एन.जी.ओ. : साम्राज्यवाद के चाकर
- जेम्स पेत्रास और हेनरी वेल्तमेयर
जेम्स पेत्रास स्टेट युनिवर्सिटी आफ न्यूयार्क, बिंघमटन में समाजशास्त्र के प्रोफेसर एमेरिटस तथा सेण्ट मैरी’ज़ युनिवर्सिटी, हेलीफैक्स, कनाडा में अन्तरराष्ट्रीय विकास अध्ययन के एडजंक्ट प्रोफेसर हैं। उन्होंने लातिनी अमेरिका, तीसरी दुनिया के देशों तथा वैश्विक विकास पर 36 पुस्तकें तथा 300 से अधिक लेख लिखे हैं।
हेनरी वेल्तमेयर युनिवर्सिडाड आटोनोमा डि ज़काटेकास, मेक्सिको में समाजशास्त्र तथा अन्तरराष्ट्रीय विकास अध्ययन के प्रोफेसर हैं। उन्होंने कनाडा के राजनीतिक अर्थशास्त्र और लातिनी अमेरिका मेें विकास के मुद्दों पर कई पुस्तकें लिखी हैं।
यह लेख उनकी नई पुस्तक ‘ग्लोबलाइजेशन अनमास्क्ड’ से लिया गया है।
पूरे इतिहास में, मुट्ठीभर अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने वाले शासक वर्ग अपनी सत्ता, मुनाफे और विशेषाधिकारों की हिफाजत के लिए राज्यतंत्र और सामाजिक संस्थाओं पर निर्भर करते रहे हैं। विगत में, विशेषतया तीसरी दुनिया में, साम्राज्यवादी शासक वर्गों ने शोषित जनता को नियंत्रित करने और उनके असन्तोष को धार्मिक व साम्पद्रायिक प्रतिद्वन्द्विताओं एवं संघर्षों की ओर मोड़ देने के लिए विदेशी और स्थानीय धार्मिक संस्थाओं को वित्तपोषण एवं सहारा दिया।
यद्यपि यह काम आज भी जारी है, पर हाल के दशकों में एक नई सामाजिक संस्था उभरी है जो नियंत्रण और वैचारिक भ्रमजाल फैलाने के उसी काम को बखूबी पूरा कर रही है-ये हैं तथाकथित ‘‘गैर सरकारी संस्थाएं’’ (एन.जी.ओ.-यह नाम भी इन्होंने ही खुद को दिया है)। आज कम से कम 50,000 एन.जी.ओ. (और उनकी अनगिनत शाखाएं– प्रशाखाएं–उपशाखाएं-सं–) पूरी तीसरी दुनिया में छाये हुए हैं और अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं, यूरोपीय, अमेरिकी तथा जापानी सरकारी एजेंसियों तथा स्थानीय सरकारों से फंड के रूप में कुल 10 अरब डालर से अधिक प्राप्त कर रहे हैं। कई विशालकाय एन.जी.ओ. के मैनेजर करोड़ों डालर का बजट संचालित करते हैं और किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के सी.ई.ओ. के बराबर वेतन और सुविधाएं प्राप्त करते हैं। वे अन्तरराष्ट्रीय कांफ्रेंसों में भाग लेने के लिए हवाई यात्राएं करते हैं, चोटी के औद्योगिक और वित्तीय डायरेक्टरों के साथ बैठकें करते हैं और ऐसे नीतिगत फैसले लेते हैं जो कि लाखों लोगों, विशेषतया गरीबों, महिलाओं और असंगठित क्षेत्र में लगे मेहनतकशों को प्रभावित करते हैं-अधिसंख्य मामलों में उन्हें हानिकारक रूप से प्रभावित करते हैं।
एन.जी.ओ. विश्वव्यापी राजनीतिक और सामाजिक मंच पर बहुत प्रभावशाली भूमिका निभा रहे हैं। वे एशिया, लातिनी अमेरिका और अफ्रीका के ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में कार्य करते हैं तथा यूरोप, अमेरिका और जापान में स्थित अपने प्रमुख दाताओं के साथ मातहती भूमिका में निरन्तर जुड़े रहते हैं। यह एन.जी.ओ. की व्यापक पैठ और तथाकथित ‘‘प्रगतिशील विश्व’’ के ऊपर उनकी आर्थिक और राजनीतिक ताकत का ही एक लक्षण है कि उनके नकारात्मक प्रभावों की सुसंगत वामपंथी आलोचना बहुत कम हुई है। वृहत्तर रूप में यह विफलता संगठित वामपंथी आन्दोलनों को विस्थापित और बरबाद करने तथा उनके बुद्धिजीवी रणनीतिकारों एवं सांगठनिक अगुआओं को फोड़ लेने में एन.जी.ओ. की सफलता का भी परिणाम है।
आज ज्यादातर वामपंथी आन्दोलन और जनप्रवक्ता अपनी आलोचना का निशाना आई.एम.एफ., विश्वबैंक, बहुराष्ट्रीय निगमों, प्राइवेट बैंकों आदि को बनाते हैं जो कि तीसरी दुनिया की लूट का वृहत–आर्थिक एजेण्डा निर्धारित करते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। लेकिन तीसरी दुनिया के औद्योगिक आधार, स्वतंत्रता और जीवनस्तरों पर हमला वृहत–आर्थिक तथा सूक्ष्म–सामाजिक–राजनीतिक, दोनों धरातलों पर हो रहा है। मजदूरों, वेतनभोगी मेहनतकशों, किसानों तथा छोटे–मोटे कारोबार करने वाले लोगों पर ढांचागत समायोजन की नीतियों के भयावह परिणाम राष्ट्रव्यापी जन–असन्तोष पैदा कर रहे हैं। और यहीं एन.जी.ओ. सामने आते हैं जो लोगों को पट्टी पढ़ाकर इस असन्तोष को कारपोरेट/बैंकिंग सत्ता संरचनाओं और मुनाफों पर सीधे हमले से हटाकर स्थानीय माइक्रो–प्रोजेक्टों, गैर–राजनीतिक ‘‘ग्रासरूटी’’ स्व–शोषण और ‘‘लोक–शिक्षा’’ की ओर मोड़ देते हैं जिसमें साम्राज्यवादी और पूंजीवादी मुनाफाखोरी के वर्गीय विश्लेषण के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती।
महत्त्वाकांक्षी शिक्षित वर्गों की ऊर्ध्वमुखी गतिशीलता के लिए दुनियाभर में एनजीओ आज नवीनतम वाहन बन चुके हैं। बड़ी संख्या में अकादमिकों, पत्रकारों और स्वतंत्र पेशा व्यक्तियों ने एनजीओ के साथ लगकर फलदायी कैरियर बनाने के लिए वामपंथी आन्दोलन से मुंह मोड़ लिया, जहां जाहिर है, उन्हें कोई खास भौतिक लाभ नहीं मिल पाता था। वे अपने साथ संगठनात्मक और वाग्मितापूर्ण कौशल तथा एक खास लोकप्रियतावादी शब्दावली लेकर आये। आज हजारों एनजीओ डायरेक्टर अपने फैशनेबल उपनगरीय आवासों या अपार्टमेण्ट्स से अपने सुसज्जित दफ्तरों और बिल्डिंग काम्प्लेक्सों में 40,000 डालर की स्पोर्टस कार में सवार होकर जाते हैं और अपने बच्चों तथा घरेलू कामकाज को नौकरों और बागीचे को माली की देखरेख में छोड़ जाते हैं। वे अपने देश के धूल–कीचड़ भरे गांवों के मुकाबले गरीबी पर होने वाले अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों के आयोजन स्थलों (वाशिंगटन, बैंकाक, टोक्यो, ब्रसेल्स, रोम, आदि) से ज्यादा वाकिफ होते हैं और अपना ज्यादा समय भी वहीं गुजारते हैं। वे कम वेतन के विरुद्ध ग्रामीण शिक्षकों के प्रदर्शन पर धावा बोलती पुलिस की लाठी सर पर खाने का जोखिम उठाने के बजाय ‘‘योग्य प्रोफेशनलों’’ को नकद नारायण उपलब्ध कराने के नये–नये प्रस्ताव बनाने में ज्यादा प्रवीण होते हैं। एनजीओ के चौधरियों का समूह एक नया वर्ग है जो सम्पत्ति के स्वामित्व अथवा सरकारी संसाधनों पर नहीं आधारित है बल्कि साम्राज्यवादी फण्डों और महत्त्वपूर्ण जनसमूहों को नियंत्रित करने की खुद की क्षमता से उत्पन्न हुआ है। एनजीओ चौधरियों को एक नये प्रकार के कम्प्राडोर समूह (दलाल पूंजीपति) के रूप में समझा जा सकता है जो किसी भी उपयोगी वस्तु का उत्पादन नहीं करते बल्कि दाता देशों के लिए उपयोगी सेवाएं मुहैया कराते हैं; निजी लाभों के लिए अपने देश की गरीबी का सौदा करते हैं।
अपनी स्थिति की सफाई देने के लिए एनजीओ डायरेक्टरों द्वारा किये जाने वाले औपचारिक दावे-कि वे गरीबी, विषमता आदि से लड़ रहे हैं-स्वार्थपूर्ण और छद्मपूर्ण हैं। एनजीओ की बढ़त और आम जीवन–स्तरों की गिरावट में सीधा सम्बन्ध है : एनजीओ की संख्या में बढ़ोत्तरी ने ढांचागत बेरोजगारी अथवा किसानों के भारी पैमाने पर विस्थापन को कम नहीं किया है, और न ही असंगठित मेहनतकशों की बढ़ती हुई फौज के लिए जीवन–यापन योग्य मजदूरी–स्तर ही प्रदान किया है। एनजीओ ने जो किया है वह यह कि उसने प्रोफेशनलों का एक छोटा सा तबका तैयार किया जो विदेशी मुद्रा में आमदनी के बूते नव–उदारवादी अर्थव्यवस्था की उन तबाहियों से बच निकलते हैं जो उनके देश और आम लोगों को प्रभावित करती हैं, तथा वर्तमान सामाजिक वर्गीय ढांचे में ऊपर चढ़ने की सीढ़ी पा जाते हैं।
बहरहाल, यह असलियत एनजीओ संचालकों की उस छवि के बिल्कुल विपरीत है जो उन्होंने अपने लिए बना रखी है। उनकी प्रेस विज्ञप्तियों और सार्वजनिक बयानों के अनुसार, वे ‘‘निरंकुश राज्यसत्तावाद’’ और ‘‘बर्बर बाजार पूंजीवाद’’ के बीच एक ‘‘तीसरे रास्ते’’ का निरूपण करते हैं : वे खुद को ‘‘वैश्विक अर्थव्यवस्था’’ में उभरी दरारों में कार्यरत ‘‘सिविल सोसायटी’’ के हरावल बताते हैं। एनजीओ–सम्मेलनों में जो आम उद्देश्य हमेशा प्रतिध्वनित होता है, वह है ‘‘वैकल्पिक विकास।’’
‘‘सिविल सोसायटी’’ के बारे में तरह–तरह के शब्द और पदावलियां गढ़ना एक फिजूल की कसरत है। ‘‘सिविल सोसायटी’’ कोई एकीभूत निष्कलंक सत्ता नहीं है-यह उन वर्गों को मिलाकर बना है जिनके बीच बंटवारा आज जितना गहरा है उतना इस शताब्दी में पहले कभी नहीं था। सभ्य समाज में मेहनतकशों के खिलाफ अधिकांश भीषण अन्याय वैभवशाली बैंकरों द्वारा किये जाते हैं जो घरेलू कर्जों पर बेहिसाब ब्याज निचोड़ते हैं; भूस्वामियों द्वारा किये जाते हैं जो गरीब–किसानों को उनकी जगह–जमीन से उजाड़ देते हैं; और औद्योगिक पूंजीपतियों द्वारा किये जाते हैं जो बहुत ही कम मजदूरी पर कमरतोड़ मेहनत कराकर मजदूरों की रक्त–मज्जा निचोड़ डालते हैं। ‘‘सभ्य समाज’’ की बात करते समय एनजीओ संचालक उस प्रचण्ड वर्ग–विभाजन, वर्ग–शोषण और वर्ग–संघर्ष पर पर्दा डालते हैं जिसने मौजूदा ‘‘सभ्य समाज’’ को ध्रुवीकृत कर रखा है। विश्लेषण के स्तर पर निरर्थक और अस्पष्ट होते हुए भी ‘‘सभ्य समाज’’ की धारणा एनजीओ की पूंजीपतियों के साथ सांठ–गांठ को सुगम बनाती है जो उनकी संस्थाओं को वित्तपोषित करते हैं और उनके प्रोजेक्टों और अनुयायियों को उन बड़े व्यावसायिक हितों के अधीनस्थ बनाने की छूट देते हैं जो नव–उदारवादी अर्थव्यवस्थाओं को निर्देशित करते हैं। इसके अलावा एनजीओ संचालकों का ‘‘सभ्य समाज’’ सम्बन्धी शब्दाडम्बर सामाजिक सेवाएं प्रदान करने वाले व्यापक लोक–कार्यक्रमों और राजकीय संस्थानों पर आक्रमण करने का उपकरण भी बन जाता है। एनजीओ संचालक बड़े व्यवसायियों के ‘‘राज्यसत्तावाद’’–विरोधी शब्दाडम्बर में उनका साथ देते हैं-एक यह काम ‘‘सभ्य समाज’’ के नाम पर करता है और दूसरा ‘‘बाजार’’ के नाम पर-ताकि राजकीय संसाधनों का नये सिरे से बंटवारा किया जाये। निर्यात को सब्सिडी देने और वित्तीय जमानतों के निमित्त लोक विधियों को बढ़ाने के लिए पूंजीपतियों के ‘‘राज्यसत्तावाद–विरोध’’ का प्रयोग किया जाता है, जबकि एनजीओ संचालक ‘‘उप–ठेके’’ द्वारा थोड़े से लाभार्थियों को घटिया सेवा प्रदान कर एक छोटा हिस्सा हथियाने का प्रयास करते हैं।
एनजीओ संचालकों की नव परिवर्तनवादी ‘ग्रासरूटी’ नेताओं वाली छवि के विपरीत, वे वास्तव में ‘ग्रासरूटी’ प्रतिक्रियावादी हैं जो निजीकरण को ‘‘निचले स्तर से’’ प्रोत्साहित करते हुए और जनान्दोलनों को हतोत्साहित करते हुए और इस प्रकार प्रतिरोधों को समाप्त करते हुए अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आई.एम.एफ.) के कामों में सम्पूरक की भूमिका निभाते हैं।
इस प्रकार, सर्वत्रव्यापी एनजीओ वामपंथ के समक्ष एक गंभीर चुनौती खड़ा करते हैं जो उनके उद्गम, ढांचे और सिद्धान्त (आइडियालॉजी) के आलोचनात्मक–राजनीतिक विश्लेषण की मांग करता है।
एनजीओ का उद्गम, ढांचा और सिद्धान्त
एनजीओ राजनीति में एक अन्तरविरोधी भूमिका में दिखाई पड़ते हैं। एक तरफ तो वे तानाशाहियों और मानवाधिकारों के उल्लंघन की आलोचना करते हैं। दूसरी ओर, वे रैडिकल सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के साथ होड़ करते हुए जनान्दोलनों को प्रभावशाली नव–उदारवादी अभिजातों के साथ सहयोगपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा में मोड़ने का प्रयास करते हैं। वास्तव में, ये राजनीतिक अवस्थितियां इतनी अन्तरविरोधी नहीं हैं जितनी दिखाई देती हैं।
एनजीओ के विकास और संवर्द्धन का पिछले पच्चीस वर्षों का सर्वेक्षण करने से हम पाते हैं कि एनजीओ का आविर्भाव तीन घटनाक्रमों के समुच्चयों में हुआ। सबसे पहले यह एक सुरक्षित आश्रय के रूप में तानाशाही शासनों के दौरान अस्तित्व में आया जहां विभिन्न मतावलम्बी बुद्धिजीवी मानवाधिकार उल्लंघन के मुद्दे उठा सकते थे तथा कठोर आर्थिक कार्यक्रमों से पीड़ितों के लिए ‘‘राहत कार्यक्रम’’ (सर्वाइवल स्ट्रैटेजी) आयोजित कर सकते थे। लेकिन ये मानवतावादी एनजीओ इस बात के लिए सतर्क थे कि स्थानीय मानवाधिकारों को कुचलने में लगे अमेरिका और यूरोपीय देशों के कुकर्मों की पोल–पट्टी न खुल जाये या लोगों को निर्धन बनाने वाली ‘‘मुक्त–बाजार’’ नीतियों पर प्रश्नचिह्न न लगे। इस प्रकार एनजीओ रणनीतिक रूप से ‘‘डेमोक्रेट्स’’ के रूप में स्थापित किये गये जो दमनकारी स्थानीय शासकों के सम्मुख व्यापक जनान्दोलनों की गम्भीर चुनौती पेश होने पर शासक वर्गों और साम्राज्यवादी नीति–निर्धारकों के लिए राजनीतिक विकल्प के रूप में उपलब्ध रहते थे। आलोचकों के रूप में एनजीओ को दिया जाने वाला पश्चिमी फंड बीमे में निवेश जैसा था जो दलाल प्रतिक्रियावादी शासकों के लड़खड़ा जाने की दशा में सुरक्षा कवच का काम करता था। यह स्थिति ‘‘क्रिटिकल’’ एनजीओ के बारे में थी जो फिलिपीन्स में मार्कोस के शासन में दिखाई दी, चीले में पिनोशे के शासनकाल में दिखाई दी, कोरिया में पार्क तानाशाही के दौरान दिखायी दी, और ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
एनजीओ की दिन–दूनी रात–चौगुनी बढ़ोत्तरी ऐसे समय हुई है जब साम्राज्यवादी वर्चस्व को ललकारने व्यापक जनान्दोलन उभरने के संकेत मिल रहे हैं। रैडिकल सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों और संघर्षों ने एक तरह से मुनाफेदार माल प्रस्तुत किया है जिसे भूतपूर्व रैडिकल एवं छद्म लोकप्रेमी बुद्धिजीवी तमाम यूरोपीय और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगमों व सरकारों से करीबी से जुड़े मालदार निजी व सार्वजनिक फाउण्डेशनों के हाथों बेचने में कामयाब रहे। फण्ड दाताओं ने सामाजिक–विज्ञान के क्षेत्र में इस प्रकार की बौद्धिकता में दिलचस्पी दिखायी है, जैसे-‘‘शहरों के निर्धन इलाके में हिंसा की प्रवृत्तियों का अध्ययन’’ (चीले में 1983–86 के जनउभार के दौरान एनजीओ का एक प्रोजेक्ट), जन–समुदायों में घुसपैठ करने और उनकी सारी ऊर्जा सामाजिक रूपान्तरण के बजाय ‘सेल्फ–हेल्प’ (स्वयं–सहायता) प्रोजेक्टों में समेट देने की एनजीओ की क्षमता, तथा ‘‘नये पहचान–मूलक विमर्श’’ में लिपटी हुई वर्ग–सहयोगवादी भाषा–शैली का आविष्कार जो क्रान्तिकारी कार्यकर्ताओं को साखहीन और तितर–बितर करने में मदद करे।
पिछड़े देशों में जनविद्रोहों ने समुद्रपार एजेंसियों की थैलियां ढीली कर दीं; और सत्तर के दशक में इंडोनेशिया, थाईलैण्ड एवं पेरू में, अस्सी के दशक में निकारागुआ, चीले और फिलीप्पींस में तथा नब्बे के दशक में अल सल्वाडोर, ग्वाटेमाला तथा कोरिया में लाखों डालर उड़ेल दिये गये। एनजीओवाले अनिवार्य रूप से वहां ‘‘आग ठण्डी करने’’ के लिए ही थे। रचनात्मक प्रोजेक्टों की आड़ में उन्होंने वैचारिक आन्दोलनों में सम्मिलित होने के विरुद्ध वकालत की। इस प्रकार उन्होंने अपने अनुकूल स्थानीय नेतृत्व की भरती करने, उन्हें विदेशी कांफ्रेंसों में भेजने तथा क्षेत्रीय समूहों को नव उदारवाद की वास्तविकता के अनुरूप ढलने को प्रोत्साहित करने में विदेशी धन का प्रभावी इस्तेमाल किया।
बाहरी माल–मत्ता जैसे–जैसे हाथ लगता गया वैसे–वैसे एनजीओ की तादाद बढ़ती गयी और ये विभिन्न समुदायों को हर छोटी–छोटी बात पर लड़ने वाली जंगखोर जागीरदारियों में बांटकर पुष्पित–पल्लवित होते रहे। हर ‘‘ग्रासरूट ऐक्टिविस्ट’’ ने एक नया एनजीओ स्थापित करने के लिए गरीब–वंचित आबादी के किसी नये हिस्से (स्त्रियां, अल्पसंख्यक समुदायों के युवक, आदि) पर अपना ठीहा जमा लिया, और अपने प्रोजेक्ट, क्रियाकलाप या समाजसेवा क्षेत्र का ‘‘माल बेचने’’ के लिए एम्सटर्डम, स्टाकहोम आदि की तीर्थयात्रा पर निकल पड़ा।
तीसरी घटना जिसमें एनजीओ का मोटापा और भी बढ़ा, तब देखने को मिलती है जब मुक्त बाजार पूंजीवाद के चलते निरन्तर भीषण आर्थिक संकट उभरने लगे। बजट में कटौती के कारण बुद्धिजीवियों, अकादमियों, प्रोफेशनलों के हाथों से नौकरी खिसकती गयी या वेतन कम होते गये जिस कारण दूसरी नौकरी आवश्यकता बन गयी। एनजीओ नौकरी देने की एजेंसी बन गये, और कंसल्टेंसियां उन सम्भावित पतनोन्मुखी बुद्धिजीवियों के लिए सुरक्षा कवच बन गये जो सभ्य समाज-मुक्त बाजार-के वैकल्पिक विकास की भाषा बोलने और नव–उदारवादी शासनतंत्र तथा अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के साथ सांठ–गांठ वाली नीतियां चलाने को आतुर थे। जब लाखों लोग अपनी नौकरियों से हाथ धो बैठते हैं और गरीबी पूरी आबादी के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से तक व्याप्त हो जाती है, तब एनजीओ रोकथाम में जुट जाते हैं : वे ‘‘सर्वाइवल स्टेªटेजी’’ पर केन्द्रित करते हैं, आम हड़तालों पर नहीं : वे मुफ्त लंचपैक के कैम्प आयोजित करते हैं, जमाखोरों, नव–उदारवादी सत्ता अथवा अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ विराट प्रदर्शन नहीं।
तथाकथित ‘‘जनवादी संक्रमण’’ के दौरान जब पुराना तंत्र चरमरा रहा था, भ्रष्ट शासक नियंत्रण खो रहे थे और जन संघर्ष तेजी से उभर रहे थे, उस समय एनजीओ को अपने कामों को थोड़ी–बहुत ‘‘प्रगतिशील’’ रंगत देने का मौका मिल गया। पुरानी सत्ताओं को हटाकर कंजरवेटिव चुनावी राजनीतिज्ञों के लिए रास्ता साफ करने में एनजीओ माध्यम बने, एनजीओ ने अपने ग्रासरूटी शब्दजाल, संगठनात्मक संसाधनों और ‘‘जनवादी’’ मानवाधिकारों के हिमायती की हैसियत का प्रयोग केवल कानूनी राजनीतिक सुधारों के संक्रमण तक सीमित राजनेताओं और पार्टियों के पक्ष में जनसमर्थन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए किया, सामाजिक–आर्थिक परिवर्तनों के लिए नहीं। एनजीओ ने जनसाधारण की लामबन्दी को भंग कर दिया और आन्दोलनों को टुकड़े–टुकड़े में बांट दिया। 1980 के और 1990 के वर्षों में चीले से लेकर फिलीप्पींस, दक्षिण कोरिया और उसके पार तक प्रत्येक देशों में जहां भी ‘‘चुनावी कारोबार’’ सम्पन्न हुआ, एनजीओ ने ऐसे शासकों के पक्ष में वोट बटोरने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई जिन्होंने सामाजिक–आर्थिक यथास्थितिवाद को बरकरार रखा अथवा और भी गहरा बना दिया। बदले में, बहुत सारे पूर्व–एनजीओ संचालक सरकारी एजेंसियां चलाने लगे अथवा जनहितकारी होने का भ्रम पैदा करने वाले वाले विभागों (जैसे महिला अधिकार, जन भागीदारी, जन अधिकारिता आदि) में मंत्री बन गये।
एनजीओ की प्रतिक्रियावादी भूमिका उन्हीं संरचनाओं में निहित है जिन पर वे आधारित हैं।
एन.जी.ओ. ढांचा : भीतर से अभिजात और बाहर से चाटुकार
वस्तुत: एनजीओ ‘‘गैर सरकारी’’ संगठन नहीं हैं। वे विदेशी सरकारों से धन प्राप्त करते हैं, स्थानीय सरकारों के लिए निजी उप–ठेकेदारों के रूप में कार्य करते हैं और राज्य से घनिष्ठ रूप से जुड़ी कारपोरेट घरानों से मिलने वाले धन से संचालित निजी संस्थाओं से आर्थिक मदद प्राप्त करते हैं। निरन्तर और खुल्लमखुल्ला, वे घरेलू विदेशी सरकारी एजेंसियों के साथ सांठ–गांठ करते हैं। उनके प्रोग्राम स्थानीय जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं होते बल्कि विदेशी दाताओं के प्रति उत्तरदायी होते हैं जो अपने स्वयं के मानदंडों और स्वार्थों के अनुरूप एनजीओ के करतबों की ‘‘समीक्षा’’ और ‘‘जांच–परख’’ करते हैं। एनजीओ के पदाधिकारी स्व–नियुक्त होते हैं और उनका प्रमुख कार्य ऐसे प्रस्तावों को गढ़ना होता है जिनसे धन का आवंटन सुगम हो सके। ज्यादातर मामलों में एनजीओ प्रमुखों को उन मुद्दों को तलाशना होता है जो पश्चिमी धनदाताओं की दिलचस्पियों के अनुरूप हों और तदनुसार ही वे प्रस्तावों को आकार देते हैं। (उदाहरणार्थ, भारत में एड्स का मुद्दा-सं–)। इस प्रकार, 1980 के वर्षों में, ‘‘गवर्नेबिलिटी’’ और ‘‘डेमोक्रेटिक ट्रांजिशंस’’ के अध्ययन और राजनीतिक प्रस्ताव तैयार करने के लिए एनजीओ–फंड उपलब्ध हुए-साम्राज्यवादी ताकतों की इस चिन्ता को उजागर करते हुए कि तानाशाहों के पतन से जनान्दोलनों जैसी ‘अन–गवर्नेबिलिटी’ न उत्पन्न हो जाये जो संघर्ष को और गहन बना सकती है। अपने जनवादी और ग्रासरूटी शब्दजाल के बावजूद एनजीओ के भीतर जबर्दस्त पदानुक्रम चलता है-जिसमें डायरेक्टर का प्रोजेक्टों पर पूर्ण नियंत्रण होता है। और वही यह फैसला करता है कि किसे पटखनी देनी है या किसे अन्तरराष्ट्रीय कांफ्रेंसों में जाना है। असली ‘‘ग्रासरूट्स’’ अनिवार्य रूप से इस पदानुक्रम की सबसे निचली पैड़ी पर होते हैं, और ये ‘‘ग्रासरूट्स’’ शायद ही कभी उस पैसे को देख पाते हैं जो ‘‘उनके’’ एनजीओ बटोरकर लाते हैं, न ही उन्हें विदेश यात्रा पर जाने दिया जाता है या न ही वे अपने ‘‘ग्रासरूटी’ लीडरों को मिलने वाले वेतन–भत्ते पाने के बारे में सोच सकते हैं। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इनमें कोई भी निर्णय सामूहिक निर्णय नहीं होता। अधिक से अधिक, जब डायरेक्टर और विदेशी दाताओं के बीच ‘डील’ पक्की हो चुकी होती है, तब एनजीओ का स्टाफ गरीबों के लिए प्रोजेक्ट की स्वीकृति हेतु ‘ग्रासरूट कार्यकर्ताओं’’ की मीटिंग बुलाता है। अधिकांश मामलों में एनजीओ सदस्यता पर आधारित संस्था भी नहीं होते बल्कि एक स्व–नियुक्त अभिजात होते हैं जो जनान्दोलन के लिए ‘‘रिसोर्स पीपुल’’ होने का दिखावा करते हैं, पर वास्तव में ये उनके साथ होड़ करते हैं और उनकी जड़ें खोदते हैं। इस तरह से एनजीओ सामाजिक कार्यक्रमों और आम बहसों को स्थानीय लोगों और उनके बीच से चुने गये नैसर्गिक नेताओं के हाथों से छीनकर और अ–निर्वाचित विदेशी अधिकारियों और उनके द्वारा थोपे गये स्थानीय अधिकारियों पर निर्भरता पैदा करते हुए लोकतंत्र की जड़े खोदते हैं।
एनजीओ एक नये तरह के सांस्कृतिक और आर्थिक उपनिवेशवाद का बढ़ावा दे रहे हैं-नये अन्तरराष्ट्रीयतावाद के छद्मवेश में। हजारों लोग उच्च–शक्तिशाली कम्प्यूटरों के सामने बैठकर आपस में घोषणाओं, प्रस्तावों और अन्तरराष्ट्रीय कांफ्रेंस–निमंत्रणों का आदान–प्रदान करते हैं। तत्पश्चात वे सुसज्जित कांफ्रेंस हालों में अपने ‘‘सामाजिक–आधार’’ के वर्तमान संघर्षों और त्यागों के बारे में चर्चाएं करते हैं-और फिर इनका ‘‘सामाजिक आधार’’ यानी वैतनिक स्टाफ इन प्रस्तावों को ‘‘जनसाधारण’’ तक खूबसूरत रंगीन कागज पर छपे ब्रोशरों और ‘‘बुलेटिनों’’ द्वारा पहुंचाता है। जब विदेशी दाता पधारते हैं तो उन्हें ‘‘एक्सपोजर टूर’’ पर ले जाया जाता है जहां वे ऐसे शो–केस प्रोजेक्टों का निरीक्षण करते हैं जिसमें गरीब अपनी सहायता स्वयं कर रहा होता है तथा कामयाब लघु उद्यमियों से बातचीत करते हैं (उन बहुसंख्यकों की अनदेखी करते हुए जो पहले ही साल असफल हो जाते हैं)।
जिस तरीके से यह नया उपनिवेशवाद कार्य कर रहा है, उसकी जटिलताओं को समझ पाना कठिन नहीं है। सभी प्रोजेक्ट साम्राज्यवादी केन्द्रों और उनकी संस्थाओं द्वारा निधारित गाइडलाइन और प्राथमिकताओं के आधार पर परिकल्पित किये जाते हैं। उसके बाद वे समुदायों को ‘‘बेचे’’ जाते हैं। आकलन साम्राज्यवादी संस्थाओं द्वारा और उन्हीं के लिए किया जाता है। धनावंटन की प्राथमिकताएं बदलीं अथवा गलत आकलन हुआ तो समूहों, समुदायों, किसानों और सहकारिताओं को बेहिचक अधर में छोड़ दिया जाता है। दाताओं की अपेक्षाओं और उनके प्रोजेक्ट–आकलनकर्ताओं के आज्ञापालन के लिए हर व्यक्ति को उत्तरोत्तर अनुशासित बनाया जाता है। एनजीओ डायरेक्टर नये वायसरायों की तरह धन के सदुपयोग का निरीक्षण करते हैं और दाताओं के उद्देश्यों, मूल्यों और सिद्धान्त के साथ अनुरूपता सुनिश्चित करते हैं।
एनजीओ बनाम रैडिकल सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलन
एनजीओ प्रोजेक्टों पर बल देते हैं, आन्दोलनों पर नहीं। वे लोगों को हाशिये पर रखकर उत्पादन करने के लिए ‘‘लामबन्द’’ करते हैं, उत्पादन और सम्पत्ति के मूल साधनों को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष के वास्ते नहीं। वे प्रोजेक्टों की तकनीकी और वित्तीय–सहायता के दृष्टिकोण पर केन्द्रित होते हैं, उनके संरचनात्मक पहलुओं पर नहीं जिनसे लोगों की रोजमर्रा की जिन्दगी निर्धारित होती है। एनजीओ वामपंथी भाषा को सहयोजित (कोआप्ट) करते हैं-‘‘जन–शक्ति’’ (पापुलर पावर), ‘‘अधिकार प्राप्ति’’ (एम्पावरमेंट), ‘‘यौन–समानता’’ (जेंडर इक्वैलिटी) ‘‘टिकाऊ विकास’’ (सस्टेनेबल डेवलपमेण्ट), ‘‘नीचे से नेतृत्व पैदा करने’’ (बाटम–अप लीडरशिप) आदि। समस्या यह है कि इस भाषा को दाताओं और सरकारी एजेंसियों के साथ गंठजोड़ के उस फ्रेमवर्क से जोड़ दिया गया है, जो संघर्ष की राजनीति के विरोध के प्रति समर्पित है। एनजीओ के क्रियाकलाप की स्थानीय प्रवृत्ति का कुल अभिप्राय यह है कि ‘‘एम्पावरमेंट’’ कभी भी सीमित संसाधनों से युक्त सामाजिक जीवन के एक छोटे से क्षेत्र को प्रभावित करने से आगे नहीं जाता एवं हमेशा उसी सीमा में रहता है जो नव–उदारवादी सत्ता और वृहत–अर्थव्यवस्था (मैक्रो इकॉनमी) द्वारा रेखांकित की जाती है।
एनजीओ और उनके प्रोफेशनल स्टाफ गरीबों, महिलाओं, जातीय उपेक्षितों आदि में अपना प्रभाव जमाने के लिए सीधे सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के साथ होड़ करते हैं। उनकी विचारधारा और कार्यप्रणाली गरीबी के स्रोतों और उसके समाधानों की ओर से ध्यान हटा देते हैं (ऊपर और बाहर की ओर देखने के बजाय नीचे और भीतर की ओर देखते हुए) और सूक्ष्म उद्यमों (माइक्रो– इण्टरप्राइजेज) के तो क्या कहने! विदेशी बैंकों द्वारा शोषण के समापन के स्थान पर, गरीबी का समाधान उनकी इस गलत धारणा पर आधारित है कि मुख्य समस्या लोगों की व्यक्तिगत पहलकदमी (इनिशियेटिव) की है न कि देश की आमदनी के विदेशों में स्थानान्तरण की। एनजीओ को मिलने वाली ‘‘आर्थिक मदद’’ सीमित संसाधनों के लिए समुदायों के बीच प्रतिस्पर्धा पैदा करते हुए, विश्वासघाती भेदभाव तथा अन्योन्य साम्प्रदायिक व अन्तर– साम्प्रदायिक प्रतिद्वंद्विता पैदा करते हुए, और वर्गीय अखंडता को खंडित करते हुए आबादी के छोटे–छोटे सेक्टरों को प्रभावित करती है। यही बात प्रोफेशनलों के लिए भी सही उतरती है : ये विदेशी फंड मांगने के लिए अपने–अपने एनजीओ बनाते हैं। वे विदेशी दाताओं की रुचियों से अधिकतम मिलता–जुलता प्रस्ताव प्रस्तुत करने, कम खर्चे और अधिक से अधिक समर्थकों की ओर से बोलने का दावा करते हुए आपस में होड़ करते हैं। इसका कुल परिणाम एनजीओ की तादाद में भारी बढ़ोत्तरी के रूप में होता है जो गरीब समुदायों को खंडीय और उपखंडीय समूहों में बांटते हैं ताकि वे उस वृहत्तर सामाजिक परिदृश्य को देखने में अक्षम हो जायें जो उनके कष्टों के लिए जिम्मेदार है और व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष के लिए एकजुट होने में और भी कम समर्थ हो सकें।
ताजा अनुभव भी यही प्रमाणित करते हैं कि विदेशी दाता ‘‘संकटों’’ (यथास्थिति के विरुद्ध राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियां) के समय प्रोजेक्टों को फायनेंस करते हैं। एक बार जब आन्दोलन शान्त हो जाते हैं, तो वे अपने फंड को एनजीओ/सत्ता ‘‘गठबन्धन’’ की ओर परिवर्तित कर देते हैं-एनजीओ प्रोजेक्टों को नव–उदारवादी एजेण्डा में समाहित करते हुए। सामाजिक परिवर्तन के लिए सामाजिक संगठन की बजाय ‘‘मुक्त बाजार’’ के हित में, आर्थिक विकास फंडिंग एजेण्डे का मुख्य विषय बन जाता है।
एनजीओ के ढांचे और इसकी प्रकृति अपनी ‘‘गैर–राजनीतिक’’ भाव–भंगिमा और स्वयं–सहायता पर अपने फोकस के द्वारा गरीबों को विघटित कर रहे हैं और उन्हें राजनीति के प्रति निष्क्रिय कर रहे हैं। वे नव–उदारवादी पार्टियों और जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रोत्साहित की जा रही चुनावी प्रक्रियाओं को मजबूत बनाते हैं। साम्राज्यवाद के स्वरूप, नव–उदारवाद के वर्गीय आधार और निर्यातकों व अस्थायी मजदूरों के बीच वर्ग–संघर्ष के बारे में राजनीतिक शिक्षा से बचा जाता है। इसके बजाय, एनजीओ ‘‘बहिष्कृत’’, ‘‘निर्बल’’, ‘‘अतिशय गरीबी’’ और ‘‘यौनिक व साम्प्रदायिक विभेदीकरण’’ की बात करते हैं, पर उस सामाजिक व्यवस्था के ऊपरी लक्षणों के दायरे से बाहर कभी नहीं जाते जिसने ऐसी परिस्थितियां निर्मित की हैं। गरीबों को नव–उदारवादी अर्थव्यवस्था में विशुद्ध ‘‘निजी स्वैच्छिक कार्रवाई’’ द्वारा समेटते हुए, एनजीओ एक ऐसा राजनीतिक साम्राज्य स्थापित कर रहे हैं जहां एकजुटता और सामाजिक कार्रवाई का दिखावा अन्तरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय सत्ता–तंत्र के साथ अनुदारवादी अनुरूपता पर परदा डाल देता है।
यह कोई संयोग की बात नहीं कि जैसे–जैसे एनजीओ किसी इलाके में प्रभावी होते जाते हैं, स्वतंत्र वर्गीय राजनीतिक कार्रवाई कमजोर हुई और नव–उदारवाद निर्विरोध होता गया। वास्तविकता यह है कि एनजीओ की बढ़ोत्तरी का नव–उदारवादियों की बढ़ी हुई फंडिंग और गरीबी की भीषणता में चौतरफा वृद्धि के साथ सीधा सम्बन्ध है। इनके इलाकों में स्थानीय सफलताओं के तमाम दावों के बावजूद नव–उदारवाद की सारी शक्ति चुनौतीविहीन खड़ी है और एनजीओ सत्ता की हर दरार में अपनी पैठ बनाने में लगे हुए हैं।
विकल्पों को सूत्रित करने की समस्या दूसरे तरीके से बाधित हुई है। गुरिल्ला और सामाजिक आन्दोलनों, ट्रेड यूनियनों तथा लोकप्रिय महिला संगठनों के पूर्व लीडरों को एनजीओ द्वारा सहयोजित कर लिया जाता है। और प्रस्ताव काफी लुभावना होता है : उच्च वेतन (यदाकदा विदेशी मुद्रा में) विदेशी दाताओं द्वारा प्रतिष्ठा और पहचान, विदेशों में कांफ्रेंस और नेटवर्क, आफिस के स्टाफ और सगे–सम्बन्धियों को किसी भी दमन से सुरक्षा। इसके विपरीत, सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलन भले ही मात्र थोड़े से भौतिक लाभ की संभावना पेश करते हैं लेकिन उच्चतर सम्मान व स्वतंत्रता तथा, और भी महत्त्वपूर्ण, राजनीतिक–आर्थिक तंत्र को चुनौती देने की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। एनजीओ और उनके विदेशी बैंकिंग सहयोगी (दि इंटर अमेरिकन बैंक, दि एशियन बैंक, दि वर्ल्ड बैंक) सूक्ष्म उद्यमों व अन्य स्वयं–सहायता प्रोजेक्टों की सफलताओं के वृतान्तों के फीचरों से भरे न्यूजलेटर प्रकाशित करते हैं, बिना इसका जिक्र किये कि उपभोग में व्यापक गिरावट के रूप में असफलताओं की संख्या बढ़ी है, अल्प दरों पर आयात से बाजार भर गया है और ब्याज दरें बढ़ती रही हैं-जैसा कि 1990 के वर्षों में ब्राजील व इंडोनेशिया में घटित हुआ।
यहां तक कि ‘‘सफलताएं’’ गरीबों के एक बहुत ही छोटे हिस्से को प्रभावित करती हैं और केवल उस हद तक सफल होती हैं कि उसी बाजार में दूसरे घुसने न पायें। जबकि, इस भ्रम के पोषण में कि नव–उदारवाद एक सार्वजनिक घटना है, व्यक्तिगत सूक्ष्म उद्यमों की सफलता का प्रचारात्मक मूल्य महत्त्वपूर्ण है। सूक्ष्म उद्यम प्रवर्तन के इलाकों में बारबार हिंसात्मक विस्फोट बताते हैं कि उनके विचार हावी नहीं हो पाये हैं और यह भी कि एनजीओ स्वतंत्र वर्गीय आन्दोलनों को अभी तक बेदखल नहीं कर पाये हैं।
एनजीओ की विचारधारा मूलत: पहचान की राजनीति पर आधारित होती है जो वर्ग विश्लेषण पर आधारित रैडिकल आन्दोलनों के साथ बेईमानीभरा वाद–विवाद चलाती है। वे इस गलत धारणा से प्रारम्भ करते हैं कि वर्ग विश्लेषण ‘‘अपचयनवादी’’ (रिडक्शनिस्ट) है और मार्क्सवाद के भीतर नस्ली, साम्प्रदायिक और यौन–समानता के सवालों पर हुए लम्बे बहस–मुबाहसों को अनदेखा कर देते हैं। इससे भी बढ़कर, वे इस मीमांसा को टाल जाते हैं कि विभिन्न पहचानें खुद वर्ग–भेदों द्वारा स्पष्टता और गहनता के साथ विभाजित हैं। उदाहरण के लिए पॉश इलाके में रहने वाली चीले या भारत की नारीवादियों को ही लीजिए जो अपने घरेलू नौकरों की तुलना में पन्दह से बीस गुना ज्यादा वेतन पाती हैं जबकि वे हफ्ते में छ: या सातों दिन काम करते हैं। एक यौन–समूह के भीतर ही वर्ग–भेद आवासीय, रहन–सहन का स्तर, स्वास्थ्य, तथा शिक्षा के अवसरों को निर्धारित करता है और इस बात को कि बेशी मूल्य को कौन हड़पेगा। फिर भी, अधिसंख्य एनजीओ पहचान की राजनीति (आइडेन्टिटी पालिटिक्स) के आधार पर संचालन कर रहे हैं और तर्क देते हैं कि नई व उत्तर–आधुनिक राजनीति के लिए यह प्रस्थान बिन्दु है। पहचान की राजनीति आई.एम.एफ. निर्देशित निजीकरण, बहुराष्ट्रीय कारपोरेशनों और स्थानीय भू–स्वामियों के पुरुष–प्रधान अभिजात विश्व को चुनौती नहीं देती है। बल्कि, परिवार में ‘‘पितृसत्ता’’, पारिवारिक हिंसा, तलाक, परिवार–नियोजन आदि पर ही ध्यान केन्द्रित करती है। दूसरे शब्दों में यह शोषितों के उस सूक्ष्म–संसार के भीतर यौन–समानता के लिए लड़ती है जिसमें शोषित और कंगाल पुरुष मजदूर या किसान मुख्य खलनायक के रूप में उभरता है। यद्यपि यौन–भेदभाव या शोषण को किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं दिया जाना चाहिए, फिर भी नारीवादी एनजीओ ने घोर शोषण वाले कमरतोड़ कामों में कामकाजी महिलाओं को लगाकर उनका काफी अनिष्ट किया है, जिसमें उच्च वर्ग के पुरुषों और महिलाओं को, किराया वसूलने वाले पुरुष व महिला भू–स्वामियों को और पुरुष तथा महिला सीईओ को मुनाफा मिलता है। नारीवादी एनजीओ ‘‘विस्तृत परिदृश्य’’ की उपेक्षा करते हैं और स्थानीय मुद्दों तथा व्यक्तिगत राजनीति पर केन्द्रित होते हैं, इसका कारण यह है कि, प्रतिवर्ष अरबों डालर उसी दिशा में प्रवाहित होते हैं। यदि नारीवादी एनजीओ ब्राजील, इंडोनेशिया, थाईलैण्ड या फिलीप्पींस में भूमिहीन पुरुष व महिला मजदूरों के साथ मिलकर खेतों पर कब्जा करने लगें, अथवा ढांचागत समायोजन नीतियों के विरुद्ध मुख्यतया अल्पवेतन भोगी ग्रामीण स्कूलों की महिला टीचरों की आम हड़तालों में शामिल होने लगें, तब उनके साम्राज्यवादी दाताओं द्वारा एनजीओ का रसद–पानी बन्द कर दिया जायेगा। सो बेहतर यही रहेगा कि लुजों के किसी दूर–दराज के गांव में किसी तरह गुजर–बसर कर रहे स्थानीय मुखिया की पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष में उलझाये रखा जाये।
वर्ग एकजुटता बनाम विदेशी दाताओं के साथ एनजीओ एकजुटता
‘‘एकजुटता’’ शब्द के साथ इतनी बदसलूकी की गयी है कि इसका चेहरा ही बदल गया है। एनजीओ संचालकों के लिए ‘‘एकजुटता’’ पद विदेशी मदद लिये होता है और किसी भी लक्षित ‘‘साधनहीन’’ वर्ग तक प्रवाहित होता है। प्रोफेशनलों द्वारा गरीबों पर ‘‘रिसर्च’’ या ‘‘पापुलर एजूकेशन’’ ‘‘एकजुटता’’ कहलाती है। कई मामलों में ‘‘एड’’ और ‘‘ट्रेनिंग’’ के संचारण के तंत्रात्मक ढांचे और तरीके उन्नीसवीं सदी की चैरिटी से मेल खाते हैं, और इसके प्रमोटर्स क्रिश्चियन मिशनरियों से बहुत भिन्न नहीं हैं।
एनजीओ संचालक सत्ता के ‘‘पैतृकवाद और निर्भरता पर आक्रमण करने में ‘‘स्वयं–सहायता’’ पर बल देते हैं। नवउदारवाद के शिकार लोगों को अधिग्रहीत करने के लिए एनजीओ के बीच की प्रतिद्वंद्विता में वे यूरोप और अमेरिका में बैठे अपनी दाता संस्थाओं से महत्त्वपूर्ण सब्सिडी प्राप्त करते हैं। स्वयं–सहायता की विचारधारा सरकारी कर्मचारियों का स्थान उन स्वयंसेवकों और ऊर्ध्वगामी प्रोफेशनलों द्वारा लिये जाने पर बल देती है, जो अस्थायी तौर पर अनुबन्धित किये जाते हैं। एनजीओ का मौलिक दर्शन है, ‘‘एकजुटता’’ को नवउदारवाद की वृहत–अर्थव्यवस्था के साथ गंठजोड़ और मातहती में बदल देना-धनिक वर्गों के राजकीय संसाधनों से ध्यान हटाकर गरीबों के स्व–शोषण की ओर करते हुए।
इसके विपरीत, मार्क्सवाद वर्ग के भीतर वर्गीय एकता (एकजुटता) तथा देशी–विदेशी शोषकों के विरुद्ध दबे–कुचले लोगों (महिलाएं, अश्वेत) की एकजुटता पर बल देता है। मुख्य ध्यान ‘‘डोनेशनों’’ पर नहीं केन्द्रित होता है जो वर्गों को विभाजित करते हैं और छोटे–छोटे समूहों को एक सीमित अवधि के लिए शान्त कर देते हैं। एकजुटता की मार्क्सवादी अवधारणा वर्ग के सदस्यों की साझा कार्रवाई पर केन्द्रित होती है-समान आर्थिक दुर्दशा को झेलते हुए और सामूहिक सुधार के लिए संघर्ष करते हुए। यह उन बुद्धिजीवियों को समाहित करती है जो संघर्ष में सामाजिक आन्दोलनों के लिए लिखते और बोलते हैं और जो उन्हीं राजनीतिक परिणामों में सहभागिता के लिए वचनबद्ध हैं। एकजुटता की अवधारणा ‘‘अंगभूत’’ बुद्धिजीवियों से जुड़ी होती है जो बुनियादी रूप से आन्दोलन के हिस्से होते हैं, वर्ग–संघर्ष के लिए विश्लेषण और शिक्षा उपलब्ध कराते हैं और सीधी कार्रवाई में सबके साथ राजनीतिक खतरों को मोल लेते हैं। इसके विपरीत एनजीओ संचालक संस्थाओं, अकादमिक सेमिनारों, विदेशी फाउण्डेशनों तथा अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों के संसार के साथ नाभिनालबद्ध होते हैं, जो ऐसी भाषा का प्रयोग करते हैं जिसे वही समझ सकते हैं और जो मूलभूत पहचानों के आत्मवादी पंथ में ‘‘दीक्षित’’ होते हैं। मार्क्सवादी, एकजुटता को वर्गीय राजनीतिक आन्दोलनों के खतरों में बराबर भागीदारी के रूप में देखते हैं, उन बाहरी समालोचकों की तरह नहीं जो सवालों को उठाते तो हैं पर प्रतिवाद कुछ नहीं करते। एनजीओ संचालकों का मूल उद्देश्य अपने ‘‘प्रोजेक्ट’’ के लिए विदेशी फंड ‘‘हथियाना’’ होता है। मार्क्सवादियों के लिए मुख्य मुद्दा होता है-सामाजिक बदलाव लाने के लिए राजनीतिक संघर्ष और शिक्षा की प्रक्रिया। आन्दोलन ही सब कुछ है, यानी सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्य की चेतना जागृत करने का साधन और ऐसी राजनीतिक सत्ता का निर्माण करना जो बहुसंख्यक जनता की दशा सुधार के लिए समर्पित हो।
एनजीओ संचालकों के लिए, ‘‘एकजुटता’’ मुक्ति के सामान्य उद्देश्य से बिछुड़ चुकी है। यह मात्र लोगों को किसी नौकरी पर लगने, सेमिनार के पुनर्प्रशिक्षण अथवा शौचालय निर्माण के लिए एकत्र करने का रास्ता है। मार्क्सवादियों के लिए, सामूहिक संघर्ष की एकजुटता में भावी जनवादी समूहवादी समाज के बीज छुपे होते हैं। व्यापक दूरदर्शिता अथवा इसका अभाव ही ‘‘एकजुटता’’ के स्वरूप को तय करता है।
वर्ग संघर्ष और सहयोग
एनजीओ संचालक नव–उदारवादी शासन तंत्रों और विदेशी फंडिंग एजेसियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए वांछित कीमतों और शर्तों के भवसागर में बिना गहराई में डुबकी लगाये ही प्रत्येक के सर्वत्र ‘‘सहयोग’’ के बारे में बकते रहते हैं। वर्ग संघर्ष को अतीत के आदि–मानव कालीन संघर्षों के रूप में देखा जाता है जो अब अस्तित्व में ही नहीं है। आज हमें बताया जाता है कि ‘‘गरीब’’ नवजीवन के निर्माण के लिए कृतसंकल्प हैं। वे पारम्परिक राजनीति, सिद्धान्त और राजनेताओं से ऊब चुके हैं। बहुत ठीक। पर समस्या यह है कि मध्यस्थों और दलालों के रूप में विदेशी फंड हथियाने में एनजीओ संचालक अपनी भूमिका बहुत कम उद्घाटित करते हैं। सहयोग, सूक्ष्म उद्यम और स्वयं–सहायता का वर्षों उपदेश देते रहने के बाद भी आमदनी का संकेन्द्रण और विषमताओं में बेतहाशा वृद्धि पहले से बहुत ज्यादा है। आज विश्वबैंक सरीखे बैंकों द्वारा कृषि–व्यवसायों के निर्यात पर माइक्रो–प्रोजेक्टों को फंड दिया जाता है जो खेतिहर मजदूरों को शोषित और विषाक्त करता है। माइक्रो–प्रोजेक्टों में एनजीओ की भूमिका निचले स्तर पर उठते हुए राजनीतिक विरोधों का शमन करना होता है जबकि उपरी स्तर पर नव–उदारवाद को बढ़ावा दिया जाता है। सहयोग की विचारधारा लाचार लोगों को, एनजीओ के माध्यम से, उच्चस्थ नवउदारवादियों से जोड़ती है।
बौद्धिक रूप से एनजीओ बुद्धिजीवी थानेदार होते हैं जो ‘‘स्वीकार्य’’ रिसर्च को परिभाषित करते हैं, रिसर्च फंडों का वितरण करते हैं तथा उन प्रकरणों और परिदृश्यों को रेखांकित करते हैं जो वर्ग विश्लेषण और संघर्ष परिदृश्य को प्रक्षेपित करता है। मार्क्सवादी कांफ्रेंसों से अलग रखे जाते हैं और ‘‘सिद्धान्तानुयायी’’ के रूप में कलंकित किये जाते है; जबकि एनजीओ अपने–आपको ‘‘सामजिक वैज्ञानिकों’’ के रूप में प्रस्तुत करते हैं। बुद्धिजीवी फैशन, प्रकाशनों, कांफ्रेंसों और रिसर्च फंडों पर नियंत्रण उत्तर–मार्क्सवादियों को एक महत्त्वपूर्ण शक्ति–पीठ प्रदान करता है, लेकिन अन्ततोगत्वा अपने बाहरी धन–दाताओं के साथ हमेशा किसी झगड़ा–लड़ाई को टालते रहने के लिए सतर्क रहना पड़ता है।
मार्क्सवादी बुद्धिजीवी आलोचक इस तथ्य से मजबूती प्राप्त करते हैं कि उनके विचार सामाजिक वास्तविकताओं के उद्भव से अनुनादित होते हैं। वर्गों का ध्रुवीकरण और हिंसक मुकाबले बढ़ते जा रहे हैं, जैसाकि उनके सिद्धान्त पूर्वसूचित करते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में मार्क्सवादी एनजीओ के सामने व्यवहारत: कमजोर हैं जबकि रणनीतिक तौर पर मजबूत।
वैकल्पिक एनजीओ
कोई तर्क दे सकता है कि बहुत सारे अलग प्रकार के एनजीओ हैं ओर उनमें से कई समायोजन नीतिकों, आई एम एफ, ऋण भुगतानेां आदि के विरुद्ध संगठित होते हैं और विरोध करते हैं और यह कि सबको एक ही श्रेणी में रखना अनुचित है। इसमें सच्चाई के कुछ कण अवश्य हैं, परन्तु यह अवस्थिति एक बहुत ही मौलिक मुद्दे को सारगर्भित करती है। एशिया और लातिन अमेरिका के किसान नेताओं का उल्लेख करना समीचीन होगा जिनके साथ, यहां तक कि, ‘प्रगतिवादी’ एनजीओ भी ‘फूट डालो और राज करो’ वाली भूमिका अदा करते हैं : एनजीओ किसान नेताओं को अपने संगठनों में मातहती भूमिका में रखना चाहते हैं और गरीबों का नेतृत्व करना चाहते हैं तथा उनके लिए बोलने का स्वांग रचते हैं। पर वे मातहत भूमिका स्वीकार नहीं करते। प्रगतिवादी एनजीओ किसानों और गरीबों को अपने रिसर्च–प्रोजेक्टों के लिए इस्तेमाल करते हैं और उनके प्रकाशन से लाभ कमाते हैं। उन तक कुछ भी वापस नहीं आता, उनके नाम पर किये गये अध्ययनों की प्रतियां भी नहीं! अपितु, किसान नेता पूछते हैं कि एनजीओ शैक्षिक सेमिनारों के बाद कभी भी अपना गला क्यों नहीं फंसाते? वे धनी और शक्तिशाली लोगों का अध्ययन क्यों नहीं करते? हमारा ही क्यों?
यह मान लेने पर भी कि ‘‘प्रगतिवादी एनजीओ’’ के भीतर ही कुछ ऐसे अल्पसंख्यक हैं जो कि सुधारवादी सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के लिए ‘‘रिसोर्स पर्सन’’ का काम करते हैं, वास्तविकता यह है कि एनजीओ तक जाने वाले फंडों का एक तुच्छ भाग ही लोगों को मिल पाता है। इसके अतिरिक्त, एनजीओ का विशाल समूह उपरोक्त रेखांकित विवरण में सटीक बैठता है। मात्र कुछ अपवाद हो सकते है जो अन्यथा सिद्ध हों। ‘‘प्रगतिवादी एनजीओ’’ के लिए एक बड़ा प्रगतिवादी कदम यह है कि वे अपने सहकर्मियों की साम्राज्यवाद व इसके देशी गुर्गों के साथ गंठजोड़ों, सत्तावादी–विशिष्टवादी तंत्रों की विधिवत आलोचना और समालोचना करें। तब उनके लिए अपने पश्चिमी समकक्षी–एनजीओ को यह कहना अर्थपूर्ण होगा कि वे संस्था/सरकारी तंत्रों से बाहर निकल जायें और यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के अपने ही लोगों को संगठित और शिक्षित करने के लिए वापस चले जायें तथा ऐसे सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलन खड़े करें जो उन प्रभावी सत्ताओं और पार्टियों को चुनौती दे सकें जो सिर्फ बैंकों और बहुराष्ट्रीय निगमों का हित साधन करती हैं।
दूसरे शब्दों में एनजीओ को एनजीओ होने से बाज आना चाहिए और अपने को सामाजिक–राजनीतिक आन्दोलनों के सदस्यों के रूप में परिवर्तित करना चाहिए। यही एक रास्ता है जिससे वे उन लाखों एनजीओ के झुंड में फंसने से बच सकते हैं जो दाताओं का पेटा भरने का काम करते हैं।
निष्कर्ष : एनजीओ के सिद्धान्त पर
संरचना के लिहाज से एनजीओ एक नये पेटी–बुर्जुआ वर्ग के जन्म को प्रतिबिम्बित करते हैं जो ‘‘पुराने’’ दुकानदारों, स्वतंत्रपेशा व्यक्तियों और ‘‘नये’’ सरकारी कर्मचारी समूहों से भिन्न हैं। यह उपठेके वाला क्षेत्र पहले के ‘‘दलाल’’ बुर्जुआ के निकट है, क्योंकि यह कोई वास्तविक माल नहीं उत्पादित करता, लेकिन साम्राज्यवादी उद्यमों को उन स्थानीय उप माल–उत्पादकों के साथ सटाने का काम करता है जो सूक्ष्म उद्यमों में संलग्न हैं। यह नया पेटी–बुर्जुआ इस तथ्य से चिह्नित होता है कि उसमें बहुत से पूर्व–मार्क्सवादी हैं जो एक ‘‘प्रचलित शब्दांडम्बर’’ और कुछ मामलों में विशिष्टवादी, ‘‘हरावल पन्थी’’ अवधारणा अपने साथ लेकर आते हैं। बिना किसी सम्पत्ति अथवा सत्ता में किसी निश्चित पद पर आसीन हुए, यह नया वर्ग अपनी वंशवृद्धि के लिए बाहरी फंडिंग पर बहुत अधिक निर्भर होता है। लेकिन जनता में इन्हें मार्क्सवाद–विरोधी और सत्ता–विरोधी नारों को जनवादी शब्दाडम्बरों से संयुक्त करना होता है-परिणामत: ‘‘तीसरे रास्ते’’ और ‘‘सभ्य समाज’’ की अवधारणा का सूत्रपात होता है जो दोनों धड़ों को समेटने के लिए पर्याप्त रूप से अस्पष्टतापूर्ण होता है। यह नया पेटी–बुर्जुआ अपने अस्तित्व के लिए अन्तरराष्ट्रीय जलसों में भागीदारी पर खास भरोसा करता है, जबकि अपने ही देश में इसका कोई ठोस सांगठनिक आधार नहीं होता। ‘‘भूमण्डलवादी’’ नारा एक प्रकार के नकली ‘‘अन्तरराष्ट्रीयतावाद’’ पर पर्दा डालता है जो साम्राज्यवाद विरोधी संकल्पों से रिक्त होता है। संक्षेप में, यह नया पेटी–बुर्जुआ नव–उदारवावदी प्रतिष्ठान का ‘‘सुधारवादी विंग’’ बनता है।
राजनीतिक रूप से एनजीओ साम्राज्यवादी –रणनीतिवादी नये विचारों में सही बैठते हैं। एक तरफ जहां आई.एम.एफ.–विश्व बैंक और बहुराष्ट्रीय निगम अर्थव्यवस्था को लूटने के लिए घरेलू अभिजातों के साथ उच्च स्तर पर कार्य कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एनजीओ निचले स्तर पर सम्पूरक क्रियाओं में व्यस्त रहते हैं-उस उभरते असन्तोष को निष्क्रिय और विखंडित करते हुए जो अर्थव्यवस्था की बर्बरता से पैदा होता है। जिस प्रकार साम्राज्यवाद शोषण और विरोधनीति की दोधारी मैक्रो व माइक्रो स्ट्रेटजी का प्रयोग कर रहा है, उसी प्रकार रैडिकल आन्दोलनों को दोधारी साम्राज्यवाद विरोधी रणनीति निर्मित करनी होगी।
एनजीओ ने उन तमाम लोगों को अपने में समा लिया है जो ‘‘फ्री फ्लोटिंग’’ बुद्धिजीवी हुआ करते थे और अपने वर्ग स्रोतों का परित्याग कर जनान्दोलनों में शामिल होते थे। परिणामत: पूंजीवाद के गहरे संकटों (एशिया और लातिन अमेरिका में मन्दी का दौर, पूर्व सोवियत संघ का विघटन) और सार्थक संगठित क्रान्तिकारी आन्दोलनों के बीच एक अस्थाई खाई पैदा हो गयी-सिर्फ ब्राजील, कोलम्बिया और संभवत: दक्षिण कोरिया इसके अपवाद कहे जा सकते हैं। मौलिक प्रश्न यह है कि क्या अंगभूत बुद्धिजीवियों की नई पीढ़ी इन रैडिकल सामाजिक आन्दोलनों से प्रकट हो सकती है, एनजीओ के प्रलोभनों से दूर रह सकती है और क्या वह अगली क्रान्तिकारी लहर का अभिन्न हिस्सा बन सकती है।
अनुवाद : सी.एल. गुप्ता
दायित्वबोध, वर्ष 8, अंक 2-3, अक्टूबर 2001-मार्च 2002