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आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार के निहितार्थ

  • शिशिर

अरविन्‍द केजरीवाल आजकल लोकसभा चुनावों में देश के दौरे पर हैं। केजरीवाल अपनी चुनावी सभाओं में दावा कर रहे हैं कि आम आदमी पार्टी को आने वाले लोकसभा चुनावों में 100 से 200 सीटें तक मिलने वाली हैं। केजरीवाल का निशाना अब कांग्रेस से ज्यादा भाजपा और विशेषकर नरेन्‍द्र मोदी हो गये हैं। बात तो यहाँ तक की जा रही है कि आने वाले चुनावों में अरविन्‍द केजरीवाल नरेन्‍द्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आम आदमी पार्टी के आने से बुर्जुआ चुनावी राजनीति के समीकरणों में थोड़ा परिवर्तन आया है। आम आदमी पार्टी के उभार के कारणों की सही मार्क्‍सवादी समझदारी न होने के कारण कई मार्क्‍सवादी और यहाँ तक मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी संगठनों के क्रान्तिकारियों में दो दिलचस्प किस्म की प्रतिक्रियाएँ देखने को मिल रही हैं। संशोधनवादी पार्टियों, जैसे कि माकपा व भाकपा, के नेता कई मंचों पर चिन्तित दिखे कि आम आदमी पार्टी ने तो उनके राजनीतिक आधार और एजेण्डे में सेंध लगा दी; एक मंच से तो प्रकाश करात ने आम आदमी पार्टी से सीखने की सलाह तक दे दी! जाहिर है, एक गैर-वामपन्‍थी और दक्षिणपन्‍थ की सशक्त छाप रखने वाले लोकरंजक सुधारवाद के उदय ने संसदीय वामपन्थियों और सुधारवादियों के दिल में कम-से-कम कुछ समय के लिए बेरोजगार होने का भय पैदा कर दिया है! जहाँ तक भाकपा (माले) जैसी धुर अवसरवादी संशोधनवादी पार्टी का प्रश्न है, तो वह अपने अवसरवाद की कीमत खुद चुका रही है; कई भाकपा (माले) के नेता, कार्यकर्ता और इनके छात्र विंग के नेता आम आदमी पार्टी में शामिल होने की होड़ में लग गये हैं! कह सकते हैं कि भाकपा (माले) के घर में थोड़ी भगदड मच गयी है। लेकिन इसके लिए थोड़ा ज्यादा गर्म संशोधनवाद परोसने वाले ये ‘‘वामपन्‍थी’’ विदूषक किसी और को दोष कैसे दे सकते हैं? क्या स्वयं भाकपा (माले) के केन्‍द्रीय कमेटी सदस्य अण्णा हजारे के अनशन के दौरान उनके मंच पर जगह पाने के लिए भागे-भागे नहीं गये थे? लेकिन एक सतत् दक्षिणपन्‍थी पुनरुत्थानवादी (अण्णा हजारे एण्ड कम्पनी) ने असतत् ‘‘वामपन्‍थी’’ अवसरवादी को भगा दिया! जब अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन में भाकपा (माले) को दरबान की भूमिका भी नहीं मिली, तो इन्होंने अपना भ्रष्टाचार-विरोधी मंच बनाया – ‘स्टूडेण्ट्स-यूथ अगेंस्ट करप्शन’! भाकपा (माले) अपने राजनीतिक अवसरवाद के कारण यह सब कवायद कर रही थी। मामला यह था कि उस समय मीडिया समर्थित भ्रष्टाचार-विरोधी ‘‘धर्मयुद्ध’’ ने पूरी व्यवस्था के विरुद्ध जनता के अवचेतन असन्‍तोष को भ्रष्टचार-विरोध की पश्चगामी बुर्जुआ राजनीति के वर्चस्व के तहत ला दिया था, बल्कि कह सकते हैं कि विनियोजित कर लिया था। ऐसे में, आम तौर पर जो भ्रष्टाचार-विरोधी माहौल बना था, भाकपा (माले) उसका लाभ उठाने के लिए मचल गयी थी! वैसे भाकपा (माले) के ‘‘वामपन्‍थी’’ अवसरवादी विदूषक किसी भी किस्म की लहर उठने पर उसकी सवारी करने के लिए हमेशा ही मचल जाते हैं! लेकिन हम भाकपा (माले) की ही बात क्यों करें, कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट समूहों में भी ‘आप’ के उभार को लेकर हताशा का माहौल व्याप्त था और साथ ही उनमें से भी कई लोगों ने आम आदमी पार्टी में शामिल होने का फैसला किया। यह आन्‍दोलन में मौजूद ठहराव और उसके कारण बढ़ती निराशा को भी दिखला रहा था। कई कट्टरपन्‍थी होजापन्‍थी लोग तक आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये, बल्कि उसके नेतृत्व में पहुँच गये! यह जो सारा तमाशा चला इससे आम आदमी पार्टी की राजनीति के उभार की पूरी परिघटना के बारे में काफी-कुछ जाहिर होता है।

AAPदिल्ली के चुनावों के बाद, काफी ड्रामे के बाद अन्‍ततः आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में सरकार बनायी। दिल्ली विधानसभा में किसी को भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण करीब 16 दिनों तक अनिश्चितता की स्थिति बनी रही। अन्‍ततः आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस का समर्थन स्वीकार किया और सरकार बनाने का फैसला किया। ‘आप’ सरकार बनाने को लेकर ऊहापोह में थी। इसका कारण यह था कि सभी की तरह स्वयं ‘आप’ ने भी ऐसे चुनावी नतीजों की उम्मीद नहीं की थी। एक नयी पार्टी के तौर पर ‘आप’ का प्रदर्शन चौंकाने वाला था। चुनाव लड़ने से पहले भी स्वयं ‘आप’ के ज्यादातर ‘थिंकटैंक’ यही मानकर चल रहे थे कि एक लम्‍बे दौर में ‘आप’ भारतीय चुनावी राजनीति में अपनी जगह बनायेगी। लेकिन पुरानी मुख्य धारा की चुनावी पार्टियों से जनता का मोहभंग इतना जबर्दस्त था कि पहले ही प्रयास में ‘आप’ को 70 में से 28 सीटें हासिल हो गयीं! कांग्रेस ने अपने अनुभव का इस्तेमाल किया और बिना शर्त ‘आप’ को समर्थन दे दिया। अब ‘आप’ के लिए एक ‘धर्मसंकट’ की स्थिति पैदा हो गयी। ‘आप’ के श्रीमान सुथरे अरविन्‍द केजरीवाल शुरू से यह दावा करते रहे हैं कि उनकी पार्टी ‘मुद्दा-आधारित’ राजनीति करती है और विचारधाराओं और ‘लेफ्ट-राइट-सेण्टर’ से परे है! चूँकि कांग्रेस ने ‘आप’ को अपने चुनावी वायदे पूरे करने के लिए बिना शर्त समर्थन दिया इसलिए अब भागने का कोई रास्ता नहीं बचा था। एक प्रयास 18-सूत्रीय पत्र के रूप में ‘आप’ ने किया, जो कि उन्होंने भाजपा और कांग्रेस को भेजा। भाजपा ने तो जवाब देने से ही इंकार कर दिया, लेकिन कांग्रेस ने स्पष्ट जवाब दिया और कहा कि 18 माँगों में से 16 माँगें ऐसी हैं, जो कि प्रशासनिक मुद्दे हैं, और सरकार बनने के बाद ‘आप’ को उन विशिष्ट मुद्दों पर कांग्रेस के समर्थन की आवश्यकता नहीं है, और दो मुद्दे ऐसे हैं जो कि कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में भी थे और कांग्रेस उन पर ‘आप’ को बिना शर्त समर्थन देगी। इसके बाद ‘आप’ ने कहा कि वह जनता के बीच जनमत सर्वेक्षण करेगी ताकि यह पता लगा सके कि जनता उनके द्वारा सरकार बनाये जाने के पक्ष में है या नहीं! सभी जनसभाओं में और मीडिया पोल में ‘जनता’ की राय यह सामने आयी कि केजरीवाल को सरकार बनानी चाहिए। कारण यह था कि जनता केजरीवाल द्वारा किये गये वायदों को पूरा करने का इन्‍तजार कर रही थी; मसलन, बिजली का बिल 50 फीसदी कम करना और 700 लीटर प्रतिदिन मुफ्त पानी हर घर में पहुँचाना, 500 नये स्कूल खोलना और सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता को निजी स्कूलों से बेहतर बनाना, सभी साढ़े तीन लाख सरकारी और 50 लाख से ज्यादा गैर-सरकारी ठेका कर्मचारियों को स्थायी करना, आदि। इनमें से पहले दो वायदे ऐसे हैं जिनका पूरा होने का दिल्ली की आम जनता बेसब्री से इन्‍तजार कर रही थी और केजरीवाल ने अपने बच्चों की कसम खाकर कहा था कि अगर उनकी सरकार बनती है तो वे अपने चुनावी वायदों में आधे एक माह में पूरे कर देंगे और बाकी छह महीनों में। अब ‘आप’ के लोग कांग्रेस को कुछ नहीं कह सकते थे (मसलन, कि कांग्रेस की तो आदत ही सरकार गिराने की है, वगैरह) क्योंकि एक या दो महीने में तो कांग्रेस सरकार गिराने नहीं जा रही थी और केजरीवाल ने अपने आधे वायदे पूरे करने के लिए इतना ही वक्त माँगा था! लुब्बोलुआब यह कि सरकार बनाने के अलावा केजरीवाल के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था और अब समस्या यह थी कि केजरीवाल और उनके सारे ‘‘समाजवादी’’ सलाहकार भी जानते थे कि केजरीवाल सरकार ये वायदे पूरे कर ही नहीं सकती। केजरीवाल अब इस उम्मीद में थे कि अगर वे वायदों के 10 प्रतिशत को आधा पूरा कर दें और बाकी 90 प्रतिशत जमकर गर्मागर्म नौटंकी और लोकरंजकतावादी जुमलों की राजनीति करके एक-डेढ महीने काट दें तो जनता के बीच में कुछ वाहवाही हो जायेगी और आने वाले लोकसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी अपनी बढ़ी हुई लोकप्रियता के साथ जा पायेगी। लेकिन दिक्कत यह है कि केजरीवाल जिस आदर्शवादी, श्रीमान सुथरा की छवि बनाकर और कांग्रेस और भाजपा को जिस भाषा में कोसते हुए सत्ता में पहुँचे थे वह सबकुछ बड़े बारीक सन्‍तुलन पर खड़ा था, और एक हल्के धक्के से आप की ‘छवियों के कौतुक-स्वाँग की राजनीति’ का सन्‍तुलन गड़बड़ा सकता है। यही कारण था कि सरकार बनाने के फैसले की घोषणा करने के लिए ‘आप’ ने जो प्रेस कान्फ्रेंस की उसमें केजरीवाल समेत सारे ‘आम आदमियों’ के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं! केजरीवाल ने अपनी 49 दिनों की सरकार में जो धोखा और नौटंकी की वह अब धीरे-धीरे लोगों के सामने आ रही है। सबसे बड़ा धोखा केजरीवाल ने दिल्ली के ठेका मजदूरों और कर्मचारियों के साथ किया; 6 फरवरी को हजारों ठेका मजदूरों के विशाल प्रदर्शन के समक्ष केजरीवाल सरकार के श्रम मन्त्री गिरीश सोनी (जो कि खुद एक चमड़े के कारखाने का मालिक है!) के मुँह से निकल गया कि केजरीवाल सरकार दिल्ली राज्य ठेका उन्मूलन कानून नहीं पेश करेगी। और जब मजदूरों का प्रतिनिधि-मण्डल अलग से श्रम मन्त्री से मिला तो उसने साफ बोल दिया कि ठेका प्रथा उन्मूलन विधेयक इसलिए नहीं पेश किया जा सकता क्योंकि इससे नियोक्ताओं और ठेकेदारों का नुकसान होगा! जाहिर-सी बात है कि एक कारखाना-मालिक श्रम मन्त्री यही बोलेगा! बहरहाल, ठेका मजदूरों से किये गये धोखे के कारण केजरीवाल की काफी फजीहत हुई। डीटीसी कर्मचारियों के प्रदर्शन में मजदूरों ने केजरीवाल को दौड़ा लिया और उसे वहाँ से भागना पड़ा; ठेका शिक्षकों को केजरीवाल ने जबरन दिल्ली सचिवालय से हटवा दिया; ठेके पर काम करने वाले होमगार्डों ने केजरीवाल के निवास के बाहर प्रदर्शन किया।

दूसरा धोखा केजरीवाल ने पानी और बिजली के मसले पर किया। बाद में पता चला कि बिजली और पानी की सब्सिडियाँ केवल 31 मार्च तक के लिये दी गयी थीं और उसके बाद उस पर सरकार को पुनर्विचार करना था! यानी कि 31 मार्च तक के लिए सब्सिडी देने के कदम को मीडिया में चमकाओ, यह मत बताओ कि यह स्थायी तौर पर दी गयी सब्सिडी नहीं है और उसके बाद 31 मार्च से पहले ही भाग जाओ! बिजली पर दी गयी 50 प्रतिशत सब्सिडी का एक हिस्सा ही केजरीवाल सरकार ने दिया, क्योंकि लगभग आधी सब्सिडी शीला दीक्षित सरकार के समय से ही दी जा रही थी; और केजरीवाल सरकार ने जो 372 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है अगर कोई सरकार 31 मार्च के बाद उसे जारी रखती है, तो इससे फायदा अम्बानी और टाटा को ही होगा! क्योंकि टाटा और अम्बानी बिजली के वितरण के लिए उसी दर से रकम सरकार से वसूलेंगे; सरकार जो सब्सिडी देगी वह उसे जनता की जेब से ही करों को बढ़ाकर वसूलेगी! इसके अलावा कोई रास्ता ही नहीं है! केजरीवाल के तमाम झूठ भी पकड़ में आये जिसमें टाटा की डिस्कॉम कम्पनी एनडीपीएल की ओर से 29 जनवरी को बिजली के दर बढ़ाने के लिए केजरीवाल को लिखा गया पत्र, जिसके बारे में केजरीवाल ने टाटा के खिलाफ कुछ नहीं बोला और केवल अम्बानी के खिलाफ बोलता रहा। क्योंकि केजरीवाल के लिए टाटा साफ-सुथरे पूँजीवाद और अम्बानी साँठ-गाँठ करने वाले पूँजीवाद की निशानी है! और केजरीवाल को साफ वाला पूँजीवाद मँगता है! केजरीवाल उस समय टाटा-राडिया टेप भूल गये; इस पर केजरीवाल ने कोई मुकदमा नहीं किया; जबकि अम्बानी और वीरप्पा मोईली पर किया! केजरीवाल ने जनलोकपाल विधेयक से पहले जो भी निर्णय पेश किये उन पर रजामन्‍दी प्राप्त करने के लिए उन्हें दिल्ली के उपराज्यपाल के पास भेजा, जैसे कि पानी और बिजली पर लिये गये निर्णय। लेकिन जनलोकपाल के विधेयक पर पूर्वसहमति न लेने पर केजरीवाल अड़ गया क्योंकि उस समय उसे भागना था! योगेन्‍द्र यादव जैसे चिकने-चुपड़े ‘‘समाजवादी’’ और आनन्‍द कुमार जैसे मरे-गिरे ‘‘समाजवादी’’ केजरीवाल के कन्धे पर बैठकर लगातार उसे बता रहे थे कि कब किसे ‘टीप’ मार कर भागो! उन्होंने केजरीवाल को फरवरी माह के मध्य में समझा दिया कि अब ‘जनता’ को ही टीप मारकर भाग लो, नहीं तो कुछ दिन सिर पर दिल्ली के मुख्यमन्त्री के काँटों का ताज रहा तो इज्जत ढाँपने के लिए एक रुमाल भी नहीं मिलेगा!

लेकिन इस सारी छीछालेदर के बावजूद किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि भारतीय पूँजीवादी राजनीति में आम आदमी पार्टी की भूमिका खत्म हो गयी है। बुर्जुआ राजनीति के हर नये चुनावी खिलाड़ी का रंगरोगन कुछ दिनों में थोड़ा तो उतरता ही है! और दूसरी बात यह कि अभी भारतीय पूँजीवादी राजनीति को आम आदमी पार्टी की टुटपुँजिया, अवसरवादी, दक्षिणपन्‍थी लोकरंजकतावादी और सुधारवादी राजनीति की जरूरत है। जनअसन्‍तोष आने वाले समय में और भी बढ़ने वाला है; बुर्जुआ राजनीति पहले ही इस कदर अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है कि अब पूँजीवादी राजनीति में एक नये टुटपुँजिया, सदाचारी, आत्मिक उभार की जरूरत है, जो कि भ्रष्टाचार-विरोध की यथास्थितिवादी राजनीति के रूप में आम आदमी पार्टी मुहैया करा रही है। यहाँ हम इस तर्क के विस्तार में नहीं जायेंगे कि भ्रष्टाचार पूँजीवाद का विचलन नहीं बल्कि नियम है; जिस सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का बुनियादी प्रेरक तत्व और तर्क ही निजी मुनाफा, निजी सम्पत्ति और निजी पूँजी संचय है वहाँ यह मुनाफा बुर्जुआ संविधान और संहिताओं के नियमों-कानूनों के दायरे में ही सीमित नहीं रहेगा; वह निश्चित तौर पर उसका बार-बार अतिक्रमण करेगा; कोई सख्त से सख्त कानून भी इस भ्रष्टाचार पर कुछ समय के लिए कुछ परिमाणात्मक रोक लगा सकता है; लेकिन ऐसा कोई भ्रष्टाचार-विरोधी कानून, संस्था, प्राधिकार या अधिकारी अन्‍त में पूँजी की शक्ति के आगे नतमस्तक होगा ही! ऐसे में, समूची पूँजीवादी व्यवस्था का विरोध किये बिना यदि कोई सिर्फ भ्रष्टाचारी, ‘साँठ-गाँठ करने वाले’ पूँजीवाद का विरोध कर रहा है और एक सदाचारी सन्‍त पूँजीवाद का भ्रम फैला रहा है, तो या तो वह खुद मूर्ख है या जनता को मूर्ख बना रहा है। निश्चित तौर पर अरविन्‍द केजरीवाल और योगेन्‍द्र यादव जैसे उसके चिकने-चुपड़े-चाशनी में डूबे ‘‘समाजवादी’’ सलाहकार मूर्ख नहीं हैं! आम आदमी पार्टी की पूरी राजनीति के चरित्र को मार्क्‍सवादियों-लेनिनवादियों को गहरायी से समझना चाहिए। यह आन्‍दोलन के समक्ष एक दोहरी सम्भावना पैदा कर रही है – एक सम्भावना इनके लोकरंजकतावादी दक्षिणपन्‍थी अवसरवाद और सुधारवाद को बेनकाब करने की चुनौती के रूप में है, तो दूसरी सम्भावना इस अवसर के रूप में है कि इनके कहीं भी सत्ता में आने पर पूरी बुर्जुआ व्यवस्था की सीमाओं को जनता के सामने उजागर करने का एक मौका क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों को मिलता है। लेकिन इस दोहरी सम्भावना को समझने की बजाय कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी समूहों में आम आदमी पार्टी के उभार को लेकर एक राजनीतिक भयाक्रान्‍तता या फिर निराशा, पराजयबोध और ‘‘बेरोजगार हो जाने के खतरे’’ का बोध पैदा हो गया है! इसका कारण यही है कि ‘आप’ के उभार की परिघटना का कोई ऐतिहासिक द्वन्‍द्वात्मक विश्लेषण इनके पास मौजूद नहीं है।

एक बात तय है कि भारतीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति में ‘आप’ का उभार एक परिघटना है। ‘आप’ के उभार के क्या मायने हैं? ‘आप’ का राजनीतिक चरित्र क्या है? ‘आप’ की पूँजीवादी राजनीति में क्या प्रासंगिकता है? ‘आप’ क्या कोई लघुजीवी परिघटना है या फिर यह भारतीय राजनीति में एक दीर्घकालिक परिघटना के रूप में आयी है? इस टिप्पणी में हम इन्हीं केन्‍द्रीय मुद्दों पर चर्चा करेंगे।

आम आदमी पार्टी के उभार का कालभ्रमित प्राक्-इतिहास

कई राजनीतिक विश्लेषक यह दावा कर रहे हैं कि ‘आप’ का उभार भारतीय राजनीति में एक नयी परिघटना है। उनका मानना है कि इससे भारत में पूँजीवादी चुनावी राजनीति ज्यादा साफ-सुथरी बनेगी, ज्यादा भागीदारीपूर्ण बनेगी, अन्य चुनावी पार्टियों को भी ‘साफ’ राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ेगा, वगैरह। लेकिन हमें इस पूरे विश्लेषण पर गहरा सन्‍देह है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्य इस विश्‍लेषण को गलत ठहराते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था अपने संकट के दौरों में हमेशा ही निम्न मध्यमवर्गीय आदर्शवाद और उच्च मध्यमवर्गीय प्रतिक्रियावाद का इस्तेमाल करती है। ‘आप’ के मौजूदा उभार के सन्‍दर्भ में हम पाठकों को सत्तर के दशक के जेपी आन्‍दोलन और ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के जुमले और उसके बाद जनसंघ के उभार और जनता पार्टी और उसके बाद भाजपा के उदय की याद दिलाना चाहते हैं। सत्तर का दशक वह समय था जब नक्सलबाड़ी आन्‍दोलन को कुचलने की प्रक्रिया जारी थी, रेलवे की प्रसिद्ध हड़ताल हुई थी, इन्दिरा गाँधी की सरकार ने आपातकाल लागू किया था और पूरे के पूरे पूँजीवादी शासन के प्रति एक गहरा अविश्वास, मोहभंग और नापसन्‍दगी का माहौल था। पूँजीवादी शासन के प्रति यह मोहभंग जल्द ही पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति मोहभंग में तब्दील हो सकता था। पाठकों को शायद यह भी याद हो कि भारतीय अर्थव्यवस्था भी उस समय संकट का शिकार थी और बेरोजगारी, महँगाई और भ्रष्टाचार चरम पर था। पूँजीवाद को उस समय एक ऐसे सामाजिक और राजनीतिक आन्‍दोलन की जरूरत थी, जो कि आम मेहनतकश और निम्न मध्यमवर्गीय जनता के असन्‍तोष को सुरक्षित चैनलों में अपचयित कर सके। जेपी आन्‍दोलन ने इसी काम को अंजाम दिया। जेपी आन्‍दोलन ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को फिर से मुख्यधारा में लाया और उसके परिणामस्वरूप जनसंघ और फिर जनता पार्टी के उभार के बारे में सभी जानते हैं। इस उभार के पीछे एक ओर धुर दक्षिणपन्‍थी ताकतें खड़ी थीं, तो दूसरी ओर विभिन्न प्रकार के समाजवादी भी खड़े थे। यहाँ पर सामाजिक-जनवाद और फासीवाद के बीच के जैविक सम्‍बन्‍ध शायद इतिहास में सबसे खुले तौर पर उजागर हुए थे।

आज भी ‘आप’ के उभार के पीछे जो दिमाग काम कर रहे हैं उनमें से अधिकांश जेपी-ब्राण्ड समाजवादी हैं, या फिर लोहियावादी समाजवादी। मिसाल के तौर पर, योगेन्‍द्र यादव और प्रोफेसर आनन्‍द कुमार। वहीं दूसरी ओर इस उभार के पीछे तमाम भूतपूर्व मार्क्‍सवादी, खास तौर पर कथित पूर्व नक्सलवादी, और पूर्व एमएल के लोग, जो अब बेशर्म किस्म के दलाल बन चुके हैं, भी इस उभार के पीछे हैं। मिसाल के तौर पर, अभय कुमार दुबे और सीएसडीएस (सेण्टर फॉर स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसायटीज) में बैठे अन्य घाघ राजनीतिक चिन्‍तक-विश्लेषक। यह भी कोई इत्तेफाक नहीं है कि सीएसडीएस के संस्थापक रजनी कोठारी थे, जो कि साम्राज्यवाद के एजेण्ट के रूप में भारत के वामपन्‍थ में घुसाये गये व्यक्ति थे। यह भी अपवाद नहीं है कि सीएसडीएस द्वारा चलायी जाने वाली मीडिया पहल ‘सराय’ की फण्डिंग साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियों, विशेष तौर पर, डच फण्डिंग एजेंसी डीवाग से आती है। और अन्‍त में, यह भी अपवाद नहीं है कि विश्व बैंक ने भारत में शुरू हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ को समर्थन दिया था, जिससे कि अरविन्‍द केजरीवाल और उनकी ‘आप’ का जन्म हुआ। इस समय पूँजीवादी संकट को विद्रोहों और क्रान्तियों की ओर जाने से रोकने के लिए ‘आप’ जैसी पार्टियों की जरूरत पूँजीवादी शासक वर्ग को है, और यही बात जेपी आन्‍दोलन और उसके नतीजे के तौर पर पैदा हुए राजनीतिक दलों पर भी लागू होती है। जेपी आन्‍दोलन की ही तरह आम आदमी पार्टी की राजनीति भी गर्म जुमलों की राजनीति करती है; अगर जेपी आन्‍दोलन ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ (क्या कोई क्रान्ति असम्पूर्ण भी होती है!?) तो आम आदमी पार्टी ‘नयी आजादी’ और ‘पूर्ण स्वराज’ का नारा उछालती है! लेकिन यह ‘नयी आजादी’ और ‘पूर्ण स्वराज’ क्या है? यह है एक जनलोकपाल कानून + तथाकथित ‘तृणमूल’ जनवाद (मोहल्ला सभा आदि) + व्यवसाय जगत पर से हर प्रकार के राजकीय विनियमन का खात्मा + और श्रम और पूँजी के बीच एक कल्पित राक्षस (भ्रष्टाचार) के विरुद्ध गठजोड़ की राजनीति की आड़ में पूँजीपतियों की सेवा + औद्योगिक-वित्तीय पूँजी और नौकरशाह पूँजीपति वर्ग के बीच अधिशेष के बँटवारे की लड़ाई में औद्योगिक-वित्तीय पूँजी का हिस्सा बढ़ाने की राजनीति। हाल ही में, लोकसभा चुनावों के लिए चन्‍दे की भीख माँगने के लिए अरविन्‍द केजरीवाल सीआईआई के मंच पर पहुँचा। वहाँ पर केजरीवाल की हालत उस बिल्ली जैसी दिख रही थी, जिस पर मछली वाले पानी की बाल्टी उड़ेल दी हो! हर वाक्य के शुरू और अन्‍त में ‘सर जी’, ‘जी-जी’ लगाकर केजरीवाल पूँजीपतियों से आम आदमी पार्टी के लिए सहयोग की माँग कर रहा था। और बदले में क्या देने का वायदा कर रहा था? केजरीवाल ने पूँजीपतियों से वायदा किया कि अगर ‘आप’ की सरकार बनती है तो वह उद्योग-व्यवसाय पर से हर प्रकार का विनियमन समाप्त करेगा (दूसरे शब्दों में वही बात जो राजीव गाँधी और उसके बाद तमाम पार्टियों ने कही थी, यानी इंस्पेक्टर राज खत्म करना!) और ‘देश में धन्‍धा लगाने और चलाने की रास्ते की सभी बाधाओं को समाप्त कर देगा; केजरीवाल ने कहा कि पूँजीपति देश की सम्पदा पैदा करते हैं (तो मजदूर क्या करते हैं!?) और उनकी ‘‘मेहनत’’ की फसल भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह लेते जाते हैं! केजरीवाल ने पूँजीपतियों के ‘‘दुख-तकलीफ’’ पर काफी आँसू बहाये और इस बार आँसू घड़ियाली नहीं लग रहे थे! ऐसा लग रहा था मानो एकदम दिल से बात निकल रही है! केजरीवाल ने यह भी कहा कि अम्बानी से उनकी कोई दुश्मनी नहीं है! आगे उसने कई साक्षात्कारों ने बोला कि तेल निकालने पर प्रति इकाई एक डॉलर का खर्च आता है और उसके लिए रिलायंस अभी 4 डॉलर ले रही है और इसे आगे 8 डॉलर करने के लिए कह रही है; इस पर केजरीवाल की आपत्ति यह नहीं थी कि देश के तेल को किसी पूँजीपति को निकालने के लिए दें ही क्यों जब देश की सरकार यह कार्य देश के करोड़ों बेरोजगार नौजवानों में से तमाम को नौकरी देकर कर सकती है? क्या यह ठेका उचित है? केजरीवाल के मुताबिक उचित है क्योंकि ‘सरकार का काम धन्‍धा करना नहीं होना चाहिए!’ (‘दि गवर्नमेण्ट शुड हैव नो बिजनेस इन बिजनेस’) केजरीवाल का रिलायंस से यह कहना है कि 1 डॉलर की जगह 2 डॉलर ले लो, 2.50 डॉलर ले लो, 3 डॉलर ले लो! क्या 4 डॉलर या 8 डॉलर लेकर लूटोगे? लेकिन किस तर्क से 2 या 3 डॉलर लूट नहीं है और 4 डॉलर लूट है? यह तो लूट की मात्रा को कम करने की माँग है, लूट को खत्म करने की नहीं! केजरीवाल की आर्थिक नीति कांग्रेस द्वारा 1991 में पेश की गयी आर्थिक नीति का ही एक शुद्धतावादी संस्करण है, यानी कि निजीकरण-उदारीकरण, बिना भ्रष्टाचार के! और केजरीवाल जब भ्रष्टाचार की भी बात उठाते हैं तो पूँजीपतियों के तलवे चाटते हुए सारी जिम्मेदारी सरकार और नौकरशाही पर डालकर पूँजीपति वर्ग को पापमुक्त करते हैं! यानी अगर कोई कम्पनी घूस देकर सरकार से कम दाम पर स्पेक्ट्रम खरीदती है और फिर उसे कई गुना दाम पर बेचती है, तो यह केवल सरकारी भ्रष्टाचार है; इस मामले में बेचारा पूँजीपति तो भ्रष्टाचार करने को सरकार व नौकरशाही द्वारा ‘मजबूर’ किया गया है। केजरीवाल एण्ड कम्पनी एक ‘फ्री एण्ड फेयर’ प्रतियोगिता वाले मुक्त व्यापार पूँजीवाद की हिमायत करते हैं। यह पूँजीवाद के उत्तर-क्लासिकीय युग में क्लासिकीय पूँजीवाद के किताबी सपने की बात करना है (क्योंकि पूँजीवाद अपने किसी भी युग में पूर्ण रूप से ‘फ्री एण्ड फेयर’ प्रतियोगिता की स्थितियाँ नहीं मुहैया कराता था और इस प्रकार के ‘न्यायपूर्ण प्रतियोगितावादी’ पूँजीवाद का उदाहरण केवल क्लासिकीय बुर्जुआ अर्थशास्त्रियों की किताबों में मिलता है, पूँजीवाद के असल इतिहास में कभी नहीं।) इसलिए केजरीवाल की नौटंकी पार्टी का काम केवल भ्रष्ट और साँठ-गाँठ करने वाले पूँजीवाद की बात करके, पूँजीवाद को दोषमुक्त करना है। ठीक वही काम जो कि जेपी आन्‍दोलन ने किया था।

जाहिर है, इतिहास कभी अपने आपको हूबहू दुहराता नहीं है। लिहाजा, ‘आप’ का जेपी आन्‍दोलन, जनसंघ और जनता पार्टी के साथ कोई सादृश्य निरूपण नहीं किया जा सकता है। न ही आज के पूँजीवादी संकट का सादृश्य निरूपण सत्तर के दशक के पूँजीवादी संकट के साथ किया जा सकता है। यहाँ तथ्यों, घटनाओं और दलों में समानता देखने की बजाय, पूँजीवाद की कार्यप्रणाली पर निगाह डालने की आवश्यकता है। इस रूप में ‘आप’ का उभार मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था की एक जरूरत के रूप में समझा जा सकता है। यह पूँजीवादी व्यवस्था के विभ्रमों को तोड़ने का नहीं, बल्कि उन्हें बनाये रखने और दीर्घजीवी बनाने का काम करता है। आगे ‘आप’ की पूरी राजनीति को अनावृत्त करते हुए हम इस बात को पुष्ट करेंगे।

‘आप’ की राजनीति का चरित्र और उसका सामाजिक आधार

अगर हम ‘आप’ के सामाजिक आधार और उसके घोषणपत्र पर निगाह डालें तो हमें उसकी प्रकृति और चरित्र को समझने में सहायता मिलेगी। जैसा कि हम बता चुके हैं, ‘आप’ की जड़ अण्णा हजारे द्वारा शुरू किये गये भ्रष्टाचार-विरोधी आन्‍दोलन में थी। यह आन्‍दोलन 26/11 के आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुआ था। देश में उस समय भी शासक वर्ग के नग्न भ्रष्टाचार के विरुद्ध गहरा रोष था; आम मेहनतकश जनता महँगाई और बेरोजगारी के बोझ तले कराह रही थी; देश के निर्धनतम लोग भुखमरी और कुपोषण से मर रहे थे। ऐसे समय में, जब देश के पूँजीवादी राजनीतिक वर्गों के साथ मोहभंग अपने चरम पर था, अण्णा हजारे अवतरित होते हैं! अण्णा हजारे का पूरा आन्‍दोलन एक गैर-जनवादी आन्‍दोलन था; यह बुर्जुआ जनवाद की विफलता को हर प्रकार के जनवाद के नकार और एक तानाशाही जैसी व्यवस्था के समर्थन तक ले जाता था। पाठकों को याद होगा कि अण्णा हजारे का जनलोकपाल का प्रस्ताव चुनाव के सिद्धान्‍त को खारिज करता था; विद्वत लोगों की परिषद को जनलोकपाल चुनने की जिम्मेदारी देता था; उसे सभी चुने गये प्रतिनिधि (चाहे यह प्रतिनिधित्व कितना भी सीमित हो!) निकायों के ऊपर वरीयता और प्राधिकार देता था। अण्णा हजारे खुद कहते थे कि इस जनता के ऊपर कुछ भी कैसे छोड़ा जा सकता है जो टीवी और साड़ी के बदले अपना वोट दे आती है! रालेगण सिद्धि में अण्णा हजारे का प्रयोग भी दिखलाता था कि जनवाद के सिद्धान्‍त में अण्णा हजारे का कोई भरोसा नहीं है। उनके लिए परिवर्तन, विकास और सुधार का कार्य जनता नहीं कर सकती जो कि मूढ़ और अज्ञानी है; यह काम समाज के लिए कुछ विद्वतजन करते हैं और उनकी परिषद को ही यह उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है, जो दण्ड और अनुशासन के जरिये जनता को रास्ते पर रखे! इसी आन्‍दोलन में अरविन्‍द केजरीवाल और उसकी वानर सेना भी शामिल थी। अण्णा हजारे तो महज एक ‘लांच पैड’ थे! इसी आन्‍दोलन से निकलकर अरविन्‍द केजरीवाल ने चुनावी दल बनाने का फैसला किया क्योंकि अण्णा हजारे का आन्‍दोलन अपने सन्‍तृप्ति बिन्‍दु पर पहुँच रहा था। अब जनता का भी एक हिस्सा समझ रहा था कि केवल धरना-अनशन कर कुछ हासिल नहीं होगा। ठीक इसी समय पर अरविन्‍द केजरीवाल ने अपना ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेला। हालाँकि, इसके पीछे दिमाग योगेन्‍द्र यादव, आनन्‍द कुमार, अभय कुमार दुबे, प्रशान्‍त भूषण आदि जैसे सुधारवादियों, समाजवादियों का था। यहीं से अण्णा हजारे और केजरीवाल के रास्ते अलग हो गये। वास्तव में, यह पूँजीवादी शासक वर्ग के लिए अच्छा ही था क्योंकि उसे इन दोनों ही मदारियों की जरूरत है!

अण्णा हजारे के समर्थन में तमाम टुटपुँजिया वर्ग इकट्ठा हुए थे, जिनकी पहचान राजनीतिक चेतना के त्रासद अभाव से की जा सकती है। एक तरफ उच्च मध्यवर्ग की प्रतिक्रिया अण्णा हजारे के आन्‍दोलन के साथ खड़ी थी, जिसे कि अण्णा हजारे का जनवाद-नकार बहुत रास आ रहा था; वहीं, निम्न मध्यमवर्गीय आबादी भी महँगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि से तंग होकर इस आन्‍दोलन के पक्ष में खड़ी थी, क्योंकि अपनी चेतना की कमी के कारण वह इन समस्याओं के मूल कारण को नहीं देख पा रही थी और उसे लग रहा था कि अण्णा हजारे जैसा कोई ‘विजिलाण्टे’, रखवाला, रक्षक, महात्मा इन समस्याओं का जादू की छड़ी से समाधान कर देगा। हर समस्या को भ्रष्टाचार और हर निम्न मध्यवर्गीय असन्‍तोष को ‘भारत माता की जय’ और ‘वन्‍दे मातरम’ जैसे जुमलों में अपचयित कर दिया गया।

केजरीवाल का सामाजिक आधार भी इसी प्रकार है, हालाँकि अनुपात बदल गये हैं। केजरीवाल और उसकी ‘आप’ शुरुआत में शहरी उच्च और मध्य मध्यमवर्गीय आबादी में आधार बनाते हुए सामने आये। आई.आई.टी., मेडिकल, मैनेजमेण्ट के छात्र, सिविल सेवा के आकांक्षी युवा, विश्वविद्यालय आदि में पढ़ने वाले उच्च मध्यवर्गीय नौजवान केजरीवाल की ‘आप’ के शुरुआती सामाजिक आधार का निर्माण करते थे। इन वर्गों के भीतर जो प्रतिक्रियावाद मौजूद था वह केजरीवाल की सबसे अधिक सहायता कर रहा था। लेकिन योगेन्‍द्र यादव और आनन्‍द कुमार जैसे समाजवादियों ने इस उच्च मध्यवर्गीय परिघटना को निम्न मध्यम वर्गों और एक हद तक गरीब मजदूर आबादी के एक हिस्से पर अपना वर्चस्व कायम करने के योग्य बनाया। यही वे लोग थे जो इस बात का समझ रहे थे कि पढ़े-लिखे शहरी मध्यवर्ग के ‘विकास’, ‘टेक्नोक्रैटिक एफिशियेंसी’, सामाजिक डार्विनवाद, ‘मुक्त’ प्रतियोगिता आदि के प्रति प्रतिक्रियावादी आग्रह के बूते पर ही ‘आप’ का चुनावी प्रयोग सफल नहीं हो सकता है। इन्होंने ‘आप’ के एजेण्डे में गरीब आबादी की माँगों को समेकित करने का काम किया। मिसाल के तौर पर, बिजली और पानी के सवाल के अलावा, अनधिकृत कालोनियों को नियमित करना, सभी झुग्गी निवासियों को पक्के मकान देना, सभी ठेका कर्मचारियों को नियमित करना, 500 नये सरकारी स्कूल बनवाना आदि जैसी माँगों को अलग-अलग समय पर ‘आप’ अपने माँगपत्रक में शामिल करती गयी। जिन समस्याओं का जिक्र ‘आप’ ने अपने घोषणापत्रों और पर्चों आदि में किया उनमें से एक के लिए भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था, उसमें निहित असमानता, संसाधनों के असमान वितरण, सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। इन सबके लिए केवल कांग्रेस, भाजपा जैसी पार्टियाँ और उनका भ्रष्टाचार जिम्मेदार था! हर समस्या का एक ही कारण – भ्रष्टाचार! यहाँ तक कि गरीबी के लिए भी काले धन को जिम्मेदार ठहराया गया जो कि विदेश चला जाता है! इस बात पर कोई सवाल नहीं उठाया गया कि जो अकूत सम्पदा देश के बाहर नहीं जाती उसका असमान वितरण क्यों होता है, और यह कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापिस आ गया तो क्या वह भी उसी अनुपात में विभाजित नहीं होगा, जिस अनुपात में देश में ही रहने वाली सम्पदा होती है? लेकिन अमीरी-गरीबी, असमानता के बुनियादी सामाजिक-आर्थिक मुद्दे और इस सवाल को कि इसके लिए जिम्मेदार वास्तव में कौन है, केजरीवाल कभी उठाते ही नहीं और अगर कभी इस पर दो शब्द बोलते भी हैं तो इसे भी भ्रष्टाचार का परिणाम बता देते हैं! क्यों? इसे समझना जरूरी है।

चुप-चुप बैठे हो जरूर कोई बात है!

केजरीवाल दावा करते हैं कि ‘आप’ न तो वामपन्‍थी है, न दक्षिणपन्‍थी और न ही मध्यमार्गी! वह विचारधारा प्रेरित राजनीति नहीं करती है। उसकी राजनीति एक उत्तर-विचारधारा और उत्तर-राजनीति के दौर की राजनीति है! इतिहास गवाह है कि अन्‍ततः ऐसी सभी तथाकथित उत्तर-विचारधारा राजनीतियाँ दक्षिणपन्‍थी राजनीति के किसी नये संस्करण की शुरुआत के पीछे काम करने वाले बहाने होते हैं। हम ‘आप’ के प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपन्‍थी चरित्र को दिखलाने के लिए ‘आप’ की कुछ चुप्पियों की ओर आपका ध्यानाकर्षित करना चाहेंगे।

‘आप’ का खुद का सर्वेक्षण बताता है कि दिल्ली में उसके अधिकांश समर्थकों का कहना है कि वे दिल्ली में केजरीवाल को मुख्यमन्त्री पद पर देखना चाहते हैं, जबकि केन्‍द्र में वे मोदी को वोट करने वाले हैं। यह अनायास नहीं है। इसके पीछे गहरे कारण हैं।

‘आप’ जिन मुद्दों पर चुप है या कोई अवस्थिति नहीं अपनाती है, या फिर जिन मुद्दों को बस वह भ्रष्टाचार का नतीजा बताकर कन्धे उचका देती है, वे अहम मुद्दे हैं। मिसाल के तौर पर, जब ‘आप’ का चुनाव प्रचार जारी था उसी समय मुजफ्फरनगर में दंगे हुए। अब इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं कि ये दंगे सोचे-समझे तौर पर संघी गिरोह ने करवाये थे। लेकिन अरविन्‍द केजरीवाल और ‘आप’ इस पर एक अहम बयान भी जारी नहीं करते! क्या यह चुप्पी चौंकाने वाली नहीं है? केजरीवाल उस सबसे बड़े खतरे पर चुप हैं जो आज भारत के सामने खड़ा है – मोदी के नेतृत्व में नया साम्प्रदायिक फासीवादी उभार! इस पर केजरीवाल एक शब्द तक नहीं बोलते। वह कांग्रेस की जो आलोचना करते हैं, वही आलोचना वह भाजपा की भी करते हैं जो भ्रष्टाचार के मुद्दे से कहीं आगे नहीं जाती है।

केजरीवाल ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ जैसे समूहों की राजनीति पर भी चुप हैं जो कि सवर्णवादी अवस्थिति से आरक्षण का विरोध करते हैं। यह भी बताया जाता है कि केजरीवाल खुद ‘यूथ फॉर इक्वॉलिटी’ के सदस्य थे! यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है क्योंकि केजरीवाल जिस उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावादी राजनीति की नुमाइन्‍दगी करते हैं, उसकी नैसर्गिक एकता इसी प्रकार की राजनीति से बनती है। स्त्रियों और पुरुषों के बीच की असमानता पर भी केजरीवाल का कोई स्टैण्ड नहीं है। वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमाण्डो दस्ते बनाने की बात करते हैं। लेकिन यह पुरुषों द्वारा महिलाओं को दी जाने वाली सुरक्षा ही होगी। यह अपने आपमें पूरी की पूरी पितृसत्तात्मक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था पर प्रश्न नहीं है।

केजरीवाल की ‘आप’ कश्मीर और उत्तर-पूर्व में दमित राष्ट्रीयताओं के उत्पीड़न पर, आफ्स्पा, डिस्टर्ब्‍ड एरियाज एक्ट, पोटा, टाडा, यूएपीए, मकोका, आदि जैसे कानूनों पर बिल्कुल शान्‍त है! छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, उड़ीसा और झारखण्ड में आदिवासियों के कत्लेआम पर ‘आप’ चुप है! और इससे भी खतरनाक बात यह है कि इन सारे मुद्दों को केजरीवाल हमेशा भ्रष्टाचार पर अपचयित करने, इसके लिए भ्रष्ट कांग्रेस और भाजपा को जिम्मेदार ठहराने के लिए तत्पर रहता है। इस प्रकार भ्रष्टाचार का पूरा मुद्दा एक ऐसा उपकरण बन जाता है जो कि समस्याओं के असली कारण और हल तक पहुँचने की बजाय, उन मूल समस्याओं को ढँकने और छिपाने का उपकरण बन जाता है।

 जिन मुद्दों पर ‘आप’ चुप है, वे सभी वे मुद्दे हैं जिन पर बोलना मोदी की फासीवादी राजनीति को ‘अनसेटल’ कर सकता है। मोदी इन मुद्दों पर सीधे एक प्रतिक्रियावादी अवस्थिति को बोलता है; ‘आप’ इन पर सीधे नहीं बोलती (इसके लिए भी सम्भवतः योगेन्‍द्र यादव और आनन्‍द कुमार जैसे समाजवादी दल्लों को धन्यवाद देना चाहिए!)। लेकिन इन पर एक साजिशाना चुप्पी कायम रखती है। या फिर इन मुद्दों को भी भ्रष्टाचार की पैदावार बता देती है। तो सारा मसला अन्‍त में एक जनलोकपाल बनाने और भ्रष्टाचार का सफाया करने पर आकर केन्द्रित हो जाता है! यह पूरी राजनीति सचेतन तौर पर न भी सही, तो वस्तुगत तौर पर अन्‍त में फासीवादी राजनीति की मदद करती है, क्योंकि ‘आप’ जिस प्रकार के राजनीतिक दल के तौर पर उभरी है, उसी रूप में उसका भारतीय पूँजीवादी राजनीति में बने रह पाना सम्भव नहीं है; या तो यह पार्टी ही बिखर जायेगी और इसके अधिकांश तत्व दक्षिणपन्‍थी उभार के पक्ष में जाकर खड़े हो जायेंगे, या फिर इस पार्टी का स्वरूप काफी हद तक कांग्रेस, भाजपा जैसा ही हो जायेगा। इन दो सम्भावनाओं के अलावा हमें और कोई सम्भावना नजर नहीं आती।

‘आप’ पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कभी कठघरे में खड़ा नहीं करती। केजरीवाल ने एक कारपोरेट घराने के ‘काम करने के तरीकों’ पर सवाल उठाना शुरू किया था, लेकिन इस मुद्दे पर जल्द ही वह चुप्पी साध गये। बाद में जब उसी कारपोरेट घराने के ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ के बारे में फिर से बोलते हैं, तो उसी समय 372 करोड़ रुपये बिजली सब्सिडी के नाम पर उस कम्पनी की जेब में डाल देते हैं और साथ ही उनकी पार्टी बोलती है कि इस कारपोरेट घराने से चुनावी चन्‍दा लेने में आम आदमी पार्टी को कोई एतराज नहीं है। बाकी कारपोरेट घरानों पर केजरीवाल ने कभी मुँह तक नहीं खोला। उल्टे पूँजीपति वर्ग को भी वह ‘विक्टिम’ और पीड़ित के रूप में दिखलाते हैं! अपने घोषणापत्र में केजरीवाल लिखते हैं कि कांग्रेस और भाजपा जैसी भ्रष्ट पार्टियों के कारण मजबूर होकर पूँजीपतियों को भ्रष्टाचार करना पड़ता है! यह दोगलेपन की इन्‍तहाँ नहीं तो क्या है? आप देख सकते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे को किस प्रकार नंगी और बर्बर पूँजीवादी लूट को छिपाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। पूँजीपति जो श्रम कानूनों का उल्लंघन करते हैं क्या वह मजबूरी के कारण करते हैं? ठेकाकरण क्या वह भ्रष्टाचार से मजबूर होकर करते हैं? यह तो पूरी तस्वीर को ही सिर के बल खड़ा करना है। वास्तव में, सरकार (चाहे किसी की भी हो!) और पूँजीपति वर्ग मिलकर मजदूरों के विरुद्ध लूट और हिंसा को अंजाम देते हैं! केजरीवाल की इस महानौटंकी के पहले अध्याय के लिखे जाते समय ही दिल्ली के पड़ोस में मारुति सुजुकी के मजदूरों का संघर्ष चल रहा था लेकिन केजरीवाल ने इस पर एक शब्द नहीं कहा; दिल्ली में ही मेट्रो के रेल मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी और ठेका प्रथा खत्म करने के लिए संघर्ष चल रहा था, इस पर भी केजरीवाल ने एक बयान तक नहीं दिया! केजरीवाल की सरकार के सामने दिल्ली के हजारों ठेका मजदूरों ने 6 फरवरी को प्रदर्शन किया। केजरीवाल का श्रम मन्त्री मजदूरों से किये गये सारे वायदों से मुकर गया! क्या केजरीवाल को यह सारी चीजें पता नहीं है? ऐसा नहीं है! यह एक सोची-समझी चुप्पी है! मजदूरों के लिए कुछ कल्याणकारी कदमों जैसे कि पक्के मकान देना आदि की बात करना एक बात है, और मजदूरों के सभी श्रम अधिकारों के संघर्षों को समर्थन देना एक दूसरी बात। केजरीवाल कहीं भी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग पर हमला नहीं करते। उनके लिए पूँजीपति वर्ग शासक वर्ग नहीं है; मेहनतकश जनता तो खैर शासक वर्ग है ही नहीं! तो फिर शासक वर्ग है कौन? यह एक भ्रष्ट राजनीतिक व नौकरशाह वर्ग है जो किसी वर्ग की नुमाइन्‍दगी नहीं करता, बल्कि अपनी ही सेवा में संलग्न है! और पूँजीपति वर्ग और मजदूर वर्ग एक-दूसरे के दुश्मन नहीं हैं, बल्कि वे दोनों ही पीड़ित वर्ग हैं; भ्रष्टाचारियों से पीड़ित! यहाँ भी आप देख सकते हैं कि असली सवाल को ढाँपने के लिए भ्रष्टाचार के जुमले का कैसे इस्तेमाल किया गया है। केजरीवाल के लिए इस पूरी व्यवस्था में कोई दिक्कत नहीं है! बस इसमें से भ्रष्टाचार के सफाये की जरूरत है! अगर गरीबों को रोटी और रोजगार नहीं मिलता तो यह पूँजीवादी व्यवस्था की समस्या नहीं है; पूँजीवादी व्यवस्था तो उन्हें रोटी और रोजगार देती है, लेकिन वह भ्रष्टाचारियों के कारण उन तक पहुँच नहीं पाता! इसलिए समस्या आपूर्ति की है! केजरीवाल इस समस्या को कैसे दूर करेंगे? एक साक्षात्कार में वह कहते हैं कि पटेल जैसी राजनीति करके; शास्त्री जैसी राजनीति करके! नेहरू का नाम सोचे-समझे तौर पर इस सूची से गायब है। समझने वाले समझ सकते हैं कि क्यों! निश्चित तौर पर, नेहरू भी भारतीय प्रतिक्रियावादी पूँजीपति वर्ग के ही नुमाइन्‍दे हैं, लेकिन उनमें प्रबोधन, सेक्युलरिज्म और प्रगतिशीलता के कुछ वास्तविक और कुछ प्रतीतिगत तत्व हैं, जो कि ‘आप’ की टुटपुँजिया आत्मिक उभार और आदर्शवादी पुनरुत्थानवाद की प्रतिक्रियावादी राजनीति से मेल नहीं खाते। यही कारण है कि आम आदमी पार्टी अन्य चुनावी पार्टियों की तरह खापों का समर्थन करती है! केजरीवाल बोलता है कि खाप तो एनजीओ के समान है! पुराने एनजीओपन्‍थी केजरीवाल की इस बात पर हम इस पर एक त्यौरी उठाकर ‘बिल्कुल!’ ही बोल सकते हैं!

इस समूचे आदर्शवादी भ्रष्टाचार-विरोध का मिश्रण किया जाता है अन्धराष्ट्रवादी जुमलों के साथ। ‘आप’ का एक चुनाव उम्मीदवार एक सैनिक था, जो कि सीमा पर झड़प में विकलांग हो गया था। उससे केजरीवाल ने कहा कि आप अब तक देश के बाहर के आतंकवादियों से लड़ रहे थे, अब आप ‘आप’ की ओर से चुनाव लड़कर देश के भीतर के आतंकवादियों के विरुद्ध लड़िये। यह पूरी जुमलेबाजी और भाषा एक दक्षिणपन्‍थी अन्धराष्ट्रवाद की है। इसमें वास्तविक मुद्दों और सच्चाइयों को आदर्शवादी, अन्धराष्ट्रवादी और प्रतिक्रियावादी जुमलों के तहत छिपा दिया गया है।

‘आप’ तृणमूल और भागीदारीपूर्ण जनवाद की बात करती है। ‘आप’ का कहना है कि वह सत्ता में आयेगी तो स्थानीय विकास कार्यों आदि को लेकर मोहल्ला सभाओं को सारे अधिकार दे देगी। यह एक राजनीतिक जनवाद की बात है। लेकिन अगर मौजूद सम्पत्ति सम्‍बन्‍धों, असमानतापूर्ण सामाजिक-आर्थिक सम्‍बन्‍धों को और उत्पादन के साधन पर मालिकाने और नियन्त्रण तक पहुँच के सम्‍बन्‍धों को छेड़े बगैर मोहल्लों में सभाएँ बनाकर उन्हें नियन्त्रण सौंप भी दिया जाये, तो अन्‍ततः उसमें किन लोगों की चलेगी? जाहिर सी बात है, मोहल्लों में रहने वाले ठेकेदारों, दल्लों, छुटभैया मालिकों, पैसेवालों, और अमीरों की ही चलेगी! आम गरीब और निम्न मध्यवर्गीय आबादी उनके पीछे-पीछे चलेगी। ऐसे में, यह राजनीतिक जनवाद का अधिकार भी अपने आप में कोई अर्थ नहीं रखता जब तक कि आर्थिक सम्‍बन्‍धों को भी आमूल-चूल रूप में न बदला जाये! लेकिन ‘आप’ तो इन सम्‍बन्‍धों को किसी भी तरह से बहस और चर्चा से दूर रखना चाहती है!

‘आप’ की पूरी राजनीति वास्तव में देश की आम मेहनतकश आबादी की जिन्‍दगी की समस्याओं के मूल कारणों को छिपाने और ढँकने का काम ज्यादा करती है। इसके लिए जिस उपकरण का इस्तेमाल किया जाता है वह है भ्रष्टाचार-विरोध, देश-सेवा आदि के नाम पर की जाने वाली प्रतिक्रियावादी, दक्षिणपन्‍थी राजनीति। ‘आप’ एक ऐसी पूँजीवादी व्यवस्था की हिमायत करती है जिसमें कोई भ्रष्टाचार न हो, सभी नागरिक सम्भावित उद्यमी हों, मुक्त व्यापार और मुक्त प्रतिस्पर्द्धा हो, उपयुक्ततम की उत्तरजीविता हो, और यह सारा क्रिया-व्यापार अपनी सैद्धान्तिक शुद्धता में चले! यह एजेण्डा आज के दौर में एक तकनोशाहाना कुशलता वाले उद्यमी पूँजीवाद का सपना दिखाता है जो कि उद्यमी बनने की आकांक्षा रखने वाले टुटपुँजिया वर्गों को आकृष्ट करता है। जाहिर है, यह एक शेखचिल्लीवादी सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता। लेकिन इसी रूप में इस राजनीति का चल पाना बहुत मुश्किल है। इसके कारणों की चर्चा हम ‘आप’ के घोषणापत्र के मुद्दों के चरित्र और उसके सामाजिक आधार के चरित्र के द्वारा कर सकते हैं।

आम आदमी पार्टी के राजनीतिक भविष्य पर कुछ ऐतिहासिक और द्वन्‍द्वात्मक सिम्युलेशन

‘आप’ आज भारतीय पूँजीवाद की जरूरत है। लेकिन ‘आप’ का पूरा राजनीतिक घोषणापत्र, माँगपत्रक और यहाँ तक कि उसका सामाजिक आधार मूलतः योगात्मक (एग्रीगेटिव) है; यानी कि उनमें कोई जैविक एकता नहीं है। ‘आप’ ने उच्च मध्यवर्गीय प्रतिक्रियावाद के वर्चस्व को निम्न मध्यवर्गीय आदर्शवाद पर स्थापित किया और एक ऐसा माँगपत्रक तैयार किया है जो कि प्रकृति से ही एक योगात्मक समुच्चय है और उसके पीछे कोई एक सुसंगत विचारधारात्मक दृष्टि नहीं है। अगर ‘आप’ पार्टी इनमें से कुछ मुद्दों और वायदों पर ही अमल शुरू करती तो एक ओर ‘आप’ पार्टी के भीतर ही टूट-फूट और बिखराव की प्रक्रिया शुरू हो जाती, वहीं उसके सामाजिक आधार में भी बिखराव शुरू हो जाता। ‘आप’ सरकार ने सिर्फ दिखावे के लिए जितना किया, उतने में ही उसका अपना संघटन और आधार तमाम किस्म की दरारों का शिकार हो गया। अगर वह वाकई कुछ करती तब तो उसका अस्तित्व कुछ महीनों की चीज बन जाता। मिसाल के तौर पर, ‘आप’ ने छोटे मालिकों और व्यापारियों को ‘सरकार द्वारा वसूली’ (यानी कर और विनियमन) और भ्रष्टाचार से छूट दिलाने का वायदा किया है; यही कारण है कि छोटे मालिकों और व्यापारियों के वोट बड़े पैमाने पर ‘आप’ को मिले। लेकिन साथ ही, ‘आप’ ने ठेका प्रथा समाप्त करने और दिल्ली के साढ़े तीन लाख ठेका कर्मचारियों को स्थायी करने का वायदा भी किया है। लेकिन इन 50-60 लाख ठेका कर्मचारियों की मेहनत को ही लूटने का काम तो ये छोटे मालिक और ठेकेदार सबसे ज्यादा करते हैं। ठेका प्रथा का अगर कोई सबसे बड़ा लाभप्राप्तकर्ता है, तो वह छोटा मालिक और ठेकेदार वर्ग है। स्पष्ट है कि ये दोनों वायदे अन्‍तरविरोधी हैं और इन पर अमल के साथ ही छोटा मालिक वर्ग ‘आप’ का साथ छोड़कर निरंकुश तरीके से भूमण्डलीकरण, निजीकरण, ठेकाकरण की नीतियों को लागू करने वाली फासीवादी ताकतों के पक्ष में जा खड़ा होगा।

उसी प्रकार ‘आप’ का यह वायदा कि वह बिजली के बिल आधे कर देगी एक ही सूरत में सम्भव हो सकता था। और वह है विद्युत वितरण का निजीकरण समाप्त किया जाना और उसके बाद भी सरकारी खजाने से पर्याप्त सब्सिडी दी जाये। उसी प्रकार हर दिन हर नागरिक को 700 लीटर मुफ्त पानी भी वास्तव में (केजरीवाल की धोखाधड़ी की तरह नहीं!) तभी दिया जा सकता था, जब सब्सिडी दी जाये। ऐसी सब्सिडी देने के लिए राजस्व सिर्फ भ्रष्टाचार खत्म करने से आ ही नहीं सकता है। यह केवल कर का बोझ दिल्ली के अमीरजादों पर डालकर ही सम्भव है, क्योंकि मेहनतकश आबादी पर प्रत्यक्ष करों का बोझ डाला ही नहीं जा सकता है और अप्रत्यक्ष कर पहले से ही काफी ज्यादा हैं। ऊपर से, ‘आप’ वैट को भी खत्म करने की बात कर रही है। अगर कराधान का बोझ दिल्ली के उच्च मध्यवर्ग पर बढ़ता है, तो वह भी जल्द ही ‘आप’ से छिटक जायेगा।

स्पष्ट है, अगर ‘आप’ अपने वायदों के 20 प्रतिशत पर भी अमल करती तो उसके संगठन और सामाजिक आधार का बिखराव शुरू हो जाता। ऐसे में, या तो ‘आप’ खुलकर पूँजीवादी व्यवस्था और खुली उदारवादी नीतियों के समर्थन में खड़ी होगी, जिस सूरत में वह अप्रासंगिक हो जायेगी क्योंकि यह काम करने वाली मुख्य धारा की पूँजीवादी पार्टियाँ पहले से मौजूद हैं; या फिर, उसका हश्र वही होगा जो जनता पार्टी का हुआ थाः वह खण्ड-खण्ड हो जायेगी और उसके ज्यादातर धड़े अन्‍ततः मोदी के फासीवादी उभार के साथ जा खड़े होंगे। ‘आप’ का भविष्य फिलहाल इसी रूप में दिख रहा है, बशर्ते कि वह अपने मुख्य राजनीतिक मुद्दे भ्रष्टाचार को छोड़कर कांग्रेस, भाजपा जैसी ही एक चुनावी पार्टी न बन जाये। मौजूदा राजनीतिक माँगपत्रक और घोषणापत्र के साथ इसी रूप में यह पार्टी बनी नहीं रह सकती है क्योंकि उसका योगात्मक चरित्र इस बात ही इजाजत ही नहीं देता है।

लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि आज भारतीय पूँजीपति वर्ग के लिए ‘आप’ की प्रासंगिकता नहीं है। वास्तव में, पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था जिस संकट से गुजर रही है और विश्वसनीयता का संकट जिस हद तक जा चुका है, उसमें ‘आप’ की सख्त जरूरत है। यह पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा किये बगैर जनता के गुस्से को निकलने का एक सुरक्षित ‘आउटलेट’ देती है। इस रूप में ‘आप’ आज एक नये अर्थ और रूप में वही भूमिका निभा रही है जो एक दौर में जेपी आन्‍दोलन और फिर जनता पार्टी ने निभायी थी। जैसा कि हम पहले इंगित कर आये हैं, ‘आप’ के उभार में योगेन्‍द्र यादव और आनन्‍द कुमार जैसे समाजवादी मदारी जो भूमिका निभा रहे हैं, वह वास्तव में वही भूमिका है, जो कि पूँजीवादी व्यवस्था को संकट के दौर में बचाने के लिए सभी समाजवादी (हर ब्राण्ड के!), सुधारवादी और संशोधनवादी निभाते हैं। लेकिन यह भी सच है कि ‘आप’ जैसी किसी भी परिघटना की प्रासंगिकता उसी रूप में दीर्घकालिक नहीं हो सकती है। या तो वह अपना रूप बदलकर पारम्परिक चुनावी पूँजीवादी पार्टी बनकर किसी हद तक कायम रख सकती है, या फिर उसकी नियति में बिखराव होता है। ऐसे बिखराव के बाद कुल मिलाकर फायदा फासीवादी राजनीति को ही पहुँचता है। जैसा कि जनता पार्टी के बिखराव के बाद हुआ था। भारत में चुनावी राजनीति के दायरे में सही मायने में दक्षिणपन्‍थी उभार के लिए तो जयप्रकाश नारायण और उसके लग्गू-भग्गुओं को ही दोषी ठहराया जाना चाहिए, जिसने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का भ्रामक नारा देकर जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा को सुरक्षित चैनलों में दिशा-निर्देशित कर दिया और अन्‍ततः यह सबकुछ दक्षिणपन्‍थी फासीवादी राजनीति के पक्ष में जा खड़ा हुआ।

इसलिए ‘आप’ की पूरी परिघटना में गुणात्मक रूप से कुछ भी अनोखा और नया नहीं है। चर राशियाँ तो हमेशा ही बदल जाया करती हैं और इसीलिए कोई भी घटना इतिहास में दुहरायी नहीं जाती है। जैसा कि मार्क्‍स ने कहा था, ‘‘हर अहम घटना या व्यक्तित्व, इतिहास में दो बार घटित होते हैं, पहले त्रासदी के रूप में तो दूसरी बार प्रहसन के रूप में।’’ आज आम आदमी पार्टी की राजनीति पुरानी जेपी-ब्राण्ड राजनीति का एक प्रहसनात्मक संस्करण ही तो है। केजरीवाल के किसी भी एक साक्षात्कार या भाषण को सुन लें तो प्रहसन शब्द का अर्थ समझ में आ जाता है!

आज के पूँजीवादी संकट के दौर में आदर्शवादी, प्रतिक्रियावादी मध्यवर्गीय राजनीति का पूँजीपति वर्ग द्वारा इस्तेमाल किया जाना लाजिमी है। पूँजीवादी संकट विद्रोह की तरफ न जा सके, इसके लिए पूँजीपति वर्ग हमेशा ही टुटपुँजिया वर्ग के आत्मिक व रूमानी उभारों का इस्तेमाल करता रहा है। कभी यह खुले फासीवादी उभार के रूप में होता है, तो कभी ‘आप’ जैसे प्रच्छन्न, लोकरंजकतावादी प्रतिक्रियावाद के रूप में। और अन्‍त में उसकी नियति भी वही होती है जिसकी हमने चर्चा की है। देखना यह है कि यह सारी प्रक्रिया अब किसी रूप में घटित होती है।

 

दिशा सन्धान – अंक 2  (जुलाई-सितम्बर 2013) में प्रकाशित