ट्रम्प का यरुशलम दाँव – अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की निशानी

ट्रम्प का यरुशलम दाँव – अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की निशानी

 

  • आनन्द सिंह

 

यूरोपीय संघ और अरब जगत के अपने सहयोगियों की चेतावनी के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने गुज़रे 6 दिसम्बर को यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने की घोषणा कर दी। यह घोषणा करते हुए ट्रम्प ने ख़ुद की पीठ थपथपाते हुए कहा कि वह ऐसा क़दम उठाने जा रहा है जिसे उठाने का साहस अब तक अमेरिका का कोई भी राष्ट्रपति नहीं कर सका था। ग़ौरतलब है कि 1995 में अमेरिका कांग्रेस ने ‘यरुशलम एम्बैसी एक्ट’ पारित किया था जिसके तहत इज़रायल में अमेरिका के दूतावास को यरुशलम स्थानान्तरित करने का प्रावधान था। परन्तु इसके गम्भीर निहितार्थ को देखते हुए उसके बाद से सभी अमेरिकी राष्ट्रपति इस फ़ैसले को टालते आ रहे थे। ट्रम्प ने यह फ़ैसला ऐसे समय लिया है जिस समय जहाँ एक ओर अमेरिका के भीतर घरेलू मोर्चे पर फिसड्डीपन की वजह से ट्रम्प की लोकप्रियता दिनो-दिन कम होती जा रही है वहीं दूसरी ओर सीरिया में असद सरकार को गिराने में अमेरिकी साम्राज्यवाद की विफलता और समूचे मध्यपूर्व में रूस-ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला धुरी का पलड़ा भारी होने की वजह से अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमे में उहापोह की स्थिति बनी हुई है। ऐसे में यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का दाँव अमेरिकी साम्राज्यवाद की बौखलाहट की ही अभिव्यक्ति है। इस फ़ैसले के गहरे निहितार्थों के मद्देनज़र इसके पीछे के कारणों को समझना बेहद ज़रूरी है।

यरुशलम सम्बन्धित विवाद : एक पश्चदृष्टि

ग़ौरतलब है कि 1948 में इज़रायल नामक राष्ट्र के जन्मकाल के समय से ही यरुशलम शहर की स्थिति को लेकर चल रहा विवाद फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न का एक अहम पहलू रहा है। 1947 की संयुक्त राष्ट्र की योजना में भी यरुशलम के प्रशासन को एक विशेष अन्तरराष्ट्रीय संस्था के हवाले करने का प्रावधान था जिसे अरब देशों ने ख़ारिज कर दिया था। 1948 में इज़रायल की स्थापना की घोषणा के फ़ौरन बाद इज़रायल और अरब देशों के बीच क़रीब 10 महीने तक युद्ध की स्थिति बनी रही जिसके बाद संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता में युद्धविराम की संधि पर हस्ताक्षर हुए जिसके अनुसार यरुशलम के पश्चिमी हिस्से पर इज़रायल का अधिकार हो गया जबकि पूर्वी यरुशलम जॉर्डन के नियन्त्रण में रहा।

ग़ौरतलब है कि पूर्वी यरुशलम इस्लाम, यहूदी और ईसाई तीनों की धर्मों के अनुयायियों द्वारा अपने-अपने धर्म का पवित्र स्थल माना जाता है। पूर्वी यरुशलम में ही पुराने शहर का वह हिस्सा आता है जिसमें ‘हरम-अल-शरीफ़’ मस्जिद स्थित है जो अरब के लोगों के लिए सबसे पवित्र स्थानों में से एक मानी जाती है। यहूदी लोग इस परिसर को ‘टेम्पल माउण्ट’ कहते हैं। इसी परिसर में अल-अक्सा मस्जिद भी स्थित है जिसे इस्लाम की तीसरी सबसे पवित्र मस्जिद के रूप में मान्यता प्राप्त है। 1967 के अरब-इज़रायल युद्ध के बाद पूर्वी यरुशलम का हिस्सा भी इज़रायली क़ब्ज़े में आ गया। हालाँकि इस क़ब्ज़े को अब तक अन्तरराष्ट्रीय मान्यता नहीं मिली है क्योंकि जेनेवा कन्वेंशन के मुताबिक़ युद्ध के ज़रिये क़ब्ज़ा किये गये भूक्षेत्र की स्थिति सैन्य क़ब्ज़े की होती है। अभी दिसम्बर 2016 में ही संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पारित किया गया था जिसमें यह साफ़ लिखा था कि फ़ि‍लिस्तीन का भूक्षेत्र इज़रायली सैन्य क़ब्ज़े में है। फ़ि‍लिस्तीन के लोगों का पूर्वी यरुशलम से गहरा भावनात्मक लगाव है और वे उसे भविष्य के स्वतन्त्र और एकजुट फ़ि‍लिस्तीन राज्य की राजधानी के रूप में देखते हैं। यरुशलम की विवादित स्थिति के मद्देनज़र ही 1978 के कैम्प डेविड समझौते और 1993 के ओस्लो समझौते में भी यरुशलम की स्थिति को भविष्य में फ़ैसलाकुन बातचीत के लिए टाल दिया गया था। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2000 में दूसरे इन्तिफ़ादा की चिंगारी उस समय के इज़रायल के विपक्षी नेता और पूर्व राष्ट्रपति एरियल शैरोन द्वारा ‘टेम्पल माउण्ट’ के परिसर में प्रवेश करने के बाद ही भड़की थी।

ग़ौर करने की बात यह भी है 1995 में ‘यरुशलम एम्बैसी एक्ट’ पारित करने के बाद अमेरिकी कांग्रेस ने 2002 में एक बार फिर इज़रायल में अमेरिकी दूतावास को यरुशलम में स्थानान्तरित करने और यरुशलम में पैदा हुए अमेरिकियों के पासपोर्ट में जन्मस्थान के रूप में इज़रायल का नाम डालने से सम्बन्धित एक विधेयक पारित किया था। लेकिन दक्षिणपन्थी अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश भी उसे लागू नहीं कर सका था। ट्रम्प के मौजूदा फ़ैसले से पहले तक अमेरिका की आधिकारिक अवस्थिति यह रही थी कि यरुशलम की स्थिति शान्ति प्रक्रिया के तहत इज़रायलियों और फ़ि‍लिस्तीनियों के बीच बातचीत के ज़रिये तय होनी चाहिए। इसलिए निश्चि‍त रूप से यह अमेरिकी विदेश नीति में एक बड़ा क़दम है जिसके बाद से मध्यपूर्व में शान्ति स्थापित करने के उसके तमाम दावों की असलियत सबके सामने उजागर हो गयी है।

ट्रम्प के फ़ैसले के पीछे के कारण

यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने के अमेरिकी फ़ैसले के पीछे के कारणों और निहितार्थों को समझने के लिए पश्चिमी एशिया के क्षेत्र के तेल व गैस संसाधनों पर नियन्त्रण करने और समूचे क्षेत्र में अपना प्रभुत्व क़ायम करने के लिए दो साम्राज्यवादी धुरियों – अमेरिका के नेतृत्व में अरब देशों और इज़रायल की धुरी और रूस के नेतृत्व में ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला धुरी – के बीच चल रही होड़ में वर्तमान रणनीतिक शक्ति सन्तुलन को समझना ज़रूरी है। ग़ौरतलब है कि 2011 से सीरिया में जारी गृहयुद्ध में दखल देकर बशर अल-असद की सरकार को गिराने का अमेरिकी साम्राज्यवाद का दाँव उल्टा पड़ता नज़र आ रहा है। इस प्रक्रिया में खड़ा किया गया इस्लामिक स्टेट नामक भस्मासुर अपने आका को ही काट खाने पर आमादा हो गया है। अमेरिका की इस रणनीतिक विफलता का मुख्य कारण रूसी साम्राज्यवाद का सीरिया के पक्ष में खुले रूप में उतरना रहा है जिसकी वजह से असद सरकार अपने पैरों पर फिर से खड़ी होने में क़ामयाब होती दिख रही है।

सीरिया के अतिरिक्त पश्चिमी एशिया के अन्य देशों में भी अमेरिका के सहयोगी अरब देशों का पलड़ा हल्का होता दिख रहा है और ईरान का दबदबा बढ़ता दिखायी दे रहा है। हाल के वर्षो में इराक़ और यमन में ईरान का प्रभाव बढ़ा है जिसकी वजह से सऊदी अरब और ईरान के रिश्ते भी दिन-ब-दिन बिगड़ते गये हैं। ग़ौरतलब है कि पिछले साल सऊदी अरब ने शियाओं के एक धर्मगुरु को मौत के घाट उतार दिया था और ईरान के साथ अपने कूटनीतिक रिश्ते तोड़ लिए थे। उधर लेबनॉन की संसद व सरकार और ख़ासकर देश के दक्षिणी हिस्से में भी ईरान के सहयोगी हिज़बुल्ला का नियन्त्रण दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। हाल ही में लेबनॉन के प्रधानमन्त्री साद अल-हरीरी ने सऊदी अरब के दौरे के दौरान रियाद से ही अचानक  इस्तीफ़ा दे दिया। अल-हरीरी के अनुसार उसकी ज़ि‍न्दगी ख़तरे में थी क्योंकि लेबनॉन में हिज़बुल्ला ने राज्य के भीतर राज्य बना लिया है और पूरे देश को अपने चंगुल में ले लिया है। उसने यह भी कहा कि अरब के मामलों में ईरान की दखलन्दाज़ी बढ़ती जा रही है। अरब देशों और ईरान-हिज़बुल्ला के बीच तनाव तब और बढ़ गया जब सऊदी अरब और बहरीन ने लेबनॉन से अपने नागरिकों को वापस बुला लिया।

मध्य-पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए सऊदी अरब और इज़रायल के बीच क़रीबी भी बढ़ती जा रही है। सऊदी अरब के नये शहज़ादे मोहम्मद बिन सलमान ने इज़रायल से अपने रिश्तों को और प्रगाढ़ करने के संकेत दिये हैं। इस नये शहज़ादे को ट्रम्प प्रशासन का पूरा सहयोग मिल रहा है। हाल ही में ट्रम्प ने सऊदी अरब का दौरा किया और रियाद से उसका विमान सीधे तेल अवीव गया जोकि अभूतपूर्व था। हालाँकि 1970 के दशक से ही अमेरिका की अगुवाई में अरब देशों और इज़रायल के बीच सम्बन्ध  प्रगाढ़ होते आये हैं, लेकिन अमेरिका के किसी भी अन्य राष्ट्रपति की तुलना में ट्रम्प इन सम्बन्धों को कहीं ज़्यादा खुले रूप में अभिव्यक्त कर रहा है। हाल ही में ट्रम्प ने ओबामा प्रशासन द्वारा ईरान के साथ किये गये नाभिकीय समझौते को रद्दी की टोकरी में फेंकने का भी फ़ैसला किया।

ट्रम्प के यरुशलम सम्बन्धी फ़ैसले को उपरोक्त समीकरणों की रोशनी में ही देखा जाना चाहिए। हालाँकि अपने भाषण में ट्रम्प ने मध्य-पूर्व में शान्ति प्रक्रिया जारी रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का दम भरा, लेकिन इज़रायल के पक्ष में इस अभूतपूर्व घोषणा से यह दिन के उजाले की तरह साफ़ हो गया है‍ कि अमेरिका का इरादा मध्य-पूर्व में स्थिरता या शान्ति फैलाना नहीं बल्कि अस्थिरता और अशान्ति फैलाकर इस क्षेत्र में अपनी दखल बढ़ाने का है। इसके अतिरिक्त इस घोषणा के ज़रिये ट्रम्प अमेरिका की घरेलू राजनीति में अपनी लोकप्रियता के घटने के मद्देनज़र अपने दक्षिणपन्थी और रूढ़ि‍वादी सामाजिक आधार को सुदृढ़ करने की फ़ि‍राक़ में भी है। ग़ौरतलब है कि ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान भी यरुशलम को इज़रायल की राजधानी के रूप में मान्यता देने का वायदा किया था। अमेरिका में रूढ़ि‍वादी ईसाइयों का अच्छा-ख़ासा हिस्सा ऐसा है जो ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ में दी गयी कहानी को सच मानता है। इन ‘इवैंजेलिकलों’ को बाइबल की इस ”जगत के अन्त (end of days)” भविष्यवाणी में शब्दश: भरोसा है कि यरुशलम पर यहूदियों का क़ब्ज़ा होने के बाद सभ्यताओं की एक जंग छिड़ेगी जिसमें यहूदियों को ईसाइयत या मौत में से एक को चुनना होगा। वे यीशू के दूसरी बार धरती पर आने की भवि‍ष्यवाणी (second coming of Christ) को भी सच मानते हैं और यरुशलम पर इज़रायल के नियन्त्रण को उसका संकेत मानते हैं। इन धुर दक्षिणपन्थी रूढ़ि‍वादियों ने ट्रम्प की घोषणा का दिल खोलकर स्वागत किया। इनमें जुआघर चलाने वाला एक अरबपति शेल्डन अडेल्सन भी शामिल है जिसने ट्रम्प के चुनाव में बीस मिलियन अमेरिकी डॉलर का चन्दा दिया था और जो इज़रायल में अमेरिकी दूतावास को यरुशलम में स्थानान्तरित करने के लिए लॉबी करता आया है। इसके अतिरिक्त ‘अमेरिकन इज़रायल पब्लिक अफ़ेयर्स कमेटी’ जैसी ज़ायनवादी लॉबियाँ भी लंबे समय से यह माँग करती आयी हैं।

ट्रम्प के यरुशलम दाँव के निहितार्थ

मध्य-पूर्व के भूराजनीतिक समीकरणों को देखते हुए यह समझना मुश्किल नहीं है कि ट्रम्प के फ़ैसले के बाद पहले से अस्थिर रहे इस क्षेत्र की अस्थिरता और ख़ून-खराबे में निश्चय ही बढ़ोतरी होगी। इस घोषणा के बाद फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न के बहुचर्चित ‘दो राज्यों वाले समाधान (two-state solution)’ का कोई मतलब नहीं रह गया है क्योंकि पूर्वी यरुशलम की स्थिति ऐसे किसी समाधान का अहम अंग थी। शान्ति के पैरोकार के रूप में अमेरिका की छवि इस क्षेत्र में पहले ही संदिग्ध थी, नंगे रूप में इज़रायल के पक्ष में की गयी इस घोषणा के बाद उसकी रही-सही साख़ पर भी बट्टा लग गया है और उसकी तटस्थता का सारा ढोंग उजागर हो गया है। राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रम्प ने अपने युवा और अनुभवहीन दामाद जेर्ड कुशनर को मध्य-पूर्व की शान्ति प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की जि़म्मेदारी सौंपी थी। रिपोर्टों के मुताबिक़ कुशनर एक बेहद सीमित सम्प्रभुता वाले फ़ि‍लिस्तीनी राज्य के फॉर्मूले पर काम कर रहा है। अभी हाल ही में ट्रम्प प्रशासन ने वाशिंगटन डीसी में फ़ि‍लिस्तीन मुक्ति संगठन का कार्यालय बन्द करने की धमकी दी थी जिससे स्पष्ट है कि अमेरिका धौंसपट्टी के ज़रिये फ़ि‍लिस्तीनियों को घुटने के बल झुकाना चाहता है। महमूद अब्बास के नेतृत्व वाला फ़‍तह धड़ा भले ही ऐसे सीमित फ़ि‍लिस्तीनी राज्य को स्वीकार कर ले लेकिन फ़ि‍लिस्तीन के अवाम को ऐसा कोई भी समाधान स्वीकार्य नहीं होगा। वैसे भी अब्बास की मौक़ापरस्ती और फ़ि‍लिस्तीनी प्राधिकरण में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से फ़तह की लोकप्रियता दिनोदिन कम होती जा रही है और उसका सामाजिक आधार खिसकता जा रहा है। ट्रम्प की घोषणा के बाद अब्बास के पास भी फ़ि‍लिस्तीन के आवाम को किसी शान्ति फ़ॉर्मूले के लिए तैयार करने का कोई आधार नहीं बचा है।

अरब जगत के हुक़्मरानों ने ट्रम्प की घोषणा के विरोध में बयान जारी किये और इस्लामिक सहयोग संगठन की आपात बैठक बुलाकर इस घोषणा की मुख़ालफ़त की और पूर्वी यरुशलम को फ़ि‍लिस्तीन की राजधानी के रूप में मंज़ूरी देते हुए एक प्रस्ताव पारित किया। लेकिन अरब जगत के किसी भी देश ने अमेरिका या इज़रायल के ख़ि‍लाफ़ कोई सख़्त कूटनीतिक क़दम उठाने की हिम्मत नहीं दिखायी। उल्टे बहरीन की सरकार ने इस घोषणा के बाद ही एक बहुधर्मीय प्रतिनिधिमण्डल को इज़रायल की यात्रा की अनुमति दे दी।

हुक्‍़मरानों के जबानी जमा खर्च के बावजूद अरब जगत की जनता के बीच इन हुक़्मरानों की अमेरिकापरस्ती और इज़रायल की ओर झुकाव की वजह से जो गुस्सा था वह इस फ़ैसले के बाद फूट पड़ा। जैसाकि उम्मीद थी फ़ि‍लिस्तीन सहित समूचे अरब जगत की सड़कों पर जनाक्रोश देखा गया। ग़ौरतलब है कि यह जनाक्रोश न सिर्फ़ अमेरिका और इज़रायल के ख़ि‍लाफ़ था बल्कि अरब के हुक़्मरानों के ख़ि‍लाफ़ भी था जिन्होंने फ़ि‍लिस्तीन के मसले पर इज़रायल के ख़ि‍लाफ़ कोई सख़्त कार्रवाई करने के बजाय उससे अपनी क़रीबी बढ़ायी है।

यरुशलम के मसले पर अब तक भारत की अवस्थिति यह रहती थी कि वह पूर्वी यरुशलम को स्वतन्त्र फ़ि‍लिस्तीनी राज्य की राजधानी के रूप में मान्यता देने का पक्षधर था। लेकिन ट्रम्प की घोषणा के बाद भारत सरकार की ओर से जो औपचारिक बयान जारी किया गया उसमें अपनी इस पुरानी अवस्थिति को नहीं दोहराया गया। स्पष्ट रूप से यह भारतीय शासकों ‍़के इज़‍रायल की ओर झुकाव और फ़ि‍लिस्तीन से विश्वासघात का एक और प्रमाण है। फिर भी, अमेरिका द्वारा अपना दूतावास यरुशलम ले जाने के फ़ैसले पर 21 दिसम्बर 2017 को संयुक्त राष्ट्र में हुए मतदान में भारत ने 127 अन्य देशों के साथ विरोध में मत दिया जिससे अमेरिका पूरी तरह अलग-थलग पड़ गया। इसका एक प्रमुख कारण अरब देशों में भारत के आर्थिक हितों की चिन्ता थी। उल्लेखनीय है कि मतदान से पहले अरब राजनयिकों का प्रतिनिधिमण्डल भारतीय राजनयिकों से मिला था। हालाँकि, मोदी के सत्ता में आने के बाद इज़रायल की ओर भारत के बढ़ते झुकाव में महज़़ इस वोट से कोई कमी आयेगी, ऐसा नहीं लगता।

ट्रम्प प्रशासन द्वारा बौखलाहट में आकर उठाये गये इस क़दम का लाभ अन्तत: रूस की ओर झुकाव रखने वाली ईरान-सीरिया-हिज़बुल्ला धुरी को ही होगा क्योंकि इससे अमेरिका की ओर झुकाव रखने वाले अरब देशों धुरी का फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न पर विश्वासघात की वजह से उनका सामाजिक आधार और कम होने वाला है। इसने ईरान को अरब की जनता के बीच फ़ि‍लिस्तीन के मसले पर अरब देशों के विश्वासघात को उजागर करने और अपनी प्रतिबद्धता रेखांकित करने का मौक़ा दे दिया है। मध्य-पूर्व में ईरान के बढ़ते प्रभाव से अमेरिका की बौखलाहट की एक और अभिव्यक्ति संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका की राजदूत निक्की हेली द्वारा 15 दिसम्बर की एक प्रेस कांफ्रेंस में देखने में आयी जिसमें उसने ईरान पर आरोप लगाया कि उसने यमन के हूती विद्रोहियों को बैलिस्टिक मिसाइल की आपूर्ति की है। हेली ने ईरान के ख़ि‍लाफ़ एक अन्तरराष्ट्रीय गठबन्धन बनाने का आह्वान किया। ज़ाहिर है कि ईरान की धुरी का बढ़ता प्रभाव अमेरिकी साम्राज्यवादियों की बौखलाहट को और बढ़ायेगा जिसकी वजह से आने वाले दिनों में उनकी आक्रामकता और बढ़ने वाली है जिसका खामियाज़ा इस क्षेत्र की जनता को ही उठाना पड़ेगा। लेकिन साथ ही साथ इससे समूचे अरब जगत में जनविद्रोहों की आग को भी हवा मिलेगी और फ़ि‍लिस्तीन के प्रश्न का ज़्यादा से ज़्यादा अन्तरराष्ट्रीयकरण होने से फ़ि‍लिस्तीनी अवाम के बहादुराना संघर्ष को मिल रहे वैश्विक समर्थन में भी इज़ाफ़ा होगा।

 

दिशा सन्धान – अंक 5  (जनवरी-मार्च 2018) में प्रकाशित

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