यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

  • शिशिर

29 जून को सिरिज़ा की सरकार ने यूरोपीय संघ, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक और आई.एम.एफ की त्रयी से असहनीय शर्तों पर बेलआउट पैकेज स्वीकार करने के प्रश्न पर जनमत संग्रह की घोषणा की। यह जनमत संग्रह 5 जुलाई को होने वाला है। सिरिज़ा सरकार के मुखिया एलेक्सिस सिप्रास के लिए 5 महीनों तक साम्राज्यवादी त्रयी के इशारों पर नाचने के बाद यह अनिवार्य हो गया था कि वह आगे बेलआउट लेने और तथाकथित किफ़ायतसारी की नीतियों को लागू करने के लिए जनमत संग्रह का एलान करें। ग़ौरतलब है कि सिरिज़ा सरकार की स्वीकार्यता दर हालिया दिनों में ही 36 प्रतिशत से गिरकर 34 प्रतिशत हो गयी है। यूनान की जनता का 35 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा अब यूरो व यूरोपीय संघ से बाहर जाने का अनुमोदन कर रहा है। जनता के विभिन्न हिस्सों, विशेष तौर पर, मज़दूरों और छात्रों के प्रदर्शनों की बारम्बारता बढ़ गयी है। हाल ही में एथेंस में तकनीकी विश्वविद्यालय पर छात्रों ने कब्ज़ा कर लिया था जिसे सिप्रास की सरकार ने पुलिस के बल-प्रयोग द्वारा ज़बरन ख़ाली करवाया। 5 जुलाई को जो जनमत संग्रह होने वाला है उसमें भी जो विकल्प जनता के सामने रखे जायेंगे वह साम्राज्यवादी त्रयी की शर्तों पर बेलआउट या फिर सिरिज़ा सरकार की शर्तों पर यूरोपीय संघ व यूरो के भीतर रहने के विकल्प हैं। इसलिए वास्तव में चुनने के लिए जनता के पास ज़्यादा कुछ नहीं होगा। यह जनमत संग्रह कराया ही इसलिए जा रहा है कि यूनान पूँजीवाद के दायरे से बाहर न जाये और उसके भीतर ही रहे, चाहे यूरोपीय संघ के साथ या फिर यूरोपीय संघ से बाहर। इसमें भी सिरिज़ा यूरोपीय संघ के भीतर बने रहने को लेकर विशेष तौर पर उत्सुक है। ग़ौरतलब है कि 30 जून को आईएमएफ़ को 1-6 खरब यूरो की किश्त अदा करने की आख़ि‍री तिथि के पहले जहाँ एक ओर सिप्रास ने 5 जुलाई के जनमत संग्रह का एलान किया तो वहीं लगातार यूरोपीय संघ से बेलआउट पैकेज दिये जाने की आख़ि‍री क्षण की अपीलें भी करते रहे! लेकिन इससे पहले कि हम इस जनमत संग्रह के पीछे की पूरी राजनीति पर चर्चा करें, सबसे पहले सिरिज़ा के सरकार बनाने के बाद हुए परिवर्तनों पर एक निगाह डालना बेहतर होगा।

सुधारवादी-लोकरंजकतावादी वामपंथ का वास्तविक चरित्रः सिरिज़ा सरकार का आधा साल

जेम्स पेत्रस ने सिरिज़ा को यूरोप में एक विशिष्ट परिघटना का अंग बताया है जिसे कि वह ‘गैर-वामपंथी वाम का उभार’ कहते हैं। कुछ मायनों में यह विश्लेषण दुरुस्त बैठता है। सिरिज़ा की सरकार के आधे वर्ष ने स्पष्ट कर दिया है कि सिरिज़ा किसी भी रूप में पूँजीवादी व्यवस्था का अतिक्रमण नहीं करने वाली है; पूँजीवादी व्यवस्था के अतिक्रमण की बात तो छोड़ दें, सिरिज़ा पूँजीवादी दायरे के भीतर भी उपलब्ध बेहतर रणनीति या रणकौशल को चुनने की बजाय साम्राज्यवादी त्रयी के समक्ष घुटने टेक रही है। सिरिज़ा 5 वर्ष की किफ़ायतसारी के विरुद्ध जनता के आक्रोश के बल पर सत्ता में आयी थी। पहले पासोक की सामाजिक-जनवादी सरकार और उसके बाद न्यू डेमोक्रेसी की समारास की सरकार के दौर में किफ़ायतसारी की साम्राज्यवादी त्रयी द्वारा थोपी गयी नीतियों के फलस्वरूप यूनान में बेरोज़गारी, ग़रीबी, बेघरी और मज़दूरी में गिरावट की दरों में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई थी। जनता के व्यापक हिस्सों में इन नीतियों के ख़िलाफ़ भयंकर असन्तोष था। सिरिज़ा के 2012 के बाद तेज़ी से उभरने के पीछे जो कारण था वह था इसका किफ़ायतसारी की नीतियों का विरोध। सिरिज़ा का कहना था कि अगर वह सरकार बनाती है तो वह यूरोपीय संघ में रहते हुए किफ़ायतसारी की नीतियों का अन्त करेगी, जिसके कारण यूनानी जनता को भयंकर तबाही का सामना करना पड़ा है। उसने यूरोपीय संघ के साम्राज्यवादी मंसूबों की भी मुख़ालफ़त की थी और उसके साम्राज्यवादी युद्धों से यूनान को अलग करने की घोषणा की थी। जनता के लिए कल्याणकारी नीतियों का वायदा किया गया था। और भयंकर तबाही से तंग यूनानी जनता के व्यापक जनसमुदायों ने सिरिज़ा को इन्हीं वायदों के कारण वोट दिया था क्योंकि पासोक और न्यू डेमोक्रेसी जैसी पार्टियाँ अपनी विश्वस्नीयता खो चुकी थीं। लेकिन सरकार बनते ही जनता की आशाओं पर कुठाराघात का एक सिलसिला शुरू हुआ। जनमत संग्रह के एलान से जनता के एक हिस्से को एक बार फिर लग रहा है कि सिरिज़ा अपने पुराने एजेण्डे पर लौट सकती है। लेकिन मज़दूरों के व्यापक हिस्सों में यह उम्मीद कम ही है। क्योंकि पिछले छह माह के धोखे ने मज़दूरों के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से को सिरिज़ा के प्रति नाउम्मीद भी बनाया है। कोई और विकल्प नहीं होने के कारण अभी सिरिज़ा को ही देश में सबसे ज़्यादा जनसमर्थन है लेकिन यह मानने की भूल नहीं करनी चाहिए कि सारे लोग बिना शंकाओं और आपत्तियों के यह समर्थन दे रहे हैं। इन शंकाओं और आपत्तियों के कई कारण पिछले छह माह में सिरिज़ा ने विशेष तौर पर मेहनतकश जनसमुदायों को दिये हैं।

पहले तो सिरिज़ा ने इस दलील के आधार पर धुर दक्षिणपंथी और अंधराष्ट्रवादी एनेल पार्टी के साथ साझा सरकार बनायी कि वह किफ़ायतसारी की नीतियों का दृढ़ता से विरोध करती है। लेकिन किफ़ायतसारी की नीतियों को तो सिरिज़ा सरकार ने ख़त्म ही नहीं किया, उल्टे आगे बढ़ाया! ऐसे में एनेल जैसी पार्टी के साथ गठबन्धन का क्या तुक था? इसके बाद 20 फरवरी को सिरिज़ा ने साम्राज्यवादी त्रयी के साथ नया समझौता किया जिसमें उसने पूरे कर्ज़ को वापस करने की प्रतिबद्धता जतायी और माना कि साम्राज्यवादी त्रयी द्वारा कर्ज़ के सही और न्यायपूर्ण होने का दावा सही है! ज़ाहिर है कि इसके बाद सिरिज़ा ने किफ़ायतसारी की नीतियों को न सिर्फ़ जारी रखने को सहमति दी बल्कि उसे और बढ़ाने पर भी रज़ामन्दी जतायी। नतीजतन, पिछले 5 माह में यूनान पर कर्ज़ का दबाव, बेरोज़गारी, मज़दूरी और पेंशन में कटौती, ग़रीबी और बेघरी में और भी ज़्यादा बढ़ोत्तरी हुई है। सिरिज़ा की सरकार साम्राज्यवादी त्रयी से नये समझौते की शर्तों पर कुछ समय तक कुछ प्रार्थनाएँ और निवेदन करती रही, लेकिन इन सभी को साम्राज्यवादी त्रयी ने नकार दिया।

इन प्रार्थनाओं और विनतियों के अलावा सिरिज़ा सरकार से जिन्होंने ज़्यादा उम्मीद रखी थी, वह बेज़ा ही रखी थी। सिरिज़ा ने कभी इस बात को नहीं छिपाया था कि वह यूरोपीय संघ और यूरो के लिए प्रतिबद्ध है। ज़ाहिर है कि सिरिज़ा सरकार किसी भी कीमत पर यूरोपीय संघ और यूरो के भीतर रहकर ही यूनान के लिए एक अच्छे सौदे की उम्मीद कर रही थी। इसके पीछे सिरिज़ा का यह बुनियादी विचारधारात्मक पूर्वाग्रह भी है कि समाजवाद की ऐतिहासिक पराजय हो चुकी है और पूँजीवाद में ही सुधार के रास्ते को आज़माया जाना चाहिए। कहने की ज़रूरत नहीं है कि सरकार चलाने और यूरोपीय संघ के साथ वार्ताओं के पाँच महीनों ने सिरिज़ा के इस बुनियादी विचारधारात्मक पूर्वाग्रह को डगमगा दिया है। यह अनायास नहीं है कि सिरिज़ा के भीतर भी इस समय उथल-पुथल मची हुई है। जनता के बीच स्वीकार्यता खो बैठने के डर के साथ सिरिज़ा में फूट की सम्भावना ने भी एलेक्सिस सिप्रास को जनमत संग्रह करवाने के लिए मजबूर किया है, हालाँकि इस जनमत संग्रह में एक शातिर दाँव भी खेला गया है, जिस पर हम आगे आयेंगे। लेकिन जनमत संग्रह के पहले आख़ि‍री कुछ दिनों में भी सिप्रास लगातार एंजेला मर्केल और आईएमएफ़ प्रमुख लगार्ड के पास अपनी प्रार्थनाएँ और विनतियाँ भेज रहे हैं कि नया बेलआउट पैकेज दे दिया जाय, अन्यथा मामला हाथ से निकल जायेगा और यूनान यूरोपीय संघ व यूरो से बाहर भी जा सकता है। ज़ाहिर है कि सिप्रास न सिर्फ़ पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के अतिक्रमण को अव्यावहारिक मानते हैं बल्कि वह इस दायरे के भीतर भी यूरोपीय संघ-आईएमएफ़-ईसीबी के वर्चस्व के मातहत ही रहना चाहते हैं और अन्य उपलब्ध विकल्प नहीं आजमाना चाहते।

यूनानी वित्त मन्त्री यिआनिस वारूफ़ाकिस ने, जो कि अपने आपको “सनकी मार्क्सवादी” कहते हैं (!), सिरिज़ा सरकार के गठन के बाद ही कह दिया था कि यूनान अपना पूरा कर्ज़ चुकायेगा और अपने ऋणदाताओं को निराश नहीं करेगा। यूनान ने मई में इस प्रतिबद्धता पर अमल भी किया और आख़ि‍री तिथि आने के एक दिन पहले ही किश्त का भुगतान करते हुए 7500 लाख यूरो का भुगतान किया। देश का सरकारी ख़ज़ाना तो पहले ही बुरी हालत में था, तो ऐसे में सिरिज़ा सरकार ने यह भुगतान किया कैसे? 1951 के एक दमनकारी कानून का इस्तेमाल करके! इस कानून के मुताबिक सरकार तमाम सार्वजनिक मदों को ख़ाली कर सकती है। इस दमनकारी कानून का इस्तेमाल कर सिरिज़ा सरकार ने राजकीय स्वास्थ्य बीमा, जल व विद्युत आपूर्ति के मद की राशि को हड़प लिया और इसके ज़रिये 3 अरब यूरो इकट्ठा किये। लेकिन कुल कर्ज़ उस समय तक 300 अरब यूरो हो चुका था! ज़ाहिर है, इस अन्यायपूर्ण और अनुचित तरीके से राशि एकत्र करके भी सिरिज़ा के पास कर्ज़ चुकता करने की रकम नहीं थी। मई के बाद के तीन महीनों में ही इस कर्ज़ के भुगतान की किश्तों में यूनान को 17 अरब यूरो का भुगतान करना था। लेकिन सिरिज़ा सरकार द्वारा जनता के पैसों को निचोड़कर साम्राज्यवादियों को इस तरह से सौंपा जाना सिरिज़ा सरकार के बारे में भी काफ़ी-कुछ बताता है क्योंकि उसके इस कदम से यूनान साम्राज्यवादी त्रयी पर और ज़्यादा निर्भर हो गया। सिरिज़ा को उम्मीद थी कि अगर वह शुरुआती महीनों में ही इस प्रकार की आज्ञाकारिता दिखलायेगी तो यूरोपीय संघ यूनान के प्रति कुछ नरमी बरतेगा, बेलआउट की शर्तों में कुछ छूट देगा और शायद कर्ज़ में भी कुछ कटौती करे। लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा! यूरोपीय संघ ने जून में नये बेलआउट के लिए और भी ज़्यादा मुश्किल शर्तें रखी हैं जिसमें मज़दूरी की दर को नीचे करने, श्रम बाज़ार के और ज़्यादा विनियमन, पेंशनों में कटौती भी शामिल है। ज्ञात हो कि सिरिज़ा सरकार ने पहले ही श्रम बाज़ारों को साम्राज्यवादी त्रयी के निर्देश पर लचीला बना दिया था और तमाम ट्रेड यूनियनों को “कुशलता” बढ़ाने वाले उपकरणों में तब्दील कर दिया था। लेकिन असाध्य संकट से बौखलाये साम्राज्यवादियों की हवस महज़ इतने से पूरी नहीं होने वाली थी। इसलिए जून में साम्राज्यवादी त्रयी ने शर्त रखी कि आगे के बेलआउट पैकेज के लिए यूनान को अपनी सेवानिवृत्ति आयु को बढ़ाकर 67 वर्ष करना होगा, सेवानिवृत्ति लाभ में भारी कटौती करनी होगी और इसे 487 यूरो से घटाकर 320 यूरो करना होगा, कार्यदिवस की लम्बाई को बढ़ाना होगा! सिरिज़ा सरकार जानती है कि वह जिस प्रकार की सुधारवादी-लोकरंजकतावादी राजनीति कर रही है उसके दायरे में ये कदम उठा पाना अब सम्भव नहीं रह गया था। इन कदमों को उठाने का अर्थ था सिरिज़ा के भीतर अपेक्षाकृत ज़्यादा वाम पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले हिस्सों की बग़ावत और साथ ही जनता के बीच भी विस्फोट, जिसके कुछ शुरुआती संकेत छात्रों और मज़दूरों के स्वतःस्फूर्त प्रदर्शनों में मिलने लगे थे। साम्राज्यवादी त्रयी की बात को न मानकर यूरोपीय संघ से बाहर जाने और यूरो से बाहर जाने का अर्थ यूनान में नये प्रकार से क्रान्तिकारी स्थिति के पैदा होने की सम्भावना है, जबकि यूरोपीय संघ और यूरो में बने रहने का अर्थ होगा एक दूसरे रूप में क्रान्तिकारी स्थिति का पैदा होना और सिरिज़ा की राजनीति का पूरी तरह बेनक़ाब हो जाना और विश्वसनीयता खो देना। ऐसे में, सिप्रास ने जनमत संग्रह का एलान करके एक जुआ खेला है क्योंकि वह भी जानता है कि अगर जनता यूरोपीय संघ की शर्तों पर बेलआउट को ‘हाँ’ कहती है, तो आने वाली तक़लीफ़ों के लिए वह किसी और को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकती और अगर वह ‘नहीं’ कहती है तो फिर सिप्रास यूरोपीय संघ के सामने मोलभाव करने की बेहतर स्थिति में होंगे क्योंकि याद रहे, इस जनमत संग्रह में यूरोपीय संघ और यूरो से बाहर जाने का प्रश्न उठाया ही नहीं गया है।

इससे पहले सिरिज़ा ने जर्मनी से द्वितीय विश्वयुद्ध के एवज़ में युद्ध क्षतिपूर्ति की माँग की थी, ताकि कर्ज़ के दबाव को कुछ समय के लिए टाला जा सके। यह रणनीति पूरी तरह से असफल साबित हुई। यह जुमलों की राजनीति थी जिसका कोई परिणाम नहीं निकलना था। लेकिन इस जुमले के पीछे की राजनीति को भी समझने की आवश्यकता है जो कि मज़दूर वर्ग के नज़रिये से बिल्कुल ग़लत है। यह एक राष्ट्रवादी नारा था जिससे कि सिरिज़ा एक दिखावटी आमूलगामिता के साथ यूनानी जनता के व्यापक हिस्से में अपनी स्वीकार्यता को बनाये रख सके। वास्तव में, सिरिज़ा के अन्य नारों का चरित्र भी अलग-अलग हदों तक राष्ट्रवादी है और उसकी तात्कालिक अपील का एक कारण यह भी है। लेकिन यूरोप में आज प्रश्न वर्ग का है, राष्ट्र का नहीं। सवाल साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध पूरे यूरोप के मज़दूर वर्ग को संगठित करने का है, न कि जर्मनी से युद्ध क्षति पूर्ति की माँग का। यह सिरिज़ा की संशोधनवादी लोकरंजक राजनीति का ही एक मुज़ाहिरा था।

यह भी ग़ौरतलब है कि सिरिज़ा सरकार के आने के बाद यूनान अभी भी नाटो में बना हुआ है। हालाँकि सिरिज़ा बीच-बीच में यूनान की रणनीतिक भू-राजनीतिक स्थिति का लाभ उठाने का प्रयास करते हुए दिखती है, लेकिन कुल मिलाकर यह अमेरिकी व यूरोपीय साम्राज्यवाद के पक्ष में खड़ी है। सिरिज़ा सरकार का नाटो का अंग बने रहना इसी की निशानी है। नाटो का अंग बने रहने का अर्थ यह भी है कि यूनान को अपने बजट का एक तय हिस्सा सैन्य तैयारियों पर ख़र्च करना होता है। यही कारण है कि सिप्रास ने हाल ही में टोही विमानों की मरम्मत के लिए 5000 लाख यूरो का ठेका दिया है। सिरिज़ा ने ‘आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध’ का हिस्सा बने रहने की इच्छा जतायी है और पूर्वी भूमध्य सागर के क्षेत्र पर केन्द्रित एक शिखर वार्ता में हाल ही में सिप्रास मिस्र के सैन्य तानाशाह अल सीसी के साथ गलबहियाँ करते हुए नज़र आये। यूनान के जल्दी ही एक ऐसी शिखर वार्ता में शामिल होने की भी चर्चाएँ चल रही हैं जिसमें इज़रायल पर साइप्रस हिस्सा लेंगे। यह शिखर वार्ता भूमध्य सागर के समुद्री संसाधनों के उपयोग पर केन्द्रित होगी। ज़ाहिर है, सिप्रास विश्व पूँजीवाद के मुखियों को यह दिखला देना चाहते हैं कि वह उनमें से ही एक हैं और उन्हें उनके प्रति सशंकित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।

इस जनमत संग्रह की घोषणा के पहले तक सिप्रास की सरकार यूनानी राज्यसत्ता के दमनकारी उपकरण को चाक-चौबन्द करने पर काफ़ी ध्यान दे रही थी और काफ़ी ख़र्च भी कर रही थी, वह भी एक ऐसे देश में जो कि दिवालिया होने की कगार पर है। दमनकारी तन्त्र को मज़बूत करने पर वित्त मन्त्री वारूफ़ाकिस ने कहा कि देश को वृद्धि की राजनीतिक कीमत तो चुकानी ही पड़ती है! सिप्रास ने कहा कि उनकी सरकार कानून और व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कोई भी कदम उठाने के लिए तैयार है! जन व्यवस्था मन्त्री यिआनिस पानूसिस पुलिस को एक ऐसे तन्त्र के रूप में रूपान्तरित करने की बात कर रहे हैं जो “महज़ देखरेख” न करे बल्कि ज़रूरत पड़ने पर “कार्रवाई भी कर सके”! यह मज़ाकिया बात है। यूनान के इतिहास में पुलिस कभी भी “महज़ देखरेख” करने वाला निकाय नहीं थी और यह हमेशा से ही, 1974 में तानाशाही ख़त्म होने के बाद भी, बेहद दमनकारी रही है। सिरिज़ा के आन के बाद भी पुलिस ने तमाम प्रदर्शनों में मज़दूरों और छात्रों से जैसा बर्ताव किया है, वही इसी तथ्य की गवाही देता है। ये सारे बयान दिखलाते हैं कि सिरिज़ा की सरकार राज्यसत्ता के दमनकारी तन्त्र को मज़दूर वर्ग के साथ भावी टकराव के लिए तैयार कर रही है। यही सिरिज़ा सरकार बनाने के पहले पुलिस राज्य को समाप्त करने और राज्यसत्ता को ही समाप्त करने की बात करती थी! लेकिन अब सरकार योजना बना रही है कि वह एक विशेष पुलिस बल तैयार करे जो कि प्रदर्शनों से निपटने में माहिर होगा और इस पुलिस बल को क्लब्स और पिस्तौलों से लैस करने की तैयारी की जा रही है! सिरिज़ा सरकार ने इस दमनकारी तन्त्र का थोड़ा-बहुत इस्तेमाल भी शुरू कर दिया था। पाँच माह के समझौतों के ख़िलाफ़ जनता के रोष को जगह-जगह फूटना स्वाभाविक था। सिरिज़ा सरकार इनसे कठोरता से निपट रही थी। एथेंस के तकनीकी विश्वविद्यालय को ज़बरन ख़ाली करवाया जाना इसका प्रातिनिधिक उदाहरण था।

जैसा कि हमने लिखा है, सिरिज़ा का शुरू से ही यह मानना रहा है कि पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ समाजवादी व्यवस्था और क्रान्ति का रास्ता ऐतिहासिक तौर पर असफल हो चुका है। सिरिज़ा के इस भरोसे का कारण उसके जन्म में भी देखा जा सकता है। सिरिज़ा दो धाराओं के साथ आने से बनी थीः पहला, यूरोकम्युनिस्ट पार्टी और संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टी। इन दोनों के साथ आने के बाद बीच में इनमें फूट पड़ी, लेकिन अन्ततः ये दोनों दुबारा साथ आ गयीं। सिरिज़ा (‘वाम का आमूलगामी गठबन्धन’) के बनने के साथ और भी विभिन्न रंगों और प्रकारों के ग्रुप इसमें शामिल हुए, जैसे कि पर्यावरणवादी, नारीवादी, सहकारवादी, विभिन्न प्रकार के ‘रैडिकल’ वामपंथी इत्यादि। लेकिन इन सभी समूहों में मुख्य तौर पर यूरोकम्युनिस्ट धड़ा और संशोधनवादी धड़ा विशेष तौर पर प्रभावी है। इन दोनों धड़ों के नेतृत्व में इन सारे समूहों के मिलने से संशोधनवादी वाम सुधारवाद का एक नया संस्करण तैयार हुआ है जिसमें तथाकथित नये सामाजिक आन्दोलन, सहकार आन्दोलन, सॉलिडैरिटी नेटवर्क आन्दोलन, उत्तरवामपंथ, नारीवाद आदि का एक विचित्र मिश्रण है। ऐसे में, सिरिज़ा का यूनान में पूँजीवाद के अन्तिम रक्षक के तौर पर उभरना स्वाभाविक था। यह साम्राज्यवाद के साथ एक बेहतर समझौते से ज़्यादा किसी चीज़ की बात नहीं करता है। लेकिन यहीं पर इसकी सीमा भी सामने आती है जो कि सिरिज़ा के मौजूदा संकट का कारण है। दरअसल, किफ़ायतसारी की नीतियों को थोपना और यूनानी मज़दूर वर्ग को लूटना यूरोपीय साम्राज्यवाद के लिए विचारधारात्मक विकल्प या चयन के मुद्दे नहीं हैं; आज के संकट के दौर में ये उसके लिए अपरिहार्य और अनिवार्य है! इसलिए सिरिज़ा का ‘तार्किक समझौता’ असम्भव है, इसका कोई अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। समझौता केवल साम्राज्यवाद की शर्तों पर ही हो सकता है। दूसरा विकल्प है समाजवाद और मज़दूर क्रान्ति, जो कि सिरिज़ा को स्वीकार नहीं है। इसलिए सिरिज़ा सरकार इस समय यूनान में पूँजीवाद के आखि़री चौकीदार के समान अपना आख़ि‍री संघर्ष कर रही है।

सिरिज़ा के भीतर मौजूद अन्तरविरोध

सिरिज़ा के भीतर इस समय मौजूदा संकट को लेकर दो धड़े मौजूद हैं। एक अलेक्सिस सिप्रास के नेतृत्व वाला धड़ा जो कि समझौतापरस्ती और व्यवहारवादी रास्ते को अख़्ति‍यार करने के पक्ष में है और दूसरा सिरिज़ा के भीतर के रैडिकल वाम का धड़ा जो कि यूरोपीय संघ और यूरो से बाहर जाने की वकालत कर रहा है। यूनान में बुर्जुआ वर्ग, विशेष तौर पर सबसे बड़े पूँजीपति घरानों, बैंकों और वित्तीय संस्थानों का एक बड़ा हिस्सा यूरोपीय संघ में रहना चाहता है और यूरो से भी बाहर नहीं जाना चाहता है। इसका एक कारण यह है कि यह यूनानी पूँजीवाद का वह अंग है जो कि वैश्विक वित्तीय तन्त्र के साथ ज़्यादा मज़बूती से समेकित है और उसे यूरोपीय संघ से बाहर जाना और भविष्य में किसी और साम्राज्यवादी धुरी के साथ नत्थी होने का विकल्प उसे बहुत जोखिम भरा लग रहा है। इसके अतिरिक्त भी ऐतिहासिक तौर पर इस पूँजीपति वर्ग के आर्थिक तार करीबी से यूरोपीय संघ के अग्रणी देशों से जुड़े हुए हैं। लेकिन यूनानी बुर्जुआ वर्ग का एक दूसरा अच्छे-ख़ासे आकार वाला हिस्सा भी है जो कि यूरोपीय संघ और यूरो से बाहर होना चाहता है। यह हिस्सा यूनान की मूल मुद्रा द्राख़्मा को वापस लाना चाहता है और साथ ही यूनान के ऋण की समस्या को मौद्रिक लचीलेपन या दूसरे शब्दों में कहें तो नोट छापकर हल करना चाहता है। इस दूसरे विकल्प का नतीजा यह होगा कि ऋण तो चुकता हो जायेगा और साथ ही पर्यटन के सस्ते हो जाने के कारण यूनान की पर्यटन से आय भी बढ़ेगी, लेकिन साथ ही कीमतें आसमान छूने लगेंगी, श्रम और सस्ता होगा क्योंकि वास्तविक आय में गिरावट आयेगी। इससे यूनान के पूँजीपति वर्ग के इस हिस्से को लाभ पहुँचेगा क्योंकि यूनानी पूँजीवाद वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा में ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी बनेगा। कुल मिलाकर, इस कदम से भी यूनान के पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को ही फ़ायदा पहुँचेगा। इस रास्ते से अगर बैंकों का राष्ट्रीकरण भी होगा तो उसका लाभ इस पूँजीपति वर्ग को ही मिलेगा क्योंकि राज्य उसके लिए सहज उपलब्ध वित्त मुहैया करायेगा। इससे केवल तात्कालिक और प्रतीतिगत समस्या का एक क्षणिक हल होगा और यूनान एक अलग किस्म के संकट के भँवर में फँसेगा। हालाँकि, यह वामपंथी धड़ा कई कीन्सीय नुस्खों, यानी कि कल्याणकारी नीतियों को लागू करने का प्रस्ताव भी रख रहा है। लेकिन यूरोज़ोन से बाहर आने के बाद यूनान के पूँजीपति वर्ग के सामने जो संचय का संकट होगा वह ऐसी कल्याणकारी नीतियों का ख़र्च उठाने की कितनी इजाज़त देगा यह कहना मुश्किल है। कुल मिलाकर, अगर रैडिकल वाम धड़े का रास्ता अपनाया जाता है तो भी कुछ समय बाद दूसरे रास्ते संकट एक नये रूप में उपस्थित होगा ही। कारण यह है कि इस समय यूनान की समस्याओं का समाधान सिर्फ़ और सिर्फ़ मज़दूर क्रान्ति के ज़रिये समाजवादी व्यवस्था की स्थापना, सभी उद्योगों, खानों-खदानों, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण ही है और सिरिज़ा में व्यवहारवादी सिप्रास धड़ा हावी हो या फिर रैडिकल वाम धड़ा, समस्या का समाधान नहीं हो सकता है।

सिरिज़ा के भीतर का वामपंथी धड़ा अच्छी-ख़ासी ताक़त रखता है। 2013 में हुए सम्मेलन में इस धड़े को 60 सीटों पर जीत मिली थी और 30 सांसद इसी धड़े से सम्बन्ध रखते हैं। यूरो ज़ोन से अलग होने, किफ़ायतसारी की थोपी गयी नीतियों को रद्द करने के प्रश्न पर 23-24 मई को सिरिज़ा की केन्द्रीय कमेटी की बैठक में हुई वोटिंग में यह हिस्सा हारा ज़रूर लेकिन केवल 95-75 के अन्तर से, जो दिखलाता है कि सिप्रास इस धड़े को नज़रन्दाज़ करके कोई नीति निर्माण नहीं कर सकते हैं। सिप्रास अगर यूरोपीय संघ के सामने घुटने टेकने की नीति को और जारी रखते, तो जनता के हिंस्र विस्फोट तो होते ही, लेकिन साथ ही सिरिज़ा में भी फूट पड़ जाती। इसलिए जनमत संग्रह का एलान सिप्रास के लिए बाध्यता का मसला था, चयन का नहीं। हालाँकि सिप्रास ने इसमें भी चालाकी करते हुए बेलआउट की साम्राज्यवादी त्रयी की शर्तों और सिरिज़ा द्वारा प्रस्तावित शर्तों में से एक को चुनने के लिए कहा है। यह दीगर बात है कि वास्तव में यह जनमत संग्रह बेलआउट को स्वीकार करने और नकार देने का जनमत संग्रह ही बन जायेगा क्योंकि सिरिज़ा की शर्तों पर बेलआउट को यूरोपीय संघ और आई.एम.एफ़. कभी स्वीकार नहीं करेंगे और उस सूरत में मामले की सुई फिर से उसी जगह आकर अटक जायेगी।

इस तरह से सिरिज़ा के इन दोनों धड़ों के बीच का अन्तरविरोध किसी भी रूप में पूँजीवाद के अतिक्रमण और समाजवादी क्रान्ति की बात नहीं कर रहा है। इन दोनों ही धड़ों के रास्ते दो अलग किस्म के पूँजीवादी रास्तों की बात कर रहे हैं जो आज यूनानी मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश समुदायों की समस्या का कोई हल नहीं पेश कर सकते हैं। निश्चित तौर पर, कोई भी प्रगतिशील व्यक्ति यही चाहेगा कि 5 जुलाई के जनमत सर्वेक्षण में यूनानी जनता यूरोपीय संघ, आई.एम.एफ़. और ई.सी.बी. की शर्तों वाले बेलआउट के प्रस्ताव को नकार दे क्योंकि इससे यूनान में अन्तरविरोधों का क्रान्तिकारी दिशा में विकास होगा। लेकिन यह क्रान्तिकारी स्थिति स्वयं क्रान्ति में तब्दील नहीं हो सकती है। इसे क्रान्ति में तब्दील करने के लिए एक हिरावल पार्टी की आवश्यकता है। यूनान में क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी और कई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ग्रुप मौजूद हैं। लेकिन उनकी समेकित शक्ति भी अभी काफ़ी कमज़ोर है। ऐसे में यूनान में आने वाले कुछ हफ्तों में क्या होगा यह वाकई दिलचस्प होगा और एक रूप में यह ऐतिहासिक महत्व रखता है।

एक तीसरी सम्भावना भी है। मध्यमार्गी दक्षिणपंथी पार्टी न्यू डेमोक्रेसी ने सिप्रास के सामने ‘राष्ट्रीय आम सहमति की संक्रमणकालीन सरकार’ बनाने का प्रस्ताव रखा है। अगर सिरिज़ा में फूट पड़ती है और सिप्रास का धड़ा अलग होता है तो वह न्यू डेमोक्रेसी के साथ मिलकर ऐसी सरकार बना सकता है। ज़ाहिर है, यह सरकार एक संसदीय तानाशाही का प्रतिनिधित्व करेगी। सिप्रास ऐसा नहीं कर सकते, इसके प्रमाण मौजूद नहीं हैं। उल्टे सिप्रास की सरकार ने कई ऐसे नौकरशाहों को अहम पद अपनी सरकार में सौंपे हैं जो कि समारास की न्यू डेमोक्रेसी सरकार के सबसे कुख्यात चेहरे थे। सिप्रास का तर्क यह था कि उन्हें सिर्फ़ इसलिए ये पद दिये गये हैं क्योंकि वे कुशल प्रशासक हैं! ऐसे में, अगर सिप्रास को कल न्यू डेमोक्रेसी के रूप में एक कुशल सहयोगी नज़र आने लगे जो कि यूनान में पूँजीवाद की रक्षा में उनकी मदद करे, तो कोई ताज्जुब की बात नहीं होनी चाहिए। वैसे भी सिप्रास चुनाव के पहले के अपने तमाम वायदों से मुकर चुके हैं। ग़ौरतलब है कि चुनाव से पहले सिप्रास ने जो कार्यक्रम जनता के सामने पेश किया था उसमें बैंकों और बड़े उद्योगों का राष्ट्रीयकरण, सामाजिक कल्याण की नीतियों को लागू करना आदि भी शामिल था। पिछले पाँच माह में सिप्रास की सरकार ने इस दिशा में कोई कदम उठाने की बजाय समारास सरकार की नीतियों को ही बदले हुए जुमले और छोटे-मोटे बदलावों के साथ जारी रखा है।

यूनान पर साम्राज्‍यवादी ऋण किस प्रकार अन्‍यायपूर्ण है?

यूनान का तथाकथित सम्प्रभु ऋण संकट वास्तव में वैश्विक साम्राज्यवादी संकट की ही अभिव्यक्ति है। यह सम्प्रभु ऋण संकट है ही नहीं, बल्कि निजी बैंकों का ऋण संकट है। 2008-9 में अमेरिकी सबप्राइम संकट के चरम पर पहुँचने के साथ यूरोप के तमाम देशों के बैंक और वित्तीय संस्थाएँ धराशायी होने लगीं। यूनान में भी तमाम बैंकों ने पाया कि उन्होंने जो ‘कोलैटरल डेट ऑब्लिगेशन’ पैकेज ख़रीदे थे उनमें तमाम बुरे ऋण शामिल थे। अमेरिका में आवास बुलबुले के फूटने के साथ जब डिफॉल्ट शुरू हुए तो उसका ‘चेन रिएक्शन’ यूनान समेत सभी यूरोपीय देशों में भी हुआ और विशेष तौर पर उन देशों में हुआ जिन पर पहले से काफ़ी ऋण लदा हुआ था। यानी कि दक्षिणी यूरोप के तमाम देश। यह ऋण संकट पूँजीवादी अतिउत्पादन के संकट की ही एक अभिव्यक्ति है, जिससे कि पूँजीवाद ऋण-वित्त पोषित उपभोग द्वारा निपटने का प्रयास कर रहा था। क्रेडिट कार्ड ऋण और अन्य ऋणों के ज़रिये तात्कालिक तौर पर किसी एक सेक्टर में बुलबुले को फुलाया जाता है और कृत्रिम माँग पैदा करके उपभोग को बढ़ावा दिया जाता है। लेकिन ऋण को अन्त में चुकता करना ही होता है! ऋण लेने वालों की जमात में पहले अच्छी माली हालत वाले लोग ही थे और डिफॉल्ट का जोखिम आज के मुकाबले कम होता था। लेकिन यह ऋण बाज़ार कालान्तर में सन्तृप्त हो गया और इसे विस्तारित करने की आवश्यकता पैदा हुई। इसी के लिए सबप्राइम ऋण के उपकरण को ईजाद किया गया और इसे वित्तीय बाज़ारों के ‘लोकतान्त्रीकरण’ का नाम दिया गया। यह वह ऋण था जो शून्य बैंक बैलेंस वाले व्यक्ति को भी दिया जा सकता था और इसमें कई बार पहले छह माह तक किश्तें चुकाने से छूट भी दी जाती थी। लेकिन साथ ही इसमें ब्याज़ दरें कई बार 30 प्रतिशत तक होती थीं ताकि डिफॉल्ट होने से पहले ही कुछ ही किश्तों में मूल धन से कुछ अधिक की प्राप्ति कर ली जाय। लेकिन ज़ाहिरा तौर पर जब ये ऋण बेहद व्यापक पैमाने पर दिये गये तो एक अच्छी-ख़ासी आबादी पहली-दूसरी किश्त देने में भी अक्षम साबित हुई। और इसी के साथ शुरू हुआ डिफॉल्ट और नीलामी का सिलसिला। लेकिन अब बाज़ार में इन घरों के पर्याप्त ख़रीदार ही नहीं थे। नतीजा था तरलता का संकट। बैंकों के पास अपने खाता धारकों को पैसा देने के लिए भी धन नहीं बचा क्योंकि उनकी पूँजी घरों और कारों में फँस चुकी थी। यहीं से बैंकों का धड़ाधड़ धराशायी होना शुरू हुआ। जो पूँजीपति वर्ग पहले सरकार के हस्तक्षेप को कुफ्र मानता था, जो इस नवउदारवादी सिद्धान्त (जो कि वास्तव में दो सौ साल से भी ज़्यादा पुराना सिद्धान्त है जिसे जे.बी. से नामक अर्थशास्त्री ने दिया था और इसे ‘सेज़ लॉ’ के नाम से भी जाना जाता है) को मानता था कि बाज़ार को अगर बिना किसी हस्तक्षेप के छोड़ दिया जाय तो उसमें माँग और आपूर्ति स्वतः एक-दूसरे को सन्तुलित करते रहते हैं, वह अब दौड़ा-दौड़ा सरकार के पास पहुँचा और उससे बचाव पैकेज देने और जनता के धन, यानी कि कराधान से एकत्र सरकारी ख़ज़ाने से बैंकों और वित्तीय जुआघरों को बचाने के लिए दबाव डालने लगा। इन्हीं पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली सरकारों को यही करना भी था। इसी के साथ दुनिया भर के तमाम देशों में स्टिम्युलस पैकेज, बेलआउट पैकेज आदि दिये गये और सार्वजनिक ख़र्चों में कटौती करके (किफ़ायतसारी!) और सार्वजनिक ख़जानों को ख़ाली करके कैसीनो अर्थव्यवस्था को बचाने का प्रयास किया गया।

यूनान में भी बैंकों को बचाने के लिए यही कदम उठाया गया लेकिन एक दूसरे रास्ते से। 2010 में पापैण्डरू की सामाजिक-जनवादी पासोक सरकार ने साज़िशाना तरीके से बैंकों की ऋण संकट को सरकार का ऋण संकट बना दिया। यह सच है कि यूनानी सरकार पर 1980 के दशक से ही ऋण बढ़ता रहा है। लेकिन यह प्रक्रिया यूरोप के अधिक उन्नत पूँजीवादी देशों में भी चली है। दूसरी बात यह कि यूनान में सार्वजनिक ऋण या सरकारी ऋण में बढ़ोत्तरी वास्तव में जनता द्वारा हुए ख़र्च या उपभोग के कारण नहीं हुई है, जो कि यूरोपीय संघ के कई देशों से काफ़ी कम था। यह बढ़ोत्तरी हुई है अतार्किक रूप से ऊँची ब्याज़ दरों के कारण। इसके अलावा, नाटो का अंग होने के कारण अत्यधिक सैन्य ख़र्च, काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था के द्वारा समृद्धि का देश के बाहर जाना, और निजी बैंकों को सरकार सहायता भी इस बढ़ते सरकारी ऋण का कारण थी। यूरो को अपनाने के बाद निजी ऋणों में ज़बर्दस्त बढ़ोत्तरी हुई और इसके कारण तमाम निजी बैंक (यूनानी भी और अन्य यूरोपीय बैंक भी) आने वाले वित्तीय जोखिम के सामने अत्यधिक अरक्षित होते गये। 2010 में पापैण्डरू सरकार ने बैंकों के ऋण संकट को सरकारी ऋण संकट में तब्दील करने के लिए बयान दिया कि यूनानी सरकार लम्बे अरसे से अपने ऋण के आकार का ग़लत आकलन पेश करती रही है और ऋण अब इतना बढ़ गया है कि सरकार को उसकी किश्तें चुकाने के लिए भी अपने कर्मचारियों का वेतन तक रोकना पड़ सकता है। इसके साथ ही 2010 यूनान के लिए यूरोपीय संघ, आई.एम.एफ़. और ई.सी.बी. की त्रयी ने बेलआउट पैकेज की शुरुआत की, लेकिन इस शर्त पर कि यूनान किफ़ायतसारी की नीतियों को लागू करेगा। यानी कि यूनानी सरकार सामाजिक मदों में होने वाले ख़र्चों में कटौती करेगी, पेंशन कम करेगी, मज़दूरी दरें कम करेगी, श्रम बाज़ार को लचीला बनायेगा, शिक्षा, चिकित्सा व सामाजिक सुरक्षा के मदों में भारी कटौती करेगी। 2010 से लेकर अब तक यूनान में जारी इन नीतियों ने पूरे यूनानी समाज को भयंकर तबाही, बरबादी, ग़रीब और बेरोज़गारी की ओर धकेला है और अब जनता का धैर्य जवाब दे रहा है। आर्थिक संकट अपने आपको सामाजिक और राजनीतिक संकट के रूप में अभिव्यक्त कर रहा है।

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

यूनान के समक्ष क्या विकल्प है?

एलेक्सिस सिप्रास ने जनमत संग्रह की घोषणा की है। 5 जुलाई को यह जनमत संग्रह होगा। लेकिन इसमें जनता मुक्त रूप से अपनी राय व्यक्त कर पायेगी इसकी उम्मीद कम है। कारण यह है कि यह जनमत संग्रह बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बिना करना ही व्यर्थ है। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बिना जनता के आर्थिक हालात पर साम्राज्यवादी नियन्त्रण बरकरार है। पेंशन, वेतन आदि के लिए लोग 30 जून की रात तक एटीएम मशीनों के सामने लाइन लगाये खड़े थे। यूरोपीय संघ और ईसीबी लगातार लोगों की बाँह मरोड़ रहे हैं और दूसरी ओर यूनानी जनता में एक प्रचार अभियान चला रहे हैं कि यूरोपीय संघ और यूरो से बाहर जाने का अर्थ होगा पूर्ण तबाही। ऐसे में, जनता मुक्त रूप से अपनी राय कैसे व्यक्त कर सकती है? जनता खुलकर और स्वतन्त्रता के साथ अपना वोट तब दे सकती है जब उसे ब्लैकमेल करने का कोई ‘लीवर’ यूरोपीय संघ और आईएमएफ़ के हाथ में न हो। लेकिन इस बात से वाकिफ़ होते हुए भी सिरिज़ा ने बिना बैंकों के राष्ट्रीयकरण के (जो कि उसका चुनावी वायदा भी था) जनमत संग्रह का एलान कर दिया। इसके बावजूद अभी भी जनता का बड़ा हिस्सा अभी तक इस जनमत संग्रह में साम्राज्यवादी त्रयी के बेलआउट पैकेज और शर्तों को नकारने के पक्ष में ही है। सिरिज़ा सरकार ने एक और चालाकी भी की है। उसने जनमत संग्रह में जो दो विकल्प पेश किये हैं उनमें यूरोज़ोन व यूरोपीय संघ से बाहर जाने का कोई विकल्प नहीं है! यानी कि सिरिज़ा के लिए अभी भी यह प्रश्न एजेण्डे पर ही नहीं है। दूसरा विकल्प यह है कि जनता सिरिज़ा सरकार द्वारा बनाये गये प्रस्ताव को चुने, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ेगा जब यूरोपीय संघ उसे स्वीकार ही नहीं करेगा? दूसरी बात यह है कि सिरिज़ा के प्रस्ताव में भी तमाम मज़दूर-विरोधी नीतियाँ प्रस्तावित हैं और उसमें तथा साम्राज्यवादी त्रयी के प्रस्ताव में महज़ परिमाणात्मक फर्क ही है। ऐसे में, जनमत संग्रह स्वयं एक प्रहसन ही साबित होगा। लेकिन चूँकि तमाम दबाव के कारण जनता ने इसमें ‘नहीं’ कहने का मन बनाया हुआ है, इसलिए सिप्रास की मुश्किलें यहाँ ख़त्म नहीं होतीं। इस बात की भी पूरी सम्भावना है कि सिप्रास आख़ि‍री मौके पर जनमत संग्रह के पहले ही यूरोपीय संघ के सामने घुटने टेक दें और उनकी माँगों को स्वीकार कर लें। लेकिन उसके बाद सिरिज़ा पार्टी और उसकी सरकार का भविष्य अधर में पड़ेगा। क्योंकि बेहद जल्द ही जनता के बीच से सिरिज़ा की इस ग़द्दारी के ख़िलाफ़ हिंस्र प्रतिक्रिया सामने आयेगी। यानी कि सिरिज़ा के सामने इस संकट के समाधान का कोई रास्ता नहीं है, चाहे वह जनमत संग्रह करवाये या न करवाये।

सिरिज़ा के रैडिकल वाम धड़े का विकल्प भी कोई विकल्प नहीं है, जैसा कि हम ऊपर दिखला चुके हैं। यह धड़ा बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बात तो कर रहा है मगर यह समूची अर्थव्यवस्था के मज़दूर नियन्त्रण और समाजवादी नियोजन की बात नहीं कर रहा है। यह राष्ट्रवादी बुर्जुआ वर्ग की आकांक्षाओं की नुमाइन्दगी करते हुए यूरोपीय संघ व यूरो से बाहर आने, द्राख़्मा की पुनर्स्थापना करने, बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने की बात कर रहा है। यह धड़ा ऋण को रद्द करने की बात भी नहीं कर रहा है, जो कि एक न्यायपूर्ण नारा होता। यह केवल यूरोपीय संघ और यूरो से बाहर यूनानी पूँजीवाद का एक अलग रास्ता पेश कर रहा है। अगर यूनान इस रास्ते पर चलता और और आगे चलकर रूस-चीन धुरी की तरफ़ झुकता है तो निश्चित तौर पर साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध तीखे होंगे लेकिन यूनान के पैमाने पर समस्याओं का हल इस रास्ते से नहीं निकलने वाला है। यह भी हो सकता है कि अगर यह धड़ा देश में सत्ता में काबिज़ होता है और अपने रास्ते पर अमल करता है तो यूरोपीय संघ की साम्राज्यवादी ताक़तें अमेरिकी सहयोग के साथ यूनान में कोई सैन्य तख़्तापलट करवाने का प्रयास करें। जो भी हो सिरिज़ा के रैडिकल वाम धड़े के पास भी यूनान के व्यवस्थागत संकट का कोई समाधान नहीं है क्योंकि वह भी पूँजीवाद के सीमान्त का अतिक्रमण नहीं करना चाहता है।

आज यूनान के संकट का केवल एक समाधान है और वह है मज़दूर क्रान्ति और समाजवादी व्यवस्था। तात्कालिक तौर पर यूरोज़ोन व यूरोपीय संघ से बाहर आने से अपने आप में कोई समस्या हल नहीं होती बशर्ते कि उसमें निम्न चीज़ें शामिल न हों : पहला, सभी साम्राज्यवादी कर्जों को रद्द करना; दूसरा, सभी बैंकों व वित्तीय संस्थानों के साथ-साथ सभी उद्योगों का राष्ट्रीयकरण और उन्हें मज़दूर नियन्त्रण के मातहत रखा जाना; तीसरा, राज्यसत्ता पर मज़दूर वर्ग का नियन्त्रण। इन तीन चीज़ों के बिना महज़ यूरोज़ोन व यूरोपीय संघ से बाहर आने से कुछ भी नहीं होगा, केवल साम्राज्यवाद के आन्तरिक समीकरणों में कुछ फर्क आ जायेगा। यह कार्यभार केवल एक ही सूरत में पूरा हो सकता हैः एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के ज़रिये जो कि मज़दूर वर्ग की बिखरी शक्तियों को संगठित कर सके और पूँजीवाद पर निर्णायक प्रहार कर सके। यूनान में मज़दूर आन्दोलन में भी एक ठहराव की स्थिति है। मज़दूर वर्ग के स्वतःस्फूर्त आन्दोलन तो होते रहे हैं और आगे भी होंगे। लेकिन संशोधनवादी नेतृत्व वाली ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग को धोखा देने का काम कर रही हैं। संकट की शुरुआत के बाद से इन ट्रेड यूनियनों ने कई बार प्रतीकात्मक आम हड़तालें की हैं। लेकिन एक-दो दिनों की ये प्रतीकात्मक आम हड़तालें वास्तव में मज़दूर वर्ग के गुस्से और असन्तोष को क्रमिक प्रक्रिया में निकालने का ही काम करती रही हैं। आज की ज़रूरत है यूनान में एक अनिश्चितकालीन आम हड़ताल। यानी आर्थिक हड़तालों से राजनीतिक हड़ताल की ओर। लेकिन ऐसी राजनीतिक आम हड़ताल को संगठित करने के लिए मज़दूर वर्ग की जिस हिरावल अगुवा ताक़त की ज़रूरत है, अभी फिलहाल ऐसी कोई ताक़त यूनान में नज़र नहीं आ रही है। लेकिन यह भी सही है कि यूनान में ऐसी ताक़त के संगठित होने की सम्भावना मध्य-पूर्व के देशों, विशेषकर मिस्र के मुकाबले कुछ ज़्यादा है। साथ ही, अगर ऐसी कोई ताक़त संगठित होकर यूनान को राजनीतिक आम हड़ताल और आम बग़ावत के रास्ते मज़दूर क्रान्ति तक ले जा सकी, तो उसके टिक पाने की क्षमता भी कुछ अर्थों में यूनान में ज़्यादा है। लेकिन अगर क्रान्तिकारी स्थिति यूनान में बेहद करीब है और अगर तब तक कोई ऐसी ताक़त संगठित नहीं हो सकी तो यूनानी त्रसदी का अन्तिम अध्याय, उसका भरतवाक्य फिर से एक ऐतिहासिक खेद के रूप में ख़त्म होगा। दुनिया के मज़दूर आन्दोलन और इतिहास की निगाहें आज यूनान में इस सम्भावना के वास्तविकता में तब्दील होने पर टिकी हुई हैं।

(1 जुलाई, 2015)

दिशा सन्धान – अंक 3  (अक्टूबर-दिसम्बर 2015) में प्रकाशित

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