भी रही है। जो व्यक्ति बुर्जुआ प्रबोधन और तर्कणा के प्रति भक्ति का रुख़ अपनाये हुए हो और एनाक्रॉनिस्टिक ढंग से उसके हैंग-ओवर में फँसा हुआ हो, केवल वही फ़ासीवाद के उभार पर यह सोच सकता है कि यह बुर्जुआ आधुनिकता का अंग नहीं है, बल्कि समाज में मौजूद सर्वसत्तावादी रुझानों से पैदा हुआ है, जबकि राज्यसत्ता आधुनिक निकाय के तौर पर फ़ासीवादियों की बर्बरता को अपनी आधुनिक सभ्य-ता से प्रतिसन्तुलित कर रही है। रवि सिन्हा के पूरे सैद्धान्तिकीकरण में बुर्जुआ आधुनिकता के प्रति एक फेटिश (fetish) को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। और बुर्जुआ आधुनिकता के नैसर्गिक अंग और पूँजीवादी व्यवस्था की नैसर्गिक परिणति के तौर फ़ासीवाद के उभार के बरक्स स्वयं रवि सिन्हा भी एक प्रकार के ‘डिनायल मोड’ में चले गये हैं और बार-बार फ़ासीवादी उभार के चरित्र और उसके स्रोतों को प्राक्-आधुनिक क़रार देने पर तुले हुए हैं, जबकि वास्तव में ये दोनों ही निहायत आधुनिक चीज़ें हैं। ऐसा करके वस्तुगत तौर पर रवि सिन्हा बुर्जुआ आधुनिकता के एक अपॉलोजिस्ट’ के तौर सामने आते हैं।

फ़ासीवाद के उभार का पूर्ण विश्लेषण पूँजीवादी व्यवस्था की राजनीतिक अर्थशास्त्रीय आलोचना और ऐतिहासिक व्याख्या के बिना केवल समाजशास्त्रीयतावादी और प्रत्यक्षवादी ही हो सकता है। और रवि सिन्हा के विश्लेषण के साथ यही समस्या है। यह विश्लेषण फ़ासीवाद के उभार की अब तक की गयी मार्क्सवादी-लेनिनवादी और यहाँ तक कि अराजकतावादी और सामाजिक जनवादी व्याख्याओं से या तो अनभिज्ञ है या उन्हें सुविधाजनक चुप्पी के साथ नज़रन्दाज़ करता है। वामपन्थी विद्वानों के बीच फ़ासीवाद के उदय और विकास के कारणों को लेकर भारी बहस मौजूद रही है। कर्ट गॉसवीलर, ऐंसन रैबिनबाख़, टिम मेसन, माईकल कालेकी, ब्रेष्ट, लूकाच, डेविड अब्राहम, डेरेक लिण्टन आदि के विषय में रवि सिन्हा का विश्लेषण अनभिज्ञ है। अलग-अलग दृष्टिकोणों के बावजूद इन वामपन्थी विद्वानों के बीच एक बात को लेकर सहमति हैः फ़ासीवाद एक आधुनिक परिघटना है और इसे किसी भी रूप में प्राक्-आधुनिक या आदिम प्रवृत्तियों से गड्ड-मड्ड करना केवल यह दिखलाता है कि आप पूँजीवादी आधुनिकता को ही नहीं समझते हैं। रैबिनबाख़ का यह कथन ग़ौर करने योग्य हैः “फ़ासीवाद निस्सन्देह रूप से एक आधुनिक परिघटना है। युद्धोत्तर उन्नत पूँजीवाद के दौर में पैदा हुए राज्य और समाज के सम्बन्धों के रूपान्तरण में यह बात सबसे अधिक देखी जा सकती है, हालाँकि यह उदार जनतन्त्र के सन्दर्भों में हुआ है।” (रैबिनबाख़, ‘टुवर्ड्स ए मार्क्सिस्ट थियरी ऑफ फाशिज़्म’, रेज़िस्टिबल राइज़, सं–मार्गिट कोव्स व शास्वती मजुमदार, लेफ्रट वर्ड बुक्स, 2005, पृ- 71) आगे रैबिनबाख़ स्पष्ट करते हैं कि फ़ासीवादी उभार का चरित्र और आवश्यकताएँ ही ऐसी हैं कि वह टटपुँजिया वर्गों की प्रतिक्रियावादी गोलबन्दी के लिए ज़रूरी विचारधाराओं के लिए अतीत में देखता है और साथ ही उसकी भावी योजना समाज और अर्थव्यवस्था का एक अतिरेकपूर्ण पूँजीवादी आधुनिक पुनर्गठन की होती है।

यह भी ग़ौरतलब है यहाँ जिस अतीत की विचारधारा का फ़ासीवाद आवाहन करता है, वह कोई प्राक्-आधुनिक चीज़ नहीं है। वह वास्तव में एक गौरवशाली अतीत की आधुनिक कल्पना, आविष्कार और नवोन्मेष होता है। अतीत के “गौरव” के आवाहन की अनुगूँज टटपुँजिया जनसमुदायों के बीच इसलिए मिलती हैं क्योंकि इन वर्गों का संकट भी आधुनिक है और उसके समाधान की उनकी फैण्टास्टिक (fantastic) अपेक्षाएँ भी मूलतः आधुनिक हैं! रैबिनबाख़ ने ही आगे लिखा है, “फ़ासीवाद के वे सिद्धान्त जो इन असंगत दिखने वाले क्षणों को नहीं समझते-यानी कि इसकी तकनोलॉजिकल और राजनीतिक आधुनिकता और इसका विचारधारात्मक परम्परावाद-वे अपूर्ण हैं।” (वही) रैबिनबाख़ के पूरे सिद्धान्त से सहमति न रखते हुए भी इस प्रेक्षण को कमोबेश सही माना जा सकता है। वाल्टर बेंजामिन ने एक जगह लिखा था, “अतीत का ऐतिहासिक आर्टिकुलेशन पेश करने का यह अर्थ नहीं है कि उसकी पहचान ठीक उस रूप में की जाये जैसा कि वह वास्तव में था’ (रांके)। इसका अर्थ होता है स्मृति की उस कौंध को पकड़ना जो कि ख़तरे के क्षण में उपस्थित होती है। ऐतिहासिक भौतिकवाद अतीत की उस छवि को कायम रखना चाहता है जो कि इतिहास द्वारा अकेले किये गये व्यक्ति के समक्ष ख़तरे के क्षण में अनपेक्षित रूप में उपस्थित होती है। यह ख़तरा परम्परा की अन्तर्वस्तु और इसके प्राप्तकर्ताओं, दोनों को ही प्रभावित करती है। एक ही जोखिम उनके सिर पर लटक रहा होता हैः शासक वर्ग का उपकरण बन जाने का।” (वॉल्टर बेंजामिन, ‘थीसीज़ ऑन दि फिलॉसफी ऑफ हिस्ट्री’, इल्यूमिनेशंस, फोण्टाना/कॉलिंस, ग्लास्गो, 1977, पृ- 257) इस उद्धरण में मौजूद जुडाइक मसीहावाद के प्रभाव को छोड़ दें, तो यह प्रेक्षण बिल्कुल सही है कि परम्पराओं और उसके प्राप्तकर्ताओं दोनों के सामने ख़तरे के क्षण में शासक वर्ग का उपकरण बन जाने का जोखिम मौजूद रहता है।

रवि सिन्हा का विश्लेषण एक अन्य मायने में फ़ासीवाद के उदय की व्याख्या करने वाले तमाम स्कूलों में से उदार बुर्जुआ स्कूलों के साथ जाकर खड़ा होता है और वास्तव में उनकी अवस्थितियों का एक दरिद्र मिश्रण है। इसमें से एक है फ्यूहरर-स्टेट का सिद्धान्त जो कि हिटलर जैसे किसी तानाशाह के सत्ता में पहुँचने को ‘जनता की इच्छा’ की अभिव्यक्ति मानते हैं! इस सिद्धान्त में जनता या समाज को एक जैविक पूर्णता (biological totality) या एकाश्मीय निकाय के तौर पर देखा जाता है। न तो यह सिद्धान्त समाज का कोई वर्ग विश्लेषण पेश करता है और न ही फ़ासीवादी तानाशाही के वर्ग चरित्र को पर्याप्त रूप से स्पष्ट कर पाता है। इसलिए इसमें तानाशाह पर भी कुछ अति-केन्द्रण हो जाता है। ऐसा विश्लेषण ही ‘अन्धकार के राजकुमार’-मार्का भाषा का इस्तेमाल कर सकता है। निश्चित तौर पर, ‘राजकुमार’, ‘बर्बरों’ आदि जैसे रूपकों का इस्तेमाल फ़ासीवाद के एक सम्पूर्ण वर्ग विश्लेषण में किया जा सकता है। लेकिन अगर पूरे विश्लेषण की जगह ही ऐसे साहित्यिक रूपक ले लें तो बात दिक्कततलब है!

रवि सिन्हा का विश्लेषण फ़ासीवाद के विश्लेषण को आधुनिक और प्राक्-आधुनिक के द्विभाजन के उपकरण द्वारा व्याख्यायित करने के प्रयास में (सम्भवतः अपनी इच्छा से स्वतन्त्र) पूँजीवादी व्यवस्था को दोषमुक्त कर देता है! क्योंकि फ़ासीवादी उभार उनके लिए पूँजीवादी व्यवस्था के आख्यान का एक नैसर्गिक अंग नहीं है बल्कि भारतीय या ऐसे समाजों में निहित सर्वसत्तावादी, प्राक्-आधुनिक, आदिम, बर्बरतापूर्ण प्रवृत्तियों का नतीजा है और उनकी प्रतिसन्तुलनकरी ताक़त अम्बेडकर द्वारा निर्मित बुर्जुआ उदार जनवादी संविधान और उसके द्वारा संचालित (?) राज्य व्यवस्था है! यह अद्वितीय विश्लेषण न चाहते हुए भी रवि सिन्हा को हेनरी ऐशबाई टर्नर जैसे असुधारणीय रूप से उदारवादी बुर्जुआ सिद्धान्तकारों की कतार में खड़ा कर देता है, जो कि फ़ासीवादी उभार और पूँजीवादी व्यवस्था के बीच के नाभिनालबद्ध सम्बन्ध को जाने या अनजाने या तो ग़ायब कर देता है या फिर कमज़ोर कर देता है। आधुनिकता और प्राक्-आधुनिकता की ‘बाइनरी’ का रवि सिन्हा (केवल इस लेख में ही नहीं बल्कि अन्य स्थानों पर भी) जिस प्रकार इस्तेमाल करते हैं, उसे गाइल्स देल्यूज़ ने सही नाम दिया है: ‘डिस्जंक्टिव सिन्थेसिस’ (dysjunctive synthesis), यानी, छद्म विकल्पों का समुच्चय। रवि सिन्हा जो ‘बाइनरी’ हमारे सामने पेश कर रहे हैं और वास्तव में जिस बाइनरी से उनका पूरा विश्लेषण और उनके द्वारा दिये जाने वाले ‘सबक’ निर्धारित होते हैं, वह वास्तव में एक ‘डिस्जंक्टिव सिन्थेसिस’, एक छद्म विकल्पों की ‘बाइनरी’ है। फ़ासीवाद के विरुद्ध पूरे संघर्ष को इस ‘बाइनरी’ में अपचयित (reduce) कर दिया गया है। और जो नतीजे निकले हैं, वे भयंकर हैं!

इसके अलावा, रवि सिन्हा के सैद्धान्तिकीकरण पर फ़ासीवाद के उभार के एक अन्य बुर्जुआ सिद्धान्त की छाया भी देखी जा सकती है, जिसे राष्ट्रीय विशिष्टता के सिद्धान्त से भी जाना जाता है। इसके एक सिद्धान्तकार जूर्गेन कोका ने दलील पेश की है कि जर्मन समाज सही मायने में कभी बुर्जुआ आधुनिक समाज नहीं था और यही कारण है कि वहाँ फ़ासीवाद का उदय हुआ; क्योंकि वहाँ अतार्किक, प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं और बर्बर मूल्यों व सिद्धान्तों के फलने-फूलने की ज़मीन मौजूद थी। यह सिद्धान्त इस बात की व्याख्या करने में असफल रहता है कि फ़ासीवाद के उभार का पूँजीवाद के विकास के एक विशिष्ट क्षण से रिश्ता है और इस विशिष्ट क्षण में ही दुनिया के कई देशों में फ़ासीवादी आन्दोलन पैदा हुए थे, हालाँकि उन्हें सफलता जर्मनी, इटली और एक हद तक स्पेन, हंगरी, पुर्तगाल, यूनान आदि जैसे देशों में ही मिली थी। आज के दौर में भी जब विश्व पूँजीवाद अभूतपूर्व संकट से गुज़र रहा है, तो न केवल हम यूनान जैसे दक्षिण यूरोपीय देश में ‘गोल्डेन डॉन’ जैसी फ़ासीवादी ताक़तों का उभार देख रहे हैं, बल्कि फ्रांस जैसे आधुनिक समाज में (यानी, जितने अधिक से अधिक आधुनिक की आप कल्पना कर सकते हैं!) ‘नेशनल फ्रण्ट’ जैसी धुर दक्षिणपन्थी फ़ासीवादी पार्टी के उभार को भी देख रहे हैं। ‘आधुनिक’ और ‘प्राक्-आधुनिक’ के छद्म विकल्पों के समुच्चय के ज़रिये आज फ़ासीवादी और धुर दक्षिणपन्थी ताक़तों के वैश्विक उदय की व्याख्या नहीं की जा सकती है। न तो भारत में फ़ासीवादी उभार की विशिष्टता को रवि सिन्हा की पद्धति से पहचाना जा सकता है और न ही इसे फ़ासीवाद के वैश्विक उभार की सामान्यता में अवस्थित किया जा सकता है।

यह है रवि सिन्हा द्वारा राज्य और समाज के सम्बन्धों के विषय में प्रस्तुत समझदारी, जिसे भरपूर उदारता के साथ राजनीतिक तौर पर उदार बुर्जुआ, व्यवहारवादी, सुधारवादी और सामाजिक-जनवादी और विचारधारात्मक तौर पर अनैतिहासिक, अवैज्ञानिक और अतार्किक कहा जा सकता है। ऐसे विश्लेषण से निकाले गये उनके पहले सबक के बारे में भी यही कहा सकता है। रवि सिन्हा का कहना है कि फ़ासीवादी उभार का मुकाबला करने के लिए फिलहाल जनता के पास जाना, उन्हें संगठित करना उपयुक्त रणनीति नहीं है क्योंकि ऐसा करने पर फ़ासीवादी भी जनता के बीच जायेंगे और उनकी पहुँच आपसे ज़्यादा होगी। लेखक वामपन्थ की पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के हाथों हार का उदाहरण देते हुए पूछते हैं, “अगर वामपन्थ, मिसाल के तौर पर, पश्चिम बंगाल की सड़कों और खेतों में तृणमूल के ख़िलाफ़ नहीं लड़ पाया तो यह पूरे देश के शहरों, बस्तियों, गाँवों और जंगलों में अन्धकार के नये राजकुमार से कैसे लड़ेगा, अगर सारे वामपन्थी साथ आ जायें तो भी, जिसकी कम ही उम्मीद है।” रवि सिन्हा इस बात से पर्याप्त भयाक्रान्त नज़र आते हैं कि अन्धकार के नये राजकुमार को जनता से पर्यात सराहना, भय और प्रार्थनाएँ मिल रही हैं! हम देख सकते हैं कि समाज और जनता पर भरोसे के अभाव में वह काफ़ी डर गये हैं और इसीलिए उन्होंने विश्लेषण के लिए सही आरम्भ बिन्दु नहीं चुना, यानी कि फ़ासीवाद का उभार हुआ क्यों है और क्या हमारे पहले से ही जनता के बीच न जाने का इसमें कोई योगदान है? यही कारण है कि अन्त में वे बुर्जुआ जनवादी संवैधानिक संस्थाओं जैसे कि संसद और विधानसभाओं और साथ ही न्यायपालिका में फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष करने का आह्नान करते हैं और उनके आदर्श हैं मुकुल सिन्हा और तीस्ता सेतलवाड़।

पहली बात तो यह कि उनके नतीजे में इस बात का कोई विश्लेषण नहीं है कि फ़ासीवाद का उभार हुआ ही क्यों है, जिसे हमने पहले सही आरम्भ-बिन्दु का चुनाव न करना कहा है। निश्चित तौर पर, इसके वस्तुगत और मनोगत कारण दोनों ही हैं। पूँजीवाद का संकट वह वस्तुगत पृष्ठभूमि तैयार करता है, जिसमें फ़ासीवादी शक्तियाँ फलती-फूलती हैं। लेकिन यह वस्तुगत आधार अपने आप में फ़ासीवादी शक्तियों को सत्ता में नहीं पहुँचा देता है; वह फ़ासीवादी शक्तियों के उदय की एक पूर्वशर्त है। वस्तुतः, यही पूँजीवादी संकट क्रान्तिकारी परिस्थितियों को भी तैयार करता है और एक क्रान्तिकारी सम्भावना को भी जन्म देता है। लेकिन यह भी केवल एक पूर्वशर्त की पूर्ति ही होता है। इतिहास के ऐसे दौर में जिस प्रकार का अभिकर्ता (agent) राजनीतिक-विचारधारात्मक तौर पर अधिक तैयार, सांगठनिक तौर पर अधिक सुदृढ़ और अधिक व्यापक सामाजिक पहुँच रखता है, उसी प्रकार की सम्भावना के वास्तविकता में तब्दील होने की गुंजाइश ज़्यादा होती है। फ़ासीवाद का उदय इस रूप में वास्तव में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट शक्तियों की असफलता को दर्शाता है। जर्मनी, इटली, पुर्तगाल, स्पेन और हंगरी में भी नात्सीवादी और फ़ासीवादी उभार समाजवादी आन्दोलन और मज़दूर आन्दोलन के खण्डहर पर हुआ था। फ़ासीवाद का उभार प्रतिरोध्य से अप्रतिरोध्य इसलिए नहीं बन जाता कि सम्बन्धित समाज में कुछ ऐसी अन्तर्निहित सर्वसत्तावादी रुझानें होती हैं जो कि समय-समय पर फ़ासीवाद को सत्ता में पहुँचा देती हैं, जैसा कि रवि सिन्हा हमें यक़ीन दिलाना चाहते हैं! कम-से-कम फ़ासीवाद का वैश्विक इतिहास तो ऐसा कुछ भी नहीं दिखलाता है; न ही फ़ासीवादी उभार का राजनीतिक आर्थिक विश्लेषण ऐसा कुछ सिद्ध करता है। क्या जर्मनी और इटली में फ़ासीवाद के उदय का इतिहास यह दिखलाता नहीं है कि सामाजिक-जनवाद की ग़द्दारी ने इसमें एक बहुत बड़ी भूमिका निभायी थी? क्या जर्मनी का इतिहास यह दिखलाता नहीं है कि वीमर गणराज्य के दौर में पूँजी और श्रम के बीच का असुविधाजनक विवाह अन्त में पूँजीवादी और टटपुँजिया प्रतिक्रिया के अंकुरण और प्रस्फुटन की ओर ले गया? क्या जर्मनी का 1920 के दशक का पूरा इतिहास इस बात का गवाह नहीं है कि पूँजीवादी संकट ने जो क्रान्तिकारी सम्भावना पैदा की थी, मज़दूर वर्ग की सच्ची हिरावल शक्तियाँ अपनी विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक कमज़ोरियों के कारण उन्हें हकीकत में तब्दील करने में नाकामयाब रहीं? ऐसे प्रश्न इटली, हंगरी, पुर्तगाल और स्पेन के इतिहास के बारे में भी पूछे जा सकते हैं। क्या इसे रवि सिन्हा-मार्का “वाम” का सामूहिक राजनीतिक एम्नीज़िया नहीं कहेंगे कि वह भूल गया है कि अतीत में भी फ़ासीवाद का प्रतिरोध्य उभार अप्रतिरोध्य क्यों और कैसे बन गया? क्योंकि ऐसी विस्मृति के फलस्वरूप ही कोई फ़ासीवादी उभार से लड़ने का ऐसा बासी सामाजिक-जनवादी रास्ता सुझा सकता है, जो कि रवि सिन्हा सुझा रहे हैं और जो न सिर्फ़ इतिहास में बार-बार पिट चुका है बल्कि साथ ही फ़ासीवाद के उभार का कारण भी बना है। यह एक मज़ाकिया डर है कि अगर हम जनता के बीच जाकर फ़ासीवाद के विरुद्ध संघर्ष के लिए उसे गोलबन्द और संगठित करेंगे तो सत्ताधारी फ़ासीवादी भी और ज़्यादा बड़े पैमाने पर जनता के बीच जायेगा और हमारे लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर देगा! वास्तव में फ़ासीवाद सत्ताधारी बना इसलिए क्योंकि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन हमारे देश में विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांगठनिक तौर पर बिखरा हुआ और कमज़ोर है और जनता के व्यापक हिस्सों में पहुँच नहीं रखता है! बाईबिल की भाषा में बात करें तो यहाँ ‘मूल पाप’ सामाजिक-जनवादियों के कुकर्म हैं कि उन्होंने संघी फ़ासीवादियों को सड़क पर ‘इंगेज’ करने का साहस और मज़बूती ही नहीं दिखलायी। साथ ही हमारे देश में कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का कठमुल्लावाद और संकीर्णतावाद भी इसके लिए उतने ही ज़िम्मेदार हैं कि उन्हें जहाँ होना था वे वहाँ नहीं हुए; कि उन्होंने भारत के विशाल सर्वहारा वर्ग को फ़ासीवादी कारपोरेटिज़्म और संशोधनवादियों के भरोसे छोड़ दिया। और अब उसी ‘मूल पाप’ के नये सिरे से और पहले से भी ज़्यादा भयंकर दुहराव का नुस्खा हमें रवि सिन्हा सुझा रहे हैं। फ़ासीवाद के उदय के पीछे वस्तुगत ज़मीन तैयार होने के अलावा (क्योंकि वे तो किसी भी सूरत में आवर्ती चक्रीय क्रम में बार-बार तैयार होंगेी ही) मनोगत शक्तियों की जो तमाम कमज़ोरियाँ ज़िम्मेदार थीं, रवि सिन्हा उनमें से कम-से-कम कुछ को दुहराने की वकालत कर रहे हैं और उसके पक्ष में पाण्डित्यपूर्ण भाषा में तर्क भी पेश कर रहे हैं। उनका मूल तर्क यह है कि फ़ासीवादी शक्तियों से सड़क पर, समाज में संघर्ष को फिलहाल अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया जाना चाहिए और फिलहाल अपने संघर्ष को अदालत और संसद-विधानसभा जैसी संवैधानिक संस्थाओं में सीमित कर दिया जाना चाहिए। इसी बाबत मुकुल सिन्हा और तीस्ता सेतलवाड़ की मिसाल दी गयी है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुकुल सिन्हा और तीस्ता सेतलवाड़ का संघर्ष कई मायनों में साहसिक है और उन्होंने समझौताविहीन कानूनी संघर्ष चलाया है। लेकिन उनके संघर्ष अपनी साहसिकता और सिद्धान्तनिष्ठ होने के बावजूद क्या ठीक इसी बात की ताईद नहीं करते हैं कि महज़ ऐसे संघर्षों से फ़ासीवाद का मुकाबला कर पाना, फ़ासीवादी उभार को रोक पाना सम्भव नहीं है? क्या वे ठीक इसी बात को सिद्ध नहीं करते हैं कि ऐसे तमाम संघर्ष वास्तव में बर्बर फ़ासीवादियों को सभ्य बनने पर मजबूर करने में नाकाम रहे हैं? बाबरी मस्जिद के ध्वंस से लेकर गुजरात नरसंहार तक क्या इक्के-दुक्के निम्न स्तर के लम्पटों, गुण्डों या छुटभैया नेताओं को कुछ समय तक सलाखों के पीछे रखने के अलावा ऐसे कानूनी संघर्ष (जिनकी वांछनीयता पर कोई प्रश्न नहीं है) कुछ और कर पाये हैं? निश्चित तौर पर, फ़ासीवाद के विरुद्ध बुर्जुआ संवैधानिक और कानूनी संघर्षों की फ़ासीवाद-विरोधी जन गोलबन्दी और आन्दोलन के एक अंग के तौर पर ही कोई प्रासंगिकता है। लेकिन समूचे फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष को कुछ समय के लिए भी महज़ कानूनी-संवैधानिक संघर्ष तक सीमित कर देना बुर्जुआ संवैधानिक जनवाद के प्रति रवि सिन्हा के भयंकर विभ्रमों को ही दिखलाता है। फ़ासीवाद के इतिहास पर भी नज़र डालें तो ऐसे कानूनी संघर्ष वास्तव में फ़ासीवाद के लिए खुजली का कारण भी नहीं बने हैं, या फिर ज़्यादा से ज़्यादा खुजली का ही कारण बने हैं! कोस्ता गावरास जैसा एक रैडिकल फिल्मकार भी इस सच्चाई को ज़ेड नामक अपनी प्रसिद्ध फिल्म में खूबसूरती के साथ पेश करता है। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने भी दि रेज़िस्टिबल राइज़ ऑफ आर्तुरो उई में इस सत्य को उघाड़कर सामने रखा है। और जहाँ तक अकादमिक और ग़ैर-अकादमिक मार्क्सवादी-लेनिनवादी विश्लेषण की बात है, तो बुर्जुआ संविधान और कानून के दायरे में फ़ासीवाद-विरोधी संघर्षों की उपयोगिता और साथ ही सीमाओं पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है, जिनमें से कुछ नामों का हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। लेकिन रवि सिन्हा की ‘विवेकवान’ व्यवहारवादी वाम अवस्थिति कोस्ता गावरास जैसे रैडिकल फिल्मकार की अवस्थिति से भी पीछे जा चुकी है। वास्तव में, यह अवस्थिति एक किस्म के पराजयवाद और हताशा से पैदा हुई अवस्थिति है और साथ ही फ़ासीवादी उभार के समक्ष क्रान्तिकारियों के अपरिहार्य कार्यभारों को अनिश्चितकाल तक स्थगित या रद्द करने देने का घोषणापत्र पेश करती है। और ग़ौरतलब बात यह है कि अकादमिक और आम बौद्धिक मानकों से भी देखा जाय तो यह अवस्थिति बेहद दरिद्र है। स्पष्ट है कि कानूनी और संवैधानिक दायरे में फ़ासीवादी ताक़तों के विरुद्ध होने वाला संघर्ष आम तौर पर और ऐतिहासिक तौर पर केवल बुर्जुआ लीगैलिटी की सीमाओं को ही दिखलाने के तौर पर उपयोगी सिद्ध हुआ है। लेकिन अगर कोई इससे ज़्यादा उम्मीद लगाकर बैठा है तो उसे भारी सदमे के लिए तैयार रहना चाहिए।

दूसरा सबकः बुर्जुआ जनवादी संवैधानिक उदार कल्याणकारी राज्य की जय हो!

पीचमः “कान केवल एक चीज़ के लिए बना था, उन लोगों के शोषण के लिए जो इसे नहीं समझते, या जो नग्न दरिद्रता के कारण इसका पालन नहीं कर पाते। जो भी इस शोषण के कुछ टुकड़े चाहता है उसे स्वयं कानून का सख़्ती से पालन करना चाहिए।”

ब्राउनः “अच्छा, तो आप मानते हैं कि हमारे न्यायाधीश भ्रष्ट बनाये जा सकते हैं।”

पीचमः “कतई नहीं, महाशय, कतई नहीं। हमारे न्यायाधीश तो बिल्कुल भ्रष्टाचार से परे हैं: लेकिन सिर्फ पैसा उन्हें एक न्यायपूर्ण फैसला सुनाने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता है।”

                (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, ‘थ्री पेनी ऑपेरा’)

रवि सिन्हा का दूसरा सबक इस बाबत है कि जनवाद की प्रक्रियाएँ और रूप कैसे होने चाहिए? यानी कि जनवाद का पूरा ढाँचा कैसा हो। इस बारे में उनका मानना है कि जनवाद का केवल मज़बूत होना, तृणमूल धरातल पर होना और भागीदारी से भरा हुआ होना पर्याप्त नहीं है। वह तमाम नव दार्शनिकों, एनजीओ सिद्धान्तकारों, सामाजिक आन्दोलनों और मैगसेसे पुरस्कार विजेताओं की इस बात के लिए आलोचना करते हैं कि उन्होंने केवल भागीदारी जनवाद, तृणमूल जनवाद आदि जैसी अवधारणाओं पर बल दिया है। लेखक उन तमाम भागीदारी जनवाद समर्थकों की इस बात के लिए आलोचना करता है कि उन्होंने ‘आम आदमी पार्टी’ के रूप में भारतीय राजनीतिक दृश्यपटल पर उपस्थित हुए नये योद्धाओं की सराहना की जिन्होंने ‘नीचे से जनवाद’, ‘भागीदारी जनवाद’, ‘मुहल्ला जनवाद’ आदि जैसी अवधारणाओं को लागू करने का प्रयास किया, हालाँकि इन बौद्धिकों में कुछ ऐसे भी थे जो इनके रखवाले वाले रुख़ (vigilantism) को लेकर सशंकित थे। लेकिन इसके बावजूद ऐसे बौद्धिकों ने ‘व्यवस्था को अन्दर तक हिला डालने’ के लिए ‘आप’ की प्रशंसा की। रवि सिन्हा तृणमूल जनवाद या भागीदारी जनवाद की अपने कारणों और अपने तरीके से हिमायत करने वाले वामपंथियों की भी इस बात की आलोचना करते है कि उन्होंने भी भागीदारी जनवाद के समर्थन के चक्कर में एक अहम नुक्ता नज़रन्दाज़ कर दिया है। रवि सिन्हा के अनुसार भागीदारी जनवाद राजनीतिक प्रक्रिया को गाढ़ा या सघन बनाता है और साथ ही निर्णय लेने की प्रक्रिया को धुंधला और अपारदर्शी बनाता है। लेकिन रवि सिन्हा के अनुसार केवल तृणमूल या भागीदारी जनवाद की अवधारणा जनवाद पर कहर भी बरपा कर सकती है, जैसा कि खाप पंचायतों और ‘आप’ के शासन के दौरान खिड़की एक्सटेंशन की घटना ने दिखलाया; लेकिन अपने उदाहरणों में चलते-चलते रवि सिन्हा ‘महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’ को भी जोड़ देते हैं, जिसके दौरान भीड़ के जनवाद ने अपने जौहर दिखाये थे! इस पर हम थोड़ा आगे आयेंगे। रवि सिन्हा दावा करते हैं कि वामपन्थी लोग भागीदारी जनवाद का समर्थन इस ज़मीन से करते हैं कि उनके लिए बुर्जुआ जनवाद की किसी संस्था या प्रथा का कोई उपयोग नहीं है क्योंकि वे सभी तो पूँजी के हितों की सेवा के लिए बनायी गयी थीं। और इसीलिए वामपन्थी लोग पूँजीवाद के तहत भी बस जनवाद को अधिक से अधिक भागीदारीपूर्ण और प्रत्यक्ष बनाने के लिए संघर्ष करते हैं! रवि सिन्हा के मुताबिक ये सारे लोग भागीदारी जनवाद की हिमायत करते हुए यह बात भूल जाते हैं कि एक मज़बूत जनवादी परम्परा और संवैधानिक-प्रातिनिधिक-उदार जनवादी व्यवस्था और संरचना के बिना तृणमूल या भागीदारी जनवाद एक ऐसी दीवार होती है जो दोनों तरफ़ गिर सकती है, एक दुधारी तलवार होती है। इसलिए एक कानून और नियम से बँधा जनवादी संवैधानिक राज्य होना बहुत आवश्यक है क्योंकि प्राक्-आधुनिक जनता पर भरोसा नहीं किया जा सकता है।

चलते-चलते वामपंथियों पर यह दृष्टिकोण भी थोप दिया जाता है कि उनका यह मानना है कि बुर्जुआ जनवाद को लाने के लिए जनता ने कुछ भी नहीं किया, यह तो पूँजी के हितों में पूँजीपतियों द्वारा बनाया गया एक उपकरण मात्र है। फिर लेखक सीख देता है कि समाजवाद आने पर बुर्जुआ जनवाद की कई संस्थाओं को हमें लेना होगा और उनमें समाजवाद के केन्द्रीय सिद्धान्तों के मुताबिक बदलाव करना होगा। क्योंकि बुर्जुआ जनवाद केवल राज्य और सत्ता की संरचनाओं का मसला नहीं है बल्कि इसका रिश्ता नागरिकों के अधिकारों, पसन्द और आज़ादियों से भी जुड़ा हुआ है! इसके बाद रवि सिन्हा कहते हैं कि जनवाद राज्यसत्ता की सरंचना को संघटित करने का रूप भी होता है और सत्ता की सभी संरचनाएँ अन्तिम विश्लेषण में स्वतन्त्रता का निषेध करती हैं। इसलिए इंसानियत को अगर तरक्की करनी है तो उन्हें सत्ता की संरचनाओं को अधिक से अधिक कमज़ोर और पारदर्शी बनाते जाना होगा और इसी प्रक्रिया में अन्त में वे विलोपित हो जायेंगी। ऐसा सच में होगा इसको लेकर लेखक थोड़ा सशंकित है लेकिन वह मानता है कि इससे कम-से-कम यह तो साबित होता ही है कि हमें जनवाद और राज्य की संरचनाओं को अधिक से अधिक पारदर्शी बनाना होगा। राज्य ऐसे में सिकुड़ेगा और जीवन के तमाम क्षेत्र उसकी पकड़ से बाहर होंगे। लेकिन रवि सिन्हा के मुताबिक पूँजीवाद के मातहत यह आज़ादी को बढ़ायेगा नहीं बल्कि राज्य की पकड़ से जो कुछ छूटेगा वह बाज़ार की पकड़ में जायेगा। इसलिए पूँजीवाद के तहत राज्य का पारदर्शी होना बहुत ज़रूरी है और ऐसा केवल भागीदारी जनवाद से नहीं बल्कि एक जनवादी संवैधानिक राज्य व्यवस्था के ज़रिये ही हो सकता है क्योंकि भागीदारी जनवाद किसी युग की जनवादी भावना और संस्कृति को एकसमान रूप में आत्मसात नहीं करता है। यह काम रवि सिन्हा के मुताबिक एक संवैधानिक जनवादी राज्य करता है! उनके अनुसार ऐसे राज्य को लोग भी बना सकते हैं और यह भागीदारी जनवाद के उसूलों का खण्डन भी नहीं होगा। अब दूसरे सबक में अन्तर्निहित इस पूरी तर्क प्रणाली का थोड़ा अध्ययन कर लिया जाय।

इस दूसरे सबक का मर्म यह है कि भागीदारी जनवाद या तृणमूल जनवाद अपने आप में पर्याप्त नहीं है, विशेष तौर पर हमारे यहाँ और अन्य प्राक्-आधुनिक समाजों में क्योंकि वहाँ समाज या जनसमुदाय “उस युग की आधुनिक भावनाको एकसमान रूप में आत्मसात नहीं करते हैं; ऐसे में, यदि कोई नियम व कानून से बँधा हुआ जनवादी राज्य नहीं होगा, तो जनता का भागीदारी जनवाद वास्तव में जनवाद को नष्ट भी कर सकता है! लेकिन राज्य यहाँ “युग की आधुनिक भावना” का नैसर्गिक वाहक माना गया है। यहाँ रवि सिन्हा का ड्यूईवादी व्यवहारवाद पूरी तरह खुलकर सामने आया है। जैसा कि हमने ऊपर कहा है, ड्यूई का यही सिद्धान्त था कि राज्य सर्वाधिक तार्किक अभिकर्ता (most rational actor/agent) होता है और समाज में मौजूद असंगतियों और अन्तरविरोधों को अपने सकारात्मक तार्किक हस्तक्षेप से प्रति-सन्तुलित करता है। ड्यूई का दूसरा उपकरण समाज में एक नैतिक संहिता की मौजूदगी था जिसकी आपूर्ति एक समानतामूलक धर्म द्वारा भी की जा सकती थी; अम्बेडकर ने इन्हीं दोनों ड्यूईवादी दलीलों को हूबहू अपनाया था; लेकिन रवि सिन्हा इन दोनों बातों को हूबहू नहीं अपनाते हैं; उनके सैद्धान्तिकीकरण में नैतिक संहिता की जगह जॉन रॉल्स की सार्वजनिक तर्कणा (public reason) जैसी कोई चीज़ ले लेती है। यहाँ जॉन रॉल्स के विचारों का रवि सिन्हा पर असर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। चूँकि भारतीय व अन्य प्राक्-आधुनिक समाजों में ऐसी सार्वजनिक तर्कणा मौजूद नहीं है; चूँकि समाज ने युग की आधुनिक भावनाको आत्मसात नहीं किया है, इसलिए उनके सैद्धान्तिकीकरण में एक बुर्जुआ जनवादी उदार संवैधानिक राज्य की भूमिका और भी ज़्यादा बढ़ जाती है। अगर ड्यूई और रॉल्स में राज्यसत्ता की भूमिका एक सुगठित समाज (well-ordered society), यानी कि एक सार्वजनिक तर्कणा और राजनीतिक बहुलता को अपनाने वाले समाज में पैदा होने वाले विरोध में पंच या मध्यस्थ की होती है, तो रवि सिन्हा के सैद्धान्तिकीकरण में एक जनवादी संवैधानिक राज्य की मौजूदगी प्राक्-आधुनिक, सर्वसत्तावादी समाज की बर्बरता को रोकने की गारण्टी है। लेकिन ड्यूई और रॉल्स जैसे व्यवहारवादी, उदार बुर्जुआ चिन्तकों से पद्धति की समानता को स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। राज्य दोनों ही सूरत में आधुनिक तर्कणा का मूर्त रूप (embodiment of modern reason) है। उसकी अवस्थिति रवि सिन्हा के सिद्धान्तों में वही है जो कि हेगेल की विचार-पद्धति में देमी उर्गोस (परम विचार) की है। रॉल्स पर काण्ट के विचारों के असर से लोग वाक़िफ़ हैं।

काण्ट के राज्य के सिद्धान्त के दो बुनियादी आधार हैं। पहला यह कि साथ रहने वाले मनुष्य स्वतन्त्र तभी हो सकते हैं जब उनके पास एक दूसरे के बरक्स कुछ अधिकार हों (जिसे काण्ट बाह्य स्वतन्त्रता कहते हैं); आन्तरिक स्वतन्त्रता का रिश्ता मनुष्य के नैतिक व तार्किक निर्णय-निर्माण प्रक्रिया से है; दूसरा यह कि ऐसा तभी सम्भव है जब सभ्यता/नागरिकता (civility) की स्थिति को सुनिश्चित किया जाये और इसे सुनिश्चित करने का कार्यभार तर्कणा के मूर्त रूप के तौर पर राज्य करता है। अगर इन विचारों की रोशनी में हम रवि सिन्हा के राज्य और समाज के सम्बन्धों के सिद्धान्त को देखें तो हम पाते हैं कि उनका चिन्तन उदार बुर्जुआ विचारधारा की परम्परा में मज़बूती से जड़ित (embedded) है।

उनके दूसरे सबक में, यानी कि भागीदारी जनवाद के अपने आप में अपर्याप्त होने और एक नियमबद्ध संवैधानिक उदार बुर्जुआ राज्य की वांछनीयता में, हम स्पष्ट तौर पर इस चीज़ को देख सकते हैं। निश्चित तौर पर, जैसा कि वह खुद भी मानते हैं, यह दूसरा सबक उनके पहले सबक की ही निरन्तरता में है और उससे जुड़ा हुआ है। और यह निरन्तरता क्या है? आधुनिक राज्य और प्राक्-आधुनिक समाज का वही अनैतिहासिक और ग़ैर-द्वन्द्वात्मक द्विभाजन जिस पर रवि सिन्हा का पूरा सिद्धान्त खड़ा है। यहाँ एक प्रासंगिक प्रसंगान्तर कर हम आगे बढ़ सकते हैं। ग्राम्शी का भी यह मानना था कि इतालवी समाज में पिछड़ेपन और परम्परागत विचारों के प्रभाव में टटपुँजिया आबादी और यहाँ तक कि मज़दूर आबादी के एक हिस्से ने फ़ासीवाद का समर्थन किया था और समाज के कुछ हिस्सों में सांस्कृतिक-ऐतिहासिक तौर पर ऐसी सम्भावना-सम्पन्नता थी कि वह बर्बरता की ताक़तों का समर्थन करे। लेकिन ग्राम्शी का स्पष्ट तौर पर यह मानना था कि यह बर्बरता पूँजीवाद और पूँजीवादी आधुनिकता द्वारा समायोजित है और साथ ही किसी भी किस्म का बुर्जुआ राज्य आज उसे सीमित, अनुशासित या नष्ट नहीं कर सकता है; केवल एक सर्वहारा वर्ग का राज्य ही ऐसा काम कर सकता है। ग्राम्शी की पूरी अवस्थिति पर हम यहाँ विस्तार से चर्चा नहीं कर सकते हैं, लेकिन दिलचस्पी रखने वाले पाठक उनके लेख ‘ऑन फाशिज़्म’ (1921) में देख सकते हैं। अब रवि सिन्हा के तृणमूल भागीदारी जनवाद और संवैधानिक बुर्जुआ उदार जनवादी राज्य के तुलनात्मक अध्ययन की चर्चा पर लौटते हैं।

रवि सिन्हा का कहना है कि सभी विचारधाराओं के लोगों में इस बात को लेकर सहमति है कि एक मज़बूत, तृणमूल, भागीदारी जनवाद वांछनीय है। इसमें वे नवदार्शनिकों, सामाजिक आन्दोलन वालों, एनजीओ-पंथियों, वामपंथियों और मैगसेसे पुरस्कार विजेताओं जैसे सभी लोगों को जोड़ देते हैं। नवदार्शनिकों, सामाजिक आन्दोलन वालों और एनजीओ-पन्थियों की आलोचना रवि सिन्हा यहाँ यह नहीं समझने के लिए करते हैं कि भागीदारी जनवाद के साथ एक जनवादी संवैधानिक राज्य की अनिवार्यता है! यह वैसा ही है कि कोई ख़राब वायलिन बजाने के लिए हिटलर की आलोचना करे! साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियों, बुर्जुआ सरकारों और पूँजीपतियों के वित्त-पोषण से चलने वाले ‘सामाजिक आन्दोलनों’ और एनजीओ वालों की विचारधारा क्या है और वह वस्तुगत तौर पर क्या भूमिका अदा कर रहे हैं, रवि सिन्हा की आलोचना का निशाना यह नहीं है। वैसे भी ‘सामाजिक आन्दोलन’ किस बला का नाम है यह हम आज तक नहीं समझ पाये! यह शब्द मेरे विचार में जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के जैसा शब्द है, इन अर्थों में कि ये दोनों ही शब्द पुनरुक्तिपूर्ण (tautological) हैं। मतलब, कौन-सा आन्दोलन सामाजिक नहीं होता है? और कौन-सी क्रान्ति सम्पूर्ण नहीं होती है? जब इस प्रकार की पुनरुक्ति मौजूद हो तो वास्तव में उसके पीछे दूसरे अर्थ छिपे होते हैं। मिसाल के तौर पर, ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का नारा दिया ही वास्तविक क्रान्तिकारी आन्दोलन और लहर को व्यवस्था द्वारा सहयोजित कर लेने के लिए गया था। उसी प्रकार, सामाजिक आन्दोलन एक दूसरे प्रकार के आन्दोलन, यानी कि राजनीतिक आन्दोलन के विकल्प के तौर पर पेश किया गया है। ‘सामाजिक आन्दोलन’, मतलब कि जो राजनीतिक न हो; जो राज्यसत्ता के प्रश्न को न उठाये! आज के सारे तथाकथित सामाजिक आन्दोलनों की यही तो ख़ासियत है-वे जनता की तमाम समस्याओं को उठाने की बात करते हुए कभी यह नहीं बताते कि शत्रु कौन है? लड़ना किसके ख़िलाफ़ है? लेकिन रवि सिन्हा एनजीओपंथियों और सामाजिक आन्दोलन वालों की यह आलोचना पेश नहीं करते हैं! वह तर्जनी उठाकर उन्हें सीख देते हैं, ‘दोस्तो! सिर्फ भागीदारी जनवाद से काम नहीं चलेगा, बल्कि एक संवैधानिक जनवादी राज्य भी ज़रूरी है!’ या यूँ कहें कि इन बेचारों ने “युग की आधुनिक भावना” को पर्याप्त रूप से आत्मसात नहीं किया है, इसलिए रवि सिन्हा ने इनकी आलोचना पेश की है! इसीलिए हमने कहा कि यह ख़राब वायलिन बजाने के लिए हिटलर की आलोचना करने के समान है।

संवैधानिक जनवादी राज्य की वांछनीयता को न समझने और दूसरे कारणों से भागीदारी जनवाद का समर्थन करने के लिए रवि सिन्हा वामपंथि‍यों को भी लताड़ते हैं! वास्तव में, एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट राजनीतिक रूप से अयोग्य और नपुंसक शब्दावली में जनवाद के प्रकार या उनकी वांछनीयता के बारे में चर्चा करता ही नहीं है। यहाँ पर भी रवि सिन्हा ने एक ‘डिस्जंक्टिव सिन्थेसिस’ पेश की हैभागीदारी जनवाद बनाम संवैधानिक उदार बुर्जुआ जनवाद! यह शब्दावली अंशतः आई.एम.एफ.-वर्ल्ड बैंक विमर्श, अंशतः वर्ल्ड सोशल फोरम विमर्श और अंशतः रूसो, लॉक, ड्यूई, रॉल्स की उदार बुर्जुआ चिन्तन परम्परा से उधार ली हुई है। मार्क्सवाद जनवाद के प्रश्न को इस तरह से देखता ही नहीं है। पहली बात तो यह है कि संवैधानिक उदार बुर्जुआ जनवाद और जिसे रवि सिन्हा भीड़ जनवाद कहते हैं, भारत में उनके बीच कोई विशेष और वास्तविक अन्तरविरोध अभी तक उपस्थित ही नहीं हुआ है और इसकी उम्मीद भी कम है कि भविष्य में ऐसा होगा। निश्चित तौर पर, कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति खाप पंचायतों के “भागीदारी जनवाद” का विरोध करेगा; लेकिन आकाशकुसुम की अभिलाषा करने वाला कोई भोला-भाला और उदार बुर्जुआ जनवादी विभ्रमों का शिकार कोई प्रगतिशील व्यक्ति ही इस भयंकरता का मुकाबला करने के लिए इस देश की अदालतों और नियमबद्ध कानून व्यवस्था पर भरोसा कर सकता है। हमारे देश के स्वातन्त्रयोत्तर इतिहास पर निगाह डालें तो कुछ अपवादों को छोड़कर आप एक भी उदाहरण दे सकते हैं जिसमें हमारे लेखक की प्राच्य प्राक्-आधुनिक बर्बरता का मुकाबला हमारे देश की आधुनिक सभ्य/नागरिक कानूनबद्ध राज्य व्यवस्था द्वारा किया गया हो? या फिर कभी उदार बुर्जुआ संवैधानिक राज्य ने फ़ासीवादी बर्बरों को सभ्य बनाया हो, इसका कोई उदाहरण आप दे सकते हैं? अगर ऐसा होता तो 2002 गुजरात नरसंहार का घटित होना भी सम्भव था? क्या गुजरात नरसंहार को अंजाम देने वाली ताक़तों का अदालती या कानूनी संघर्ष वास्तव में कुछ ख़ास बिगाड़ पाया? अगर कोई झूठी उम्मीद इतने वर्षों के अनुभवों के बावजूद बनी हुई है तो इसे असुधारणीय बुर्जुआ विभ्रम न कहा जाय तो क्या कहा जाय?

सच तो यह है कि भागीदारी जनवाद या संवैधानिक जनवादी राज्य व्यवस्था दोनों ही अपने आप में दमनकारी या बर्बर भी हो सकते हैं और वे वास्तव में प्रगतिशील और जनता की पहलकदमी को खोलने वाले भी हो सकते हैं। इन रूपों (forms) के बीच कोई द्विभाजन खड़ा करके और इस प्रकार का रूपवादी (formalist) विश्लेषण पेश करके इनके बारे में सिर्फ़ विभ्रम ही फैलाये जा सकते हैं। असल प्रश्न यहाँ इन अलग-अलग किस्म की संस्थाओं के वर्ग चरित्र और उसके नेतृत्व का है। अगर जनता के सत्ता के अपने तृणमूल निकायों में जनता की राजनीतिक चेतना और सक्रियता नहीं होगी और अगर वहाँ एक सर्वहारा हिरावल का नेतृत्व मौजूद नहीं होगा, तो निश्चित तौर पर ऐसी संस्थाएँ अज्ञात चर राशि (unknown variable) बन सकती हैं। क्योंकि क्रान्तिकारी जन-चेतना कोई सहज उपलब्ध और आदर्श रूप में मौजूद वस्तु नहीं होती है, बल्कि सतत् राजनीतिक व विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष के ज़रिये और द्वन्द्वात्मक रूप में निःसृत होती रहती है। असल प्रश्न यहाँ जनवाद की संस्था की किस्म का या फिर उस समाज (मानो कि वह कोई एकाश्मीय निकाय हो!) के सारतः आधुनिक या प्राक्-आधुनिक होने का नहीं बल्कि उनकी राजनीतिक-विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु का है, जिसका निश्चित तौर पर एक वर्ग चरित्र होता है। लेकिन रवि सिन्हा का पूरा विश्लेषण जनवाद के रूप पर ही सीमित है। उसकी वर्ग अन्तर्वस्तु के बारे में उनका विश्लेषण शान्त है। अगर हम यह भी मान लें कि लेख की विषय-वस्तु केवल पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर फ़ासीवाद के प्रतिरोध की रणनीति तक सीमित है, तब भी वह बुर्जुआ जनवाद के दो रूपों के तुलनात्मक अध्ययन से आगे नहीं जाते और उनमें फर्क करने की उनकी कसौटी आधुनिकता और प्राक्-आधुनिकता है। यही कारण है कि रवि सिन्हा महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान जागृत जन पहलकदमी और खाप पंचायत और “खिड़की एक्सटेंशन गणराज्य” में कोई फर्क नहीं कर पाते हैं। उनकी वर्ग पक्षधरता ग़ायब है। उनके लिए आधुनिक बनाम प्राक्-आधुनिक के सिवा और कोई पैमाना नहीं है। महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान समाजवादी राज्य और व्यवस्था में मौजूद बुर्जुआ विरूपताओं और नौकरशाहाना विरूपताओं के ख़िलाफ़ जनता का जो आक्रोश फूटा था, वह प्यारे, नर्म-नर्म, शराफत भरे विमर्शवादी अन्दाज़ में नहीं अभिव्यक्त हो सकता था। वह एक राजनीतिक संघर्ष था जो चीन में समाजवादी सर्वहारा सत्ता के अस्तित्व का प्रश्न उठा रहा था। नतीजतन, उस संघर्ष में सर्वहारा जनसमुदायों के राजनीतिक व्यवहार में निश्चित तौर पर ग़ैर-जनवादी तत्व थे; उतने ही ग़ैर-जनवादी तत्व जितना कि एक युद्ध में की जाने वाली हिंसा में मौजूद होते हैं। क्या युद्ध में की जाने वाली ठोस हिंसा में जनवाद होता है? हमें नहीं लगता। यूँ तो किसी भी आमूलगामी परिवर्तन या क्रान्ति की ठोस तात्कालिक प्रक्रिया औपचारिक तौर पर जनवादी नहीं होती है! सामन्ती वर्ग के बुद्धिजीवियों ने बास्तीय के कारागार पर धावे को भी भीड़ की हरक़त ही क़रार दिया था! लगभग उसी ज़मीन से उदार बुर्जुआ जनवादी बुद्धिजीवी न सिर्फ़ महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को भीड़ जनवाद आदि जैसी संज्ञा देते हैं, बल्कि मज़दूर वर्ग की तमाम अन्य कार्रवाइयों को भी भीड़ की कार्रवाई क़रार देते हैं। फैसला सुनाने का यह पूरा स्वर स्पष्ट तौर पर बुर्जुआ कुलीनता के रंग में रंगा हुआ है। वर्ग संघर्ष या कहें कि वर्ग युद्ध की ठोस अभिव्यक्तियों में यदि कोई उदार बुर्जुआ जनवादी बुद्धिजीवी शराफ़त और विमर्श के तत्व ढूँढेगा तो उसे निश्चित तौर पर धक्का लगेगा; इस धक्के की पैथोलॉजिकल प्रतिक्रिया उसकी राजनीतिक दृष्टि को धूमिल कर देगी। धूमिल दृष्टि के साथ हर वर्ग संघर्ष में भीड़ ही नज़र आती है! और यही रवि सिन्हा के साथ हुआ है। और यही कारण है कि वे खाप पंचायत, खिड़की एक्सटेंशन की घटना और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति में कोई फर्क नहीं कर पाते हैं। बहरहाल, मूल चर्चा पर वापस लौटते हैं।

पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था को अधिक प्रातिनिधिक, भागीदारीपूर्ण और संविधानबद्ध (अगर संविधान और कानून व्यवस्था बुर्जुआ मापदण्डों और मानकों के अनुसार भी प्रगतिशील हों) बनाने के लिए संघर्ष करता है, वहीं वह अपनी राजनीतिक प्रतिनिधित्वपूर्ण संस्थाएँ भी खड़ी करता है। लेकिन रवि सिन्हा की रणनीति में इसका कोई स्थान नहीं है क्योंकि उनके लिए यह तथ्य आकाशवाणी समान (axiomatic) है कि भारत एक प्राक्-आधुनिक समाज है और उसमें जनता अगर ऐसी संस्थाएँ खड़ी भी करेगी तो वह भीड़ जनवाद का शिकार हो जायेगी या कम-से-कम हो सकती है और उसे भी संवैधानिक बुर्जुआ उदार राज्य से विनियमन की आवश्यकता होगी! ऐसे में मज़दूर अगर भारत में कल सोवियतों जैसी किसी संस्था का निर्माण करते हैं, तो रवि सिन्हा उसके प्रति सशंकित रहेंगे और बुर्जुआ राज्य द्वारा उसके विनियमन की वकालत करेंगे! कम-से-कम उनकी तर्क पद्धति तो इसी नतीजे पर पहुँचती है।

आगे रवि सिन्हा दावा करते हैं कि वामपन्थी ‘कॉमन सेंस’ यह है कि बुर्जुआ जनवाद की किसी भी संस्था या संघटक अंग को समाजवाद के दौरान नहीं अपनाया जायेगा; अधिकतम सम्भव बुर्जुआ जनवाद के लिए संघर्ष करना मज़दूर वर्ग का काम नहीं है और जितना बुर्जुआ जनवाद हासिल है उसे प्राप्त करने में जनता ने कुछ नहीं किया है। यह रवि सिन्हा का मार्क्सवाद के बारे में उदार बुर्जुआ कॉमन सेंस’ हो सकता है, कम-से-कम सही मार्क्सवाद का ऐसा दृष्टिकोण नहीं है। यह दृष्टिकोण मार्क्सवाद पर थोप दिया गया है। सर्वहारा वर्ग भी प्रतिनिधित्वपूर्ण जनवाद में भरोसा करता है और निश्चित तौर पर सर्वहारा जनवाद बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के सामने इस प्रतिनिधित्व का अवसर उपस्थित करेगा। लेकिन निश्चित तौर पर समाजवादी जनवाद का अस्तित्व-रूप (modus vivendi) बहुपार्टी उदार संसदीय पूँजीवादी लोकतन्त्र नहीं हो सकता है (इस नुक़्ते पर आलोचनात्मक चर्चा के लिए देखें-इसी अंक में पृष्ठ 118-119)। समाजवादी राज्य एक संविधानबद्ध शासन भी देगा। लेकिन इस संविधान की वर्ग अन्तर्वस्तु अलग होगी। इस रूप में जहाँ तक संस्थागत पहलू का प्रश्न है सर्वहारा जनवाद अपनी नयी संस्थाओं का निर्माण करेगा। वह दिखलायेगा कि बुर्जुआ जनवाद का सिद्धान्त बुर्जुआ दार्शनिकों का एक आदर्शीकृत स्वप्न था और पूँजीवादी व्यवस्था के रहते हुए इसका अर्थ बेचने-ख़रीदने की स्वतन्त्रता, कानून के समक्ष औपचारिक समानता के अलावा ज़्यादा कुछ नहीं हो सकता था और अन्ततः उसे किसी न किसी किस्म के प्रतिक्रिया में ही परिणत होना होता है। लेकिन रवि सिन्हा के लिए जनवाद की कोई वर्ग अन्तर्वस्तु नहीं है। उनके इस कथन पर ग़ौर करें, “आधुनिक जनवाद का इतिहास पूँजीवाद के इतिहास को अतिच्छादित करता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है यह उसका समानार्थी है। यह दृष्टिकोण जनवाद और पूँजीवाद के प्रश्न को द्विभाजित तौर पर देखता है। जनवाद के विकास को भी एक योगात्मक प्रक्रिया (aggregative process) के तौर पर देखता है। इसके अनुसार, पूँजीवाद के दौर में आधुनिक जनवाद विकसित हुआ और फिर समाजवाद में यह और विकसित हो जायेगा! इस पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई विच्छेद (rupture) का तत्व नहीं है। इस प्रकार का क्रमवाद (gradualism) और विकासवाद (evolutionism) वास्तव में उसी समाजशास्त्रीयतावाद की निशानी है, जिसका कि रवि सिन्हा का विश्लेषण बुरी तरह से शिकार है। पूँजीवाद के उद्भव और उसके विकास और फिर उसके पतन का इतिहास पूँजीवाद जनवाद के उद्भव, विकास और पतन का भी इतिहास होता है। वास्तव में, आर्थिक संकट के साथ आर्थिक कट्टरवाद के पैदा होने और राजनीतिक संकट के साथ राजनीतिक कट्टरवाद के पैदा होने के साथ ही समूची पूँजीवादी व्यवस्था अपनी असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचती है। पूँजीवाद के आदि से अन्त तक जनवाद का विकास एकरेखीय नहीं होता बल्कि जन्म, शीर्ष पर पहुँचने और फिर पतन की कहानी कहता है। बुर्जुआ जनवाद प्रगतिशील सम्भावना के जन्म, उसकी पराकाष्ठा पर पहुँचने और फिर हर प्रकार की प्रगतिशील सम्भावनाओं से रिक्त होने के साथ उसके पतन की मंज़िलों से होकर गुज़रता है। रवि सिन्हा की बुर्जुआ जनवाद के पूरे ऐतिहासिक आख्यान की समझदारी इस रूप में भयंकर भोण्डे क्रमवाद और विकासवाद की शिकार है।

समाजवाद बुर्जुआ जनवाद के आदर्शों से सीखता है, लेकिन साथ ही इसका यथार्थवादी रूपान्तरण भी करता है और स्पष्ट तौर पर दिखलाता है कि सच्चा जनवाद मज़दूर वर्ग का शासन ही दे सकता है, जो सही मायने में बहुसंख्यक मेहनतकश जनता का जनवाद हो; साथ ही, वह यह भी दिखलाता है कि जनवाद कोई वर्गेतर अवधारणा नहीं होती। यदि जनवाद सभी के लिए हो, तो फिर समानता और जनवाद में कोई वास्तविक व प्रभावी अन्तर नहीं रह जायेगा। यही कारण है कि समानतामूलक समाज बनाने की कम्युनिस्ट परियोजना को पहले सामाजिक जनवाद का नाम दिया गया, यानी वह आन्दोलन जो कि जनवाद का समाजीकरण करे। बाद में बेशक़ इसे अपर्याप्त होने और नये ऐतिहासिक अर्थ ग्रहण करने के कारण क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन ने त्याग दिया। बहरहाल, जनवाद का कोई अर्थ ही तभी निकल सकता है, जब उसके वर्ग चरित्र को स्पष्ट किया जाय।

रवि सिन्हा दलील देते हैं कि बुर्जुआ जनवाद केवल बुर्जुआ राज्य और सत्ता की अन्य संरचनाओं को संघटित करने का रूप ही नहीं होता, बल्कि वह व्यक्तिगत नागरिकों के लिए अधिकारों, चुनाव के विकल्पों (choices) और आज़ादियों के एक क्षेत्र को भी निर्मित करता है! यह विचार वास्तव में बुर्जुआ राज्य की उसी उदारवादी बुर्जुआ अवधारणा को प्रदर्शित कर रहा है, जो राज्यसत्ता को अधिकार-विमर्श (rights-discourse) के दायरे में परिभाषित करती है। निश्चित तौर पर, बुर्जुआ राज्यसत्ता से जनता ने लड़कर तमाम जनवादी अधिकार हासिल किये हैं। साथ ही, बुर्जुआ राज्यसत्ता स्वयं भी कई जनवादी और नागरिक अधिकार देती है। लेकिन बुर्जुआ राज्यसत्ता का मूल और मुख्य सरोकार नागरिकों को अधिकार देने का नहीं होता, बल्कि जनता को विनियमित (regulate) करने का होता है। इस विनियमन के बगै़र बुर्जुआ वर्ग के वर्चस्व का एक बुनियादी संघटक तत्व अनुपस्थित होगा। और यह बात केवल आम नागरिक कानूनों के बारे में ही नहीं बल्कि सभी कानूनों, मसलन श्रम कानूनों और अपराध दण्ड कानूनों पर भी लागू होती है। मार्क्सवाद बुर्जुआ उदार राज्य और संविधान द्वारा दिये जाने वाले अधिकारों को विनियमन-विमर्श (regulation discourse) के ज़रिये समझता है। यहाँ भी यह दिख जाता है कि आधुनिक बुर्जुआ उदार कल्याणकारी राज्य के “वैभव” से लेखक किस कदर चमत्कृत है।

जनवाद और सत्ता के सन्दर्भ में वर्ग चरित्र के प्रश्न को न उठाने के ही कारण रवि सिन्हा लिखते हैं, “सभी सत्ता की संरचनाएँ आखिरी विश्लेषण में स्वतन्त्रता के प्रतिकूल होती हैं।” किसकी स्वतन्त्रता? कैसी सत्ता संरचनाएँ? यहाँ भी वर्ग विश्लेषण अनुपस्थित है। इस कथन पर मिशेल फूको के विचारों का असर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। निश्चित तौर पर, राज्य का क्षेत्र दमन का क्षेत्र होता है, जैसा कि एंगेल्स ने कहा था। और इस रूप में सर्वहारा राज्य भी दमन का उपकरण होगा। लेकिन अगर इस सवाल को गोल कर दिया जाय कि किसका दमन और किसके द्वारा दमन तो यह एक निष्क्रियतावादी आमूलगामी जनोत्तेजन (passive radical demagoguery) से ज़्यादा और कुछ नहीं होगा। लेखक का मानना है कि मानव विकास का मकसद राज्य की संस्थाओं को विरल और पारदर्शी बनाते हुए समाप्ति की ओर ले जाना होता है, हालाँकि वह इस बारे में संशकित हैं कि राज्य का वाकई कभी विलोपन होगा या नहीं! यह शंका राज्यसत्ता के उद्भव, विकास और अन्ततः विलोपन के विषय में लेखक के अनैतिहासिक दृष्टिकोण को अनावृत्त करती है। लेकिन यहाँ भी वह इस विलोपन की प्रक्रिया का एक क्रमवादी और विकासवादी नज़रिया पेश करते हैं। उनके अनुसार, पूँजीवादी व्यवस्था के दौर में प्रगतिशील ताक़तें राज्य की संस्थाओं को विरल बनाने और पारदर्शी बनाने का कार्य शुरू कर देंगी और यह काम पूरा होगा समाजवाद के दौरान। वास्तव में, पूँजीवाद के दौरान जनवादी स्पेस और अधिकारों के लिए संघर्ष पूँजीवादी राजकीय संस्थाओं को अधिक पारदर्शी और विरल नहीं बनाता है और न ही कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी पूँजीवादी राजकीय संस्थाओं को अधिक पारदर्शी और विरल बनाने के लिए यह संघर्ष करते ही हैं। कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी बुर्जुआ उदार राज्य और संविधान के वायदों और प्रतिबद्धताओं के साथ इसलिए ओवर-आइडेण्टिफाई (over-identify) करते हैं और उनके लिए इसलिए संघर्ष करते हैं क्योंकि यह संघर्ष पूँजीवादी व्यवस्था और उदार बुर्जुआ जनवाद को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु (point of impossibility) तक पहुँचाता है। इस प्रक्रिया के उपोत्पाद के तौर पर यदि बुर्जुआ राज्य अधिक पारदर्शी या विरल बनता है तो यह अलग बात है। यही कारण है कि लेनिन ने कहा था कि सर्वहारा वर्ग बुर्जुआ जनवाद के तहत जनवादी अधिकारों के लिए जुझारू संघर्ष करता है क्योंकि एक ओर यह सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण और वर्ग संघर्ष के लिए सबसे मुफीद ज़मीन मुहैया कराता है, वहीं पूँजीवादी व्यवस्था को बेनक़ाब भी करता है। इसलिए पूँजीवादी व्यवस्था के तहत बुर्जुआ जनवादी स्पेस और अधिकारों को अधिकतम बनाने का संघर्ष पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग के वर्ग संघर्ष का एक हिस्सा है।

रवि सिन्हा मानते हैं कि राज्य को क्रमिक प्रक्रिया में जीवन के अधिकांश क्षेत्रों को अपने नियन्त्रण से मुक्त करना होता है और इसी प्रक्रिया में वह सिकुड़ता जाता है और उसका विलोपन होता है। लेकिन उनके अनुसार पूँजीवाद के तहत ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि राज्य के नियन्त्रण क्षेत्र से पूँजीवाद के तहत जो भी बाहर जायेगा वह बाज़ार के मातहत आयेगा! यह भी ग़जब की समझदारी है। इसके अनुसार, आज बुर्जुआ राज्य के मातहत जो क्षेत्र हैं, वह मुनाफ़े और बाज़ार के मातहत नहीं हैं! यहाँ भी हम एक ग़ैर-द्वन्द्वात्मक द्विभाजन देख सकते हैं और इसके पीछे एक कल्याणकारी राज्य का सामाजिक-जनवादी यूटोपिया और साथ ही उदार बुर्जुआ राज्य की एक आदर्शवादी समझदारी है। यह द्विभाजन है राजकीय विनियमन बनाम बाज़ार विनियमन। दूसरे शब्दों में नियोजन बनाम बाज़ार का द्विभाजन। अर्थशास्त्रीय तौर पर इसे ज़्यादा से ज़्यादा एक नवकीन्सीय समझदारी कहा जा सकता है, जिसके शिकार पॉल स्वीज़ी भी थे। उन्होंने समाजवादी संक्रमण पर चली बहस में नियोजन को समाजवाद और बाज़ार को पूँजीवाद का पैमाना माना था, जिसकी बेतेलहाइम ने कमोबेश सन्तुलित आलोचना पेश की थी। यह द्विभाजन ही ग़लत है, जब तक कि राज्य और बाज़ार दोनों के ही राजनीतिक चरित्र के सवाल को नहीं समझा जाता है। आज के दौर में भी जो राज्य के मातहत है वह वास्तव में बाज़ार के मातहत ही है। बल्कि कहना चाहिए कि आज जिसे यह नहीं दिख रहा है उसे राजनीतिक अन्धता का शिकार न कहा जाय तो क्या कहा जाय? राजकीय क्षेत्र में बाज़ार की शक्तियों के काम करने की पद्धति शुद्ध बाज़ार के क्षेत्र में बाज़ार की शक्तियों के काम करने के तरीके से कुछ भिन्न होती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि राजकीय विनियमन के तहत आने वाले क्षेत्रों में बाज़ार का नहीं बल्कि किसी कल्पित उदार कल्याणकारिता का साम्राज्य होता है! यह भी बुर्जुआ उदार राज्य के प्रति रवि सिन्हा के अनालोचनात्मक फेटिश को ही प्रदर्शित कर रहा है। उनके तर्क का मर्म यह है कि पूँजीवाद के रहते तो हमें उदार बुर्जुआ संवैधानिक जनवादी राज्य की और भी ज़रूरत महसूस करनी चाहिए क्योंकि एक ओर यह प्राक्-आधुनिक बर्बरता को सन्तुलित करेगा वहीं यह बाज़ार की शक्तियों को विनियमित करेगा। एक ऐसे समय में ऐसा तर्क देना जब राज्य सबसे ज़्यादा नंगे तौर पर बाज़ार की शक्तियों की लूट के लिए मैदान खाली कराने का काम कर रहा है, हास्यास्पद है। अकादमिक और राजनीतिक हलकों में हालिया दौर में यह बहस चलती रही है कि राज्य नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के दौर में ज़्यादा हस्तक्षेपकारी (interventionist) हुआ है या फिर वह अधिक से अधिक अदृश्य और अनुपस्थित होता जा रहा है। हमारा मानना है कि राज्य कभी भी कम हस्तक्षेपकारी या अनुपस्थित नहीं हुआ है बस इसके हस्तक्षेप और उपस्थिति के रूप बदलते रहे हैं। तथाकथित “मुक्त-व्यापार” पूँजीवाद के दौर में भी राज्य एक अलग तरीके से विनियमनकारी और हस्तक्षेपकारी भूमिका निभाता था। कल्याणकारी राज्य के दौर के बारे में तो कोई बहस ही नहीं है, जब राज्य ने पूँजी के दूरगामी हितों के मद्देनज़र कई बार वैयक्तिक पूँजी की इच्छाओं के विपरीत आचरण किया और जनता के लिए कुछ कल्याणकारी नीतियाँ लागू कीं। लेकिन आज के दौर के बारे में कई लोगों का कहना है कि राज्य की भूमिका कम होती जा रही है, उसका हस्तक्षेप घटता जा रहा है। यह एक दृष्टिभ्रम से ज़्यादा और कुछ नहीं है। वास्तव में, आज राज्य पहले से ज़्यादा हस्तक्षेपकारी हो गया है। लेकिन कल्याणकारी दौर के विपरीत अब यह नंगे और बेशर्म तरीके से पूँजी के हितों के लिए हस्तक्षेप करता है। चाहे वह देश की प्राकृतिक सम्पदा या फिर सस्ते श्रम की लूट को सुगम बनाने में राज्य की भूमिका हो या फिर श्रम कानूनों के विनियमन के ज़रिये हासिल होने वाली सुरक्षा को समाप्त करने में राज्य की भूमिका हो, राज्य के हस्तक्षेप को कहीं भी पहले के दौर से कम नहीं माना जा सकता; बल्कि ज़्यादा ही मानना पड़ेगा। ऐसे में यह तर्क देना कि पूँजीवाद के मातहत राज्य के नियन्त्रण से जीवन के जो क्षेत्र बाहर जायेंगे वे बाज़ार की पाशविक शक्तियों के मातहत चले जायेंगे, उदारवादी भोलापन है और केवल यह दिखलाता है कि बुर्जुआ समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान और अर्थशास्त्र की पुस्तकों में पेश पूँजीवाद की तस्वीर को रवि सिन्हा ने कुछ ज़्यादा ही गम्भीरता से ले लिया है। पूँजीवाद के मातहत राज्य और बाज़ार के बीच इस प्रकार का कोई द्विभाजन या विरोधाभास नहीं होता है क्योंकि वे दोनों ही पूँजीवादी राज्य और पूँजीवादी बाज़ार होते हैं। उनके बीच के अन्तरविरोधों को समझने की यह पद्धति पूँजीवाद के तहत राज्य और बाज़ार के सम्बन्धों की कभी सही व्याख्या नहीं कर सकती है।

बुर्जुआ संवैधानिक उदार जनवादी राज्य के प्रति रवि सिन्हा का दृष्टिकोण यह है कि ऐसा राज्य पारदर्शी होता है! यह भी एक भयंकर विभ्रम है। उनके अनुसार ऐसा पारदर्शी संवैधानिक और नियमबद्ध जनवादी राज्य तृणमूल भागीदारी जनवाद के अतिरेकों को सन्तुलित कर सकता है क्योंकि यह जहाँ एक ओर पारदर्शी होता है वहीं यह आधुनिक तर्कणा का मूर्त रूप होता है। ऐसे राज्य को वह जनता के तृणमूल जनवाद का शत्रु नहीं बल्कि पूरक मानते हैं और मानते हैं कि ऐसे राज्य को जनता भी गठित कर सकती है! लेकिन अगर हम भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के उदारतम बुर्जुआ कल्याणकारी जनवादी राज्यों पर निगाह डालें तो क्या हम ऐसा कोई पारदर्शी बुर्जुआ राज्य देख पाते हैं, जिसकी कल्पना रवि सिन्हा कर रहे हैं? दुनिया भर में पूँजीवादी आधुनिक राज्य कारपोरेट घरानों के साथ गोपनीय जनविरोधी समझौतों में लिप्त है; हर जगह पूँजीवादी राज्य राष्ट्रवाद और आन्तरिक सुरक्षा के नाम पर तमाम अहम सूचनाओं को सार्वजनिक संज्ञान से बाहर रखते हैं; अमेरिका समेत दुनिया के तमाम पूँजीवादी राज्यों ने ऐसे दमनकारी और विशिष्ट कानून बनाये हैं जो कि जनता के जनवादी और संविधान-प्रदत्त अधिकारों को छीनते हैं; कहने की ज़रूरत नहीं है कि उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी राज्य में यह अपारदर्शिता और भी ज़्यादा होगी। लेकिन किसी भी नस्ल के उदार बुर्जुआ जनवादी राज्य से पूर्ण पारदर्शिता की उम्मीद करना अहमकाना होगा।

रवि सिन्हा जनवाद की राजनीतिक अन्तर्वस्तु को नहीं देखते बल्कि उसका एक संस्थावादी (institutionalist) विश्लेषण करते हैं। यानी कि कुछ जनवादी संस्थाएँ (संवैधानिक उदार बुर्जुआ जनवादी राज्य) सही मायने में आधुनिक और जनवादी होंगी, जबकि अन्य (मुहल्ला पंचायतें, कमेटियाँ या अन्य भागीदारी जनवाद की संस्थाएँ) कम जनवादी होंगी और उनमें जनवाद को नष्ट कर देने की प्रवृत्तियाँ भी मौजूद होंगी। और यह संस्थावादी विश्लेषण अन्त में फिर से आधुनिक और प्राक्-आधुनिक के द्विभाजन पर आकर ख़त्म होता है, जिसके सतहीपन का विश्लेषण हम ऊपर कर चुके हैं। फ़ासीवाद के हालिया उभार और सत्तारूढ़ होने के बरक्स उसके प्रतिरोध के बारे में रवि सिन्हा के पहले और दूसरे सबक का सारतत्व यही हैः पहला, फ़ासीवाद का मुकाबला करने के लिए फ़ासीवाद के विरुद्ध जनता की गोलबन्दी और सड़क की लड़ाई के प्रयास आत्मघाती सिद्ध हो सकते हैं क्योंकि (1) भारत की जनता स्वयं वह प्राक्-आधुनिक सर्वसत्तावादी समुदाय है जिसके ‘अपने विवेक’ से दिये गये समर्थन के बूते फ़ासीवाद सत्ता में पहुँचा है और (2) अगर प्रगतिशील ताक़तें जनता के पास जायेंगी तो फ़ासीवादी और ज़्यादा बड़े पैमाने पर जनता के बीच जायेगा और चूँकि समाज प्राक्-आधुनिक है और फ़ासीवादियों के बर्बर आवाहनों को इस समाज में प्रगतिशील आवाहनों से ज़्यादा अनुगूँज मिलेगी, इसलिए जनता के बीच या सड़क की लड़ाई में विजय की उम्मीद करना व्यर्थ है; इसलिए रवि सिन्हा के मुताबिक फ़ासीवाद के विरुद्ध लड़ाई को आधुनिक संवैधानिक उदार राज्य के दायरे में सीमित कर देना चाहिए क्योंकि यही राज्य प्राक्-आधुनिक बर्बर फ़ासीवादियों पर भी सभ्य बनने का दबाव डालता है। दूसरा, जनवाद के लिए संघर्ष में राज्य के निकायों को अधिक से अधिक पारदर्शी और राजनीतिक प्रक्रिया को अधिक से अधिक विरल बनाने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए न कि तृणमूल भागीदारी जनवाद के मॉडल खड़े करने पर क्योंकि तृणमूल भागीदारी जनवाद के भीड़ जनवाद में तब्दील हो जाने के ख़तरे मौजूद रहेंगे; कारण एक बार फिर यह है कि समाज प्राक्-आधुनिक और सर्वसत्तावादी रुझानों से भरा हुआ है। इन दोनों सबकों के आधार पर हम कुछ और प्रेक्षण और रखेंगे और फिर लेखक के तीसरे सबक की ओर बढ़ेंगे।

पहली बात तो यह है कि भारतीय उत्तर-औपनिवेशिक समाज में प्राक्-आधुनिक, सर्वसत्तावादी और बर्बर रुझान हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। लेकिन इन रुझानों की एक ऐतिहासिकता (historicity) है, जिसे रवि सिन्हा पकड़ नहीं पाते हैं और इसीलिए उनका सारभूतीकरण (essentialization) करते हैं। इसका कारण यह है कि एक उत्तर-औपनिवेशिक राज्य और समाज में आधुनिकता और प्राक्-आधुनिकता के द्वन्द्व और आर्टिकुलेशन को समझने में वह नाकाम रहते हैं। इस द्वन्द्व में अगर प्रधान पहलू की बात करें तो वह निश्चित तौर पर आधुनिकता है, जिसने प्राक्-आधुनिक बर्बर और सर्वसत्तावादी रुझानों को अपने अनुसार सहयोजित किया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह पूँजीवादी आधुनिकता है और पूँजीपति वर्ग इसकी चालक शक्ति है। ऐसे में, एक उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीपति वर्ग जहाँ पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक आर्किटेक्टॉनिक (architectonic) के सुगम परिचालन के लिए आधुनिकता को अपनाता है तो वहीं अपने राजनीतिक वर्चस्व को बहुसंस्तरीय (multi-layered) और व्यापक बनाने के लिए एक उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी समाज में मौजूद प्राक्-आधुनिक तत्वों को भी अपनाता है। इसलिए भारतीय समाज और राज्य भी, कई बार अगर प्राक्-आधुनिक तत्वों का प्रदर्शन करते हैं, तो इससे पूँजीवादी आधुनिकता के प्रति फेटिश रखने वाले लोगों को इनके प्राक्-आधुनिक होने का दृष्टिभ्रम (optical illusion) पैदा हो सकता है। रवि सिन्हा काफ़ी हद तक इसी के शिकार हैं।

दूसरी बात यह है आधुनिकता और प्राक्-आधुनिकता के इस द्वन्द्व को अलग-थलग तौर पर देखना रवि सिन्हा को उदार बुर्जुआ चिन्तन की परम्परा में सुदृढ़ तौर पर अन्तःस्थापित कर देता है। वास्तव में इस द्वन्द्व के पीछे वर्ग शक्तियों की अन्योन्यक्रिया (interplay) जारी रहती है। इसलिए रूप के धरातल पर मौजूद आधुनिकता और प्राक्-आधुनिकता के सामाजिक वर्ग संघर्ष के साथ नाभिनालबद्ध सम्बन्ध को समझे बग़ैर किसी भी विश्लेषण के समक्ष एक संस्थावादी विश्लेषण के गड्ढे में गिरने का ख़तरा मौजूद रहता है। अगर भारतीय समाज में प्राक्-आधुनिकता के तत्व मौजूद हैं तो उसकी प्रतिशक्ति के तौर पर आधुनिकता की शक्तियाँ भी मौजूद हैं, और निश्चित तौर पर उसमें केवल मुकुल सिन्हा और तीस्ता सेतलवाड़ नहीं शामिल हैं। बल्कि कहा जा सकता है कि भारतीय समाज के प्राक्-आधुनिक तत्वों को प्रति-सन्तुलित करने में पूँजीवादी आधुनिकता की ताक़तें अब तक अपर्याप्त ही साबित हुई हैं। आज के दौर में क्रान्तिकारी सर्वहारा प्रबोधन की शक्तियों के ज़रिये, और अगर हमें इस शब्द का प्रयोग करने की आज्ञा दी जाये, तो सर्वहारा आधुनिकता के ज़रिये ही भारतीय समाज में मौजूद प्राक्-आधुनिक, प्रतिक्रियावादी ताक़तों का मुकाबला किया जा सकता है, जो कि विशेष तौर पर एक उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी समाज में उस तर्कणा और आधुनिकता के उसूलों की सही वारिस है, जिसे बुर्जुआ वर्ग के क्रान्तिकारी दार्शनिकों ने प्रतिपादित किया था और जो बुर्जुआ वर्ग के शासन के वास्तविक रूप ग्रहण करने के साथ धूल में फेंक दिये गये।

यहीं से हम अपने तीसरे नुक़्ते पर आ सकते हैं। वर्तमान की चुनौतियों का मुकाबला अतीत की ज़मीन पर खड़े होकर नहीं किया जा सकता है। यह बात इतिहास के हर दौर के लिए सही सिद्ध होती है। आज भारतीय पूँजीवादी उत्तर-औपनिवेशिक समाज में जो प्राक्-आधुनिक तत्व मौजूद हैं, वह बस सीधे तौर पर किसी बीते सामन्ती या प्राक्-पूँजीवादी युग के अवशेष या उनकी निरन्तरता नहीं हैं। यह बीते युग की बर्बरताओं के आधुनिक युग की बर्बरताओं के साथ होने वाले आर्टिकुलेशन से पैदा हुई विशिष्ट रूप की बर्बरता है, जिसे सही मायनों में सामन्ती, प्राक्-पूँजीवादी या प्राक्-आधुनिक कहा भी नहीं जा सकता है। यहाँ तक कि खाप पंचायतों के इतिहास के अध्ययन भी दिखलाते हैं कि ये महज़ कोई प्राक्-पूँजीवादी प्राक्-आधुनिक निरन्तरता नहीं है, बल्कि आज के दौर की विशिष्ट परिघटना है और पूँजीवादी आधुनिकता के हाथों सुविधाजनक और सुगम रूप से सहयोजित है। इस विशिष्ट किस्म की उत्तर-औपनिवेशिक आधुनिक बर्बरता का मुकाबला आप 16वीं और 17वीं सदी में खड़े होकर नहीं कर सकते हैं; पुनर्जागरण, धार्मिक सुधार आन्दोलन और प्रबोधन और उसके बाद वैज्ञानिक क्रान्ति और औद्योगिक क्रान्ति की प्रक्रिया से गुज़रकर पैदा हुई पूँजीवादी आधुनिकता की ज़मीन पर खड़े होकर आज की इस चुनौती का मुकाबला नहीं किया जा सकता है। प्रबोधनकालीन बुर्जुआ दार्शनिकों ने पूँजीवादी व्यवस्था और शासन के जिस आदर्शीकृत रूप की कल्पना की थी उसकी ज़मीन पर खड़े होकर और इस किस्म के किसी एनाक्रॉनिस्टिक नॉस्टैल्जिया (anachronistic nostalgia) के बूते आप आज भारतीय समाज में मौजूद बर्बरता के तत्वों का सामना नहीं कर सकते हैं। आज इसका मुकाबला करने के लिए एक नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन की ज़रूरत है। आज सर्वहारा वर्ग ही यह काम कर सकता है, चाहे उसके भीतर प्राक्-आधुनिक विचारों का जो भी प्रभाव हो। निश्चित तौर पर, मज़दूर वर्ग ऐसा स्वतःस्फूर्त तौर पर नहीं कर सकता है और उसके लिए एक सर्वहारा हिरावल की ज़रूरत होगी जो कठमुल्लावाद और जड़सूत्रवाद को छोड़ भारतीय पूँजीवादी राज्य और समाज की विशिष्टता को समझते हुए अपने विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्यभार निकाले। मज़दूर वर्ग के पास स्वतः और सहज उपलब्ध चेतना, या यूँ कहें कि स्वतःस्फूर्त मज़दूर चेतना ही सर्वहारा चेतना नहीं होती है। इस सर्वहारा चेतना के लिए सतत् विचारधारात्मक-राजनीतिक वर्ग संघर्ष और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान से लैस हिरावल पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व की दरकार होती है। लेकिन इतना तय है कि आज कोई प्रबुद्ध मध्यवर्गीय टटपुँजिया बुद्धिजीवी वर्ग इस कार्यभार को पूरा करने में अगुवाई नहीं कर सकता है और न ही इसका मुकाबला केवल अदालतों और कानूनी फ्रेमवर्क में चलने वाले संघर्षों से ही किया जा सकता है। इतिहास के जो कार्यभार भारत में औपनिवेशिकीकरण के कारण छूट गये उन्हें इतिहास में वापस जाकर पूरा करना सम्भव नहीं है। इतिहास की गति इसी प्रकार होती है; मानव प्रगति की रीडेम्प्टिव गतिविधि (redemptive activity) इसी प्रकार की होती है।

तीसरा सबकः ‘रोम में रहो तो वह करो जो रोमवासी करते हैं’

आप किस चीज़ पर काम कर रहे हैं?श्रीमान क. से पूछा गया। श्रीमान क. ने जवाब दियाः मैं काफ़ी दिक्कत से गुज़र रहा हूँ; मैं अपनी अगली ग़लती की तैयारी कर रहा हूँ।

(बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, ‘महाशय कॉयनर की कहानियाँ’)

छोटे बदलाव, बड़े बदलावों के दुश्मन होते हैं।”

(बेर्टोल्ट ब्रेष्ट)

रवि सिन्हा का तीसरा सबक बुर्जुआ राज्य की नीतियों और कार्यक्रम के सम्बन्ध में है जिसमें वे उन बुनियादी माँगों की बात करते हैं जिसके लिए आज वामपंथियों को लड़ना चाहिए। यहाँ वह कोई नया सबक नहीं दे रहे हैं। वास्तव में, वह जो बात कह रहे हैं वह सी.पी. चन्द्रशेखर, जयति घोष, प्रभात पटनायक आदि जैसे सामाजिक-जनवादी राजनीतिक अर्थशास्त्री हर हफ्ते दि हिन्दू, फ्रण्टलाइन, मैक्रोस्कैन, नेटवर्क आइडियाज़, आदि जैसी पत्र-पत्रिकाओं और वेबसाइटों पर देते रहते हैं। यह और कुछ नहीं है बल्कि पुराना कीन्सीय नुस्खा है, जिसके अनुसार वामपंथियों को कल्याणकारी राज्य और पूँजी की निर्बाध गति के विनियमन के लिए लड़ना चाहिए। इसके पीछे के लेखक के कारण बिल्कुल वैसे नहीं हैं, जैसे कि उपरोक्त सी.पी.एम.-ब्राण्ड अर्थशास्त्रियों के हैं। क्योंकि उनके कारणों के नीचे एक मज़बूत कीन्सीय, हॉब्सनियन अल्पउपभोगवादी (under-consumptionist), काऊत्स्कीपन्थी, सामाजिक जनवादी और संशोधनवादी विचारधारात्मक-राजनीतिक ज़मीन है। रवि सिन्हा सीधे वे कारण बता नहीं सकते वरना पहचान का संकट पैदा हो जायेगा; लेकिन उन कारणों के स्थानापन्न के तौर पर वह या तो कोई कारण बता ही नहीं पाते हैं, या फिर उनके बताये हुए कारण हास्यास्पद हैं।

लेखक दलील देता है कि भारतीय पूँजीवाद आज विशेष तौर पर हिंस्र और खूँखार मंज़िल में है और इसके दो प्रमुख कारक हैं। पहला यह है कि भारत में प्रचुर मात्रा में मौजूद सस्ता श्रम और दूसरा यह है कि भारत में जंगलों, खानों-खदानों के रूप में अधिकांश प्राकृतिक सम्पदा और साथ ही अधिकांश छोटी सम्पत्तियाँ अभी पूँजी में तब्दील नहीं हुई हैं। यह पूरा प्रेक्षण एक बार फिर दिखलाता है कि लेखक उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी विकास के सामान्य प्रक्षेप-पथ (trajectory) को समझ नहीं पाया है। पहली बात तो यह है कि लेखक द्वारा बताया गया दूसरा कारक तथ्यतः सटीक नहीं हैं। भारत में मौजूद प्राकृतिक संसाधन और अधिकांश छोटी सम्पत्तियाँ मुख्य तौर पर पूँजी में तब्दील हो चुकी हैं। पूँजी में तब्दील होने का अर्थ है कि उत्पादन उपभोग हेतु नहीं बल्कि विपणन हेतु हो रहा है, यानी कि विनिमय के लिए। यानी कि माल-मुद्रा-माल का चक्र अब मुद्रा-माल-मुद्रा में तब्दील हो चुका है। भारत में छोटी सम्पत्तियों का बाहुल्य कृषि क्षेत्र में देखा जा सकता है। आज से करीब एक दशक पहले ही देश के 60 प्रतिशत ग्रामीण घरों के आय का मुख्य स्रोत उजरती श्रम था; दूसरे स्थान पर छोटे माल उत्पादन के विपणन से होने वाली आय थी; 20 प्रतिशत घरों में बेशी उत्पादन के विपणन से होने वाली आय और मज़दूरी से होने वाली आय बराबर थी। देश के परिधिगत किसानों, यानी कि सबसे छोटी जोत वाले किसानों के उत्पादन का भी 40 प्रतिशत हिस्सा बेचने के लिए था। निश्चित तौर पर, पिछले दस वर्षों में स्थितियाँ और बदली होंगी। दूसरी बात जिसे समझना ज़रूरी है वह यह है कि पूँजी द्वारा श्रम प्रक्रिया को औपचारिक तौर पर अपने मातहत लाना (formal subsumption) और वास्तविक तौर पर अपने मातहत लाना (real subsumption)। मार्क्स ने इन दोनों चरणों मे स्पष्ट फर्क किया था और बताया था कि पूर्ण रूप से पूँजीवादी संचय दूसरे चरण के साथ ही शुरू होता है। पहले पूँजी पहले से मौजूद श्रम प्रक्रिया को अपने मातहत लाती है। इस चरण में पूँजी उत्पादन के साधनों को अपने मातहत लाती है और उत्पादकों को उजरती मज़दूरों में तब्दील कर देती है और पूँजी संचय को सम्भव बनाती है। लेकिन श्रम प्रक्रिया मोटा-मोटी पहले के समान ही जारी रहती है। दूसरे चरण में पूँजी अपने हितों के अनुरूप पूरी की पूरी श्रम प्रक्रिया और तकनीक को अपने मातहत लाती है और उसका रूपान्तरण कर देती है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था इस दूसरे चरण के साथ ही परिपक्व रूप ग्रहण करती है। इसे हम मैन्युफैक्चर से मशीनोफैक्चर तक की यात्रा से भी समझ सकते हैं। क्लासिकीय तौर पर पूँजीवाद के विकास में इन दो चरणों के बीच सैद्धान्तिक तौर पर और साथ ही एक हद तक ऐतिहासिक तौर पर एक रेखा खींची जा सकती है। लेकिन उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवादी देशों में पूँजीवादी विकास की यह एक विशिष्टता है कि उसके ऐतिहासिक विकास के कई क्षण (moments) सहअस्तित्वमान होते हैं। इसलिए हमें भारत में बेहद उन्नत पूँजी संचय की मिसालें बड़ी संख्या में मिल सकती हैं तो साथ ही हमें ऐसे इलाके भी मिल सकते हैं जहाँ कालानुक्रम-दोष के साथ “आदिम” पूँजी संचय के क्षण भी दिख सकते हैं जिसमें कि छोटे उत्पादकों, आदिवासियों आदि को उनके जल, जंगल और ज़मीन से उजाड़ा जा रहा है और उनके प्राकृतिक संसाधनों की कारपोरेट लूट का रास्ता साफ़ किया जा रहा है। वैसे भी मार्क्स के लिए “आदिम” पूँजी संचय कोई शुद्धतः कालिक (temporal) अवधारणा नहीं थी। यूँ तो चाहे कोई भी देश हो पूँजीवादी विकास अपनी प्रकृति से ही काल और दिक् दोनों के ही आयामों पर असमान होता है, लेकिन एक उत्तर-औपनिवेशिक पूँजीवाद में यह असमानता विशिष्ट और चमत्कृत कर देने वाले रूपों दिखलायी पड़ती है। लेकिन इन सबके बावजूद यह कहना कि समूची अर्थव्यवस्था में छोटे मालिकाने की सम्पत्तियाँ अभी पूँजी में तब्दील नहीं हुई हैं, सच्चाई से बहुत दूर है। यह ज़रूर है कि देश में छोटी सम्पत्तियाँ चाहें वे कृषि के क्षेत्र में हों या उद्योग के क्षेत्र में, अभी कारपोरेट इज़ारेदार पूँजी के वर्चस्व के तहत पूरी तरह से नहीं आयी हैं। इसलिए कारपोरेट पूँजीवाद के साथ-साथ हमारे देश में टटपुँजिया पूँजीवाद भी मौजूद है, हालाँकि स्पष्ट तौर पर पहले की हिस्सेदारी अर्थव्यवस्था के आकार में काफ़ी ज़्यादा है।

लेकिन अगर रवि सिन्हा इन दो कारकों को आज पूँजीवादी पशु के ज़्यादा भूखे होने के लिए ज़िम्मेदार बता रहे हैं, तो बात समझ में नहीं आती है। क्योंकि सस्ते श्रम की मौजूदगी और प्राकृतिक सम्पदा और छोटी सम्पत्तियों की भारी मौजूदगी भारत में आज से नहीं बल्कि पिछले कई दशकों से है, तो फिर भारतीय पूँजीवाद में यह विशिष्ट चरण आज ही क्यों आया है! उनके अनुसार यह आज भारतीय पूँजीवाद के विशेष तौर पर लुटेरे चरित्र को दिखलाता है! अगर ऐसा है तो यह विशिष्टता पहले ही पैदा हो जानी चाहिए थी क्योंकि उनके दोनों कारण आज से नहीं बहुत पहले से मौजूद हैं। यह सही है कि आज भारतीय पूँजीवाद विशेष तौर पर लुटेरे दौर में है। लेकिन इसकी व्याख्या भारतीय पूँजीवाद के इतिहास के एक नये चरण से की जानी चाहिए। यहाँ दो कारक हमारे विचार में विशेष तौर पर ध्यान देने योग्य हैं: पहला, भारतीय पूँजीवाद का 1990 में सार्वजनिक क्षेत्र पूँजीवाद से खुले नवउदारवादी पूँजीवाद के दौर में प्रवेश जिसके साथ देश भर की वह श्रम सम्पदा और प्राकृतिक सम्पदा जो अभी तक निजी पूँजी की निर्बाध लूट के दायरे से बाहर थी, वह अधिक से अधिक उसकी लूट के दायरे में आती गयी; और दूसरा, भारतीय व्यवस्था का वैश्विक वित्तीय पूँजीवादी तन्त्र में पहले से अधिक और जैविक समेकन, जिसके कारण वैश्विक पूँजीवादी व्यवस्था में मन्दी और संकट के हिचकोले भारतीय अर्थव्यवस्था में भी सीधे तौर पर और पहले से ज़्यादा महसूस किये जाने लगे। ये दो ऐसे कारक हैं जो पहले मौजूद नहीं थे और आज भारतीय पूँजीवाद की विशिष्टता को सन्तोषजनक रूप से व्याख्यायित कर सकते हैं। लेकिन इन दोनों ही कारकों को समझने में लेखक नाकाम रहता है और उन नियतांकों को गिनाता है जो कि पहले से मौजूद हैं और अपने आप में मौजूदा परिवर्तन की व्याख्या नहीं कर सकते हैं।

बहरहाल, रवि सिन्हा भारतीय पूँजीवाद के इस विशिष्ट तौर पर लुटेरे चरण में वामपंथियों को दो माँगों पर लड़ने की सलाह देते हैं: पहला, कल्याणकारी राज्य के लिए और दूसरा पूँजी की निर्बाध लूट को विनियमित करने के लिए। वह कहते हैं कि एक कल्याणकारी राज्य प्रगतिशील कराधान प्रणाली के ज़रिये जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की ज़िम्मेदारी लेगा। इसके अलावा, प्राकृतिक संसाधनों (बशर्ते कि उनका राष्ट्रीकरण न हो जाये) और छोटी सम्पत्तियों (बशर्ते कि उन्हें नये उद्यमों में स्थायी शेयरहोल्डर न बना दिया जाय) को पूँजी में तब्दील करने से रोकने के लिए एक कानूनी ढाँचे के लिए लड़ना होगा। इन दोनों माँगों के ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ और बाद में ‘आप’ द्वारा ले उड़ने पर रवि सिन्हा दुखी हैं और इसे फ़ासीवादी उभार में अन्ततः मददगार भी मानते हैं और साथ ही मानते हैं कि ये माँगें कम्युनिस्टों को उठानी चाहिए। लेकिन ये दोनों ही माँगें न सिर्फ़ आर्थिक तौर पर अव्यावहारिक हैं बल्कि लेखक की निम्न पूँजीवादी और अनैतिहासिक राजनीतिक सोच को दिखलाती हैं। इनमें से दूसरी माँग तो आज सबसे निकृष्ट किस्म के सामाजिक-जनवादी भी बिरले ही करते हैं। ख़ैर, यहाँ जिन दो माँगों के लिए लड़ने का सुझाव दिया गया है वह तमाम संशोधनवादी राजनीतिक पार्टियों और बुद्धिजीवियों और दूसरी ओर रवि सिन्हा के बीच के सारे अन्तर समाप्त कर देता है। वैसे रवि सिन्हा ने पहले ही लेख में स्पष्ट कर दिया है कि जो “परिधि पर खड़े पागल” संशोधनवाद और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद में फर्क करते हैं, उनसे उन्हें कोई उम्मीद नहीं है और वे उनके सबकों पर संकीर्णतापूर्ण सवाल उठायेंगे! चूँकि हमें पूर्वानुमानपूर्ण फैसले में पागल घोषित कर ही दिया गया है, इसलिए हम इस नुक्ते पर अपनी पूरी बात कह ही देते हैं!

क्या क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट कल्याणकारी राज्य के लिए लड़ते हैं? हमारा मानना है कि क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर जनता की उन सभी माँगों के लिए लड़ते हैं जो कि संवैधानिकता के दायरे में आती हैं और कानूनसम्मत होती हैं और उनके बाहर भी होती हैं। वास्तव में, नागरिक अधिकार और जनवादी अधिकार के बीच यही फर्क होता है। हमारी लड़ाई जनता के रोज़गार, रिहायश और शिक्षा के बुनियादी हक़ के लिए होती है। लेकिन कल्याणकारी राज्य की माँग करना एक अलग राजनीतिक माँग बनती है और लघुकालिक तौर पर भी वे कल्याणकारी राज्य की माँग नहीं करते हैं क्योंकि इसके साथ एक राजनीतिक अर्थशास्त्र और राजनीति जुड़ी हुई है। यह कीन्सीय और हॉब्सनियन अल्पउपभोगवादी समझदारी है जिसकी माला आज प्रभात पटनायक, जयति घोष से लेकर सी-पी-चन्द्रशेखर तक जप रहे हैं। यानी कि कल्याणकारी और अल्पउपभोगवादी नीतियों द्वारा घरेलू माँग को बढ़ाकर संकट को दूर करने और जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने का नुस्खा। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट जनता के हरेक कानूनी और साथ ही साथ जायज़ हक़ के लिए लड़ते हैं और फिर भी उस लड़ाई को कल्याणकारी राज्य के लिए संघर्ष में तब्दील नहीं करते हैं। वे उन सभी माँगों के लिए लड़ते हुए जो कुछ पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में हासिल किया जा सकता है, हासिल करते हैं और जो नहीं हासिल किया जा सकता है, उससे व्यवस्था को बेनक़ाब करते हैं और उसे उसकी असम्भाव्यता के बिन्दु पर पहुँचाते हैं। हमारा संघर्ष समाजवादी व्यवस्था के लिए होता है। मुद्दे तो वही होते हैं लेकिन लड़ने की पहुँच और पद्धति भिन्न होती है। आज भारतीय समाज में हमेशा से ज़्यादा इस बात की ज़मीन तैयार है कि हम जनता को सिर्फ़ केक के लिए नहीं बल्कि पूरी बेकरी हथियाने के लिए लड़ना सिखाएँ! ऐसे में, कल्याणकारी राज्य की माँग को उठाना प्रतिगामी है।

जर्मनी में फ़ासीवादी ताक़तों के उदय का एक कारण यह था कि सामाजिक जनवादियों ने कल्याणकारी राज्य को बचाये रखने की लड़ाई लड़ी न कि समाजवाद की लड़ाई जो कि पूँजीवादी दायरे का अतिक्रमण करती हो। एक मज़बूत मज़दूर आन्दोलन के बूते पर वे पूँजी की शक्तियों को कुछ समय के लिए श्रम की शक्तियों के साथ समझौता करने और कल्याणकारी राज्य को बनाये रखने के लिए मजबूर करने में सफल भी हुए। लेकिन इस बीच वे जनता के बीच इसके विभ्रमों को तोड़ने के राजनीतिक कार्य की बजाय उन्हें मज़बूत बनाते रहे क्योंकि उनका राजनीतिक जुमला (rhetoric) ही कभी कल्याणकारी राज्य के आगे नहीं गया। नतीजतन, जैसे ही संकट के दौर में श्रम और पूँजी के बीच का यह समझौता दबाव के मातहत आने लगा और जर्मन पूँजीपति वर्ग मुनाफे के सिंकुड़ने (profit squeeze) का शिकार हुआ, वैसे ही उसने हिटलर और नात्सी पार्टी को टटपुँजिया वर्गों की गोलबन्दी के ज़रिये मज़दूर आन्दोलन को ध्वस्त करने के लिए राजनीतिक मंच सौंप दिया और इसी के साथ वीमर गणराज्य का पतन हुआ। अगर आज के दौर में भी हमारा राजनीतिक माँगपत्रक कल्याणकारी राज्य की माँग करेगा तो हम इतिहास में वही ग़लती दुहरायेंगे। हमारी माँग शिक्षा, रोज़गार और रिहायश को जन्मसिद्ध अधिकार बनाने की माँग होते हुए भी कल्याणकारी राज्य की माँग नहीं होती है। दूसरी बात यह है कि आज कल्याणकारी राज्य की माँग एक अनैतिहासिक माँग है। कल्याणकारी राज्य के इतिहास के रंगमंच से अनुपस्थित होने का रिश्ता उस क्षण से है जिसमें आज विश्व पूँजीवाद है; न तो आज पश्चिमी उन्नत पूँजीवादी देशों के लिए कल्याणकारी राज्य का ख़र्च उठा पाना सम्भव है और न ही उत्तर-औपनिवेशिक पिछड़े पूँजीवादी देशों के लिए। रवि सिन्हा का मानना है कि हमें ठोस तथ्यों के आधार पर लड़ाई का एजेण्डा तय करना चाहिए और ठोस तथ्य यह है कि कल्याणकारी राज्य की माँग ही आज की यथार्थवादी माँग है, हालाँकि वामपन्थी इसे बीते ज़माने की बात मानते हैं। इसके प्रासंगिक होने के प्रमाण के तौर पर वह इस तथ्य का बयान करते हैं कि संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन ने भी धुर दक्षिणपन्थी नवउदारवादी भाजपा के समक्ष कल्याणकारी राज्य का ही एजेण्डा रखा था, हालाँकि वह इसे लागू करने में असफल रही थी। वामपन्थी (सीपीआई, सीपीएम, आदि) इसे लागू करने या करवाने के लिए सबसे अच्छी स्थिति में थे, लेकिन उन्होंने परमाणु समझौते के प्रश्न पर यूपीए-एक से बाहर जाने की मूर्खता कर दी! रवि सिन्हा काफ़ी हद तक इस मूर्खता को फ़ासीवादी उभार और 16 मई को मोदी के सत्ता में आने का कारण मानते हैं! वास्तव में, ये सारे तथ्य जैसे कि कांग्रेस द्वारा कल्याणकारी राज्य के जुमले का इस्तेमाल यह नहीं दिखलाता कि कल्याणकारी राज्य की माँग आज की प्रासंगिक और यथार्थवादी माँग है! यह इसके बिल्कुल विपरीत को दिखलाता है-यह आज के दौर में एक अनैतिहासिक और प्रहसनात्मक माँग है। यह माँग आज के दौर में न केवल राजनीतिक तौर पर ग़लत है, बल्कि अव्यावहारिक भी है। इस माँग के संसदीय राजनीति में जुमले के तौर पर इस्तेमाल को तो समझा जा सकता है, लेकिन किसी कम्युनिस्ट द्वारा आज कल्याणकारी राज्य की माँग करना (ग़ौर करें, जनता की ज़रूरतों से जुड़ी माँगों को उठाते हुए व्यवस्था को उसके असम्भाव्यता के बिन्दु तक ले जाने और समाजवादी विकल्प का प्रचार करने की नहीं, बल्कि कल्याणकारी राज्य को ही लक्ष्य बनाकर माँग करना) प्रतिगामिता नहीं तो और क्या है? यात्री को जब आगे कुछ नहीं दिखायी देता है, तो वह पीछे ही देखता है। एक बार फिर लेखक वर्तमान की चुनौतियों का मुकाबला अतीत की ज़मीन पर खड़ा होकर करना चाहता है। रवि सिन्हा के मुताबिक आज वामपंथियों को नेहरूवियन कल्याणकारी राज्य या ऐसे किसी अतीत के लिए लड़ना चाहिए! ऐसा इतिहास में पहले भी हुआ है कि यथार्थवादी होने और ठोस तथ्यों को आधार बनाने के नाम पर निराशावाद, समझौतापरस्ती और पराजयवाद परोसा गया है।

रवि सिन्हा की दूसरी माँग भी यही करती है, बल्कि इससे कुछ ज़्यादा करती है। उनके अनुसार प्राकृतिक संसाधनों को जब तक राज्य की सम्पत्ति न बना दिया जाये तब तक पूँजी में उनके रूपान्तरण का विरोध किया जाना चाहिए। यहाँ तक तो बात कमोबेश ठीक है, लेकिन साथ ही वह यह माँग उठाने की वकालत करते हैं कि छोटी सम्पत्तियों का तब तक पूँजी में रूपान्तरण नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि उनके पूँजी में रूपान्तरण से पैदा होने वाले भावी उद्यमों में उन्हें स्थायी हिस्सेदार (share-holder) न बनाया जाय! यह तो भयंकर है। इसके अनुसार अगर छोटे कारखाना मालिकों और टटपुँजिया उत्पादकों को यदि कोई बड़ी पूँजी निगलना चाहती है तो उन्हें नये उद्यमों में हिस्सेदारी देनी चाहिए! उसी प्रकार अगर कोई एग्रो-बिज़नेस करने वाली कम्पनी छोटी या मँझोली किसानी को निगलता है तो उजड़े हुए किसानों को नये फार्म में हिस्सेदारी दी जानी चाहिए! किसानों के प्रश्न पर कुछ आगे चर्चा करते हैं, लेकिन किसी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट को छोटे कारखाना मालिकों और छोटी पूँजी के उजड़ने पर क्यों पेट दर्द होगा? यह माँग हर सूरत में प्रतिगामी है। यह इतिहास को पीछे की ओर धकेलने की वकालत करती है। कई माँगें पूँजीवादी दायरे के भीतर संघर्ष करने के लिए उपयुक्त होती हैं। लेकिन ये मध्यवर्ती माँगें वे माँगें होती हैं जो कि पूँजीवादी व्यवस्था को बेनक़ाब करती हैं और व्यापक मेहनतकश आबादी के लिए कुछ फौरी राहत दे सकती हैं। लेकिन इस माँग में तो ये दोनों ही गुण नहीं हैं। जहाँ तक किसान आबादी का प्रश्न है, तो व्यापक किसान आबादी भी आज छोटे मालिकाने के विभ्रमों से मुक्त हो रही है। 2003 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण में 40 प्रतिशत छोटे व मँझोले किसानों ने बताया कि वे मौका मिलने पर खेती छोड़ना चाहेंगे। इसी सर्वेक्षण में पता चलता है कि खेती में करीब 11 करोड़ भूमि के स्वामी किसान हैं जबकि 10 करोड़ खेतिहर मज़दूर। 11 करोड़ स्वामी किसानों की 60 प्रतिशत आबादी के जीविकोपार्जन का मुख्य स्रोत खेती नहीं बल्कि उजरती श्रम है। ऐसे में ग्रामीण आबादी के 22 करोड़ कृषि में लगे लोगों में से करीब 16 करोड़ लोग पहले ही सर्वहारा अथवा अर्द्धसर्वहारा की स्थिति में पहुँच चुके हैं। अमित बसोले और दीपांकर बसु का अध्ययन (http://sanhati.com/wp-content/uploads/2009/05/india_surplus_may_ 11.pdf) दिखलाता है कि छोटे किसानों को बचाने या छोटी जोत की खेती को बचाने का प्रयास करने की पूँजीवाद के दायरे के भीतर भी कोई प्रासंगिकता नहीं है; यह मध्यवर्ती माँग भी नहीं बनती है क्योंकि यह किसानों को लेनिन के शब्दों में ‘आत्म-शोषण’ के भयंकर कुचक्र में धकेलने के समान होगा। अगर आँकड़ों के आधार कहें तो अगर आज पुनर्वितरण वाले भूमि सुधार किये जायें तो हरेक किसान के हिस्से 1.25 हेक्टेयर भूमि आयेगी, जो कि कतई अपर्याप्त है। ऐसे में, इस प्रकार के सुधारों की माँग मध्यवर्ती माँग के तौर पर भी अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है। और जहाँ तक खेती में छोटे खेतों के अधिग्रहण से पैदा होने वाले नये कृषि या ग़ैर-कृषि उपक्रमों में स्थायी हिस्सेदारी का प्रस्ताव है, तो यह हास्यास्पद होने की हद तक अव्यावहारिक भी है और राजनीतिक तौर पर प्रतिगामी भी। कोई भी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ऐसी माँग की वकालत क्यों करेगा? आज तो इतिहास ने इस बात के लिए और भी ज़्यादा मुफ़ीद हालात मुहैया कराये हैं कि छोटे और निम्न मध्यम किसानों के उजड़ने पर समाजवादी कृषि कार्यक्रम का एक नये रूप में प्रचार किया जा सके। ऐसे में, हम उजड़ने वाले किसानों को वापस छोटे मालिक या छोटे हिस्सेदार के तौर पर ग़रीबी और बदहाली के कुचक्र में धकेलने की वकालत क्यों करें? जब पूरा तन्दूर ही हमारा है तो फि‍र सिर्फ नान क्यों माँगें?

और ये सारी सलाहें या सबक हमें यथार्थवाद, व्यावहारिकता और ग़ैर-कठमुल्लावादी रुख़ रखने के बहाने से दी जाती हैं। यह व्यावहारिकता नहीं बल्कि व्यवहारवादी समझौतापरस्ती और प्रतिगामिता है। संसदीय वामपंथियों की मूर्खता और “कठमुल्लावाद” पर लेखक बेतरह नाराज़ है। उसके अनुसार संसदीय वामपंथियों ने यूपीए-एक सरकार से अपने उस राष्ट्रवादी कीड़े के कारण परमाणु क़रार के मुद्दे पर रिश्ता तोड़ लिया जो कि अन्त में मोदी के नेतृत्व में फ़ासीवादी उभार का एक कारक बना, जो कि औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के दौर में उसके भीतर घुस गया था! यह भी चमत्कृत कर देने वाला विश्लेषण है। हम यहाँ संसदीय वामपंथियों की इस कथित भूल की तो विस्तार में चर्चा नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना स्पष्ट है कि नन्दीग्राम, सिंगूर और लालगढ़ में अपने असली सामाजिक फ़ासीवादी रवैये को प्रदर्शित करने वाले संसदीय वाम के विषय में लेखक का विभ्रम बीमारी की हद तक है। वह तृणमूल कांग्रेस के लम्पटों और माकपा के लम्पटों में माकपा के लम्पटों को बेहतर मानता है! इसके विश्लेषण में औपनिवेशिक दौर में पैदा हुए राष्ट्रवाद को बेवजह ही घुसा दिया गया है। माकपा और भाकपा केवल उन्हीं अर्थों में “राष्ट्रवादी” कहे जा सकते हैं जिनके अनुसार वे देशी छोटी पूँजी की नुमाइन्दगी करते हैं, हालाँकि अब ये काम भी वे बहुत मन से नहीं करते हैं। सिंगूर की घटनाओं के बाद माकपा ने अपने बचाव में जो कुछ लिखा उसका सार ये था कि बड़ी पूँजी ऐतिहासिक तौर पर ज़्यादा प्रगतिशील है और टटपुँजिया पूँजीवाद और खेती के क्षेत्र में छोटी किसानी की हिफ़ाज़त ऐतिहासिक तौर पर प्रतिगामी है! हालाँकि इससे उन्होंने ये नतीजा निकाला कि इस छोटी किसानी को उजाड़ने के लिए माकपा को ही सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए! बहरहाल, चूँकि रवि सिन्हा के लिए वामपन्थ एक ‘जेनेरिक’ श्रेणी है और वह उस “पागलपन भरी परिधि” में नहीं जाना चाहते हैं जो कि संशोधनवाद, सामाजिक जनवाद आदि जैसे पुराने पड़े शब्दों को इस्तेमाल करती है (!) इसलिए इस बाबत हमें उनकी अवस्थिति के विषय में और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं महसूस होती।

रवि सिन्हा के अनुसार भारतीय वामपंथियों की दो समस्याएँ हैं। एक है कठमुल्लावाद जिसके कारण वे भविष्य के समाजवाद की एक व्यावहारिक रूपरेखा या एक व्यापक कार्यक्रम जनता के सामने नहीं पेश कर पाते हैं। इसका कारण यह है कि तमाम नये समाजवादी सिद्धान्तकारों का तथाकथित ‘इक्कसवीं सदी का समाजवाद’ और ‘भावी समाजवाद’ बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की स्मृतियों का बन्दी बना हुआ है और उससे आगे नहीं देख पा रहा है। इसका कारण यह है कि इन वामपंथियों के लिए बीसवीं सदी का समाजवाद एक प्रामाणिक (canonical) मॉडल बना हुआ है। जहाँ तक हम जानते हैं समाजवाद के तमाम नये सिद्धान्तकारों को यहाँ बेकार में ही घसीट दिया गया है। इसका कारण यह है कि चाहे इस्तेवान मेस्ज़ारोस हों, माइकल लेबोवित्ज़ हों या फिर मार्ता आनेकर जैसे बुद्धिजीवी हों, वे बीसवीं सदी के समाजवादी मॉडल के प्रति एक ‘रिजेक्शनिस्ट’ रुख़ रखते हैं और कम-से-कम उनके बारे में यह कहना कि वे बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों की स्मृतियों के बन्दी बने हुए हैं, हास्यास्पद हैं। बल्कि यह कहा जा सकता है कि वे भयंकर स्मृति-लोप का शिकार हैं। सोवियत समाजवादी प्रयोगों की उनकी समझदारी और जानकारी के बारे में जितना कम कहा जाय उतना अच्छा है। मिसाल के तौर पर, इस्तेवान मेस्ज़ारोस अपनी एक हालिया रचना में लिखते हैं कि स्तालिन ने ट्रेड यूनियनों को राज्य के अधीन लाने के लिए उन्हें ‘कन्वेयर बेल्ट’, ‘ट्रांसमिशन बेल्ट’ आदि की संज्ञा दी थी! कोई भी सोवियत इतिहास का जानकार जानता है कि लेनिन ने ये शब्द इस्तेमाल किये थे और वह भी केवल ट्रेड यूनियनों के लिए नहीं बल्कि बल्कि सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी मशीनरी के लिए जिसके लिए उन्होंने ‘कॉग व्हील्स’ और ‘कन्वेयर बेल्ट’ या ‘ट्रांसमिशन बेल्ट’ के रूपक का प्रयोग किया था। दूसरी बात यह कि उन्होंने ऐसा ठीक इसलिए किया था क्योंकि वह त्रात्स्की द्वारा ट्रेड यूनियनों के राजकीयकरण के ख़िलाफ़ थे! लेकिन मेस्ज़ारोस यहाँ सारे ऐतिहासिक विवरणों को गड्ड-मड्ड कर अजीब खिचड़ी पका देते हैं। ऐसे ही उदाहरण हम लेबोवित्ज़ और आनेकर की रचनाओं से भी दे सकते हैं, जिसके लिए हमारे पास यहाँ स्थान नहीं है। लेकिन एक बात तय है-“भावी समाजवाद” और “इक्कीसवीं सदी के समाजवाद” के इन सिद्धान्तकारों के लिए बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोग न केवल कोई मॉडल नहीं हैं, बल्कि उनके अनुसार इन मॉडलों में सीखने के लिए ज़्यादा कुछ नहीं है। इसके अलावा, अगर बेदियू, ज़िज़ेक आदि की बात करें तो वे तो रवि सिन्हा से भी आगे बढ़कर बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को आपदा (disaster) मानते हैं, लिहाज़ा, रवि सिन्हा निश्चित तौर पर उनके बारे में तो बात नहीं ही कर रहे हैं। इसलिए रवि सिन्हा यहाँ तथ्यतः ग़लत हैं।

यह ज़रूर है कि भारत में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन में कठमुल्लावाद एक अहम समस्या है; विशेष तौर पर, कार्यक्रम के प्रश्न पर। जिस कठमुल्लावाद की बात रवि सिन्हा कर रहे हैं, उसके बारे में वे कुछ विस्तार से लिखते तो ज़्यादा बेहतर होता। लेकिन एक बात तय है कि इस कठमुल्लावाद को जो भी संघटित करता हो, इसके विकल्प के तौर पर जो धुरीविहीन मुक्तचिन्तन वह पेश कर रहे हैं वह न केवल कोई नया व्यावहारिक समाजवादी कार्यक्रम के निर्माण की ओर नहीं ले जा सकता है, बल्कि दरअसल वह पुराने दन्त-नखविहीन सामाजिक-जनवाद, संशोधनवाद, उदार बुर्जुआ व्यहवारवाद और सुधारवाद का ही एक विचित्र मिश्रण है। इसे बस पाण्डित्यपूर्ण भाषा की नयी बोतल में पेश करने का प्रयास किया गया है।

रवि सिन्हा के अनुसार, भारतीय वामपंथियों के लिए दूसरी समस्या है लोकरंजकतावाद जिसके कारण वे उदार बुर्जुआ वर्ग जितना भी रैडिकल नहीं हो पाते। वे युग की ऐतिहासिक चेतना और जनता की अस्तित्वमान लोकप्रिय चेतना के बीच के अन्तर को कम करने के लिए उतने साहसिक कदम भी नहीं उठा पाते जितना कि उदार बुर्जुआ लोग उठा लेते हैं। यहाँ के वामपन्थी ‘नॉस्टैल्जिक’ होकर राष्ट्रवाद के दौर को गाँधीवादी समुदायवादी भावना को याद करते हैं जब कम्युनिस्ट पार्टी का किसानों से जैविक रिश्ता बना हुआ था और फिर जनता से रिश्ता टूट जाने पर वामपन्थ की असफलता का दोष डाल देते हैं! यहाँ सारी बातें जानबूझकर गड्डमड्ड कर दी गयी हैं। पहला प्रश्न यह है कि युग की कौन-सी ऐतिहासिक चेतना और कौन-से उदार बुर्जुआ की बात यहाँ की गयी है? लेख के पहले के स्वर और अन्तर्वस्तु से हम बता सकते हैं यहाँ युग की ऐतिहासिक चेतना का रिश्ता भी आधुनिकता से है और उदार बुर्जुआ के रूप में हम इतिहास में अम्बेडकर को देख सकते हैं और आज के दौर में सम्भवतः तीस्ता सेतलवाड़ या मुकुल सिन्हा जैसे लोगों को। हमारा समझना है कि युग की ऐतिहासिक चेतना आज पूँजीवादी आधुनिकता से आगे निकल चुकी है। और ठीक इसीलिए आज स्पष्ट तौर पर उन उदार बुर्जुआ लोगों और उनकी राजनीति से ज़्यादा की ज़रूरत है जिनकी बात रवि सिन्हा कर रहे हैं। दूसरा प्रश्न यह है कि आज कौन-से क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट गाँधीवादी समुदायवाद को लेकर ‘नॉस्टैल्जिक’ हैं? चूँकि मार्क्सवाद और वामपंथ की लेखक की परिभाषा अभूतपूर्व रूप से व्यापक है इसलिए हो सकता है कुछ ऐसे लोग हों! लेकिन वामपन्थी लोग किसानों या जनता से कम्युनिस्ट पार्टी के अतीत के जुड़ाव को लेकर ‘नॉस्टैल्जिक’ हैं और उसके टूट जाने से दुखी हैं। और उनके इस दुखी होने से लेखक दुखी है! हालाँकि, अगर कोई कम्युनिस्ट जनता से जुड़ाव के टूटने पर अफ़सोसज़दा है, तो इसमें ग़लत क्या है? लेकिन बात यह है कि हमारी जानकारी में कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट केवल इसी को एकमात्र समस्या नहीं मानता है। अगर हमारी जानकारी कम है और ऐसे लोग भी हैं तो हम निश्चित तौर पर रवि सिन्हा की इस बात से सहमत हैं कि केवल जनता से जुड़ाव होना ही सारी समस्याओं का समाधान नहीं है और एक सही विचारधारात्मक और राजनीतिक कार्यदिशा का होना भी उतना ही ज़रूरी है। लेकिन हमें नहीं लगता कि इस दिशा में लेखक द्वारा दिये गये सबकों से कोई लाभ होता है, हानि की सम्भावना ज़रूर है। साथ ही हमें ऐसा भी लगता है कि जिन लोगों के हाशिये पर होने का एक अहम कारण जनता से जुड़ाव नहीं होना भी है, कम-से-कम उन्हें तो इस बारे में अफ़सोसज़दा होना ही चाहिए!

चौथा सबकः ‘समझदारों को सलाह देना आसान होता है’

                                               (सर्बियाई लोकोक्ति)

मैं हमेशा सिखाता रहता हूँ। मैं कब सीखूँगा?

(बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, ‘गैलीलियो’)

वह जो चीज़ों से किनारा करके खड़ा रहता है, उसके साथ यह जोखिम होता है कि वह अपने आपको दूसरों से बेहतर समझने लगे और समाज की अपनी आलोचना का दुरुपयोग अपने निजी हितों के लिए विचारधारा के तौर पर करने लगे।

(थियोडोर अडोर्नो)

जैसा कि लेखक स्वयं मानते हैं, यह चौथा और आख़िरी सबक वास्तव में कोई सबक नहीं है बल्कि हालिया स्वतःस्फूर्त सामाजिक आन्दोलनों की एक पड़ताल करने का प्रयास है और इस बाबत वामपन्थ के कार्यभारों को सूत्रबद्ध करने की दिशा में एक कदम है। लेकिन जैसे ही आप इस उम्मीद के साथ आगे बढ़ते हैं कि इन आन्दोलनों का एक विश्लेषण आपके सामने पेश किया जायेगा, तो आपको एक के बाद एक नाउम्मीदियों का सामना करना पड़ता है। स्पष्टतः लेखक ने बेवजह यह चौथा सबक अपने लेख में डाल दिया है क्योंकि बेहद संक्षेप में इन आन्दोलनों के इतिहास और वर्तमान का एक बेहद ग़लत विश्लेषण पेश किया गया है। सम्भवतः इस “सबक” को लेख में बस इसलिए डाल दिया गया है कि लेख अपने समय की सही तरीके से नुमाइन्दगी कर सके! क्योंकि जो विषय इसमें उठाया गया वह निश्चित रूप से व्यवस्थित आलोचनात्मक चर्चा का हक़दार था।

यहाँ रवि सिन्हा ने हाल में हुए ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ जैसे आन्दोलनों की चर्चा करते हुए दावा किया है कि इनमें से कुछ ने आर्थिक और राजनीतिक प्रश्न उठाये तो कुछ ने राजनीतिक प्रश्नों को भी एजेण्डे पर लिया। लेकिन इन सबमें जो बात साझा थी वह यह कि इन आन्दोलनों ने आधुनिकता और आधुनिकता के ज़रिये पहचानी जाने वाली एक पूरी जीवन शैली पर प्रश्न खड़ा किया। ऐसा कैसे हुआ और आधुनिकता द्वारा प्रोत्साहित जीवन शैली पर इन आन्दोलनों ने किस रूप में प्रश्न खड़ा किया इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। शायद इसका कारण यह है कि लेखक इन आन्दोलनों की परिघटना के उत्स को 1960 के दशक के छात्र आन्दोलनों, नारीवादी आन्दोलनों, नस्लवाद-विरोधी और युद्ध-विरोधी आन्दोलनों में देखते हैं, जिसमें निश्चित तौर पर कुछ सच्चाई भी है। इन आन्दोलनों को नव-वामपंथियों का समर्थन मिला और साथ ही इनके उभार में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति द्वारा प्रोत्साहित आमूलगामिता की भी एक भूमिका थी। लेकिन लेखक के अनुसार इन आन्दोलनों ने ऐसे नये सामाजिक आन्दोलनों के युग की शुरुआत की जो कि कम्युनिस्ट पार्टियों की अगुवाई में चले मज़दूर आन्दोलनों और राष्ट्रवादियों और साथ ही वामपंथियों की अगुवाई में चले उपनिवेशवाद-विरोधी आन्दोलनों से काफ़ी भिन्न थे। बकौल रवि सिन्हा इनमें से कुछ आन्दोलनों को काफ़ी सफलता मिली और उन्होंने मानवता के सामाजिक-राजनीतिक-विचारधारात्मक-सांस्कृतिक भूदृश्य को बदल डाला। कुछ अन्य जिन विशिष्ट मुद्दों पर शुरू हुए थे, उन विशिष्ट मुद्दों के अप्रासंगिक होते हुए विश्व इतिहास के नेपथ्य में चले गये। लेखक के अनुसार, 1960 के दशक के आन्दोलनों और अब समकालीन स्वतःस्फूर्त सामाजिक आन्दोलनों के बूते पर कुछ नववामपन्थी आदि ये दावे कर रहे हैं कि अब पार्टियों द्वारा या उनके नेतृत्व में संगठित आन्दोलनों का युग बीत गया है। अब नये स्वतःस्फूर्त या ढीले-ढाले तौर पर संगठित सामाजिक आन्दोलनों का युग आ चुका है। इस दावे पर रवि सिन्हा सन्देह करते हैं लेकिन इसके खण्डन के लिए कोई तर्क नहीं पेश करते। वह कहते हैं कि ये नये सामाजिक आन्दोलन अब उतने नये नहीं रह गये हैं। ग़ौरतलब है कि इनमें वह वर्ल्ड सोशल फोरम को भी जोड़ते हैं जो कि सामाजिक प्रश्नों तक सीमित रहा, और अरब बसन्त और तहरीर चौक को भी, जिन्होंने अपेक्षाकृत ज़्यादा प्रत्यक्ष राजनीतिक प्रश्नों को खड़ा किया। इसके बाद बस वह इतना ही कहते हैं कि पता नहीं ऐसे सामाजिक आन्दोलनों की हिमायत करने वाले लोग कब तक दुनिया को बदलने के कार्यभार में ऐसे सामाजिक आन्दोलनों का कोई विकल्प न होने, वामपंथियों और वर्ग-आधारित आन्दोलनों की असफलता की ओर इशारा करते रहेंगे?! इसका क्या मतलब है? निश्चित तौर पर वे तब तक ऐसा करते रहेंगे जब तक कि कम्युनिस्टों की ओर से सिद्धान्त और व्यवहार दोनों के ही धरातल पर उन्हें उचित उत्तर नहीं दिया जाता! कम-से-कम ऐसे ‘रेटॉरिकल’ प्रश्नों को पूछने से तो वे नहीं रुकेंगे! बहरहाल, हम इन नये स्वतःस्फूर्त सामाजिक आन्दोलनों के विषय में रवि सिन्हा की समझदारी पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डालते हैं।

रवि सिन्हा कहते हैं कि इन आन्दोलनों ने, जिसमें वे वर्ल्ड सोशल फोरम, ऑक्युपाई आन्दोलन, अरब बसन्त सभी को शामिल करते हैं, आधुनिकता और आधुनिकता द्वारा प्रेरित जीवन शैली पर प्रश्न खड़ा किया। हमें ऐसा नहीं लगता है और इस दावे के पक्ष में रवि सिन्हा ने कोई दलील पेश करना भी ज़रूरी नहीं समझा है। पहली बात तो यह है कि जिन आन्दोलनों के नाम रवि सिन्हा ने गिनाये हैं उन्हें एक टोकरी में रखना सम्भव ही नहीं है। दूसरी बात यह कि तमाम बेहद बुनियादी फर्कों के साथ अगर हम कोई एक साझा चारित्रिक आभिलाक्षणिकता इन आन्दोलनों में देखना ही चाहते हैं तो निश्चित तौर पर यह इनके द्वारा आधुनिकता और उसकी जीवन शैली पर प्रश्न खड़ा करना तो कतई नहीं है। अगर कोई एक साझी ख़ासियत है तो वह यह है कि इन सभी आन्दोलनों ने किसी न किसी तौर पर आज के अभूतपूर्व वैश्विक पूँजीवादी संकट के दौर में तमाम देशों में कल्याणकारी राज्यों के पीछे हटने पर, ख़त्म होती सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा और बढ़ती अनिश्चितता पर, असमानता और पूँजीवाद के अन्य तोहप़फ़ों जैसे कि बेघरी, पर्यावरणीय विनाश आदि पर प्रश्न खड़ा किया, चाहे इन आन्दोलनों में कुछ प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ भी क्यों न सक्रिय रही हों। कुछ मामलों में ये आन्दोलन अपने इस विरोध के बारे में सचेत थे और इरादतन इन चीज़ों का विरोध कर रहे थे और अन्य मामलों में वे पूँजीवाद द्वारा लायी जा रही तबाही की रोगात्मक प्रतिक्रिया (pathological reaction) थे। ये आन्दोलन कुछ मामलों कुछ ज़्यादा या कुछ कम, ज़्यादा स्पष्ट या आकारहीन किस्म के हो सकते हैं; लेकिन यह बात उनमें समान थीः इनमें से अधिकांश स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन थे; और इस रूप में वे आधुनिकता के उन रूपों का विरोध कर रहे थे, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था और समाज अपने सबसे पतनशील, मरणासन्न और मानवद्रोही दौर में पैदा कर रहे हैं। लेकिन अपने आप में उनका एजेण्डा आधुनिकता और उसकी जीवन-शैली का विरोध करना नहीं था। वास्तव में, ये आन्दोलन स्वयं आधुनिक आन्दोलन ही थे। ये आन्दोलन भूमण्डलीकरण और नग्न नवउदारवादी नीतियों का विरोध कर रहे थे जो कि आज के ढाँचागत संकट के दौर में जनता के ऊपर कहर बरपा कर रहे थे। निश्चित तौर पर, अमेरिका में ये आन्दोलन ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन का ही रूप ग्रहण करते और अरब विश्व में ये ‘अरब बसन्त’ का ही रूप ग्रहण करते; यह भी कहना पुनरुक्तिपूर्ण ही होगा कि ‘कमज़ोर कड़ियों’ में वैश्विक पूँजीवाद के संकट के फलस्वरूप अगर कोई स्वतःस्फूर्त आन्दोलन भी पैदा होगा तो उसका ज़्यादा राजनीतिक चरित्र होगा और उसमें संगठन का तत्व भी अपने पश्चिमी समानान्तरों से ज़्यादा होगा। इसका स्पष्ट कारण मिस्र समेत अन्य अरब देशों के राजनीतिक अर्थशास्त्र और इतिहास और अमेरिका या पश्चिमी व उत्तरी यूरोप के देशों के राजनीतिक अर्थशास्त्र और इतिहास के फर्क में अन्तर्निहित है। इसलिए वैश्विक संकट ने अलग-अलग जगह अलग-अलग प्रकार के स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों को जन्म दिया। जो बात साझा थी वह था एक भूमण्डलीकृत पूँजीवादी विश्व का विश्व ऐतिहासिक सन्दर्भ सन्दर्भ यानी कि अब तक का सबसे ढाँचागत आर्थिक संकट और साथ ही इस पूँजीवाद के संकट का बोझ जनता पर डाले जाने के विरोध में जनता के स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलन। लेकिन यही इन आन्दोलनों की कमज़ोरी भी थीः आज महज़ स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है। चूँकि इन आन्दोलनों की राजनीति और विचारधारा अस्पष्ट, अपूर्ण और धुंधली थी, इसलिए वे कोई सकारात्मक प्रस्ताव रख ही नहीं सके और पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं पेश कर पाये। जैसा कि स्लावोय ज़िज़ेक ने ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन के बारे में कहा था, यह काफ़ी हद तक कल्याणकारी राज्य के नॉस्टैल्जिया में जी रहा है और उसकी वापसी की माँग कर रहा है, जबकि आज ज़रूरत है पूँजीवादी कल्याणकारी राज्य की माँग से आगे जाकर कम्युनिज़्म की माँग करने की, क्योंकि कल्याणकारी राज्य, वैसे भी, वापस आ ही नहीं सकता है। ज़िज़ेक से आम तौर पर सहमत न होते हुए भी इस प्रेक्षण से सहमति जतानी होगी। आज पूँजीवाद जिस ढाँचागत संकट से गुज़र रहा है वह 1930 के दशक की महामन्दी से इन मायनों में भिन्न है कि अब कोई वास्तविक ‘बूम’ का दौर आयेगा ही नहीं। कल्याणकारी राज्य एक अभूतपूर्व तेज़ी के दौर की पैदावार था, जो कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी पूँजीवाद देख रहा था। अमेरिकी ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन कुछ अर्थों में अमेरिकी स्वर्ण युग के ‘हैंगओवर’ को ही अभिव्यक्त कर रहा था। ज़िज़ेक के विश्लेषण के तमाम नुक़्तों और कम्युनिज़्म के उनके मॉडल से बुनियादी असहमति रखने के बावजूद उनके इस प्रेक्षण को सही माना जाना चाहिए।

दूसरी ओर अरब बसन्त भी हालाँकि पूँजीवाद-विरोध से आगे नहीं जा सका, लेकिन यह कई मायनों में ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन से भिन्न था। पहली बात तो यह कि मिस्र के आन्दोलन में मज़दूर आन्दोलन सबसे अहम संघटक अंग था, हालाँकि बाद में यह एक सही और एकीकृत राजनीतिक नेतृत्व के अभाव में टटपुँजिया आमूलगामिता में सहयोजित हो गया। लेकिन टटपुँजिया आमूलगामिता थोड़े समय के लिए पैदा होती और फिर सोती रहती है। जब टटपुँजिया रूमानी आमूलगामिता घर बैठ गयी, तब भी मिस्र के महल्लम जैसे इलाकों में ज़बर्दस्त मज़दूर आन्दोलन जारी रहा और अब भी जारी है। तहरीर चौक से शुरू हुए आन्दोलन ने मिस्र में वे वस्तुगत परिस्थितियाँ निर्मित कर दी थीं जब जनता व्यवस्थागत परिवर्तन के लिए तैयार थी और मिस्र का शासक वर्ग अपने शासन को जारी रखने में सक्षम नहीं था। लेकिन एक सही राजनीतिक विचारधारा और संगठन के अभाव में ‘क्रान्ति की घड़ी बीत गयी’ और मिस्र की जनता को पहले मुस्लिम ब्रदरहुड और फिर सेना के शासन के प्रतिक्रियावादी दौर को झेलना पड़ रहा है। आने वाले समय में भी मिस्र शान्त नहीं होने वाला है, लेकिन यह भी तय है कि क्रान्तिकारी परिस्थिति को क्रान्ति में तब्दील करने के लिए जिस अभिकर्ता की आवश्यकता है, उसके अनुपस्थित रहते हुए शासन (regime) बदल सकता है लेकिन व्यवस्था (system) नहीं। बहरहाल, हम यहाँ अरब बसन्त और विशेष तौर पर मिस्र के जनान्दोलन की व्याख्या नहीं पेश कर सकते। मूल बात यह है कि रवि सिन्हा बिना कोई विश्लेषण पेश किये इन सभी आन्दोलनों को एक कोष्ठक में रख देते हैं और उन पर आधुनिकता और जीवन शैली का विरोध करने का बेजा आरोप थोप देते हैं, जो कि तथ्यतः भी ग़लत है और राजनीतिक तौर पर भी ग़लत है।

जैसा कि हमने कहा है, इस प्रेक्षण में कुछ सच्चाई है कि आज के नव-वामपन्थी, उत्तर-मार्क्सवादियों, उत्तर-आधुनिकतावादियों के विचारधारात्मक उत्स को 1960 के दशक के आन्दोलनों में तलाशा जा सकता है, जैसा कि हमने कहीं और भी लिखा है (‘सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमणः इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ’, पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी, इलाहाबाद में पेश आधार-पेपर, arvindtrust.org पर उपलब्ध)। लेकिन ऐसा आज के पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों और विशेष तौर पर उनके समकालीन सिद्धान्तकारों के बारे में एक ही अर्थ में कहा जा सकता हैः इन सिद्धान्तकारों और कम-से-कम पश्चिमी उन्नत पूँजीवादी देशों में हुए पूँजीवाद-विरोधी स्वतःस्फूर्त आन्दोलनों के विचारधारात्मक उत्स को ही 1960 के दशक के आन्दोलनों में देखा जा सकता है क्योंकि उनका ऐतिहासिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक सन्दर्भ और पृष्ठभूमि पहले से गुणात्मक रूप से भिन्न है। आज के स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों का 1960 के दशक के आन्दोलनों से सीमित अर्थों में कुछ विचारधारात्मक उत्सों को साझा करने से ज़्यादा कोई रिश्ता नहीं है। 1960 के दशक का अन्त कई बातों से पहचाना जा सकता था। पूँजीवाद का ‘स्वर्ण युग’ समाप्ति की ओर था; सोवियत संघ में समाजवाद के पतन और सामाजिक साम्राज्यवाद के उदय और पूर्वी यूरोप और दुनिया के अन्य हिस्सों में उसके कुकर्म और अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ उसकी प्रतिस्पर्द्धा के साथ दुनिया भर में प्रगतिशील राजनीतिक और बौद्धिक हलकों में एक पैथोलॉजिकल प्रतिक्रिया का जन्म, विशेष तौर पर यूरोप में; महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति और माओवाद का यूरोप के बौद्धिक व राजनीतिक दायरों में दोहरा प्रभाव (यानी एक ओर माओवाद के प्रभाव में नयी माओवादी पार्टियों का जन्म और वहीं दूसरी ओर एक छद्म-माओवाद का पैदा होना जो कि अन्त में ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद, ऑपराइज़्मो, काउंसिल कम्युनिज़्म, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद के रास्ते से होता हुआ उत्तर-मार्क्सवाद की विभिन्न प्रजातियों के रूप में परिणत हुआ जो कि आज मार्क्सवाद से ज़्यादा रैडिकल किसी विचारधारा के दावे कर रहे हैं); नागरिक अधिकार और नस्लवाद-विरोधी आन्दोलनों का होना; स्त्रीवादी आन्दोलनों और विचारधार की दूसरी लहर (second wave) का आना; वित्तीय पूँजीवाद का द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर दौर में एक गुणात्मक रूप से नये परजीवी दौर में प्रवेश जिसे उत्तर-फोर्डवाद (post-fordism), ऋण-वित्तपोषित ‘बूम’, वि-विनियमन (deregulation), बाज़ार ‘फ्लेकि्ज़बिलाइज़ेशन’ आदि से पहचाना जाता है, जिसमें कि वित्तीय पूँजी अभूतपूर्व रूप से सट्टेबाज़ और अनुत्पादक रूप में सामने आयी; इसके साथ ही उत्तर औद्योगिक सिद्धान्त, उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धान्त और उत्तरआधुनिकतावाद का पैदा होना और कई वामपन्थी बुद्धिजीवियों का इन ‘रेटॉरिकल रैडिकैलिटी’ वाले सिद्धान्तों में ‘कन्वज़र्न’, जो कि सोवियत समाजवाद के पतन के ‘पैथोलॉजिकल प्रतिक्रिया’ का ही एक अंग था; इनमें और बहुत-सी चारित्रिक आभिलाक्षणिकताएँ जोड़ी जा सकती हैं, जिनसे कि 1960 के दशक को और साथ ही 1970 के दशक को भी पहचाना जा सकता था। उस दौर में जो सामाजिक आन्दोलन पैदा हुए उन पर इन विचारधाराओं की अमिट छाप थी, जिसमें साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के अपराधों पर समूचे प्रबोधन, आधुनिकता, तर्कणा पर थोप दिया गया; मार्क्सवाद को प्रबोधन द्वारा प्रेरित तर्कणा और आधुनिकता के महाख्यान का ही एक अध्याय घोषित किया गया; हर प्रकार की सामान्यता (generality) या सावैभौमता (universality) की अवधारणा को आधुनिकता की दमनकारी पाश्चात्य परियोजना का अंग माना गया और हर तरफ़ खण्डों (fragments) और अन्तर (difference) के जश्न को प्रोत्साहन दिया गया, हालाँकि यह और कुछ नहीं था बल्कि खण्डों और अन्तरों का सार्वभौमीकरण ही था! इस सारी दार्शनिक जुगाली का राजनीतिक निचोड़ यह थाः यह सच है कि उदार पूँजीवाद मानवता को तबाही और बरबादी दे रहा है, लेकिन इसका विकल्प पेश करने का दावा करने वाले लोगों ने भी क्या दिया? सर्वसत्तावाद! इसलिए एक छद्म विकल्पों का समुच्चय पेश किया गया: उदार बुर्जुआ जनवाद, जो कम-से-कम कुछ वैयक्तिक स्वतन्त्रता और अधिकार तो देता है, या फिर सर्वसत्तावाद (जो हर प्रकार की स्वतन्त्रता और अधिकार को कुचलकर रख देता है)! 1990 के दशक की शुरुआत तक यह छद्म विकल्पों का समुच्चय अपने सबसे बुरे रूप में सामने आ चुका था जब फ्रांसिस फुकोयामा ने ‘इतिहास के अन्त’ का नारा बुलन्द किया। ख़ैर, वह पूँजीवादी विजयवाद (triumphalism) का स्वर्ण युग था। 1990 के दशक का अन्त आते-आते उत्तरआधुनिक उन्मादी चीख-पुकार मिमियाहट में तब्दील हो चुकी थी क्योंकि पूँजीवाद 1997 के एशियाई बाघों के धराशायी होने के साथ एक अल्पजीवी तेज़ी के दौर के अन्त में आ चुका था, और सोवियत संघ के नकली लाल झण्डे के गिरने को लेकर पैदा हुआ उल्लास भी अब दुहरावपूर्ण और उबाऊ बन चुका था। 2000 के दशक में पूँजीवादी विजयवाद अपनी कब्र में जा चुका था और नंगे पूँजीवादी विजयवाद का ढोल बजाने वाले उत्तरआधुनिकतावादियों की बजाय सामाजिक आन्दोलन वाले, एनजीओपन्थी, उत्तरमार्क्सवादी कम्युनिज़्म की बात करने वाले बहेतू (vagabond) दार्शनिक पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के लिए ज़्यादा उपयोगी हो गये हैं।

आज तमाम पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों के सिद्धान्तकार जैसे नेग्री, हार्ट, बेदियू, हैलोवे, और थोड़ा अलग अर्थों में ज़िज़ेक (क्योंकि उनको सीधे नेग्री, हार्ट या बेदियू की श्रेणी में रखना विश्लेषण के लिए कई असुविधाएँ पैदा करता है) वास्तव में यह नहीं कह रहे कि पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं है। वे एक नये किस्म के कम्युनिज़्म की बात कर रहे हैं; वास्तव में, वे पूँजीवाद का ही एक नया सैद्धान्तिकीकरण पेश कर रहे हैं, जिसमें पूँजीवाद एक अवैयक्तिक शक्ति (impersonal entity) बन जाता है; उसका विरोध करने वाले भी एक अवैयक्तिक, आकारहीन चीज़ बन जाते हैं, जिसे नेग्री और हार्ट ‘मल्टीट्यूड’ का नाम देते हैं; और जिस चीज़ के लिए लड़ना और जिसके ख़िलाफ़ लड़ना है वह भी अवैयक्तिक और अस्पष्ट सी चीज़ बन जाती है! पूँजीवाद की जगह ‘एम्पायर’ ले लेता है और सर्वहारा वर्ग की जगह ‘मल्टीट्यूड’ ले लेता है। बेदियू के मुताबिक मुक्तिकामी परियोजना के लिए राज्य और पार्टी जैसी अवधारणाएँ अप्रासंगिक हो चुकी हैं। ‘सबट्रैक्शन’ सिद्धान्त जैसे निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवाद के सिद्धान्त आ रहे हैं जो दावा करते हैं कि आज क्रान्तिकारी परिवर्तन के आन्दोलनों को वैश्विक पूँजी के वर्चस्व के क्षेत्रों से अपने आपको वापस ले लेना चाहिए (withdraw) जिससे कि वैश्विक पूँजी का ढाँचा ढह जायेगा और जन भागीदारी के नये रूपों के ज़रिये राज्यसत्ता का राजनीतिक रूपान्तरण हो जायेगा; यानी कि क्रान्ति कैसे न करें, इसके सैद्धान्तिकीकरण पेश किये जा रहे हैं। यह वैश्विक पूँजी के वर्चस्व की नयी रणनीति हैः ‘यह मत कहो कि दूसरी दुनिया सम्भव नहीं है! यह कहो कि बहुत-सी दूसरी दुनियाएँ सम्भव हैं! लेकिन किसी एक को भी बनाने के बारे में भी कुछ मत बताओ! और जो दूसरी दुनिया वाकई मुमकिन है, उसके लिए ज़रूरी बदलाव से अभिकर्ता और अभिकरण को छीन लो! परिवर्तनकामी सामाजिक ताक़तों को बताओ कि राज्य और पार्टी और वर्ग की अवधारणाएँ अप्रासंगिक हो चुकी हैं!’ आज के स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलनों को ये नये बहेतू दार्शनिक और विचारक यही बता रहे हैं और निश्चित तौर पर इस तरह के विचारों का उनके बताये बग़ैर भी इन आन्दोलनों पर अच्छा-ख़ासा प्रभाव है, क्योंकि इन आन्दोलनों के भीतर भी ऐसे ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी समूह सक्रिय हैं जो इन विचारों को मानते हैं। वैसे भी हमें भूलना नहीं चाहिए कि नेग्री और ट्रॉण्टी जैसे सिद्धान्तकारों का मूल मज़दूर आन्दोलन में सक्रिय अराजकतावादी और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी रुझानों में ही था।

इस रूप में हम कह सकते हैं कि आज के स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों पर उन विचारधाराओं का असर है जो कि काफ़ी हद तक 1968 के भ्रमित पेरिस में जन्मी थीं। लेकिन आज के आन्दोलन उस दौर के आन्दोलनों की निरन्तरता में नहीं रखे जा सकते और न ही यह माना जा सकता है कि 1960 के दशक के सामाजिक आन्दोलन (चाहे इसका जो भी मतलब होता हो!) आज के इन जनान्दोलनों की परिघटना के लिए मील का पत्थर थे, जैसा कि रवि सिन्हा मानते हैं। ऐतिहासिक आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक सन्दर्भ बिल्कुल भिन्न हैं। और विचारधारात्मक तौर पर जो निरन्तरता का तत्व मौजूद है, उसे हम ऊपर चिन्हित कर चुके हैं। वास्तव में, आज जिस प्रकार के गै़र-पार्टी क्रान्तिवाद, संगठन-विरोध और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद का प्रयोग नये विचारक व दार्शनिक इन आन्दोलनों से परिवर्तन का अभिकरण (agency) छीनने के लिए कर रहे हैं, रवि सिन्हा उसकी कोई सुसंगत आलोचना नहीं पेश करते। और तो और वह इन सामाजिक आन्दोलनों में वह वर्ल्ड सोशल फोरम को भी शामिल करते हैं; मतलब, उनके लिए ‘आक्युपाई’, अरब बसन्त और वर्ल्ड सोशल फोरम में कोई बुनियादी विचारधारात्मक-राजनीतिक अन्तर नहीं है और वे उन सभी की राजनीतिक अस्पष्टता, स्वतःस्फूर्ततावाद के लिए आलोचना करते हैं। जहाँ तक वर्ल्ड सोशल फोरम की बात है, तो निश्चित तौर पर हम एक बार फिर कह सकते हैं कि उसकी स्वतःस्फूर्तता के लिए आलोचना करना हिटलर की वायलिन ख़राब बजाने की आलोचना करने के समान है! और दूसरी बात यह है कि वर्ल्ड सोशल फोरम इतना स्वतःस्फूर्त या अस्पष्ट है भी नहीं क्योंकि यह वास्तव में स्वतःस्फूर्तता और अस्पष्टता को सचेतनता और स्पष्टता की ओर बढ़ने से रोकने के लिए सचेतन तौर पर बनाया गया सांगठनिक रूप है! यह सचेतन तौर पर संगठित स्वतःस्फूर्तता और अस्पष्टता की सांगठनिक अभिव्यक्ति है और इस कार्य के लिए इसे फ्रांस की सरकार से लेकर तमाम साम्राज्यवादी एजेंसियों से वित्त-पोषण प्राप्त होता है। एक साम्राज्यवादी वित्त-पोषित संस्था जो कि जनता के तमाम संघर्षों के सहयोजन के लिए बनायी गयी है, और अरब बसन्त में फर्क न करना रवि सिन्हा की राजनीतिक दृष्टि के बारे में काफ़ी-कुछ बताता है। बहरहाल, रवि सिन्हा इन तमाम आन्दोलनों की कोई आलोचना पेश करने की बजाय एक जुमलेनुमा सवाल पूछते हैं: कि आखिरी ऐसे आन्दोलन के विचारक कब तक वामपंथियों की नाकामयाबी पर उंगली उठाते रहेंगे? यह कैसी आलोचना है? दरअसल, यह करुण और दारुण स्वर भी लेखक के खुद की दार्शनिक, विचारधारात्मक और राजनीतिक अनिर्णय की अवस्था और डगमगाये हुए आत्मविश्वास को ही दिखलाता है।

अन्तिम पैराग्राफ में रवि सिन्हा वामपन्थ की असफलता का कारण बताते हुए कहते हैं कि इसका कारण यह नहीं है कि उसने उपरोक्त सामाजिक आन्दोलनों का अनुसरण नहीं किया, बल्कि इसका कारण यह है कि उसके पास उपनिवेशवाद, राजतन्त्रवाद, सैन्य तानाशाहियों और सामन्तवाद से लड़ने की कला तो है, लेकिन ये दुश्मन अब बीते ज़माने के दुश्मन बन चुके हैं। आज के ज़माने के दुश्मन यानी कि पूँजीवाद-साम्राज्यवाद से लड़ने की कला उसे विकसित करनी होगी। वैसे तो यह एक हद तक ओवरस्टेटमेण्ट माना जायेगा क्योंकि रूस में हुई समाजवादी क्रान्ति में रूसी कम्युनिस्टों के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग पूँजीवाद से ही लड़ रहा था, हालाँकि वह एक नवजात, अशक्त और पिछड़ा पूँजीवाद था और अर्द्धसामन्ती शक्तियों की बैसाखी पर भी टिका हुआ था; लेकिन इस बात में सत्यांश है आज के दौर के पूँजीवाद से लड़ने की रणनीति और आम रणकौशल को विकसित करना भारत के लिए नहीं बल्कि दुनिया भर के मार्क्सवादियों के एजेण्डे पर सबसे केन्द्रीय प्रश्न है। विशेष तौर पर, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व पूँजीवाद की कार्यपद्धति (modus operandi) में आये बेहद अहम बदलावों को समझना आज बेहद ज़रूरी है और उसके अनुसार नयी समाजवादी क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल में आने वाली अहम बदलावों को सूत्रबद्ध करना भी बेहद आवश्यक है। लेकिन इस नवोन्मेष के नाम पर अगर मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विज्ञान के बुनियादी उसूलों को कोई बिना किसी जायज़ तार्किक कारण रद्द करने की बात करता है, तो वह घातक है; अगर कोई राज्य और क्रान्ति की बुनियादी लेनिनवादी थीसिस को छोड़ने, क्रान्तिकारी मार्क्सवाद और संशोधनवाद में फर्क करने, फ़ासीवाद की एक सही मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी को छोड़ने, और यथार्थवाद और ठोस तथ्यों पर नतीजे निकालने के नाम पर सामाजिक-जनवाद, सुधारवाद, समाजशास्त्रीयतावादी प्रत्यक्षवाद, व्यवहारवाद, अनैतिहासिकतावाद और उदार बुर्जुआ सिद्धान्तों की बासी खिचड़ी पेश करता है, तो निश्चित तौर पर ऐसी खिचड़ी की सही जगह इतिहास की कचरा-पेटी ही हो सकती है। रवि सिन्हा का पूरा सैद्धान्तिकीकरण वास्तव में एक ऐसी ही खिचड़ी है, जिसे पाण्डित्यपूर्ण भाषा की चाशनी में डुबाकर परोसा गया है। यह निष्क्रिय उग्रपरिवर्तनवादी बौद्धिक हलकों में काफ़ी प्रभावी और लोकप्रिय सिद्ध होगा क्योंकि उन्हें हमेशा कुछ न करने के बहाने चाहिए होते हैं, या हाशिये पर बने अपने आरामदेह नेह-नीड़ में बने रहने के बहाने चाहिए होते हैं; क्योंकि जैसा कि हमने बिल्कुल शुरू में कहा था कि हाशिये पर रहने के अपने दुख होते हैं तो अपने सुख भी होते हैं; ये सुख उस सुविधा और सुरक्षा-बोध से पैदा होते हैं, जो कि हाशिये पर रहने वाले सम्भ्रान्त बौद्धिक हलकों को नसीब होता है। रवि सिन्हा का लेख ‘हाशिये पर खड़े (पड़े) समझदार लोगों के लिए सबक’ नहीं बल्कि ‘उन समझदार लोगों के लिए सबक हैं जो कि हाशिये पर ही पड़े रहना चाहते हैं’।

सभ्‍यता का ऐसा कोई दस्‍तावेज़ नहीं जो कि साथ ही में बर्बरता का दस्‍तावेज़ भी न हो।

                                                                                                                                              वाल्‍टर बेंजामिन

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

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