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मोदी सरकार के कार्यकाल का एक साल: विकास का विद्रूप प्रहसन

मोदी सरकार के कार्यकाल का एक साल: विकास का विद्रूप प्रहसन

  • मीनाक्षी

भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की बहुप्रचारित कर्मठता के आलोक में उनकी सरकार के कामकाज का सालभर का आकलन-मूल्यांकन यह स्पष्ट करता है कि दिन के अठारह घण्टे की अतिचर्चित कार्यावधि के बावजूद अपेक्षित परिणाम के लिहाज़ से वह और उनकी सरकार नितान्त विफल रही है। इस सन्दर्भ में यह लोकोक्ति ‘नौ दिन चले अढाई कोस’ चरितार्थ होती लगती है यानी नौ दिन चलते रहने के बाद भी महज़ ढाई कोस की दूरी तय की जा सकी। केवल लम्बी समयावधि ही किसी कार्य के अपेक्षित परिणाम के लिए ज़रूरी नहीं होती, इसके लिए जनता की ज़रूरतों और आकांक्षाओं के अनुरूप नीतियों का अमल आवश्यक है। यह एक हद तक उदार पूँजीवाद के दौर में ही सम्भव था। यह बीत चुका है और अपनी सहज गति से इसने अनुत्पादक सट्टेबाज़ पूँजीवाद का रूप अख्‍त़ियार कर लिया है। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा अब अतीत में दफन हो चुकी है। इस एकाधिकारी वित्तीय पूँजी को अब किसी मोदी जैसे प्रबन्धक की ज़रूरत थी जो अदम्य निर्णायकता के साथ उसका हितपोषण कर सके और विरोध यदि सहयोजित न किये जा सके तो उन्हें दबा डाले। इसके लिए मोदी ने एक तरफ लोकरंजक मसीहावाद का बाना पहना और दूसरी तरफ जनता की आकांक्षाओं को नवउदारवाद का चौखटा दिया – चमकते हिन्दुस्तान के स्मार्ट शहर और उनके बीच दौड़ती बुलेट ट्रेन, ई गवर्नेन्स से मोबाइल गवर्नेन्स की सम्भाव्यता, डिजिटल इण्डिया, रोजगार के अवसर सृजित करने के लिए ‘मेक इन इण्डिया’, अमीर-ग़रीब के बीच खाई पाटने के लिए ‘जन धन योजना’, सामाजिक सुरक्षा को सुगम बनाने के लिए ‘जीवन-ज्योति बीमा योजना और सुरक्षा बीमा योजना, लड़कियों के सुरक्षित जन्म और शिक्षा के लिए ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ और ऐसी ही कई योजनाएँ। ये आम लोगों के सामान्य बोध का हिस्सा बन सके इसके लिए सार्वजनिक घोषणाएँ की गईं, वक्तव्य दिये गये, नारे गढ़े गये और नारों को ही समाधान के तौर पर प्रस्तुत कर दिया गया। इसमें मीडिया का इस्तेमाल एक प्रभावी उपकरण के रूप में हुआ। परन्तु असलियत जल्दी ही सामने आ गई, मोदी के भाषणों का मिजाज़ पहला बजट पेश करने के पहले ही बदलने लगा था अब हमें यह बताया जाने लगा था कि जनता की भलाई के लिए कुछ सख़्त फैसले लेने पड़ेंगे क्योंकि मर्ज़ को ख़त्म करने के लिए कड़वी दवा से बचा नहीं जा सकता। यह हर बुर्जुआ सरकार का प्रिय जुमला रहा है। मतलब स्पष्ट था संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था की सघनतम अभिव्यक्तियाँ मोदी के तथाकथित करिश्माई आवरण के पीछे छिपायी नहीं जा सकती थी। भाजपा के अरुण शौरी और लालकृष्ण आडवानी जैसे नेताओं ने प्रकारान्तर से मोदी की योजनाओं और कार्यप्रणाली की आलोचना रखनी शुरू कर दी थी।

18-1431938162-modi-takes-selfie1आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार अपनी असफलताओं को नेपथ्य में धकेल सके, कदाचित इसीलिए विश्व में भारत का गौरव और समृद्धि बढ़ाने के नाम पर मोदी की विदेश यात्राओं का सिलसिला बगैर किसी ठोस सकारात्मक नतीजों के लगातार जारी है। पूर्ववर्ती प्रबन्धकीय संचालक टीम (आप चाहें तो इसे सरकार भी कह सकते हैं) की आर्थिक राजनीतिक निष्क्रियता, घोटाले दर घोटाले और जनता की विकल्पहीनता की स्थिति में नवउदारवाद के एक प्रचण्ड पैरोकार और लफ्फाज़ बहुरुपिया के रूप में जब मोदी अच्छे दिनों के वादे के साथ प्रकट हुए तो पूँजीपति वर्ग और उच्च मध्य वर्ग की बाँछे खिल उठीं। भूलना नहीं होगा कि रतन टाटा ने दूसरे पूँजीपतियों से पूँजीपरस्त योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर मोदी को कुछ और दिन मोहलत देने की अपील की थी। ऐसे लफ्फाज़ों के बारे में लेनिन ने कहा है कि वे जनता के सबसे बड़े शत्रु होते हैं। परन्तु जीवनयापन की रोज़ की कठिनाइयों से जूझती आम मेहनतकश जनता को आडम्बरपूर्ण शब्दों की चटाई बुनकर दिग्भ्रमित नहीं किया जा सकता था। इसलिए सबका साथ सबका विकास के खोखलेपन को वह जल्दी ही समझ गई। अकलमंदों ने तो इसे सालभर बाद जाकर आँकड़ों से समझा है। इन योजनाओं का क्रियान्वयन यदि किसी हद तक संभव हुआ भी तो पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के प्रभावी रहते उसका लाभ सम्पत्तिशालियों के हिस्से में ही आया। सम्पत्तिहीन हमेशा की तरह वंचित ही रह गये थे। इसलिए मोदी के सारे वादे और नारे खोखले ही साबित होने थे। सरकार का हर मोर्चे पर विशेषकर पहले से ही जर्जर आर्थिक मोर्चे पर औंधे मुँह गिरना लाज़िमी था। मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही आर्थिक संकट से उबरने के लिए जिन उपायों को लागू किया उससे उसकी वर्गीय पक्षधरता स्पष्ट होती है। सबसे पहले उन्होंने लाभ में चल रहे सार्वजनिक उपक्रमों को विनिवेश के जरिये निजी हाथों में सौंपने की मुहिम चलायी, उससे प्राप्त धन का इस्तेमाल कैसे और कहाँ हुआ इसका कोई आँकड़ा सार्वजनिक नहीं किया गया। वित्तीय घाटे को पूरा करने की ज़रूरत बता कर सार्वजनिक मदों में भारी कटौती की गई। सकल घरेलू उत्पाद से इनका प्रतिशत 2.1 से घटाकर 1.7 कर दिया गया। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण से लेकर आवास, ग़रीबी उन्मूलन और समेकित बाल विकास सेवा जैसी समाज कल्याण की योजनाओं के मद में आबंटित राशि इतनी कम कर दी गई कि विभागीय कर्मचारियों और कार्यकर्ताओं के वेतन भुगतान के लाले पड़ गये। अन्ततः भारतीय जनता पार्टी ही की महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को ‘कुपोषण मुक्त भारत’ की याद दिलाते हुए वित्त मंत्रालय को शिकायती पत्र लिखने को बाध्य होना पड़ा। निश्चय ही मोदी सरकार के सामने भी वे आँकड़े मौजूद रहे होंगे जो बताते हैं कि आज भी 60 प्रतिशत बच्चे ख़ून की कमी से ग्रस्त हैं और 9 हज़ार बच्चे प्रतिदिन भूख और कुपोषण से मरते हैं। लेकिन मोदी की चिन्ता के केन्द्र में जनता के जीने के अधिकार मुहैया कराना है ही नहीं। उनकी सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार की उन्हीं नीतियों और योजनाओं को लेकर चल रही थी, बल्कि उन्हें लागू करने की गति को उसने और तेज़ कर दिया था जिसका विरोध कर वह सत्ता में आई थी। उद्योगपतियों को मुनाफे की गिरती दर को बचाने के लिए करोड़ों की छूट दी गई। पिछली सरकार द्वारा दी गयी छूट के मुकाबले मोदी सरकार ने छूट की इस राशि को बढ़ा कर यह संकेत दे दिया कि वह वास्तव में किसके हित में काम कर रही है। देखा जाये तो पूँजीपतियों के मुनाफे में नगण्य सी कमी को लेकर भी वह अत्यन्त संवेदनशील हो जाती है। बहुसंख्यक जनता उसकी संवेदनशीलता के दायरे में आ भी नहीं सकती। उल्टे उसने बड़ी चालाकी से आधार वर्ष को बदल कर ग़रीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करनेवालों की तादाद ही नहीं घटा दी बल्कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अन्तर्गत प्रतिव्यक्ति मिलने वाले अनाज की मात्रा भी कम कर दी है। इसके लिये उसने कई स्तरों पर काम किया है। पहले उसने ग़रीबी रेखा के नीचेवाली आबादी (बीपीएल) का दायरा छोटा कर उसे ग़रीबी रेखा के ठीक ऊपर वाली आबादी (एपीएल) को अलग कर दिया, दूसरे उसने यह सुनिश्चित किया कि पीडीएस के अन्तर्गत केवल बीपीएल आबादी को लाभ मिले और ग़रीबी रेखा को छूती हुई ऊपरी आबादी जो किसी भी स्थिति में बीपीएल के मुकाबले बेहतर नहीं कही जा सकती उस लाभ से पूरी तरह वंचित हो जाये। तीसरा इस्तेमाल में लाया गया सर्वाधिक शातिराना तरीका था उन राज्यों को आबंटित अनाज के कोटे को प्रतिबन्धित कर देना जहाँ बीपीएल के साथ एपीएल आबादी भी पीडीएस लाभ के दायरे में आती है। इसका नतीजा हुआ अच्छी फसल और अच्छे समर्थन मूल्य के बावजूद पीडीएस के तहत खाद्यान्न की बिक्री में कमी, लिहाज़ा भण्डारण में वृद्धि। ज़ाहिरा तौर पर प्रत्यक्ष ही नहीं इन प्रच्छन्न कटौतियों से भी अब अनाज के भण्डार में और अधिक बढ़ोत्तरी होगी और आम जन अधिकाधिक तादाद में भूख और कुपोषण से मरते रहेंगे। यह नवउदारवादी नीतियों का तर्क है जो बताता है कि कटौतियों का यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। तो दूसरी तरफ कारपोरेट घरानों के कर-छूट में आज 5 प्रतिशत की वृद्धि कल और भी ज्यादा होगी, और ‘गार’ (पूँजी निवेश में टैक्स चोरी रोकने का कानून) के अमल को और कुछ वर्ष तक स्थगित रखने की योजना आज की ही भाँति भविष्य में भी ऐसे ही ली जाती रहेगी। लेखा महानियंत्रक द्वारा जारी जीडीपी और केन्द्रीय व्यय अनुपात के आँकड़े भी मोदी सरकार की आर्थिक नपुंसकता की ही पुष्टि करते हैं। इसके अनुसार सकल घरेलू उत्पाद में कुल केन्द्रीय व्यय का प्रतिशत 2012-13 के 14.1 से गिरकर 2013-14 में 13.8 और 2014-15 में 13 फीसदी तक जा पहुँचा है। औद्योगिक उत्पादन के माहवार आँकड़े भी बताते हैं कि उत्पादन की दर घटकर ऋणात्मक स्तर पर आ गयी। अनुमान है कि अगले छः महीनों में कृषि उत्पादन में 5.3 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की जायेगी। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी (मनरेगा) जैसी स्कीमों में मोदी सरकार ने भीषण कटौती की है। इन योजनाओं के भ्रष्ट अमल के बाद भी जनता को इस पूँजीवादी उत्पादन और वितरण प्रणाली के अन्तर्गत जितना और जैसा सम्भव है उतना और वैसा लाभ उसे प्राप्त था। लेकिन स्वास्थ्य, सफाई और पोषण के सामाजिक मद में की गई कटौती के बरक्स ‘स्वच्छ भारत’ के प्रचार में ही लाखों की रकम फूँक डालने का औचित्य भला कैसे सिद्ध किया जा सकता है? तिस पर भी इस योजना के तहत शौचालयों के निर्माण का काम कारपोरेट घरानों के ‘सामाजिक उत्तरदायित्व’ के भरोसे छोड़ दिया गया है। भारतीय जनता के स्वास्थ्य के प्रति मोदी सरकार का रुख़ क्या है यह उस कार्रवाई से ज़ाहिर हो जाता है जिसके तहत कुछ जीवन रक्षक दवाओं के मूल्य नियंत्रण से सम्बंधित 2014 मई में जारी आदेश को दवा उद्योग के मगरमच्छों के दबाव में सरकार द्वारा वापस ले लिया जाता है। नतीजतन कैंसर की 5900 और 8500 रुपये मूल्य पर उपलब्ध दवाएँ अब क्रमशः 11,500 और 1,08,000 की क़ीमत पर मिलेंगी। अन्य जीवन रक्षक दवाओं की स्थिति इससे बेहतर नहीं।

कौशलपूर्ण भारत के निर्माण का हश्र भी शिक्षा के क्षेत्र में होनेवाली भारी कटौती और उसके भगवाकरण के परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। देश के प्रौद्योगिकी संस्थानों में शिक्षकों के लगभग 39 प्रतिशत और केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में लगभग 38 प्रतिशत पद रिक्त हैं, जिन प्राथमिक पाठशालाओं में शिक्षा की बुनियाद रखी जाती है उसकी दुर्गति तो सर्वविदित है। ये वह ज़मीनी हालात हैं जहाँ मोदी सरकार कौशल विकास करना चाहती है। यह कोरी जुमलेबाज़ियाँ ही हैं जिसकी पुष्टि काला धन लाने समेत ऐसे ही कई वायदों के बारे में स्वयं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पहले ही कर चुके हैं। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर स्पष्टतः यह जता दिया है कि ये महज़ चुनावी नारे उर्फ वादे थे। मोदी की भाजपा सरकार के चाल चेहरा चरित्र की ये ज्वलन्त बानगियाँ हैं। इसी एक वर्ष ने मोदी के ‘श्रमेव जयते’ का पाखण्ड भी देखा। श्रमिकों के जीवन और काम की प्रतिकूल परिस्थितियों की किसी बेहतरी से आँखें मूँद कर कारपोरेट घरानों के ‘व्यावसायिक सहूलियत और सकून’ के लिए पर्यावरण और श्रम कानूनों को लचीला बनाया गया। मज़दूरों की खुली लूट के मकसद से पूँजीपतियों पर से तमाम तरह की कानूनी बंदिशें हटा ली गईं और कानूनी सुरक्षा के नाम पर मज़दूरों को नई प्रॉविडेंट फण्ड स्कीम जैसे निष्प्रभावी कानून थमा दिये गये। इस स्कीम के मुताबिक प्रॉविडेण्ट फण्ड में मज़दूरों के अंशदान बढ़ने के साथ ही उनकी कहीं ज़्यादा बड़ी आबादी इसके दायरे में समेट ली जायेगी। फलस्वरूप पी.एफ. में संचित राशि की पाँच से लेकर पन्द्रह फीसदी तक का शेयर बाजार में आसानी से निवेश किया जा सकता है। वास्तव में सरकार की योजना की यही असलियत है। सुरक्षा के नाम पर असुरक्षित भविष्य। श्रम कानूनों को लचर बनाने का प्रयास जारी है। बाल श्रम पर रोक लगाने के नाम पर संशोधित कानून द्वारा 14 साल से कम आयु वाले बच्चों के श्रम को अनौपचारिक और असंगठित क्षेत्र में निचोड़ने का प्रावधान कर दिया गया है। श्रम पर यह प्रतिबन्ध महज संगठित क्षेत्र में है। क्योंकि प्रावधान के अनुसार वे अपने परिवार का हाथ बँटा सकते हैं जहाँ घर में ही ठेके पर पीसरेट पर काम होते हैं। इस तरह उत्पादन प्रक्रिया को विखण्डित कर उन्हें अलग-अलग स्तरों पर चलाने का जो काम घरों के भीतर संचालित हो रहा था और जिसमें बच्चों की भागीदारी पहले से ही होती रही है अब वह कानून के किसी दखल से घोषित तौर पर मुक्त हो गया है। मज़दूरों के हित में दिखते हुए भी ये सभी कानूनी संशोधन मज़दूरों पर ज़्यादा से ज़्यादा दबाव डालने के तरीके खोजने में पूँजीपतियों की मदद करते हैं। बाज़ार की शक्तियों को निर्बन्ध करने के लिहाज़ से मोदी के लिए ऐसा करना आवश्यक भी था। यह अनायास नहीं कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री के मुख्य आर्थिक सलाहकार के पद क्रमशः अरविन्द पनगढ़िया और अरविन्द सुब्रमण्यम को सौंपा गया है। ये दोनों ही मुक्त बाज़ार की नीतियों के कट्टर अमल के पक्षधर हैं। पनगढ़िया जी तो राजस्थान सरकार के श्रम सुधारों के मुख्य सूत्रधार रहे हैं। समग्रता में देखा जाये तो आर्थिक स्वास्थ्य के मामले में मोदी की निष्क्रियता प्रत्यक्ष है। सक्रियता केवल श्रम सुधारों के साथ भूमि अधिग्रहण को गति देकर पूँजी के लिए अनुकूल परिवेश बनाने में है। विशाल कम्पनियों को भूमि के बड़े-बड़े भूभागों पर कब्ज़ा दिलाने के मामले में पहले की सरकारों के बनिस्बत मोदी सरकार ने अधिक बेशर्मी का परिचय दिया है। उद्योगों को बढ़ावा देने के नाम पर सरकार द्वारा सौंपी ज़मीन का इस्तेमाल करने में इन पूँजीपतियों ने अभी तक कोई जल्दी नहीं दिखाई है, हालाँकि उन्हें ज़मीन उपलब्ध कराने के मामले में सरकार बहुत मुस्तैदी से काम करती है। पिछले साल मित्तल ने कर्नाटक में हज़ारों एकड़ की ज़मीन इस्पात संयत्र स्थापित करने के नाम पर प्राप्त की थी पर इस प्रोजेक्ट पर अभी तक उन्होंने इसमें हाथ भी नहीं लगाया है। भूमि अधिग्रहण अध्यादेश की हड़बड़ी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यदि यह अध्यादेश पारित हो जाता है तो 39 प्रतिशत कृषियोग्य भूमि इसकी भेंट चढ़ जायेगी। मोदी ने किसानों की हित की सुरक्षा का दायित्व लिया था और स्वामिनाथन कमीशन के कृषि सम्बन्धी सुझावों को लागू करने का भरोसा दिलाया था, इसमें किसानों को 4 प्रतिशत की दर से ऋण देने और सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने की व्यवस्था थी। लेकिन सत्ता हासिल होते ही मोदी सरकार इस वादे से निहायत बेशर्मी से मुकर गई। सिर्फ यही नहीं, उसने इस आशय का उच्चतम न्यायालय में तुरन्त एक हलफनामा दाखिल कर दिया कि वह स्वामीनाथन आयोग के सुझावों को अमल में लाने में असमर्थ है। बाज़ारोन्मुख नीतियों के अन्धाधुन्ध अमल से जब उद्योगों में पूँजी संतृप्त हो जाती है और इसका रुख़ कृषि और कृषि योग्य ज़मीन की ओर हो जाता है तो इसमें ग़रीब और निम्न मध्यम किसान उजड़ते ही हैं, अधिशेष का लाभांश तो बड़ी पूँजी हड़प जाती हैं। बड़े फार्मर या कुलक लाभांश हड़पने के मामले में फिर भी औद्योगिक पूँजी से पीछे रहते हैं। पूँजीवाद में कृषि के मुकाबले उद्योग की वरीयता बनी रहती है। इसका समाधान समाजवादी नियोजित अर्थव्यवस्था में ही सम्भव है। ज़ाहिर है इस परजीवी परभक्षी पूँजीवादी व्यवस्था में ‘सबका साथ सबका विकास’ पाखण्ड के सिवा कुछ नहीं। एक अलग सन्दर्भ में लेनिन बुर्जुआ वर्ग के बारे में जो कहते हैं वह उसके प्रबंधक मोदी के बारे में उतना ही सही साबित होता है- ‘उनकी ‘समूची नीति में शाब्दिक उलझावों, झूठों, मक्कारियों और कायरतापूर्ण हौलेबाज़ियों का एक अनन्त सिलसिला रहता है’।

विगत एक वर्ष पूर्व मोदी के चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के शीर्ष नेताओं ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्याय कहते हुए कांग्रेस और भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा दिया और उसे लागू करने की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की। भ्रष्टाचार नियंत्रण सम्बन्धी संस्थाओं को मज़बूत बनाने और रिक्त पदों की भर्ती का आश्वासन दिया। परन्तु भ्रष्टाचारमुक्त परिवेश के प्रति मोदी सरकार की प्रतिबद्धता कितनी और कैसी है इसका आकलन सिर्फ इस तथ्य से किया जा सकता है कि इन भ्रष्टाचार नियंत्रणकारी संस्थाओं के महत्वपूर्ण रिक्त पद अभी भी भरे नहीं गये हैं। मज़बूत लोकपाल की नियुक्ति में सरकार की स्पष्टतः कोई दिलचस्पी नहीं दिखती। लोक लेखा समिति, सरकार के स्तर पर वित्तीय अनियमितताओं पर नियंत्रण के लिए गठित केन्द्रीय सतर्कता आयोग, वित्तीय मामलों और काले धन की जाँचकर्ता संस्था प्रवर्तन निदेशालय, केन्द्रीय सूचना आयोग जैसी संस्थाओं के पास 2014 से ही नियमित निदेशक नहीं हैं। अतः सरकार के ख़िलाफ़ किसी शिकायत या अपील सुनावाई की कोई सम्भावना शेष नहीं रहती। मुख्य सूचना आयोग का अध्यक्ष पद रिक्त होने का लाभ मोदी सरकार को मिल रहा है। ज़ाहिर है कैबिनेट सचिव, प्रधानमंत्री कार्यालय, रक्षा मंत्रलय, उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय आदि को सूचना अधिकार के दायरे से बाहर रखने के निर्णय पर आयुक्त की अनुपस्थिति में कोई अपील असम्भव है। पूर्व सूचना आयोग अध्यक्ष शैलेष गांधी का यह स्पष्ट कहना है कि इन पदों को रिक्त इस कारण से रखा गया है कि विचारधारात्मक अनुकूलता के हिसाब से भर्ती की जा सके या ऐसी किसी व्यक्ति की अनुपलब्धता की स्थिति में इसे अक्रियाशील और निष्प्रभावी रखा जा सके। भ्रष्टाचार निवारण के प्रति सरकारी रुख़ का अनुमान लगाने के लिए यह बताना पर्याप्त होगा कि मंत्रियों की सम्पत्ति सम्बन्धी जानकारी हासिल करने पर मोदी सरकार ने प्रतिबन्ध लगा दिया है, उसे अब पासवर्ड सुरक्षा के साथ जोड़ दिया गया है। अतः हर किसी को यह सूचना उपलब्ध नहीं हो सकेगी। सूचना प्राप्त करने का अधिकार विशेष व्यक्तियों को हासिल होगा। इसके साथ, यह जानना भी दिलचस्प होगा कि बतौर प्रधान सेवक और प्रधान ट्रस्टी मोदी ने जिस दिन लुटेरों की लूट से जनता की रक्षा और लुटेरों के बुरे दिनों की शुरुआत की घोषणा की, ठीक उसके पन्द्रह दिनों बाद, घटनाएँ इतनी प्रबल वेग से घटित हुईं कि ‘अच्छे भ्रष्टाचार मुक्त दिन आने’ का नारा उसके आगे टिक न सका।

इण्डियन प्रीमियर लीग के चेयरमैन और आयुक्त रहे जिन ललित मोदी की धनशोधन और अन्य वित्तीय अनियमितताओं के मामले में प्रवर्तन निदेशालय को तलाश थी उन्हें गैरकानूनी तौर पर मदद पहुँचाने में भाजपा की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की भाजपाई मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे की संलिप्तता की घटना सामने आई। दस्तावेजी प्रमाणों से इसकी पुष्टि हो चुकी है। सुषमा जी ने अपने स्पष्टीकरण में मानवीय पहलू को मदद की वजह बताई। परन्तु ललित मोदी के अपनी पत्नी के आपरेशन के लिए जिस हस्ताक्षर की अनिवार्यता को उन्होंने मदद का आधार बताया था ऐसे किसी हस्ताक्षर की कोई अनिवार्यता थी ही नहीं जैसाकि अस्पताल के कागज़ात से ही स्पष्ट हो गया था। बाद में सुषमा स्वराज के अधिवक्ता पति स्वराज कौशल और बेटी बाँसुरी स्वराज जिन्होंने ललित मोदी के भ्रष्टाचार सम्बन्धी मुकदमे में उनकी ओर से पैरवी भी की थी, उनसे सम्बन्धित कुछ और तथ्यों के सामने आने पर मानवीय तकाज़े पर मदद की उनकी दलील का कोई आधार ही नहीं बचा। साथ ही, सुषमा स्वराज द्वारा ब्रिटिश दूतावास को भेजे गये पत्र के बारे में विदेश सचिव सुजाता सिंह की अनभिज्ञता इस पूरे प्रकरण में पारदर्शिता की कमी को दर्शाती है। वसुन्धरा राजे के मामले में घोटाले का स्वरूप निस्संदेह बहुआयामी और व्यापक है। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि 2008 में जयपुर आईपीएल मैच के समय भी ललित मोदी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे के रिलीफ फण्ड के नाम पर उन्हें 6 करोड़ का चेक दिया था। मोदी की सहायता के लिए राजे ने अदालत में उनकी अर्जी के समर्थन में दाखिल हालिया हलफनामे को गुप्त रखने का उनसे अनुरोध किया था। मदद की गुप्तता का यह आग्रह वर्तमान मामले में उनके किसी तरह के स्पष्टीकरण को स्वतः ही संदिग्ध बना देता है। यह भी पता चला है कि वसुन्धरा के सांसद पुत्र दुष्यन्त सिंह के धौलपुर नियंत हैरिटेज होटल के दस रुपये के शेयर ललित मोदी द्वारा 96180 रुपये के दर से खरीदे हैं, उन्होंने 11 करोड़ का ब्याज़ रहित कर्ज़ भी दुष्यन्त सिंह को मुहैया कराया है। इस तरह के निराधार सहायता का भला क्या औचित्य हो सकता है सिवाय राजे परिवार को अनुचित लाभ पहुँचाने के? यह पूरा मामला अपारदर्शी और भ्रष्ट क्रिया व्यापार की आशंका को ही पुष्ट करता है। ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ के बेहतरीन नमूने उजागर हो रहे हैं। तीसरी घटना मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी से जुड़ी है। उनके द्वारा अलग-अलग अवधियों में शैक्षिक योग्यता सम्बन्धी अलग-अलग जानकारी उपलब्ध कराना किसी भी तरह भाजपाई शुचिता या पारदर्शिता की कोटि में नहीं आता। प्रश्न यहाँ शैक्षिक योग्यता का उतना नहीं है जितना हलफनामों में सचेतन तौर पर विसंगतिपूर्ण तथ्यों को प्रस्तुत करने का। इसके साथ ही महाराष्ट्र की महिला व बाल विकास मंत्री पंकजा मुण्डे के बारे में घनघोर वित्तीय अनियमितताओं में सलंग्नता के प्रत्यक्ष प्रमाण भी आ चुके हैं। थोथी बयानबाजी के अलावा नियम विरुद्ध विभागीय ख़रीदारी और निविदा में गैरज़रूरी हस्तक्षेप के बारे में उनकी तरफ से अभी तक कोई स्पष्टीकरण सामने नहीं आया है। स्कूलों के लिए ख़रीदे गये खाद्य सामग्री के पैकटों की गुणवत्ता मानक के अनुरूप नहीं हैं, यह बात इसके इस्तेमाल के बाद अब सामने आ चुकी है। इन घोटालों की सूची यहीं आकर खत्म नहीं हो जाती। मध्यप्रदेश का बहुचर्चित व्यावसायिक परीक्षा मण्डल घोटाला (व्यापमं) जिसमें अब तक 49 अस्वाभाविक मौतें हो चुकी हैं और 500 लोग ग़ायब हैं इतना व्यापक और गहरा है कि यदि निष्पक्ष जाँच की सुविधा हो तो कई दिग्गजों के मुखौटे गिर सकते हैं। परन्तु इस पूरे मामले में शुचिता और नैतिकता की प्रतिमूर्ति माने जानेवाले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की निष्क्रियता और घोटाले की सीबीआई जाँच के प्रति उदासीनता और बाद में सीबीआई जाँच स्वीकार करने के बाद उसमें हर प्रकार की बाधा डालना निश्चय ही संदिग्ध है। भाजपाई मुख्यमंत्री रमनसिंह भी घोटाले के आरोप से बरी नहीं हैं। भ्रष्टाचार विरोध की दुंदुभि बजाने वाली भाजपा के पास पहले भी जुदेव और यदियुरप्पा जैसे भ्रष्टाचार पगे मंत्रिगण रहे हैं। अतीत का कालिख इनके माथे पर पहले ही से मौजूद है। ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ जैसे नारेनुमा बड़बोलापन आम लोगों के मन में अब विदूपताही पैदा करता है। ज़ाहिर है मसीहाई लोकरंजकतावाद से भ्रष्टाचार खत्म नहीं किया जा सकता। यह पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की नैसर्गिक उपज है, जिस पूँजीवादी तंत्र के रेशे-रेशे में स्वाभविक रूप से लोभ-लाभ की संस्कृति बसी हो उससे सन्तई की अपेक्षा ही एक टटपुँजिया मनोवृत्ति का द्योतक है। पूँजीवाद के पूर्ण ख़ात्मे में ही भ्रष्टाचार का समाधान निहित है।

मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल का एक वर्ष विकास के विभ्रमकारी आग्रहों के सार्वजनिक प्रदर्शन का समय रहा है। इस दौरान किसी बड़ी साम्प्रदायिक घटना की अनुपस्थिति से लोगों में एक मिथ्या आश्वस्ति का भाव पैदा हुआ था, जो अब ख़त्म हो रहा है। यह सतह की सच्चाई थी और असली तस्वीर कहीं अधिक भयावह है, जो अब सामने आ रही है। मोदी की सरकार बनते ही विभिन्न माध्यमों से जनता के बीच मद्धिम अन्दाज़ में यह सन्देश प्रसारित हुआ कि अच्छे दिनों की लहर किस प्रकार आम लोगों को वैदिक ज्ञान और सभ्यतामूलक पवित्रता के साथ हिन्दू राष्ट्र के तट तक ले जायेगी। मोदी की सचेतन चुप्पी के बीच उनके मंत्रियों, नौकरशाहों और अनुषांगिक संगठनों की तरफ से उन्मादी प्रचार के जरिये परिवेश को तनावपूर्ण बनाने की कोशिशें लगातार होती रही हैं। धर्मान्तरण, लव जेहाद, घर वापसी, रामज़ादे-हरामज़ादे, गोवंश हत्या और मन्द स्वर में रामजन्म भूमि पर मन्दिर निर्माण जैसे मुद्दों के जरिये आम लोगों की चेतना में अल्पसंख्यकों के खिलाफ घृणा को स्थायित्व देने काम हिन्दुत्ववादी ताकतें नितान्त सुनियोजित तरीके से कर रही हैं। इस प्रसंग में योगी आदित्यनाथ, गिरिराज सिंह, साध्वी प्राची और साध्वी निरंजन ज्योति जैसे लोगों की सक्रियता भाषाई अभिव्यक्ति और व्यवहार में देखी जा सकती है। जबकि असलियत यह है कि लव जेहाद जैसे मामलों में अभी तक एक भी प्रामाणिक साक्ष्य नहीं मिला है। हिन्दुत्व के ये प्रचारक ऐसी घटनाओं के बारे में योजनाबद्ध ढंग से झूठी अफवाह फैलाते हैं और साम्प्रदायिक तनाव और दंगे भड़काने में सफल हो जाते हैं। उत्तर प्रदेश में मुजफ्रफरनगर, सहारनपुर, दादरी से लेकर दिल्ली के त्रिलोकपुरी, समयपुर बादली, मजनूँ का टीला में जगह-जगह छोटे-छोटे स्तरों पर इसी प्रकार दंगे भड़काये गये हैं। मिशनरी स्कूलों में सरस्वती प्रतिमा की स्थापना, गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करने की माँग, हिन्दू स्त्रियों द्वारा अधिक बच्चे पैदा करने की ज़रूरत पर बल आदि को हिन्दुत्ववादी ताकतें वैमन्यस फैलाने का माध्यम बना रही हैं। निस्सन्देह ऐसे ही मुद्दे धार्मिक बहुसंख्यावादी राजनीति को आगे भी प्रभावी बनाये रखेंगें। एक तनावपूर्ण माहौल की उपस्थिति निरन्तर बनी रहेगी। छोटे स्तर के और स्थानीय रूपवाले दंगे छोटी-छोटी कालावधियों में उभरते रहेंगे। आज घनघोर प्रतिक्रियावादी बुर्जुआ वर्ग को भी, जिसका मोदी संसद में प्रतिनिधित्व करते हैं, गुजरात जैसे दंगों की ज़रूरत नहीं। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि पूँजीपति वर्ग के लिए अब ज़ंजीर से बंधे साम्प्रदायिक फासीवाद के शिकारी कुत्ते का कोई उपयोग नहीं। वास्तव में इसके आवश्यकतानुसार इस्तेमाल की ज़रूरत संकटग्रस्त पूँजीवाद को पहले से कहीं ज़्यादा है। आम मेहनतकश आबादी की एकजुटता को रोकने और उन्हें बाँटकर उनकी श्रम शक्ति को अधिकतम सीमा तक निचोड़ने और उससे उपजे जनप्रतिरोध को कुचलने में यह एक प्रभावी उपकरण के रूप में काम करता रहेगा। सत्ता में रहते हुए मोदी की भाजपा सरकार नवउदारवादी नीतियों के अमल से जन्मे हर असन्तोष, हर विरोधी आवाज़ का दमन करने से परहेज़ नहीं करेगी। सत्ता से बाहर रहकर भी भाजपा अपने अनुषंगी कार्यकर्ता आधारित संगठन के बूते सामाजिक संरचना का फासीवादीकरण करती रहेगी। सट्टेबाज पूँजी नियंत्रित फासीवाद की मौजूदगी की पक्षधर है। भविष्य इसे सही साबित करेगा।

जिस नग्न निरंकुश और परभक्षी वित्तीय पूँजी ने अपने प्रबंधन समिति के रूप में राजकाज चलाने के लिए मोदी सरकार पर दाँव लगाया है उसके अनुरूप परिस्थितियाँ तैयार करने में मोदी की तत्परता पिछले एक वर्ष में देखी जा सकती है। आर्थिक जर्जरता इतनी प्रत्यक्ष है कि उसके बारे में आम लोगों को भ्रम में नहीं रखा जा सकता है। इसलिए फासीवादी चरित्रवाली भाजपा सरकार बौद्धिक सांस्कृतिक शैक्षिक प्रणाली के ज़रिये चीज़ों को सत्ता पक्ष के नज़रिये से समझने के लिए जनता को एक व्याख्यात्मक चौखटा देने की कोशिशों में लगी है। मोदी ने जब भारत में वैदिक और महाभारत काल से ही चिकित्सा विज्ञान के अति विकसित अवस्था में मौजूदगी का प्रमाण गणेश के कटे सिर को प्लास्टिक सर्जरी द्वारा जोड़ने और माँ के गर्भ के बिना कर्ण का जेनेटिक साइंस की मदद से जन्म लेने के उदाहरणों से दिया तो यह उनकी मूर्खता नहीं थी जैसा कि समझा जाता है। या भारतीय विज्ञान कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में जब एक तथाकथित वैज्ञानिक द्वारा भारत में सात हज़ार वर्ष पहले विमान की तकनीक के अत्यन्त विकसित होने का दावा करता पर्चा बिना किसी बाधा के पढ़ा गया था तो यह केवल कूपमण्डूकता और रूढ़िवादिता ही नहीं थी। बल्कि इन जानकारियों को पिछड़ी चेतना वाली जनता के दिमागों में एक सामान्य बोध के रूप में स्थापित करने का सचेतन प्रयास था। बार-बार और अनेक प्रकार से दोहराये जाने से झूठ भी सच बनने लगता है। अन्धराष्ट्रवाद और उग्र हिन्दुत्ववाद के लगातार पनपते रहने के लिए यह जरूरी है। वर्चस्व स्थापित करने की लम्बी योजना ली गयी है। इतिहास, कला, साहित्य, शिक्षा और संस्कृति के संस्थानों में या तो ऐसे लोग बैठाये गये जो हिन्दुत्वादी विचारधारा के पोषक और रूढ़ियों के कट्टर समर्थक थे। या फिर इन संस्थानों के महत्वपूर्ण पदों को रिक्त छोड़ दिया गया ताकि उन्हें उपलब्धता के आधार पर भाजपा समर्थक धार्मिक रूढ़िवादियों से भरा जा सके। असहमति जतानेवाले इतिहासकारों और शिक्षाविदों को सरकार के हाथों अपमान झेलना पड़ा। इस प्रसंग में एनसीईआरटी की निदेशक परवीन सिक्लेयर का, जिनपर वित्तीय अनियमितता का झूठा आरोप लगा कर संस्थान छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया और दिल्ली आइआइटी के निदेशक शिवगांवर का, जिनपर गलत निर्णयों के लिए मानव संसाधन विकास मंत्री की तरफ से अनुचित दबाव बनाया गया था, उदाहरण लिया जा सकता है। जिन चर्चित वाइ सुदर्शन राव की योग्यता, इतिहास का उनका ज्ञान संदिग्ध रहा है उन्हें भारतीय इतिहास अनुसंधान का अध्यक्ष बना दिया गया, उनकी नियुक्ति का आधार भाजपा के प्रति अन्धभक्ति और मुस्लिम विरोधी भावना है। राव ने आते ही आईसीएचआर की परामर्श समिति का पुनर्गठन कर रोमिला थापर, सतीश चन्द्रा, मुजफ्रफर अली और इरफान हबीब जैसे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के प्रगतिशील इतिहासवेत्ताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसी प्रकार राष्ट्रीय बुक ट्रस्ट के निदेशक को अपने कार्यकाल के सात माह पूर्व इस्तीफा देने को बाध्य होना पड़ा और उनकी जगह आर आर एस के प्रचारक रहे बलदेव भाई शर्मा को अध्यक्ष बनाया गया। अब एनसीईआरटी हिन्दू संस्कृति और परम्पराओं का सरलीकृत पाठ प्रस्तुत करेगी, एनबीटी ने योग और संघ से जुड़े व्यक्तियों पर पुस्तके प्रकाशित करना शुरू भी कर दिया है। राष्ट्रीय संग्रहालय और भारतीय समाज विज्ञान परिषद में इसी तरह की नियुक्तियाँ हो चुकी हैं। स्पष्ट है, अब विषयों को वृहत्तर आयामों से काट कर रूढ़िवादी कट्टरपन्थ के खाँचे में बैठाने का काम होगा। मिथकों को इतिहास और इतिहास को मिथक बनाने का काम आसान हो गया।

कला, साहित्य, शिक्षा, संस्कृति, इतिहास से जुड़े संस्थानों में अधिकांश पदों पर नियुक्तियाँ संघ परिवार का निष्ठावान समर्थक विवेकानंद इण्टरनेशनल फाउण्डेशन से की गई हैं। यह वही इण्टरनेशनल फाउण्डेशन है जो आरएसएस के भूतपूर्व महासचिव एकनाथ रानाडे द्वारा स्थापित विवेकानन्द केन्द्र से सम्बद्ध है। इसके साथ ही स्वायत्त संस्थाओं को सरकारी नियंत्रण में लाने की मुहिम शुरू हो चुकी है। ललित कला अकादेमी, साहित्य अकादेमी की स्वायत्तता सुनियोजित ढंग से समाप्त की जा रही है। इनमें निर्णयकारी पदों पर कट्टर हिन्दुत्वाद के समर्थकों को योजनाबद्ध ढंग से बिठाया जा रहा है। अभी हाल में ही नेहरू स्मृति संग्रहालय और पुस्तकालय सोसायटी में जिन सदस्यों की नियुक्ति की गई है उनमें अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय, पत्रकार स्वप्न दास गुप्ता व एम जे अकबर और इंफोसिस के संस्थापक एन आर नारायणमूर्ति जैसे भाजपा समर्थकों की मौजूदगी मोदी सरकार की मंशा को उजागर करता है। यही विज्ञान, चिकित्सा, अभियांत्रिकी थियेटर, और फिल्म-टेलीविजन के उच्च शिक्षण-प्रशिक्षण के संस्थानों में भी हो रहा है। पुणे के फिल्म और टेलीविजन इंस्टीट्यूट के निदेशक पद पर फिल्म विधा से जुड़ी किसी ऊँची शख्‍स़ि‍यत की जगह गजेन्द्र चौहान की नियुक्ति की गई। यह वही शख्स हैं जो ‘महाभारत’ में भूमिका निभाने के पहले सी ग्रेड की फिल्मों में काम करते थे। 2014 के चुनाव में मथुरा की भाजपा प्रत्याशी हेमामालिनी के प्रचार में इनकी सक्रिय भूमिका निश्चय ही एक अतिरिक्त व विशेष योग्यता थी। इन महाशय को गुलज़ार, श्याम बेनेगल और अदूर गोपालकृष्णन की क़ीमत पर चुना गया और छात्रों के लगातार जारी विरोध के बावजूद जो अभी भी अपने पद पर बने हुए हैं। चिल्ड्रेन्स फिल्म सोसायटी के प्रमुख के पद पर मुकेश खन्ना की नियुक्ति को इसी रूप में देखा जा सकता है।

इतिहास, साहित्य संस्कृति कला जैसी विधाएँ जनता के अवचेतन के कई संस्तरों तक जाकर प्रभावित करती हैं। सत्ताधारी इनका उपयोग लोगों के अवचेतन को अपने उन नीतियों, विचारों व कार्रवाइयों के पक्ष में अनुकूलित करने के लिए करता है जो उसके हितों का पोषण करते हैं। इस प्रक्रिया में वह उनमें इन नीतियों और विचारों के प्रति स्वेच्छा या सहमति की मिथ्या चेतना पैदा करता है, जिसे ग्राम्शी ने शासन के लिए सहमति का निर्माण कहा है। दूसरी तरफ ढाँचागत आर्थिक संकट के असाध्य होते जाने के साथ सत्ताधारियों के लिए यह नितान्त ज़रूरी हो जाता है कि लोगों की पिछड़ी धार्मिक चेतना का इस्तेमाल वे साम्प्रदायिक कट्टरपन्थ की ज़मीन तैयार करने और उसे सामाजिक औचित्य प्रदान करने में करें। इस आलोक में यदि मोदी सरकार के शासनकाल के एक वर्ष का आकलन किया जाय तो निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि साम्प्रदायिक और सांस्कृतिक दोनों ही मोर्चों पर उसकी सतत् कार्रवाइयों का सिलसिला मद्धिम गति से जारी है। ये जनोन्मुखी तो निश्चय ही नहीं हैं और जनचेतना को सदियों पीछे ले जाने के लिए प्रयासरत हैं। इसकी तात्कालिक प्रभाविता आज भले ही न हो (यह स्पष्ट तौर पर देखा भी जा सकता है कि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश केवल अल्पकाल के लिए एक हद तक ही प्रभावी हुई है।) लेकिन क्रान्तिकारी ताकतें यदि एकजुट नहीं होतीं तो भविष्य में इसका असर निश्चय ही घातक होगा। जहाँ तक आर्थिक मोर्चे का प्रश्न है, मोदी सरकार की विफलता बिल्कुल प्रत्यक्ष है। नित नयी योजनाएँ उछालकर भी मोदी लोगों का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने में सफल नहीं हो सके हैं। उनकी लोकप्रियता का ढलान पहले उपचुनावों के नतीजे से ही पुष्ट हो गये थे। राजनीतिक और कूटनीतिक मामलों में तमाम विदेशी यात्राओं और द्विपक्षीय समझौतों के बावजूद कोई ठोस सफलता मोदी के हाथ नहीं आयी है। उल्टे, इन समझौतों से अपेक्षाकृत अधिक शक्तिसम्पन्न देशों ने ही लाभ उठाया है। इसका इस्तेमाल उनकी मीडिया निर्मित नायकत्व की छवि को और अधिक महिमामण्डित करने में भले ही हुआ हो। परन्तु चौंक-चमत्कार से भरे उनके भाषणों और विदेशों की धावाधूपी से देश को कुछ भी अब तक सकारात्मक हासिल नहीं हो सका। यह है मोदी सरकार के विकास की असली तस्वीर। यह विकास अपनी विकलांगता से मुक्त नहीं हो सकता। संकटग्रस्त विश्व पूँजीवाद के दौर में यह सम्भव भी नहीं है। विकास सच्चे अर्थों में आगे डग भरने के मंसूबे बाँध सके इसके लिए ज़रूरी है कि आर्थिक व्यवस्था का समाजवादी नियोजन हो, जो सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को कायम किये बिना सम्भव नहीं है।

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

बच्चों की सामूहिक देखभाल ने औरतों को किस तरह आजाद किया

‘बच्चों की देखभाल कौन करे’ यह प्रश्न स्त्रियों और पुरुषों के बीच एक बड़ा मुद्दा बना रहता है। कुछ स्त्रियां चाहती हैं कि उनके पति घर के कामों और बच्चों की देखभाल में और अधिक से अधिक जिम्मेदारी उठायें। इस प्रकार एक अन्तहीन संघर्ष चलता रहता है। दुनिया भर की औरतें इस स्थिति से निपटने की राह ढूंढ़ रही हैं। गरीब स्त्रियां महसूस करती हैं कि न्यूनतम मजदूरी पर उन्हें कोई काम मिलता भी है तो बच्चों की देखभाल इस नौकरी की इजाजत उन्हें नहीं देती। और बहुत सी नौजवान औरतों को तो इसके लिए अपनी मां पर निर्भर रहना पड़ता है। मध्य वर्ग की औरतें अपने बच्चों की देखभाल के लिए ऐसी आयाओं की नियुक्ति करती हैं जो ज्यादातर आप्रवासी होती हैं और बहुत कम वेतन पर बिना किसी लाभ के काम करने को विवश होती हैं। और हम ज्यादा से ज्यादा यही सुनते आ रहे हैं कि कोई स्त्री, चाहे कितना ही जरूरी काम उसके पास क्यों न हो, ‘सबसे पहले वह एक मां होती है। यह परिस्थितियां वाकई पागल बना देने वाली होती हैं। read more